विक्रमादित्य का तेगा
मुंशी प्रेमचंद
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जन्म
प्रेमचन्द का जन्म ३१ जुलाई सन् १८८० को बनारस शहर से चार मील दूर लमही गाँव में हुआ था। आपके पिता का नाम अजायब राय था। वह डाकखाने में मामूली नौकर के तौर पर काम करते थे।
जीवन
धनपतराय की उम्र जब केवल आठ साल की थी तो माता के स्वर्गवास हो जाने के बाद से अपने जीवन के अन्त तक लगातार विषम परिस्थितियों का सामना धनपतराय को करना पड़ा। पिताजी ने दूसरी शादी कर ली जिसके कारण बालक प्रेम व स्नेह को चाहते हुए भी ना पा सका। आपका जीवन गरीबी में ही पला। कहा जाता है कि आपके घर में भयंकर गरीबी थी। पहनने के लिए कपड़े न होते थे और न ही खाने के लिए पर्याप्त भोजन मिलता था। इन सबके अलावा घर में सौतेली माँ का व्यवहार भी हालत को खस्ता करने वाला था।
शादी
आपके पिता ने केवल १५ साल की आयू में आपका विवाह करा दिया। पत्नी उम्र में आपसे बड़ी और बदसूरत थी। पत्नी की सूरत और उसके जबान ने आपके जले पर नमक का काम किया। आप स्वयं लिखते हैं, ष्उम्र में वह मुझसे ज्यादा थी। जब मैंने उसकी सूरत देखी तो मेरा खून सूख गया।.......ष् उसके साथ — साथ जबान की भी मीठी न थी। आपने अपनी शादी के फैसले पर पिता के बारे में लिखा है ष्पिताजी ने जीवन के अन्तिम सालों में एक ठोकर खाई और स्वयं तो गिरे ही, साथ में मुझे भी डुबो दियारू मेरी शादी बिना सोंचे समझे कर डाली।ष् हालांकि आपके पिताजी को भी बाद में इसका एहसास हुआ और काफी अफसोस किया।
विवाह के एक साल बाद ही पिताजी का देहान्त हो गया। अचानक आपके सिर पर पूरे घर का बोझ आ गया। एक साथ पाँच लोगों का खर्चा सहन करना पड़ा। पाँच लोगों में विमाता, उसके दो बच्चे पत्नी और स्वयं। प्रेमचन्द की आर्थिक विपत्तियों का अनुमान इस घटना से लगाया जा सकता है कि पैसे के अभाव में उन्हें अपना कोट बेचना पड़ा और पुस्तकें बेचनी पड़ी। एक दिन ऐसी हालत हो गई कि वे अपनी सारी पुस्तकों को लेकर एक बुकसेलर के पास पहुंच गए। वहाँ एक हेडमास्टर मिले जिन्होंने आपको अपने स्कूल में अध्यापक पद पर नियुक्त किया।
शिक्षा
अपनी गरीबी से लड़ते हुए प्रेमचन्द ने अपनी पढ़ाई मैट्रिक तक पहुंचाई। जीवन के आरंभ में आप अपने गाँव से दूर बनारस पढ़ने के लिए नंगे पाँव जाया करते थे। इसी बीच पिता का देहान्त हो गया। पढ़ने का शौक था, आगे चलकर वकील बनना चाहते थे। मगर गरीबी ने तोड़ दिया। स्कूल आने — जाने के झंझट से बचने के लिए एक वकील साहब के यहाँ ट्यूशन पकड़ लिया और उसी के घर एक कमरा लेकर रहने लगे। ट्यूशन का पाँच रुपया मिलता था। पाँच रुपये में से तीन रुपये घर वालों को और दो रुपये से अपनी जिन्दगी की गाड़ी को आगे बढ़ाते रहे। इस दो रुपये से क्या होता महीना भर तंगी और अभाव का जीवन बिताते थे। इन्हीं जीवन की प्रतिकूल परिस्थितियों में मैट्रिक पास किया।
साहित्यिक रुचि
गरीबी, अभाव, शोषण तथा उत्पीड़न जैसी जीवन की प्रतिकूल परिस्थितियाँ भी प्रेमचन्द के साहित्य की ओर उनके झुकाव को रोक न सकी। प्रेमचन्द जब मिडिल में थे तभी से आपने उपन्यास पढ़ना आरंभ कर दिया था। आपको बचपन से ही उर्दू आती थी। आप पर नॉवल और उर्दू उपन्यास का ऐसा उन्माद छाया कि आप बुकसेलर की दुकान पर बैठकर ही सब नॉवल पढ़ गए। आपने दो — तीन साल के अन्दर ही सैकड़ों नॉवेलों को पढ़ डाला।
आपने बचपन में ही उर्दू के समकालीन उपन्यासकार सरुर मोलमा शार, रतन नाथ सरशार आदि के दीवाने हो गये कि जहाँ भी इनकी किताब मिलती उसे पढ़ने का हर संभव प्रयास करते थे। आपकी रुचि इस बात से साफ झलकती है कि एक किताब को पढ़ने के लिए आपने एक तम्बाकू वाले से दोस्ती करली और उसकी दुकान पर मौजूद ष्तिलस्मे — होशरुबाष् पढ़ डाली।
अंग्रेजी के अपने जमाने के मशहूर उपन्यासकार रोनाल्ड की किताबों के उर्दू तरजुमो को आपने काफी कम उम्र में ही पढ़ लिया था। इतनी बड़ी — बड़ी किताबों और उपन्यासकारों को पढ़ने के बावजूद प्रेमचन्द ने अपने मार्ग को अपने व्यक्तिगत विषम जीवन अनुभव तक ही महदूद रखा।
तेरह वर्ष की उम्र में से ही प्रेमचन्द ने लिखना आरंभ कर दिया था। शुरु में आपने कुछ नाटक लिखे फिर बाद में उर्दू में उपन्यास लिखना आरंभ किया। इस तरह आपका साहित्यिक सफर शुरु हुआ जो मरते दम तक साथ — साथ रहा।
प्रेमचन्द की दूसरी शादी
सन् १९०५ में आपकी पहली पत्नी पारिवारिक कटुताओं के कारण घर छोड़कर मायके चली गई फिर वह कभी नहीं आई। विच्छेद के बावजूद कुछ सालों तक वह अपनी पहली पत्नी को खर्चा भेजते रहे। सन् १९०५ के अन्तिम दिनों में आपने शीवरानी देवी से शादी कर ली। शीवरानी देवी एक विधवा थी और विधवा के प्रति आप सदा स्नेह के पात्र रहे थे।
यह कहा जा सकता है कि दूसरी शादी के पश्चात् आपके जीवन में परिस्थितियां कुछ बदली और आय की आर्थिक तंगी कम हुई। आपके लेखन में अधिक सजगता आई। आपकी पदोन्नति हुई तथा आप स्कूलों के डिप्टी इन्सपेक्टर बना दिये गए। इसी खुशहाली के जमाने में आपकी पाँच कहानियों का संग्रह सोजे वतन प्रकाश में आया। यह संग्रह काफी मशहूर हुआ।
व्यक्तित्व
सादा एवं सरल जीवन के मालिक प्रेमचन्द सदा मस्त रहते थे। उनके जीवन में विषमताओं और कटुताओं से वह लगातार खेलते रहे। इस खेल को उन्होंने बाजी मान लिया जिसको हमेशा जीतना चाहते थे। अपने जीवन की परेशानियों को लेकर उन्होंने एक बार मुंशी दयानारायण निगम को एक पत्र में लिखा ष्हमारा काम तो केवल खेलना है— खूब दिल लगाकर खेलना— खूब जी— तोड़ खेलना, अपने को हार से इस तरह बचाना मानों हम दोनों लोकों की संपत्ति खो बैठेंगे। किन्तु हारने के पश्चात् — पटखनी खाने के बाद, धूल झाड़ खड़े हो जाना चाहिए और फिर ताल ठोंक कर विरोधी से कहना चाहिए कि एक बार फिर जैसा कि सूरदास कह गए हैं, ष्तुम जीते हम हारे। पर फिर लड़ेंगे।ष् कहा जाता है कि प्रेमचन्द हंसोड़ प्रकृति के मालिक थे। विषमताओं भरे जीवन में हंसोड़ होना एक बहादुर का काम है। इससे इस बात को भी समझा जा सकता है कि वह अपूर्व जीवनी—शक्ति का द्योतक थे। सरलता, सौजन्यता और उदारता के वह मूर्ति थे।
जहां उनके हृदय में मित्रों के लिए उदार भाव था वहीं उनके हृदय में गरीबों एवं पीड़ितों के लिए सहानुभूति का अथाह सागर था। जैसा कि उनकी पत्नी कहती हैं ष्कि जाड़े के दिनों में चालीस — चालीस रुपये दो बार दिए गए दोनों बार उन्होंने वह रुपये प्रेस के मजदूरों को दे दिये। मेरे नाराज होने पर उन्होंने कहा कि यह कहां का इंसाफ है कि हमारे प्रेस में काम करने वाले मजदूर भूखे हों और हम गरम सूट पहनें।ष्
प्रेमचन्द उच्चकोटि के मानव थे। आपको गाँव जीवन से अच्छा प्रेम था। वह सदा साधारण गंवई लिबास में रहते थे। जीवन का अधिकांश भाग उन्होंने गाँव में ही गुजारा। बाहर से बिल्कुल साधारण दिखने वाले प्रेमचन्द अन्दर से जीवनी—शक्ति के मालिक थे। अन्दर से जरा सा भी किसी ने देखा तो उसे प्रभावित होना ही था। वह आडम्बर एवं दिखावा से मीलों दूर रहते थे। जीवन में न तो उनको विलास मिला और न ही उनको इसकी तमन्ना थी। तमाम महापुरुषों की तरह अपना काम स्वयं करना पसंद करते थे।
ईश्वर के प्रति आस्था
जीवन के प्रति उनकी अगाढ़ आस्था थी लेकिन जीवन की विषमताओं के कारण वह कभी भी ईश्वर के बारे में आस्थावादी नहीं बन सके। धीरे — धीरे वे अनीश्वरवादी से बन गए थे। एक बार उन्होंने जैनेन्दजी को लिखा ष्तुम आस्तिकता की ओर बढ़े जा रहे हो — जा रहीं रहे पक्के भग्त बनते जा रहे हो। मैं संदेह से पक्का नास्तिक बनता जा रहा हूँ।ष्
मृत्यू के कुछ घंटे पहले भी उन्होंने जैनेन्द्रजी से कहा था — ष्जैनेन्द्र, लोग ऐसे समय में ईश्वर को याद करते हैं मुझे भी याद दिलाई जाती है। पर मुझे अभी तक ईश्वर को कष्ट देने की आवश्यकता महसूस नहीं हुई।ष्
प्रेमचन्द की कृतियाँ
प्रेमचन्द ने अपने नाते के मामू के एक विशेष प्रसंग को लेकर अपनी सबसे पहली रचना लिखी। १३ साल की आयु में इस रचना के पूरा होते ही प्रेमचन्द साकहत्यकार की पंक्ति में खड़े हो गए। सन् १८९४ ई० में ष्होनहार बिरवार के चिकने—चिकने पातष् नामक नाटक की रचना की। सन् १८९८ में एक उपन्यास लिखा। लगभग इसी समय ष्रुठी रानीष् नामक दूसरा उपन्यास जिसका विषय इतिहास था की रचना की। सन १९०२ में प्रेमा और सन् १९०४—०५ में ष्हम खुर्मा व हम सवाबष् नामक उपन्यास लिखे गए। इन उपन्यासों में विधवा—जीवन और विधवा—समस्या का चित्रण प्रेमचन्द ने काफी अच्छे ढंग से किया।
जब कुछ आर्थिक निजिर्ंश्चतता आई तो १९०७ में पाँच कहानियों का संग्रह सोड़ो वतन (वतन का दुख दर्द) की रचना की। जैसा कि इसके नाम से ही मालूम होता है, इसमें देश प्रेम और देश को जनता के दर्द को रचनाकार ने प्रस्तुत किया। अंग्रेज शासकों को इस संग्रह से बगावत की झलक मालूम हुई। इस समय प्रेमचन्द नायाबराय के नाम से लिखा करते थे। लिहाजा नायाब राय की खोज शुरु हुई। नायाबराय पकड़ लिये गए और शासक के सामने बुलाया गया। उस दिन आपके सामने ही आपकी इस कृति को अंग्रेजी शासकों ने जला दिया और बिना आज्ञा न लिखने का बंधन लगा दिया गया।
इस बंधन से बचने के लिए प्रेमचन्द ने दयानारायण निगम को पत्र लिखा और उनको बताया कि वह अब कभी नयाबराय या धनपतराय के नाम से नहीं लिखेंगे तो मुंशी दयानारायण निगम ने पहली बार प्रेमचन्द नाम सुझाया। यहीं से धनपतराय हमेशा के लिए प्रेमचन्द हो गये।
ष्सेवा सदनष्, ष्मिल मजदूरष् तथा १९३५ में गोदान की रचना की। गोदान आपकी समस्त रचनाओं में सबसे ज्यादा मशहूर हुई अपनी जिन्दगी के आखिरी सफर में मंगलसूत्र नामक अंतिम उपन्यास लिखना आरंभ किया। दुर्भाग्यवश मंगलसूत्र को अधूरा ही छोड़ गये। इससे पहले उन्होंने महाजनी और पूँजीवादी युग प्रवृत्ति की निन्दा करते हुए ष्महाजनी सभ्यताष् नाम से एक लेख भी लिखा था।
मृत्यु
सन् १९३६ ई० में प्रेमचन्द बीमार रहने लगे। अपने इस बीमार काल में ही आपने ष्प्रगतिशील लेखक संघष् की स्थापना में सहयोग दिया। आर्थिक कष्टों तथा इलाज ठीक से न कराये जाने के कारण ८ अक्टूबर १९३६ में आपका देहान्त हो गया। और इस तरह वह दीप सदा के लिए बुझ गया जिसने अपनी जीवन की बत्ती को कण—कण जलाकर भारतीयों का पथ आलोकित किया।
विक्रमादित्य का तेगा
बहुत जमाना गुजरा, एक रोज पेशावर के मौजे महानगर में प्रकृति की एक आश्चर्यजनक लीला दिखाई पड़ी। अंधेरी रात थी, बस्ती से कुछ दूर बरगद के एक छांहदार पेड़ के नीचे एक आग की लौ दिखायी पड़ी और एक झलमलाते हुए चिराग की तरह नजर आती रही। गांव में बहुत जल्द यह खबर फैल गयी। वहां के रहने वाले यह विचित्र दृश्य देखने के लिए यहां—वहां इकट्ठे हो गये। औरतें जो खाना पका रही थीं हाथों में गूंथा हुआ आटा लपेटे बाहर निकल आयीं। बूढ़ों ने बच्चों को कंधे पर बिठा लिया और खांसते हुए आ खड़े हुए। नवेली बहुएँ लाज के मारे बाहर न आ सकीं मगर दरवाजों की दरारों से झांक—झांककर अपने बेकरार दिलों को तस्कीन देने लगीं। उस गुम्बदनुमा पेड़ के नीचे अंधेरे के उस अथाह समुन्दर में रोशनी का यह धुंधला शोला पाप के बादलों से घिरी हुई आत्मा का सजीव उदाहरण पेश कर रहा था।
टेकसिंह ने ज्ञानियों की तरह सिर हिलाकर कहा—मैं समझ गया, भूतों की सभा हो रही हैं।
पंडित चेतराम ने विद्वानों के समान विश्वास के साथ कहा—तुम क्या जानों मैं तह पर पहुंच गया। साँप मणि छोड़कर चरने गया है। इसमें जिसे शक हो जाकर देख आये।
मुंशी गुलाबचंद बोले—इस वक्त जो वहां जाकर मणि को उठा लाये, उसके राजा होने में शक नहीं। मगर जान जोखिम है।
प्रेमसिंह एक बूढ़ा जाट था। वह इन महात्माओं की बातें बड़े ध्यान से सुन रहा था।
प्रेमसिंह दुनिया में बिलकुल अकेला था। उसकी सारी उम्र लड़ाइयों में खर्च हुई थी। मगर जब जिंदगी की शाम आई और वह सुबह की जिंदगी के टूटे—फूटे झोंपड़े में फिर आया तो उसके दिल में एक ख्वाहिश पैदा हुई। अफसोस, दुनिया में मेरा कोई नहीं ! काश, मेरे भी कोई बच्चा होता ! जो ख्वाहिश शाम के वक्त चिडि़यों को घोंसले में खींच लाती है और जिस ख्वाहिश से बेकरार होकर जानवर शाम को अपने थानों की तरफ चलते हैं, वही ख्वाहिश प्रेमसिंह के दिल में मौजें मारने लगी। ऐसा कोई नहीं, जिसे वह रात के वक्त कौर बना—बना कर खिलाये। ऐसा कोई नहीं, जिसे वह रात के वक्त लोरियां सुना—सुनाकर सुलाये। यह आकांक्षाएं प्रेमसिंह के दिल में कभी न पैदा हुई थीं। मगर सारे दिन का अकेलापन इतना उदास करने वाला नहीं होता जितना शाम का।
एक दिन प्रेमसिंह बाजार गया हुआ था। रास्ते में उसने देखा कि एक घर में आग लगी हुई है। आग के ऊंचे—ऊंचे डरावने शोले हवा में अपने झण्डे लहरा रहे हैं और एक औरत दरवाजे पर खड़ी सर पीट—पीट कर रो रही है। यह बेचारी विधवा स्त्री थी, उसका बच्चा अंदर सो रहा था कि घर में आग लग गयी। वह दौड़ी कि गांव के आदमियों को अग बुझाने के लिए बुलाये कि इतने में आग ने जोर पकड़ लिया और अब तमाम जलते हुए शोलों का उमड़ा हुआ दरिया उसे उसके प्यारे बच्चे से अलग किये हुए था। प्रेमसिंह के दिल में उस औरत की दर्दनाक आहें चुभ गयीं। वह बेधड़क आग में घुस गया और सोते हुए बच्चे को गोद में लेकर बाहर निकल आया। विधवा स्त्री ने बच्चे को गोद में ले लिया और उसके कोमल गालों को बार—बार चूमकर आंखों में आंसू भर लायी और बोली—महाराज, तुम जो कोई हो, मैं आज अपना बच्चा तुम्हें भेंट करती हूं। तुम्हें ईश्वर ने और भी लड़के दिये होंगे, उन्हीं के साथ इस अनाथ की भी खबर लेते रहना। तुम्हारे दिल में दया है, मेरा सब कुछ अग्नि देवी ने ले लिया, अब इस तन के कपड़े के सिवा मेरे पास और कोई चीज नहीं। मैं मजदूरी करके अपना पेट पाल लूंगी। यह बच्चा अब तुम्हारा है।
प्रेमसिंह की आंखें डबडबा गयीं, बोला—बेटी, ऐसा न कहो, तुम मेरे घर चला और ईश्वर ने जो कुछ रुखा—सूखा दिया है, वह खाओ। मैं भी दुनिया में बिलकुल अकेला हूं, कोई पानी देने वाला नहीं है। क्या जाने परमात्मा ने इसी बहाने से हम लोगों को मिलाया हो। शाम के वक्त जब प्रेमसिंह घर लौटा तो उसकी गोद में एक हंसता हुआ फूल जैसा बच्चा था और पीछे—पीछे एक पीली और मुरझायी औरत। आज प्रेमसिंह का घर आबाद हुआ। आज से उसे किसी ने शाम के वक्त नदी के किनारे खामोश बैठे नहीं देखा।
इसी बच्चे के लिए सांप की मणि लाने का निश्चय करके प्रेमसिंह आधी रात वक्त कमर में तलवार लगाये, चौंक—चौंककर कदम रखता बरगद के पेड़ की तरफ चला।
जब पेड़ के नीचे पहुंचा तो मणि की दमक ज्यादा साफ नजर आने लगी। मगर सांप का कहीं पता न था। प्रेमसिंह बहुत खुश हुआ, शायद सांप कहीं चरने गया है। मगर जब मणि को लेने के लिए हाथ बढ़ाया तो वहां साफ जमीन के सिवाय और कोई चीज न दिखाई दी। बूढ़े जाट का कलेजा सन से हो गया ओर बदन के रोंगटे खड़े हो गये। यकायक उसे अपने सामने काई चीज लटकती हुई दिखाई दी। प्रेमसिंह ने तेगा खींच लिया और उसकी तरफ लपका मगर देखा तो वह बरगद की जटा थी। अब प्रेमसिंह का डर बिलकुल दूर हो गया। उसने उस जगह को, जहां से रोशनी की लौ निकल रही थी, अपनी तलवार से खोदना शुरु किया। जब एक बित्ता जमीन खुद गयी तो तलवार किसी सख्त चीज से टकरायी और लौ भड़क उठी। यह एक छोटा—सा तेगा था मगर प्रेमसिंह के हाथ में आते ही उसकी लपट जैसी चमक गायब हो गई।
यह एक छोटा—सा तेगा था, मगर बहुत आबदार। उसकी मूठ में अनमोल जवाहरात जड़े हुए थो और मूठ के ऊपर ‘विक्रमादित्य' खुदा हुआ था। यह विक्रमादित्य का तेगा था, उस विक्रमादित्य का जो भारत का सूर्य बनकर चमका, जिसके गुन अब तक घर—घर गाये जाते हैं। इस तेगे ने भारत के अमर कालिदास की सोहबतें देखी हैं। जिस वक्त विक्रमादित्य रातों को वेश बदलकर दुख—दर्द की कहानी अपने कानों सुनने और अत्याचारों की लीला अपनी संवेदनशील आंखों से देखने के लिए निकलते थे, यही आबदार तेगा उनके बगल की शोभा हुआ करता था। जिस दया और न्याय ने विक्रमादित्य का नाम अब तक जिन्दा रक्खा है, उसमें यह तेगा भी उनका हमदर्द और शरीक था। यह उनके साथ उस राजसिंहासन पर शोभायमान होता था जिस पर राजा भोज को भी बैठना नसीब न हुआ।
इस तेगे में गजब की चमक थी। बहुत जमाने तक जमीन के नीचे दफन रहने पर भी उस पर जंग का नाम न था। अंधेरे घरों में उससे उजाला हो जाता था। राज भर चमकते हुए तारे की तरह जगमगाता रहता। जिस तरह चांद बादलों के परदे में छिप जाता है। मगर उसकी मद्धिम रोशनी छन—छनकर आती है, उसी तरह गिलाफ के अंदर से उस तेगे की किरनें नजरों के तीर मारा करती थीं।
मगर जब कोई व्यक्ति उसे हाथ में ले लेता तो उसकी चमक गायब हो जाती थी। उसका यह गुण देखकर लोग दंग रह जाते थे।
हिन्दुस्तान में इन दिनों शेरे पंजाब की ललकार गूंज रही थी। रणजीतसिंह दानशीलता और वीरता, दया और न्याय में अपने समय के विक्रमादित्य थे। उसे घमंडी काबुल को, जिसने सदियों तक हिन्दोस्तान को सर नहीं उठाने दिया था, खाक में मिलाकर लाहौर जाते थे। महानगर का खुला हुआ दिलकश मैदान और पेड़ों का आकर्षक जमघट देखा तो वहीं पड़ाव डाल दिया। बाजार लग गए, खेमे और शामियाने गाड़ दिये गये। जब रात हुई तो पच्चीस हजार चूल्हों का काला धुआं सारे मैदान और बगीचे पर छा गया। और इस धुएं के आसमान में चूल्हों की आग, कंदीलें और मशालें ऐसी मालूम होती थीं गोया अंधेरी रात में आसमान पर तारे निकल आये हैं।
शाही आरामगाह से गाने—बजाने की पुरशार और पुरजोश अवाजें आ रही थीं। सिख सरदारों ने सरहदी जगहों पर सैकड़ों अफगानी औरतें गिरफ्तार कर ली थीं, जैसा उन दिनों लड़ाइयों में आम तौर पर हुआ करता था। वही औरतें इस वक्त सायेदार दरख्तों के नीचे कुदरती फर्श से सजी हुई महफिल में अपनी बेसुरी ताने अलाप रही थीं और महफिल के लोग जिन्हें गाने का आनन्द उठाने की इतनी लालसा न थी, जितनी हंसने और खुश होने की, खूब जोर—जोर से कहकहे लगा—लगाकर हंस रहे थे। कहीं—कहीं मनचले सिपाहियों ने स्वांग भरे थे, वह कुछ मशालें और सैंकड़ों तमाशाइयों की भीड़ साथ लिये हुए इधर—उधर धूम मचाते हुए फिरते थे। सारी फौज के दिलों में बैठकर विजय की देवी अपनी लीला दिखा रही थी।
रात के नौ बजे होंगे कि एक आदमी काला कंबल ओढ़े एक बांस का सोंटा लिए शाही खेमे से बाहर निकला और बस्ती की तरफ आहिस्ता—आहिस्ता चला। आज महानगर भी खुशी से ऐंठ रहा हैं। दरवाजों पर कई—कई बत्तियोंवाले चौमुखे दीवट जल रहे हैं। दरवाजों के सहन झाड़कर साफ कर दिये गये हैं। दो—एक जगह शहनाइयां बज रही हैं और कहीं—कहीं लोग भजन गा रहे हैं। काली कमलीवाला मुसाफिर इधर—उधर देखता—भालता गांव चौपाल में जा पहुंचा। चौपाल खूब सजा हुआ था और गांव के बड़े लोग बैठे हुए इस महत्त्वपूर्ण प्रश्न पर बहस कर रहे थे कि महाराजा रणजीतसिंह की सेवा में कौन—सी भेंट पेश की जाए। आज महाराज ने इस गांव को अपने कदमों से रोशन किया है, तो क्या इस गांव के बसनेवाले महाराज के कदमों को न चूमेंगे ! ऐसे शुभ अवसर कहां आते हैं। सब लोग सर झुकाये चिंतित बैठे थे। किसी की अकल कुछ काम नहीं करती थी। वहां अनमोल जवाहरात की किश्तियां कहां ? पूरे घंटे भर तक किसी ने सर न उठाया। यकायक बूढ़ा प्रेमसिंह खड़ा हो गया और बोला—अगर आप लोग पसंद करें तो मैं विक्रमादित्य की तलवार नजराने के लिए दे सकता हूँ।
इतना सुनते ही सबके सब आदमी खुशी से उछल पड़े और एक हुल्लड़ सा मच गया। इतने में एक मुसाफिर कमली ओढ़े चौपाल के अंदर आया और हाथ उठाकर बोला—भाइयों, वाह गुरु की जय !
चेतराम बोला—तुम कौन हो?
मुसाफिर—राहगीर हूं, पेशावर जाना है। रात ज्यादा आ गई है इसलिए यहीं लेट रहूंगा।
टेकसिंह—हां—हां, आराम से सोओ। चारपाई की जरुरत हो तो मंगा दूं।
मुसाफिर—नहीं, आप तकलीफ न करें, मैं इसी टाट पर लेट रहूंगा। अभी आप लोग विक्रमादित्य की तलवार की कुछ बातचीत कर रहे थे। यही सुनकर चला आया। वर्ना बाहर ही पड़ा रहता। क्या यहां किसी के पास विक्रमादित्य की तलवार है?
मुसाफिर की बातचीत से साफ जाहिर होता था कि वह कोई शरीफ आदमी है। उसकी आवाज में वह कशिश थी जो कानों को अपनी तरफ खींच लिया करती है। सबकी आंखें उसकी तरफ उठ गईं। पंडित चेतराम बोले—जी हां, अर्सा हुआ महाराज विक्रमादित्य का तेगा जमीन से निकला है।
मुसाफिर— यह क्योंकर मालूम हुआ कि यह तेगा उन्हीं का है ?
चेतराम दृ उसकी मूठ पर उनका नाम खुदा हुआ हैं।
मुसाफिर दृउनकी तलवार तो बहुत बड़ी होगी?
चेतराम दृ नहीं, वह तो एक छोटा—सा नीमचा है।
मुसाफिर दृ तो फिर उसमें कोई खास गुण होगा।
चेतराम दृ जी हां, उसके गुण अनमोल हैं। देखकर अक्ल दंग रह जाती है। जहाँ रख दो, उसमें जलते चिराग की—सी रोशनी पैदा हो जाती हैं।
मुसाफिर दृ ओफ्फोह!
चेतराम— मगर ज्योंही कोई आदमी उसे हाथ में ले लेता है, उसकी सारी चमक—दमक गायब हो जाती है।
यह अजीब बात सुनकर उस मुसाफिर की वही कैफियत हो गई जो एक आश्चर्यजनक कहानी सुनने से बच्चों की हो जाया करती है। उसकी आंख और भंगिमा से अधीरता प्रकट होने लगी। जोश से बोला—विक्रमादित्य, तुम्हारे प्रताप को धन्य है !
जरा देर के बाद फिर बोला—वह कौन बुजुर्ग हैं जिनके पास यह अनमोल चीज है ?
प्रेमसिंह ने गर्व से कहा—मेरे पास है।
मुसाफिर— क्या मैं उसे देख सकता हूं?
प्रेमसिंह दृ हां, मैं आपको सवेरे दिखाऊंगा। मगर नहीं, ठहरिए, सवेरे तो हम उसे महाराज रणजीतसिंह को भेंट करेंगे, आपका जी चाहे तो इसी वक्त देख लीजिए।
दोनों आदमी चौपाल से चल खड़े हुए। प्रेमसिंह ने मुसाफिर को अपने घर में ले जाकर तेगे के पास खड़ा कर दिया। इस कमरे में चिराण न था मगर सारा कमरा रोशनी से जगमगा रहा था। मुसाफिर ने पुरजोश आवाज से कहा— विक्रमादित्य, तुम्हारे प्रताप को धन्य है, इतना जमाना गुजरने पर भी तुम्हारी तलवार का तेज कम नहीं हुआ।
यह कहकर उसने बड़े चाव से हाथ बढ़ाकर तेगे को पकड़ लिया मगर उसका हाथ लगते ही तेगे की चमक जाती रही और कमरे में अंधेरा छा गया।
मुसाफिर ने फौरन तेगे को तख्त पर रख दिया। उसका चेहरा अब बहुत उदास हो गया था। उसने प्रेमसिंह से कहा— क्या तुम यह तेगा रण जीतसिंह को भेंट दोगे? वह इसे हाथ में लेने योग्य नहीं हैं।
यह कहकर मुसाफिर तेजी से बाहर निकल आया। वृन्दा दरवाजे वर खड़ी थी, मुसाफिर ने उसके चेहरे की तरफ एक बार गौर से देखा, मगर कुछ बोला नहीं।
रात आधी से ज्यादा गुजर चुकी थी। मगर फौज में शोर—गुल बदस्तूर जारी था। खुशी के हंगामे ने नींद को सिपाहियों की आंखों से दूर भगा दिया। अगर कोई अंगड़ाई लेता या ऊंघता नजर आ जाता है तो उसके साथी उसे एक टांग से खड़ा कर देते हैं। यकायक यह खबर मशहूर हुई कि महाराज इसी वक्त कूच करेंगे। लोग ताज्जुब में आ गये कि महाराज ने क्यों इस अंधेरी रात में सफर करने की ठानी है ! इस डर से कि फौज को इसी वक्त कूच करना पड़ेगा चारों तरफ खलबली—सी मच गयी। वह खुद थोड़े—से आजमाये हुये सरदारों के साथ रवाना हो गए। इसका कारण किसी की समझ में नहीं आया।
जिस तरह बांध टूट जाने से तालाब का पानी काबू से बाहर होकर जारे—शोर के साथ बह निकलता है, उसी तरह महाराज के जाते ही फौज के अफसर और सिपाही होश—हवास खोकर मस्तियां करने लगे।
वृन्दा को विधवा हुए तीन साल गुजरे हैं। उसका पति एक बेफिक्र और रंगीन मिजाज आदमी था। गाने—बजाने से उसे प्रेम था। घर की जो कुछ जमा—जथा थी, वह सरस्वती और उसके पुजारियों को भेंट कर दी। तीन लाख की जायदाद तीन साल के लिए भी काफी न हो सकी। मगर उसकी कामना पूरी हो गई। सरस्वती देवी ने उसे आर्शीवाद दिया और उसने संगीत—कला में ऐसा कमाल पैदा किया कि अच्छे—अच्छे गुनी उसके सामने जबान खोलते डरते थे। गाने का उसे जितना शौक था, उतनी ही मुहब्ब्त उसे वृन्दा से थी। उसकी जान अगर गाने में बसती थी तो दिल वृन्दा की मुहब्बत से भरा हुआ था पहले छेड़छाड़ में और फिर दिलबहलाव के लिए उसने वृन्दा को कुछ गाना सिखाया। यहां तक कि उसको भी इस अमृत का स्वाद मिल गया और यद्यपि उसके पति को मरे तीन साल गुजर गये हैं और उसने सांसारिक सुखों को अंतिम नमस्कार कर लिया है यहां तक कि किसी ने उसके गुलाब—के—से होंठों पर मुस्कराहट की झलक नहीं देखी मगर गाने की तरफ अभी तक उसकी तबियत झुकी हुई थी। उसका मन जब कभी बीते हुए दिनों की याद से उदास होता है तो वह कुछ गाकर जी बहला लेती है। लेकिन गाने में उसका उद्देश्य इन्द्रिय का आनंद नहीं होता, बल्कि जब वह कोई सुंदर राग अलापने लगती है तो ख्याल में अपने पति को खुशी से मुस्कराते हुए देखती है। वही काल्पनिक चित्र उसके गाने की प्रशंसा करता हुआ दिखाई देता है। गाने में उसका लक्ष्य अपने स्वर्गीय पति की स्मृति को ताजा करना है। गाना उसके नजदीक पतिव्रत धर्म का निबाह है।
तीन पहर रात जा चुकी है, आसमान पर चांद की रोशनी मंद हो चुकी है, चारों तरफ सन्नाटा छाया हुआ है और इन विचारों को जन्म देने वाले सन्नाटे में वृन्दा जमीन पर बैठी हुई मद्धिम स्वरों में गा रही है रू
बता दे कोई प्रेमनगर की डगर।
वृन्दा की आवाज में लोच भी है और दर्द भी। उसमें बेचौन दिल को तसकीन देने वाली ताकत भी है और सोये हुए भावों को जगा देने की शक्ति भी। सुबह के वक्त पूरब की गुलाबी आभा में सर उठाये हुए फूलों से लदी हुई डाली पर बैठकर गानेवाली बुलबुल की चहक में भी यह घुलावट नहीं होती। यह वह गाना है जिसे सुनकर अकलुष आत्माएं सिर धुनने लगती हैं। उसकी तान कानों को छेदती हुई जिगर में आ पहुंचती है रू
बता दे कोई प्रेमसिंह की डगर।
मैं बौरी पग—पग पर भटकूं, काहू की कुछ नाहिं खबर।
बता दे कोई प्रेमसिंह की डगर।
यकायक किसी ने दरवाजा खटखटाया और कई आदमी पुकारने लगे—किसका मकाने है, दरवाजा खोलो।
वृन्दा चुप हो गयी। प्रेमसिंह ने उठकर दरवाजा खोल दिया। दरवाजे के सहन में सिपाहियों की एक भीड़ थी। दरवाजा खुलते ही कई सिपाही दहलीज में घुस आये और बोले—तुम्हारे घर में कोई गानेवाली रहती है, हम उसका गाना सुनेंगे।
प्रेमसिंह ने कड़ी आवाज में कहा—हमारे यहां कोई गानेवाली नहीं है।
इस पर कई सिपाहियों ने प्रेमसिंह को पकड़ लिया और बोले दृ तेरे घर से गाने की आवाज आती थी।
एक सिपाही—बताता क्यों नहीं रे, कौन गा रहा है ?
प्रेमसिंह दृमेरी लड़की गा रही थी। मगर वह गानेवाली नहीं है।
सिपाही—कोई हो, हम तो आज गाना सुनेंगे।
गुस्से से प्रेमसिंह कांपने लगा, होंठ चबाकर बोला—यारो, हमने भी अपनी जिन्दगी फौज में ही काटी है मगर कभी.....
इस हंगामे में प्रेमसिंह की बात किसी ने न सुनी। एक नौजवान जाट ने, जिसकी आंखें नशे से लाल हो रही थीं, ललकारकर कहा—इस बुड्ढे की मूछें उखाड़ लो।
वृन्दा आंगन में पत्थर की मूरत की तरह खड़ी यह कैफियत देख रही थी। जब उसने दो सिपाहियों को प्रेमसिंह की मूंछ पकड़कर खींचते देखा तो उससे न रहा गया, वह निर्भय सिपाहियों के बीच में घुस आयी और ऊंची आवाज में बोली—कौन मेरा गाना सुनना चाहता है।
सिपाहियों ने उसे देखते ही प्रेमसिंह को छोड़ दिया और बोले—हहम सब तेरा गाना सुनेंगे।
वृन्दा—अच्छा बैठ जाओ, मैं गाती हूँ।
इस पर कई सिपाहियों ने जिद की कि इसे पड़ाव पर ले चलें, वहां खूब रंग जमेगा।
जब वृन्दा सिपाहियों के साथ पड़ाव की तरफ चली तो प्रेमसिंह ने कहा—वृन्दा, इनके साथ जाती हो तो फिर इस घर में पैर न रखना।
वृन्दा जब पड़ाव पर पहुंची तो वहॉँ बदमस्तियों का एक तूफान मचा हुआ था। विजय की देवी दुश्मन को बर्बाद करके अब विजेताओं की मानवता और सज्जनता को पॉव से कुचल रही थी। हैवानियत का खूखॉंर शेर दुश्मन के खून से तृप्त ने होकर अब मानवोचित भावों का खून चूस रहा था। वृन्दा को लोग एक सजे हुए खेमे में ले गये। यहाँ फर्शी चिराग रोशन थे और आग—जैसी शराब के दौर चल रहे थे। वृन्दा उस कौने पर सहमी हुई बैठी थी। वासना का भूत जो इस वक्त दिलो में अपनी शैतानी फौज सजाये बैठा था कभी आंखो की कमान से सतीत्व की नाश करने वाली तेज तीर चलाता और कभी मुहँ की कमान से मर्मवेधी बाणों की बौछार करता। जहरीली शराब में बुझे हुए तीर वृन्दा के कोमल और पवित्र ह्रदय को छेदते हुए पार हो जाते थे। वह सोच रही थी—ऐ द्रोपती की लाज रखने वाले कृष्ण भगवान्, तुमने धर्म के बन्धन से बँधे हुए पाँण्डवों के होते हुए द्रोपती की लाज रखी थी, मैंतो दुनिया में बिल्कुल अनाथ हूँ, क्या मेरी लाज न रखोगे ? यह सोचते हुए उसने मीरा का यह मशहूर भजन गायारू
सिया रघुवीर भरोसो ऐसो।
वृन्दा ने यह गीत बड़े मोहक ढ़ंग से गाया। उसके मीठे सुरो में मीरा का अन्दाज पैदा हो गया था। प्रकट रूप में वह शराबी सिपाहियों के सामने बैठी गा रही थी। मगर कल्पना की दुनिया में वह मुरलीवाले श्याम के सामने हाथ बॉँधे खड़ी उससे प्रार्थना कर रही थी।
जरा देर के लिए उस शोर से भरे हुए महल में निस्तब्धता छा गयी। इन्सान के दिल में बैठे हुए हैवान पर भी प्रेम की यह तडपा देने वाली पुकार अपना जादू चला गयी। मीठा गाना मस्त हाथी को भी बस में कर लेता है। पूरे घंटे भर तक वृन्दा ने सिपाहियो को मूर्तिवत् रखा। सहसा घडियाल ने पॉँच बजाये। सिपाही और सरदार सब चौंक पड़े। सबका नशा हिरन हो गया। चालीस कोस की मंजिल तय करनी है, फुर्ती के साथ रवानगी की तैयारियॉँ होने लगीं। खेमे उखड़ने लगे, सवारो ने घोडो को दाना खिलाना शुरु किया। एक भगदड़—सी मच गयी। उधर सूरज निकला इधर फौज ने कूच का डंका बजा दिया। शाम को जिस मैदान का एक—एक कोना आबाद था, सुबह को वहॉँ कुछ भी न था। सिर्फ टूटे—फूटे उखड़े चूल्हे की राख और खेंमो की कीलों के निशान उस शन—शौकत की यादगार मे रूप में रह गये थे।
वह खेमे से बाहर निकल आयी। कोई बाधक न हुआ। मगर उसका दिल धड़क रहा था कि कही कोई आकर फिर न पकड़ ले। जब वह पेडों के झुरमुट से बाहर पहुंची तो उसकी जान में जान आयी। बड़ा सुहाना मौसम था, ठंड़ी—ठंड़ी मस्त हवा पेड़ो के पत्तो पर धीमे—धीमे चल रही थी और पूरब के क्षितिज में सूर्य भगवान की अगवानी के लिए लाल मखमल का फर्श बिछाया जा रहा था। वृन्दा ने आगे कदम बढाना चाहा। मगर उसके पांव न उठे। प्रेमसिंह की यह बात कि सिपाहियों के साथ हो जाती हो तो फिर इस घर में पैर न रखना, उसे याद आ गयी। उसने एक लम्बी सांस ली और जमीन पर बैठ गई। दुनिया में अब उसके लिए कोई ठिकाना न था।
उस अनाथ चिडि़या की हालत कैसी दर्दनाक है जो दिल में उड़ने की चाह लिए हुए बहेलिये की कैद से निकल आती है मगर आजाद होने पर उसे मालूम होता है कि उस निष्ठुर बहेलिये ने उसके परों को काट दिया है। वह पेड़ो की सायेदार डालियों की तरफ बार—बार हसरत की निगाहों से देखती है मगर उड़ नहीं सकती और एक बेबसी के आलम में सोचने लगती है कि काश, बहेलिया मुझे फिर पिंजरें मे कैद कर लेता! वृन्दा की हालत एक वक्त ऐसी ही दर्दनाक थी।
वृन्दा कुछ देर तक इस ख्याल में डूबी रही, फिर वह उठी और धीरे—धीरे प्रेमसिंह के दरवाजे पर आयी। दरवाजा खुला हुआ था मगर वह अन्दर कदम न रख सकी। उसने दरोदीवार को हसरत भरी निगाहों से देखा आरै फिर जंगल की तरफ चली गई।
शहर लाहौर के एक शानदार हिस्से मे ठीक सड़क के किनारे एक अच्छा—सा साफ—सुथरा तिमंजिले मकान है। हरी—भरी फूलों वाली माधवी लताने उसकी दीवारों और मेहराबो को खूब सजा दिया है। इसी मकान में एक अमीराना ठाट—बाट से सजे हुए कमरो में फैली वृन्दा एक मखमली कालीन पर बैठी हुई अपनी सुन्दर रंगों और मीठी आवाज वाली मैना को पढ़ा रही है। कमरे की दीवारों पर हलके हरे रंग की कलई है—खुशनुमा दीवारगीरियाँ, खूबसूरत तस्वीरें उचित स्थानों पर शोभा दे रही है। सन्दल और खस की प्राणवर्द्वक सुगन्ध कमरे के अन्दर फैली हुई है। एक बूढ़ी बैठी हुई पंखा झल रही है। मगर इस ऐश्वर्य और सब सामग्रियों के होते हुए वृन्दा का चेहरा उदास है। उसका चेहरा अब और भी पीला नजर आता है। मौलश्री का फूल मुरझा गया है।
वृन्दा अब लाहौर की मशहूर गानेवालियों में से एक है। उसे इस शहर में तीन महीने से ज्यादा नहीं हुए, मगर इतने ही दिनों में उसने बहुत बड़ी शोहरत हासिल कर ली है। यहॉँ उनका नाम श्यामा मशहूर है। इतने बड़े शहर में जिससे श्यामा बाई का पता पूछो वह यकीनन बता देगा। श्यामा की आवाज और अन्दाज मे कोई मोहिनी है, जिसने शहर में हर को अपना प्रेमी बना रक्खा है। लाहौर में बाकमाल गानेवालियों की कमी नहीं है। लाहौर उस जमाने में हर कला का केन्द्र था मगर कोयलें और बुलबुलें बहुत थी। श्यामा सिर्फ एक थी। वह ध्रुपद ज्यादा गाती थी इसलिए लोग उसे ध्रुपदी कहते थे।
लाहौर में मियॉँ तानसेन के खानदान के कई ऊंचे कलाकार है जो राग और रागनियों में बातें करते है। वह श्यामा का गाना पसन्द नहीं करते। वह कहते है कि श्यामा का गाना अकसर गलत होता है। उसे राग ओर रागिनियों का ज्ञान नहीं। मगर उनकी इस आलोचना का किसी पर कुछ असर नहीं होता। श्यामा गलत गाये या सही वह जो कुछ गाती है उसे सुनकर लोग मस्त हो जाते है। उसका भेद यह है कि श्यामा हमेशा दिल से गाती है और जिन भावों को वह प्रकट करती है उन्हें खुद भी अनुभव करती है। वह कठपुतलियों की तरह तुली हुई अदाओं की नकल नहीं करती है। अब उसके बगैर महफिलें सूनी रहती है। हर पहफिल में उसका मौजूद होना लाजिमी हो गया है। वह चाहे श्लोक ही गाये मगर बगैर संगीत प्रेमियों का जी नहीं भरता। तलवार की बाढ की तरह वह महफिलों की जान है। उसने साधारणजनों के ह्रदय में यहॉँ तक घर लिया है कि जब अपनी पालकी पर हवा खाने निकलती है तो उस पर चारों तरफ से फूलों की बौछार होने लगती है। महाराज रणजीत सिंह को काबुल से लौटे हुए तीन महीने गुजर गए, मगर अभी तक विजय की खुशी में कोई जलसा नही हुआ। वापसी के बाद कई दिन तक तो महाराज किसी कारण से उदास थे, उसके बाद उनके स्वभाव में यकायक एक बड़ा परिवर्तन आया, उन्हे काबुल की विजय की चर्चा से घृणा—सी हो गई। जो कोई उन्हें इस जीत की बधाई देने जाता उसकी तरफ से मुंह फेर लेते थे। वह आत्मिक उल्लास जो मौजा महानगर तक उनके चेहरे से झलकता था, अब वहॉँ न था। काबुल को जीतना उनकी जिंदगी की सबसे बड़ी आरजू थी। वह मोर्चा जो एक हजार साल तक हिन्दू राजाओं की कल्पना से बाहर था, उनके हाथों सर हुआ। जिस मुल्क ने हिन्दोस्तान को एक हजार बरस तक अपने मातहत रक्खा वहॉँ हिन्दू कौम का झण्ड़ा रणजीत सिंह ने उड़ाया। गजनी और काबुल की पहाडि़यों इन्सानी खून से लाल हो गयी, मगर रणजीत सिंह खुश नही है। उनके स्वभाव की कायापलट का भेद किसी की समझ में नहीं आता । अगर कुछ समझती है तो वृन्दा समझती है।
तीन महीने तक महाराज की यही कैफियत रही। इसके बाद उनका मिजाज अपने असली रंग पर आने लगा। दरबार की भलाई चाहने वाले इस मौके के इन्तजार में थे। एक रोज उन्होनें महाराज से एक शानदार जलसा करने की प्रार्थना की। पहले तो वह बहुत क्रुद्व हुए मगर आखिरकार मिजाज समझाने वालों की घातें अपना काम कर गई।
जलसे की तैयारियॉँ बड़े पैमाने पर की जाने लगी। शाही नृत्यशाला की सजावट होने लगी। पटना, बनारस, लखनऊ, ग्वालियर, दिल्ली और पूना की नामी वेश्याओं को सन्देश भेजे गये । वृन्दा को भी निमत्रण मिला। आज एक मुद्दत के बाद उसके चेहरे पर मुस्कराहट की झलक दिखाई दी।
जलसे की तारीख निश्चित हो गई। लाहौर की सड़को पर रंग—बिरंगी झंडिया लहराने लगी। चारों तरफ से नबाब और राजे बड़ी शान के साथ सज—सजकर आने लगे। होशियार फर्राशों ने नृत्यशाला को इतने सुन्दर ढंग से सजाया था कि उसे देखकर लगता था कि विलास का विश्रामस्थल है।
शाम के वक्त शाही दरबार जमा। महाराजा साहब सुनहरे राजसिंहासन पर शोभायमान हुए। नबाब और राजे, अमीर और रईस, हाथी घोड़ों पर सवार अपनी सजधज दिखते हुए एक जलूस बनाकर महाराज की कदमबोसी को चले। सड़क पर दोनो तरफ तमाशाइयों का ठट लगा था। खुशी का रंगो से भी कोई गहरा संबंध है। जिधर आंख उठती थी। रंग ही रंग दिखायी देते थें। ऐसा मालूम होता था कि कोई उमड़ी हुई नदी रंग बिरंगे फूलों की क्यारियों से बहती चली आती है।
अपनी खुशी के जोश में कभी—कभी लोग अभद्रता भी कर बैठते थे। एक पण्डित जी मिर्जई पहने सर पर गोल टोपी रक्खे तमाशा देखने में लगे थे। किसी मनचले ने उनकी तोंद पर एक चमगादड़ चिमटा दी। पंडित जी बेतहाशा तोंद मटकाते हुए भागे। बडा कहकहा पड़ा। एक और मौलवी साहब नीची अचकन पहने हुए दुकान पर खड़े थे। दुकानदार ने कहा—मौलवी साहब, आपको खड़े—खड़े तकलीफ होती है, यह कुर्सी रक्खी है, बैठ जाइए। मौलवी साहब बहुत खुश हुए, सोचने लगे कि शायद मेरे रूप—रंग से रौब झलक रहा है। वर्ना दुकानदार कुर्सी क्या देता ? दुकानदार आदमियों के बड़े पारखी होते हे। हजारों आदमी खड़े है, मगर उसने किसी से बैठने की प्रार्थना न की। मौलवी साहब मुस्कराते हुए कुर्सी पर बैठे, मगर बैठते ही पीछे की तरफ लुढ़के और नीचे बहती हुई नाली में गिर पड़े। सारे कपड़े लथपथ हो गये। दुकानदार को हजारों खरी—खोटीं सुनायीं। बड़ा कहकहा पड़ा। कुर्सी तीन ही टांग की थी।
एक जगह कोई अफीमची साहब तमाशा देखने आये हुए थे। झुकी हुई कमर पोंपला मुंह, छिदरे—छिदरे सर के बाल और दाढी के बाल, मेंहदी से रगे हुए थे। आंखो में सुरमा भी था। आप बड़े गौर ये सैर करने में लगे थे। इतने में एक हलवाई सर पर खोमचा रक्खे हुए आया और बोला—खॉँ साहब, जुमेरात की गुलाबवाली रेवडि़यॉँ हैं। आज पैसे की आध पांव लगा दीं, खा लीजिए वर्ना पछताइएगा। अफीमची साहब ने जेब में हाथ ड़ाला मगर पैसे न थे। हाथ मल कर रह गये, मुँह मे पानी भर आया। गुलाबवाली रेवडि़यॉँ पैसे में आध पाव! न हुए पैसे नहीं तो सेरो तुला लेता। हलवाई ताड़ गया, बोला— आप पैसे की कुछ फिक्र न करें, पैसे फिर मिल जाएंगे। आप कोई ऐसे वैसे आदमी थौडे ही है। अफीमची साहब की बॉँछे खिल गयीं। रूह फड़क उठी। आपने पाव भर—रेवडि़याँ लीं और जी में कहा। अब पैसा देने वाले पर लानत है। घर से निकलूँगा ही नही, तो पैसे क्या लोगे ? अपने रूमाल में रेवडियॉँ लीं। आशिक के दिल में सब्र कहॉँ ? मगर ज्यो ही पहली रेवड़ी जबान पर रक्खी कि तिलमिला गये। पागल कुत्ते की तरह पानी की तलाश में इधर—उधर दौड़ने लगे। अॉंख और नाक से पानी बहने लगा। आधा मुँह खोलकर ठंडी हवा से जबान की जलन बुझाने लगे। जब होश ठीक हुए तो हलवाई को हजारों गालियां सुनायीं, इस पर लोग खूब हंसे। खुशी के मौके पर ऐसी शरारतें अकसर हुआ करती है। और इन्हें लोग खूब मुआफी के काबिल समझते है क्योंकि वह खौलती हुई हांडी के उबाल है।
रात के नौ बजे संगीतशाला से जमघट हुआ। सारा महल नीचे से ऊपर तक रंग—बिरंगी हांडि़यों और फानूसों से जगमगा रहा था। अन्दर झांड़ों की बहार थी। बाकमाल कारीगर ने रंगशाला के बीचों—बीच अधर में लटका हुआ एक फव्वारा लगाया था। जिसके सूराखों से खस और केवड़ा, गुलाब और सन्दल का अरक हलकी फुहारों में बरस रहा था। महफिल में अम्बर की बौछार करने वाली तरावट फैली हुई थी। खुशी अपनी सखियों—सहेलियों के साथ खुशियां मना रही थी।
दस बच्चे महाराजा रणजीतसिंह तशरीफ लाये। उनके बदन पर तंजेब की एक सफेद अचकन थी और तिरछी पगड़ी बँधी हुई थी। जिस तरह सूरज क्षितिज की रंगीनियों से पाक रहकर अपनी पूरी रोशनी दिखा सकता है। उसी तरह हीरे और जवाहरात, दीवा1 और हरीर1 की पुस्तकल्लुफ सजावट से मुक्त रहकर भी महाराजा रणजीतसिंह का प्रताप पूरी तेजी के साथ चमक रहा था।
चन्द्रनामी शायरों ने महाराज की शान में इसी मौके के लिए कासीदे कहे थे। मगर उपस्थित लोगों के चेहरों से उनके दिलों में जोश खाता हुआ संगीत—प्रेम देखकर महाराज ने गाना शुरू करने का हुक्म कर दिया। तबले पर थाप पड़ी, साजिन्दों ने सुर मिलाया, नींद से झपकती हुई आंखें खुल गयीं और गाना शुरू हो गया।
१. रेशमी कपड़ो के नाम
उस शाही महफिल में रात भर मीठे—मीठे गानों की बौछार होती रही। पीलू और पिरच, देस और विभाग के मदभरे झोंके चलते रहे। सुन्दरी नर्तकियों ने बारी—बारी से अपना कमाल दिखाया। किसी की नाजभरी अदाएँ दिलों में खुब गयीं, किसी का थिरकना कत्लेआम कर गया, किसी की रसीली तानों पर वाह—वाह मच गई। ऐसी तबियत बहुत कम थीं जिन्होनें सच्चाई के साथ गाने का पवित्र आनन्द न उठाया हो।
चार बजे होगे श्यामा की बारी आयी तो उपस्थित लोग सम्हल बैठे। चाव के मारे लोग आगे खिसकने लगे। खुमारी से भरी हुई आंखें चौंक पड़ी। वृन्दा महफिल में आई और सर झुकाकर खड़ी हो गई। उसे देखकर लोग हैरत में आ गये। उसके शरीर पर न आबदार गहने थे, खुशरंग, भड़कीली पेशवाज। वह सिर्फ एक गेरूए रंग की साड़ी पहने हुए थी। जिस तरह गुलाब की पंखुरी पर डूबते हुए सूरज की सुनहरी किरण चमकती है, उसी तरह उसके गुलाबी होठों पर मुस्कराहट झलकती थी। उसका आडम्बर से मुक्त सौंदर्य अपने प्राकृतिक वैभव की शान दिखा रहा था। असली सौदर्य बनाव—सिंगार का मोहताज नहीं होता। प्रकृति के दर्शन से आत्मा को जो आनन्द प्राप्त होता है वह सजे हुए बगीचों की सैर से मुमकिन नहीं। वृन्दा ने गायारू
सब दिन नाहीं बराबर जात।
यह गीत इससे पहले भी लोगो ने सुना था मगर इस वक्त कादृसा असर कभी दिलों पर नहीं हुआ था। किसी के सब दिन बराबर नहीं जाते यह कहावत रोज सुनते थे। आज उसका मतलब समझ में आया। किसी रईस को वह दिन याद आया जब खुद उसके सिर पर ताजा था, आज वह किसी का गुलाम है। किसी को अपने बचपन की लाड़—प्यार की गोद याद आई, किसी को वह जमाना याद आया, जब वह जीवन के मोहक सपने देख रहा था। मगर अफसोस अब वह सपना तितर—बितर हो गया। वृन्दा भी बीते हुए दिनों को याद करने लगी। एक दिन वह था कि उसके दरवाजे पर अताइयों और गानेवालों की भीड रहती थी। औरखुशियों की और आज! इसके आगे वृन्दा कुछ सोच न सकीं। दोनों हालातों का मुकाबिला बहुत दिल तोड़नेवाला था, निराशा से भर देने वाला। उसकी आवाज भारी हो गई और रोने से गला बैठ गया।
महाराजा रणजीतसिंह श्यामा के तर्ज व अन्दाज को गौर से देख रहे थे। उनकी तेज निगाहें उसके दिल में पहुँचने की कोशिश कर रही थीं। लोग अचम्भे में पड़े हुए थे कि क्यों उनकी जबान से तारीफ और कद्रदानी की एक बात भी न निकली। वह खुश न थे, वह ख्याल में डूबे हुए थे। उन्हें हुलिये से साफ पता चल रहा था कि यह औरत हरगिज अपनी अदाओं को बेचनेवाली औरत नहीं है। यकायक वह उठ खडे हुए और बोले दृश्यामा, बृहस्पति को मैं फिर तुम्हारा गाना सुनूँगा।
वृन्दा के चले जाने के बाद उसका फूल—सा बच्चा राजा उठा और आंखें मलता हुआ बोला—अम्मां कहॉँ है ?
प्रेमसिंह ने उसे गोद में लेकर कहा—अम्मॉँ मिठाई लेने गई है।
राजा खुश हो गया, बाहर जाकर लड़कों के साथ खेलने लगा। मगर कुछ देर के बाद फिर बोला—अम्मॉँ मिठाई।
प्रेमसिंह ने मिठाई लाकर दी। मगर राजा रो—रोकर कहता रहा, अम्मा मिठाई। वह शायद समझ गया था कि अम्माँ की मिठाई इस मिठाई से ज्यादा मीठी होगी।
आखिर प्रेमसिंह ने उसे कंधे पर चढ़ा लिया और दोपहर तक खेतों में घूमता रहा। राजा कुछ देर तक चुप रहता और फिर चौंककर पूछने लगता—अम्मा कहॉँ है ?
बूढ़े सिपाही के पास इस सवाल का कोई जबाब न था। वह बच्चे के पास से एक पल को कहीं न जाता और उसे बतों में लगाये रहता कि कहीं वह फिर न पूछ बैठै, अम्मा कहॉँ है? बच्चों की स्मरणशक्ति कमजोर होती है। राजा कई दिनों तक बेकार रहा, आखिर धीरे—धीरे मॉँ की याद उसके दिल से मिट गई।
इस तरह तीन महीने गुजर गये। एक रोज शाम के वक्त राजा अपने दरवाजे पर खेल रहा था कि वृन्दा आती दिखाई दी। राजा ने उसकी तरफ गौर से देखा, जरा झिझका, फिर दौड़कर उसकी टॉगो से लिपट गया और बोला—अम्मा, आयी, अम्मा आयी।
वृन्दा की आंखों से आंसू जारी हो गए। उसने राजा को गोद में उठा लिया और कलेजे से लगाकर बोली— बेटा, अभी मैं नहीं आयी, फिर कभी आऊँगी।
राजा इसका मतलब न समझा। वह उसका हाथ पकड़कर खींचता हुआ घर की तरफ चला। मॉँ की ममता वृन्दा को दरवाजे तक ले गयी। मगरचौखट से आगे न ले जा सकी। राजा ने बहुत खीचा मगर वह आगे न बढ़ी। तब राजा की बड़ी—बड़ी आंखों में अॉंसू भर आये । उसके होठ फैल गये और वह रोने लगा।
प्रेमसिंह उसका रोना सुनकर बाहर निकल आया, देखा तो वृन्दा खड़ी है। चौंककर बोला—वृन्दा मगर वृन्दा कुछ जबाब न दे सकीं।
प्रेमसिंह ने फिर कहा— बाहर क्यों खड़ी हो, अन्दर आओ। अब तक कहॉँ थीं ?
वृन्दा ने आंसूँ पोछते हुए जबाब दिया— मैं अन्दर नहीं आऊँगी।
प्रेमसिंह ने फिर कहा—आओ आओ, अपने बूढ़े बाप की बातों का बुरा न मानों।
वृन्दा दृ नहीं दादा, मैं अन्दर कदम नहीं रख सकती।
प्रेमसिंह दृ क्यों ?
वृन्दा—कभी बताऊँगी। मैं तुम्हारे पास वह तेगा लेने आयी हूँ।
प्रेमसिंह ने अचरज में जाकर पूछा— उसे लेकर क्या करोगी ?
वृन्दा— अपनी बेइज्जती का बदला लूँगी।
प्रेमसिंह किससे—रणजीतसिंह से।
प्रेमसिंह जमीन पर बैठ गया और वृन्दा की बातों पर गौर करने लगा, फिर बोलादृ वृन्दा, तुम्हें मौका क्योंकर मिलेगा ?
वृन्दा दृ कभी—कभी धूल के साथ उड़कर चींटी आसमान तक पहुँचती है।
प्रेमसिंह दृ मगर बकरी शेर से क्योंकर लड़ेगी ?
वृन्दा— इस तेगे की मदद से।
प्रेमसिंह दृ इस तेगे ने कभी छिपकर खून नहीं किया।
वन्दा दृ दादा, यह विक्रमादित्य का तेगा है। इसने हमेशा दुखियारों की मदद की है।
प्रेमसिंह ने तेगा लाकर वृन्दा के हाथ में रख दिया। वृन्दा उसे पहलू में छिपाकर जिस तरह से आयी थी उसी तरह चली गई। सूरज डूब गया था। पश्चिम के क्षितिज में रोशनी का कुछ—कुछ निशान बाकी था और भैंसे अपने बछडे को देखने के लिए चरागाहों से दौड़ती हुई आवाज से मिमियाती चली आती थीं और वृन्दा को रोता छोड़कर शाम के अँधेरे डरावने जंगल की तरफ जा रही थी।
वृहस्पति का दिन था। रात के दस बज चुके है। महाराजा रणजीतसिंह अपने विलास—भवन में शोभायमान हो रहे है। एक रात बत्तियों वाला झाड़ रोशन हे। मानों दीपक—सुंदरी अपनी सहेलियों के साथ शबनम का घूँघट मुंह पर ड़ाले हुए अपने रूम में गर्व में खोई हुई है। महाराजा साहाब के सामने वृन्दा गेरूए रंग की साड़ी पहने बैठी है। उसके हाथ में एक बीन है, उसी पर वह एक लुभावना गीत अलाप रही है।
महाराज बोले—श्यामा, मैं तुम्हारा गाना सुनकर बहुत खुश हुआ, तुम्हे क्या इनाम दूँ ?
श्यामा ने एक विशेष भाव से सिर झुकाकर कहा—हुजूर के अख्तियार में सब कुछ है।
रणजीतसिंह—जागीर लोगी ?
श्यामा दृ ऐसी चीज दीजिए, जिससे आपका नाम हो जाए।
महाराजा ने वृन्दा की तरफ गौर से देखा। उसकी सादगी कह रही थी कि वह धन—दौलत को कुछ नहीं समझती। उसकी दृष्टि की पवित्रता और चेहरे की गम्भीरता साफ बता रही है कि वह वेश्या नही है जो अपनी अदाओं को बेचती है। फिर पूछा दृ कोहनूर लोगी ?
श्यामा दृ वह हुजूर के ताज में अधिक सुशोभित है।
महाराज ने आश्चर्य में पड़कर कहा—तुम खुद मॉँगो।
श्यामा मिलेगा — ?
रणजीत सिंह दृ हॉँ
श्यामा दृ मुझे इन्साफ के खून का बदला दिया जाय।
महाराज रणजीतसिंह चौंक पड़े। वृन्दा की तरफ फिर गौर से देखा और सोचने लगे, इसका क्या मतलब है। इन्साफ तो खून का प्यासा नहीं होता, यह औरत जरूर किसी जालिम रईस या राजा की सताई हुई है। क्या अजब है कि उसका पति कहीं का राजा हो। जरूर ऐसा ही है। उसे किसी ने कत्ल कर दिया है। इन्साफ को खून की प्यास इसी हालत में होती हैय इसी वक्त इन्साफ खूंखार जानवर हो जाता है। मैंने वायदा किया कि वह जो मॉँगेगी वह दूँगा। उसने एक बेशकीमती चीज मॉँगी है, इन्साफ के खूँन का बदला। वह उसे मिलना चाहिए। मगर किसका खून ? राजा ने फिर पहलू बदलकर सोचा—किसका खून ? यह सवाल मेरे दिल में पैदा न होना चाहिए। इन्साफ जिसका जिसका खूंन मॉँगे उसका खून मुझे देना चाहिए। इन्साफ के सामने सबका खून बराबर है। मगर इन्साफ को खून पाने का हक है, इसका फैसला कौन करेगा ? बैर के बुखार से भरे हुए आदमी के हाथ मे इसका फैसला नहीं होना चाहिए। अकसर एक कड़ी बातय एक दिल जला देने वाला ताना इन्साफ के दिल में खून की प्यास पैदा कर देता है। इस दिल जलादेने वाले ताने की आग उस वक्त् तक नहीं बुझती जब तक उस पर खून के छीटे न दिये जाऍं। मैंने जबान दे दी है तो गलती हुई । पूरी बात सुने बगैर, मुझे इन्साफ के खून का बदला देने का वादा हरगिज न करना चाहिए था। इन विचारों ने राजा को कई मिनट तक अपने में खोया हुआ रक्खा। आखिर वह बोला—श्यामा, तुम कौन हो ?
वृन्दा दृ एक अनाथ औरत।
राजा— तुम्हारा घर कहॉँ है ?
वृन्दा दृ माहनगर में ।
रणजीतसिंह ने वृन्दा को फिर गौर से देखा। कई महीने पहले रात के समय माहनगर में एक भोली—भाली औरत की जो तसवीर दिल में खिंची थी वह इस औरत से बहुत कुछ मिलती—जुलती थी। उस वक्त आंखें इतनी बेधड़क न थीं। उस वक्त अॉंखों में शर्म का पानी था, अब शोखी की झलक है। तब सच्चा मोती था, अब झूठा हो गया।
महाराज बोले दृ श्यामा, इन्साफ किसका खून चाहता है .?
वृन्दा दृ जिसे आप दोषी ठहरायें । जिस दिन हुजूर ने रात को माहनगर में पड़ाव किया था उसी रात को आपके सिपाही मुझे जबरदस्ती खींचकर पड़ाव पर लाये ओर मुझे इस काबिल नहीं रक्खा कि लौटकर अपने घर जा सकूँ। मुझे उनकी नापाक निगाहों का निशाना बनना पड़ा। उनकी बेबाक जवानों ने उनके शर्मनाक इशारों ने मेरी इज्जत खाक में मिला दी। आप वहॉँ मौजूद थे और आपकी बेकस रैयत पर यह जुल्म किया जा रहा था। कौन मुजरिम है ? इन्साफ किसका खून चाहता है ? इसका फैसला आप करें।
रणजीतसिंह जमीन पर आंखें गड़ाये सुनते रहे। वृन्दा ने जरा दम लेकर फिर कहना शुरू किया—मैं विधवा स्त्री हूँ। मेरी इज्जत और आबरू के रखवाले आप है। पति—वियोग के साढे तीन साल मैंने तपस्विनी बनकर काटे थे। मगर आपके आदमियों ने मेरी तपस्या धूल में मिला दी। मैं इस योग्य नहीं रही कि लौटकर अपने घर जा सकूँ। अपने बच्चों के लिए मेरी गोद अब नहीं खुलती। अपने बूढे बाप के सामने मेरी गर्दन नहीं उठती। मैं अब अपने गॉँव की औरतों से आंखें चुराती हूँ। मेरी इज्जत लुट गई। औरत की इज्जत कितनी कीमती चीज है, इसे कौन नहीं जानता ? एक औरत की इज्जत के पीछे लंका का शानदार राज्य मिट गया। एक ही औरत की इज्जत के लिए कौरव वंश का नाश हो गया। औरतों की इज्जत के लिए हमेशा खून की नदियां बही हैं और राज्य उलट गये है। मेरी इज्जत आपके आदमियों ने ली है, इसका जबाबदेह कौन है। इन्साफ किसका खून चाहता है, इसका फैसला आप करें।
वृन्दा का चेहरा लाल हो गया। महाराजा रणजीत सिंह एक गँवार देहाती औरत का यह हौसला, यह ख्याल और जोशीली बात सुनकर सकते में आ गये। कांच का टुकड़ा टूटकर तेज धारावाला छुरा हो जाता है वहीं कैफियत इन्सान के टूटे हुए दिल की है।
आखिर महाराज ने ठंडी सॉँस ली और हसरतभरे लहजे में बोले—श्यामा, इंसाफ जिसका खून चाहता है, वह मैं हूँ।
इतना कहने के साथ महाराज रणजीतसिंह का चेहरा भभक उठा और दिल बेकाबू हो गया। तत्काल भावनाओं के नशे में आदमी का दिल आसमान की बुलंदियों तक जा पहुंचता है। कांटे के चुभने से कराहनेवाला इन्सान इसी नशे में मस्त होकर खंजर की नोक कलेजे में चुभो लेता है। पनी की बौछार से डरनेवाला इन्सान गले—गले पानी में अकड़ता हुआ चला जाता है। इस हालत में इन्सान का दिल एक साधारण शक्ति और असीम उत्साह अनुभव करने लगता है। इसी हालात में इन्सान छोटे—से—छोटे जलील से जलील काम करता है और इसी हालात में इन्सान अपने वचन और कर्म की ऊंचाई से देवताओं को भी लज्जित कर देता है। महाराजा रणजीतसिंह अद्विग्न होकर उठ खड़े हुए और ऊंची आवाज में बोले—श्यामा, इन्साफ जिसका खून चाहता है, वह मैं हूँ ! तुम्हारे साथ जो जुल्म हुआ है उसका जबाबदेह मैं हूँ। बुजुर्गो ने कहा है कि ईश्वर के सामने राजा अपने नौकरों की सख्ती और जबरदस्ती का जिम्मेदार होता है।
यह कहकर राजा ने तेजी के साथ अचकन के बन्द खोल दिये और वृन्दा के सामने घुटनों के बल, सीना फैलाकर बैठते हुए बोले दृ श्यामा, तुम्हारे पहलू में तलवार छिपी हुई है। वह विक्रमादित्य की तलवार है। उसने कितनी ही बार न्याय की रक्षा की है। आज एक अभागे राजा के खून से उसकी प्यास बुझा दो बेशक वह राजा अभागा है जिसके राज्य में अनाथों पर अत्याचार होता है।
वृन्दा के दिल में अब एक जबरदस्त तब्दीली पैदा हुई, बदले की भावना ने प्रेम और आदर को जगह दी। रणजीतसिंह ने अपनी जिम्मेदारी मान ली, वह उसके सामने मुजरिम की हैसियत मे इन्साफ की तलवार का निशाना बनने के लिए खड़े है, उनकी जान अब उसकी मुट्ठी में है। उन्हें मारना या जिलाना अब उसका अख्तियार है।
यह खयाल उसकी बदले की भावना को ठंडा कर देने के लिए काफी थे। प्रताप ओर ऐश्वर्य जब अपने स्वर्ण—सिंहासन से उतरकर दया की याचना करने लगता है तो कौन ऐसा ह्रदय है जो पसीज न जाएगा ? वृन्दा ने दिल पर सब्र करके पहलू से खंजर निकाला मगर वार न कर सकीं। तलवार उसके हाथ से छूटकर गिर पड़ी।
महाराज रणजीतसिंह समझ गये कि औरत की हिम्मत दगा दे गई । वह बड़ी तेजी से लपके और तेगे को हाथ में उठा लिया। यकायक दाहिना हाथ पागलों जैसे जोश के साथ ऊपर को उठा। वह एक बार जोर से बोले ‘वाह गुरूकी जय' और करीब था कि तलवार सीने में डूब जाय, बिजली कौंधकर बादल के सीने में घुसने ही वाली थी कि वृन्दा एक चीख मारकर उठी और राजा के ऊपर उठे हुए हाथ को अपने दोनों हाथों से मजबूत पकड़ लिया। रणजीतसिंह ने झटका देकर हाथ छुड़ाना चाहा मगर कमजोर औरत ने उनके हाथ को इस तरह जकड़ा था कि जैसे मुहब्बत दिल को जकड़ लेती है। बेबस होकर बोले—श्यामा, इन्साफ को अपनी प्यास बुझाने दो।
श्यामा ने कहा—महाराज उसकी प्यास बुझ गई। यह तलवार इसकी गवाह है।
महाराज ने तेगे को देखा। इस वक्त उसमें दूज के चॉँद की चमक थी। सत्य और न्याय के चमकते हुए सूरज ने उस चॉँद को अलोकित कर दिया था।
—जमाना, फरवरी १९११