Chandragupt in Hindi Fiction Stories by Jayshankar Prasad books and stories PDF | Chandragupt

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Chandragupt

चन्द्रगुप्त

जयशंकर प्रसाद


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पात्र-परिचय

पुरुष-पात्र

चाणक्य (विष्णुगुप्त) : मौर्य साम्राज्य का निर्माता

चन्द्रगुप्त : मौर्य सम्राट्‌

नन्द : मगध-सम्राट्‌

राक्षस : मगध का अमात्य

वररुचि (कात्यायन) : मगध का मन्त्री

आम्भीक : तक्षशिला का राजकुमार

सिंहरण : मालव गण-मुख्य का कुमार

पर्वतेश्वर : पंजाब का राजा (पोरस)

सिकन्दर : ग्रीक-विजेता

फिलिप्स : सिकन्दर का क्षत्रप

मौर्य-सेनापति : चन्द्रगुप्त का पिता

एनीजाक्रीटीज : सिकन्दर का सहचर

देवबल, नागदप, गण-मुख्य : मालव-गणतन्त्र के पदाधिकारी

साइबर्टियस, मेगास्थनीज : यवन-दूत

गान्धार-नरेश : आम्भीक का पिता

सिल्यूकस : सिकन्दर का सेनापति

दाण्ड्यायन : एक तपस्वी

स्त्री-पात्र

अलका : तक्षशिला की राजकुमारी

सुवासिनी : शकटार की कन्या

कल्याणी : मगध-राजकुमारी

नीला, लीला : कल्याणी की सहेलियाँ

मालविला : सिन्धु-देश की कुमारी

कार्नेलिया : सिल्यूकस की कन्या

मौर्य-पत्नी : चन्द्रगुप्त की माता

एलिस : कार्नेलिया की सहेली

प्रथम अंक

(स्थानः तक्षशिला के गुरुकुल का मठ)

(चाणक्य और सिंहरण)

चाणक्यः सौम्य, कुलपति ने मुझे गृहस्थ-जीवन में प्रवेश करनेकी आज्ञा दे दी। केवल तुम्हीं लोगों को अर्थशास्त्र पढ़ाने के लिए ठहराथा; क्योंकि इस वर्ष के भावी स्नातकों को अर्थशास्त्र का पाठ पढ़ाकरमुझ अकिञ्चन को गुरु-दक्षिणा चुका देनी थी।

सिंहरणः आर्य, मालवों को अर्थशास्त्र की उतनी आवश्यकता नहीं,जितनी अस्त्रशास्त्र की। इसलिए मैं पाठ में पिछड़ा रहा, क्षमाप्रार्थी हूँ।चाणक्यः अच्छा, अब तुम मालव जाकर क्या करोगे?

सिंहरणः अभी तो मैं मालव नहीं जाता। मुझे तक्षशिला कीराजनीति पर दृष्टि रखने की आज्ञा मिली है।

चाणक्यः मुझे प्रसन्नता होती है कि तुम्हारा अर्थशास्त्र पढ़नासफल होगा। क्या तुम जानते हो कि यवनों के दूत यहाँ क्यों आये हैं?

सिंहरणः मैं उसे जानने की चेष्टा कर रहा हूँ। आर्यावर्त्त काभविष्य लिखने के लिए कुचक्र और प्रतारणा की लेखनी और मसि प्रस्तुतहो रही है। उपरापथ के खण्ड राज-द्वेष से जर्जर हैं। शीघ्र भयानकविस्फोट होगा।

(सहसा आम्भीक और अलका का प्रवेश)

आम्भीकः कैसा विस्फोट? युवक, तुम कौन हो?

सिंहरणः एक मालव।

आम्भीकः नहीं, विशेष परिचय की आवश्यकता है।

सिंहरणः तक्षिला गुरुकुल का एक छात्र।

आम्भीकः देखता हूँ कि तुम दुर्विनीत भी हो।

सिंहरणः कदापि नहीं राजकुमार! विनम्रता के साथ निर्भीक होनामालवों का वंशानुगत चरित्र है, और मुझे तो तक्षशिला की शिक्षा का भीगर्व है।

आम्भीकः परन्तु तुम किसी विस्फोट की बातें अभी कर रहे थे।और चाणक्य, क्या तुम्हारा भी इसमें कुछ हाथ है?

(चाणक्य चुप रहता है)

आम्भीकः (क्रोध से) बोलो ब्राह्मण, मेरे राज्य में ह कर, मेरेअन्न से पल कर, मेरे ही विरुद्ध कुचक्रों का सृजन!

चाणक्यः राजकुमार, ब्राह्मण न किसी के राज्य में रहता है औरन किसी के अन्न से पलता है; स्वराज्य में विचरता है और अमृत होकर जीता है। वह तुम्हारा मिथ्या गर्व है। ब्राह्मण सब कुछ सामर्थ्य रखनेपर भी, स्वेच्छा से इन माया-स्तूपों को ठुकरा देता है, प्रकृति के कल्याणके लिए अपने ज्ञान का दान देता है।

आम्भीकः वह काल्पनिक महत्व माया-जाल है; तुम्हारे प्रत्यक्षनीच कर्म उस पर पर्दा नहीं डाल सकते।

चाणक्यः सो कैसे होगा अविश्वासी क्षत्रिय! इसी ने दस्यु औरम्लेच्छ साम्राज्य बना रहे हैं और आर्य-जाति पतन के कगार पर खड़ीएक धक्के की राह देख रही है।

आम्भीकः और तुम धक्का देने का कुचक्र विद्यार्थियों को सिखारहे हो!

सिंहरणः विद्यार्थी और कुचक्र! असम्भव। यह तो वे ही करसकते हैं, जिनके हाथ में अधिकार हो - जिनता स्वार्थ समुद्र से भीविशाल और सुमेरु से भी कठो हो, जो यवनों की मित्रता के लिए स्वयंवाल्हीक तक...

आम्भीकः बस-बस दुर्धर्ष युवक! बता, तेरा अभिप्राय क्या है?

सिंहरणः कुछ नहीं।

आम्भीकः नहीं, बताना होगा। मेरी आज्ञा है।

सिंहरणः गुरुकुल में केवल आचार्य की आज्ञा शिरोधार्य होती है;अन्य आज्ञाएँ, अवज्ञा के कान से सुनी जाती है राजकुमार!

अलकाः भाई! इस वन्य निर्झर के समान स्वच्छ और स्वच्छंदहृदय में कितना बलवान वेग है! यह अवज्ञा भी स्पृहणीय है। जाने दो।

आम्भीकः चुप रहो अलका, यह ऐसी बात नहीं है, जो यों हीउड़ा दी जाय। इसमें कुछ रहस्य है।

(चाणक्य चुपचाप मुस्कराता है)

सिंहरणः हाँ-हाँ, रहस्य है! यमन-आक्रमणकारियों के पुष्कलस्वर्ण से पुलकित होकर, आर्यावर्त्त की सुख-रजनी की शान्ति-निद्रा मेंउपरापथ की अगला धीरे से खोल देने का रहस्य है। क्यों राजकुमार!

सम्भवतः तक्षशिलाधीश वाल्हीक तक इसी रहस्य का उद्‌घाटन करने गयेथे?

आम्भीकः (पैर पटक कर) ओह, असह्य! युवक तुम बन्दी हो।

सिंहरणः कदापि नहीं; मालव कदापि बन्दी नहीं हो सकता।

(आम्भीक तलवार खींचता है।)

चंद्रगुप्तः (सहसा प्रवेश करके) ठीक है, प्रत्येर निरपराध आर्यस्वतंत्र है, उसे कोई बन्दी नहीं बना सकता है। यह क्या राजकुमार! खड्‌गको कोश में स्थान नहीं है क्या?

सिंहरणः (व्यंग्य से) वह तो स्वर्ण से भर गया है!

आम्भीकः तो तुम सब कुचक्र में लिप्त हो। और इस मालवको तो मेरा अपमान करने का प्रतिफल-मृत्यु-दण्ड अवश्य भोगना पड़ेगा।

चंद्रगुप्तः क्यों, वह क्या एक निस्सहाय छात्र तुम्हारे राज्य में शिक्षापाता है और तुम एक राजकुमार हो - बस इसीलिए?

(आम्भीक तलवार चलाता है। चन्द्रगुप्त अपनी तलवार पर उसेरोकता है; आम्भीक की तलवार छूट जाती है। वह निस्सहाय होकरचंद्रगुप्त के आक्रमण की प्रतीक्षा करता है। बीच में अलका आजातीहै।)

सिंहरणः वीर चन्द्रगुप्त, बस। जाओ राजकुमार, यहाँ कोई कुचक्रनहीं है, अपने कुचक्रों से अपनी रक्षा स्वयं करो।

चाणक्यः राजकुमारी, मैं गुरुकुल का अधिकारी हूँ। मैं आज्ञा देताहूँ कि तुम क्रोधाभिभूत कुमार को लिवा जाओ। गुरुकुल में शस्त्रों काप्रयोग शिक्षा के लिए होता है, द्वंद्व-युद्ध के लिए नहीं। विश्वास रखना,इस दुर्व्यवहार का समाचार महाराज के कानों तक न पहुँचेगा।

अलकाः ऐसा ही हो। चलो भाई!

(क्षुब्ध आम्भीक उसके साथ जाता है।)

चाणक्यः (चन्द्रगुप्त से) तुम्हारा पाठ समाप्त हो चुका है औरआज का यह काण्ड असाधारण है। मेरी सम्मति है कि तुम शीघ्र तक्षशिलाका परित्याग कर दो। और सिंहरण, तुम भी।

चन्द्रगुप्तः आर्य, हम मागध हैं और यह मालव। अच्छा होता कियहीं गुरुकुल में हम लोग शस्त्र की परीक्षा भी देते।

चाणक्यः क्या यही मेरी शिक्षा है? बालकों की-सी चपलतादिखलाने का यह स्थल नहीं। तुम लोगों को समय पर शस्त्र का प्रयोगकरना पड़ेगा। परन्तु अकारण रक्तपात नीति-विरुद्ध है।

चन्द्रगुप्तः आर्य! संसार-भर की नीति और शिक्षा का अर्थ मैंनेयही समझा है कि आत्म-सम्मान के लिए मर-मिटना ही दिव्य जीवन है।सिंहरण मेरा आत्मीय है, मित्र है, उसका मान मेरा ही मान है।

चाणक्यः देखूँगा कि इस आत्म-सम्मान की भविष्य-परीक्षा में तुमकहाँ तक उपीर्ण होते हो!

सिंहरणः आपके आशीर्वाद से हम लोग अवश्य सफल होंगे।

चाणक्यः तुम मालव हो और यह मागध, यही तुम्हारे मान काअवसान है न? परन्तु आत्म-सम्मान इतन ही से सन्तुष्ट नहीं होगा। मालवऔर मागध को भूलकर जब तुम आर्यावर्त का नाम लोगे, तभी वहमिलेगा। क्या तुम नहीं देखते हो कि आगामी दिवसों में, आर्यावर्त के सबस्वतंत्र राष्ट्र एक के अनन्तर दूसरे विदेशी विजेता से पददलित होंगे? आजजिस व्यंग्य को लेकर इतनी घटना हो गयी है, वह बात भावी गांधारनरेशआम्भीक के हृदय में, शल्य के समान चुभ गयी है। पञ्चनन्द-नरेशपर्वतेश्वर के विरोध के कारण यह क्षुद्र-हृदय आम्भीक यवनों का स्वागतकरेगा और आर्यावर्त का सर्वनाश होगा।

चन्द्रगुप्तः गुरुदेव, विश्वास रखिए; यह सब कुछ नहीं होनेपावेगा। यह चंद्रगुप्त आपके चरणों की शपथपूर्वक प्रतिज्ञा करता है, कियवन यहाँ कुछ न कर सकेंगे।

चाणक्यः तुम्हारी प्रतिज्ञा अचल हो। परन्तु इसके लिए पहले तुममगध जाकर साधन-सम्पन्न बनो। यहाँ समय बिताने का प्रयोज नहीं। मैंभी पञ्चनन्द-नरेश से मिलता हुआ मगध आऊँगा। और सिंहरण, तुम भीसावधान!

सिंहरणः आर्य, आपका आशीर्वाद ही मेरा रक्षक है।

(चंद्रगुप्त और चाणक्य का प्रस्थान)

सिंहरणः एक अग्निमय गन्धक का स्रोत आर्यावर्त के लौह अस्त्रागार में घुसकर विस्फोट करेगा। चञ्चला रण-लक्ष्मी इन्द्र-धनुष-सीविजयमाला हाथ में लिये उस सुन्दर नील-लोहित प्रलय-जलद में विचरणकरेगी और वीर-हृदय मयूर-से नाचेंगे। तब आओ देवि! स्वागत!!

अलकाः मालव-वीर, अभी तुमने तक्षशिला का परित्याग नहींकिया?

सिंहरणः क्यों देवि? क्या मैं यहाँ रहने के उपयुक्त नहीं हूँ?

अलकाः नहीं, मैं तुम्हारी सुख-शान्ति के लिए चिन्तित हूँ! भाईने तुम्हारा अपमान किया है, पर वह अकारण न था; जिसका जो मार्गहै उस पर वह चलेगा। तुमने अनधिकार चेष्टा की था! देखती हूँ प्रायःमनुष्य, दूसरों को अपने मार्ग पर चलाने के लिए रुक जाता है, औरअपना चलना बन्द कर देता है।

सिंहरणः परन्तु भद्रे, जीवन-काल में भिन्न-भिन्न मार्गों की परीक्षाकरते हुए, जो ठहरता हुआ चलता है, वह दूसरों को लाभ ही पहुँचाताहै। यह कष्टदायक तो है; परन्तु निष्फल नहीं।

अलकाः किन्तु मनुष्य को अपने जीवन और सुख का भी ध्यानरखान चाहिए।

सिंहरणः मानव कब दानव से भी दुर्दान्त, पशु से भी बर्बर औरपत्थर से भी कठोर, करुणा के लिए निरवकाश हृदयवाला हो जाएगा, नहींजाना जा सकता। अतीत सुखों के लिए सोच क्यों, अनागत भविष्य केलिए भय क्यों और वर्तमान को मैं अपने अनुकूल बना ही लूँगा; फिरचिन्ता किस बात की?

अलकाः मालव, तुम्हारे देश के लिए तुम्हारा जीवन अमूल्य है,और वही यहाँ आपपि में है।

सिंहरणः राजकुमारी, इस अनुकम्पा के लिए कृतज्ञ हुआ। परन्तुमेरा देश मालव ही नहीं, गांधार भी है। यही क्या, समग्र आर्यावर्त है,इसलिए मैं...

अलकाः (आश्चर्य से) क्या कहते हो?

सिंहरणः गांधार आर्यावर्त से भिन्न नहीं है, इसीलिए उसके पतनको मैं अपना अपमान समझता हूँ।

अलकाः (निःश्वास लेकर) इसका मैं अनुभव कर रही हूँ। परन्तुजिस देश में ऐसे वीर युवक हों, उसका पतन असम्भव है। मालववीर,तुम्हारे मनोबल में स्वतंत्रता है और तुम्हारी दृढ़ भुजाओं में आर्यावर्त केरक्षण की शक्ति है; तुम्हें सुरक्षित रहना ही चाहिए। मैं भी आर्यावर्त कीबालिका हूँ - तुमसे अनुरोध करती हूँ कि तुम शीघ्र गांधार छोड़ दो।

मैं आम्भीक को शक्ति भर, पतन से रोकूँगी; परन्तु उसके न मानने परतुम्हारी आवश्यकता होगी। जाओ वीर!

सिंहरणः अच्छा राजकुमारी, तुम्हारे स्नेहानुरोध से मैं जाने के लिएबाध्य हो रहा हूँ। शीघ्र ही चला जाऊँगा देवि! किन्तु यदि किसी प्रकारसिन्धु की प्रखर धारा को यवन सेना न पार कर सकती...।

अलकाः मैं चेष्टा करूँगी वीर, तुम्हारा नाम?

सिंहरणः मालवगण के राष्ट्रपति का पुत्र सिंहरण।

अलकाः अच्छा, फिर कभी।

(दोनों एक-दूसरे को देखते हुए प्रस्थान करते हैं।)

(मगध-सम्राट्‌ का विलास-कानन)

(विलासी युवक और युवतियों का विहार)

नन्दः (प्रवेश करके) आज वसन्त उत्सव है क्या?

एक युवकः जय हो देव! आपकी आज्ञा से कुसुमपुर के नागरिकोंने आयोजन किया है।

नन्दः परन्तु मदिरा का तो तुम्हारे समाज में अभाव है, फिर

आमोद कैसा? (एक युवती से) देखो-देखो! तुम सुन्दरी हो; परन्तु तुम्हारेयौवन का विभ्रम अभी संकोच की अर्गला से जकड़ा हुआ है! तुम्हारीआँखों में काम का सुकुमार संकेत नहीं, अनुराग की लाली नहीं! फिरकैसा प्रमोद!

एक युवतीः हम लोक तो निमंत्रित नागरिक हैं देव! इसकादायित्व तो निमंत्रण देने वाले पर है।

नन्दः वाह, अच्छा उलाहना रहा! (अनुचर से) मूर्ख! अभी औरकुछ सुनावेगा? तून नहीं जानता कि मैं ब्रह्मास्त्र से अधिक इन सुन्दरियोंके कुटिल कटाक्षों से डरता हूँ! ले आ - शीघ्र ले जा - नागरिकों परतो मैं राज्य करता हूँ; परन्तु मेरी मगध की नागरिकाओं का शासन मेरेऊपर है। श्रीमती, सबसे कह हो - नागरिक नन्द, कुसुमपुर के कमनीयकुसुमों से अपराध के लिए क्षमा माँगता है और आज के दिन वह तुमलोगों का कृतज्ञ सहचर-मात्र है।

(अनुचर लोग प्रत्येक कुञ्ज मं मदिरा-कलश और चषक पहुँचातेहैं। राक्षस और सुवासिनी का प्रवेश, पीछे-पीछे कुछ नागरिक।)

राक्षसः सुवासिनी! एक पात्र और; चलो इस कुञ्ज में।

सुवासिनीः नहीं, अब मैं न सँभव सकूँगी।

राक्षसः फिर इन लोगों से कैसे पीछा छूटेगा?

सुवासिनीः मेरी एक इच्छा है।

एक नागरिकः क्या इच्छा है सुवासिनी, हम लोग अनुचर हैं।केवल एक सुन्दर अलाप की, एक कोमल मूर्च्छना की लालसा है।

सुवासिनीः अच्छा तो अभिनय के साथ।

सबः (उल्लास से) सुन्दरियों की रानी सुवासिनी की जय!

सुवासिनीः परन्तु राकषस को कच का अभिनय करना पड़ेगा।

एक नागरिकः और तुम देवयानी, क्यों? यही न? राक्षस सचमुचराक्षस होगा, यदि इसमें आनाकानी करे तो... चलो राक्षस!

दूसराः नहीं मूर्ख! आर्य राक्षस कह, इतने बड़े कला-कुशलविद्वान को किस प्रकार सम्बोधित करना चाहिए, तू इतना भी नहीं जानता।आर्य राक्षस! इन नागरिको की प्रार्थना से इस कष्ट को स्वीकार कीजिए।

(राक्षस उपयुक्त स्थान ग्रहण करता है। कुछ मूक अभिनय, फिरउसके बाद सुवासिनी का भाव-सहित गान)

तुम कनक किरण के अन्तराल में

लुक-छिप कर चलते हो क्यों?

नत मस्तक गर्व वहन करते

यौवन के धन, रस-कन ढरते।

हे लाज भरे सौन्दर्य!

बता दो मौन बने रहते हो क्यों?

अधरों के मधुर कगारों में

कल-कल ध्वनि की गुंजारों में!

मधुसरिता-सी यह हँसी तरल

अपनी पीते रहते हो क्यों?

बेला विभ्रम की बीत चली

रजनीगंधा की कली खिली-

अब सान्ध्य मलय-आकुलित

दुकूल कलित हो, यों छिपते हो क्यों?

(‘साधु-साधु’ की ध्वनि)

नन्दः उस अभिनेत्री को यहाँ बुलाओ।

(सुवासिनी नन्द के समीप आकर प्रणत होती है।)

नन्दः तुम्हारा अभिनय तो अभिनय नहीं हुआ!

नागरिकः अपितु वास्तविक घटना, जैसी देखने में आवे, वैसी ही।

नन्दः तुम बड़े कुशल हो। ठीक कहा।

सुवासिनीः तो मुझे दण्ड मिले। आज्ञा कीजिए देव!

नन्दः मेरे साथ एक पात्र।

सुवासिनीः परन्तु देव, एक बड़ी भूल होगी।

नन्दः वह क्या?

सुवासिनीः आर्य राक्षस का अभिनयपूर्ण गान नहीं हुआ।

नन्दः राक्षस!

नागरिकः यही है, देव!

(राक्षस आकर प्रणाम करता है।)

नन्दः वसन्तोत्सव की रानी की आज्ञा से तुम्हें गाना होगा।

राक्षसः उसका मूल्य होगा एक पात्र कादम्ब।

(सुवासिनी पात्र भर कर देती है।)

(सुवासिनी मान का मूक अभिनय करती है, राक्षस सुवासिनी केसम्मुख अभिनय सहित गाता है -)

निकल मत बाहर दुर्बल आह।

लगेगा तुझे हँसी का शीत

शरद नीरद माला के बीच

तड़प ले चपला-सी भयभीत

पड़ रहे पावन प्रेम-फुहार

जलन कुछ-कुछ हैं मीठी पर

सम्हाले चल कितनी है दूर

प्रलय तक व्याकुल हो न अधीर

अश्रुमय सुन्दर विरह निशीथ

भरे तारे न ढुलकते आह!

न उफना दे आँसू हैं भरे

इन्हीं आँखों में उनकी चाह

काकली-सी बनने की तुम्हें

लगन लग जाय न हे भगवान्‌

पपीहा का पी सुनता कभी!

अरे कोकिल की देख दशा न;

हृदय है पास, साँस की राह

चले आना-जाना चुपचाप

अरे छाया बन, छू मत उसे

भरा है तुझमें भीषण ताप

हिला कर धड़कन से अविनीत

जगा मत, सोया है सुकुमार

देखता है स्मृतियों का स्वप्न,

हृदय पर मत कर अत्याचार।

कई नागरिकः स्वर्गीय अमात्‌ वक्रनास के कुल की जय!

नन्दः क्या कहा, वक्रनास का कुल?

नागरिकः हाँ देव, आर्य राक्षस उन्हीं के भ्रातुष्पुत्र हैं।

नन्दः राक्षस! आज से तुम मेरे अमात्यवर्ग मं नियुक्त हुए। तुमतो कुसुमपुर के एक रत्न हो!

(उसे माला पहनाता है और शस्त्र देता है।)

सबः सम्राट की जय हो! अमात्य राक्षस की जय हो!

नन्दः और सुवासिनी, तुम मेरी अभिनयशाला की रानी!

(सब हर्ष प्रकट करते हुए जाते हैं।)

(पाटलिपुत्र मं एक भग्नकुटीर)

चाणक्यः (प्रवेश करके) झोंपड़ी ही तो थी, पिताजी यहीं मुझे

गोद में बिठाकर राज-मन्दिर का सुख अनुभव करते थे। ब्राह्मण थे, ऋतऔर अमृत जीविका से सन्तुष्ट थे, पर वे भी न रहे! कहाँ गये? कोईनहीं जानता। मुझे भी कोई नहीं पहचानता। यही तो मगध का राष्ट्र है।प्रजा की खोज है किसे? वृद्ध दरिद्र ब्राह्मण कहीं ठोकरें खाता होगा याकहीं मर गया होगा!

(एक प्रतिनिधि का प्रवेश)

प्रतिवेशीः (देखकर) कौन हो जी तुम? इधर के घरों को बड़ीदेर से क्या घूर रहे हो?

चाणक्यः ये घर हैं, जिन्हें पशु की खोह कहने में भी संकोचहोता है? यहाँ कोई स्वर्ण-रत्नों का ढ़ेर नहीं, जो लूटने का भय हो।

प्रतिवेशीः युवक, क्या तुम किसी को खोज रहे हो?

चाणक्यः हाँ, खोज रहा हूँ, यहीं झोंपड़ी में रहने वाले वृद्धब्राह्मण चणक को। आजकल वे कहाँ हैं, बता सकते हो?

प्रतिवेशीः (सोचकर) ओहो, कई बरस हुए, वह तो राजा की आज्ञासे निर्वासित कर दिया गया है। (हँसकर) वह ब्राह्मण भी बड़ा हठी था। उसनेराजा नन्द के विरुद्ध प्रचार करना आरम्भ किया था। सो भी क्यों, एक मन्त्रीशकटार के लिए। उसने सुना कि राजा ने शकटार को बन्दीगृह में बंध करवाड़ाला। ब्राह्मण ने नगर में इस अन्याय के विरुद्ध आतंक फैलाया। सबसे कहनेलगा कि - “यह महापद्म का जारज पुत्र नन्द महापद्म का हत्याकारी नन्द -मगध में राक्षसी राज्य कर रहा है। नागरिकों, सावधान!”

चाणक्यः अच्छा तब क्या हुआ!

प्रतिवेशीः वह पकड़ा गया। सो भी कब, जब एक दिन अहेर कीयात्रा करते हुए नन्द के लिए राजपथ में मुक्तकंठ से नागरिकों ने अनादरके वाक्य कहे। नन्द ने ब्राह्मण को समझाया। यह भी कहा कि तेरा मित्रशकटार बन्दी है, मारा नहीं गया। पर वह बड़ा हठी था; उसने न माना,न ही माना। नन्द ने भी चिढ़कर उसक ब्राह्मस्व बौद्ध-विहार में दे दिया औरउसे मगध से निर्वासित कर दिया। यही तो उसकी झोंपड़ी है।

(जाता है।)

चाणक्यः (उसे बुलाकर) अच्छा एक बात और बताओ।

प्रतिवेशीः क्या पूछते हो जी, तुम इतना जान लो कि नन्द कोब्राह्मणों से घोर शत्रुता है और वह बौद्ध धर्मानुयायी हो गया है।

चाणक्यः होने दो; परन्तु यह तो बताओ - शकटार का कुटुम्बकहाँ है?

प्रतिवेशीः कैसे मनुष्य हो? अरे राज-कोपानल में वे सब जलमरे इतनी-सी बात के लिए मुझे लौटाया था छि।

(जाना चाहता है।)

चाणक्यः हे भगवान्‌! एक बात दया करके और बता दो -शकटार की कन्या सुवासिनी कहाँ है?

प्रतिवेशीः (जोर से हँसता है।) युवक! वह बौद्ध-विहार में चलीगयी थी, परन्तु वहाँ भी न रह सकी। पहले तो अभिनय करती फिरतीथी, आजकल कहाँ है, नहीं जानता।

(जाता है।)

चाणक्यः पिता का पता नहीं, झोंपड़ी भी न रह गयी। सुवासिनीअभिनेत्री हो गयी - सम्भवतः पेट की ज्वाला से। एक साथ दो-दो कुटुम्बोंका सर्वनाश और कुसुमपुर फूलों की सेज से ऊँघ रहा है! क्या इसीलिए राष्ट्रकी शीतल छाया का संगठन मनुष्य ने किया था! मगध! मगध! सावधान! इतनाअत्याचार! सहना असम्भव है। तुझे उलट दूँगा! नया बनाऊँगा, नहीं तो नाशही करूँगा! (ठहरकर) एक बार चलूँ, नन्द से कहूँ। नहीं, परन्तु मेरी भूमि,मेरी वृपि, वही मिल जाय; मैं शास्त्र-व्यवसायी न रहूँगा, मैं कृषक बनूँगा। मुझएराष्ट्र की भलाई-बुराई से क्या तो चलूँ। (देखकर) यह एक लकड़ी का स्तम्भअभी उसी झोंपड़ी का खड़ा है, इसके साथ मेरे बाल्यकाल की सहस्रों भाँवरियाँलिपटी हुई हैं, जिन पर मेरी धवल मधुर हँसी का आवरण चढ़ा रहता था!

शैशव की स्निग्ध स्मृति! विलीन हो जा!

(खम्भा खींच कर गिराता हुआ चला जाता है।)

(कुसुमपुर के सरस्वती मन्दिर के उपवन का पथ)

राक्षसः सुवासिनी! हठ न करो।

सुवासिनीः नहीं, उस ब्राह्मण को दण्ड दिये बिना सुवासिनी जीनहीं सकती अमात्य, तुमको करना होगा। मैं बौद्ध-स्तूप की पूजा करकेआ रही थी, उसने व्यंग किया और वह बड़ा कठोर था, राक्षस! उसनेकहा - “वेश्याओं के लिए भी एक धर्म की आवश्यकता थी, चलो अच्छाही हुआ। ऐसे धर्म के अनुगत पतितों की भी कमी नहीं।”

राक्षसः यह उसका अन्याय था।

सुवासिनीः परन्तु अन्याय का प्रतिकार भी है। नहीं तो मैं समझूँगीकि तुम भी वैसे ही एक कठोर ब्राह्मण हो।

राक्षसः मैं वैसा हूँ कि नहीं, यह पीछे मालूम होगा। परन्तुसुवासिनी, मैं स्वयं हृदय से बौद्धमत का समर्थक हूँ, केवल उसकी दार्शनिकसीमा तक - इतना ही कि संसार दुःखमय है।

सुवासिनीः इसके बाद?

राक्षसः मैं इस क्षणिक जीवन की घड़ियों को सुखी बनाने कापक्षपाती हूँ। और तुम जानती हो कि मैंने ब्याह नहीं किया, परन्तु भिक्षुभी न बन सका।

सुवासिनीः तब आज से मेरे कारण तुमको राजचक्र मं बौद्धमतका समर्थन करना होगा।

राक्षसः मैं प्रस्तुत हूँ।

सुवासिनीः फिर लो, मैं तुम्हारी हूँ। मुझे विश्वास है कि दुराचारीसदाचार के द्वारा शुद्ध हो सकता है, और बौद्धमत इसका समर्थन करताहै, सबको शरण देता है। हम दोनों उपासक होकर सुखी बनेंगे।

राक्षसः इतना बड़ा सुख-स्वप्न का जाल आँखों में न फैलाओ।

सुवासिनीः नहीं प्रिय! मैं तुम्हारी अनुचरी हूँ। मैं नन्द की

विलास-लीला का क्षुद्र उपकरण बनकर नहीं रहना चाहती।

(जाती है।)

राक्षसः एक परदा उठ रहा है, या गिर रहा है, समझ में नहींआता - (आँख मींचकर) - सुवासिनी! कुसुमपुर का स्वर्गीय कुसुम मैंहस्तगत कर लूँ? नहीं, राजकोप होगा! परन्तु जीवन वृथा है। मेरी विद्या,मेरा परिष्कृत विचार सब व्यर्थ है। सुवासिनी एक लालसा है, एक प्यासहै। वह अमृत है, उसे पाने के लिए सौ बार मरूँगा।

(नेपथ्य से - हटो, माग छोड़ दो।)

राक्षसः कोई राजकुल की सवारी है? तो चलूँ।

(जाता है।)

(रक्षियों के साथ शिविका पर राजकुमारी कल्याणी का प्रवेश)

कल्याणीः (शिविका से उतरती हुई लीला से) शिविका उद्यान केबाहर ले जाने के लिए कहौ और रक्षी लोग भी वहीं ठहरें।

(शिविका ले कर रक्षक जाते हैं।)

कल्याणीः (देखकर) आज सरस्वती-मन्दिर में कोई समाज हैक्या? जा तो नीला, देख आ।

(नीला जाती है।)

लीलाः राजकुमारी, चलिए इस श्वेत शिला पर बैठिए। यहाँअशोक की छाया बड़ी मनोहर है। अभी तीसरे पहर का सूर्य कोमल होनेपर भी स्पृहणीय नहीं।

कल्याणीः चल।

(दोनों जाकर बैठती हैं, नीला आती है।)

नीलाः राजकुमारी, आज तक्षशिला से लौटे हुए स्नातक लोगसरस्वती-दर्शन के लिए आये हैं।

कल्याणीः क्या सब लौट आये हैं?

नीलाः यह तो न जान सकी।

कल्याणीः अच्छा, तू भी बैठ। देख, कैसी सुन्दर माधवी लताफैल रही है। महाराज के उद्यान में भी लताएँ ऐसी हरी-भरी नहीं, जैसेराज - आतंक से वे भी डरी हुई हों। सच नीला, मैं देखती हूँ किमहाराज से कोई स्नेह नहीं करता, डरता भले ही हो।

नीलाः सखी, मुझ पर उनका कन्या-सा ही स्नेह है, परन्तु मुझेडर लगता है।

कल्याणीः मुझे इसका बड़ा दुःख है। देखती हूँ कि समस्त प्रजाउनसे त्रस्त और भयभीत रहती है, प्रचण्ड शासन करने के कारण उनकाबड़ा दुर्नान है।

नीलाः परन्तु इसका उपाय क्या है? देख लीला, वे दो कौन इधरआ रहे हैं। चल, हम लोग छिप जायँ।

(सब कुंज में चली जाती हैं, दो ब्रह्मचारियों का प्रवेश)

एक ब्रह्मचारीः धर्मपालित, मगध को उन्माद हो गया है। वहजनसाधारण के अधिकार अत्याचारियों के हाथ में देकर विलासिता कास्वप्न देख रहा है। तुम तो गये नहीं, मैं अभी उपरापथ से आ रहा हूँ।गणतन्त्रों में सब प्रजा वन्यवीरुध के समान स्वच्छन्द फल-फूल रही है।इधर उन्मप मगध, साम्राज्य की कल्पना में निमग्न है।

दूसराः स्नातक, तुम ठीक कह रहे हो। महापद्म का जारज -पुत्र नन्द केवल शस्त्र-बल और कूटनीति के द्वारा सदाचारों के शिर परताण्डव नृत्य कर रहा है। वह सिद्धान्त विहीन, नृशंस, कभी बौद्धों कापक्षपाती, कभी वैदिकों का अनुायी बनकर दोनों में भेदनीति चलाकर बल-संचय करता रहता है। मुझे जनता धर्म की ओट में नचायी जा रही है।

परन्तु तुम देश-विदेश देखकर आये हो, आज मेरे घर पर तुम्हारा निमन्त्रणहै, वहाँ सब को तुम्हारी यात्रा का विवरम सुनने का अवसर मिलेगा।

पहिलाः चलो। (दोनों जाते हैं, कल्याणी बाहर आती है।)

कल्याणीः सुन कर हृदय गी गति रुकने लगती है। इतना कदर्थितराजपद! जिसे साधारण नागरिक भी घृणा की दृष्टि से देखता है - कितनेमूल्य का है लीला?

नेपथ्य सेः भागो - भागो! यह राजा का अहेरी चीता पिंजरेसे निकल भागा है, भागो, भागो!

(तीनों डरती हुई कुंज में छिपने लगती हैं। चीता आता है। दूरसे तीर आकर उसका शिर भेद कर निकल जाता है। धनुष लिये हुएचन्द्रगुप्त का प्रवेश)

चन्द्रगुप्तः कौन यहाँ है? किधर से स्त्रियों का क्रन्दन सुनाई पड़ाथा! - (देखकर) - अरे, यहाँ तो तीन कुसुमारियाँ हैं! भद्रे, पशु ने कुछचोट तो नहीं पहुँचायी?

लीलाः साधु! वीर! राजकुमारी की प्राण-रक्षा के लिए तुम्हेंअवश्य पुरस्कार मिलेगा !

चन्द्रगुप्तः कौन राजकुमारी, कल्याणी देवी?

लीलाः हाँ, यही न है? भय से मुख विवर्ण हो गया है।

चन्द्रगुप्तः राजकुमारी, मौर्य सेनापति का पुत्र चन्द्रगुप्त प्रणामकरता है।

कल्याणीः (स्वस्थ होकर, सलज्ज) नमस्कार, चन्द्रगुप्त, मैं कृतज्ञहुई। तुम भी स्नातक होकर लौटे हो?

चन्द्रगुप्तः हां देवि, तक्षशिला में पाँच वर्ष रहने के कारण यहाँके लोगों को पहचानने में विलम्ब होता है। जिन्हें किशोर छोड़कर गयाथा, अब वे तरुण दिखाई पड़ते हैं। मैं अपने कई बाल-सहचरों को भीपहचान न सका।

कल्याणीः परन्तु मुझे आशा थी कि तुम मुझे न भूल जाओगे।

चन्द्रगुप्तः देवि, यह अनुचर सेवा के उपयुक्त अवसर पर हीपहुँचा। चलिए, शिविका तक पहुँचा दूँ। (सब जाते हैं।)

(मगध में नन्द की राजसभा)

(राक्षस और सभासदों के साथ नन्द)

नन्दः तब?

राक्षसः दूत लौट आये और उन्होंने कहा कि पंचनंद-नरेश कोयह सम्बन्ध स्वीकार नहीं।

नन्दः क्यों?

राक्षसः प्राच्य - देश के बौद्ध और शूद्र राजा की कन्या से वेपरिणय नहीं कर सकते।

नन्दः इतना गर्व!

राक्षसः यह उसका गर्व नहीं, यह धर्म का दम्भ है, व्यंग है।मैं इसका फल दूँगा। मगध जैसे शक्तिशाली राष्ट्र का अपमान करके कोईयों ही नहीं बच जायेगा। ब्राह्मणों का यह...

(प्रतिहारी का प्रवेश)

प्रतिहारीः जय हो देव, मगध से शिक्षा के लिये गये हुए तक्षशिलाके स्नातक आये हैं।

नन्दः लिवा लाओ।

(दौवारिक का प्रस्थान; चन्द्रगुप्त के साथ कई स्नातकों का प्रवेश)

स्नातकः राजाधिराज की जय हो!

नन्दः स्वागत। अमात्य वररुचि अभी नहीं आये, देखो तो?

(प्रतिहारी का प्रस्थान और वररुचि के साथ प्रवेश)

वररुचिः जय हो देव, मैं स्वयं आ रहा था।

नन्दः तक्षशिला से लौटे हुए स्नातकों की परीक्षा लीजिए।

वररुचिः राजाधिराज, जिस गुरुकुल में मैं स्वयं परीक्षा देकरस्नातक हुआ हू, उसके प्रमाण की भी पुनः परीक्षा, अपने गुरुजनों के प्रतिअपमान करना है।

नन्दः किन्तु राजकोश का रुपया व्यर्थ ही स्नातकों को भेजने मेंलगता है या इसका सदुपयोग होता है, इसका निर्णय कैसे हो?

राक्षसः केवल सद्धर्म की शिक्षा ही मनुष्यों के लिए पर्याप्त है!और वह तो मगध में ही मिल सकती है।

(चाणक्य का सहसा प्रवेश; त्रस्त दौवारिक पीछे-पीछे आता है।)

चाणक्यः परन्तु बौद्धधर्म की शिक्षा मानव-व्यवहार के लिए पूर्णनहीं हो सकती, भले ही संघ-विहार में रहनेवालों के लिए उपयुक्त हो।

नन्दः तुम अनधिकार चर्चा करनेवाले कौन हो जी?

चाणक्यः तक्षशिला से लौटा हुआ एक स्नातक ब्राह्मण!

नन्दः ब्राह्मण! ब्राह्मण!! जिधर देखो कृत्या के समान इनकी

शक्ति-ज्वाला धधक रही है।

चाणक्यः नहीं महाराज! ज्वाला कहाँ? भस्मावगुण्ठित अंगारे रहगये हैं!

राक्षसः तब भी इतना ताप!

चाणक्यः वह तो रहेगा ही! जिस दिन उसका अन्त होगा, उसीदिन आर्यावर्त का ध्वंस होगा। यदि अमात्य ने ब्राह्मण-नाश करने काविचार किया हो तो जन्मभूमि की भलाई के लिए उसका त्याग कर दें;क्योंकि राष्ट्र का शुभ-चिन्तन केवल ब्राह्मण ही कर सकते हैं। एक जीवकी हत्या से डरनेवाले तपस्वी बौद्ध, सिर पर मँडराने वाली विपपियों से,रक्त-समुद्र की आँधियों से, आर्यावर्त की रक्षा करने में असमर्थ प्रमाणिहोंगे।

नन्दः ब्राह्मण! तुम बोलना नहीं जानते हो तो चुप रहना सीखो।

चाणक्यः महाराज, उसे सीखने के लिए मैं तक्षशिला गया था औरमगध का सिर ऊँचा करके उसी गुरुकुल में मैंने अध्यापन का कार्य भीकिया है। इसलिए मेरा हृदय यह नहीं मान सकता कि मैं मूर्ख हूँ।

नन्दः तुम चूप रहो!

चाणक्यः एक बात कहकर महाराज!

राक्षसः क्या?

चाणक्यः यवनों की विकट वाहिनी निषध-पर्वतमाला तक पहुँचगयी है। तक्षशिलाधीश की भी उसमें अभिसंधि है। सम्भवतः समस्तआर्यावर्त पादाक्रान्त होगा। उपरापथ में बहुत-से छोटे-छोटे गणतंत्र हैं, वेउस सम्मिलित पारसीक यवन-बल को रोकने में असमर्थ होंगे। अकेलेपर्वतेश्वर न साहस किया है, इसलिए मगध को पर्वतेश्वर की सहायताकरनी चाहिए।

कल्याणीः (प्रवेश करके) पिताजी, मैं पर्वतेश्वर के गर्व कीपरीक्षा लूँगी। मैं वृषल-कन्या हूँ। उस क्षत्रिय को यह सिखा दूँगी किराजकन्या कल्याणी किसी क्षत्राणी से कम नहीं। सेनापति को आज्ञा दीजिएकि आसन्न गांधार-युद्ध में मगध की एक सेना अवश्य जाय और मैं स्वयंउसका संचालन करूँगी। पराजित पर्वतेश्वर को सहायता देकर उसे नीचादिखाऊँगी।

(नन्द हँसता है।)

राक्षसः राजकुमारी, राजनीति महलों में नहीं रहती, इसे हम लोगोंके लिए छोड़ देना चाहिए। उद्धत पर्वतेश्वर अपने गर्व का फल भोगे,और ब्राह्मण चाणक्य! परीक्षा देकर ही कोई साम्राज्य-नीति समझ लेने काअधिकारी नहीं हो जाता।

चाणक्यः सच है बौद्ध अमात्य, परन्तु यवन आक्रमणकारी बौद्धऔर ब्राह्मण का भेद न रक्खेंगे।

नन्दः वाचाल ब्राह्मण! तुम अभी चले जाओष नहीं तो प्रतिहारीतुम्हें धक्के देकर निकाल देंगे।

चाणक्यः राजाधिराज! मैं जानता हूँ कि प्रमाद में मनुष्य कठोरसत्य का भी अनुभव नहीं करता, इसीलिए मैंने प्रार्थना नहीं की - अपनेअपहृत ब्राह्मणस्व के लिए मैंने भिक्षा नहीं माँगी? क्यों? जानता था किवह मुझे ब्राह्मण होने के कारण न मिलेगी! परन्तु जब राष्ट्र के लिए...

राक्षसः चुप रहो। तुम चणक के पुत्र हो न, तुम्हारे पिता भीऐसे ही हठी थे!

नन्दः क्या उसी विद्रोही ब्राह्मण की सन्तान? निकालो इसे अभीयहाँ से!

(प्रतिहारी आगे बढ़ता है, चन्द्रगुप्त सामने आकर रोकता है।)

चन्द्रगुप्तः सम्राट्‌, मैं प्रार्थना करता हूँ कि गुरुदेव का अपमान नकिया जाय। मैं भी उपरापथ से आ रहा हूँ। आर्य चाणक्य ने जो कुछकहा है, वह साम्राज्य के हित की बात है। उस पर विचार किया जाय।

नन्दः कौन? सेनापति मौर्य का कुमार चन्द्रगुप्त!

चन्द्रगुप्तः हाँ देव, मैं युद्ध-नीति सीखने के लिए ही तक्षशिलाभेजा गया था। मैंने अपनी आँखों गान्धार का उपप्लव देखा है, मुझे गुरुदेवके मत में पूर्ण विश्वास है। यह आगन्तुक आपपि पंचनंद-प्रदेश तक हीन रह जायगी।

नन्दः अबोध युवक, तो क्या इसीलिए अपमानित होने पर भीमैं पर्वतेश्वर की सहायता करूँ? असम्भव है। तुम राजाज्ञाओं में बाधा नदेकर शिष्टता सीखो। प्रतिहारी, निकालो इस ब्राह्मण को! यह बड़ा हीकुचक्री मालूम पड़ता है!

चन्द्रगुप्तः राजाधिराज, ऐसा करके आप एक भारी अन्याय करेंगेऔर मगध के शुभचिन्तकों को शत्रु बनाएँगे।

राजकुमारीः पिताजी, चन्द्रगुप्त पर ही दया कीजिए। एक बातउसकी भी मान लीजिए।

नन्दः चुप रहो, ऐसे उद्दण्ड को मैं कभी नहीं क्षमा करता; औरसुनो चन्द्रगुप्त, तुम भी यदि इच्छा हो तो इसी ब्राह्मण के साथ जा सकतेहो, अब कभी; मगध में मुँह न दिखाना ।

(प्रतिहारी दोनों को निकालना चाहता है, चाणक्य रुक कर कहताहै।)

चाणक्यः सावधान नन्द! तुम्हारी धर्मान्धता से प्रेरित राजनीतिआँधी की तरह चलेगी, उसमें नन्द-वंश समूल उखड़ेगा। नियति-सुन्दरीके भावों में बल पड़ने लगा है। समय आ गया है कि शूद्र राजसिंहासनके हटाये जायँ और सच्चे क्षत्रिय मूर्धाभिषिक्त हों।

नन्दः यह समझकर कि ब्राह्मण अवध्य है, तूम मुझे भय दिखलाताहै! प्रतिहारी, इसकी शिखा पकड़ कर इसे बाहर करो।

(प्रतिहारी उसकी शिखा पकड़कर घसीटता है, वह निश्शंक औरदृढ़ता से कहता है।)

चाणक्यः खींच ले ब्राह्मण की शिखा! शूद्र के अन्न से पले हुएकुपे! खींच ले! परन्तु यह शिखा नन्दकुल की काल-सर्पिणी है, वह तबतक न बन्धन में होगी, जब तक नन्द-कुल निःशेष न होगा।

नन्दः इसे बन्दी करो।

(चाणक्य बन्दी किया जाता है।)

(सिन्धु-तटः अलका और मालविका)

मालविकाः राजकुमारी! मैं देख आयी, उद्‌भांड में सिन्धु पर सेतुबन रहा है। युवराज स्वयं उसका निरीक्षण करते हैं और मैंने उक्त सेतुका एक मानचित्र भी प्रस्तुत किया था। यह कुछ अधूरा-सा रह गया है;पर इसके देखने से कुछ आभास मिल जायगा।

अलकाः सखी! बड़ा दुःख होता है, जब मैं यह स्मरण करतीहूँ कि स्वयं महाराज का इसमें हाथ है। देखूँ तेरा मानचित्र!

(मालविका मानचित्र देती है, अलका उसे देखती है; एक यवन-सैनिक का प्रवेश - वह मानचित्र अलका से लेना चाहता है।अलकाः दूर हो दुर्विनीत दस्यु! (मानचित्र अपने कंचुक में छिपालेती है।)

यवनः यह गुप्तचर है, मैं इसे पहचानता हूँ। परन्तु सुन्दरी! तुम कौन हो; जो इसकी सहायता कर रही हो, अच्छा हो कि मुझे मानचित्रमिल जाय, और मैं इसे सप्रमाण बन्दी बनाकर महाराज के सामने लेजाऊँ।

अलकाः यह असम्भव है। पहले तुम्हें बताना होगा कि तुम यहाँकिस अधिकार से यह अत्याचार किया चाहते हो?

यवनः मैं? मैं देवपुत्र विजेता अलक्षेन्द्र का नियुक्त अनुचर हूँऔर तक्षशिला की मित्रता का साक्षी हूँ। यह अधिकार मुझे गांधार-नरेशने दिया है।

अलकाः ओह! यवन, गांधार-नरेश ने तुम्हें यह अधिकार कभीनदीं दिया होगा कि तुम आर्य-ललनाओं के साथ धृष्टता का व्यवहार करो।

यवनः करना ही पड़ेगा, मुझे मानचित्र लेना ही होगा।

अलकाः कदापि नहीं।

यवनः क्या यह वही मानचित्र नहीं है, जिसे इस स्त्री ने उद्‌भांडमें बनाना चाहा था।

अलकाः परन्तु यह तुम्हें नहीं मिल सकता। यदि तुम सीधे यहाँसे न टलोगे तो शांति-रक्षकों को बुलाऊँगी।

यवनः तब तो मेरा उपकार होगा, क्योंकि इस अँगूठी को देखकरवे मेरी ही सहायता करेंगे - (अँगूठी दिखाता है।)

अलकाः (देखकर सिर पकड़ लेती है।) ओह!

यवनः (हँसता हुआ) अब ठीक पथ पर आ गयी होगी बुद्धि।लाओ, मानचित्र मुझे दे दो।

(अलका निस्सहाय इधर-उधर देखती है; सिंहरण का प्रवेश)

सिंहरणः (चौंककर) हैं...कौन... राजकुमारी! और यह यवन!

अलकाः महावीर! स्त्री की मर्यादा को न समझने वोल इस यवनको तुम समझा दो कि यह चला जाय।

सिंहरणः यवन, क्या तुम्हारे देश की सभ्यता तुम्हें स्त्रियों कासम्मान करना नहीं सिखाती? क्या सचमुच तुम बर्बर हो?

यवनः मेरी उस सभ्यता ही ने मुझे रोक लिया है, नहीं तो मेरायह कर्तव्य था कि मैं उस मानचित्र को किसी भी पुरुष के हाथ में होनेसे उसे जैसे बनता, ले ही लेता।

सिंहरणः तुम बड़े प्रगल्भ हो यवन! क्या तुम्हें भय नहीं कि तुमएक दूसरे राज्य में ऐसा आचरण करके अपनी मृत्यु बुला रहे हो?

यवनः उसे आमन्त्रण देने के लिए ही उतनी दूर से आया हूँ।

सिंहरणः राजकुमारी! यह मानचित्र मुझे देकर आप निरापद होजायँ, फिर मैं देख लूँगा।

अलकाः (मानचित्र देती हुई) तुम्हारे ही लिए तो यह मँगाया गयाथा।

सिंहरणः (उसे रखते हुए) ठीक है, मं रुका भी इसीलिए था।(यवन से) हाँ जी, कहो अब तुम्हारी क्या इच्छा है?

यवनः (खड्‌ग निकालकर) मानचित्र मुझे दे दो या प्राण देनाहोगा।

सिंहरणः उसके अधिकारी का निर्वाचन खड्‌ग करेगा। तो फिरसावधान हो जाओ। (तलवार खींचता है।)

(यवन के साथ युद्ध - सिंहरण घायल होता है; परन्तु यवन कोउसक भीषण प्रत्याक्रमण से भय होता है, वह भाग निकलता है।)

अलकाः वीर! यद्यपि तुम्हें विशअराम की आवश्यकता है; परन्तुअवस्था बड़ी भयानक है। वह जाकर कुछ उत्पात मचावेगा। पिताजीपूर्णरूप से यवनों के हाथ में आत्म-समर्पण कर चुके हैं।

सिंहरणः (हँसता और रक्त पोंछता हुआ) मेरा काम हो गयाराजकुमारी! मेरी नौका प्रस्तुत है, मैं जाता हूँ। परन्तु बड़ा अनर्थ हुआचाहता है। क्या गांधार-नरेश किसी तरह न मानेंगे?

अलकाः कदापि नहीं। पर्वतेश्वर से उनका बद्धमूल बैर है।

सिंहरणः अच्छा देखा जायगा, जो कुछ होगा। देखिए, मेरी नौकाआ रही है, अब विदा माँगता हूँ।

(सिन्धु में नौका आती है, घायल सिंहरण उस पर बैठता है,सिंहरण और अलका दोनों एक-दूसरे को देखते हैं।)

अलकाः मालविका भी तुम्हारे साथ जायगी - तुम जाने योग्यइस समय नहीं हो।

सिंहरणः जैसी आज्ञा। बहुत शीघ्र फिर दर्शन करूँगा। जन्मभूमिके लिए ही यह जीवन है, फिर अब आप-सी सुकुमारियाँ इसकी सेवामें कटिबद्ध हैं, तब मैं पीछे कब रहूँगा। अच्छा, नमस्कार!

(मालविका नाव में बैठती है। अलका सतृष्ण नयनों से देखती हुईनमस्कार करती है। नाव चली जाती है।)

(चार सैनिकों के साथ यवन का प्रवेश)

यवनः निकल गया - मेरा अहेर! यह सब प्रपंच इसी रमणीका है। इसको बन्दी बनाओ।

(सैनिक अलका को देखकर सिर झुकाते है।)

यवनः बन्दी करो सैनिक।

सैनिकः मैं नहीं कर सकता।

यवनः क्यों, गांधार-नरेश ने तुम्हें क्या आज्ञा दी है?

सैनिकः यही कि आप जिसे कहें, उसे हम लोग बन्दी करकेमहाराज के पास ले चलें।

यवनः फिर विलम्ब क्यों?

(अलका संकेत से वर्जित करती है।)

सैनिकः हम लोगों की इच्छा।

यवनः तुम राजविद्रोही हो?

सैनिकः कदापि नहीं, पर यह काम हम लोगों से न हो सकेगा।

यवनः सावधान! तुमको इस आज्ञा-भंग का फल भोगना पड़ेगा।मैं स्वयं बन्दी बनाता हूँ।

(अलका की ओर बढ़ता है, सैनिक तलवार खींच लेते हैं।)

यवनः (ठहरकर) यह क्या?

सैनिकः डरते हो क्या? कायर! स्त्रियों पर वीरता दिखाने में बड़ेप्रबल हो और एक युवक के सामने से भाग निकले!

यवनः तो क्या, तुम राजकीय आज्ञा का स्वयं न पालन करोगेऔर न करने दोगे!

सैनिकः यदि साहस को महने का तो आगे बढ़ो।

अलकाः (सैनिकों से) ठहरो; विवाद करने का समय नहीं है।(यवन से) कहो, तुम्हारा अभिप्राय क्या है?

यवनः मैं तुम्हें बन्दी बनाना चाहता हूँ।

अलकाः कहाँ ले चलोगे?

यवनः गांधार-नरेश के पास।

अलकाः मैं चलती हूँ, चलो।

(आगे अलका, पीछे यवन और सैनिक जाते हैं।)

(मगध का बन्दीगृह)

चाणक्यः समीर की गति भी अवरुद्ध है, शरीर का फिर क्याकहना! परन्तु मन में इतने संकल्प और विकल्प? एक बार निकलने पातातो दिखा देता कि इन दुर्बल हाथों में साम्राज्य उलटने की शक्ति है औरब्राह्मण के कोमल हृदय में कर्तव्य के लिए प्रलय की आँधी चला देनेकी भी कठोरता है। जकड़ी हुई लौह-श्रंखले! एक बार तू फूलों की मालाबन जा और मैं मदोन्मप विलासी के समान तेरी सुन्दरता को भंग करदूँ! क्या रोने लगूँ? इश निष्ठुर यंत्रणा की कठोरता से बिलबिलाकर दयाकी भिक्षा माँगूँ! माँगूँ कि मुझे भोजन के लिए एक मु ी चने देते हो,न दो, एक बार स्वतंत्र कर दो। नहीं, चाणक्य! ऐसा न करना। नहीं तोतू भी साधारण-सी ठोकर खाकर चूर-चूर हो जाने वाली एक बामी होजायगा। तब मैं आज से प्रण करता हूँ कि दया किसी से न माँगूँगा औरअधिकार तथा अवसर मिलने पर किसी पर न करूँगा। (ऊपर देख कर)क्या कभी नहीं? हाँ, हाँ, कभी किसी पर नहीं। मैं प्रलय के समानअबाधगति और कर्तव्य में इन्द्र के वज्र के समान भयानक बनूँगा।

(किवाड़ खुलता है, वररुचि और राक्षस का प्रवेश)

राक्षसः स्नातक! अच्छे तो हो?

चाणक्यः बुरे कब थे बौद्ध अमात्य!

राक्षसः आज हम लोग एक काम से आये हैं। आशा है कि तुमअपनी हठवादिता से मेरा और अपना दोनों का अपकार न करोगे।

वररुचिः हाँ चाणक्य! अमात्य का कहना मान लो।

चाणक्यः भिक्षोपजीवी ब्राह्मण! क्या बौद्धों का संग करते-करतेतुम्हें अपनी गरिमा का सम्पूर्ण विस्मरण हो गया? चाटुकारों के सामने हाँमें हाँ मिलाकर, जीवन की कठिनाइयों से बचकर, मुझे भी कुपे का पाठपढ़ाना चाहते हो! भूलो मत, यदि राक्षस देवता हो जा तो उसका विरोधकरने के लिए मुझे ब्राह्मण से दैत्य बनना पड़ेगा।

वररुचिः ब्राह्मण हो भाई! त्याग और क्षमा के प्रमाण - तपोनिधिब्राह्मण हो। इतना -

चाणक्यः त्याग और क्षमा, तप और विद्या, तेज और सम्मान केलिए है - लोहे औ सोने के सामने सिर झुकाने के लिए हम लोग ब्राह्मणनहीं बने हैं। हमारी दी हुई विभूति से हमीं को अपमानित किया जाय,ऐसा नहीं हो सकता। कात्यायन! अब केवल पामिनि से काम न चलेगा।अर्थशास्त्र और दण्ड-नीति की आवश्यकता है।

वररुचिः मैं वार्तिक लिख रहा हूँ चाणक्य! उसी के लिए तुम्हेंसहकारी बनाना चाहता हूँ। तुम इस बन्दीगृह से निकलो।

चाणक्यः मैं लेखक नहीं हूँ कात्यायन! शास्त्र-प्रणेता हूँ,व्यवस्थापक हूँ।

राक्षकः अच्छा मैं आज्ञा देता हूँ कि तुम विवाद न बढ़ाकर स्पष्टउपर दो। तुम तक्षशिला में मगध के गुप्त प्रणिधि बनकर जाना चाहतेहो या मृत्यु चाहते हो? तुम्हीं पर विश्वास करके क्यों भेजना चाहता हूँ,यह तुम्हारी स्वीकृति मिलने पर बताऊँगा।

चाणक्यः जाना तो चाहता हूँ तक्षशिला, पर तुम्हारी सेवा के लिएनहीं। और सुनो, पर्वतेश्वर का नाश करने के लिए तो कदापि नहीं।

राक्षसः यथेष्ठ है, अधिक कहने की आवश्यकता नहीं।

वररुचिः विष्णुगुप्त! मेरा वार्तिक अधूरा रह जायगा। मान जाओ।तुमको पाणिनि के कुछ प्रयोगों का पता भी लगाना होगा जो उसशालातुरीय वैयाकरण ने लिखे हैं! फिर से एक बार तक्षशिला जाने परही उनका -

चाणक्यः मेरे पास पाणिनि में सिर खपाने का समय नहीं। भाषाठीक करने से पहले मैं मनुष्यों को ठीक करना चाहता हूँ, समझे!

वररुचिः जिसने ‘श्वयुवमघोनामतद्धते’ सूत्र लिखा है, वह केवलवैयाकरण ही नहीं, दार्शनिक भी था। उसकी अवहेलना!

चाणक्यः यह मेरी समझ में नहीं आता, मैं कुपा; साधारण युवकऔर इन्द्र को कभी एक सूत्र में नहीं बाँध सकता। कुपा, कुपा ही रहेगा;इन्द्र, इन्द्र! सुनो वररुचि! मैं कुपे को कुपा ही बनाना चाहता हूँ। नीचोंके हाथ में इन्द्र का अधिकार चले जाने से जो सुख होता है, उसे मैंभोग रहा हूँ। तुम जाओ।

वररुचिः क्या मुक्ति भी नहीं चाहते?

चाणक्यः तुम लोगों के हाथ से वह भी नहीं।

राक्षसः अच्छा तो फिर तुम्हें अन्धकूप में जाना होगा।

(चन्द्रगुप्त का रक्तपूर्ण खड्‌ग लिये सहसा प्रवेश - चाणक्य का

बन्धन काटता है, राक्षस प्रहरियों को बुलाना चाहता है।)

चन्द्रगुप्तः चुप रहो! अमात्य! शवों में बोलने की शक्ति नहीं,तुम्हारे प्रहरी जीवित नहीं रहे।

चाणक्यः मेरे शिष्य! वत्स चन्द्रगुप्त!

चन्द्रगुप्तः चलिए गुरुदेव! (खड्‌ग उठाकर राक्षस से) यदि तुमनेकुछ भी कोलाहल किया तो... (राक्षस बैठ जाता है; वररुचि गिर पड़ताहै। चन्द्रगुप्त चाणक्य को लिये निकलता हुआ किवाड़ बन्द कर देता है।)

(गांधार-नरेश का प्रकोष्ठ)

(चिन्तायुक्त प्रवेश करते हुए राजा)

राजाः बूढ़ा हो चला, परन्तु मन बूढ़ा न हुआ। बहुत दिनों तकतृष्णा को तृप्त करता रहा, पर तृप्त नहीं होती। आम्भीक तो अभी युवकहै, उसके मन में महप्वाकांक्षा का होना अनिवार्य है। उसका पथ कुटिलहै, गंधर्व-नगर की-सी सफलता उसे अफने पीछे दौड़ा रही है। (विचारकर) हाँ, ठीक तो नहीं है; पर उन्नति के शिखर पर नाक के सीधे चढानेमें बड़ी कठिनता है। (ठहरकर) रोक दूँ। अब से भी अच्छा है, जबवे घुस आवेंगे तब तो गांधार को भी वही कष्ट भोगना पड़ेगा, जो हमदूसरों को देना चाहते हैं।

(अलका के साथ यवन और रक्षकों का प्रवेश)

राजाः बेटी! अलका!

अलकाः हाँ महाराज, अलका।

राजाः नहीं, कहो - हाँ पिताजी। अलका, कब तक तुम्हें सिखातारहूँ।

अलकाः नहीं महाराज!

राजाः फिर महाराज! पागल लड़की। कह, पिताजी!

अलकाः वह कैसे महाराज! न्यायाधिकरण पिता - सम्बोधन सेपक्षपाती हो जायगा।

राजाः यह क्या?

यवनः महाराज! मुझे नहीं मालूम कि ये राजकुमारी है। अन्यथा,मैं इन्हें बन्दी न बनाता।

राजाः सिल्यूकस! तुम्हारा मुख कंधे पर से बोल रहा है। यवन!यह मेरी राजकुमारी अलका है। आ बेटी - (उसकी ओर हाथ बढ़ाताहै, वह अलग हट जाती है।)

अलकाः नहीं महाराज! पहले न्याय कीजिए।

यवनः उद्‌भाण्ड पर बँधनेवाले पुल का मानचित्र इन्होंने एक स्त्रीसे बनवाया है, और जब मैं उसे माँगने लगा, तो एक युवक को देकरइन्होंने उसे हटा दिया। मैंने यह समाचार आप तक निवेदन किया औरआज्ञा मिली कि वे लोग बन्दी किये जायँ; परन्तु वह युवक निकल गया।

राजाः क्यों बेटी! मानचित्र देखने की इच्छा हुई थी? (सिल्यूकससे) तो क्या चिन्ता है, जाने दो। मानचित्र तुम्हारा पुल बँधना रोक नहींसकता।

अलकाः नहीं महाराज! मानचित्र एक विशेष कार्य से बनवायागया है - वह गांधार की लगी हुई कालिख छुड़ाने के लिए...।

राजाः सो तो मैं जानता हूँ बेटी! तुम क्या कोई नासमझ हो!

(वेग से आम्भीक का प्रवेश)

आम्भीकः नहीं पिताजी, आपके राज्य में एक भयानक षड्‌यन्त्रचल रहा है और तक्षशिला का गुरुकुल उसका केन्द्र है। अलका उशरहस्यपूर्ण कुचक्र की कुंजी है।

राजाः क्यों अलका! यह बात सही है?

अलकाः सत्य है, महाराज! जिस उन्नति की आशा में आम्भीकने यह नीच कर्म किया है, उसका पहला फल यह है कि आज मैं बन्दिनीहूं, सम्भव है कल आप होंगे। और परसों गांधार की जनता बेगार करेगी।उनका मुखिया होगा आपका वंश - उज्जवलकारी आम्भीक!

यवनः सन्धि के अनुसार देवपुत्र का साम्राज्य और गांधार मित्र-राज्य हैं, व्यर्थ की बात है।

आम्भीकः सिल्यूकस! तुम विश्राम करो। हम इसको समझ करतुमसे मिलते हैं।

(यवन का प्रस्थान, रक्षकों का दूसरी ओर जाना)

राजाः परन्तु आम्भीक! राजकुमारी बन्दिनी बनायी जाय, वह भीमेरे ही सामने! उसके लिए एक यवन दण्ड की व्यवस्था करे, यही तोतुम्हारे उद्योगों का फल है।

अलकाः महाराज! मुझे दण्ड दीजिए, कारागार में भेजिए, नहींतो मैं मुक्त होने पर भी यही करूँगी। कुलपुत्रों के रक्त से आर्यावर्त कीभूमि सिंचेगी! दानवी बनकर जननी जन्म-भूमि अपनी सन्तान को खायगी।महाराज! आर्यावर्त के सब बच्चे आम्भीक जैसे नहीं होंगे। वे इसकी मानप्रतिष्ठा और रक्षा के लिए तिल-तिल कट जायँगे। स्मरण रहे, यवनों कीविजयवाहिनी के आक्रमण को प्रत्यावर्तन बनाने वाले यही भारत-सन्तानहोंगे। तब बचे हुए क्षतांग वीर, गांधार को - भारत के द्वाररक्षक को -विश्वासघाती के नाम से पुकारेंगे और उसमें नाम लिया जायगा मेरा पिताका! उसे सुनने के लिए मुझे जीवित न छोड़िए दण्ड दीजिए - मृत्युदण्ड!

आम्भीकः इसे उन सबों ने खूब बकराया है। राजनीति के खेलयह क्या जाने? पिताजी, पर्वतेश्वर-उद्दंड पर्वतेश्वर ने जो मेरा अपमानकिया है, उसका प्रतिशोध!

राजाः हाँ बेटी! उसने स्पष्ट कह दिया है कि, कायर आम्भीकसे अपने लोक-विश्रुत कुल की कुमारी का ब्याह न करूँगा। और भी,उसने वितस्ता के इस पार अपनी एक चौकी बना दी है, जो प्राचीनसन्धियों के विरुद्ध है।

अलकाः तब महाराज! उस प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए जो लड़कर मर नहीं गया वह कायर नहीं तो और क्या है?

आम्भीकः चुप रहो अलका!

राजाः तुम दोनों ही ठीक बातें कर रहे हो, फिर मैं क्या करूँ?

अलकाः तो महाराज! मुझे दण्ड दिजीए, क्योंकि राज्य का

उपराधिकारी आम्भीक ही उसके शुभाशुभ की कसौटी है; मैं भ्रम में हूँ।

राजाः मैं यह कैसे कहूँ?

अलकाः तब मुझे आज्ञा दीजिए, मैं राजमन्दिर छोड़ कर चलीजाऊँ।

राजाः कहाँ जाओगी और क्या करोगी अलका?

अलकाः गांधार में विद्रोह मचाऊँगी।

राजाः नहीं अलका, तुम ऐसा नहीं करोगी।

अलकाः करूँगी महाराज, अवश्य करूँगी।

राजाः फिर मैं पागल हो जाऊँगा! मुझे तो विश्वास नहीं होता।

आम्भीकः और तब अलका, मैं अपने हाथों से तुम्हारी हत्याकरूँगा।

राजाः नहीं आम्भीक! तुम चुप रहो। सावधान! अलका के शरीरपर जो हाथ उठाना चाहता है, उसे मैं द्वन्द्व-युद्ध के लिए ललकारता हूँ।

(आम्भीक सिर नीचा कर लेता है।)

अलकाः तो मैं जाती हूँ पिता जी!

राजाः (अन्यमनस्क भाव से सोचता हुआ) जाओ!

राजाः आम्भीक!

आम्भीकः पिता जी!

राजाः लौट आओ।

आम्भीकः इस अवस्था में तो लौट आता; परन्तु वे यवन-सैनिकछाती पर खड़े हैं। पुल बँध चुका है। नहीं तो पहले गांधार का ही नाशहोगा।

राजाः तब? (निःश्वास लेकर) जो होना हो सो हो। पर एकबात आम्भीक! आ से मुझसे कुछ न कहना। जो उचित समझो करो। मैंअलका को खोजने जाता हूँ। गांधार जाने और तुम जानो।

(वेग से प्रस्थान)

(पर्वतेश्वर की राजसभा)

पर्वतेश्वरः आर्य चाणक्य! आपकी बातें ठीक-ठीक नहीं समझमें आतीं।

चाणक्यः कैसे आवेंगी, मेरे पास केवल बात ही है न, अभी कुछकर दिखाने में असमर्थ हूँ।

पर्वतेश्वरः परनतु इस समय मुझे यवनों से युद्ध करना है, मैंअपना एक भी सैनिक मगध नहीं भेज सकता।

चाणक्यः निरुपाय हूँ। लौट जाऊँगा। नहीं तो मगध की लक्षाधिकसेना आगामी यवन-युद्ध में पौरव पर्वतेश्वर की पताका के नीचे युद्ध करती।वही मगध, जिसने सहायता माँगने पर पञ्चनन्द का तिरस्कार किया था।

पर्वतेश्वरः हाँ, तो इस मगध-विद्रोह का केन्द्र कौन होगा? नन्दके विरुद्ध कौन खड़ा होता है?

चाणक्यः मौर्य-सेनानी का पुत्र चन्द्रगुप्त - जो मेरे साथ यहाँआया है।

पर्वतेश्वरः पिप्पली-कानन के मौर्य भी तो वैसे ही वृषल है;उसको राज्य सिंहासन दीजियेगा?

चाणक्यः आर्य-क्रियाओं का लोप हो जाने से इन लोगों कोवृषलत्व मिला; वस्तुतः ये क्षत्रिय हैं। बौद्धों के प्रभाव में आने से इनकेश्रौत-संस्कार छूट गये हैं अवश्य, परन्तु इनके क्षत्रिय होने में कोई सन्देहनहीं। और, महाराज! धर्म के नियाम ब्राह्मण हैं, मुझे पात्र देखकर; उसकासंस्कार करने का अधिकार है। ब्राह्मणत्व एक सार्वभौम शाश्वत बुद्धि-वैभवहै। वह अपनी रक्षा के लिए, पुष्टि के लिए और सेवा के लिए इतरवर्णों का संघटन कर लेगा। राजन्य-संस्कृति से पूर्ण मनुष्य को मूर्धाभिषिक्तबनाने में दोष ही क्या है!

पर्वतेश्वरः (हँसकर) यह आपका सुविचार नहीं है ब्रह्मन्‌!

चाणक्यः वसिष्ठ का ब्राह्मणत्व जब पीड़ित हुआ था, तब पल्लव,दरद, काम्बोज आदि क्षत्रिय बने थे। राजन्‌, यह कोई नयी बात नहीं है।

पर्वतेश्वरः वह समर्थ ऋषियों की बात है।

चाणक्यः भविष्य इसका विचार करता है कि ऋषि किन्हें कहतेहैं। क्षत्रियाभिमानी पौरव! तुम इसके निर्णायक नहीं हो सकते।

पर्वतेश्वरः शूद्र-शासित राष्ट्र में रहने वाले ब्राह्मण के मुख से यहबात शोभा नहीं देती।

चाणक्यः तभी तो ब्राह्मण मगध को क्षत्रिय-शासन में ले आनाचाहता है। पौरव! जिसके लिए कहा गया है, कि क्षत्रिय के शस्त्र धारणकरने पर आर्तवाणी नहीं सुनाई पड़नी चाहिए, मौर्य चन्द्रगुप्त वैसा हीक्षत्रिय प्रमाणित होगा।

पर्वतेश्वरः कल्पना है।

चाणक्यः प्रत्यक्ष होगा। और स्मरण रखना, आसन्न यवन-युद्ध मैं,शौर्य-गर्व से तुम पराभूत होगे। यवनों के द्वारा समग्र आर्यावर्त पादाक्रान्तहोगा। उस समय तुम मुझे स्मरण करोगे।

पर्वतेश्वरः केवल अभिशाप-अस्त्र लेकर ही तो ब्राह्मण लड़ते हैं।मैं इससे नहीं डरता। परन्तु डरनेवाले ब्राह्मण! तुम मेरी सीमा के बाहरहो जाओ!

चाणक्यः (ऊपर देखकर) रे पददलित ब्राह्मणत्व! देख, शूद्र नेनिगड़-बद्ध किया, क्षत्रिय निर्वासित करता है, तब जल - एक बार अपनीज्वाला से जल! उसकी चिनगारी स ेतेरे पोषक वैश्य, सेवक शूद्र औररक्षक क्षत्रिय उत्पन्न हों। जाता हूँ पौरव!

(प्रस्थान)

(कानन-पथ में अलका)

अलकाः चली जा रही हूँ। अनन्त पथ है, कहीं पान्थशाला नहींऔर न तो पहुँचने का निर्दिष्ठ स्थान है। शैल पर से गिरा दी गयीस्रोतस्विनी के सदृश अविराम भ्रमण, ठोकरें और तिरस्कार! कानन में कहाँचली जा रही हूँ? - (सामने देखकर) - अरे! यवन!!

(शिकारी के वेश में सिल्यूकस का प्रवेश)

सिल्यूकसः तुम कहाँ सुन्दरी राजकुमारी!

अलकाः मेरा देश है, मेरे पहाड़ हैं, मेरी नदियाँ हैं और मेरेजंगल हैं। इस भूमि के एक-एक परमाणु मेरे हैं और मेरे शरीर के एक-एक क्षुद्र अंश उन्हीं परमाणुओं के बने हैं! फिर मैं और कहाँ जाऊँगीयवन?

सिल्यूकसः यहाँ तो तुम अकेली हो सुन्दरी

अलकाः सो तो ठीक है। (दूसरी ओर देखकर सहसा) परन्तुदेखो वह सिंह आ रहा है!

(सिल्यूकस उधर देखता है, अलका दूसरी ओर निकल जाती है।)

सिल्यूकसः निकल गयी! (दूसरी ओर जाता है।)

(चाणक्य और चन्द्रगुप्त का प्रवेश)

चाणक्यः वत्स, तुम बहु थक गये होगे।

चन्द्रगुप्तः आर्य! नसों ने अपने बंधन ढीले कर दिये हैं, शरीर

अवसन्न हो रहा है, प्यास भी लगी है।

चाणक्यः और कुछ दूर न चल सकोगे?

चन्द्रगुप्तः जैसी आज्ञा हो।

चाणक्यः पास ही सिन्धु लहराता होगा, उसके तट पर ही विश्रामकरना ठीक होगा।

(चन्द्रगुप्त चलने के लिए पैर बढ़ाता है फिर बैठ जाता है।)

चाणक्यः (उसे पकड़ कर) सावधान, चन्द्रगुप्त!

चन्द्रगुप्तः आर्य! प्यास से कंठ सूख रहा है, चक्कर आ रहाहै!

चाणक्यः तुम विश्राम करो, मैं अभी जल लेकर आता हूँ।

(प्रस्थान)

(चन्द्रगुप्त पसीने से तर लेट जाता है। एक व्याघ्र समीप आतादिखाई पड़ता है। सिल्यूकस प्रवेश करके धनुष सँभालकर तीर चलाता है।व्याघ्र मरता है। सिल्यूकस की चन्द्रगुप्त को चैतन्य करने की चेष्टा।चाणक्य का जल लिये आना।)

सिल्यूकसः थोड़ा जल, इस सप्वपूर्ण पथिक की रक्षा करने केलिए थोड़ा चल चालिए।

चाणक्यः (जल के छींटे दे कर) आप कौन हैं?

(चन्द्रगुप्त स्वस्थ होता है।)

सिल्यूकसः यवन सेनापति! तुम कौन हो?

चाणक्यः एक ब्राह्मण।

सिल्यूकसः यह तो कोई बड़ा श्रीमान्‌ पुरुष है। ब्राह्मण! तुमइसके साथी हो?

चाणक्यः हाँ, मैं इस राजकुमरा का गुरू हूँ, शिक्षक हूँ।

सिल्यूकसः कहाँ निवास है?

चाणक्यः यह चन्द्रगुप्त मगध का निर्वासित राजकुमार है।

सिल्यूकसः (कुछ विचारता है।) अच्छा, अभी तो मेरे शिविर मंचलो, विश्राम करके फिर कहीं जाना।

चन्द्रगुप्तः यह सिंह कैसे मरा? ओह, प्यास से मैं हतचेत हो गयाथा - आपने मेरे प्राणों की रक्षा की, मैं कृतज्ञ हूँ। आज्ञा दीजिए, हमलोग फिर उपस्थित होंगे, निश्चय जानिए।

सिल्यूकसः जब तुम अचेत पड़े थे तब यह तुम्हारे पास बैठाथा। मैंने विपद समझ कर इसे मार डाला। मैं यवन सेनापति हूँ।

चन्द्रगुप्तः धन्यवाद! भारतीय कृतघ्न नहीं होते। सेनापति! मैंआपका अनुगृहीत हूँ, अवशअय आपके पास आऊँगा।

(तीनों जाते हैं, अलका का प्रवेश)

अलकाः आर्य चाणक्य और चन्द्रगुप्त - ये भी यवनों के साथी!जब आँधी और करका-वृष्टि, अवर्षण और दावाग्नि का प्रकोप हो, तबदेश की हरी-भरी खेती का रक्षक कौन है? शून्य व्योम प्रश्न को बिनाउपर दिये लौटा देता है। ऐसे लोग भी आक्रमणकारियों के चंगुल में फँसरहे हों, तब रक्षा की क्या आशा। झेलम के पार सेना उतरना चाहती है।

उन्मप पर्वतेश्वर अपने विचारों में मग्न है। गांधार छोड़ कर चलूँ, नहीं,एक बार महात्मा दाण्ड्यायन को नमस्कार कर लूँ, उस शान्ति-संदेश सेकुछ प्रसाद लेकर तब अन्यत्र जाऊँगी।

(जाती है।)

(सिन्धु-तट पर दाण्ड्यायन का आश्रम)

दाण्ड्यायनः पवन एक क्षण विश्राम नहीं लेता, सिन्धु की जलधाराबही जा रही है, बादलों के नीचे पक्षियों का झुण्ड उड़ा जा रहा है, प्रत्येकपरमाणु न जाने किसी आकर्षण में खिंचे चले जा हे हैं। जैसे काल अनेकरूप में चल रहा है - यही तो...

(एनिसाक्रीटीज का प्रवेश)

एनिसाक्रीटीजः महात्मन्‌!

दाण्ड्यायनः चुप रहो, सब चले जा रहे हैं, तुम भी चले जाओ।अवकाश नहीं, अवसर नहीं।

एनिसाक्रीटीजः आप से कुछ...

दाण्ड्यायनः मुझसे कुछ मत कहो। कहो तो अपने-आप ही कहो,जिसे आवश्यकता होगी सुन लेगा। देखते हो, कोई किसी की सुनता है?

मैं कहता हूँ सिन्धु के एक बिन्द! धारा में न बहकर मेरी एक बात सुननेके लिए ठहर जा। वह सुनता है? कदापि नहीं।

एनिसाक्रीटीजः परन्तु देवपुत्र ने...

दाण्ड्यायनः देवपुत्र?

एनिसाक्रीटीजः देवपुत्र जगद्विजेता सिकन्दर ने आपका स्मरण

किया है। आपका यश सुनकर आपसे कुछ उपदेश ग्रहण करने की उनकीबलवती इच्छा है।

दाण्ड्यायनः (हँसकर) भूमा का सुख और उसकी महपा काजिसका आभासमात्र हो जाता है, उसको ये नश्वर चमकीले प्रदर्शन नहींअभिभूत कर सकते, दूत! वह किसी बलवान की इच्छा का क्रीड़ा-कन्दुकनहीं बन सकता। तुम्हारा राजा अभी झेलम भी नहीं पार कर सका, फिरभी जगद्विजेता की उपाधि लेकर जगत्‌ को वञ्चित करता है। मैं लोभ से,सम्मान से या भय से किसी के पास नहीं जा सकता।

एनिसाक्रीटीजः महात्मन्‌! क्यों? यदि न जाने पर देवपुत्र दण्डदें?

दाण्ड्यायनः मेरी आवश्यकताएँ परमात्मा की विभूति प्रकृति पूरीकरती है। उसके रहते दूसरों का शासन कैसा? समस्त आलोक, चैतन्यऔर प्राणशक्ति, प्रभु की दी हुई है। मृत्यु के द्वारा वही इसको लौटा लेताहै। जिस वस्तु को मनुष्य दे नहीं सकता, उसे ले ेलने की स्पर्धा से बढ़करदूसरा दम्भ नहीं। मैं फल-मूल खाकर अंजलि से जलपान कर, तृण-शय्यपर आँख बन्द किये सो रहता हूँ। न मुझसे किसी को डर है और नमुझको डरने का कारण है। तुम ही यदि हठात्‌ मुझे ले जाना चाहो तोकेवल मेरे शरीर को ले जा सकते हो, मेरी स्वतंत्र आत्मा पर तुम्हारेदेवपुत्र का भी अधिकार नहीं हो सकता।

अनिसाक्रीडीजः बड़े निर्भीत को ब्राह्मण! जाता हूँ, यही कहदूँगा। (प्रस्थान)

(एक ओर से अलका, दूसरी ओर से चाणक्य और चन्द्रगुप्त काप्रवेश। सब वन्दना करके सविनय बैठते हैं।)

अलकाः देव! मैं गांधार छोड़ कर जाती हूँ।

दाण्ड्यायनः क्यों अलके, तुम गाँधार की लक्ष्मी हो, ऐसा क्यों?

अलकाः ऋषे! यवनों के हाथ स्वाधीनता बेचकर उनके दान सेजीने की शक्ति मुझमें नहीं।

दाण्ड्यायनः तुम उपरापथ की लक्ष्मी हो, तुम अपना प्राण बचाकरकहाँ जाओगी? (कुछ विचार कर) अच्छा जाओ देवी! तुम्हारी आवश्यकताहै। मंगलमय विभु अनेक अमंगलों में कौन-कौन कल्याण छिपाये रहताहै, हम सब उसे नहीं समझ सकते। परन्तु जब तुम्हारी इच्छा हो,निस्संकोच चली आना।

अलकाः देव, हृदय में सन्देह है।

दाण्ड्यायनः क्या अलका?

अलकाः ये दोनों महाशय, जो आपके सम्मुख बैठे हैं - जिनपर पहले मेरा पूर्ण विश्वास था; वे ही अब यवनों के अनुगत क्यों होनाचाहते हैं।

(दाण्ड्यायन चाणक्य की ओर देखता है और चाणक्य कुछविचारने लगता है।)

चन्द्रगुप्तः देवि! कृतज्ञता का बन्धन अमोघ है।

चाणक्यः राजकुमारी! उस परिस्थिति पर आपने विचार नहीं

किया है, आपकी शंका निर्मूल है।

दाण्ड्यायनः सन्देह न करो अलका! कल्याणकृत को पूर्ण विश्वासीहोना पड़ेगा। विश्वास सुफल देगा, दुर्गति नहीं।

(यवन सैनिक का प्रवेश)

यवनः देवपुत्र आपकी सेवा में आना चाहते हैं, क्या आज्ञा है?

दाण्ड्यायनः मैं क्या आज्ञा दूँ सैनिक! मेरा कोई रहस्य नहीं,निभृत मन्दिर नहीं, यहाँ पर सबका प्रत्येक क्षण स्वागत है।

(सैनिक जाता है।)

अलकाः तो मैं जाती हूँ, आज्ञा हो।

दाण्ड्यायनः कोई आतंक नहीं है, अलका! ठहरो तो।

चाणक्यः महात्मन्‌, हम लोगों को आज्ञा है? किसी दूसरे समयउपस्थित हों?

दाण्ड्यायनः चाणक्य! तुमको तो कुछ दिनों तक इस स्थान पररहना होगा, क्योंकि सब विद्या के आचार्य होने पर भी तुम्हें उसका फलनहीं मिला - उद्वेग नहीं मिटा। अभी तक तुम्हारे ृदय में हलचल मचीहै, यह अवस्था सन्तोषजनक नहीं।

(सिकन्दर का सिल्यूकस, कार्नेलिया, एनिसाक्रीटीज इद्यादि सहचरोंके साथ प्रवेश, सिकन्दर नमस्कार करता है, सब बैठते हैं।)

दाण्ड्यायनः स्वागत अलक्षेन्द्र! तुम्हें सद्बुद्धि मिले।

सिकन्दरः महात्मन्‌! अनुगृहीत हुआ, परन्तु मुझे कुछ औरआशीर्वाद चाहिए।

दाण्ड्यायनः मैं और आशीर्वाद देने में असमर्थ हूँ। क्योंकि इसकेअतिरिक्त जितने आशीर्वाद होंगे, वे अमंगलजनक होंगे।

सिकन्दरः मैं आपके मुख से जय सुनने का अभिलाषी हूँ।

दाण्ड्यायनः जयघोष तुम्हारे चारण करेंगे, हत्या, रक्तपात औरअग्निकांड के लिए उपकरण जुटाने में मुझे आनन्द नहीं। विजय-तृष्णा काअन्त पराभव में होता है, अलक्षेन्द्र! राजसपा सुव्यवस्था से बढ़े तो बढ़सकती है, केवल विजयों से नहीं। इसलिए अपनी प्रजा के कल्याण मेंलगो।

सिकन्दरः अच्छा (चन्द्रगुप्त को दिखाकर) यह तेजस्वी युवक कौनहै?

सिल्यूकसः यह मगध का एक निर्वासित राजकुमार है।

सिकन्दरः मैं आपका स्वागत करने के लिए अपने शिविर मंनिमन्त्रित करता हूँ।

चन्द्रगुप्तः अनुगृहीत हुआ। आर्य लोग किसी निमन्त्रण कोअस्वीकार नहीं करते।

सिकन्दरः (सिल्यूकस से) तुमसे इनसे कब परिचय हुआ?

सिल्यूकसः इनसे तो मैं पहले ही मिल चुका हूँ।

चन्द्रगुप्तः आपका उपकार मैं भूला नहीं हूँ। आपने व्याघ्र से मेरीरक्षा की थी, जब मैं अचेत पड़ा था।

सिकन्दरः अच्छा तो आप लोग पूर्व-परिचित भी हैं। तब तोसेनापति, इनके आतिथ्य का भार आप ही पर रहा।

सिल्यूकसः जैसी आज्ञा।

सिकन्दरः (महात्मा से) महात्मन्‌! लौटती बार आपका फिर दर्शनकरूँगा, जब भारत-विजय कर लूँगा।

दाण्ड्यानः अलक्षेन्द्र, सावधान! (चन्द्रगुप्त को दिखाकर) देखो,यह भारत का भावी सम्राट्‌ तुम्हारे सामने बैठा है।

(सब स्तब्ध होकर चन्द्रगुप्त को देखते हैं और चन्द्रगुप्त आश्चर्यसे कार्नेलिया को देखने लगता है। एक दिव्य आलोक)

(पटाक्षेप)

द्वितीय अंक

(उद्‌भांड में सिन्धु के किनारे ग्रीक-शिविर में पास वृक्ष केनीचे कार्नेलिया बैठी हुई।)

कार्नेलियाः सिन्धु का यह मनोहर तट जैसे मेरी आँखों के सामनेएक नया चित्रपट उपस्थित कर रहा है। इस वातावरण से धीरे-धीरे उठतीहुई प्रशान्त स्निग्धता जैसे हृदय में घूस रही है। लम्बी यात्रा करके, जैसेमैं वही पहुँच गयी हूँ, जहाँ के लिए चली थी। यह कितना निसर्ग सुन्दरहै, कितना रमणीय है। हाँ, आज वह भारतीय संगीत का पाठ देखूँ, भूलतो नहीं गयी?

(गाती है।)

अरुण यह मधुमय देश हमारा!

जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा।

सरस तामरस गर्भ विभा पर - नाच रही तरुशिखा मनोहर।

छिटका जीवन हरियाली पर - मंगल कंकुम सारा!

लघु सुर धनु से पंख पसारे - शीतल मलय समीर सहारे।

उड़ते खग जिस ओर मुँह किये - समग्र नीड़ निज प्यारा।

बरसाती आँखों के बादल - बनते जहाँ भरे करुणा जल।

लहरें टकरातीं अनन्त की - पाकर जहाँ किनारा।

हेम-कुम्भ ले उषा सवेरे - भरती ढुलकाती सुख मेरे।

मदिर ऊँघते रहते जब - जग कर रजनी भर तारा।

फिलिप्सः (प्रवेश करके) कैसा मधुर गीत है कार्नेलिया, तुमने तोभारतीय संगीत पर पूरा अधिकार कर लिया है, चाहे हम लोगं को भारतपर अधिकार करने में अभी विलम्ब हो!

कार्नेलियाः फिलिप्स! यह तुम हो! आज दारा की कन्या वाल्हीकजायगी?

फिलिप्सः दारा की कन्या! नहीं कुमारी, साम्राज्ञी कहो।

कार्नेलियाः असम्भव है फिलिप्स! ग्रीक लोग केवल देशों कोविजय करके समझ लेते हैं कि लोगों के हृदयों पर भी अधिकार करलिया। वह देवकुमारी-सी सुन्दर बालिका सम्राज्ञी कहने पर तिलमिला जातीहै। उसे यह विश्वास है कि एक महान साम्राज्य की लूट में मिली हुईदासी है, प्रणय-परिणीता पत्नी नहीं।

फिलिप्सः कुमारी! प्रणय के सम्मुख क्या साम्राज्य तुच्छ है?

कार्नलियाः यदि प्रणय हो।

फिलिप्सः प्रणय तो मेरा हृदय पहचानता है।

कार्नेलियाः (हँसकर) ओहो! यह तो बड़ी विचित्र बात है!

फिलिप्सः कुमारी, क्या तुम मेरे प्रेम की हँसी उड़ाती हो?

कार्नेलियाः नहीं सेनापति! तुम्हारा उत्कृष्ट प्रेम बड़ा भयानक होगा,उससे तो डरना चाहिए।

फिलिप्सः (गम्भीर होकर) मैं पूछने आया हूँ कि आगामी युद्धोंसे दूर रहने के लिए शिविर की सब स्त्रियाँ स्कन्धावार में सम्राज्ञी केसाथ जा रही हैं, क्या तुम भी चलोगी?

कार्नेलियाः नहीं, सम्भवतः पिताजी को यही रहना होगा, इसलिएमेरे जाने की आवश्यकता नहीं।

फिलिप्सः (कुछ सोचकर) कुमारी! न जाने फिर कब दर्शन होंइसलिए एक बार इन कोमल करों को चूमने की आज्ञा दो।

कार्नेलियाः तुम मेरा अपमान करने का साहस न करो फिलिप्स!

फिलिप्सः प्राण देकर भी नहीं कुमारी! परन्तु प्रेम अन्धा है।

कार्नेलियाः तुम अपने अन्धेपन से दूसरे को ठुकराने का लाभ नहींउठा सकते फिलिप्स!

फिलिप्सः (इधर-उधर देखकर) यह नहीं हो सकता -

(कार्लिया का हाथ पकड़ना चाहता है, वह चिल्लाती है - रक्षा

करो! रक्षा करो! - चन्द्रगुप्त प्रवेश करके फिलिप्स की गर्दन पकड़ करदबाता है, वह गिरकर क्षमा माँगता है, चन्द्रगुप्त छोड़ देता है)

कार्नेलियाः धन्यवाद आर्यवीर!

फिलिप्सः (लज्जित होकर) कुमारी, प्रार्थना करता हूँ कि इसघटना को भूल जाओ, क्षमा करो।

कार्नेलियाः क्षमा तो कर दूँगी, परन्तु भूल नहीं सकती फिलिप्स!तुम अभी चले जाओ।

(फिलिप्स नतमस्तक जाता है।)

चन्द्रगुप्तः चलिये, आपको शिविर के भीतर पहुँचा दूँ।

कार्नेलियाः पिताजी कहाँ हैं? उनसे यह बात कह देनी होगी, यहघटना... नहीं, तुम्हीं कह देना।

चन्द्रगुप्तः ओह! वे मुझे बुला गये हैं, मैं जाता हूँ, उनसे कहदूँगा।

कार्नेलियाः आप चलिए, मैं आती हूँ।

(चन्द्रगुप्त का प्रस्थान)

कार्नेलियाः एक घटना हो गयी, फिलिप्स ने विनती की उसे भूलजाने की, किन्तु उस घटना से और भी किसी का सम्बन्ध है, उसे कैसेभूल जाऊँ। उन दोनों में श्रृंगार और रौद्र का संगम है। वह भी आह,कितना आकर्षक है! कितना तरंगसंकुल है। इसी चन्द्रगुप्त के लिए न उससाधु ने भविष्यवाणी की है - भारत-सम्राट्‌ होने की! उसमें कितनीविनयशील वीरता है

(प्रस्थान)

(कुछ सैनिकों के साथ सिकन्दर का प्रवेश)

सिकन्दरः विजय करने की इच्छा क्लान्ति से मिलती जा रही है।हम लोग इतने बड़े आक्रमण से समारम्भ में लगे हैं और यह देश जैसेसोया हुआ है, लड़ना जैसे इनके जीवन का उद्वेगजनक अंश नहीं। अफनेध्यान में दार्शनिक के सदृश निमग्न है। सुनते हैं, पौरव ने केवल झेलमके पास कुछ सेना प्रतिरोध करने के लिए या केवल देखे के लिए रखछोड़ी है। हम लोग जब पहुँच जायेंगे, तब वे लड़ लेंगे।

एनिसाक्रीटीजः मुझे तो ये लोग आलसी मालूम पड़ते हैं।

सिकन्दरः नहीं-नहीं, यहाँ के दार्शनिक की परीक्षा तो तुम करचुके - दाण्ड्यायन को देखा न! थोड़ा ठहरो, यहाँ के वीरों का भी परिचयमिल जायगा। यह अद्‌भुत देश है।

एनिसाक्रीटीजः परन्तु आम्भीक तो अपनी प्रतिज्ञा का सच्चा

निकला - प्रबन्ध तो उसने अच्छा कर रखा है।

सिकन्दरः लोभी है! सुना है कि उसकी एक बहन चिढ़ करसंन्यासिनी हो गयी है।

एनिसाक्रीटीजः मुझे विश्वास नहीं होता, इसमें कोई रहस्य होगा।पर एक बात कहूँगा, ऐसे पथ में साम्राज्य की समस्या हल करना कहाँतक ठीक है? क्यों न शिविर में ही चला जाय?

सिकन्दरः एनिसाक्रीटीज, फिर तो पलसिपोलिन का राजमहलछोड़ने की आवश्यकता न थी, यहाँ एकान्त में मुझे कुछ ऐसी बातों परविचार करना है, जिन पर भारत-अभियान का भविष्य निर्भर है। मुझे उसनंगे ब्राह्मण की बातों से बड़ी आशँका हो रही है, भविष्यवाणियाँ प्रायःसत्य होती हैं।

(एक ओर से फिलिप्स, आम्भीक, दूसरी ओर से सिल्यूकस औरचन्द्रगुप्त का प्रवेश)

सिकन्दरः कहो फिलिप्स! तुम्हें क्या कहना है?

फिलिप्सः आम्भीक से पूछ लिया जाय

आम्भीकः यहाँ एक षड्‌यन्त्र चल रहा है।

फिलिप्सः और उसके सहायक हैं सिल्यूकस।

सिल्यूकसः (क्रोध और आश्चर्य से) इतनी नीचता! अभी उसलज्जाजनक अपराध का प्रकट करान बाकी ही रहा - उलटा अभियोग!प्रमाणित करना होगा फिलिप्स! नहीं तो खड्‌ग इसका न्याय करेगा।

सिकन्दरः उपेजित न हो सिल्यूकस!

फिलिप्सः तलवार तो कभी का न्याय कर देती, परन्तु देवपुत्र काभी जान लेना आवश्यक था। नहीं तो निर्लज्ज विद्रोही की हत्या करनापाप नहीं, पुण्य है।

(सिल्यूकस तलवार खींचता है।)

सिकन्दरः तलवार खींचने से अच्छा होता कि तुम अभियोग कोनिर्मूल प्रमाणित करने की चेष्टा करते! बतलाओ, तुमने चन्द्रगुप्त के लिएअब क्या सोचा?

सिल्यूकसः चन्द्रगुप्त ने अभी-अभी कार्नेलिया को इस नीचफिलिप्स के हाथ से अपमानित होने से बचाया है और मैं स्वयं यहअभियोग आपके सामने उपस्थित करनेवाला था।

सिकन्दरः परन्तु साहस नहीं हुआ, क्यों सिल्यूकस!

फिलिप्सः क्यों साहस होता - इनकी कन्या दाण्ड्यायन के आश्रमपर भारतीय दर्शन पढ़ने जाती है, भारतीय संगीत सीखती है, वहीं परविद्रोहकारिणी अलका भी आती है। और चन्द्रगुप्त के लिए यह जनरवफैलाया गया है कि यही भारत का भावी सम्राट्‌ होगा।

सिल्यूकसः रोक, अपनी अबाधगति से चलने वाली जीभ रोक!

सिकन्दरः ठहरो सिल्यूकस! तुम अपने को विचाराधीन समझो।हाँ, तो चन्द्रगुप्त! मुझे तुमसे कुछ पूछना है।

चन्द्रगुप्तः क्या है?

सिकन्दरः सुना है कि मगध का वर्तमान शासक एक नीच-जन्माजारज सन्तान है। उसकी प्रजा असन्तुष्ट है और तुम उस राज्य को हस्तगतकरने का प्रयत्न कर रहे हो?

चन्द्रगुप्तः हस्तगत नहीं, उसका शासन बड़ा क्रूर हो गया है, मगधका उद्धार करना चाहता हूँ।

सिकन्दरः और उस ब्राह्मण के कहने पर अपने सम्राट्‌ होने कातुम्हें विश्वास हो गया होगा, जो परिस्थिति को देखते हुए असम्भव नहींजान पड़ता।

चन्द्रगुप्तः असम्भव क्यों नहीं?

सिकन्दरः हमारी सेना इनमें सहायता करेगी, फिर भी असम्भवहै?

चन्द्रगुप्तः मुझे आप से सहायता नहीं लेनी है।

सिकन्दरः (क्रोध से) फिर इतने दिनों तक ग्रीक-शिविर में रहनेका तुम्हारा उद्देश्य?

चन्द्रगुप्तः एक सादर निमन्त्रण और सिल्यूकस से उपकृत होने केकारण उनके अनुरोध की रक्षा। परन्तु मैं यवनों को अपना शासक बननेको आमन्त्रित करने नहीं आया हूँ।

सिकन्दरः परन्तु इन्हीं यवनों के द्वारा भारत जो आज तक कभीभी आक्रान्त नहीं हुआ है, विजित किया जायगा।

चन्द्रगुप्तः एक भविष्य के गर्भ में है, उसके लिए अभी से इतनीउछल-कूद मचाने की आवश्यकता नहीं।

सिकन्दरः अबोध युवक, तू गुप्तचर है!

चन्द्रगुप्तः नहीं, कदापि नहीं। अवश्य ही यहाँ रहकर यवन रण-नीति से मैं कुछ परिचित हो गया हूँ। मुझे लोभ से पराभूत गान्धारराजआम्भीक समझने की भूल न होनी चाहिए, मैं मगध का उद्धार करनाचाहता हूँ। परन्तु यवन लुटेरों की सहायता से नहीं।

सिकन्दर - तुमको अपनी विपपियों से डर नहीं - ग्रीक लुटेरेहैं?

चन्द्रगुप्तः क्या यह झूठ है? लूट के लोभ से हत्या-व्यवसायियोंको एकत्र करके उन्हें वीर-सेना कहना, रण-कला का उपहास करा है।

सिकन्दरः (आश्चर्य और क्रोध से) सिल्यूकस!

चन्द्रगुप्तः सिल्यूकस नहीं, चन्द्रगुप्त से कहने की बात चन्द्रगुप्तसे कहनी चाहिए।

आम्भीकः शिष्टता से बातें करो।

चन्द्रगुप्तः स्वच्छ हृदय भीरु कायरों की-सी वंचक शिष्टता नहींजानता। अनार्य! देशद्रोही! आम्भीक! चन्द्रगुप्त रोटियों के लालच याघृणाजनक लोभ से सिकन्दर के पास नहीं आया है।

सिकन्दरः बन्दी कर लो इसे।

(आम्भीक, फिलिप्स, एनिसाक्रीटीज टूट पड़ते हैं, चन्द्रगुप्तअसाधारण वीरता से तीनों को घायल करता हुआ निकल जाता है।)

सिकन्दरः सिल्यूकस!

सिल्यूकसः सम्राट्‌!

सिकन्दरः यह क्या?

सिल्यूकसः आपका अविवेक। चन्द्रगुप्त एक वीर युवक है, यहआचरण उसकी भावी श्री और पूर्ण मनुष्यता का द्योतक है सम्राट्‌! हमलोग जिस काम से आये हैं, उसे करना चाहिए। फिलिप्स को अन्तःपुरकी महिलाओं के साथ वाल्हीक जाने दीजिए।

सिकन्दरः (सोचकर) अच्छा जाओ!

(झेलम-तट का वन-पथ)

(चाणक्य, चन्द्रगुप्त और अलका का प्रवेश)

अलकाः आर्य! अब हम लोगों का क्या कर्तव्य है?

चाणक्यः पलायन।

चन्द्रगुप्तः व्यंग न कीजिए गुरुदेव!

चाणक्यः दूसरा उपाय क्या है?

अलकाः है क्यों नहीं?

चाणक्यः हो सकता है - (दूसरी ओर देखने लगता है।)

चन्द्रगुप्तः गुरुदेव!

चाणक्यः परिव्राजक होने की इच्छा है क्या? यही एक सरलउपाय है।

चन्द्रगुप्तः नहीं, कदापि नहीं! यवनों को प्रति पद में बाधा देनामेरा कर्तव्य है और शक्ति-भर प्रयत्न करूँगा।

चाणक्यः यह तो अच्छी बात है। परन्तु सिंहरण अभी नहीं आया।

चन्द्रगुप्तः उसे समाचार मिलना चाहिए।

चाणक्यः अवश्य मिला होगा।

अलकाः यदि न आ सके?

चाणक्यः अब काली घटाओं से आकाश घिरा हो, रह-रहकरबिजली चमक जाती हो, पवन स्तब्ध हो, उमस बढ़ रही हो, और आषाढ़के आरम्भिक दिन हों, तब किस बात की सम्भावना करनी चाहिए?

अलकाः जल बरसने की।

चाणक्यः ठीक उसी प्रकार जब देश में युद्ध हो, सिंहरण मालवको समाचार मिला हो, तब उसके आने की भी निश्चित आशा है।

चन्द्रगुप्तः उधर देखिए - वे दो व्यक्ति कौन आ रहे हैं।

(सिंहरण का सहारा लिये वृद्ध गांधार-राज का प्रवेश)

चाणक्यः राजन्‌!

गांधार-राजः विभव की छलनाओं से वंचित एक वृद्ध! जिसकेपुत्र ने विश्वासघात किया हो और कन्या ने साथ छोड़ दिया हो - मैंवही, एक अभागा मनुष्य हूँ!

अलकाः पिताजी! (गले से लिपट जाती है।)

गांधार-राजः बेटी अलका, अरे तू कहाँ भटक रही है?

अलकाः कहीं नहीं पिताजी! आपके लिए छोटी-सी झोंपड़ी बनारक्खी है, चलिए विश्राम कीजिए।गांधार-राजः नहीं, तू मुझे अबकी झोंपड़ी में बिठाकर चलीजायगी। जो महलों को छोड़ चुकी है, उसका झोंपड़ियों के लिए क्याविश्वास!

अलकाः नहीं पिताजी, विश्वास कीजिए। (सिंहरण से) मालव!मैं कृतज्ञ हुई।

(सिंहरण सस्मित नमस्कार करता है। पिता के साथ अलका काप्रस्थान)

चाणक्यः सिंहरण! तुम आ गये, परन्तु...।

सिंहरणः किन्तु-परन्तु नहीं आर्य! आप आज्ञा दीजिए, हम लोगकर्तव्य में लग जायँ। विपपियों के बादल मँडरा रहे हैं।

चाणक्यः उसकी चिंता नहीं। पौधे अंधकार में बढ़ते हैं, और मेरीनीति-लता भी उसी भाँति विपपि तम में लहलही होगी। हाँ, केवल शौर्यसे काम नहीं चलेगा। एक बात समझ लो, चाणक्य सिद्धि देखता है, साधनचाहे कैसे ही हों। बोलो - तुम लोग प्रस्तुत हो?

सिंहरणः हम लोग प्रस्तुत हैं।

चाणक्यः तो युद्ध नहीं करना होगा।

चन्द्रगुप्तः फिर क्या?

चाणक्यः सिंहरण और अलका को नट और नटी बनना होगा,चन्द्रगुप्त बनेगा सँपेरा और मैं ब्रह्मचारी। देख रहे हो चन्द्रगुप्त, पर्वतेश्वरकी सेना में जो एक गुल्म अपनी छावनी अलग डाले हैं, वे सैनिक कहाँके हैं?

चन्द्रगुप्तः नहीं जानता।

चाणक्यः अभी जानने की आवश्यकता भी नहीं। हम लोग उसीसेना के साथ अपने स्वाँग रखेंगे। वहीं हमारे खेल होंगे। चलो हम लोगचलें, देखो - वह नवीन गुल्म का युवक - सेनापति जा रहा है।

(सबका प्रस्थान)

(पुरूष-वेष में कल्याणी और सैनिक का प्रवेश)

कल्याणीः सेनापति! मैंने दुस्साहस करके पिताजी को चिढ़ा तोदिया, पर अब कोई मार्ग बताओ, जिससे मैं सफलता प्राप्त कर सकूँ।पर्वतेश्वर को नीचा दिखलाना ही मेरा प्रधान उद्देश्य है।

सेनापतिः राजकुमारी!

कल्याणः सावधान सेनापति!

सेनापतिः क्षमा हो, अब ऐसी भूल न होगी। हाँ, तो केवल एकमार्ग है।

कल्याणीः वह क्या?

सेनापतिः घायलों की शुश्रूषा का भार ले लेना है।

कल्याणीः मगध-सेनापति! तुम कायर हो।

सेनापतिः तब जैसी आज्ञा हो। (स्वगत) स्त्री की अधीनता वैसेही बुरी होती है, तिस पर युद्धक्षेत्र में! भगवान ही बचावें।

कल्याणीः मेरी इच्छा है कि जब पर्वतेश्वर यवन-सेना द्वारा चारोंओर से घिर जाय, उस समय उसका उद्धार करके अपना मनोरथ पूर्णकरूँ।

सेनापतिः बात तो अच्छी है।

कल्याणीः और तब तक हम लोगों की रक्षित सेना - (रुककरदेखते हुए) - यह लो पर्वतेश्वर इधर ही आ रहा है।

(पर्वतेश्वर का युद्ध-वेश में प्रवेश)

पर्वतेश्वरः (दूर दिखलाकर) वह किस गुल्म का शिविर हैयुवक?

कल्याणीः मगध-गुल्म का महाराज!

पर्वतेश्वरः मगध की सेना, असम्भव! उसने तो रण-निमन्त्रण हीअस्वीकृत किया था।

कल्याणीः परन्तु मगध की बड़ी सेना में एक छोटा-सा वीरयुवकों का दल इस युद्ध के लिए परम उत्साहित था। स्वेच्छा से उसनेइस युद्ध में योग दिया है।

पर्वतेश्वरः प्राच्य मनुष्यों में भी इतना उत्साह!

(हँसता है।)

कल्याणीः महाराज, उत्साह का निवास किसी विशेष दिशा में नहींहै।

पर्वतेश्वरः (हँसकर) प्रगल्भ हो युवक, परन्तु रण जब नाचनेलगता है, तब भी यदि तुम्हारा उत्साह बना रहे तो मानूँगा। हाँ! तुम बड़ेसुन्दर सुकुमार युवक हो, इसलिए साहस न कर बैठना। तुम मेरी रक्षितसेना के साथ रहो तो अच्छा! समझा न!

कल्याणीः जैसी आज्ञा।

(चन्द्रगुप्त, सिंहरण और अलका का वेश बदले हुए प्रवेश)

सिंहरणः खेल देख लो, खेल! ऐसा खेल - जो कभी न देखाहो न सुना!

पर्वतेश्वरः नट! इस समय खेल देखने का अवकाश नहीं।

अलकाः क्या युद्ध के पहले ही घबरा गये, सेनापति! वह भीतो वीरों का खेल ही है।

पर्वतेश्वरः बड़ी ठीठ है!

चन्द्रगुप्तः न हो तो नागों का ही दर्शन कर लो!

कल्याणीः बड़ा कौतुक है महाराज, इन नागों को ये लोग किसप्रकार वश कर लेते हैं?

चन्द्रगुप्तः (सम्भ्रम से) महाराज हैं! तब तो अवश्य पुरस्कारमिलेगा।

(सँपेरों की-सी चेष्टा करता है। पिटारी खोलकर साँप निकालताहै।)

कल्याणीः आश्चर्य है, मनुष्य ऐसे कुटिल विषधरों को भी वशकर सकता है, परन्तु मनुष्य को नहीं!

पर्वतेश्वरः नट, नागों पर तुम लोगों का अधिकार कैसे हो जाताहै?

चन्द्रगुप्तः मंत्र-महौषधि के भाले से बड़े-बड़े मप नाग वशीभूतहोते हैं।

पर्वतेश्वरः भाले से?

सिंहरणः हाँ महाराज! वैसे ही जैसे भालों से मदमप मातंग!

पर्वतेश्वरः तुम लोग कहाँ से आ रहे हो?

सिंहरणः ग्रीकों के शिविर से।

चन्द्रगुप्तः उनके भाले भारतीय हाथियों के लिए व्रज ही हैं।

पर्वतेश्वरः तुम लोग आम्भीक के चर तो नहीं हो?

सिंहरणः रातों रात यवन-सेना वितस्ता के पार हो गयी है -

समीप है, महाराज! सचेत हो जाइए!

पर्वतेश्वरः मगधनायक! इन लोगों को बन्दी करो।

(चन्द्रगुप्त कल्याणी को ध्यान से देखता है।)

अलकाः उपकार का भी यह फल!

चन्द्रगुप्तः हम लोग बन्दी ही हैं। परन्तु रण-व्यूह से सावधानहोकर सैन्य-परिचालन कीजिए। जाइए महाराज! यवन - रणनीति भिन्नहै।

(पर्वतेश्वर उद्विग्न भाव से जाता है।)

कल्याणीः (सिंहरण से) चलो हमारे शिविर में ठहरो। फिर बतायाजायगा।

चन्द्रगुप्तः मुझे कुछ कहना है।

कल्याणीः अच्छा, तुम लोग आगे चलो।

(सिंहरण इत्यादि आगे बढ़ते हैं।)

चन्द्रगुप्तः इस युद्ध में पर्वतेश्वर की पराजय निश्चित है।

कल्याणीः परन्तु तुम लोक कौन हो - (ध्यान से देखती हुई)- मैं तुमको पहचान...

चन्द्रगुप्तः मगध का एक सँपेरा!

कल्याणीः हूँ! और भविष्यवक्ता भी!

चन्द्रगुप्तः मुझे मगध के पताका के सम्मान की...

कल्याणीः कौन? चन्द्रगुप्त तो नहीं?

चन्द्रगुप्तः अभी तो एक सँपेरा हूँ राजकुमारी कल्याणी!

कल्याणीः (एक क्षण चुप रहकर) हम दोनों को चुप रहना

चाहिए। चलो!

(दोनों का प्रस्थान)

(युद्धक्षेत्र - सैनिकों के साथ पर्वतेश्वर)

पर्वतेश्वरः सेनापति, भूल हुई।

सेनापतिः हाथियों ने ही ऊधम मचा रक्खा है और रथी सेनाभी व्यर्थ-सी हो रही है।

पर्वतेश्वरः सेनापति, युद्ध मं जय या मृत्यु - दो में से एक होनीचाहिए।

सेनापतिः महाराज, सिकन्दर को वितस्ता पर यह अच्छी तरहविदित हो गया है कि हमारे खड्‌गों में कितनी धार है। स्वयं सिकन्दरका अश्व मारा गया और राजकुमार के भीण भाले की चोट सिकन्दर नसँभाल सका।

पर्वतेश्वरः प्रशंसा का समय नहीं है। शीघ्रता करो। मेरा रणगजप्रस्तुत हो, मैं स्वयं गजसेना का संचालन करूँगा। चलो!

(सब जाते हैं।)

(कल्याणी और चन्द्रगुप्त का प्रवेश)

कल्याणीः चन्द्रगुप्त, तुम्हें यदि मगध सेना विद्रोही जानकर बन्दीबनावे?

चन्द्रगुप्तः बन्दी सारा देश है राजकुमारी, दारुण द्वेष से सबजकड़े हैं। मुझको इसकी चिन्ता भी नहीं। परन्तु राजकुमारी का युद्धक्षेत्रमें आना अनोखी बात है।

कल्याणीः केवल तुम्हें देखने के लिए! मैं जानती थी की तुमयुद्ध में अवश्य सम्मिलित होगे और मुझे भ्रम हो रहा है कि तुम्हारेनिर्वासन के भीतरी कारणों में एक मैं भी हूँ।

चन्द्रगुप्तः परन्तु राजकुमारी, मेरा हृदय देश की दुर्दशा से व्याकुलहै। इस ज्वाला में स्मृतिलता मुरझा गयी है।

कल्याणीः चन्द्रगुप्त!

चन्द्रगुप्तः राजकुमारी! समय नहीं! देखो - वह भारतीयों केप्रतिकूल दैव ने मेघमाला का सृजन किया है। रथ बेकार होंगे और हाथियोंका प्रत्यावर्तन और भी भयानक हो रहा है।

कल्याणीः तब! मगध-सेना तुम्हारे अधीन है, जैसा चाहो करो।

चन्द्रगुप्तः पहले उस पहाड़ी पर सेना एकत्र होनी चाहिए। शीघ्रआवश्यकता होगी। पर्वतेश्वर की पराजय को रोकने की चेष्टा कर देखूँ।

कल्याणीः चलो!

(मेघों की गड़गड़ाहट - दोनों जाते हैं।)

(एक ओर से सेल्यूकस, दूसरी ओर से पर्वतेश्वर का ससैन्यप्रवेश, युद्ध)

सिल्यूकसः पर्वतेश्वर! अस्त्र रख दो।

पर्वतेश्वरः यवन! सावधान! बचाओ अपने को!

(तुमुल युद्ध, घायल होकर सिल्यूकस का हटना)

पर्वतेश्वरः सेनापति! देखो, उन कायरों को रोको। उनसे कह दोकि आज रणभूमि में पर्वतेश्वर पर्वत के समान अचल है। जय-पराजयकी चिन्ता नहीं। इन्हें बतला देना होगा कि भारतीय लड़ना जानते हैं।बादलों से पानी बरसने की जगह वज्र बरसें, सारी गज-सेना छिन्न-भिन्नहो जाय, रथी विरथ हों, रक्त के नाले धमनियों से बहें, परन्तु एक पगभी पीछे हटना पर्वतेश्वर के लिए असम्भव है। धर्मयुद्ध में प्राण-भिक्षामांगनेवाले भिखारी हम नहीं। जाओ, उन भगोड़ों से एक बार जननी केस्तन्य की लज्जा के नाम पर रुकने के लिए कहो! को कि मरने काक्षण एक ही है। जाओ।

(सेनापति का प्रस्थान। सिंहरण और अलका का प्रवेश)

सिंहरणः महाराज! यह स्थान सुरक्षित नहीं। उस पहाड़ी परचलिए।

पर्वतेश्वरः तुम कौन हो युवक!

सिंहरणः एक मालव।

पर्वतेश्वरः मालव के मुख से ऐसा कभी नहीं सुना गया। मालव!खड्‌ग-क्रीड़ देखनी हो तो खड़े रहो। डर लगता है तो पहाड़ी पर जाओ।

सिंहरणः महाराज, यवनों का एक दल वह आ रहा है।

पर्वतेश्वरः आने दो। तुम हट जाओ।

(सिल्यूकस और फिलिप्स का प्रवेश - सिंहरण और पर्वतेश्वरका युद्ध और लड़खड़ा कर गिरने की चेषअटा। चन्द्रगुप्त और कल्याणीका सैनिक के साथ पहुँचना, दूसरी ओर से सिकन्दर का आान। युद्ध बन्दकरने के लिए सिकन्दर की आज्ञा।)

चन्द्रगुप्तः युद्ध होगा!

सिकन्दरः कौन, चन्द्रगुप्त!

चन्द्रगुप्तः हाँ देवपुत्र!

सिकन्दरः किससे युद्ध! मुमूर्ष घायल पर्वतेश्वर - वीर पर्वतेश्वरसे! कदापि नहीं। आज मुझे जय-पराजय का विचार नहीं है। मैंने एकअलौकिक वीरता का स्वर्गीय दृश्य देखा है। होमर की कविता में पढ़ीहुई जिस कल्पना से मेरा हृदय भरा है, उसे यहाँ प्रत्यक्ष देखा! भारतीयवीर पर्वतेश्वर! अब मैं तुम्हारे साथ कैसा व्यवहार करूँ!

पर्वतेश्वरः (रक्त पोंछते हुए) जैसा एक नरपति अन्य नरपति केसाथ करता है, सिकन्दर!

सिकन्दरः मैं तुमसे मैत्री करना चाहता हूँ। विस्मय विमुग्ध होकरतुम्हारी सराहना किये बिना मैं नहीं रह सकता - धन्य! आर्य वीर!

पर्वतेश्वरः मैं तुमसे युद्ध न करके मैत्री भी कर सकता हूँ।

चन्द्रगुप्त - पंचनंद-नरेश! आप क्या कर रहे हैं! समस्त मागसेना आपकी प्रतीक्षा में है, युद्ध होने दीजिए।

कल्याणीः इन थोड़े-से अर्धजीव यवनों को विचलित करने केलिए पर्याप्त मागध सेना है। महाराज! आज्ञा दीजिए।

सिकन्दरः कदापि नहीं।

कल्याणीः (शिरस्त्राण फेंककर) जाती हूँ क्षत्रिय पर्वतेश्वर। तुम्हारेपतन में रक्षा न कर सकी, बड़ी निराशा हुई।

पर्वतेश्वरः तुम कौन हो?

चन्द्रगुप्तः मागध राजकुमारी कल्याणी देवी।

पर्वतेश्वरः ओह पराजय! निकृष्ट पराजय!

(चन्द्रगुप्त औ कल्याणी का प्रस्थान। सिकन्दर आश्चर्य से देखताहै। अलका घायल सिंहरण को उठाना चाहती है कि आम्भीक आकर दोनोंको बन्दी करता है।)

पर्वतेश्वरः यह क्या?

आम्भीकः इनको अभी बन्दी बना रखना आवश्यक है।

पर्वतेश्वरः तो ये लोग मेरे यहाँ रहेंगे।

सिकन्दरः पंचनंद-नरेश की जैसी इच्छा हो।

(मासल में सिंहरण के उद्वान का एक अंश)

मालविकाः (प्रवेश करके) फूल हँसते हुए आते हैं, फिर मकरंदगिराकर मुरझा जाते हैं, आँसू से धरणी को भिगोकर चले जाते हैं! एकस्निग्ध समीर का झोंका आता है, निश्वास फेंककर चला जाता है। क्यापृथ्वीतल रोने ही के लिए है? नहीं, सब के लिए एक ही नियम तो नहीं।कोई रोने के लिए है तो कोई हँसने के लिए - (विचारती हुई) आजकलतो छुट्टी-सी है, परन्तु एक विचित्र विदेशियों का दल यहाँ ठहरा है, उनमेंसे एक को तो देखते ही डर लगता है। लो देखो - वह युवक आ गया!

(सिर झुका कर फूल सँवारने लगती है - ऐन्द्रजालिक के वेशमें चन्द्रगुप्त का प्रवेश)

चन्द्रगुप्तः मालविका!

मालविकाः क्या आज्ञा है?

चन्द्रगुप्तः तुम्हारे नागकेसर की क्यारी कैसी है?

मालविकाः हरी-भरी!

चन्द्रगुप्तः आज कुछ खेल भी होगा, देखोगी?

मालविकाः खेल तो नित्य ही देखती हूँ। न जाने कहाँ से लोगआते हैं, और कुछ-न-कुछ अभिनय करते हुए चले जाते हैं। इसी उद्यानके कोने से बैठी हुई सब देखा करती हूँ।

चन्द्रगुप्तः मालविका, तुमको कुछ गाना आता है।

मालविकाः आता तो है, परन्तु...

चन्द्रगुप्तः परन्तु क्या?

मालविकाः युद्धकाल है। देश में रण-चर्चा छिड़ी है। आजकलमालव-स्थान में कोई गाता-बजाता नहीं।

चन्द्रगुप्तः रण-भेरी के पहले यदि मधुर मुरली की एक तान सुनलूँ, तो कोई हानि न होगी। मालविका! न जाने क्यों आज ऐसी कामनाजाग पड़ी है।

मालविकाः अच्छा सुनिए -

(अचानक चाणक्य का प्रवेश)

चाणक्यः छोकरियों से बातें करने का समय नहीं है मौर्य!

चन्द्रगुप्तः नहीं गुरुदेव! मैं आज ही विपाशा के तट से आयाहूँ, यवन-शिविर भी घूम कर देख आया हूँ।

चाणक्यः क्या देखा?

चन्द्रगुप्तः समस्त यवन-सेना शिथिल हो गयी है। मगध काइन्द्रजाली जानकर मुझसे यवन-सैनिकों ने वहाँ की सेना का हाल पूछा।मैंने कहा - पंचनंद के सैनिकों से भी दुर्धर्ष कई रण-कुशल योद्धा शतद्रु-तट पर तुम लोगों की प्रतीक्षा कर रहे हैं। यह सुनकर कि नन्द के पासकई लाख सेना है, उन लोगों में आतंक छा गया और एक प्रकार काविद्रोह फैल गया।

चाणक्यः हाँ! तब क्या हुआ? केलिस्थनीज के अनुयायियों नेक्या किया?

चन्द्रगुप्तः उनकी उपेजना से सैनिकों ने विपाशा को पार करनाअस्वीकार कर दिया और यवन, देश लौट चलने के लिए आग्रह करनेलगे। सिकन्दर के बहुत अनुरोध करने पर भी वे युद्ध के लिए सहमतनहीं हुए। इसलिए रावी के जलमार्ग से लौटने का निश्चय हुआ है। अबउनकी इच्छा युद्ध की नहीं है।

चाणक्यः और क्षद्रुकों का क्या समाचार है?

चन्द्रगुप्तः वे भी प्रस्तुत है। मेरी इच्छा है कि इस जगद्विजेताका ढोंग करने वाले को एक पाठ पराजय का भी पढ़ा दिया जाय। परन्तुइस समय यहाँ सिंहरण का होना अत्यन्त आवश्यक है।

चाणक्यः अच्छा देखा जायगा। सम्भवतः स्कन्धावार में मालवोंकी युद्ध-परिषद होगी। अत्यन्त सावधानी से काम करना होगा। मालवोंको मिलाने का पूरा प्रयत्न तो हमने कर लिया है।

चन्द्रगुप्तः चलिए, मैं अभी आया!

(चाणक्य का प्रस्थान)

मालविकाः यह खेल तो बड़ा भयानक होगा मागध!

चन्द्रगुप्तः कुछ चिन्ता नहीं। अभी कल्याणी नहीं आयी।

(एक सैनिक का प्रवेश)

चन्द्रगुप्तः क्या है?

सैनिकः सेनापति! मगध-सेना के लिए क्या आज्ञा है?

चन्द्रगुप्तः विपाशा और शतद्रु के बीच जहाँ अत्यन्त संकीर्ण भू-भाग है, वहीं अपनी सेना रखो। स्मरण रखना कि विपाशा पार करने परमगध का साम्राज्य ध्वंस करना यवनों के लिए बड़ा साधारण काम होजायगा। सिकन्दर की सेना सामने इतना विराट पदर्शन होना चाहिए किवह भयभीत हो।

सैनिकः अच्छा, राजकुमारी ने पूछा है कि आप कब तक

आवेंगे? उनकी इच्छा मालव मं ठहरने की नहीं है।

चन्द्रगुप्तः राजकुमारी से मेरा प्रणाम कहना और कह देना किमैं सेनापति का पुत्र हूँ, युद्ध ही मेरी आजीविका है। क्षुद्रकों की सेना कामैं सेनापति होने के लिए आमंत्रित किया गया हूँ। इसलिए मैं यहाँ रहकरभी मगध की अच्छी सेवा कर सकूँगा।

सैनिकः जैसी आज्ञा है - (जाता है)

चन्द्रगुप्तः (कुछ सोचकर) सैनिक!

(फिर लौट आता है।)

सैनिकः क्या आज्ञा है?

चन्द्रगुप्तः राजकुमारी से कह देना कि मगध जाने की उत्कटइच्छा होने पर भी वे सेना साथ न ले जायँ।

सैनिकः इसका उपर भी लेकर आना होगा?

चन्द्रगुप्तः नहीं।

(सैनिक का प्रस्थान)

मालविकाः मालव में बहुत-सी बातें मेरे देश से विपरीत हैं।इनकी युद्ध-पिपासा बलवती है। फिर युद्ध!

चन्द्रगुप्तः तो क्या तुम इस देश की नहीं हो?

मालविकाः नहीं, मैं सिन्ध की रहने वाली हूँ, आर्य! वहाँ युद्धविग्रह नहीं, न्यायालयों की आवश्यकता नहीं। प्रचुर स्वर्ण के रहते भी कोईउसका उपयोग नहीं। इसलिए अर्थमूलक विवाद कभी उठते ही नहीं। मनुष्यके प्राकृतिक जीवन का सुन्दर पालना मेरा सिन्धुदेश है।

चन्द्रगुप्तः तो यहाँ कैसे चली आयी हो?

मालविकाः मेरी इच्छा हुई कि और देशों को भी देखूँ। तक्षशिलामें राजकुमारी अलका से कुछ ऐसा स्नेह हुआ कि वहीं रहने लगी। उन्होंनेमुझे घायल सिंहरण के साथ यहाँ भेज दिया। कुमार सिंहरण बड़े सहृदय हैंपरन्तु मागध, तुमको देखकर तो मैं चकित हो जाती हूँ। कभी इन्द्रजाली, कभीकुछ! भुला इतना सुन्दर रूप तुम्हें विकृत करने की क्या आवश्यकता है?

चन्द्रगुप्तः शुभे, मैं तुम्हारी सरलता पर मुग्ध हूँ। तुम इन बातोंको पूछकर क्या करोगी! (प्रस्थान)

मालविकाः स्नेह से हृदय चिकना हो जाता है। परन्तु बिछलने काभय भी होता है। - अद्भुत युवक है। देखूँ कुमार सिंहरण कब आते हैं।

(पट-परिवर्तन)

(स्थल - बंदीगृह, घायल सिंहरण और अलका)

अलकाः अब तो चल फिर सकोगे?

सिंहरणः हाँ अलका, परन्तु बन्दीगृह में चलना-फिरना व्यर्थ है।

अलकाः नहीं मालव, बहुत शीघ्र स्वस्थ होने की चेष्टा करो।

तुम्हारी आवश्यकता है।

सिंहरणः क्या?

अलकाः सिकन्दर की सेना रावी पार हो रही है। पंचनंद से संधिहो गयी, अब यवन लोग निश्चित होकर आगे बढ़ना चाहते हैं। आर्यचाणक्य का एक चर यह संदेश सुना गया है।

सिंहरणः कैसे?

अलकाः क्षपणक-वेश में गीत गाता हुआ भीख माँगता आता था,उसने संकेत से अपना तात्पर्य कह सुनाया।

सिंहरणः तो क्या आर्य चाणक्य जानते हैं कि मैं यहाँ बन्दी हूँ?

अलकाः हाँ, आर्य चाणक्य इधर की सब घटनाओं को जानते हैं।

सिंहरणः तब तो मालव पर शीघ्र ही आक्रमण होगा।

अलकाः कोई डरने की बात नहीं, क्योंकि चन्द्रगुप्त को साथलेकर आर्य ने वहाँ पर एक बड़ा भारी कार्य किया है। क्षुद्रकों और मालवोंमें संधि हो गयी है। चन्द्रगुप्त को उनकी सम्मिलित सेना का सेनापतिबनाने का उद्योग हो रहा है।

सिंहरणः (उठकर) तब तो अलका, मुझे शीघ्र पहुँचना चाहिए।

अलकाः परन्तु तुम बन्दी हो।

सिंहरणः जिस तरह हो सके अलका, मुझे पहुँचाओ।

अलकाः (कुछ सोचने लगती है) तुम जानते हो कि मैं क्योंबन्दिनी हूँ?

सिंहरणः क्यों?

अलकाः आम्भीक से पर्वतेश्वर सी संधि हो गयी है और स्वयंसिकन्दर ने विरोध मिटाने के लिए पर्वतेश्वर की भगिनी से आम्भीक काब्याह कर दिया है, परन्तु आमभीक ने यह जानकर भी कि मैं यहाँ बन्दिनीहूँ, मुझे छुड़ाने का प्रयत्न नहीं किया। उसकी भीतरी इच्छा थी, किपर्वतेश्वर की कई रानियों में से एक मैं भी हो जाऊँ, परन्तु मैंने अस्वीकारकर दिया।

सिंहरणः अलका, तब क्या करना होगा?

अलकाः यदि मैं पर्वतेश्वर से ब्याह करना स्वीकार करूँ, तोसंभव है तुमको छुड़ा दूँ।

सिंहरणः मैं... अलका। मुझसे पूछती हो।

अलकाः दूसरा उपाय क्या है?

सिंहरणः मेरा सिर घूम रहा है, अलका। तुम पर्वतेश्वर कीप्रणयिनी बनोगी! अच्छा होता कि इसके पहले ही मैं न रह जाता।

अलकाः क्यों मालव, इसमें तुम्हारी कुछ हानि है?

सिंहरणः कठिन परीक्षा न लो अलका! मैं बड़ा दुर्बल हूँ। मैंनेजीवन और मरण में तुम्हारा संग न छोड़ने का प्रण किया है।

अलकाः मालव, देश की स्वतंत्रता तुम्हारी आशा में है।

सिंहरणः और तुम पंचनंद की अधीश्वरी बनने की आशा में...तब मुझे रणभूमि में प्राण देने की आज्ञा दो।

अलकाः (हँसती हुई) चिढ़ गये। आर्य चाणक्य की आज्ञा है किथोड़ी देर पंचनंद का सूत्र-संचालन करने के लिए मैं यहाँ की रानी बनजाऊँ।

सिंहरणः यह भी कोई हँसी है!

अलकाः बन्दी! जाओ सो रहो, मैं आज्ञा देती हूँ।

(सिंहरण का प्रस्थान)

अलकाः सुन्दर निश्छल हृदय, तुमसे हँसी करना भी अन्याय है।परन्तु व्यथा को दबाना पड़ेगा। सिंहरण को मालव भेजने के िए प्रणयके साथ अत्याचार करना होगा।

(गाती है)

प्रथम यौवन - मदिरा से मप, प्रेम करने की थी परवाह

और किसको देना है हृदय, चीन्हने की न तनिक थी चाह।

बेंच डाला था हृदय अमोल, आज वह माँग रहा था दाम,

वेदना मिली तुला पर तोल, उसे लोभी ने ली बेकाम।

उड़ रही है हृत्पथ में धूल, आ रहे हो तुम बे-परवाह,

करूँ क्या दृग-जल से छिड़काव, बनाऊँ मैं यह बिछलन राह।

सँभलते धीरे-धीरे चलो, इसी मिस तुमको लगे विलम्ब,

सफल हो जीवन की सब साध, मिले आशा को कुछ अवलम्ब

विश्व की सुषमाओं का स्रोत, बह चलेगा आँखों की राह,

और दुर्लभ होगी पहचान, रूप-रत्नाकर भरा अथाह।

(पर्वतेश्वर का प्रवेश)

पर्वतेश्वरः सुन्दरी अलका, तुम कब तक यहाँ रहोगी?

अलकाः यह बन्दी बनाने वाले की इच्छा पर निर्भर करता है।

पर्वतेश्वर - तुम्हें कौन बन्दी कहता है? यह तुम्हारा अन्याय है,अलका! चलो सुसज्जित राजभवन तुम्हारी प्रत्याशा में है।

अलकाः नहीं पौरव, मं राजभवनों से डरती हूँ, क्योंकि उनकेलोभ से मनुष्य आजीवन मानसिक कारावास भोगता है।

पर्वतेश्वरः अशका तात्पर्य?

अलकाः कोमल शय्या पर लेटे रहने की प्रत्याशा में स्वतंत्रता काभी विसर्जन करना पड़ता है, यही उन विलासपूर्ण राजभवनों का प्रलोभन है।

पर्वतेश्वरः व्यंग न करो अलका। पर्वतेश्वर ने जो कुछ किया है,वह भारत का एक-एक बच्चा जानता है। परन्तु दैव प्रतिकूल हो, तबक्या किया जाय?

अलकाः मैं मानती हूँ, परन्तु आपकी आत्मा इसे मानने के लिएप्रस्तुत न होगी। हम लोग जो आपके लिए, देश के लिए, प्राण देने कोप्रस्तुत थे, केवल यवनों को प्रसन्न करने के लिए बन्दी किये गये!

पर्वतेश्वरः बन्दी कैसे?

अलकाः बन्दी नहीं तो और क्या? सिंहरण, जो आपके साथ युद्धकरते घायल हुआ है, आज तक वह क्यों रोका गया? पंचनंद-नरेश,आपका न्याय अत्यन्त सुन्दर है न!

पर्वतेश्वरः कौन कहता है सिंहरण बन्दी है? उस वीर की मैंप्रतिष्ठा करता हूँ अलका, परन्तु उससे द्वंद्व-युद्ध किया चाहता हूँ।

अलकाः क्यों?

पर्वतेश्वरः क्योंकि अलका के दो प्रेमी नहीं हो सकते।

अलकाः महाराज, यदि भूपालों का-सा व्यवहार न माँगकर आपसिकन्दर से द्वंद्व-युद्ध माँगते, तो अलका को विचार करने का अवसरमिलता।

पर्वतेश्वरः यदि मैं सिकन्दर का विपक्षी बन जाऊँ तो तुम मुझेप्यार करोगी अलका? सच कहो।

अलकाः तब विचार करूँगी, पर वैसी संभावना नहीं।

पर्वतेश्वरः क्या प्रमाण चाहती हो अलका?

अलकाः सिंहरण के देश पर यवनों का आक्रमण होने वाला है,वहाँ तुम्हारी सेना यवनों की सहायक न बने, और सिंहरण अपनी, मालवकी रक्षा के लिए मुक्त किया जाय।

पर्वतेश्वरः मुझे स्वीकार है।

अलकाः तो मैं भी राजभवन में चलने के लिए प्रस्तुत हूँ, परन्तुएक नियम पर!

पर्वतेश्वरः वह क्या?

अलकाः यही कि सिकन्दर के भारत में रहने तक मैं स्वतंत्ररहूँगी। पंचनंदनरेश, यह दस्यु-दल बरसाती बाढ़ के समान निकल जायगा,विश्वास रखिए।

पर्वतेश्वरः सच कहती हो अलका! अच्छा, मैं प्रतिज्ञा करता हूँ,तुम जैसा कहोगी, वही होगा! सिंहरण के लिए रथ आवेगा और तुम्हारेलिए शिविका। देखो भूलना मत।

(चिंतित भाव से प्रस्थान)

(मालवों के स्कन्धावार में युद्ध - परिषद्‌)

देवबलः परिषद्‌ के सम्मुख मैं यह विज्ञप्ति उपस्थित करता हूँकि यवन-युद्ध के लिए जो सन्धि मालव-क्षुद्रकों से हुई है, उसे सफलबनाने के लिए आवश्यक है कि दोनों गणों की एक सम्मिलित सेना बनायीजाय और उसके सेनापति क्षुद्रकों के मनोनीत सेनापति मागध चन्द्रगुप्त हीहों। उन्हीं की आज्ञा से सैन्य संचालन हो।

(सिंहरण का प्रवेश - परिषद्‌ में हर्ष)

सबः कुमार सिंहरण की जय!

नागदपः मगध एक साम्राज्य है। लिच्छिवि और वृजि गणतंत्र कोकुचलने वाले मगध का निवासी हमारी सेना का संचालन करे, यह अन्यायहै। मैं इसका विरोध करता हूँ।

सिंहरणः मैं मालव-सेना का बलाधिकृत हूँ। मुझे सेना काअधिकार परिषद्‌ ने प्रदान किया है और साथ ही मैं सन्धि-विग्रहिक काकार्य भी करता हूँ। पंचनंद की परस्थिति मैं स्वयं देख आया हूँ औरमागध चन्द्रगुप्त को भी भलीभाँति जानता हूँ। मैं चन्द्रगुप्त के आदेशानुसारयुद्ध चलाने के लिए सहमत हूँ। और भी मेरी एक प्रार्थना है - उपरापथके विशिष्ट राजनीतिज्ञ आर्य चाणक्य के गम्भीर राजनैतिक विचार सुनने परआप लोग अपना कर्तव्य निश्चित करें।

गणमुख्यः आर्य चाणक्य व्यासपीठ पर आवें।

चाणक्यः (व्यासपीठ से) उपरापथ के प्रमुख गणतंत्र मालव राष्ट्रकी परिषद्‌ का मैं अनुगृहीत हूँ कि ऐसे गम्भीर अवसर पर मुझे कुछकहने के लिए उसने आमंत्रित किया। गणतंत्र और एकराज्य का प्रश्न् यहाँनहीं, क्योंकि लिच्छिवि और वृजियों का अपकार करने वाला मगध काराज्य, शीघ्र ही गणतंत्र में परिवर्तित होने वाला है। युद्ध-काल में एकनायक की आज्ञा माननी पड़ती है। वहाँ शलाका ग्रहण करके शस्त्र प्रहारकरना असम्भव है। अतएव सेना का एक नायक तो होना ही चाहिए। औरयहाँ की परिस्थिति में चन्द्रगुप्त से बढ़कर इस कार्य के लिए दूसरा व्यक्तिन होगा। वितस्ता-प्रदेश के अधीश्वर पर्वतेश्वर के यवनों से सन्धि करनेपर भी चन्द्रगुप्त ही के उद्योग का यह फल है कि पर्वतेश्वर की सेनायवन-सहायता को न आवेगी। उसी के प्रयत्न से यवन-सेना में विद्रोह भीहो गया है, जिससे उनका आगे बढ़ना असम्भव हो गया है। परन्तु सिकन्दरकी कूटनीति प्रत्यावर्तन में भी विजय चाहती है। वह अपनी विद्रोही सेनाको स्थल-मार्ग से लौटने की आज्ञा देकर नौबल के द्वारा स्वयं सिन्ध-संगम तक के प्रदेश विजय करना चाहता है। उसमें मालवों का नाशनिश्चित है। अतएव, सेनापतित्व के लिए आप लोग चन्द्रगुप्त को वरणकरें तो, क्षुद्रकों का सहयोग भी आप लोगों को मिलेगा। चन्द्रगुप्त कोही उन लोगों ने भी सेनापति बनाया है।

नागदपः ऐसा नहीं हो सकता!

चाणक्यः प्रबल प्रतिरोध करने के लिए दोनों सैन्यों में एकाधिपत्यहोना आवश्यक है। साथ ही क्षुद्रकों की सन्धि की मर्यादा भी रखनीचाहिए। प्रश्न शासन का नहीं, युद्ध का है। युद्ध में सम्मिलित होने वालेवीरों को एकनिष्ठ होना ही लाभदायक है। फिर तो मालव और क्षुद्रक दोनोंही स्वतंत्र संघ हैं और रहेंगे। सम्भवतः इसमें प्राच्यों का एक गणराष्ट्रआगामी दिनों में और भी आ मिलेगा।

नागदपः समझ गया, चन्द्रगुप्त को ही सम्मिलित सेना का सेनापतिबनाना श्रेयस्कर होगा।

सिंहरणः अन्न, पान और भैषज्य सेवा करने वाली स्त्रियों नेमालविका को अपना प्रधान बनाने की प्रार्थना की है।

गणमुख्यः यह उन लोगों की इच्छा पर है। अस्तु, महाबलाधिकृतपद के लिए चन्द्रगुप्त को वरण करने की आज्ञा परिषद्‌ देती है।

(समवेत जयघोष)

(पर्वतेश्वर का प्रासाद)

अलकाः सिंहरण मेरी आशा देख रहा होगा और मैं यहां पड़ीहूँ। आज इसका कुछ निबटारा करना होगा। अब अधिक नहीं - (आकासकी ओर देखकर) - तारों से भरी हुई काली रजनी का नीला आकाश- जैसे कोई विराट्‌ गणितज्ञ निभृत में रेखा-गणित की समस्या सिद्ध करनेके लिए बिन्दु दे रहा है।

(पर्वतेश्वर का प्रवेश)

पर्वतेश्वरः अलका, बड़ी द्विधा है।

अलकाः क्यों पौरव?

पर्वतेश्वरः मैं तुमसे प्रतिश्रुत हो चुका हूँ कि मालव-युद्ध में मैंभाग न लूँगा, परन्तु सिकन्दर का दूत आया है कि आठ सहस्र अश्वारोहीलेकर रावी तट पर मिलो। साथ ही पता चला है कि कुछ यवन-सेनाअपने देश को लौट रही है।

अलकाः (अन्यमनस्क होकर) हाँ कहते चलो।

पर्वतेश्वरः तुम क्या कहती हो अलका?

अलकाः मैं सुनना चाहती हूँ।

पर्वतेश्वरः बतलाओ, मैं क्या करूँ?

अलकाः जो अच्छा समझो! मुझे देखने दो ऐसी सुन्दर वेणीफूलों से गूँथी हुई श्यामा रजनी की सुन्दर वेणी-अहा!

पर्वतेश्वरः क्या कह रही हो?

अलकाः गाने की इच्छा होती है, सुनोगे?

(गाती है)

बिखरी किरन अलक व्याकुल हो विरस वदन पर चिन्ता लेख,

छायापथ में राह देखती गिनती प्रणय-अवधि की रेख।

प्रियतम के आगमन-पंथ में उड़ न रही है कोमल धूल,

कादम्बिनी उठी यह ढँकने वाली दूर जलधि के कूल।

समय-विहग के कृष्णपक्ष में रजत चित्र-सी अंकित कौन-

तुम हो सुन्दरि तरल तारिके! बोलो कुछ, बैठो मत मौन!

मन्दाकिनी समीप भरी फिर प्यासी आँखें क्यों नादान।

रूप-निशा की ऊषा में फिर कौन सुनेगा तेरा गान!

पर्वतेश्वरः अलका! मैं पागल होता जा रहा हूँ। यह तुमने क्याकर दिया है!

अलकाः मैं तो गा रही हूँ।

पर्वतेश्वरः परिहास न करो। बताओ, मैं क्या करूँ?

अलकाः यदि सिकन्दर के रण-निमन्त्रण में तुम न जाओगे तोतुम्हारा राज्य चला जायगा।

पर्वतेश्वरः बड़ी विडम्बना है।

अलकाः पराधीनता से बढ़ कर विडम्बना और क्या है? अबसमझ गये होगे कि वह सन्धि नहीं, पराधीनता की स्वीकृति थी।

पर्वतेश्वरः मैं समझाता हूँ कि एक हजार अश्वारोहियों को साथलेकर वहाँ पहुँच जाऊँ, फिर कोई बहाना ढूँढ़ निकालूँगा।

अलकाः (मन में) मैं चलूँ, निकल भागने का ऐसा अवसर दूसरान मिलेगा! (प्रकट) अच्छी बात है, परन्तु मैं भी साथ चलूँगी! मैं यहाँअकेले क्या करूँगी?

(पर्वतेश्वर का प्रस्थान)

(रावी के तट पर सैनिकों के साथ मालविका और चन्द्रगुप्त,नदी मं दूर पर कुछ नावें)

मालविकाः मुझे शीघ्र उपर दीजिए।

चन्द्रगुप्तः जैसा उचित समझो, तुम्हारी आवश्यक सामग्री तुम्हारेअधीन रहेगी। सिंहरण को कहाँ छोड़ा?

मालविकाः आते ही होंगे।

चन्द्रगुप्तः (सैनिकों से) तुम लोग कितनी दूर तक गये थे?

सैनिकः अभी चार योजन तक यवनों का पता नहीं। परन्तु कुछभारतीय सैनिक रावी के उस पार दिखाई दिये। मालव की पचासोंहिस्रिकाएँ वहाँ निरीक्षण कर रही हैं। उन पर धनुर्धर हैं।

सिंहरणः (प्रवेश करके) वह पर्वतेश्वर की सेना होगी। किन्तु

मागध! आश्चर्य है।

चन्द्रगुप्तः आश्चर्य कुछ नहीं।

सिंहरणः क्षुद्रकों के केवल कुछ ही गुल्म आये हैं, और तो...

चन्द्रगुप्तः चिंता नहीं। कल्याणी के मागध सैनिक और क्षुद्रकअपनी घात में हैं। यवनों को इधर आ जाने दो। सिंहरण, थोड़ी-सीहिंस्रिकाओं पर मुझे साहसी वीर चाहिए।

सिंहरणः प्रस्तुत है। आज्ञा दीजिए।

चन्द्रगुप्तः यवनों की जलसेना पर आक्रमण करना होगा। विजयके विचार से नहीं, केवल उलझाने के लिए और उनकी सामग्री नष्ट करनेके लिए।

(सिंहरण संकेत करता है, नावें जाती हैं)

मालविकाः तो मैं स्कन्धावार के पृष्ठ भाग में अपने साधन रखतीहूँ। एक क्षुद्र भाण्डार मेरे उपवन में भी रहेगा।

चन्द्रगुप्तः (विचार करके) अच्छी बात है।

(एक नाव तेजी से आती है, उस पर से अलका उतर पड़ती है)

सिंहरणः (आश्चर्य से) तुम कैसे अलका?

अलकाः पर्वतेश्वर ने प्रतिज्ञा भंग की है, वह सैनिकों के साथसिकन्दर की सहायता क ेलिए आया है। मालवों की नावें घूम रही थीं।मैं जान-बूझकर पर्वतेश्वर को छोड़ कर वहीं पहुँच गयी (हँसकर) परन्तुमैं बन्दी होकर आयी हूँ!

चन्द्रगुप्तः देवि! युद्धकाल है, नियमों को तो देखना ही पड़ेगा।मालविका! ले जा इन्हें उपवन में।

(मालविका और अलका का प्रस्थान)

(मालव रक्षकों के साथ एक यवन का प्रवेश)

यवनः मालव का सन्धि-विग्रहिक अमात्य से मिलना चाहता हूँ।सिंहरणः तुम दूत हो?

यवनः हाँ।

सिंहरणः कहो, मैं यहीं हूँ।

यवनः देवपुत्र ने आज्ञा दी है कि मालव-नेता मुझसे आकर भेंटकरें और मेरी जल-यात्रा की सुविधा का प्रबन्ध करें।

सिंहरणः सिकन्दर से मावों की ऐसी कोई सन्धि नहीं हुई, जिससेवे इस कार्य के लिए बाध्य हों। हाँ, भेंट करने के लिए मालव सदैवप्रस्तुत हैं - चाहे सन्धि-परिषद्‌ में या रणभूमि में!

यवनः तो यही जाकर कह दूँ?

सिंहरणः हाँ, जाओ - (रक्षकों से) - इन्हें सीमा तक पहुँचा दो।(यवन का रक्षकों के साथ प्रस्थान)

चन्द्रगुप्तः मालव, हम लोगों ने भयानक दायित्व उठाया है, इसकानिर्वाह करना होगा।

सिंहरणः जीवन-मरण से खेलते हुए करेंगे, वीरवर!

चन्द्रगुप्तः परन्तु सुनो तो, यवन लोग आर्यों की रण-नीति से नहींलड़ते। वे हमीं लोगों के युद्ध हैं, जिनमें रणभूमि के पास ही कृषकस्वच्छन्दता से हल चलाता है। यवन आतंक फैलाना जानते हैं और उसेअपनी रण-नीति का प्रधान अंग मानते हैं। निरीह साधारण प्रजा कोलूटना, गाँवों को जलाना, उनके भीषण परन्तु साधारण कार्य हैं।

सिंहरणः युद्ध-सीमा के पार के लोगों को भिन्न दुर्गों में एकत्रहोने की आज्ञा प्रचारित हो गयी है। जो होगा, देखा जायगा।

चन्द्रगुप्तः पर एक बात सदैव ध्यान में रखनी होगी।सिंहरणः क्या?

चन्द्रगुप्तः यही, कि हमें आक्रमणकारी यवनों को यहाँ से हटानाहै, और उन्हें जिस प्रकार हो, भारतीय सीमा के बाहर करना है। इसलिएशत्रु की ही नीति से युद्ध करना होगा।

सिंहरणः सेनापति की सब आज्ञाएँ मानी जायँगी, चलिए।

(सबका प्रस्थान)

(शिविर के समीप कल्याणी और चाणक्य)

कल्याणीः आर्य, अब मुझे लौटने की आज्ञा दीजिए, क्योंकिसिकन्दर ने विपाशा के अपने आक्रमण की सीमा बना ली है। अग्रसरहोने की सम्भावना नहीं, और अमात्य राक्षस भी आ गये हैं, उनके साथमेरा जाना ही उचित है।

चाणक्यः और चन्द्रगुप्त से क्या कह दिया जाय?

कल्याणीः मैं नहीं जानती।

चाणक्यः परन्तु राजकुमारी, उसका असीम प्रेमपूर्ण हृदय भग्न होजायगा। वह बिना पतवार की नौका के सदृश इधर-उधर बहेगा।

कल्याणीः आर्य, मैं इन बातों को नहीं सुनना चाहती, क्योंकिसमय ने मुझे अव्यवस्थित बना दिया है।

(अमात्य राक्षस का प्रवेश)

राक्षसः कौन? चाणक्य?

चाणक्यः हाँ अमात्य! राजकुमारी मगध लौटना चाहती है।

राक्षसः तो उन्हें कौन रोक सकता है?

चाणक्यः क्यों? तुम रोकोगे।

राक्षसः क्या तुमने सब को मूर्ख समझ लिया है?

चाणक्यः जो होंगे वे अवश्य समझे जायँगे। अमात्य! मगध कीरक्षा अभीष्ट नहीं है क्या?

राक्षसः मगध विपन्न कहाँ है?

चाणक्यः तो मैं क्षुद्रकों से कह दूँ कि तुम लोग बाधा न दो,और यवनों से भी यह कह दिया जाय कि वास्तव में यह स्कन्धावार प्राच्यदेश के सम्राट्‌ का नहीं है, जिससे भयभीत होकर तुम विपाशा पार नहींहोना चाहते, यह तो क्षुद्रकों की क्षुद्र सेना है, जो तुम्हारे लिए मगध तकपहुँचने का सरल पथ छोड़ देने को प्रस्तुत है... क्यों?

राक्षसः (विचार कर) आह ब्राह्मण, मैं स्वयं रहूँगा, यह तो मानलेने योग्य सम्मति है। परन्तु...

चाणक्यः फिर परन्तु लगाया। तुम स्वयं रहो और राजकुमारी भीरहे और तुम्हारे साथ जो नवीन गुल्म आये हैं, उन्हें भी रखना पड़ेगा।जब सिकन्दर रावी के अन्तिम छोर पर पहुँचेगा, तब तुम्हारी सेना काकाम पड़ेगा। राक्षस! फिर भी मगध पर मेरा स्नेह है। मैं उसे उजड़नेऔर हत्याओं से बचाना चाहता हूँ।

(प्रस्थान)

कल्याणीः क्या इच्छा है अमात्य?

राक्षसः मैं इसका मुँह भी नहीं देखना चाहता। पर इसकी बातेंमानने के लिए विवश हो रहा हूँ। राजकुमारी! यह मगध का विद्रोही अबतक बन्दी कर लिया जाता, यदि इसकी स्वतंत्रता की आवश्यकता न होती।

कल्याणीः जैसी सम्मति हो।

(चाणक्या का पुनः प्रवेश)

चाणक्यः अमात्य! सिंह पिंजड़े में बन्द हो गया।

राक्षसः कैसे?

चाणक्यः जल-यात्रा में इतना विघ्न उपस्थित हुआ कि सिकन्दरको स्थल-मार्ग से मालवों पर आक्रमण करना पड़ा। अपनी विजयों परफूल कर उसने ऐसा किया, परन्तु जा फँसा उनके चंगुल में। अब इधरक्षुद्रकों और मागधों की नवीन सेनाओं से उसको बाधा पहुँचानी होगी।

राक्षसः तब तुम क्या कहते हो? क्या चाहते हो?

चाणक्यः यही कि तुम अपनी सम्पूर्ण सेना ले कर विपाशा केतट की रक्षा करो, और क्षुद्रकों को ले कर मैं पीछे से आक्रमण करनेजाता हूँ। इसमें तो डरने की कोई बात नहीं?

राक्षसः मैं स्वीकार करता हूँ।

चाणक्यः यदि न करोगे तो अपना अनिष्ट करोगे।

(प्रस्थान)

कल्याणीः विचित्र ब्राह्मण है अमात्य! मुझे तो इसको देखकर डरलगता है।

राक्षसः विकट है! राजकुमारी, एक बार उससे मेरा द्वंद्व होनाअनिवार्य है, परन्तु अभी मैं उसे बचाना चाहता हूँ।

कल्याणीः चलिए।

(कल्याणी का प्रस्थान)

चाणक्यः (पुनः प्रवेश करके) राक्षस, एक बात तुम्हारे कल्याणकी है, सुनोगे? मैं कहना भूल गया था।

राक्षसः क्या?

चाणक्यः नन्द को अपनी प्रेमिका सुवासिनी से तुम्हारे अनुचितसम्बन्ध का विश्वास हो गया है। अभी तुम्हारा मगध लौटना ठीक न होगा।समझे!

(चाणक्य का सवेग प्रस्थान, राक्षस सिर पकड़ कर बैठ जाता है।)

(मालव दुर्ग का भीतरी भाग, एक शून्य परकोटा)

मालविकाः अलका, इधर तो कोई भी सैनिक नहीं हैं। यदि शत्रुइधर से आवे तब?

अलकाः दुर्ग ध्वंस करने के लिए यंत्र लगाये जा चुके हैं, परन्तुमालव-सेना अभी सुख की नींद सो रही है। सिंहरण को दुर्ग की भीतरीरक्षा का भार दे कर चन्द्रगुप्त नदी-तट से यवन-सेना के पृष्ठ भाग परआक्रमण करेंगे। आज ही युद्ध का अन्तिम निर्णय है। जिस स्थान परयवन-सेना को ले आना अभीष्ट था, वहाँ तक पहुँच गयी है।

मालविकाः अच्छा, चलो, कुछ नवीन आहत आ गये हैं, उनकीसेवा का प्रबन्ध करना है।

अलकाः (देखकर) मालविका! मेरे पास धनुष है और कटार है।इस आपपि-काल में एक आयुध अपने पास रखना चाहिए। तू कटारअपने पास रख ले।

मालविकाः मैं डरती हूँ, घृणा करती हूँ। रक्त की प्यासी छुरी

अलग करो, अलका, मैंने सेवा का व्रत लिया है।

अलकाः प्राणों के भय से घृणा करती हो क्या?

मालविकाः प्राण तो धरोहर है, जिसका होगा वही लेगा, मुझेभयों से इसकी रक्षा करने की आवश्यकता नहीं। मैं जाती हूँ।

अलकाः अच्छी बात है, जा। परन्तु सिंहरण को शीघ्र ही भेजदे। यहाँ जब तक कोई न आ जाय, मैं नहीं हट सकती।

(मालविका का प्रस्थान)

अलकाः सन्ध्या का नीरव निर्जन प्रदेश है। बैठूँ। (अकस्मात्‌बाहर से हल्का होता है, युद्ध-शब्द) क्या चन्द्रगुप्त ने आक्रमण कर दिया?परन्तु यह स्थान... बड़ा ही अरक्षित है। (उठती है) अरे! वह कौन है?कोई यवन-सैनिक है क्या? तो सावधान हो जाऊँ?

(धनुष चढ़ाकर तीर मारती है। यवन-सैनिक का पतन। दूसराफिर ऊपर आता है, उसे भी मारती है, तीसरी बार स्वयं सिकन्दर ऊपरआता है। तीर का वार बचाकर दुर्ग में कूदता है और अलका को पकड़नाचाहता है। सहसा सिंहरण का प्रवेश, युद्ध)

सिंहरणः (तलवार चलाते हुए) तुमको स्वयं इतना साहस नहींकरना चाहिए सिकन्दर! तुम्हारा प्राण बहुमूल्य है।

सिकन्दरः केवल सेनाओं को आज्ञा देना नहीं जानता। बचा अपनेको! (भाले का वार)

(सिंहरण इस फुरती से बरछे को ढाल पर लेता है वह सिकन्दरके हाथ से छूट जाता है। यवनराज विवश होकर तलवार चलाता है, किन्तुसिंहरण के भयानक प्रत्याघात से घायल होकर गिरता है। तीन यवन-सैनिककूदकर आते हैं, इधर से मालव-सैनिक पहुँचते हैं।)

सिंहरणः यवन! दुस्साहस न करो। तुम्हारे सम्राट्‌ की अवस्थाशोचनीय है ले जाओ, इनकी शुश्रूषा करो।

यवनः दुर्ग-द्वार टूटता है और अभी हमारे वीर सैनिक इस दुर्गको मटियामेट करते हैं।

सिंहरणः पीछे चन्द्रगुप्त की सेना है मूर्ख! इस दुर्ग में आकरतुम सब बन्दी होगे। ले जाओ, सिकन्दर को उठा ले जाओ, जब तकऔर मालवों को यह न विदित हो जाय कि यही वह सिकन्दर है।

मालव-सैनिकः सेनापति, रक्त का बदला! इस नृशंस ने निरीहजनता का अकारण वध किया है। प्रतिशोध?

सिंहरणः ठहरो, मालव वीरों! ठहरो। यह भी एक प्रतिशोध है।यह भारत के ऊपर एक ऋण था। पर्वतेश्वर के प्रति उदारता दिखाने कायह प्रत्युपर है। यवन! जाओ, शीघ्र जाओ!

(तीनों यवन सिकन्दर को लेकर जाते हैं, घबराया हुआ एकसैनिक आता है।)

सिंहरणः क्या है?

सैनिकः दुर्ग-द्वार टूट गया, यवन-सेना भीतर आ रही है।

सिंहरणः कुछ चिन्ता नहीं। दृढ़ रहो। समस्त मालव-सेना से कहदो कि सिंहरण तुम्हारे साथ मरेगा। (अलका से) तुम मालविका को साथलेकर अन्तःपुर की स्त्रियों को भूगर्भ-द्वार से रक्षित स्थान पर ले जाओ।अलका! मालव के ध्वंस पर ही आर्यों का यशो-मन्दिर ऊँचा खड़ा होसकेगा। जाओ।

(अलका का प्रस्थान। यवन-सैनिकों का प्रवेश, दूसरी ओर सेचन्द्रगुप्त का प्रवेश और युद्ध। एक यवन-सैनिक दौड़ता हुआ आता है।)

यवनः सेनापति सिल्यूकस। क्षुद्रकों की सेना भी पीछे आ गयीहै। बाहर की सेना को उन लोगों ने उलझा रक्खा है।

चन्द्रगुप्तः यवन सेनापति, मार्ग चाहते हो या युद्ध? मुझ परकृतज्ञता का बोझ है। तुम्हारा जीवन!

सिल्यूकसः (कुछ सोचने लगा) हम दोनों के लिए प्रस्तुत हैं।किन्तु...

चन्द्रगुप्तः शान्ति! मार्ग दो! जाओ सेनापति! सिकन्दर का जीवनबच जाय तो फिर आक्रमण करना।

(यवन-सेना का प्रस्थान। चन्द्रगुप्त का जय-घोष)

तृतीय अंक

(विपाशा-तट का शिविर... राक्षस टहलता हुआ)

राक्षसः एक दिन चाणक्य ने कहा था कि आक्रमणकारी यवन,ब्राह्मण और बौद्धों का भेद न मानेंगे। वही बात ठीक उतरी। यदि मालवऔर क्षुद्रक परास्त हो जाते और यवन-सेना शतद्रु पार कर जाती, तो मगधका नाश निश्चित था। मूर्ख मगध-नरेश ने संदेह किया है और बार-बारमेरे लौट आने की आज्ञाएँ आने लगी हैं! परन्तु...

(एक चर प्रवेश करके प्रणाम करता है।)

राक्षसः क्या समाचार है?

चरः बड़ा ह आतंकजनक है अमात्य!

राक्षसः कुछ कहो भी।

चरः सुवासिनी पर आपसे मिल कर कुचक्र रचने का अभियोगहै, वह कारागार में है।

राक्षसः (क्रोध से) और भी कुछ?

चरः हाँ अमात्य, प्रान्त - दुर्ग पर अधिकार करके विद्रोह करनेके अपराध मं आपको बन्दी बना कर ले आने वाले के लिए पुरस्कारकी घोषणा की गयी है।

राक्षसः यहाँ तक! तुम सत्य कहते हो?

चरः मैं तो यहाँ तक कहने के लिए प्रस्तुत हूँ कि अपने बचनेका शीघ्र उपाय कीजिए।

राक्षसः भूल थी! मेरी भूल थी! मूर्ख राक्षस! मगध की रक्‌करने चला था। जाता मगध, कटती प्रजा, लुटते नगर! नन्द! क्रूरता औरमूर्खता की प्रतिमूर्ति नन्द। एक पशु। उसके लिए क्या चिन्ता थी!सुवासिनी! मैं सुवासिनी के लिए मगध को बचाना चाहता था। कुटिलविश्वासघातिनी राज-सेवा! तुझे धिक्कार है!

(एक नायक का सैनिकों के साथ प्रवेश)

नायकः अमात्य राक्षस, मगध-सम्राट्‌ की आज्ञा से शस्त्र त्यागकीजिए, आप बन्दी हैं।

राक्षसः (खड्‌ग खींचकर) कौन है तू मूर्ख? इतना साहस!

नायकः यह तो बन्दीगृह बतावेगा। बल-प्रयोग करने के लिए मैंबाध्य हूँ। (सैनिकों से) अच्छा। बाँध लो।

(दूसरी ओर से आठ सैनिक आकर उन पहले के सैनिकों कोबन्दी बनाते हैं। राक्षस आश्चर्यचकित होकर देखता है।)

नायकः तुम सब कौन हो?

नवागत-सैनिकः राक्षस के शरीर-रक्षक!

राक्षसः मेरे!

नवागतः हाँ अमात्य! आर्य चाणक्य ने आज्ञा दी है कि जब तकयवनों का उपद्रव है, तब तक सब की रक्षा होनी चाहिए, भले ही वहराक्षस क्यों न हो।

राक्षसः इसके लिए मैं चाणक्य का कृतज्ञ हूँ।

नवागतः परन्तु अमात्य! कृतज्ञता प्रकट करने के लिए आपकोउनके समीप तक चलना होगा।

(सैनिकों को संकेत करता है, बन्दियों को लेकर चले जाते हैं।)

राक्षसः मुझे कहाँ चलना होगा? राजकुमारी से शिविर में भेंटकर लूँ।

नवागतः वहीं सबसे भेंट होगी। यह पत्र है।

(राक्षस पत्र लेकर पढ़ता है।)

राक्षसः अलका का सिंहरण से ब्याह होने वाला है, उसमें मैं भीनिमंत्रित किया गया हूँ! चाणक्य विलक्षण बुद्धि का ब्राह्मण है, उसकी प्रखरप्रतिभा कूट राजनीति के साथ रात-दिन जैसे खिलवाड़ किया करती है।

नवागतः हाँ, आपने और भी कुछ सुना है?

राक्षसः क्या?

नवागतः यवनों ने मालवों से सन्धि करने का संदेश भेजा है।सिकन्दर ने उस वीर रमणी अलका को देखने की बड़ी इच्छा प्रकट कीहै, जिसने दुर्ग में सिकन्दर का प्रतिरोध किया था।

राक्षसः आश्चर्य!

चरः हाँ अमात्य! यह तो मैं कहने ही नहीं पाया था। रावी-तट पर एक विस्तृत शिविरों की रंगभूमि बनी है, जिसमें अलका का ब्याहहोगा। जब से सिकन्दर को यह विदित हुआ है कि अलका तक्षशिला-नरेश आम्भीक की बहन है, तब से उसे एक अच्छा अवसर मिल गयाहै। उसने उक्त शुभ अवसर पर मालवों और यवनों के एक सम्मिलतउत्सव के करने की घोषणा कर दी है। आम्भीक के पक्ष से स्वयं निमंत्रितहोकर, परिणय-संपादन कराने दल-बल के साथ सिकन्दर भी आवेगा।

राक्षसः चाणक्य! तू धन्य है! मुझे ईर्ष्या होती है! चलो।

(सब जाते हैं)

(रावी-तट के उत्सव-शिविर का एक पथ। पर्वतेश्वर अकेलेटहलते हुए।)

पर्वतेश्वरः आह! कैसा अपमान! जिस पर्वतेश्वर ने उपरापथ मेंअनेक प्रबल शत्रुओं के रहते भी विरोधों को कुचल कर गर्व से सिरऊँचा कर रक्खा था, जिसने दुर्दान्त सिकन्दर के सामने मरण को तुच्छसमझते हुए, वक्ष ऊँचा करके भाग्य से हँसी-ठठ्ठा किया था, उसी का यहतिरस्का - सो भी एक स्त्री के द्वारा! और सिकन्दर के संकेत से!प्रतिशोध! रक्त-पिशाची प्रतिहिंसा अपने दाँतों से नसों को नोच रही है!मरूँ या मार डालूँ! मारना तो असम्भव है। सिंहरण और अलका, वर-वधू वेश में हैं, मालवों के चुने हुए वीरों से वे घिरे हैं। सिकन्दर उनकीप्रशंसा और आदर में लगा है। इस समय सिंहरण पर हाथ उठानाअसफलता के पैरों तले गिरना है। तो फिर जी कर क्या करूँ?

(छुरा निकाल कर आत्महत्या करना चाहता है, चाणक्य आकरहाथ पकड़ लेता है।)

पर्वतेश्वरः कौन?

चाणक्यः ब्राह्मण चाणक्य।

पर्वतेश्वरः इस मेरे अन्तिम समय में भी क्या कुछ दान चाहते हो?

चाणक्यः हाँ!

पर्वतेश्वरः मैंने अपना राज्य दिया, अब हटो।

चाणक्यः यह तो तुमने दे दिया, परन्तु इसे मैंने तुमसे माँगा नथा, पौरव!

पर्वतेश्वरः फिर क्या चाहते हो?

चाणक्यः एक प्रश्न का उपर।

पर्वतेश्वरः तुम अपनी बात मुझे स्मरण दिलाने आये हो? तो ठीकहै! ब्राह्मण! तुम्हारी बात सच हुई। यवनों ने आर्यावर्त को पददलित करलिया। मैं गर्व में भूला था, तुम्हारी बात न मानी। अब उसी का प्रायश्चिपकरने जाता हूँ। छोड़ दो।

चाणक्यः पौरव! शान्त हो। मैं एक दूसरी बात पूछता हूँ। वृषलचन्द्रगुप्त क्षत्रिय है कि नहीं, अथवा उसे मुर्धाभिषिक्त करने में ब्राह्मण सेभूल हुई!

पर्वतेश्वरः आह, ब्राह्मण! व्यंग न करो। चन्द्रगुप्त के क्षत्रिय होनेका प्रमाण यही विराट आयोजन है। आर्य चाणक्य! मैं क्षमता रखते हुएजिस काम को न कर सका, वह कार्य निस्सहाय चन्द्रगुप्त ने किया।आर्यावर्त से यवनों को निकल जाने का संकेत उसके प्रचुर बल का द्योतकहै। मैं विश्वस्त हृदय से कहता हूँ कि चन्द्रगुप्त आर्यावर्त का एक एकच्छत्रसम्राट होने के उपयुक्त है। अब मुझे छोड़ दो।

चाणक्यः पौरव! ब्राह्मण राज्य करना नहीं जानता, करना भी नहींचाहता, हाँ, वह राजाओं का नियमन करना जानता है, राजा बनाना जानताहै। इसलिए तुम्हें अभी राज्य करना होगा, और करना होगा वह कार्य -जिसमें भारतीयों का गौरव और तुम्हारे क्षात्र धर्म का पानल हो।

पर्वतेश्वरः (छुरा फेंककर) वह क्या काम है?

चाणक्यः जिन यवनों ने तुमको लांछित और अपमानित किया है,उनसे प्रतिशोध!

पर्वतेश्वरः असम्भव है।

चाणक्यः (हँसकर) मनुष्य अपनी दुर्बलता से भलीभाँति परिचितरहता है। परन्तु उसे अपने बल से भी अवगत होना चाहिए। असम्भवकहकर किसी काम को करने के पहले कर्मक्षेत्र में काँपकर लड़खड़ाओमत पौरव! तुम क्या हो - विचार कर देखो तो! सिकन्दर ने जो क्षत्रपनियुक्त किया है, जिन सन्धियों को वह प्रगतिशील रखना चाहता है, वेसब क्या है? अपनी लूट-पाट को वह साम्राज्य के रूप में देखना चाहताहै! चाणक्य जीते-जी यह नहीं होने देगा! तुम राज्य करो!

पर्वतेश्वरः परन्तु आर्य, मैंने राज्य दान कर दिया है।

चाणक्यः पौरव! तामस त्याग से साप्विक ग्रहण उपम है। वहदान न था, उसमें कई सत्य नहीं। तुम उसे ग्रहण करो।

पर्वतेश्वरः तो क्या आज्ञा है?

चाणक्यः पीछे बतलाऊँगा। इस समय मुझे केवल यही कहना हैकि सिंहरण को अपना भाई समजो और अलका को बहन।

(वृद्ध गांधार-राज का सहसा प्रवेश)

वृद्धः अलका कहाँ है, अलका?

पर्वतेश्वरः कौन हो तुम वृद्ध?

चाणक्यः मैं इन्हें जानता हूँ - वृद्ध गांधार-नरेश!

पर्वतेश्वरः आर्य, मैं पर्वतेश्वर प्रणाम करता हूँ।

वृद्धः मैं प्रणाम करने योग्य नहीं, पौरव! मेरी सन्तान से देशका बड़ा अनिष्ट हुआ है। आम्भीक ने लज्जा की यवनिका में मुझे छिपादिया है। इस देशद्रोही के प्राण केवल अलका को देखने के लिए बचेहैं, उसी से कुछ आशा थी। जिसको मोल लेने में लोभ असमर्थ था, उसीअलका को देखना चाहता हूँ और प्राण दे देना चाहता हूँ। (हाँफता है।)चाणक्यः क्षत्रिय! तुम्हारे पाप और पुण्य दोनों जीवित हैं।

स्वस्तिमती अलका आज सौभाग्यवती होने जा रही है, चलो कन्या-संप्रदानकरके प्रसन्न हो जाओ।

(चाणक्य वृद्ध गांधार-नरेश को लिवा जाता है।)

पर्वतेश्वरः जाऊँ? किधर जाऊँ? चाणक्य के पीछे? (जाता है।)

(कार्नेलिया और चन्द्रगुप्त का प्रवेश)

चन्द्रगुप्तः कुमारी, आज मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई।

कार्नेलियाः किस बात की?

चन्द्रगुप्तः कि मैं विस्मृत नहीं हुआ।

कार्नेलियाः स्मृति कोई अच्छी वस्तु है क्या?

चन्द्रगुप्तः स्मृति जीवन का पुरस्कार है, सुन्दरी।

कार्नलियाः परन्तु मैं कितने दूर देश की हूँ। स्मृतियाँ ऐसे अवसरपर उद्दण्ड हो जाती है। अतीत के कारागृह में बन्दिनी स्मृतियाँ अपनेकरुण निश्वास की श्रृंखलाओं को झनझनाकर सूचीभेद्य अन्धकार में सोजाती है।

चन्द्रगुप्तः ऐसा हो तो भूल जाओ शुभे! इस केन्द्रच्युत जलते हुएउल्कपिंड की कोई कक्षा नहीं। निर्वासित, अपमानित प्राणों की चिन्ताक्या?

कार्नेलियाः नहीं चन्द्रगुप्त, मुझे इस देश से जन्मभूमि के समानस्नेह होता जा रहा है। यहाँ के श्यामल-कुंज, घने जंगल, सरिताओं कीमाला हने हुए शैल-श्रेणी, हरी-भरी वर्षा, गर्मी की चाँदनी, शीत-कालकी धूप और भोले कृषक तथा सरला कृषक-बालिकाएँ, बाल्यकाल कीसुनी हुई कहानियों की जीवित प्रतिमाएँ हैं। यह स्वप्नों का देश, यह त्यागऔर ज्ञान का पालना, यह प्रेम की रंगभूमि - भारतभूमि क्या भुलायी जासकती है? कदापि नहीं। अन्य देश मनुष्यों की जन्म-भूमि है, यह भारतमानवता की जन्मभूमि है।

चन्द्रगुप्तः शुभे, यह सुनकर चकित हो गया हूँ।

कार्नेलियाः और मैं मर्माहत हो गयी हूँ चन्द्रगुप्त, मुझे पूर्णविश्वास था कि यहाँ के क्षत्रप पिताजी नियुक्त होंगे और मैं अलेग्जेंद्रियामें समीप ही रह कर भारत को देख सकूँगी। परन्तु वैसा न हुआ, सम्राट्‌ने फिलिप्स को यहाँ का शासक नियुक्त कर दिया है।

(अकस्मात्‌ फिलिप्स का प्रवेश)

फिलिप्सः तो बुरा क्या है कुमारी? सिल्यूकस के क्षत्रप न होनेपर भी कार्नेलिया यहाँ की शासक हो सकती है। फिलिप्स अनुचर होगा- (देखकर) - फिर वही भारतीय युवक!

चन्द्रगुप्तः सावधान, यवन! हम लोग एक बार एक-दूसरे कीपरीक्षा ले चुके हैं।

फिलिप्सः ऊँह! तुमसे मेरा सम्बन्ध ही क्या है, परन्तु...

कार्नेलियाः और मुझसे भी नहीं, फिलिप्स! मैं चाहती हूँ कि तुममुझसे न बोलो।

फिलिप्सः अच्छी बात है। किन्तु मैं चन्द्रगुप्त को भी तुमसे बातेंकरते हुए नहीं देख सकता। तुम्हारे प्रेम का...

कार्नेलियाः चुप रहो, मैं करती हूँ, चुप रहो।

फिलिप्सः (चन्द्रगुप्त) मैं तुमसे द्वंद्व-युद्ध किया चाहता हूँ।

चन्द्रगुप्तः जब इच्छा हो, मैं प्रस्तुत हूँ। और संधिभंग करने केलिए तुम्हीं अग्रसर होंगे, यह अच्छी बात होगी।

फिलिप्सः संधि राष्ट्र की है। यह मेरी व्यक्तिगत बात है। अच्छा,फिर कभी मैं तुम्हें आह्‌वान करूँगा।

चन्द्रगुप्तः आधी रात, पिछले पहर, जब तुम्हारी इच्छा हो।

(फिलिप्स का प्रस्थान)

कार्नेलियाः सिकन्दर ने भारत से युद्ध किया है और मैंने भारतका अध्ययन किया है। मैं देखती हूँ कि यह युद्ध ग्रीक और भारतीयोंके अस्त्र का ही नहीं, इसमें दो बुद्धियाँ भी लड़ रही है। यह अरस्तूऔर चाणक्य की चोट है, सिकन्दर और चन्द्रगुप्त उनके अस्त्र हैं।

चन्द्रगुप्तः मैं क्या कहूँ, मैं एक निर्वासित -

कार्नेलियाः लोग चाहे जो कहें, मैं भलीभाँति जानती हूँ कि अभीतक चाणक्य की विजय है। पिताजी से और मुझसे इस विषय पर अच्छाविवाद होता है। वे अरस्तू के शिष्यों में हैं।

चन्द्रगुप्तः भविष्य के गर्भ में अभी बहुत-से रहस्य छिपे हैं।

कार्नेलियाः अच्छा, तो मैं जाती हूं और एक बार अपनी कृतज्ञताप्रकट करती हूँ। किन्तु मुझे विश्वास है कि मैं पुनः लौट कर आऊँगी।

चन्द्रगुप्तः उस समय भी मुझे भूलने की चेष्टा करोगी?

कार्नेलियाः नहीं। चन्द्रगुप्त! विदा, - यवन-बेड़ा आज हीजायगा।

(दोनों एक-दूसरे की ओर देखते हुए जाते हैं - राक्षस औरकल्याणी का प्रवेश)

कल्याणीः ऐसा विराट्‌ दृशअय तो मैंने नहीं देखा था अमात्य!मगध को किस बात का गर्व है?

राक्षसः गर्व है राजकुमारी! और उसका गर्व सत्य है। चाणक्य औरचन्द्रगुप्त मगध की ही प्रजा हैं, जिन्होंने इतना बड़ा उलट-फेर किया है।

(चाणक्य का प्रवेश)

चाणक्यः तो तुम इसे स्वीकार करते हो अमात्य राक्षस?

राक्षसः शत्रु की उचित प्रशंसा करना मनुष्य का धर्म है। तुमनेअद्‌भुत कार्य किये, इसमें भी कोई सन्देह है?

चाणक्यः अस्तु, अब तुम जा सकते हो। मगध तुम्हारा स्वागतकरेगा।

राक्षसः राजकुमारी तो कल चली जायँगी। पर, मैंने अभी तकनिश्चय नहीं किया है।

चाणक्यः मेरा कार्य हो गया, राजकुमारी जा सकती है। परन्तुएक बात कहूँ?

राक्षसः क्या?

चाणक्यः यहाँ की कोई बात नन्द से न कहने की प्रतिज्ञा करनीहोगी।

कल्याणीः मैं प्रतिशुर्त होती हूँ।

चाणक्यः राक्षस, मैं सुवासिनी से तुम्हारी भेंट भी करा देता, परन्तुवह मुझ पर विश्वास नहीं करती।

राक्षसः क्या वह भी यहीं है?

चाणक्यः कहीं होगी, तुम्हारा प्रत्यय देखकर वह आ सकती है।

राक्षसः यह लो मेरी अंगुलिय मुद्रा। चाणक्य! सुवासिनी कोकारागार से मुक्त करा कर मुझसे भेंट करा दो।

चाणक्यः (मुद्रा लेकर) मैं चेष्टा करूँगा।

(प्रस्थान)

राक्षसः तो राजकुमारी, प्रणाम!

कल्याणीः तुमने अपना कर्तव्य भली-भाँति सोच लिया होगा। मैं

जाती हूँ, और विश्वास दिलाती हूँ कि मुझसे तुम्हारा अनिष्ट न होगा।

(दोनों का प्रस्थान)

(रावी का तट - सिकन्दर का बेड़ा प्रस्तुत है, चाणक्य औरपर्वतेश्वर)

चाणक्यः पौरव, देखो वह नृशंसता की बाढ़ आज उतर जायगी।चाणक्य ने जो किया, वह भला था या बुरा, अब समझ में आवेगा।

पर्वतेश्वरः मैं मानता हूँ, यह आपक ही का स्तुत्य कार्य है।

चाणक्यः और चन्द्रगुप्त के बाहु-बल का, पौरव! आज फिर मैंउसी बात को दुहराना चाहता हूँ। अत्याचारी नन्द के हाथों में मगध काउद्धार करने के लिए चाणक्य ने तुम्हीं से पहले सहायता माँगी थी औरअब तुम्हीं से लेगा भी, अब तो तुम्हें विश्वास होगा?

पर्वतेश्वरः मैं प्रस्तुत हूँ, आर्य!

चाणक्यः मैं विश्वस्त हुआ। अच्छा, यवनों को आज विदा करनाहै।

(एक ओर से सिकन्दर, सिल्यूसक, कार्नेलिया, फिलिप्स इत्यादिऔर दूसरी ओर से चन्द्रगुप्त, सिंहरण, अलका, मालविका और आम्भीकइत्यादि का यवन और भारतीय रणवाद्यों के साथ प्रवेश)

सिकन्दरः सेनापति चन्द्रगुप्त! बधाई है!

चन्द्रगुप्तः किस बात की राजन्‌?

सिकन्दरः जिस समय तुम भारत के सम्राट्‌ होगे, उस समय मैंउपस्थित न रह सकूँगा, उसके लिए पहले बधाई है। मुझे उस नग्न ब्राह्मणदाण्ड्यायन की बातों का पूर्ण विश्वास हो गया।

चन्द्रगुप्तः आप वीर हैं।

सिकन्दरः आर्य वीर! मैंने भारत में हरक्यूलिस, एचिलिस कीआत्माओं को भी देखा और देखा डिमास्थनीज को। संभवतः प्लेटो औरअरस्तू भी होंगे। मैं भारत का अभिनन्दन करता हूँ।

सिल्यूकसः सम्राट! यही आर्य चाणक्य हैं।

सिकन्दरः धन्य हैं आप, मैं तलवार खींचे हुए भारत में आया,हृदय देकर जाता हूँ। विस्मय-विमुग्ध हूँ। जिनसे खड्‌ग-परीक्षा हुई थी,युद्ध में जिनसे तलवारे मिली थीं, उनसे हाथ मिलाकर - मैत्री के हाथमिलाकर जाना चाहता हूँ।

चाणक्यः हम लोग प्रस्तुत हैं सिकन्दर! तुम वीर हो, भारतीयसदैव उपम गुणों की पूजा करते हैं। तुम्हारी जल-यात्रा मंगलमय हो। हमलोग युद्ध करना जानते हैं, द्वेष नहीं।

(सिकन्दर हँसता हुआ अनुचरों के साथ नौका पर आरोहण करताहै, नाव चलती है।)

(पथ में चर और राक्षस)

चरः छल! प्रवञ्चना! विश्वासघात!

राक्षसः क्या है, कुछ सुनूँ भी!

चरः मगध से आज मेरा सखा कुरंग आया है, उससे यह मालूमहुआ है कि महाराज नन्द का कुछ भी क्रोध आपके ऊपर नहीं, वह आपके शीघ्र मगध लौटने के लिए उत्सुक हैं।

राक्षसः और सुवासिनी?

चरः सुवासिनी सुखी और स्वतंत्र है। मुझे चाणक्य के चर सेवह धोखा हुआ था, जब मैंने आपसे वहाँ का समाचार कहा था।

राक्षसः तब क्या मैं कुचक्र में डाला गया हूँ? (विचार कर)चाणक्य की चाल है। ओह, मैं समझ गया। मुझे निकल भागना चाहिए।सुवासिनी पर भी कोई अत्याचार मेरी मुद्रा दिखाकर न किया जा सके,इसके लिए मुझे शीघ्र मगध पहुँचना चाहिए।

चरः क्या आपने मुद्रा भी दे दी है?

राक्षसः मेरी मूर्खता। चाणक्य, मगध में विद्रोह कराना चाहता है।

चरः अभी हम लोगों को मगध-मुल्म मार्ग में मिल जायगा,चाणक्य से बचने के लिए उसका आश्रय अच्छा होगा। दो तीव्रगामी अश्व

मेरे अधिकार में हैं, शीघ्रता कीजिए।

राक्षसः तो चलो! चाणक्य के हाथों की कठपुतली बनकर मगधका नाश नहीं करा सकता।

(दोनों का प्रस्थान - अलका और सिंहरण का प्रवेश)

सिंहरणः देवी! पर इसका उपाय क्या है?

अलकाः उपाय जो कुछ हो, मित्र के कार्य में तुमको सहायताकरनी ही चाहिए। चन्द्रगुप्त आज कह रहे थए कि मैं मगध जाऊँगा।देखूँ पर्वतेश्वर क्या करते हैं।

सिंहरणः चन्द्रगुप्त के लिए यह प्राण अर्पित है अलके, मालव

कृतघ्न नहीं होते। देखो, चन्द्रगुप्त और चाणक्य आ रहे हैं।

अलकाः और उधर से पर्वतेश्वर भी।

(चन्द्रगुप्त, चाणक्य और पर्वतेश्वर का प्रवेश)

सिंहरणः मित्र! अभी कुछ दिन और ठहर जाते तो अच्छा था,अथवा जैसी गुरुदेव की आज्ञा!

चाणक्यः पर्वतेश्वर, तुमने मुझसे प्रतिज्ञा की है।

पर्वतेश्वरः मैं प्स्तुत हूँ, आर्य।

चाणक्यः अच्छा तो तुम्हें मेरे साथ चलना होगा। सिंहरण मालवगणराष्ट्र का एख व्यक्ति है, वह अपनी शक्ति भर प्रयत्न कर सकता है,किन्तु सहायता बिना परिषद्‌ की अनुमति लिये असम्भव है। मैं परिषद्‌के सामने अपना भेद खोलना नहीं चाहता। इसलिए पौरव, सहायता केवलतुम्हें करनी होगी। मालव अपने शरीर और खड्‌ग का स्वामी है, वह मेरेलिए प्रस्तुत है। मगध का अधिकार प्राप्त होने पर जैसा तुम कहोगे...

पर्वतेश्वरः मैं कह चुका हूँ आर्य चाणक्य! इस शरीर में या धनमें, विभव में या अधिकार, मेरी स्पृहा नहीं रह गयी। मेरी सेना केमहाबलाधिृत सिंहरण और मेरा कोष आपका है।

चन्द्रगुप्तः मैं आप लोगों का कृतज्ञ होकर मित्रता को लघु नहींबनाना चाहता। चन्द्रगुप्त सदैव आप लोगों का वही सहचर है।

चाणक्यः परन्तु तुम्हें मगध नहीं जाना होगा। अभी जो मगध सेसंदेश मिले हैं, वे बड़े भयानक हैं। सेनापति तुम्हारे पिता कारागार में हैं।और भी...

चन्द्रगुप्तः इतने पर भी आपक मुझे मगध जाने से रोक रहे हैं?

चाणक्यः यह प्रश्न अभी मत करो।

(चन्द्रगुप्त सिर झुका लेता है, एक पत्र लिए मालविका का प्रवेश)

मालविकाः यह सेनापति के नाम पत्र है।

चाणक्यः क्यों?

चन्द्रगुप्तः युद्ध का आह्‌वान है। द्वन्द्व के लिए फिलिप्स कानिमंत्रण है।

चाणक्यः तुम डरते तो नहीं?

चन्द्रगुप्तः आर्य! आप मेरा उपहास कर रहे हैं।

चाणक्यः (हँसकर) तब ठीक है पौरव! तुम्हारा यहाँ रहनाहानिकारक होगा। उपरापथ की दासता के अवशिष्ट चिह्न फिलिप्स का नाशनिश्चित है। चन्द्रगुप्त उसके लिए उपयुक्त है। परन्तु यवनों से तुम्हारा फिरसंघर्ष मुझे ईप्सित नहीं है। यहाँ रहने से तुम्हीं पर सन्देह होगा, इसलिएतुम मगध चलो। और सिंहरण! तुम सन्नद्ध रहना, यवन-विद्रोह तुम्हीं कोशान्त करना होगा।

(सब का प्रस्थान)

(मगध में नन्द की रंगशाला)

(नन्द का प्रवेश)

नन्दः सुवासिनी!

सुवासिनीः देव!

नन्दः कहीं दो घडी चैन से बैठने की छुट्टी भी नहीं, तुम्हारीछाया में विश्राम करने आया हूँ।

सुवासिनीः प्रभु, क्या आज्ञा है? अभिनय देखने की इच्छा है?

नन्दः नहीं सुवासिनी, अभिनय तो नित्य देख रहा हूँ। छल, प्रतारणा,विद्रोह के अभिनय देखते-देखते आँखें जल रही है। सेनापति मौर्य-जिसकेबल पर मैं भूला था, जिसके विश्वासन पर मैं निश्चिन्त सोता था, विद्रोही- पुत्र चन्द्रगुप्त को सहायता पहुँचाता है। उसी का न्याय करना था -आजीवन अन्धपूप का दण्ड देकर आ रहा हूँ। मन काँप रहा है - न्यायहुआ कि अन्याय! हृदय संदिग्ध है। सुवासिनी, किस पर विश्वास करूँ?

सुवासिनीः अपने परिजनों पर देव!

नन्दः अमात्य राक्षस भी नहीं, मैं तो घबरा गया हूँ।

सुवासिनीः द्राक्षासव ले आऊँ?

नन्दः ले आओ (सुवासिनी जाती है।) सुवासिनी कितनी सरल है!प्रेम और यौवन के शीतल मेघ इस लहलही लता पर मँडरा रहे हैं। परन्तु...

(सुवासिनी का पान-पात्र लिये प्रवेश, पात्र भर कर देती है।)

नन्दः सुवासिनी! कुछ गाओ - वही उन्मादक गान!

(सुवासिनी गाती है।)

आज इस यौवन के माधवी कुञ्ज में कोकिल बोल रहा।

मधु पीकर पागल हुआ, करता प्रेम-प्रलाप,

शिथिल हुआ जाता हृदय, जैसे अपने आप!

लाज के बन्धन खोल रहा।

बिछल रही है चाँदनी, छवि-मतवाली रात,

कहती कम्पित अधर से, बहकाने की बात।

कौन मधु-मदिरा घोल रहा?

नन्दः सुवासिनी! जगत्‌ में और भी कुछ है - ऐसा मुझे नहींप्रतीत होता! क्या उस कोकिल की पुकार केवल तुम्हीं सुनती हो? ओह!मैं इस स्वर्ग से कितनी दूर था! सुवासिनी!

(कामुक की-सी चेष्टा करता है।)

सुवासिनीः भ्रम है महाराज! एक वेतन पानेवाली का यह अभिनय है।

नन्दः कभी नहीं, यह भ्रम है तो समस्त संसार मिथ्या है। तुमसच कहती हो, निर्बोध नन्द ने कभी वह पुकार नहीं सुनी। सुन्दरी! तुममेरी प्राणेश्वरी हो।

सुवासिनीः (सहसा चकित होकर) मैं दासी हूँ महाराज!

नन्दः यह प्रलोभन देकर ऐसी छलना! नन्द नहीं भूल सकतासुवासिनी! आओ - (हाथ पकड़ता है।)

सुवासिनीः (भयभीत होकर) महाराज! मैं अमात्य राक्षस कीधरोहर हूँ, सम्राट्‌ की भोग्या नहीं बन सकती।

नन्दः अमात्य राक्षस इस पृथ्वी पर तुम्हारा प्रणी होकर नहीं जीसकता।

सुवासिनीः तो उसे खोजने के लिए स्वर्ग में जाऊँगी।

(नन्द उसे बलपूर्वक पकड़ लेता है। ठीक उसी समय अमात्य काप्रवेश)

नन्दः (उसे देखते ही छेड़ता हुआ) तुम! अमात्य, राक्षस!

राक्षसः हाँ सम्राट्‌! एक अबला पर अत्याचार न होने देने के लिएठीक समय पर पहुँचा।

नन्दः यह तुम्हारी अनुरक्ता है राक्षस! मैं लज्जित हूँ।

राक्षसः मैं प्रस्नन हुआ कि सम्राट्‌ अपने को परखने की चेष्टाकरते हैं अच्छा, तो इस समय जाता हूँ। चलो सुवासिनी।

(दोनों जाते हैं।)

(कुसुमपुर का प्रांत भाग - चाणक्य, मालविका और अलका)

मालविकाः सुवासिनी और राक्षस स्वतंत्र हैं। उनका परिणय शीघ्रही होगा। इधर मौर्य कारागार में, वररुचि अपदस्थ, नागरिक लोग नन्दकी उच्छृंखलताओं से असन्तुष्ट हैं।

चाणक्यः ठीक है, समय हो चला है। मालविका, तुम नर्तकी बनसकती हो।

मालविकाः हाँ, मैं नृत्य-कला जानती हूँ।

चाणक्यः तो नन्द की रंगशाला में जाओ और लो यह मुद्रा तथापत्र, राक्षस का विवाह होने के पहले - ठीक एक घड़ी पहले - नन्दके हाथ में देना। और पूछने पर बता देना कि अमात्य राक्षस ने सुवासिनीको देने के लिए कहा था। परन्तु मुझसे भेंट न हो सकी, इसलिए यहउन्हें लौटा देने को लायी हूँ।

मालविकाः (स्वगत) क्या असत्य बोलना होगा! चन्द्रगुप्त के लिएसब कुछ करूँगी। (प्रकट) अच्छा।

चाणक्यः मैंने सिंहरण को लिख दिया था कि चन्द्रगुप्त को शीघ्रयहाँ भेजो। तुम यवनों के सिर उठाने पर उन्हें शान्त करके आना, तबतक अलका मेरी रक्षा कर लेगी। मैं चाहता हूँ कि सब सेना वणिकों केरूप में धीरे-धीरे कुसुमपुर में इकट्ठी हो जाय। उसी दिन राक्षस का ब्याहहोगा, उसी दिन विद्रोह होगा और उसी दिन चन्द्रगुप्त राजा होगा!

अलकाः परन्तु फिलिप्स से द्वंद्व-युद्ध से चन्द्रगुप्त को लौट तोआने दीजिए, क्या जाने क्या हो!

चाणक्यः क्या हो! वही होकर रहेगा जिसे चाणक्य ने विचारकरके ठीक कर लिया है। किन्तु... अवसर पर एक क्षण का विलम्बअसफलता का प्रवर्तक हो जाता है।

(मालविका जाती है।)

अलकाः गुरुदेव, महानगरी कुसुमपुर का ध्वंस और नन्द-पराजयइस प्रकार संभव है?

चाणक्यः अलके! चाणक्य अपना कार्य, अपनी बुद्धि से साधनकरेगा। तुम देखती भर रहो और मैं जो बताऊँ करती चलो। मालविकाअभी बालिका है, उसकी रक्षा आवश्यक है। उसे देखो तो।

(अलका जाती है।)

चाणक्यः वह सामने कुसुमपुर है, जहाँ मेरे जीवन का प्रभात हुआथा। मेरे उस सरल हृदय में उत्कट इच्छा थी कि कोई भी सुन्दर मनमेरा साथी हो। प्रत्येक नवीन परिचय में उत्सुकता थी और उसके लिएमन में सर्वस्व लुटा देने की सन्नद्धता थी। परन्तु संसार-कठोर ससार नेसिखा दिया है कि तुम्हें परखना होगा। समझदारी आने पर यौवन चलाजाता है - जब तक माला गूँथी जाती है, तब तक फूल कुम्हला जातेहैं। जिससे मिलने के सम्भार की इतनी धूम-धाम, सजावट, बनावट होतीहै, उसके आने तक मनुष्य-हृदय को सुन्दर और उपयुक्त नहीं बनाये रहसकता। मनुष्य की चञ्चल स्थिति कब तक उस श्यामल कोमल हृदय कोमरूभूमि बना देती है। यही तो विषमता है। मैं अविश्वास, कूट-चक्र औरछलनाओं का कंकाल, कठोरता का केन्द्र। ओह! तो इस विश्व में मेराकोई सुहृद नहीं है? मेरा संकल्प, अब मेरा आत्माभिधान ही मेरा मित्रहै। और थी एक क्षीण रेखा, वह जीवन-पट से धुल चली है। धुल जानेदूँ? सुवासिनी न न न, वह कोई नहीं। मैं अपनी प्रतिज्ञा पर आसक्तहूँ। भयानक रमणीयता है। आज उस प्रतिज्ञा में जन्मभूमि के प्रति कर्तव्यका भी यौवन चमक रहा है। तृण-शय्या पर आधे पेट खाकर सो रहनेवाले के सिर पर दिव्य यश का स्वर्ण-मुकुट! और सामने सफलता कास्मृति-सौंध (आकाश की ओर देखकर) वह, इन लाल बादलों में दिग्दाहका धूम मिल रहा है। भीषण रव से सब जैसे चाणक्य का नाम चिल्लारहे हैं। (देखकर) है! यह कौन भूमि - सन्धि तोड़कर सर्प के समाननिकल रहा है! छिप कर देखूँ - (छिप जाता है। एक ढूह की मिट्टीगिरती है, उसमें से शकटार वनमानुष के समान निकलता है।)

शकटारः (चारों ओर देखकर आँख बन्द कर लेता है, फिरखोलता हुआ) आँखें नहीं सह सकती, इन्हीं प्रकाश किरणों के लिए तड़परही थीं! ओह, तीखी हैं! तो क्या मैं जीवित हूँ? कितने दिन हुए, कितनेमहीने, कितने वर्ष? नहीं स्मरण है। अन्धकूप की प्रधानता सर्वोपरि थी।सात लड़के भूख से तड़प कर मरे। कृतज्ञ हूँ उस अन्धकार का, जिसनेउन विवर्ण मुखों को न देखने दिया। केवल उनके दम तोड़ने का क्षीणशब्द सुन सका। फिर भी जीवित रहा - सपू और नमक पानी सेमिलाकर, अपनी नसों से रक्त पीकर जीवित रहा! प्रतिहिंसा के लिए!पर अब शेष है, दम घुट रहा है। ओह!

(गिर पड़ता है।)

(चाणक्य पास आकर कपड़ा निचोड़ कर मुँह में डल जाल सचेतकरता है।)

चाणक्यः आह! तम कोई दुखी मनुष्य हो! घबराओ मत, मैंतुम्हारी सहायता के लिए प्रस्तुत हूँ।

शकटारः (ऊपर देखकर) तुम सहायता करोगे? आश्चर्य! मनुष्यमनुष्य की सहायता करेगा, वह उसे हिंस्र पशु के समान नोंच न ड़ालेगा!हाँ, यह दूसरी बात है कि वह जोंक की तरह बिना कष्ट दिये रक्त चूसे।जिसमें कोई स्वार्थ न हो, ऐसी सहायता! तुम भूखे भेड़िये!

चाणक्यः अभागे मनुष्य! सब से चौंक कर अलग न उछल!अविश्वास की चिनगारी पैरों के नीचे से हटा। तुझ जैसे दुखी बहुत पड़ेहैं। यदि सहायता नहीं तो परस्पर का स्वार्थ ही सही।

शकटारः दुःख! दुःख का नाम सुना होगा, या कल्पित आशंकासे तुम उसका नाम लेकर चिल्ला उठते होगे। देखा है कभी सात-सातगोद के लालों को भूख से तड़प कर मरते? अन्धकार की घनी चादरमें बरसों भूगर्भ की जीवित समाधि में एक-दूसरे को, अपना आहार देकरस्वेच्छा से मरते देखा है - प्रतिहिंसा की स्मृति को ठोकर मार-मार करजगाते, और प्राण विसर्जन करते? देखा है कभी यह कष्ट - उन सबोंने अपना आहार मुझे दिया और पिता होकर भी मैं पत्थर-सा जीवितरहा! उनका आहार खा डाला - उन्हें मरने दिया! जानते हो क्यों? वेसुकुमार थे, वे सुख की गोद में पले थे, वे नहीं सहन कर सकते थे,अतः सब मर जाते। मैं बच रहा प्रतिशोध के लिए! दानवी प्रतिहिंसा केलिए! ओह! उस अत्याचारी नर-राक्षस की अँतड़ियों में से खींचकर एकबार रक्त का फुहारा छोड़ता? इस पृथ्वी को उसी से रँगा देखता!

चाणक्यः सावधान! (शकटार को उठाता है।)

शकटारः सावधान हों वे, जो दुर्बलों पर अत्याचार करते हैं!पीड़ित पददलित, सब तर लुटा हुआ! जिसने पुत्रों की हड्डियों के सुरंगखोदा है, नखों से मिट्टी हटाती है, उसके लिए सावधान रहने कीआवश्यकता नहीं। मेरी वेदना अपने अन्तिम अस्त्रों से सुसज्जित है।

चाणक्यः तो भी तुमको प्रतिशोध लेना है। हम लोग एक ही पथके पथिक हैं। घबराओ मत। क्या तुम्हारा कोई भी इस संसार में जीवितनहीं!

शकटारः बची थी, पर न जाने कहाँ है। एक बालिका - अपनीमाता की स्मृति-सुवासिनी। पर अब कहाँ है, कौन जाने।

चाणक्यः क्या कहा? सुवासिनी?

शकटारः हाँ सुवासिनी।

चाणक्यः और तुम शकटार हो?

शकटारः (चाणक्य का गला पकड़ कर) घोंट दूँगा गला - यदिफिर यह नाम तुमने लिया। मुझे नन्द से प्रतिशोध ले लेने दो, फिर चाहेडौंडी पीटना।

चाणक्यः (उसका हाथ हटाते हुए) वह सुवासिनी नन्द कीरंगशाला में है। मुझे पहचानते हो?

शकटारः नहीं तो। (देखता है।)

चाणक्यः तुम्हारे प्रतिवेशी, सखा ब्राह्मण चणक का पुत्र विष्णुगुप्त।तुम्हारी दिलायी हुई जिसकी ब्राह्मणवृपि छीन ली गयी, जो तुम्हारा सहकारीजानकार निर्वासित कर दिया गया, मैं उसी चणक का पुत्र चाणक्य हूँ,जिसकी शिखा पकड़ कर राजसभा में खींची गयी, जो बन्दीगृह में मृत्युकी प्रतीक्षा कर रहा था! मुझ पर विश्वास करोगे?

शकटारः (विचारता हुआ खड़ा हो जाता है।) करूँगा, जो तुमकहोगे वही करूँगा। किसी तरह प्रतिशोध चाहिए।

चाणक्यः तो चलो मेरी झोंपड़ी में, इस सुरंग को घास-फूल सेढँक दो।

(दोनों ढँक कर जाते हैं।)

(नन्द के राज-मन्दिर का एक प्रकोष्ठ)

नन्दः आज क्यों मेरा मन अनायास ही शंकित हो रहा है। कुछनहीं... होगा कुछ।

(सेनापति मौर्य की स्त्री को साथ लिए हुए वररुचि का प्रवेश)

वररुचिः जय हो देव, यह सेनापति मौर्य की स्त्री है।

नन्दः क्या कहना चाहती है?

स्त्रीः राजा प्रजा का पिता है। वही उसके अपराधओं को क्षमाकरके सुधार सकता है। चन्द्रगुप्त बालक है, सम्राट्‌! उशके अपराध मगधसे कोई सम्बन्ध नहीं रखते, तब भी वह निर्वासित है। परन्तु सेनापति परक्या अभियोग है? मैं असहाय मगध की प्रजा श्री-चरणों में निवेदन करतीहूँ - मेरा पति छोड़ दिया जाय। पति और पुत्र दोनों से न वञ्चित कीजाऊँ।

नन्दः रमणी! राजदण्ड पति और पुत्र के मोहजाल से सर्वथास्वतंत्र है। षड्‌यन्त्रकारियों के लिए बहुत निष्ठुर है, निर्मम है! कठोर है!तुम लोग आग की ज्वाला से खेलने का फल भोगो। नन्द इन आँसू-भरी आँखों तथा अञ्चल पसार कर भिक्षा के अभिनय में नहीं भूलवायाजा सकता।

स्त्रीः ठीक है महाराज! मैं ही भ्रम में थी। सेनापति मौर्य काही तो यह अपराध है। जब कुसुमपुर की समस्त प्रजा विरुद्ध थी, जबजारज-पुत्र के रक्त-रँगे हाथों से सम्राट्‌ महापद्म की लीला शेष हुई थी,तभी सेनापति को चेतना चाहिए था। कृतघ्न के साथ उपकार किया है,यह उसे नहीं मालूम था।

नन्दः चुप दुष्ट। (उसका केश पकड़ कर खींचना चाहता है,वररुचि बीच में आकर रोकता है।)

वररुचिः महाराज, सावधान! यह अबला है, स्त्री है।

नन्दः यह मैं जानता हूँ कात्यायन! हटो।

वररुचिः आप जानते हैं, पर इस समय आपको विस्मृत हो गयाहै।

नन्दः तो क्या मैं तुम्हें भी इसी कुचक्र में लिप्त समझूँ?

वररुचिः यह महाराज की इच्छा पर निर्भर है, और किसी कादास न रहना मेरी इच्छा पर, मैं शस्त्र समर्पण करता हूँ।

नन्दः (वररुचि का छुरा उठाकर) विद्रोह! ब्राह्मण हो न तुम, मैंनेअपने को स्वयं धोखा दिया। जाओ। परन्तु ठहरो। प्रतिहार!

(प्रतिहार सामने आता है।)

नन्दः इसे बन्दी करो। और इस स्त्री के साथ मौर्य के समीपपहुँचा दो।

(प्रहरी दोनों को बन्दी करते हैं।)

वररुचिः नन्द! तुमहारे पाप का घड़ा फूटना ही चाहता है।अत्याचार की चिनगारी साम्राज्य का हरा-भरा कानन दग्ध कर देगी। न्यायका गला घोंट कर तुम उस भीषण पुकार को नहीं दबा सकोगे जो तुमतक पहुँचती है अवश्य, किनतु चाटुकारों द्वारा और ही ढंग से।

नन्दः बस ले जाओ। (सब का प्रस्थान)(एक प्रतिहार का प्रवेश) क्या है?

प्रतिहारः जय हो देव! एक संदिग्ध स्त्री राज-मन्दिर में घूमतीहुई पकड़ी गयी है। उसके पास अमात्य राक्षस की मुद्रा और एक पत्रमिला है।

नन्दः अभी ले आओ।

(प्रतिहार जाकर मालविका को साथ लाता है।)

नन्दः तुम कौन हो?

मालविकाः मैं एक स्त्री हूँ, महाराज।

नन्दः पर तुम यहां किसके पास आयी हो?

मालविकाः मैं... मैं, मुझे किसी ने शतुद्र-तट से भेजा है। मैंपथ में बीमार हो गयी थी, विलम्ब हुआ?

नन्दः कैसा विलम्ब?

मालिवकाः इस पत्र को सुवासिनी नाम की स्त्री के पास पहुँचाने में।

नन्दः तो किसने तुमको भेजा है?

मालविकाः मैं नाम तो नहीं जानती।

नन्दः हूँ! (प्रतिहार से) पत्र कहाँ है?

(प्रतिहार पत्र और मुद्रा देता है। नन्द उसे पढ़ता है।)

नन्दः तुमको बतलाना पड़ेगा, किसने तुमको यह पत्र दिया है।बोलो, शीघ्र बोलो, राक्षस ने भेजा है?

मालविकाः राक्षस नहीं, वह मनुष्य था।

नन्दः दुष्टे, शीघ्र बता। वह राक्षस ही रहा होगा।

मालविकाः जैसा आप समझ लें।

नन्दः (क्रोध से) प्रतिहार! इसे भी ले जाओ उन विद्रोहियों कीमाँद में! ठहरो, पहले जाकर शीघ्र सुवासिनी और राक्षस को, चाहे जिसअवस्था में हों, ले आओ!

(नन्द चिन्तित भाव से दूसर ओर टहलता है, मालविका बन्दीहोती है।)

नन्दः आज सबको एक साथ ही सूली पर चढ़ा दूँगा। नहीं...(पैर पटक कर)... हाथियों के पैरों के तले कुचलवाऊँगा। यह कथासमाप्त होनी चाहिए। नन्द नीच-जन्मा है न! यह विद्रोह उसी के लिएकिया जा रहा है, तो फिर उसे भी दिखा देना है कि मैं क्या हूँ, यहनाम सुनकर लोग काँप उठें। प्रेम न सही, भय का की सम्मान हो।

(पट-परिवर्तन)

(कुसुमपुर के प्रान्त में - पथ। चाणक्य और पर्वतेश्वर)

चाणक्यः चन्द्रगुप्त कहाँ है?

पर्वतेश्वरः सार्थवाह के रूप में युद्ध-व्यवसायिों के साथ आ रहेहैं। शीघ्र ही पहुँच जाने की सम्भावना है।

चाणक्यः और द्वन्द्व में क्या हुआ?

पर्वतेश्वरः चन्द्रगुप्त ने बड़ी वीरता से युद्ध किया। समस्तउपरापथ में फिलिप्स के मारे जाने पर नया उत्साह फैल गया है। आर्य,बहुत-से प्रमुख यवन और आर्यगण की उपस्थिति में वह युद्ध हुआ। वहखड्‌ग-परीक्षा देखने योग्य थी! वह वीर-दृश्य अभिनन्दनीय था।

चाणक्यः यवन लोगों के क्या भाव थे?

पर्वतेश्वरः सिंहरण अपनी सेना के साथ रंगशाला की रक्षा कर रहाथा, कुछ हलचल तो हुई, पर वह पराजय का क्षोभ था। यूडेमिस, जो उसकासहकारी था, अत्यन्त क्रुद्ध हुआ। किसी प्रकार वह ठंडा पड़ा। यूडेमिससिकन्दर की आज्ञा की प्रतीक्षा में रुका था। अकस्मात्‌ सिकन्दर के मरने कासमाचार मिला। यवन लोग अब अपनी ही सोच रहे हैं, चन्द्रगुप्त सिंहरणको वहीं छोड़कर यहाँ चला आया, क्योंकि आपका आदेश था।

(अलका का प्रवेश)

अलकाः गुरुदेव, यज्ञ का प्रारम्भ है।

चाणक्यः मालविका कहाँ है?

अलकाः वह बन्दी की गयी और राक्षस इत्यादि भी बन्दी होनेही वाले हैं। वह भी ठीक ऐसे अवसर पर जब उनका परिणय हो रहाहै। क्योंकि आज ही...

चाणक्यः तब तुम जाओ, अलके! उस उत्सव से तुम्हें अलग नरहना चाहिए। उनके पकड़े जाने के अवसर पर ही नगर में उपेजना फैलसकती है। जाओ शीघ्र।

(अलका का प्रस्थान)

पर्वतेश्वरः मुझे क्या आज्ञा है?

चाणक्यः कुछ चुने हुए अश्वारोहियों को साथ लेकर प्रस्तुतरहना। चन्द्रगुप्त जब भीतर से युद्ध प्रारम्भ करे, उस समय तुमको नगरद्वार पर आक्रमण करना होगा।

(गुफा का द्वार खुलना। मौर्य, मालविका, शकटार, वररुचि, पीछेपीछेचन्द्रगुप्त की जननी का प्रवेश)

चाणक्यः आओ मौर्य!

मौर्यः हम लोगों के उद्धारकर्ता, आप ही महात्मा चाणक्य हैं?

मालविकाः हाँ, यही हैं।

मौर्यः प्रणाम।

चाणक्यः शत्रु से प्रतिशोध लेने के लिए जियो सेनापति! नन्दके पापों की पूर्णता ने तुम्हारा उद्धार किया है। अब तुम्हारा अवसर है।

मौर्यः इन दुर्बल हड्डियों को अन्धकूप की भयानकता खटखटा रहीहै।

शकटारः और रक्तम गम्भीर बीभत्स दृश्य, हत्या का निष्ठुरआह्‌वान कर रहा है।

(चन्द्रगुप्त का प्रवेश, माता-पिता के चरण छूता है।)

चन्द्रगुप्तः पिता! तुम्हारी यह दशा!! एक-एक पीड़ा की, प्रत्येकनिष्ठुरता की गिनती होगी। मेरी माँ! उन सब का प्रतिकार होगा, प्रतिशोधलिया जायगा! ओ, मेरा जीवन व्यर्थ है! नन्द!

चाणक्यः चन्द्रगुप्त, सफलता का एक ही क्षण होता है। आवेशसे और कर्तव्य से बहुत अन्तर है।

चन्द्रगुप्तः गुरुदेव आज्ञा दीजिए।

चाणक्यः देखो, उधर, नागरिक लोग आ रहे हैं। सम्भवतः यहीअवसर है। तुम लोगों के भीतर जाने का और विद्रोह फैलाने का।

(नागरिकों का प्रवेश)

प. नागरिकः वेण और कंस का शासन क्या दूसरे प्रकार का रहाहोगा?

दू. नागरिकः ब्याह की वेदी से वर-वधू को घसीट ले जाना,इतने बड़े नागरिक का यह अपमान! अन्याय है।

ती. नागरिकः सो भी अमात्य राक्षस और सुवासिनी को।कुसुमपुर के दो सुन्दर फूल!

चौ. नागरिकः और सेनापति, मंत्री, सबों को अन्धकूप में ड़ालदेना।

मौर्यः मंत्री, सेनापति और अमात्यों को बन्दी बना कर जो राज्यकरता है, वह कैसा अच्छा राजा है नागरिक! उसकी कैसी अद्‌भुत योग्यताहै! मगध को गर्व होना चाहिए।

प. नागरिकः गर्व नहीं वृद्ध! लज्जा होनी चाहिए। ऐसा जघन्यअत्याचार!

वररुचिः यह तो मगध का पुराना इतिहास है। जरासंघ का यहअखाड़ा है। यहाँ एकाधिपत्य की कटुता सदैव से अभ्यस्त है।

दू. नागरिकः अभ्यस्त होने पर भी अब असह्य है।

शकटारः आज आप लोगों को बड़ी वेदना है, एक उत्सव काभंग होना अपनी आँखों से देखा है, नहीं तो जिस दिन शकटार को दण्डमिला था, एक अभिजात नागरिक की सकुटुम्ब हत्या हुई थी, उस दिनजनता कहाँ सो रही थी।

ती. नागरिकः सच तो, पिता के समान हम लोगों की रक्षा करनेवाला मंत्री शकटार - हे भगवान!

शकटारः मैं ही हूँ। कंकाल-सा जीवित समाधि से उठ खड़ा हुआहूँ। मनुष्य मनुष्य को इस तरह कुचल कर स्थिर न कर सकेगा। मैं पिशाचबनकर लौट आया हूँ - अपने निरपराध सातों पुत्रों की निष्ठुर हत्या काप्रतिशोध लेने के लिए। चलोगे साथ?

चौ. नागरिकः मंत्री शकटार! आप जीवित हैं?

शकटारः हाँ, महापद्म के जारज पुत्र नन्द की - बधिक हिंस्रपशु नन्द की - प्रतिहिंसा का लक्ष्य शकटार मैं ही हूँ!

सब नागरिकः हो चुका न्यायाधिकरण का ढोंग! जनता की शुभकामना करने की प्रतिज्ञा नष्ट हो गयी। अब नहीं, आज न्यायाधिकरण मेंपूछना होगा!

मौर्यः और मेरे लिए भी कुछ...

नागरिकः तुम...?

मौर्यः सेनापति मौर्य - जिसका तुम लोगों को पता ही न था।

नागरिकः आश्चर्य! हम लोग आज क्या स्वप्न देख रहे हैं? अभीलौटना चाहिए। चलिए आप लोग भी।

शकटारः परन्तु मेरी रक्षा का भार कौन लेता है?

(सब इधर-उधर देखने लगते हैं, चन्द्रगुप्त तन कर खड़ा हो जाताहै।)

चन्द्रगुप्तः मैं लेता हूँ। मैं उन सब पीड़ित, आघात-जर्जर, पददलित लोगों का संरक्षक हूँ, जो मगध की प्रजा हैं।

चाणक्यः साधु! चन्द्रगुप्त!

(सहसा सब उत्साहित हो जाते हैं, पर्वतेश्वर और चाणक्य तथावररुचि को छोड़ कर सब जाते हैं।)

वररुचिः चाणक्य! यह क्या दावाग्नि फैला दी तुमने?

चाणक्यः उत्पीड़न की चिनगारी को अत्याचारी अपने ही अञ्चलमें छिपाये रहता है। कात्यायन! तुमने अन्धकूप का सुख क्यों लिया? कोईअपराध तुमने किया था?

वररुचिः नन्द की भूल थी। उसे अब भी सुधारा जा सकता है।

ब्राह्मण! क्षमानिधि! भूल जाओ!

चाणक्यः प्रतिज्ञा पूर्ण होने पर हम-तुम साथ ही वैखानस होंगे,कात्यायन! शक्ति हो जाने दो, फिर क्षमा का विचार करना। चलोपर्वतेश्वर! सावधान!!

(सब का प्रस्थान)

(नन्द की रंगशाला - सुवासिनी और राक्षस बन्दी-वेश मं)

नन्दः अमात्य राक्षस, यह कौन-सी मंत्रणा थी? यह पत्र तुम्हींनेलिखा है?

राक्षसः (पत्र लेकर पढ़ता हुआ) “सुवासिनी, उस कारागार सेशीघ्र निकल भागो, इस स्त्री के साथ मुझसे आकर मिलो। मैं उपरापथमें नवीन राज्य की स्थापना कर रहा हूँ। नन्द से फिर समझ लियाजायगा” इत्यादि। (नन्द की ओर देखकर) आश्चर्य, मैंने तो यह नहींलिखा! यह कैसा प्रपंच है, - और किसी का नहीं, उसी ब्राह्मण चाणक्यका महाराज, सतर्क रहिए, अपने अनुकूल परिजनों पर भी अविश्वास नकीजिए। कोई भयानक घटना होने वाली है, यह उसी का सूत्रपात है।

नन्दः इस तरह से मैं प्रतारित नहीं किया जा सकता, देखो यहतुम्हारी मुद्रा है। (मुद्रा देता है)

(राक्षस देखकर सिर नीचा कर लेता है।)

नन्दः कृतघ्न! बोल, उपर दे।

राक्षसः मैं कहूँ भी, तो आप मानने ही क्यों लगे!

नन्दः तो आज तुम लोगों को भी उसी अन्धकूप में जाना होगा,प्रतिहार!

(राक्षस बन्दी किया जाता है। नागरिकों का प्रवेश।)

(राक्षस को श्रृंखला में जकड़ा हुआ देखकर उन सबों में उपेजना)

नागरिकः सम्राट्‌! आपसे मगध की प्रजा प्रार्थना करती है किराक्षस और अन्य लोगों पर भी राजदण्ड द्वारा किये गये जो अत्याचारहै, उनका फिर से निराकरण होना चाहिए।

नन्दः क्या! तुम लोगों को मेरे न्याय में अविश्वास है?

नागरिकः इसके प्रमाण हैं - शकटार, वररुचि और मौर्य!

नन्दः (उन लोगों को देखकर) शकटार! तू अभी जीवित है?

शकटारः जीवित हूँ नन्द। नियति सम्राटों से भी प्रबल है।

नन्दः यह मैं क्या देखता हूँ! प्रतिहार! पहले इन विद्रोहियों कोबन्दी करो। क्या तुम लोगों ने इन्हें छुड़ाया है?

नागरिकः उनका न्याय हम लोगों के सामने किया जाय, जिससेहम लोगों को राज-नियमों में विश्वास हो सम्राट्‌! न्याय को गौरव देनेके लिए इनके अपराध सुनने की इच्छा आपकी प्रजा रखती है।

नन्दः प्रजा की इच्छा से राजा को चलना होगा?

नागरिकः हाँ, महाराज।

नन्दः क्या तुम सब-के-सब विद्रोही हो?

नागरिकः यह सम्राट्‌ अपने हृदय से पूछ देखें?

शकटारः मेरे सात निरपराध पुत्रों का रक्त!

नागरिकः न्यायाधिकरण की आड़ में इतनी बड़ी नृशंसता!

नन्दः प्रतिहार! इन सबको बन्दी बनाओ!

(राज-प्रहरियों का सबको बाँधने का उद्योग, दूसरी ओर सेसैनिकों के साथ चन्द्रगुप्त का प्रवेश)

चन्द्रगुप्तः ठहरो! (सब स्तब्ध रह जाते हैं) महाराज नन्द! हमब आपकी प्रजा हैं, मनुष्य हैं, हमें पशु बनने का अवसर न दीजिए।

वररुचिः विचार की तो बात है, यदी सुव्यवस्था से काम चलजाय, तो उपद्रव क्यों हो?

नन्दः (स्वगत) विभीषिका! विपपि! सब अपराधी और विद्रोहीएकत्र हुए हैं (कुछ सोचकर) अच्छा मौर्य! तुम हमारे सेनापति हो औरतुम वररुचि! हमने तुम लोगों को क्षणा कर दिया!

शकटारः और हम लोगों से पूछो! पूछो नन्द। अपनी नृशंसताओंसे पूछो। क्षमा? कौन करेगा। तुम? कदापि नहीं। तुम्हारे घृणित अपराधोंका न्याय होगा।

नन्दः (तनकर) तब रे मूर्खों! नन्द की निष्ठुरता! प्रतिहार!राजसिंहासन संकट में है! आओ, आज हमें प्रजा से लड़ना है!

(प्रतिहार प्रहरियों के साथ आगे बढ़ता है - कुछ युद्ध होने केसाथ ही राजपक्ष के कुछ लोग मारे जाते हैं, और एक सैनिक आकरनगर के ऊपर आक्रमण होने की सूचना देता है। युद्ध करते-करते चन्द्रगुप्तनन्द को बन्दी बनाता है।)

(चाणक्य का प्रवेश)

चाणक्यः नन्द! शिखा खुली है। फिर खिंचवाने की इच्छा हुईहै, इसीलिए आया हूँ। राजपद के अपवाद नन्द! आज तुम्हारा विचारहोगा!

नन्दः तुम ब्राह्मण। मेरे टुकड़ों से पले हुए। दरिद्र! तुम मगधके सम्राट्‌ का विचार करोगे! तुम सब लुटेरे हो, डाकू हो! विप्लवी हो- आर्य हो।

चाणक्यः (राजसिंहासन के पास जाकर) नन्द! तुम्हारे ऊपर इतनेअभियोग है - महापद्म की हत्या, शकटार को बन्दी करना, उसके सातपुत्रों को भूख से तड़पा कर मारना! सेनापति मौर्य की हत्या का उद्योग,उसकी स्त्री को और वररुचि को बन्दी बनाना, कितनी ही कुलीन कुमारियोंका सतीत्व नाश, नगरभर में व्यभिचार का स्रोत बहाना, ब्राह्मस्व औरअनाथों की वृपियों का अपहरण! अन्त में सुवासिनी पर अत्याचार,शकटार की एकमात्र बची हुई सन्तान, सुवासिनी, जिसे तुम अपनी घृणितपाशव-वृपि का...!

नागरिकः (बीच में रोक कर हल्ला मचाते हुए) पर्याप्त है। यहपिशाचलीला और सुनने की आवश्यकता नहीं, सब प्रमाण वहीं उपस्थित हैं।

चन्द्रगुप्तः ठहरिए! (नन्द से) कुछ उपर देना चाहते हैं?

नन्दः कुछ नहीं।

(‘वध करो!’ ‘हत्या करो!’ का आतंक फैलता है।)

चाणक्यः तब बी कुछ समझ लेना चाहिए नन्द! हम ब्राह्मण हैं,तुम्हारे लिए, भिक्षा माँग कर तुम्हें जीवन-दान दे सकते हैं। लोगे!

(‘नहीं मिलेगी, नहीं मिलेगी’ की उपेजना)

(कल्याणी को बन्दिनी बनाये पर्वतेश्वर का प्रवेश)

नन्दः आ बेटी, असह्य! मुझे क्षमा करो! चाणक्य, मैं कल्याणीके संग जंगल में जाकर तपस्या करना चाहता हूँ।

चाणक्यः नागरिक वृन्द! आप लोग आज्ञा दें - नन्द को जानेकी आज्ञा!

शकटारः (छुरा निकलकर नन्द की छाती में घुसेड़ देता है) सातहत्याएँ हैं! यदि नन्द सात जन्मों में मेरे ही द्वारा मारा जय तो मैं उसेक्षमा कर सकता हूँ। मगध नन्द के बिन भी जी सकता है।

वररुचिः अनर्थ!

(सब स्तब्ध रह जाते हैं।)

राक्षसः चाणक्य, मुजे भी कुछ बोलने का अधिकार है?

चाणक्यः अमात्य राक्षस का बंधन खोल दो! आज मगध के सबनागरिक स्वतंत्र हैं।

(राक्षस, सुवासिनी, कल्याणी का बंधन खुलता है।)

राक्षसः राष्ट्र इस तरह नहीं चल सकता।

चाणक्यः तब?

राक्षसः परिषद्‌ की आयोजना होनी चाहिए।

नागरिक वृन्दः राक्षस, वररुचि, शकटार, चन्द्रगुप्त और चाणक्यकी सम्मिलित परिषद्‌ की हम घोषणा करते हैं।

चाणक्यः परन्तु उपरापथ के समान गणतंत्र की योग्यता मगध मेंनहीं, और मगध पर विपपि की भी संभावना है। प्राचीनकाल से मगधसाम्राज्य रहा है, इसीलिए यहाँ एक सबल और सुनियंत्रित शासक कीआवश्यकता है। आप लोगों को यह जान लेना चाहिए कि यवन अभीहमारी छाती पर हैं।

नागरिकः तो कौन उसके उपयुक्त है?

चाणक्यः आप ही लोग इसे विचारिए।

शकटारः हम लोगों का उद्धारकर्ता। उपरापथ के अनेक समरों काविजेता - वीर चन्द्रगुप्त!

नागरिकः चन्द्रगुप्त की जय!

चाणक्यः अस्तु, बढ़ो चन्द्रगुप्त! सिंहासन शून्य नहीं रह सकता।अमात्य राक्षस! सम्राट का अभिषेक कीजिए।

(मृतक हटाते जाते हैं, कल्याणी दूसरी ओर जाती है, राक्षसचन्द्रगुप्त का हाथ पकड़कर सिंहासन पर बैठाता है।)

सब नागरिकः सम्राट्‌ चन्द्रगुप्त की जय! मगध की जय!

चाणक्यः मगध के स्वतंत्र नागरिकों को बधाई है! आज आपलोगों के राष्ट्र का जन्म-दिवस है। स्मरण रखना होगा कि ईश्वर ने सबमनुष्यों को स्वतंत्र उत्पन्न किया है, परन्तु व्यक्तिगत स्वतंत्रता वहीं तक दीजा सकती है, जहाँ दूसरों की स्वतंत्रता में बाधा न पड़े। यही राष्ट्रीयनियमों का मूल है। वत्स चन्द्रगुप्त! स्वेच्छाचारी शासन का परिणाम तुमनेस्वयं देख लिया है, अब मंत्रि-परिषद्‌ की सम्मति से मगध और आर्यावर्तके कल्याण में लगो।

(‘सम्राट्‌ चन्द्रगुप्त की जय’ का घोष)

(पटाक्षेप)

चतुर्थ अंक

(मगध में राजकीय उपवन - कल्याणी)

कल्याणीः मेरे जीवन के दो स्वप्न थे - दुर्दिन के बाद आकाशके नक्षत्र-विलास-सी चन्द्रगुप्त की छवि, और पर्वतेश्वर से प्रतिशोध, किन्तुमगध की राजकुमारी आज अपने ही उपवन में बन्दिनी है! मैं वही तोहूँ - जिसके संकेत पर मगध का साम्राज्य चल सकता था! वही शरीरहै, वही रूप है, वही हृदय है, पर छिन गया अधिकारी और मनष्य कामान दंड ऐश्वर्य। अब तुलना में सबसे छोटी हूँ। जीवन ज्जा की रंगभूमिबन रहा है। (सिर झुका लेती है) तो जब नन्दवंश का कोई न रहा, तबएक राजकुमारी बचकर क्या करेगी?

(मद्यप की-सी चेष्टा करती हुई पर्वतेश्वर को प्रवेश करते हुए देखचुप हो जाती है।)

पर्वतेश्वरः मगध मेरा है - आधा भाग मेरा है! और मुझसे कुछपूछा तक न गया! चन्द्रगुप्त अकेले सम्राट्‌ बन बैठा। कभी नहीं, यह मेरेजीते-जी नहीं हो सकता। (सामने देखकर) कौन है? यह कोई अप्सराहोगी! अरे कोई अपदेवता न हो! अरे!

(प्रस्थान)

कल्याणीः मगध के राज-मन्दिर उसी तरह खड़े हैं, गंगा शोणसे उसी स्नेह से मिल रही है, नगर का कोलाहल पूर्ववत्‌ है। परन्तु नरहेगा एक नन्दवंश! फिर क्या करूँ? आत्महत्या करूँ? नहीं, जीवन इतनासस्ता नहीं। अहा, देखो - वह मधुर आलोकवाला चन्द्र! उसी प्रकार नित्य- जसे एकटक इसी पृथ्वी को देख रहा हो। कुमद-बन्धु!

(गाती है)

सुधा-सीकर से नहला दो!

लहरें डूब रही हों रस में,

रह न जायँ वे अपने वश में,

रूप-राशि इस व्यथित हृदय-सागर कोब

हला दो!

अन्धकार उजला हो जाये,

हँसी हंसमाला मँडराए,

मधुराका आगमन कलरवों के मिस-

कहला दो!

करुणा के अंचल पर निखरे,

घायल आँसू हैं जो बिखरे,

ये मोती बन जायँ, मृदुल कर से लो-

सहला दो!

(पर्वतेश्वर का फिर प्रवेश)

पर्वतेश्वरः तुम कौन हो सुन्दरी? मैं भ्रमवश चला गया था।

कल्याणीः तुम कौन हो?

पर्वतेश्वरः पर्वतेश्वर।

कल्याणीः मैं हूँ कल्याणी, जिसे नगर-अवरोध के समय तुमनेबन्दी बनाया था।

पर्वतेश्वरः राजकुमारी! नन्द की दुहिता तुम्हीं हो?

कल्याणीः हाँ पर्वतेश्वर।

पर्वतेश्वरः तुम्हीं से मेरा विवाह होनेवाला था?

कल्याणीः अब यम से होगा!

पर्वतेश्वरः नहीं सुन्दरी, ऐसा भरा हुआ यौवन!

कल्याणीः सब छीन कर अपमान भी!

पर्वतेश्वरः तुम नहीं जानती हो, मगध का आधा राज्य मेरा है।तुम प्रियतमा होकर सुखी रहोगी।

कल्याणीः मैं अब सुख नहीं चाहती। सुख अच्छा है या दुःख...मैं स्थिर न कर सकी। तुम मुझे कष्ट न दो।

पर्वतेश्वरः हमारे-तुम्हारे मिल जाने से मगध का पूरा राज्य हमलोगों का हो जायगा। उपरापथ की संकटमयी परिस्थिति से अलग रहकरयहीं शान्ति मिलेगी।

कल्याणीः चुप रहो।

पर्वतेश्वरः सुन्दरी, तुम्हें देख लेने पर ऐसा नहीं हो सकता।

(उसे पकड़ना चाहता है, वह भागती है, परन्तु पर्वतेश्वर पकड़ही लेता है। कल्याणी उसी का छुरा निकाल कर उसका वध करती है,चीत्कार सुनकर चन्द्रगुप्त आ जाता है।)

चन्द्रगुप्तः कल्याणी! कल्याणी! यह क्या!!

कल्याणीः वही जो होना था। चन्द्रगुप्त! यह पशु मेरा अपमानकरना चाहता था - मुझे भ्रष्ट करके, अपनी संगिनी बनाकर पूरे मगधपर अधिकार करना चाहता था। परन्तु मौर्य! कल्याणी ने वरण लिया थाकेवल एक पुरुष को - वह था चन्द्रगुप्त।

चन्द्रगुप्तः क्या यह सच है कल्याणी?

कल्याणीः हाँ यह सच है। परन्तु तुम मेरे पिता के विरोधी हुए,इसलिए उस प्रणय को - प्रेम-पीड़ा को - मैं पैरों से कुचलकर, दबाकर खड़ी रही! अब मेरे लिए कुछ भी अवशिष्ट नहीं रहा, पिता! लोमैं भी आती हूँ।

(अचानक छुरी मार कर आत्महत्या करती है, चन्द्रगुप्त उसे गोदमें उठा लेता है।)

चाणक्यः (प्रवेश करके) चन्द्रगुप्त! आज तुम निष्कंटक हुए!

चन्द्रगुप्तः गुरुदेव! इतनी क्रूरता?

चाणक्यः महात्वाकांक्षा का मोती निष्ठुरता की सीपी में रहता है!चलो अपना काम करो, विवाद करना तुम्हारा काम नहीं। अब तुम स्वच्छंदहोकर दक्षिणापथ जाने की आयोजना करो। (प्रस्थान)

(चन्द्रगुप्त कल्याणी को लिटा देता है।)

(पथ में राक्षस और सुवासिनी)

सुवासिनीः राक्षस! मुझे क्षमा करो!

राक्षसः क्यों सुवासिनी, यदि वह बाधा एक क्षण और रुकी रहतीतो क्या हम लोग इस सामाजिक नियम के बन्धन से बँध न गये होते!अब क्या हो गया?

सुवासिनीः अब पिताजी की अनुमति आवश्यक हो गयी है।

राक्षसः (व्यंग्य से) क्यों? क्या अब वह तुम्हारे ऊपर अधिकारनियंत्रण रखते हैं? क्या उनका तुम्हारे विगत जीवन से कुछ सम्पर्क नहीं?क्या...

सुवासिनीः अमात्य! मैं अनाथ थी, जीविका के लिए मैंने चाहेकुछ भी किया हो, पर स्त्रीत्व नहीं बेचा।

राक्षसः सुवासिनी, मैंने सोचा था, तुम्हारे अंक में सिर रखकरविश्राम करते हुए मगध की भलाई से विपथगामी न हूँगा। पर तुमने ठोकरमार दिया? क्या तुम नहीं जानती कि मेरे भीतर एक दुष्ट प्रतिभा सदैवसचेष्ट रहती है? अवसर न दो, उसे न जगाओ! मुझे पाप से बचाओ!

सुवासिनीः मैं तुम्हारा प्रणय स्वीकार नहीं करती। किन्तु अबइसका प्रस्ताव पिताजी से करो। तुम मेरे रूप और गुण के ग्राहक हो,और सच्चे ग्राहक हो, परन्तु राक्षस! मैं जानती हूँ कि यदि ब्याह छोड़करअन्य किसी भी प्रकार से मैं तुम्हारी हो जाती तो तुम ब्याह से अधिकसुखी होते। उधर पिता ने - उनके लिए मेरा चारित्र्य, मेरी निष्कलंकतानितान्त वाञ्छनीय हो सकती है - मुझे इस मलिनता के कीचड़ से कमलके समान हाथों में ले लिया है! मेरे चिर दुःखी पिता! राक्षस, तुम वासनासे उपेजित हो, तुम नहीं देख रहे हो कि सामने एक जुड़ता हुआ घायलवृद्ध बिछुड़ जायगा, एक पवित्र कल्पना सहज ही नष्ट हो जायगी?

राक्षसः यह मैं मान लेता, कदाचित्‌ इस पर पूर्ण विश्वास भीकर लेता, परन्तु सुवसिनी, मुझे शंका है। चाणक्य का तुम्हारा बाल्यपरिचय है। तुम शक्तिशाली की उपासना...

सुवासिनीः ठहरो अमात्य! मैं चाणक्य को इधर तो एक प्रकारसे विस्मृत ही हो गयी थी, तुम इस सोयी हुई भ्रान्ति को न जगाओ!

(प्रस्थान)

राक्षसः चाणक्य भूल सकता है? कभी नहीं। वह राजनीति काआचार्यहो जाय, वह विरक्त तपस्वी हो जाय, परन्तु सुवासिनी का चित्र-यदि अंकित हो गया है तो उहूँ (सोचता है।)

(नेपथ्य से गान)

कैसी कड़ी रूप की ज्वाला?

पड़ता है पतंगा सा इसमें मन होकर मतवाला,

सान्ध्य-गगन-सी रागमयी यह बड़ी तीव्र है हाला,

लौह-श्रृंखला से न कड़ी क्या यह फूलों की माला?

राक्षसः (चैतन्य होकर) तो चाणक्य से फि मेरी टक्कर होगी,होने दो! यह अधिकारी सुखदायी होगा। आज से हृदय का यही ध्येयरहा। शकटार से किस मुँह से प्रस्ताव करूँ! वह सुवासिनी को मेरे हाथमें सौंप दे, यह असम्भव है! तो मगध में फिर एक आँधी आवे! चलूँ,चन्द्रगुप्त भी तो नहीं है, चन्द्रगुप्त सम्राट्‌ हो सकता है, तो दूसरे भी इसकेअधिकारी हैं। कल्याणी की मृत्यु से बहुत से लोग उपेजित हैं। आहुतिकी आवश्यकता है, बह्नि प्रज्वलित है।

(प्रस्थान)

(परिषद्‌-गृह)

राक्षसः (प्रवेश करके) तो आप लोगों की सम्मति है किविजयोत्सव न मनाया जाय? मगध का उत्कर्ष, उसके गर्व का दिन, योंही फीका रह जाय!

शकटारः मैं तो चाहता हूँ, परन्तु आर्य चाणक्य की सम्मति इसमेंनहीं है।

कात्यायनः जो कार्य बिना किसी आडम्बर के हो जाय, वही तोअच्छा है।

(मौर्य सेनापति और उसकी स्त्री का प्रवेश)

मौर्यः विजयी होकर चन्द्रगुप्त लौट रहा है, हम लोग आज भीउत्सव न मनाने पावेंगे? राजकीय आवरण में यह कैसी दासता है?

मौर्य-पत्नीः तब यही स्पष्ट हो जाना चाहिए कि कौन इस साम्राज्यका अधीश्वर है! विजयी चन्द्रगुप्त अथवा यह ब्राह्मण या परिषद्‌?

चाणक्यः (राक्षस की ओर देखकर) राक्षस, तुम्हारे मन में क्या है?

राक्षसः मैं क्या जानूँ, जैसी सब लोगों की इच्छा।

चाणक्यः मैं अपने अधिकार और दायित्व को समझ कर कहताहूँ कि यह उत्सव न होगा।

मौर्य-पत्नीः तो मैं ऐसी पराधीनता में नहीं रहना चाहती (मौर्यसे) समझा न! हम लोग आज भी बन्दी हैं।

मौर्यः (क्रोध से) क्या कहा, बन्दी? नहीं, ऐसा नहीं हो सकता?हम लोग चलते हैं। देखूँ किसी सामर्थ्य है जो रोके! अपमान से जीवितरहना मौर्य नहीं जानता है। चलो -

(दोनों का प्रस्थान)

(चाणक्य और कात्यायन को छोड़कर सब जाते हैं।)

कात्यायनः विष्णुगुप्त, तुमने समझकर ही तो ऐसा किया होगा।फिर भी मौर्य का इस तरह चले जाना चन्द्रगुप्त को...

चाणक्यः बुरा लगेगा! क्यों? भला लगने के लिए मैं कोई कामनहीं करता कात्यायन! परिणाम में भलाई ही मेरे कामों की कसौटी है।तुम्हारी इच्छा हो, तो तुम भी चले जाओ, बको मत

(कात्यायन का प्रस्थान)

चाणक्यः कारण समझ में नहीं आता - यह वात्याचक्र क्यों?(विचारता हुआ) क्या कोई नवीन अध्याय खुलने वाला है? अपनी विजयोंपर मुझे विश्वास है, फिर यह क्या? (सोचता है।)

(सुवासिनी का प्रवेश)

सुवासिनीः विष्णुगुप्त!

चाणक्यः कहो सुहासिनी!

सुवासिनीः अभी परिषद्‌-गृह से जाते हुए पिताजी बहुत दुःखी

दिखाई दिये, तुमने अपमान किया क्या?

चाणक्यः यह तुमसे किसने कहा? इस उत्सव को रोक देने सेसाम्राज्य का कुछ बनता-बिगड़ता नहीं। मौर्यों का जो कुछ है, वह मेरेदायित्व पर है। अपमान हो या मान, मैं उसका उपरदायी हूँ। और,पितृत्व-तुल्य शकटार को मैं अपमानित करूँगा, यह तुम्हें कैसे विश्वासहुआ?

सुवासिनीः तो राक्षस ने ऐसा क्यों...?

चाणक्यः कहा? ऐं? सो तो कहना ही चाहिए। और तुहारा भी

उस पर विश्वास होना आवश्यक है, क्यों न सुवासिनी?

सुवासिनीः विष्णुगुप्त! मैं एक समस्या में ड़ाल दी गयी हूँ।

चाणक्यः तुम स्वयं पड़ना चाहती हो, कदाचित्‌ यह ठीक भी है।

सुवासिनीः व्यंग्य न करो, तुम्हारी कृपा मुझ पर होगी ही, मुझेइसका विश्वास है।

चाणक्यः मैं तुमसे बाल्य-काल से परिचित हूँ, सुवासिनी! तुमखेल में भी हारने कम समय रोते हुए हँस दिया करतीं और तब मैं हारस्वीकार कर लेता। इधर तो तुम्हारा अभिनय का अभ्यास भी बढ़ गयाहै! तब तो... (देखने लगता है।)

सुवासिनीः यह क्या, विष्णुगुप्त, तुम संसार को अपने वश मेंकरने का संकल्प रखते हो। फिर अपने को नहीं? देखो दर्पण लेकर -तुम्हारी आँखों में तुम्हारा यह कौन-सा नवीन चित्र है।

(प्रस्थान)

चाणक्यः क्या? मेरी दुर्बलता? नहीं! कौन है?

दौवारिकः (प्रवेश करके) जय हो आर्य, रथ पर मालविका आयी है।

चाणक्यः उसे सीधे मेरे पास लिवा लाओ!

(दौवारिक का प्रस्थान - एक चर का प्रवेश)

चरः आर्य सम्राट्‌ के पिता और माता दोनों व्यक्ति रथ पर अभीबाहर गये हैं (जाता है।)

चाणक्यः जाने दो! इनके रहने से चन्द्रगुप्त के एकाधिपत्य मेंबाधा होती। स्नेहातिरेक से वह कुछ-का-कुछ कर बैठता।

(दूसरे चर का प्रवेश)

दूसराः (प्रणाम करके) जय हो आर्य, वाल्हीक में नयी हलचलहै। विजेता सिल्यूकस अपनी पश्चिमी राजनीति से स्वतंत्र हो गया है, अबवह सिकन्दर के पूर्वी प्रान्तों की ओर दपचिप है। वाल्हीक सी सीमापर नवीन यवन-सेना के शस्त्र चमकने लगे हैं।

चाणक्यः (चौंककर) और गांधार का समाचार?

दूसराः अभी कोई नवीनता नहीं है।

चाणक्यः जाओ। (चर का प्रस्थान) क्या उसका भी समय आगया? तो ठीक है। ब्राह्मण! अपनी प्रतिज्ञा पर अटल रह! कुछ चिन्तानहीं, सब सुयोग आप ही चले आ रहे हैं।

(ऊपर देखकर हँसता है, मालविका का प्रवेश)

मालविकाः आर्य, प्रणाम करती हूँ। सम्राट ने श्रीचरणों में सविनयप्रणाम करके निवेदन किया है कि आपके आशीर्वाद से दक्षिणापथ में अपूर्वसफलता मिली, किन्तु सुदूर दक्षिण जाने के लिए आपका निषेध सुनकरलौटा आ रहा हूँ। सीामन्त के राष्ट्रों ने भी मित्रता स्वीकार कर ली है।

चाणक्यः मालविका, विश्राम करो। सब बातों का विवरण एक-साथ ही लूँगा।

मालविकाः परन्तु आर्य, स्वागत का कोई उत्साह राजधानी मेंनहीं।

चाणक्यः मालविका, पाटलिपुत्र षड्‌यन्त्रों का केन्द्र हो रहा है।सावधान! चन्द्रगुप्त के प्राणों की रक्षा तुम्हीं को करनी होगी।

(प्रकोष्ठ में चन्द्रगुप्त का प्रवेश)

चन्द्रगुप्तः विजयों की सीमा है, परन्तु अभिलाषाओं की नहीं।मन ऊब-सा गया है। झंझटों से घड़ी भर अवकाश नहीं। गुरुदेव औरक्या चाहते हैं, समझ में नहीं आता। इतनी उदासी क्यों? मालविका!

मालविकाः (प्रवेश करके) सम्राट्‌ की जय हो!

चन्द्रगुप्तः मैं सब से विभिन्न, एक भय-प्रदर्शन-सा बन गया हूँ।कोई मेरा अन्तरंग नहीं, तुम भी मुझे सम्राट्‌ कहकर पुकारती हो!

मालविकाः देव, फिर मैं क्या कहूँ?

चन्द्रगुप्तः स्मरण आता है - मालव का उपवन और उसमेंअतिथि के रूप में मेरा रहना?

मालविकाः सम्राट्‌, अभी कितने ही भयानक संघर्ष सामने हैं!

चन्द्रगुप्तः संघर्ष! युद्ध देखना चाहो तो मेरा हृदय फाड़कर देखो।मालविका! आशा और निराशा का युद्ध, भावों और अभावों का द्वन्द्व! कोईकमी नहीं, फिर भी न जान कौन मेरी सम्पूर्ण सूची में रक्त-चिह्न लगादेता है। मालविका, तुम मेरी ताम्बूल-वाहिनी नहीं हो, मेरे विश्वास की,मित्रता की प्रतिकृति हो। देखो, मैं दरिद्र हूँ कि नहीं, तुमसे मेरा कोईरहस्य गोपनीय नहीं! मेरे हृदय में कुछ है कि नहीं, टटोलने से भी नहींजान पड़ता।

मालविकाः आप महापुरुष हैं, साधारणजन - दुर्लभ दुर्बलता नहोनी चाहिए आप में देव! बहुत दिनों पर मैंने एक माला बनायी है -

(माला पहनाती है।)

चन्द्रगुप्तः मालविका, इन फूलों का रस तो भौंरे ले चुके हैं!

मालविकाः निरीह कुसुमों पर दोषारोपण क्यों? उनका काम हैसौरभ विखेरना, यह उकना मुक्त दान है। उसे चाहे भ्रमर ले या पवन।

चन्द्रगुप्तः कुछ गाओ तो मन बहल जाय।

(मालविका गाती है।)

मधुप कब एक कली का है!

पाया जिसमें प्रेम रस, सौरभ और सुहाग,

बेसुध हो उस कली से, मिलता भर अनुराग,

विहारी कुञ्जगली का है!

कुसुम धूल से धूसरित, चलता है उस राह,

काँटों में उलझा, तदपि, रही लगन की चाह,

बावला रंगरली का है।

हो मल्लिका, सरोजिनी, या यूथी का पुञ्ज,

अलि को केवल चाहिए, सुखमय क्रीडा-कुञ्ज,

मधुप कब एक कली का है!

चन्द्रगुप्तः मालविका, मन मधुप से भी चंचल और पवन से भीप्रगतिशील है, वेगवान है।

मालविकाः उसका निग्रह करना ही महापुरुषों का स्वभाव है देव!

(प्रतिहारी का प्रवेश और संकेत - मालविका उससे बात करकेलौटती है।)

चन्द्रगुप्तः क्या है!

मालविकाः कुछ नहीं, कहती थीं कि यह प्राचीन राज-मन्दिरअभी परिष्कृत नहीं, इसलिए मैंने चन्द्रसौंध में आपके शयन का प्रबन्धकरने के लिए कह दिया है।

चन्द्रगुप्तः जैसी तुम्हारी इच्छा - (पान करता हुआ) कुछ औरगाओ मालविका! आज तुम्हारे स्वर में स्वर्गीय मधुरिमा है।

(मालविका गाती है।)

बज रही बंशी आठों याम की।

अब तक गूँज रही है बोली प्यारे मुख अभिराम की।

हुए चपल मृगनैन मोह-वश बजी विपंची काम की,

रूप-सुधा के दो दृग प्यालों ने ही मति बेकाम की!

बज रही बंशी-

(कुंचकी का प्रवेश)

कुंचकीः जय हो देव, शयन का समय हो गया।

(प्रतिहारी और कंचुकी के साथ चन्द्रगुप्त का प्रस्थान)

मालविकाः जाओ प्रियतम! सुखी जीवन बिताने के लिए और मैंरहती हूँ चिर-दुःखी जीवन का अन्त करने के लिए। जीवन एक प्रश्नहै, और मरण है उसका अटल उपर। आर्य चाणक्य की आज्ञा है -“आज घातक इस शयनगृह में आवेंगे, इसलिए चन्द्रगुप्त यहाँ न सोने पावें,और षड्‌यन्त्रकारी पकड़े जायँ।” (शय्या पर बैठकर) - यह चन्द्रगुप्त कीशय्या है। ओह, आज प्राणों में कितनी मादकता है! मैं... कहाँ हूँ? कहाँ?स्मृति, तू मेरी तरह सो जा! अनुराग, तू रक्त से भी रंगीन बन जा!

(गाती है।)

ओ मेरी जीवन की स्मृति! ओ अन्तर के आतुर अनुराग!

बैठ गुलाबी विजन उषा में गाते कौन मनोहर राग?

चेतन सागर उर्मिल होता यह कैसी कम्पनमय तान,

यों अधीरता से न भीड़ लो अभी हुए हैं पुलकित प्रान।

कैसा है यह प्रेम तुम्हारा युगल मूर्ति की बलिहारी।

यह उन्मप विलास बता दो कुचलेगा किसकी क्यारी?

इस अनन्त निधि के हे नाविक, हे मेरे अनंग अनुराग!

पाल सुनहला बन, तनती है, स्मृति यों उस अतीत में जाग।

कहाँ ले चले कोलाहल से मुखरित तट को छोड़ सुदूर,

आह! तुम्हारे निर्दय डाँडों से होती हैं लहरें चूर।

देख नहीं सकते तुम दोनों चकित निराशा है भीमा,

बहको मत क्या न है बता दो क्षितिज तुम्हारी नव सीमा?

(शयन)

(प्रभात-राज-मन्दिर का एक प्रान्त)

चन्द्रगुप्तः (अकेले टहलता हुआ) चतुर सेवक के समान संसारको जगा कर अन्धकार हट गया। रजनी की निस्तब्धता काकली से चंचलहो उठी है। नीला आकाश स्वच्छ होने लगा है, या निद्रा-क्लान्त निशा,उषा की शुभ्र चादर ओढ़ कर नींद की गोद में लेटने चली है। यहजागरण का अवसर है। जागरण का अर्थ है कर्मक्षेत्र में अवतीर्ण होना।और कर्मक्षेत्र क्या है? जीवन-संग्राम! किन्तु भीषण संघर्ष करके भी मैंकुछ नहीं हूँ। मेरी सपा एक कठपुतली सी है। तो फिर... मेरे पिता,मेरी माता, इनका तो सम्मान आवश्यक था। वे चले गये, मैं देखता हूँकि नागरिक तो क्या, मेरे आत्मीय भी आनन्द मनाने से वंचित किये गये।यह परतंत्रता कब तक चलेगी? प्रतिहारी!

प्रतिहारीः (प्रवेश करके) जय हो देव!

चन्द्रगुप्तः आर्य चाणक्य को शीघ्र लिवा लाओ!

(प्रतिहारी का प्रस्थान)

चन्द्रगुप्तः (टहलते हुए) प्रतिकार आवश्यक है।

(चाणक्य का प्रवेश)

चन्द्रगुप्तः आर्य, प्रणाम।

चाणक्यः कल्याण हो आयुष्मन, आज तुम्हारा प्रणाम भारी-सा है!

चन्द्रगुप्तः मैं कुछ पूछना चाहता हूँ।

चाणक्यः यह तो मैं पहले ही से समझता था! तो तुम अपनेस्वागत के लिए लड़कों के सदृश्य रूठे हो?

चन्द्रगुप्तः नहीं आर्य, मेरे माता-पिता - मैं जानता हूँ कि उन्हेंकिसने निर्वासित किया?

चाणक्यः जान जाओगे तो उसका वध करोगे! क्यों?

(हँसता है।)

चन्द्रगुप्तः हँसिए मत! गुरुदेव! आपकी मर्यादा रखनी चाहिए,यह मैं जानता हूँ। परन्तु वे मेरे माता-पिता थे, यह आपको भी जाननाचाहिए।

चाणक्यः तभी तो मैंने उन्हें उपयुक्त अवसर दिया। अब उन्हेंआवश्यकता थी शान्ति की, उन्होंने वानप्रस्थाश्रम ग्रहण किया है। इसमें खेदकरने की कौन बात है?

चाणक्यः यह अक्षुण्ण अधिकार आप कैसे भोग रहे हैं? केवलसाम्राज्य का ही नहीं, देखता हूँ, आप मेरे कुटुम्ब का भी नियंत्रण अपनेहाथों में रखना चाहते हैं।

चाणक्यः चन्द्रगुप्त! मैं ब्राह्मण हूँ! मेरा साम्राज्य करुणा का था,मेरा धर्म प्रेम का था। आनन्द-समुद्र में शान्ति-द्वीप का अधिवासी ब्राह्मणमैं, चन्द्र-सूर्य-नक्षत्र मेरे दीप थे, अनन्त आकाश वितान था, शस्यश्यामलाकोमला विश्वम्भरा मेरी शय्या थी। बौद्धिक विनोद कर्म था, सन्तोष धनथा। उस अपनी, ब्राह्मण की, जन्म-भूमि को छोड़कर कहाँ आ गया!

सौहार्द के स्थान पर कुचक्र, फूलों के प्रतिनिधि काँटे, प्रेम के स्थान मेंभय। ज्ञानामृत के परिवर्तन में कुमंत्रणा। पतन और कहाँ तक हो सकताहै! ले लो मौर्य चन्द्रगुप्त! अपना अधिकार, छीन लो। यह मेरा पुनर्जन्महोगा। मेरा जीवन राजनीतिक कुचक्रों से कुत्सित और कलंकित हो उठाहै। किसी छायाचित्र, किसी काल्पनिक महत्व के पीछे भ्रमपूर्ण अनुसंधानकरता दौड़ रहा हूँ! शान्ति खो गयी, स्वरूप विस्मृत हो गया? जान गया,मैं कहाँ और कितने नीचे हूँ।

(प्रस्थान)

चन्द्रगुप्तः जाने दो। (दीर्घ निश्वास लेकर) तो क्या मैं असमर्थहूँ? ऊँह, सब हो जायगा।

सिंहरणः (प्रवेश करके) सम्राट्‌ की जय हो! कुछ विद्रोही औरषड्‌यन्त्रकारी पकड़े गये हैं। एक बड़ी दुखद घटना भी हो गयी है!

चन्द्रगुप्तः (चौंककर) क्या?

सिंहरणः मालविका की हत्या... (गद्‌गद्‌ कंठ से) आपकापरिच्छद पहन कर वह आप ही की शय्या पर लेटी थी।

चन्द्रगुप्तः तो क्या, उसने इसीलिए मेरे शयन का प्रबन्ध दूसरेप्रकोष्ठ में किया! आह! मालविका!

सिंहरणः आर्य चाणक्य की सूचना पाकर नायक पूरे गुल्म केसाथ राज-मन्दिर की रक्षा के लिए प्रस्तुत था। एक छोटा-सा युद्ध होकरवे हत्यारे पकड़े गये। परन्तु उनका नेता राक्षस निकल भागा ।

चन्द्रगुप्तः क्या! राक्षस उनका नेता था?

सिंहरणः हाँ सम्राट्‌! गुरुदेव बुलाये जायँ!

चन्द्रगुप्तः वही तो नहीं हो सकता, वे चले गये। कदाचित्‌ नलौटेंगे।

सिंहरणः ऐसा क्यों? क्या आपने कुछ कह दिया?

चन्द्रगुप्तः हाँ सिंहरण! मैंने अपने माता-पिता के चले जाने काकारण पूछा था।

सिंहरणः (निःश्वास लेकर) तो नियति कुछ अदृष्ट का सृजन कररही है! सम्राट्‌, मैं गुरुदेव को खोजने जाता हूँ!

चन्द्रगुप्तः (विरक्ति से) जाओ, ठीक है - अधिक हर्ष, अधिकउन्नति के बाद ही तो अधिक दुःख और पतन की बारी आती है!

(सिंहरण का प्रस्थान)

चन्द्रगुप्तः पिता गये, माता गयी, गुरुदेव गये, कन्धे-से-कन्धाभिड़ाकर प्राण देने वाला चिर-सहचर सिंहरण गया! तो भी चन्द्रगुप्त कोरहना पड़ेगा, और रहेगा, परन्तु मालविका! आह, वह स्वर्गीय कुसुम!

(चिन्तित भाव से प्रस्थान)

(सिन्धु-तट पर्णकुटीर। चाणक्य और कात्यायन)

चाणक्यः कात्यायन, सो नहीं हो सकता! मैं अब मंत्रित्व नहींग्रहण करने का। तुम यदि किसी प्रकार मेरा रहस्य खोल दोगे, तो मगधका अनिष्ट ही करोगे।

कात्यायनः तब मैं क्या करूँ? चाणक्य, मुझे तो अब इस राज-काज में पड़ना अच्छा नहीं लगता।

चाणक्यः जब तक गांधारा का उपद्रव है, तब तक तुम्हें बाध्यहोकर करना पड़ेगा। बताओ, नया समाचार क्या है?

कात्यायनः राक्षस सिल्यूकस की कन्या को पढ़ाने के लिये वहींरहता है और यह सारा कुचक्र उसी का है! वह इन दिनों वाल्हीक कीओर गया है। मैं अपना वार्तिक पूरा कर चुका, इसीलिए मगध सेअवकाश लेकर आया था। चाणक्य, अब मैं मगध जाना चाहता हूँ। यवनशिविर में अब मेरा जाना असम्भव है।

चाणक्यः जितना शीघ्र हो सके, मगध पहुँचो। मैं सिंहरण कोठीक रखता हूँ। तुम चन्द्रगुप्त को भेजो। सावधान, उसे न मालूम हो किमैं यहाँ हूँ! अवसर पर मैं स्वयं उपस्थित हो जाऊँगा। देखो, शकटार औरतुम्हारे भरोसे मगध रहा है! कात्यायन, यदि सुवासिनी को भेजते तो कार्यमें आशातीत सफलता होती। समझे?

कात्यायनः (हँसकर) यह जानकर मुझे प्रसन्नता हुई कि तुम...सुवासिनी अच्छा... विष्णुगुप्त! गार्हस्थ्य जीवन कितना सुन्दर है!

चाणक्यः मूर्ख हो, अब हम-तुम साथ ही ब्याह करेंगे।

कात्यायनः मैं? मुझे नहीं... मरी गृहिणी तो है।

चाणक्यः (हँसकर) एक ब्याह और सही। अच्छा बताओ, कामकहाँ तक हुआ?

कात्यायनः (पत्र देता हुआ) हाँ, यह लो, यवन शिविर का विवरणहै। परन्तु, विष्णुगुप्त, एक बात कहे बिना न रह सकूँगा। यह यवन-बालासिर से पैर तक आर्य संस्कृति में पगी है। उसका अनिष्ट?

चाणक्यः (हँसकर) कात्यायन, तुम सच्चे ब्राह्मण हो! यह करुणाऔर सौहार्द का उद्रेक ऐसे ही हृदयों में होता है। परन्तु मैं निष्ठुर!हृदयहीन! मुझे तो केवल अपने हाथों खड़ा किये हुए एक साम्राज्य कादृश्य देख लेना है।

कात्यायनः फिर भी चाणक्य, उसका सरस मुख-मण्डल! उसलक्ष्मी का अमंगल!

चाणक्यः (हँसकर) तुम पागल तो नहीं हो गये हो?

कात्यायनः तुम हँसो मत चाणक्य! तुम्हारा हँसना तुम्हारे क्रोध सेभी भयानक है। प्रतिज्ञा करो कि उसका अनिष्ट न करूँगा। बोलो।

चाणक्यः कात्यायन! अलक्षेन्द्र कितने विकट परिश्रम से भारतवर्षके बाहर किया गया - यह तुम भूल गये? अभी है कितने दिनों कीबात। अब इस सिल्यूकस को क्या हुआ जो चला आया! तुम नहीं जानतेकात्यायन, इसी सिल्यूकस ने चन्द्रगुप्त की रक्षा की थी, नियति अब उन्हींदोनों को एक-दूसरे के विपक्ष में खड्‌ग खींचे हुए खड़ा कर रही है!

कात्यायनः कैसे आश्चर्य की बात है!

चाणक्यः परन्तु इससे क्या? वह तो होकर रहेगा, जिसे मैंने स्थिरकर लिया है! वर्तमान भारत की नियति मेरे हृद पर जलद-पटल मेंबिजली के समान नाच उठती है! फिर मैं क्या करूँ?

कात्यायनः तुम निष्ठुर हो।

चाणक्यः अच्छा, तुम सदय होकर एक बात कर सकोगे? बोलो!चन्द्रगुप्त और उस यवन-बाला के परिणय में आचार्य बनोगे?

कात्यायनः क्या कह रहे हो? यह हँसी!

चाणक्यः यही तै तुम्हारी दया की परीक्षा - देखूँ तुम क्या करतेहो! क्या इसमें यवन-बाला का अमंगल है?

कात्यायनः (सोचकर) मंगल है, मैं प्रस्तूत हूँ।

चाणक्यः (हँसकर) तब तुम निश्चय ही एक सहृदय व्यक्ति हो।

कात्यायनः अच्छा तो मैं जाता हूँ।

चाणक्यः हाँ जाओ। स्मरम रखना, हम लोगों के जीवन में यहअन्तिम संघर्ष है। मुझे आज आम्भीक से मिलना है। यह लोलुप राजा,देखूँ, क्या करता है।

(कात्यायन का प्रस्थान - चर का प्रवेश)

चरः महामात्य की जय हो!

चाणक्यः इस समय जय की बड़ी आवश्यकता है। आम्भीक कोयदि जय कर सका, तो सर्वत्र जय है। बोलो, आम्भीक ने क्या कहा?

चरः वे स्वयं आ रहे हैं।

चाणक्यः आने दो, तुम जाओ।

(चर का प्रस्थान, आम्भीक का प्रवेश)

आम्भीकः प्रणाम, ब्राह्मण देवता!

चाणक्यः कल्याण हो। राजन्‌, तुम्हें भय तो नहीं लगता? में एकदुर्नाम मनुष्य हूँ!

आम्भीकः नहीं आर्य, आप कैसी बात कहते हैं!

चाणक्यः तो ठीक है, इसी तक्षशिला के मठ में एक दिन मैंनेकहा था - ‘सो कैसे होगा अविश्वासी क्षत्रिय! तभी तो म्लेच्छ लोगसाम्राज्य बना रहे हैं और आर्य-जाति पतन के कगार पर खड़ी एक धक्केकी राह देख रही है!’

आम्भीकः स्मरण है।

चाणक्यः तुम्हारी भूल ने कितना कुत्सित दृश्य दिखाया - इसेभी सम्भवतः तुम न भूले होगे।

आम्भीकः नहीं।

चाणक्यः तुम जानते हो कि चन्द्रगुप्त ने दक्षिणापथ के स्वर्णगिरिसे पंचनद तक, सौराष्ट्र से बंग तक एक महान्‌ साम्राज्य स्थापित कियाहै। यह साम्राज्य मगध का नहीं है, यह आर्य साम्राज्य है। उपरापथ केसब प्रमुख गणतंत्र मालव, क्षुद्रक और यौधेय आदि सिंहरण के नेतृत्व मेंइस साम्राज्य के अंग हैं। केवल तुम्हीं इससे अलग हो। इस द्वितीय यवन-आक्रमण से तुम भारत के द्वार की रक्षा कर लोगे, या पहले ही के समानउत्कोच लेकर, द्वार खोलकर, सब झंझटों से अलग हो जाना चाहते हो?

आम्भीकः आर्य, वही त्रुटि बार-बार न होगी।

चाणक्यः तब साम्राज्य झेलम-तट की रक्षा करेगा। सिन्धु घाटीका भार तुम्हारे ऊपर रहा।

आम्भीकः अकेले मैं यवनों का आक्रमण रोकने में असमर्थ हूँ।

चाणक्यः फिर उपाय क्या है?

(नेपथ्य से जयघोष। आम्भीक चकित होकर देखने लगता है।)

चाणक्यः क्या है, सुन रहे हो?

आम्भीकः समझ में नहीं आया। (नेपथ्य की ओर देखकर) वहएक स्त्री आगे-आगे कुछ गाती हुई आ रही है और उसके साथ बड़ी-सी भीड़ (कोलाहल समीप होता है।)

चाणक्यः आओ हम लोग हट कर देखएं (दोनों अलग छिप जातेहैं।)

(आर्य-पताका लिये अलका का गाते हुए, भीड़ के साथ प्रवेश)

अलकाः तक्षशिला के वीर नागरिको! एक बार, अभी-अभीसम्राट्‌ चन्द्रगुप्त ने इसका उद्धार किया था, आर्यावर्त-प्यारा देश-ग्रीकों कीविजय-लालसा से पुनः पद-दलित होने जा रहा है। तब तुम्हारा शासकतटस्थ रहने का ढोंग करके पुण्यभूमि को परतंत्रता की श्रृंखला पहनाने कादृश्य राजमहल के झरोखों से देखेगा। तुम्हारा राजा कायर है, और तुम?

नागरिकः हम लोग उसका परिणाम देख चुके हैं माँ! हम लोगप्रस्तुत हैं।

अलकाः यही तो - (समवेत स्वर से गायन)

हिमाद्रि तुंग श्रृंग से

प्रबुद्ध शुद्ध भारती-

स्वयं प्रथा समुज्ज्वला

स्वतन्त्रता पुकारती-

अमर्त्य वीरपुत्र हो, दृढ़-प्रतिज्ञा सोच लो,

प्रशस्त पुण्य पंथ है - बढ़े चलो बढ़े चलो।

असंख्य कीर्ति-रश्मियाँ,

विकीर्ण दिव्य दाह-सी।

सपूत मातृभूमि के-

रुको न शूर साहसी!

अराति सैन्य सिन्धू में-सुवाडवाग्नि-से जलो,

प्रवीर हो जयी बनो - बढ़े चलो, बढ़े चलो।

(सब का प्रस्थान)

आम्भीकः यह अलका है। तक्षशिला में उपेजना फैलाती हुई -यह अलका!

चाणक्यः हाँ आम्भीक! तुम उसे बन्दी बनाओ, मुँह बन्द करो।

आम्भीकः (कुछ सोचकर) असम्भव! मैं भी साम्राज्य मेंसम्मिलित होऊँगा।

चाणक्यः यह मैं कैसे कहूँ? मेरी लक्ष्मी-अलका ने आर्यगौरव केलिए क्या-क्या कष्ट नहीं उठाये। वह भी तो इसी वंश की बालिका है।फिर तुम तो पुरुष हो, तुम्हीं सोचकर देखो।आम्भीकः व्यर्थ का अभिमान अब मुझे देश के कल्याण में बाधकन सिद्ध कर सकेगा। आर्य चाणक्य, मैं आर्य-साम्राज्य के बाहर नहीं हूँ।

चाणक्यः तब तक्षशिला-दुर्ग पर मगध-सेना अधिकार करेगी। यहतुम सहन करोगे?

(आम्भीक सिर निचा करके विचारता है।)

चाणक्यः क्षत्रिय! कह देना और बात है, करना और।

आम्भीकः (आवेश में) हार चुका ही हूँ, पराधीन हो ही चुकाहूँ। अब स्वदेश के अधीन होने में उससे अधिक कलंक तो मुझे लगेगानहीं, आर्य चाणक्य!

चाणक्यः तो इस गांधार और पंचनद का शासन - सूत्र होगाअलका के हाथ में और तक्षशिला होगी उसकी राजधानी, बोलो, स्वीकारहै?

आम्भीकः अलका?

चाणक्यः हाँ, अलका। और सिंहर इस महाप्रदेश के शासक होंगे।

आम्भीकः सब स्वीकार है, ब्राह्मण! मैं केवल एक बार यवनोंके सम्मुख अपना कलंक धोने का अवसर चाहता हूँ। रम-क्षेत्र में एकसैनिक होना चाहता हूँ। और कुछ नहीं।

चाणक्यः तुम्हारा अभीष्ट पूर्ण हो!

(संकेत करता है - सिंहरण और अलका का प्रवेश)

अलकाः भाई! आम्भीक!

आम्भीकः बहन! अलका! तू छोटी है, पर मेरी श्रद्धा का आधारहै। मैं भूल करता था बहन! तक्षशिला के लिए अलका पर्याप्त है,आम्भीक की आवश्यकता न थी!

अलकाः भाई, क्या कहते हो!

आम्भीकः मैं देशद्रोही हूँ। नीच हूँ। अधम हूँ। तून गांधार केराजवंश का मुख उज्ज्वल किया है। राज्यासन के योग्य तू ही है।

अलकाः भाई! अब भी तुम्हारा भ्रम नहीं गया! राज्य किसी कानहीं है, सुशासन का है! जन्मभूमि के भक्तों में आज जागरण है। देखतेनहीं, प्राच्य में सूर्योदय हुआ है! स्वयं सम्राट्‌ चन्द्रगुप्त तक इस महानआर्य-साम्राज्य के सेवक हैं। स्वतंत्रता के युद्ध में सैनिक और सेनापति काभेद नहीं। जिसकी खड्‌ग-प्रभा में विजय का आलोक चमकेगा, वहीवरेण्य है। उसी की पूजा होगी। भाई! तक्षशिला मेरी नहीं और तुम्हारीभी नहीं, तक्षशिला आर्यावर्त का एक भू-भाग है, वह आर्यावर्त की होकरही रहे, इसके लिए मर मिटो। फिर उसके कणों में तुम्हारा ही नाम अंकितहोगा। मेरे पिता स्वर्ग में इन्द्र से प्रतिस्पर्धा करेंगे। वहाँ की अप्सराएँविजयमाला लेकर खड़ी होंगी, सूर्यमण्डल मार्ग बनेगा और उज्ज्वलआलोक से मण्डित होकर गांधार राजकुल अमर हो जायगा!

चाणक्यः साधु! अलके, साधु!

आम्भीकः (खड्‌ग खींचकर) खड्‌ग की शपथ - मैं कर्तव्य सेच्युत न होऊँगा!

सिंहरणः (उसे आलिंगन करके) मित्र आम्भीक! मनुष्य साधारण

धर्मा पशु है, विचारशील होने से मनुष्य होता है और निःस्वार्थ कर्म करनेसे वही देवता भी हो सकता है।

(आम्भीक का प्रस्थान)

सिंहरणः अलका, सम्राट्‌ किस मानसिक वेदना में दिन बितातेहोंगे?

अलकाः वे वीर हैं मालव, उन्हें विश्वास है कि मेरा कुछ कार्यहै, उसकी साधना के लिए प्रकृति, अदृष्ट, दैव या ईश्वर, कुछ-न-कुछअवलम्बन जुटा ही देगा! सहायक चाहे आर्य चाणक्य हों या मालव!

सिंहरणः अलका, उस प्रचण्ड पराक्रम को मैं जानता हूँ। परन्तुमैं यह भी जानता हूँ कि सम्राट्‌ मनुष्य हैं। अपने से बार-बार सहायताकरने के लिए कहने में, मानव-स्वभाव विद्रोह करने लगता है। यह सौहार्दऔर विश्वास का सुन्दर अभिमान है। उस समय मन चाहे अभिनय करताहो संघर्ष से बचने का, किन्तु जीवन अपना संग्राम अन्ध होकर लड़ताहै। कहता है - अपने को बचाऊँगा नहीं, जो मेरे मित्र हों, आवें औरअपना प्रमाण दें।

(दोनों का प्रस्थान)

(सुवासिनी का प्रवेश)

चाणक्यः सुवासिनी, तुम यहाँ कैसे?

सुवासिनीः सम्राट्‌ को अभी तक आपका पता नहीं, पिताजी नेइसीलिए मुझे भेजा है। उन्हों ने कहा - जिस खेल को आरम्भ कियाहै, उसका पूर्ण और सफल अन्त करना चाहिए।

चाणक्यः क्यों करें सुवासिनी, तुम राक्षस के साथ सुखी जीवनबिताओगी, यदि इतनी भी मुझे आशा होती... वह तो यवन-सेनानी है, औरतुम मगध की मन्त्रि-कन्या! क्या उससे परिणय कर सकोगी?

सुवासिनीः (निःश्वास लेकर) राक्षस से! नहीं, असम्भव! चाणक्यतुम इतने निर्दय हो!

चाणक्यः (हँसकर) सुवासिनी! वह स्वप्न टूट गया - इस विजनबालुका-सिन्धु मं एक सुधा की लहर दौड़ पड़ी थी, किन्तु तुम्हारे एकभू-भंग ने उसे लौटा दिया! मैं कंगाल हूँ (ठहरकर) सुवासिनी! मैं तुम्हेंदण्ड दूँगा। चाणक्य की नीति में अपराधों के दण्ड से कोई मुक्त नहीं।

सुवासिनीः क्षमा करो विष्णुगुप्त।

चाणक्यः असम्भव है। तुम्हें राक्षस से ब्याह करना ही होगा, इसीमें हमारा-तुम्हारा और मगध का कल्याण है।

सुवासिनीः निष्ठुर! निर्दय!!

चाणक्यः (हँसकर) तुम्हें अभिनय भी करना पड़ेगा। उसमें समस्तसञ्चित कौशल का प्रदर्शन करना होगा। सुवासिनी, तुम्हें बन्दिनी बन करग्रीक-शिविर में राक्षस और राजकुमारी के पास पहुँचना होगा - राक्षसको देशभक्त बनाने के लिए और राजकुामरी की पूर्वस्मृति में आहुति देनेके लिए। कार्नेलिया चन्द्रगुप्त से परिणीता होकर सुखी हो सकेगी कि नहीं,इनकी परीक्षा करनी होगी।

(सुवासिनी सिर पकड़ कर बैठ जाती है।)

चाणक्यः (उसके सिर पर हाथ रखकर) सुवासिनी! तुम्हारा प्रणय,स्त्री और पुरुष के रूप में केवल राक्षस से अंकुरित हुआ, और शैशवका वह सब, केवल हृदय की स्निग्धता थी। आज किसी कारण से राक्षसका प्रणय द्वेष में बदल रहा है, परन्तु काल पाकर वह अंकुर हरा-भराऔर सफल हो सकता है! चाणक्य यह नहीं मानता कि कुछ असम्भवहै। तुम राक्षस से प्रेम करके सुखी हो सकती हो, क्रमशः उस प्रेम कासच्चा विकास हो सकता है। और मैं, अभ्यास करके तुमसे उदासीन होसकता हूँ, यही मेरे लिए अच्छा होगा। मानवहृदय में यह भाव-सृष्टि तोहुआ ही करती है। यही हृदय का रहस्य है, तब हम लोग जिस सृष्टिमें स्वतंत्र हों, समें परवशता क्यों मानें? मैं क्रूर हूँ, केवल वर्तमान केलिए, भविष्य के सुख और शान्ति के लिए, परिणाम के लिए नहीं। श्रेयके लिए, मनुष्य को सब त्याग करना चाहिए, सुवासिनी! जाओ!

सुवासिनीः (दीनता से चाणक्य का मुँह देखती है।) तो विष्णुगुप्त,तुम इतना बड़ा त्याग करोगे। अपने हाथों बनाया हुआ, इतने बड़े साम्राज्यका शासन हृदय की आकांक्षा के साथ अपने प्रतिद्वन्द्वी को सौंप दोगे! औरसो भी मेरे लिए!

चाणक्यः (घबड़ाकर) मैं बड़ा विलम्ब कर रहा हूँ। सुवासिनी,आर्य दाण्ड्यायन के आश्रम में पहुँचने के लिए मैं पथ भूल गया हूँ।मेघ के समान मुक्त वर्षा-सा जीवन-दान, सूर्य के समान अबाध आलोकविकीर्ण करना, सागर के समान कामना, नदियों को पचाते हुए सीमा केबाहर न जाना, यही तो ब्राह्मण का आदर्श है। मुझे चन्द्रगुप्त को मेघमुक्तचन्द्र देख कर, इस रंग-मंच से हट जाना है।

सुवासिनीः महापुरुष! मैं नमस्कार करती हूँ। विष्णुगुप्त, तुम्हारीबहन तुमसे आशीर्वाद की भिखारिन है। (चरण पकड़ती है।)

चाणक्यः सुखी रहो। (सजल नेत्र से उसके सिर पर हाथ फेरतेहुए)

(प्रस्थान)

(कपिशा में एलेक्जेंड्रिया का राज-मन्दिर)

(कार्नेलिया और उसकी सखी का प्रवेश)

कार्नेलियाः बहुत दिन हुए देखा था! वही भारतवर्ष! वही निर्मलज्योति का देश, पवित्र भूमि, अब हत्या और लूट से बीभत्य बनायी जायगी- ग्रीक-सैनिक इस शस्यश्यामला पृथ्वी को रक्त-रंजित बनावेंगे! पिताअपने साम्राज्य से सन्तुष्ट नहीं, आशा उन्हें दौड़ावेगी। पिशाची की छलनामें पड़ कर लाखों प्राणियों का नाश होगा। और, सुना है यह युद्ध होगाचन्द्रगुप्त से!

सखीः सम्राट तो आज स्कन्धावार में जानेवाले हैं!

(राक्षस का प्रवेश)

राक्षसः आयुष्मती! मैं आ गया।

कार्नेलियाः नमस्कार। तुम्हारे देश में तो सुना है कि ब्राह्मण जातिबड़ी तपस्वी और त्यागी है।

राक्षसः हाँ कल्याणी, वह मेरे पूर्वजों का गौरव है, किन्तु हमलोग तो बौद्ध हैं।

कार्नेलियाः और तुम उसके ध्वंसावशेष हो। मेरे यहाँ ऐसे हीलोगों को देशद्रोही कहते हैं। तुम्हारे यहाँ इसे क्या कहते हैं?

राक्षसः राजकुमारी! मैं कृतघ्न नहीं, मेरे देश में कृतज्ञता पुरुषत्वका चिह्न है। जिसके अन्न से जीवन-निर्वाह होता है उसका कल्याण...

कार्नेलियाः कृतज्ञता पाश है, मनुष्य की दुर्बलताओं के फंदे उसेऔर भी दृढ़ करते हैं। परन्तु जिस देश ने तुम्हारा पालन-पोषण करकेपूर्व उपकारों का बोझ तुम्हारे ऊपर ड़ाला है, उसे विस्मृत करके क्या तुमकृतघ्न नहीं हो रहे हो? सुकरात का तर्क तुमने पढ़ा है?

राक्षसः तर्क और राजनीति में भेद है, मैं प्रतिशोध चाहता हूँ।राजकुमारी! कर्णिक ने कहा है -

कार्नेलियाः कि सर्वनाश कर दो! यदि ऐसा है, तो मैं तुम्हारीराजनीति नहीं पढ़ना चाहती।

राक्षसः पाठ थोड़ा अवशिष्ट है। उसे भी समाप्त कर लीजिए,आपके पिता की आज्ञा है।

कार्नेलियाः मैं तुम्हारे उशना और कर्णिक से ऊब गयी हूँ, जाओ!

(राक्षस का प्रस्थान)

कार्नेलियाः एलिस! इन दिनों जो ब्राह्मण मुझे रामायण पढ़ाता था,वह कहाँ गया? उसने व्याकरण पर अपनी नयी टिप्पणी प्रस्तुत की है।वह कितना सरल और विद्वान है।

एलिसः वह चला गया राजकुमारी।

कार्नेलियाः बड़ा ही निर्लोभी सच्चा ब्राह्मण था। (सिल्यूकस काप्रवेश) - अरे पिताजी!

सिल्यूकसः हाँ बेटी! अब तुमने अध्ययन बन्द कर दिया, ऐसाक्यों? अभी वह राक्षस मुझसे कह रहा था।

कार्नेलियाः पिताजी! उसके देश ने उसका नाम कुछ समझ करही रक्खा है - राक्षस! मैं उससे डरती हूँ।

सिल्यूकसः बड़ा विद्वान है बेटी! मैं उसे भारतीय प्रदेश का क्षत्रपबनाऊँगा।

कार्नेलियाः पिताजी! वह पाप की मलिन छाया है। उसकी भँवोंमें कितना अन्धकार है, आप देखते नहीं। उससे अलग रहिए। विश्रामलीजिए। विजयों की प्रवंचना में अपने को न हारिए। महाप्वाकांक्षा केदाँव पर मनुष्यता सदैव हारी है। डिमास्थनीज ने...

सिल्यूकसः मुझे दार्शनिकों से तो विरक्ति हो गयी है। क्या हीअच्छा होता कि ग्रीस में दार्शनिक न उत्पन्न हो कर, केवल योद्धा ही होता!

कार्नेलियाः सो तो होता ही है। मेरे पिता किससे कम वीर हैं।मेरे विजेता पिता! मैं भूल करती हूँ, क्षमा कीजिए।

सिल्यूकसः यही तो मेरी बेटी! ग्रीक रक्त वीरता के परमाणु सेसंगठित है। तुम चलोगी युद्ध देखने? सिन्धु-तट के स्कन्धावार में रहना।

कार्नेलियाः चलूँगी।

सिल्यूकसः अच्छा तो प्रस्तुत रहना। आम्भीक - तक्षशिला काराजा - इस युद्ध में तटस्थ रहेगा, आज उसका पत्र आया है। और राक्षसकहता था कि चाणक्य - चन्द्रगुप्त का मंत्री - उससे क्रुद्ध हो कर कहींचला गया है। पंचनद में चन्द्रगुप्त का कोई सहायक नहीं! बेटी, सिकन्दरसे बड़ा साम्राज्य - उससे बड़ी विजय! कितना उज्ज्वल भविष्य है।

कार्नेलियाः हाँ पिताजी।

सिल्यूकसः हाँ पिताजी। - उल्लास की रेखा भी नहीं - इतनीउदासी! तू पढ़ना छोड़ दे। मैं कहता हूँ कि तू दार्शनिक होती जा रहीहै - ग्रीक-रत्न!

कार्नेलियाः वही तो कह रही हूँ। आप ही तो कभी पढ़ने केलिए कहते हैं, कभी छोड़ने के लिए।

सिल्यूकसः तब ठीक है, मैं ही भूल कर रहा हूँ।

(प्रस्थान)

(पथ में चन्द्रगुप्त और सैनिक)

चन्द्रगुप्तः पंचनद का नायक कहाँ है?

एक सैनिकः वह आ रहे हैं, देव!

(नायक का प्रवेश)

नायकः जय हो देव!

चन्द्रगुप्तः सिंहरण कहाँ है?

(नायक विनम्र होकर पत्र देता है, पत्र पढ़कर उसे फाड़ते हुए)

चन्द्रगुप्तः हूँ! सिंहरण इस प्रतीक्षा में है कि कोई बलाधिकृत जायतो वे अपना अधिकार सौंप दें। नायक! तुम खड्‌ग पकड़ सकते हो, औरउसे हाथ में लिए सत्य से विचलित तो नहीं हो सकते? बोलो, चन्द्रगुप्तके नाम से प्राण दे सकते हो? मैंने प्राण देनेवाले वीरों को देखा है।चन्द्रगुप्त युद्ध करना जानता है। और विश्वास रक्खो, उसके नाम काजयघोष विजयलक्ष्मी का मंगल-गान है। आज से मैं ही बलाधिकृत हूँ,मैं आज सम्राट नहीं, सैनिक हूँ। चिन्ता क्या? सिंहरण और गुरुदेव नसाथ दें, डर क्या! सैनिकों! सुन लो, आज से मैं केवल सेनापति हूँ,और कुछ नहीं। जाओ, यह लो मुद्रा और सिंहरण को छुट्टी दो। कहदेना कि तुम दूर खड़े होकर देख लो सिंहरण! चन्द्रगुप्त कायर नहीं है।जाओ।

(नायक जाने लगता है।)

चन्द्रगुप्तः ठहरो। आम्भीक की क्या लीला है?

नायकः आम्भीक ने यवनों से कहा है कि ग्रीक-सेना मेरे राज्यसे जा सकती है, परन्तु युद्ध के लिए सैनिक न दूँगा, क्योंकि मैं उन परस्वयं विश्वास नहीं करता।

चन्द्रगुप्तः और वह कर भी क्या सकता था, कायर! अच्छाजाओ, देखो, वितस्ता के उस पार हम लोगों को शीघ्र पहुँचना चाहिए।तुम सैन्य लेकर मुझसे वहीं मिलो।

(नायक का प्रस्थान)

एक सैनिकः मुझे क्या आज्ञा है, मगध जाना होगा?

चन्द्रगुप्तः आर्य शकटार को पत्र देना, और सब समाचार सुनादेना। मैंने लिख तो दिया है, परन्तु तुम भी उनसे इतना कह देना किइस समय मुझे सैनिक और शस्त्र तथा अन्न चाहिए। देश में डौंडी फेरदें कि आर्यावर्त में शस्त्र ग्रहण करने में जो समर्थ हैं, सैनिक हैं औरजितनी सम्पपि है, युद्ध-विभाग की है। जाओ।

(सैनिक का प्रस्थान)

दूसरा सैनिकः शिविर आज कहाँ रहेगा देव?

चन्द्रगुप्तः अश्व की पीठ पर सैनिक! कुछ खिला दो, और अश्वबदलो। एक क्षण विश्राम नहीं। हाँ ठहरो तो, सब सेना-निवेशों में आज्ञा-पत्र भेज दिये गये?

दूसरा सैनिकः हाँ देव!

चन्द्रगुप्तः तो अब मैं बिजली से भी शीघ्र पहुँचना चाहता हूँ।चलो, शीघ्र प्रस्तुत हो।

(सबका प्रस्थान)

चन्द्रगुप्तः (आकाश की ओर देखकर) अदृष्ट! खेल न करना!चन्द्रगुप्त मरण से अधिक भयानक को आलिंगन करने के लिए प्रस्तुत है!विजय - मेरे चिर सहचर!

(हँसते हुए प्रस्थान)

(ग्रीक-शिविर)

कार्नेलियाः एलिस! यहाँ आने पर जैसे मन उदास हो गया है।इस संध्या के दृश्य ने मेरी तन्मयता में एक स्मृति की सूचना दी है।सरला संध्या, पक्षियों के नाद से शान्ति को बुलाने लगी है। देखते-देखते,एक-एक करके दो-चार नक्षत्र उदय होने लगे। जैसे प्रकृति, अपनी सृष्टिकी रक्षा, हीरों की कील से जड़ी हुई काली ढाल लेकर कर रही है औरपवन किसी मधुर कथा का भार लेकर मचलता हुआ जा रहा है। यहकहाँ जाएगा एलिस?

एलिसः अपने प्रिय के पास!

कार्नेलियाः दुर! तुझे तो प्रेम-ही-प्रेम सूझता है।

(दासी का प्रवेश)

दासीः राजकुमारी! एक स्त्री बन्दी होकर आयी है।

कार्नेलियाः (आश्चर्य से) तो उसे पिताजी ने मेरे पास भेजा होगा,उसे शीघ्र ले आओ।

(दासी का प्रस्थान, सुवासिनी का प्रवेश)

कार्नेलियाः तुम्हारा नाम क्या है?

सुवासिनीः मेरा नाम सुवासिनी है। मैं किसी को खोजने जा रहीथी, सहसा बन्दी कर ली गयी। वह भी कदाचित्‌ आपके यहाँ बन्दी हो!

कार्नेलियाः उसका नाम?

सुवासिनीः राक्षस।

कार्नेलियाः ओहो, तुमने उससे ब्याह कर लिया है क्या? तब तोतुम सचमुच अभागिनी हो!

सुवासिनीः (चौंककर) ऐसा क्यों? अभी तो ब्याह होने वाला है,क्या आप उसके सम्बन्ध में कुछ जानती हैं?

कार्नेलियाः बैठो, बताओ, तुम बन्दी बनकर रहना चाहती हो यामेरी सखी? झटपट बोलो!

सुवासिनीः बन्दी बनकर तो आयी हूँ, सखी हो जाऊँ तोअहोभाग्य!

कार्नेलियाः प्रतिज्ञा करनी होगी कि मेरी अनुमति के बिना तुमब्याह न करोगी!

सुवासिनीः स्वीकार है।

कार्नेलियाः अच्छा, अपनी परीक्षा दो, बताओ, तुम विवाहितास्त्रियों को क्या समझती हो?

सुवासिनीः धनियों के प्रमोद का कटा-छँटा हुआ शोभा-वृक्ष। कोईडाली उल्लास से आगे बढ़ी, कुतर दी गयी। माली के मन से सँवरे हुएगोल-मटोल खड़े रहो।

कार्नेलियाः वाह, ठीक कहा। यही तो मैं भी सोचती थी। क्योंएलिस! अच्छा, यौवन और प्रेम को क्या समझती हो?

सुवासिनीः अकस्मात्‌ जीवन-कानन में, एक राका-रजनी की छायामें छिप कर मधुर वसन्त घुस आता है। शरीर की सब क्यारियाँ हरी-भरी हो जाती हैं। सौन्दर्य का कोकिल ‘कौन?’ कहकर सब को रोकनेटोकने लगता है, पुकारने लगता है। राजकुमारी! फिर उसी में प्रेम कामुकुल लग जाता है, आँसू-भरी स्मृतियाँ मकरंद-सी उसमें छिपी रहती हैं।

कार्नेलियाः (उसे गले लगाकर) आह सखी! तुम तो कवि हो।तुम प्रेम करना जानती हो और जानती हो उसका रहस्य। तुमसे हमारीपटेगी। एलिस! जा, पिताजी से कह दे, कि मैंने उस स्त्री को अपनीसखी बना लिया।

(एलिस का प्रस्थान)

सुवासिनीः राजकुमारी! प्रेम में स्मृति का ही सुख है। एक टीसउठती है, वही तो प्रेम का प्राण है। आश्चर्य तो यह है कि प्रत्येक कुमारीके हृदय में वह निवास करती है। पर, उसे सब प्रत्यक्ष नहीं कर सकतीं,सबको उसका मार्मिक अनुभव नहीं होता।

कार्नेलियाः तुम क्या कहती हो?

सुवासिनीः वही स्त्री-जीवन का सत्य है। जो कहती है कि मैंनहीं जानती- वह दूसरे को धोखा देती ही है, अपने को भी प्रवंचित करतीहै। धधकते हुए रमणी-वक्ष पर हाथ रख कर उसी कम्पन में स्वरमिलाकर कामदेव गाता है। और राजकुमारी! वही काम-संगीत की तानसौन्दर्य की रंगीन लहर बन कर, युवतियों के मुख में लज्जा और स्वास्थ्यकी लाली चढ़ाया करती है।

कार्नेलियाः सखी! मदिरा की प्याली में तू स्वप्न-सी लहरों कोमत आन्दोलित कर। स्मृति बड़ी निष्ठुर है। यदि प्रेम ही जीवन का सत्यहै, तो संसार ज्वालामुखी है।

(सिल्यूकस का प्रवेश)

सिल्यूकसः तो बेटी, तुमने इसे अपने पास रख ही लिया। मनबहलेगा, अच्छा तो है। मैं भी इसी समय जा रहा हूँ, कल ही आक्रमणहोगा। देखो, सावधान रहना।

कार्नेलियाः किस पर आक्रमण होगा पिताजी?

सिल्यूकसः चन्द्रगुप्त की सेना पर। वितस्ता के इश पार सेना आपहुँची है, अब युद्ध में विलम्ब नहीं।

कार्नेलियाः पिताजी, उसी चन्द्रगुप्त से युद्ध होगा, जिसके लिएउस साधु ने भविष्यवाणी की थी? वही तो भारत का राजा हुआ न?

सिल्यूकसः हाँ बेटी, वही चन्द्रगुप्त।

कार्नेलियाः पिताजी, आप ही ने मृत्यु-मुख से उसका उद्धार कियाथा और उसी ने आपके प्राणों की रक्षा की थी?

सिल्यूकसः हाँ, वही तो।

कार्नेलियाः और उसी ने आपकी कन्या के सम्मान की रक्षा कीथी? फिलिप्स का वह अशिष्ट आचरण पिताजी!

सिल्यूकसः तभी तो बेटी, मैंने साइवर्टियस को दूत बनाकरसमझाने के लिए भेजा था। किन्तु उसने उपर दिया कि मैं सिल्यूकस काकृतज्ञ हूँ, तो भी क्षत्रिय हूँ, रणदान जो भी माँगेगा, उसे दूँगा। युद्ध होनाअनिवार्य है।

कार्नेलियाः तब मैं कुछ नहीं कहती।

सिल्यूकसः (प्यार से) तू रूठ गयी बेटी। भला अपनी कन्या केसम्मान की रक्षा करने वाले का मैं वध करूँगा?

सुवासिनीः फिलिप्स को द्वंद्व-युद्ध में सम्राट्‌ चन्द्रगुप्त ने मारडाला। सुना था, इन लोगों का कोई व्यक्तिगत विरोध...

सिल्यूकसः चुप रहो, तुम! (कार्नेलिया से) बेटी, मैं चन्द्रगुप्त कोक्षत्रप बना दूँगा, बदला चुक जायगा। मैं हत्यारा नहीं, विजेता सिल्यूकसहूँ।

(प्रस्थान)

कार्नेलियाः (दीर्घ निःश्वास लेकर) रात अधिक हो गयी, चलोसो रहें! सुवासिनी, तुम कुछ गाना जानती हो?

सुवासिनीः जानती थी, भूल गयी हूँ। कोई वाद्य-यन्त्र तो आपन बजाती होंगी? (आकाश की ओर देखकर) रजनी कितने रहस्यों कीरानी है - राजकुमारी!

कार्नेलियाः रजनी! मेरी स्वप्न-सहचरी!

सुवासिनीः (गाने लगती है) -

सखे! वह प्रेममयी रजनी।

आँखों में स्वप्न बनी,

सखे! वह प्रेममयी रजनी।

कोमल द्रुमदल निष्कम्प रहे,

ठिठका-सा चन्द्र खड़ा।

माधव सुमनों में गूँथ रहा,

तारों की किरन-अनी।

सखे! वह प्रेममयी रजनी।

नयनों में मदिर विलास लिये,

उज्ज्वल आलोक खिला।

हँसती-सी सुरभि सुधार रही,

अलकों की मृदुल अनी।

सखे! वह प्रेममयी रजनी।

मधु-मन्दिर-सा यह विश्व बना,

मीठी झनकार उठी।

केवल तुमको थी देख रही-

स्मृतियों की भीड़ घनी।

सखे! वह प्रेममयी रजनी।

(युद्ध-क्षेत्र के समीप चाणक्य और सिंहरण)

चाणक्यः तो युद्ध आरम्भ हो गया?

सिंहरणः हाँ आर्य! प्रचण्डविक्रम से सम्राट ने आक्रमण किया है।यवन-सेना थर्रा उठी है। आज के युद्‌ में प्राणों को तुच्छ गिन कर वेभीम पराक्रम का परिचय दे रहे हैं। गुरुदेव! यदि कोई दुर्घटना हुई तो?आज्ञा दीजिए, अब मैं अपने को नहीं रोक सकता। तक्षशिला और मालवोंकी चुनी हुई सेना प्रस्तुत है, किस समय काम आवेगी?

चाणक्यः जब चन्द्रगुप्त की नासीर सेना का बल क्षय होने लगे औरसिन्धु के इस पार की यवनों की समस्त सेना युद्ध में सम्मिलत हो जाय,उस समय आम्भीक आक्रमण करे। और तुम चन्द्रगुप्त का स्थान ग्रहण करो।दुर्ग की सेना सेतु की रक्षा करेगी, साथ ही चन्द्रगुप्त को सिन्धु के उस पारजाना होगा - यवन-स्कन्धावार पर आक्रमण करने! समझे?

(सिंहरण का प्रस्थान)

(चर का प्रवेश)

चरः क्या आज्ञा है?

चाणक्यः जब चन्द्रगुप्त की सेना सिन्धु के उस पार पहुँच जाय,तब तुम्हें ग्रीकों के प्रधान-शिविर की ओर उस आक्रमण को प्रेरित करनाहोगा। चन्द्रगुप्त के पराक्रम की अग्नि में घी डालने का काम तुम्हारा है।

चरः जैसी आज्ञा (प्रस्थान)

(दूसरे चर का प्रवेश)

चरः देव! राक्षस प्रधान-शिविर में है।

चाणक्यः जाओ, ठीक है। सुवासिनी से मिलते रहो।

(दोनों का प्रस्थान)

(एक ओर से सिल्यूकस, दूसरी ओर से चन्द्रगुप्त)

सिल्यूकसः चन्द्रगुप्त, तुम्हें राजपद की बधाई देता हूँ।

चन्द्रगुप्तः स्वागत सिल्यूकस! अतिथि की-सी तुम्हारी अभ्यर्थनाकरने में हम विशेष सुखी होते, परन्तु क्षात्र-धर्म बड़ा कठोर है। आर्यकृतघ्न नहीं होते। प्रमाण यही है कि मैं अनुरोध करता हूँ, यवन-सेना बिनायुद्ध के लौट जाय।

सिल्यूकसः वाह! तुम वीर हो, परन्तु मुझे भारत-विजय करनाही होगा। फिर चाहे तुम्हीं को क्षत्रप बना दूँ।

चन्द्रगुप्तः यही तो असम्भव है। तो फिर युद्ध हो।

(रण-वाद्य, युद्ध, लड़ते हुए उन लोगों का प्रस्थान, आम्भीक केसैन्य का प्रवेश)

आम्भीकः मगध-सेना प्रत्यावर्तन करती है। ओह, कैसा भीषणयुद्ध है। अभी ठहरें? अरे, देखो कैसा परिवर्तन! यवन सेना हट रही है,लो, वह भागी।

(चर का प्रवेश)

चरः आक्रमण कीजिए, जिसमें सिन्धु तक यह सेना लौट नसके। आर्य चाणक्य ने कहा है, युद्ध अवरोधात्मक होना चाहिए।

(प्रस्थान)

(रण-वाद्य बजता है। लौटती हुई यवन-सेना का दूसरी ओर सेप्रवेश)

सिल्यूकसः कौन? प्रपंचक आम्भीक! कायर!

आम्भीकः हाँ सिल्यूकस! आम्भीक सदा प्रपंचक रहा, परंतु यहप्रवंचना कुछ महत्व रखती है। सावधान!

(युद्ध - सिल्यूकस को घायल करते हुए आम्भीक की मृत्यु।यवन-सेना का प्रस्थान। सैनिकों के साथ सिंहरण का प्रवेश।)

“सम्राट्‌ चन्द्रगुप्त की जय!”

(चन्द्रगुप्त का प्रवेश)

चन्द्रगुप्तः भाई सिंहरण, बड़े अवसर पर आये!

सिंहरणः हाँ सम्राट्‌! और समय चाहे मालव न मिलें, पर प्राणदेने का महोत्सव-पर्व वे नहीं छोड़ सकते। आर्य चाणक्य ने कहा किमालव और तक्षशिला की सेना प्रस्तुत मिलेगी। आप ग्रीकों के प्रधानशिविर का अवरोध कीजिए।

चन्द्रगुप्तः गुरुदेव ने यहाँ भी मेरा ध्यान नहीं छोड़ा! मैं उनकाअपराधी हूँ सिंहरण!

सिंहरणः मैं देख लूँगा, आप शीघ्र जाइए; समय नहीं है! मैं भीआता हूँ।

सेनाः महाबलाधिकृत सिंहरण की जय!

(चन्द्रगुप्त का प्रस्थान, दूसरी ओर से सिंहरण आदि का प्रस्थान)

(शिविर का एक अंश)

(चिन्तित भाव से राक्षस का प्रवेश)

राक्षसः क्या होगा? आग लग गयी है, बुझ न सकेगी? तो मैंकहाँ रहूँगा? क्या हम सब ओर से गये?

सुवासिनीः (प्रवेश करके) सब ओर से गये राक्षस! समय रहतेतुम सचेत न हुए।

राक्षसः तुम कैसे सुवासिनी!

सुवासिनीः तुम्हें खोजते हुए बन्दी बनायी गी। अब उपाय क्याहै। चलोगे?

राक्षसः कहाँ सुवासिनी? इधर खाई, उधर पर्वत! कहाँ चलूँ?

सुवासिनीः मैं इस युद्ध-विप्लव से घबरा रही हूँ। वह देखो, रण-वाद्य बज रहे हैं। यह स्थान भी सुरक्षित नहीं। मुझे बचाओ राक्षस -

(भय का अभिनय करती है।)

राक्षसः (उसे आश्वासन देते हुए) मेरा कर्तव्य मुझे पुकार रहाहै। प्रिये, मैं रणक्षेत्र से भाग नहीं सकता, चन्द्रगुप्त के हाथों से प्राण देनेमें ही कल्याण है! किन्तु तुमको...

(इधर-उधर देखता है, रण-कोलाहल)

सुवासिनीः बचाओ!

राक्षसः (निःश्वास लेकर) अदृष्ट! दैव प्रतिकूल है। चलोसुवासिनी!

(दोनों का प्रस्थान)

(एकाकिनी कार्नेलिया का प्रवेश)

(रण-शब्द)

कार्नेलियाः यह क्या! पराजय न हुई होती तो शिविर परआक्रमण कैसे होता? (विचार करके) चिन्ता नहीं, ग्रीक-बालिका भी प्राणदेना जानती है। आत्म-सम्मान - ग्रीस का आत्म-सम्मान जिये! (छुरीनिकालती है) तो अन्तिम समय एक बार नाम लेने में कोई अपराध है?- चन्द्रगुप्त!

(विजयी चन्द्रगुप्त का प्रवेश)

चन्द्रगुप्तः यह क्या। (छुरी ले लेता है) राजकुमारी!

कार्नेलियाः निर्दयी हो चन्द्रगुप्त! मेरे बूढ़े पिता की हत्या कर चुकेहोंगे! सम्राट्‌ हो जाने पर आँखें रक्त देखने की प्यासी हो जाती है न!

चन्द्रगुप्तः राजकुमारी! तुम्हारे पिता आ रहे हैं।

(सैनिकों के बीच में सिल्यूकस का प्रवेश)

कार्नेलियाः (हाथों में मुँह छिपाकर) आह! विजेता सिल्यूकस कोभी चन्द्रगपुत के हाथों से पराजित होना पड़ा।

सिल्यूकसः हाँ बेटी!

चन्द्रगुप्तः यवन-सम्राट्‌! आर्य कृतघ्न नहीं होते। आपको सुरक्षितस्थान पर पहुँचा देना ही मेरा कर्तव्य था। सिन्धु के इस पार अपने सेना-निवेश में आप हैं, मेरे बन्दी नहीं। मैं जाता हूँ।

सिल्यूकसः इतनी महानता!

चन्द्रगुप्तः राजकुमारी! पिताजी को विश्राम की आवश्यकता है।फिर हम लोग मित्रों से समान मिल सकते हैं।

(चन्द्रगुप्त का सैनिकों के साथ प्रस्थान, कार्नेलिया उसे देखतीरहती है।)

(पथ में साइवर्टियस और मेगास्थनीज)

साइवर्टियसः उसने तो हम लोगों को मुक्त कर दिया था, फिरअवरोध क्यों?

मेगास्थनीजः समस्त ग्रीक-शिविर बन्दी है। यह उनके मन्त्रीचाणक्य की चाल है। मालव और तक्षशिला की सेना हिरात के पथ मेंखड़ी है, लौटना असम्भव है।

साइवर्टियसः क्या चाणक्य! वह तो चन्द्रगुप्त से क्रुद्ध होकर कहींचला गया था न? राक्षस ने यही कहा था, क्या वह झुठा था

मेगास्थनीजः सब षड्‌यंत्र में मिले थे। शिविर को अरक्षितअवस्था में छोड़, बिना कहे सुवासिनी को लेकर खिसक गया। अभी भीन समझे। इधर चाणक्य ने आज मुझसे यह भी कहा है कि मुझएऔंटिगोनस के आक्रमण की भी सूचना मिली है।

(सिल्यूकस का प्रवेश)

सिल्यूकसः क्या? औंटिगोनस!

मेगास्थनीजः हाँ सम्राट्‌, इस मर्म से अवगत होकर भारतीय कुछनियमों पर ही मैत्री किया चाहते हैं।

सिल्यूकसः तो क्या ग्रीक इतने कायर हैं! युद्ध होगा साइवर्टियस।हम सब को मरना होगा।

मेगास्थनीजः (पत्र देकर) इसे पढ़ लीजिए, सीरिया परऔंटिगोनस की चढ़ाई समीप है। आपको उस पूर्व-संचित और सुरक्षितसाम्राज्य को न गँवा देना चाहिए।

सिल्यूकसः (पत्र पढ़कर विषाद से) तो वे क्या चाहते हैं?

मेगास्थनीजः सम्राट्‌! सन्धि करने के लिए तो चन्द्रगुप्त प्रस्तुतहै, परन्तु नियम बड़े कड़े हैं। सिन्धु के पश्चिम के प्रदेश आर्यावर्त कीनैसर्गिक सीमा निषध पर्वत तक वे लोग चाहते हैं। और भी...

सिल्यूकसः चुप क्यों हो गये? कहो, चाहे वे शब्द कितने हीकटु हों, मैं उन्हें सुनना चाहता हूँ।

मेगास्थनीजः चाणक्य ने एक और भी अड़ंगा लगाया है। उसनेकहा है, सिकन्दर के साम्राज्य में जो भावी विप्लव है, वह मुझे भलीभाँतिअवगत है। पश्चिम का भविष्य रक्त-रंजित है, इसलिए यदि पूर्व मेंस्थायी शान्ति चाहते हो तो ग्रीक-सम्राट्‌ चन्द्रगुप्त को अपना बन्धु बनालें।

सिल्यूकसः सो कैसे?

मेगास्थनीजः राजकुमारी कार्नेलिया का सम्राट्‌ चन्द्रगुप्त से परिणयकरके।

सिल्यूकसः अधम! ग्रीक तुम इतने पतित हो!

मेगास्थनीजः क्षमा हो सम्राट्‌! वह ब्राह्मण कहता है कि आर्यावर्तकी सम्राज्ञी भी तो कार्नेलिया ही होगी।

साइवर्टियसः परन्तु राजकुमारी की भी सम्मति चाहिए।

सिल्यूकसः असम्भव! घोर अपमानजनक!

मेगास्थनीजः मैं क्षमा किया जाऊँ तो सम्राट्‌...! राजकुमारी काचन्द्रगुपत से पूर्व-परिचय भी है। कौन कह सकता है कि प्रणय अदृश्यसुनहली रश्मियों से एक-दूसरे को न खींच चुका हो। सम्राट्‌ सिकन्दर केअभियान का स्मरण कीजिए - मैं उस घटना को भूल नहीं गया हूँ।

सिल्यूकसः मेगास्थनीज! मैं यह जानता हूँ। कार्नेलिया ने इशयुदध में जितनी बाधाएँ उपस्थित कीं, वे सब इसकी साक्षी हैं कि उसकेमन में कोई भाव है, पूर्व-स्मृति है, फिर भी - फिर भी, न जाने क्यों!वह देखो, आ रही है! तुम लोग हट तो जाओ!

(साइवर्टियस और मेगास्थनीज का प्रस्थान और कार्नेलिया काप्रवेश)

कार्नेलियाः पिताजी!

सिल्यूकसः बेटा कार्नी!

कार्नेलियाः आप चिन्तित क्यों हैं?

सिल्यूकसः चन्द्रगुप्त को दण्ड कैसे दूँ? इसी की चिन्ता है।

कार्नेलियाः क्यों पिताजी, चन्द्रगुप्त ने क्या अपराध किया है?

सिल्यूकसः हैं! अभी बताना होगा कार्नेलिया! भयानक युद्ध होगा,इसमें चाहे दोनों का सर्वनाश हो जाय!

कार्नेलियाः युद्ध तो हो चुका। अब मेरी प्रार्थना आप सुनेंगेपिताजी! विश्राम लीजिए। चन्द्रगुप्त का तो कोई अपराध नहीं, क्षमाकीजिए पिताजी! (घुटने टेकती है।)

सिल्यूकसः (बनावटी क्रोध से) देखता हूँ कि, पिता को पराजितकरने वाले पर तुम्हारी असीम अनुकम्पा है।

कार्नेलियाः (रोती हुई) मैं स्वयं पराजित हूँ। मैंने अपराध कियाहै पिताजी! चलिए, इस भारत की सीमा से दूर ले चलिए, नहीं तो मैंपागल हो जाऊँगी।

सिल्यूकसः (उसे गले लगाकर) तब मैं जान गया कार्नी, तू सुखीहो बेटी! तुझे भारत की सीमा से दूर न जाना होगा - तूम भारत कीसम्राज्ञी होगी।

कार्नेलियाः पिताजी!

(प्रस्थान)

(दाण्ड्यायन का तपोवन, ध्यानस्थ चाणक्य)

(भयभीत भाव से राक्षस और सुवासिनी का प्रवेश)

राक्षसः चारों ओर आर्य-सेना! कहीं से निकलने का उपाय नहीं।क्या किया जाय सुवासिनी!

सुवासिनीः यह तपोवन है, यहीं कहीं हम लोग छिप रहेंगे।

राक्षसः मैं देशद्रोही, ब्राह्मण-द्रोही बौद्ध! हृदय काँप रहा है! क्याहोगा?

सुवासिनीः आर्यों का तपोवन इन राग-द्वेषों से पर है।

राक्षसः तो चलो कहीं। (सामने देखकर) सुवासिनी! वह देखो- वह कौन?

सुवासनीः (देखकर) आर्य चाणक्य।

राक्षसः आर्य साम्राज्य का महामन्त्री इस तपोवन में!

सुवासिनीः यही तो ब्राह्मण की महपा है राक्षस! यों तो मूर्खोंकी निवृपि भी प्रवृपिमूलक होती है। देखो, यह सूर्य-रश्मियों का-सा रस-ग्रहण कितना निष्काम, कितना निवृपिपूर्ण है!

राक्षसः सचमुच मेरा भ्रम था सुवासिनी! मेरी इच्छा होती है किचल कर इस महात्मा के सामने अपना अपराध स्वीकार कर लूँ और क्षमामाँग लूँ!

सुवासिनीः बड़ी अच्छी बात सोची तुमने। देखो -

(दोनों छिप जाते हैं।)

चाणक्यः (आँख खोलता हुआ) कितना गौरवमय आज काअरुणोदय है! भगवान्‌ सविता, तुम्हारा आलोक, जगत्‌ का मंगल करे। मैंआज जैसे निष्काम हो रहा हूँ। विदित होता है कि आज तक जो कुछकिया, वह सब भ्रम था, मुख्य वस्तु आज सामने आयी। आज मुझे अपनेअन्तर्निहित ब्राह्मणत्व की उपलब्धि हो रही है। चैतन्य-सागर निस्तरंग हैऔर ज्ञान-ज्योति निर्मल है। तो क्या मेरा कर्म कुलाल-चक्र अपना निर्मितभाण्ड उतारकर धर चुका? ठीक तो, प्रभात-पवन के साथ सब की सुख-कामना शान्ति का आलिंगन कर रही है। देव! आज मैं धन्य हूँ।

(दूसरी ओर झाड़ी में मौर्य)

मौर्यः ढोंग है! रक्त और प्रतिशोध, क्रूरता और मृत्यु का खेलदेखते ही जीवन बीता, अब क्या मैं इस सरल पथ पर चल सकूँगा?यह ब्राह्मण आँख मूँदने-खोलने का अभिनय भले ही करे, पर मैं! असम्भवहै। अरे, जैसे मेरा रक्त खौलने लगा। हृदय में एक भयानक चेतना, एकअवज्ञा का अट्टहास, प्रतिहिंसा जैसे नाचने लगी! यह एक साधारण मनुष्य,दुर्बल कंकाल, विश्व के समूचे शस्त्रबल को तिरस्कृत किये बैठा है! रखदूँ गले पर खड्‌ग, फिर देखूँ तो यह प्राण-भिक्षा माँगता है या नहीं। सम्राट्‌चन्द्रगुप्त के पिता की अवज्ञा! नहीं-नहीं, ब्राह्महत्या होगी, हो, मेराप्रतिशोध और चन्द्रगुप्त का निष्कंटक राज्य!-

(छुरी निकाल कर चाणक्य को मारना चाहता है, सुवासिनीदौड़कर उसका हाथ पकड़ लेती है। दूसरी ओर से अलका, सिंहरण,अपनी माता के साथ चन्द्रगुप्त का प्रवेश)

चन्द्रगुप्तः (आश्चर्य और क्रोध से) यह क्या पिताजी! सुवासिनी!बोलो, बात क्या है?

सुवासिनीः मैंने देखा कि सेनापति, आर्य चाणक्य को मारना हीचाहते हैं, इसलिए मैंने इन्हें रोका।

चन्द्रगुप्तः गुरुदेव, प्रणाम! चन्द्रगुप्त क्षमा का भइखारी नहीं, न्यायकरना चाहता है। बतलाइए, पूरा विवरण सुनना चाहता हूँ, और पिताजी,आप शस्त्र रख दीजिए। सिंहरण! (सिंहरण आगे बढ़ता है।)

चाणक्यः (हँसकर) सम्राट्‌! न्याय करना तो राजा का कर्तव्य है,परन्तु यहाँ पिता और गुरु का सम्बन्ध है, कर सकोगे?

चन्द्रगुप्तः पिताजी!

मौर्यः हाँ चन्द्रगुप्त, मैं इस उद्धत ब्राह्मण का - सब की अवज्ञाकरने वाले महप्वाकांक्षी का - वध करना चाहता था। कर न सका, इसकादुःख है। इस कुचक्रपूर्ण रहस्य का अन्त न कर सका।

चन्द्रगुप्तः पिताजी, राज्य-व्यस्था आप जानते होंगे - वध केलिए प्राणदण्ड होता है, और आपने गुरुदेव का - इस आर्य-साम्राज्य केनिर्माणकर्ता ब्राह्मण का - वध करने जाकर कितना गुरुतर अपराध कियाहै!

चाणक्यः किन्तु सम्राट्‌, वह वध हुआ नहीं, ब्राह्मण जीवित है।अब यह उसकी इच्छा पर है कि वह व्यवहार के लिए न्यायाधिकरण सेप्रार्थना करे या नहीं।

चन्द्रगुप्त-जननीः आर्य चाणक्य!

चाणक्यः ठहरो देवी! (चन्द्रगुप्त से) मैं प्रसन्न हूँ वत्स! यह मेरेअभिनय का दण्ड था। मैंने आज तक जो किया, वह न करना चाहिएथा, उसी का महाशक्ति-केन्द्र ने प्रायश्चित करना चाहा। मैं विश्वस्त हूँकि तुम अपना कर्तव्य कर लोगे। राजा न्याय कर सकता है, परन्तु ब्राह्मणक्षमा कर सकता है।

राक्षसः (प्रवेश करके) आर्य चाणक्य! आप महान्‌ हैं, मैं आपकाअभिनन्दन करता हूँ। अब न्यायाधिकरण से, अपने अपराध-विद्रोह कादण्ड पाकर सुखी रह सकूँगा। सम्राट्‌ आपकी जय हो!

चाणक्यः सम्राट्‌, मुझे आज का अधिकार मिलेगा?

चन्द्रगुप्तः आज वही होगा, गुरुदेव, जो आज्ञा होगी।

चाणक्यः मेरा किसी से द्वेष नहीं, केवल राक्षस के सम्बन्ध मेंअपने पर सन्देह कर सकता था, आज उसका भी अन्त हो। सम्राट्‌सिल्यूकस आते ही होंगे, उसके पहले ही हमें अपना सब विवाद मिटादेना चाहिए।

चन्द्रगुप्तः जैसी आज्ञा।

चाणक्यः आर्य शकार के भावी जामाता अमात्य राक्षस के लिएमैं अपना मन्त्रित्व छोड़ता हूँ। राक्षस! सुवासिनी को सुखी रखना।

(सुवासिनी और राक्षस चाणक्य को प्रणाम करते हैं)

मौर्यः और मेरा दण्ड? आर्य चाणक्य, मैं क्षमा ग्रहण न करूँ,तब? आत्महत्या करूँगा!

चाणक्यः मौर्य! तुम्हारा पुत्र आज आर्यावर्त का सम्राट्‌ है - अबऔर कौन-सा सुख तुम देखना चाहते हो? काषाय ग्रहण कर लो, इसमेंअपने अभिमान को मारने का तुम्हें अवसर मिलेगा। वत्स चन्द्रगुप्त! शस्त्रदो आमात्य राक्षस को!

(मौर्य शस्त्र फेंक देता है। चन्द्रगुप्त शस्त्र देता है। राक्षस सविनयग्रहण करता है।)

सबः सम्राट्‌ चन्द्रगुप्त मौर्य की जय!

(प्रतिहारी का प्रवेश)

प्रतिहारीः सम्राट्‌ सिल्यूकस शिविर से निकल चुके हैं।

चाणक्यः उनकी अभ्यर्थना राज-मन्दिर में होनी चाहिए, तपोवनमें नहीं।

चन्द्रगुप्तः आर्य, आप उस समय न उपस्थित रहेंगे!

चाणक्यः देखा जायगा।

(सबका प्रस्थान)

(राज-सभा)

(एक ओर से सपरिवार चन्द्रगुप्त, और दूसरी ओर सेसाइवर्टियस, मेगास्थनीज, एलिस और कार्नेलिया के साथसिल्यूकस का प्रवेश, सब बैठते हैं।)

चन्द्रगुप्तः विजेता सिल्यूकस का मैं अभिनन्दन करता हूँ -स्वागत!

सिल्यूकसः सम्राट्‌ चन्द्रगुप्त! आज मैं विजेता नहीं, विजित सेअधिक भी नहीं! मैं सन्धि और सहायता के लिए आया हूँ।चन्द्रगुप्तः कुछ चिन्ता नहीं सम्राट्‌, हम लोग शस्त्र-विराम करचुके, अब हृदय का विनिमय...

सिल्यूकसः हाँ, हाँ, कहिए!

चन्द्रगुप्तः राजकुमारी, स्वागत! मैं उस कृपा को नहीं भूल गया,जो ग्रीक-शिविर में रहने के समय मुझे आप से प्राप्त हुई थी।

सिल्यूकसः हाँ कार्नी! चन्द्रगुप्त उसके लिए कृतज्ञता प्रगट कररहे हैं।

कार्नेलियाः मैं आपको भारतवर्ष का सम्राट्‌ देखकर कितनी प्रसन्नहूँ।

चन्द्रगुप्तः अनुगृहीत हुआ (सिल्यूकस से) औंटिगोनस से युद्धहोगा। सम्राट्‌ सिल्यूकस, गज-सेना आपकी सहायता के लिए जायगी।

हिरात में आपके जो प्रतिनिधि रहेंगे, उनसे समाचार मिलने पर और भीसहायता के लिए आर्यावर्त प्रस्तुत है।

सिल्यूकसः इसके लिए धन्यवाद देता हूँ। सम्राट्‌ चन्द्रगुप्त, आजसे हम लोग दृढ़ मैत्री के बन्धन में बँधे! प्रत्येक का दुःख-सुख, दोनोंका होगा, किन्तु अभिलाषा मन में रह जायगी।

चन्द्रगुप्तः वह क्या?

सिल्यूकसः उस बुद्धिसागर, आर्य-साम्राज्य के महामंत्री, चाणक्यको देखने की बड़ी अभिलाषा थी।

चन्द्रगुप्तः उन्होंने विरक्त होकर, शान्तिमय जीवन बिताने कानिश्चय किया है।

(सहसा चाणक्य का प्रवेश, अभ्युत्थान देखकर प्रणाम करते हैं।)

सिल्यूकसः आर्य चाणक्य, मैं आपका अभिनन्दन करता हूँ।

चाणक्यः सुखी रहो सिल्यूकस, हम भारतीय ब्राह्मणों के पाससबकी कल्याण-कामना के अतिरिक्त और क्या है, जिससे अभ्यर्थना करूँ?

मैं आज का दृश्य देखकर चिर-विश्राम के लिए संसार से अलग होनाचाहता हूँ।

सिल्यूकसः और मैं सन्धि करके स्वदेश लौटना चाहता हूँ। आपकेआशीर्वाद की बड़ी अभिलाषा थी। सन्धि-पत्र...

चाणक्यः किन्तु संधि-पत्र स्वार्थों से प्रबल नहीं होते, हस्ताक्षरतलवारों को रोकने में असमर्थ प्रमाणित होंगे। तुम दोनों ही सम्राट्‌ हो,शस्त्र-व्यवसायी हो, फिर भी संघर्ष हो जाना कोई आश्चर्य की बात नहोगी। अतएव, दो बालुका-पूर्ण कगारों के बीच में एक निर्मल-स्रोतस्विनीका रहना आवश्यक है।

सिल्यूकसः सो कैसे?

चाणक्यः ग्रीस की गौरव-लक्ष्मी कार्नेलिया को मैं भारत कीकल्याणी बनाना चाहता हूँ। यही ब्राह्मण की प्रार्थना है।

सिल्यूकसः मैं तो इससे प्रसन्न ही हूँगा, यदि...

चाणक्यः यदि का काम नहीं, मैं जानता हूँ, इसमें दोनों प्रसन्नऔर सुखी होंगे।

सिल्यूकसः (कार्नेलिया की ओर देखता है, वह सलज्ज सिर झुकालेती है।) तब आओ बेटी... आओ चन्द्रगुप्त!

(दोनों ही सिल्यूकस के पास जाते हैं, सिल्यूकस उनका हाथमिलाता है। फूलों की वर्षा और जय-ध्वनि)

चाणक्यः (मौर्य का हाथ पकड़कर) चलो, अब हम लोग चलें!यवनिका