Hindi Real Stories Part 3 in Hindi Short Stories by MB (Official) books and stories PDF | आसपास चोपास - 3 हिंदी सत्य कथाएँ

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आसपास चोपास - 3 हिंदी सत्य कथाएँ

आसपास चोपास

(सत्य घटना पर आधारित कथाएं)

( 3 )

अनुक्रमणिका

1 - रोपवे - मनोज कुमार शुक्ल

2 - लाईक, कॉमेंट और शेयर - राजेश कुमार श्रीवास्तव

3 - लालच - प्रदीप मिश्र

4 - हन्ना घोड़ी - शहंशाह हुसैन

***

1 - रोपवे

मनोज कुमार शुक्ल

अगस्त माह। कभी तेज बारिश होती तो कभी थम जाती। हम वर्षा की इस आँख मिचैली से काफी परेशान थे। जबलपुर से मेरा छोटा भाई अखिलेश सपत्नीक अपनी तीन साल की नन्हीं बच्ची सोनल के साथ आया हुआ था। मेरे तीन बच्चों में एक बड़ा मनीष, सपना और गौरव को तो मानो सोनल एक गुड़िया के रूप में खेलने को मिल गई थी। सभी उसकी प्यारी मीठी तोतली बाते सुनकर खुशियाँ लूटने में मगन थे। छोटे भाई अखिलेश का अपना व्यवसाय था।पत्नी के साथ निकलने का कम ही मौका मिलता था इसलिये उसे अपने धंधा से अवकाश बहुत कम मिलता था। बड़ी मुश्किल से तीन दिन के लिये आ पाया था। उसका एक दिन रायपुर में रिश्तेदारों से मिलने जुलने में गुजर गया। दूसरे ही दिन मेरी पत्नी पल्लवी और अखिलेश की पत्नी सुनंदा ने डोंगरगढ़ चलने का प्रस्ताव रखा। देवी दर्शन के साथ-साथ मनोहारी प्राकृतिक छटा का दृश्यावलोकन। अधिकांश ने अपनी सहमति प्रगट कर दी।

इस प्रस्ताव पर मुझे छोड़ कर सभी एक मतेन थे। मेरी देवी देवताओं पर पूर्ण आस्था तो थी। पर बाप रे ...डोंगरगढ़ की चढ़ाई ...सपाट सीधी -ऊँची ... नहीं भाई ... भगवान ही बचाए । सुनते ही मेरे हाथ पाँव काँपने लगे। पैरों की पिंडलियों में असहनीय दर्द उठने लगता - हाथ पाँव फूलने लगते, चॅँकि मैं अपनी पल्लवी के साथ मैहर एवं डोंगरगढ़ की सीढ़ियाँ चढ़ चुका था। मुझ जैसे नाजुक बैंक में काम करने वाले सुख भोगी इंसान के लिये तो मिरजारपुर की माँ विंध्यवासिनी के दर्शन ही बड़े भले लगते हैं। मैं छुट्टी न मिलने के बहाने बनाकर अपनी जान बचाते फिर रहा था। तभी भोली-भाली नन्ही मासूम सोनल जो मुझे काफी देर से घूर-घूर कर देखे जा रही थी, तुतलाहट भरे मासूम अंदाज में अपने नन्हें हाथों को मटका कर बोली -

‘‘ अले... क्या ताऊ जी ... सीली तढ़ने से डलते हैं। मेले साथ मेली ऊँगली पकल तड़ना ताऊ जी !... मैं साली की साली ... सीली तड़ा दँगी ...’’ यह सुनकर सभी खिलखिलाकर हँस पड़े। सबकी नजरें मेरी ओर लगी थीं। मैं निःसहाय सा असमंजस में पड़ गया था। तभी मेरी बेटी सपना ने कान में कहा -

‘‘ पापाजी ! आप चिंता क्यों करते हैं ? आजकल वहाँ रोपवे चलते हैं। सर्र से ऊपर..., सर्र से नीचे...। पिछले बार में मामा जी के साथ गयी थी। कोई तकलीफ नहीं हुई। ’’ यह सुनते ही मुझमें एक साहस का संचार हुआ और एक शक्ति सी आ गई। अपने सभी बहाने के हथियार डाल कर, सहर्ष चलने की सहमति दे दी।

अब हम सभी कार्यक्रम की रूपरेखा बनाने में जुट गए। सुबह पाँच बजे की ट्रेन पकड़ने के लिये चार बजे उठना। नहा धोकर घर से निकलना। स्टेशन तक रिक्शे का जुगाड़ करना। रास्ते के लिये नाश्ता व खाने की व्यवस्था आदि अनेकों प्रश्न एक साथ उठ खड़े हुये। सभी की अलग अलग ड्यूटी लगा दी गई। कब रात्रि के दस बज गये, पता ही नहीं चला। किचिन से आ रही बर्तनों व हँसी ठहाकों के बीच दीवार घड़ी ने संगीत मय टन...टन... की ध्वनि से सबको आकर्षित कर चैंका दिया। रात्रि के बारह बज गये थे। समय बड़ी तेजी से भाग रहा था। मैं सभी को सुबह चार बजे उठने की सलाह देकर स्वयं शयन कक्ष में सोने को चला गया।

टेबल घड़ी ने अपने वायदे के मुताबिक सुबह के चार बजे ही अपनी कर्कश अलार्म बजा दी। नींद में डूबे हुए लोग बिस्तर से उठने को मजबूर हो गये। सभी अपनी अधखुली आँखों से यंत्रवत नित्य क्रिया कलापों में जुट गए थे। घर के बच्चों को बिस्तर से उठा-उठाकर बैठाने की बार-बार प्रक्रिया ने झुंझलाहट शोर शराबे और तनावों की ध्वनि तरंगों को और तेज कर दिया था। रिक्शे की तलाश से लेकर स्टेशन के प्लेटफार्म तक पहुंचते -पहुंचते जैसे सब कुछ शांत हो गया था। चँकि सुबह डोंगरगढ़ जाने वाली वह गाड़ी तीन घंटे लेट चल रही थी।इतनी मेहनत मशक्कत की पर सब बेकार लगने लगा था, पर कर भी क्या सकते थे। अगर हम लोग लेट हो जाते तो गाड़ी थोड़े ही हमारे लिये रूक सकती थी।यह एक सत्य था।

प्लेटफार्म में इतना लम्बा समय काटना अक्सर लोगों के लिए बड़ा मुश्किल कार्य होता है। हम सभी अपने अतीत को वर्तमान में खड़ा करके कभी उसका पुनरावलोकन करके, तो कभी किसी का छिद्रान्वेषण करके समय काटने में लग गये।रात्रि की तैयारी से लेकर सुबह की भागम-भाग तक एक दूसरे के क्रिया- कलापों का लेखा-जोखा बनाने में किसी लेखाप्रवर समिति की भांति जुट गए थे। बीच -बीच में सोनल अपनी उपेक्षा पर अपनी तोतली बातों से सबका ध्यान आकर्षित कर हंसाने व गुदगुदाने का कार्य करती रही। प्लेटफार्म पर आती ट्रेन की सीटी ने जैसे सभी की बातों में ब्रेक लगा दी हो। सभी पूर्वर्निधारित अपने -अपने हाथों में सामानों को थामे ट्रेन के अंदर घुसने में व्यस्त हो गये।

ट्रेन अंततः एक लम्बी सीटी बजाकर रवाना हुयी। उसके संग वह प्लेटफार्म पीछे छूटने लगा। खड़े रिश्तेदार अपने चिरपरिचितो को हाथ हिला हिला कर बिदा कर रहे थे। दौड़ते-भागते, गाँव-शहर। खेत खलिहान। सड़के-पगडंडियाँ। खम्बे- पहाड़। झाड़- झाड़ियाँ । नदी- नाले। हम सभी खिड़की से देखते जा रहे थे। महिलाओं का तो अपना एक संसार अलग होता है। सुनंदा और पल्लवी दोनो अपनी घरेलू बातों में मग्न थीं। चलती रेल की खिड़की से झांकती सोनल की बाल सुलभ जिज्ञासा जागती और -

‘‘ताऊ जी.... ताऊ जी ....’’

‘‘ये थब क्यों भाग लहे हैं ?’’

मैंने कहा -ये सब हमारी सोनल के साथ-साथ जाने को दौड़ रहे हैं।

‘‘ताऊ जी.... ताऊ जी ....वो क्या कल लहे हैं ?’’

मैंने कहा -वो खेतों में काम कर रहे हैं।

‘‘ताम क्यों कलते हैं, ताऊ जी...?’’

मैंने कहा -उससे फसल पैदा होती है। जिसे हम सभी खाते हैं और अपने पेट की भूख मिटाते हैं।

जैसे अनेक प्रश्न किए जा रही थी। हमारे उत्तरों से उसके प्रश्नों का समाधान होता था या नहीं। मैं नहीं जानता किन्तु वह उत्तर के बाद ‘‘अच्छा’’ कहकर मुझे संतुष्टि का बोध अवश्य कराती जाती थी।

तभी ट्रेन में एक खिलौने वाला अपने मुँह को फुलाकर पुंगी से शोर मचाता प्रकट हुआ और सोनल के सामने ही खड़ा होकर जोर- जोर से बजाने लगा। जिसमें उसको सफलता मिली। सोनल अपने पापा के पीछे पड़ गयी।

‘‘पापा... पापा...हमको भी पुंगी ले दो ना ...।’’

अखिलेश ने कहा - नहीं.. तू मेरे सामने हरदम शोर मचाएगी और सबको परेशान करेगी।

‘‘थत् पापा..., हम सोल नहीं मताएँगे ..., तब आप थो दाएँगे ...तब बदाँएँगे ...। ले दो न पापा ... ले दो न पापा ... ले दो न ताई जी ...।’’

उसकी इस बात पर हम सभी हँस पड़े। आखिर पंुगी उसको लेके देनी ही पड़ी । सोनल के साथ बात करते- करते कब समय गुजर गया, मालूम ही नहीं पड़ा। गाड़ी डोंगरगढ़ प्लेटफार्म पर खड़ी थी। सामने ऊँचे पहाड़ पर मंदिर दिख रहा था। देवी माता के आस्था और विश्वास का केन्द्र बिन्दु, यह बम्बलेश्वरी देवी का मंदिर है-लोगों ने बताया। यहाँ दर्शनों को लाखों श्रद्धालु अपनी मनोकामनाएँ लेकर आते हैं, पहाड़ की चोटी पर चढ़कर अनुपम प्राकृतिक छटा को निहारते और मन ही मन आल्हादित होते हैं।

ऐसे स्थानों पर निरंतर बढ़ती भीड़ स्थानीय लोगों के जीविका का साधन भी बन जाती है। निराश्रित अपंग बूढ़े बढ़े भिक्षा माँग कर कुछ जुटाने में लग जाते हैं। होटल, दुकानोंके साथ -साथ व्यवसाय के नए- नए रूप उभर कर सामने आने लगते हैं। यही सोचते हुए हम सभी दुकानों और होटलों की लम्बी कतारों को पार करते हुए आगे बढ़ ही रहे थे कि बड़ी-बड़ी बूदों के साथ वर्षा ने मार्ग रोकना चाहा। भीजने से घबराकर पास की एक दुकान में घुस गये।

दुकानदार इतने सारे ग्राहकों को देखकर बड़ा खुश हो गया। मानों ‘‘बिल्ली के भाग्य से छींका टूटा हो।’’वर्षा को मन ही मन धन्यवाद दे रहा था। वह तुरंत लम्बी बैंच की ओर इशारा करके सभी को बैठने का आग्रह करने लगा। और ‘‘क्या लाऊँ भाई साहिब ...?’’ कह कर सामने खड़ा हो गया।

चाय का आर्डर मिलते ही वह फिर तुरंत ही लाल तूस के कपड़ों में बंधे प्रसाद, फूल- माला को खरीदने का आग्रह करने लगा। उसकी व्यवसायिक चतुराई और हम लोगों की परेशानी दोनों ने मिलकर आपसी सामंजस्य स्थापित कर लिया था। बीस मिनिट गुजर गए थे। बरसात रुकने का नाम नहीं ले रही थी।

सामने रोपवे के प्रवेश द्वार टंगा एक बोर्ड मुझको मुँह चिढ़ाता नजर आ रहा था। सभी दर्शनार्थियों से तकनीकी खराबी के कारण खेद सहित क्षमा याचना की मांग रहा था। घर के सभी लोगों की निगाहें मेरे चेहरे पर लगीं हुयीं थी मानो वह बोर्ड मेरे लियेही बना था। उस समय सबकी नजरों में मैं एक बेचारा सहानुभूति का पात्र बन गया था। किन्तु मैं भी चेहरे पर मुस्कान का मुखौटा लगाए बड़े निर्विकार भाव से वर्षा को देखे जाने का नाटक कर रहा था।क्योकि जब सिर ऊखल में दिया हो तो मुसर से क्या डरना।

‘‘ऐसी विपरीत विपत्ति को झेलने काश... घर से छाता लाए होते, तो हम लोग भी वर्षा के आनंद के साथ-साथ देवी दर्शनों का लाभ उठाते। ’’ - मेरी पत्नी पल्लवी ने कहा।

दुकानदार तो जैसे यही वाक्य सुनने को आतुर था, बोला -‘‘ बाबू जी, यहाँ छाता मिल सकता है। किराया मात्र दस रुपया। जमानत के पचास रुपया। लाऊँ....?’’

अखिलेश ने परेशानी का सहज हल मिल जाने पर खुशी प्रकट की। बोला - ‘‘ लाईए...। पर दो से क्या बनेगा, तीन मिलते तो ... ’’

दुकानदार ने उसके कथन की वास्तविकता समझी। छाता लगाए सामने बैठी भिखारिन के पास गया। कुछ धीरे से बात कर उसका छाता ले आया।

‘‘ अब तीन छातों में सब भीजनें से बच जायेंगे। ’’ - सुनंदा बोल उठी।

मैंने देखा उस वृद्धा का चेहरा खिल उठा था। हाथ का कटोरा अपने थैला में रखकर दुकानदार की बनायी छाया में आकर बैठ गयी थी। उसकी आँखों में एक नया आत्मविश्वास झलक रहा था। उसे बड़ी खुशी हुई।

छाते को तान कर हम सभी एक फर्लांग बढ़े ही थे कि एकाएक खुला आकाश हम पर ठहाका मार कर हँसता नजर आया। छातों को बंद कर इस बोझ से मुक्ति की छटपटाहट का भाव मेरे छोटे बेटे गौरव ने भांप लिया था। वह किसी मैराथन धावकों की भांति विशल बजने के इंतजार में तैयार था। इसके लिए मेरी पत्नी पल्लवी ने भूमिका बांधते हुए कहा -

‘‘ अब इन छातों को भी ढोना पड़ेगा और ऊपर से किराया भी लगेगा। गौरव प्लीज ...।’’

आदेश पाते ही गौरव दौड़ पड़ा। मेरी कल्पना में उसी क्षण उस वृद्धा भिखारिन का खिला चेहरा उदास सा दिखाई देने लगा। तभी गौरव ने आकर चतुर व्यवसायिक दुकानदार का संदेश एक सांस में सुना दिया कि ‘‘ मम्मी किराया तो लगेगा, जब लौटोगे तो किराया काट कर पैसे वापस मिल जाएँगे।’’

सुन कर मुझे मन ही मन अच्छा लगा। आकाश की इस मसखरी पर हम सभी हँसते खिलखिलाते चढ़ाई चढ़ने, सीढ़ियों के पास पहुँच गए।

तुरंत सोनल ने आकर अपने नन्हे हाथ मेरे सामने कर उँगली बढ़ा दी और बोली ‘‘ताऊ जी डलना नईं मेली उँगली अत्थे से पकल के चलना... ’’ मानों उसे अपना दिया वचन स्मरण था। उसकी बातों पर हम सभी हँस पड़े।

अभी हमारे कदम मंदिर की पहली सीढ़ी पर पड़े ही थे कि - बाबू जी ...के सम्बोधन ने वहीं रोक दिया। पीछे पलट कर देखा तो एक वृद्ध था। छोटे-बच्चों को गोद में लेकर आने-जाने की यात्रा का सहायक श्रमजीवी। इनकी भी एक जमात है -उसी का यह भी एक सदस्य था। वृद्ध ने हाथ जोड़कर दीनता भरी आवाज में याचना की -

‘‘बाबू जी ... हम सिर्फ बीस रुपए लेंगें ... इस बच्ची के ...ना, नहीं करना बाबू जी ... दो दिनो से कोई मजदूरी नहीं बनी ... इसे लेकर चढ़ेंगे तो आप थक जाएँगे ... देवी माँ आप सबका भला करे। आज रोपवे बंद है, सो आशा बंधी है बाबू जी ...’’

मैंने सुनंदा - सोनल के भाव जाने। सुनंदा प्रभावित थी सो सहमत दिखी - किन्तु सोनल ने अपनी माँ का आँचल छोड़ पीछे छिपकर विरोध का स्पष्ट संकेत दे दिया -

‘‘नईं ...सीली मैं (चढूँगी) तधूंगी... तधूंगी... तधूंगी...।’’

मेरे सामने दुविधा थी। एक तरफ सोनल का बालहठ तो दूसरी ओर यह श्रमजीवी बेबस वृद्ध।

‘‘आ जा रानी बिटिया... बाबाजी की बात मान ले ... तू जानती नहीं ... थक जाएगी। जा... बाबा जी की गोद में जा...’’ सुनंदा ने पुचकारते हुए कहा -।

पर सोनल ने बाबा की गोदी में जाने की बजाय पलभर में पाँच- छः सीढ़ियाँ चढ़कर अपनी शक्ति की विश्वसनीयता प्रकट कर दी। सुनंदा को भी अपना रुख बदलना पड़ा। ‘‘ बाबा जी छोड़िए .. यह बहुत हठी है, बात नही मानेगी। ’’

मैंने वृद्ध की ओर देखा। याचना की निष्फलता देख उसे दुख हुआ। पाँच का नोट उसकी ओर बढ़ा दिए पर उसकी सजल आँखों एवं कांपते हाथों ने उसे ग्रहण करने में असहमति दे दी।

‘‘नहीं बाबू जी ... बिना मेहनत नहीं ... उस देवी माँ की शायद यही मर्जी है...आप लोग जाइए ...आप सभी का कल्याण हो ...।’’

कुछ सीढ़ी चढ़ी सोनल ने वृद्ध के निकलते आँसू देखे तो तुरंत नीचे उतर आई। उनके करीब आकर बोली -

‘‘मत लो बाबा जी ... तुम तो मेरे दादा जी से हो ना ... वे भी ज्यादा नईं तलते ...थक जाते हैं। तुम भी थक जाओगे बाबा जी ... हैना, ताऊ जी ...हैना मम्मी... हैना पापा....।’’

बाबा जी के रूप में हमारे वृद्ध पिता की तस्वीर आँखों के सामने झूल गयी। मेरे लिये यह भावुकता की चरम सीमा थी। जेब से बीस रुपए निकाले । जबरन उसे थमा दिए, बोला -

‘‘ना नहीं करना बाबा जी ... दिल टूट जायेगा ... हमको अपना बैटा समझ कर ही इसे रख लीजिए .... इसके आगे अव़़रुद्ध कंठ ने दोनों को कुछ कहने न दिया।

बाबा ने सोनल को अपनी गोद में उठा सीनं से लगा लिया। ऐसी आत्मीयता पाकर वह भावव्ह्लि हो सोनल के सिर पर लगातार हाथ फेरे जा रहा था। उसे साक्षात् देवी समझ उसने अपने दोनों हाथ जोड़ दिये थे।

इन आत्मीय मधुर स्मृतियों के संग हम सभी के कदम माँ के मंदिर के दर्शन के लिये आगे बढ़े । पीछे पलट कर देखा वह ‘‘बाबा ’’ हमारी मंगलमय यात्रा के लिये नीचे खड़े हाथ हिलाये जा रहे थे और हम मंदिर में दर्शन के लिये आगे बढ़े जा रहे थे।…

***

2 - लाईक, कॉमेंट और शेयर

राजेश कुमार श्रीवास्तव

सुबह के साढ़े छह बजते ही मेरे स्मार्ट फोन का अलार्म बजने लगा और मेरी नींद टूट गई | सूरज का मंद प्रकाश खिड़कियों से आकर घर को उजाले से भर चुका था | सबसे पहले मैंने अपने बेड के पास ही लगे नाईट लैंप के स्विच को ऑफ किया | फिर सिराहने रखे बोतल से आधा बोतल पानी गटकने के बाद बेड से निचे उतारा और बाथरूम की ओर बढ़ा | सुबह साढ़े सात बजे मुझे ऑफिस के लिए निकलना पड़ता है इसलिए मै साढ़े छह बजे का अलार्म सेट करके बेड पर ही रख देता हूँ | मुझे फ्रेश होने के लिए टॉयलेट में पंद्रह से बीस मिनट तक बैठे रहने की आदत सी बन गई है | मेरे व्यस्ततम जीवन में इस १५ -२० मिनट का बेकार नष्ट हो जाना तब तक अखरता था जब तक मेरे पास स्मार्ट फोन नहीं था | कइयों ने मुझे टॉयलेट में न्यूजपेपर पढ़ने की सलाह दी लेकिन मुझे पेपर लेकर टॉयलेट में बैठने में घिन महशुस होता था | लेकिन जब से स्मार्ट फोन लिया हूँ मेरे इस बेकार नष्ट हो रहे समय का सदुपयोग होने लगा है | मै टॉयलेट में अपने साथ मोबाइल फोन को भी ले जाता हूँ और इस पंद्रह बीस मिनटों में फेशबुक, व्हाट्सऐप, ट्विटर मेलबॉक्स सब चेक कर लेता हूँ | "न्यूज़हंट" पर मुख्य समाचारों को भी दृष्टिपात कर लेता हूँ | मोबाइल फोन हाथ में देखते ही श्रीमती जी की जो खीच-खीच सुनना पड़ता था उससे भी मुक्ति मिल गई है | अब तो २० मिनट की जगह आधे घंटे भी कुमोट पर बैठा रहूँ तो भी नहीं अखरता | मेरे लिए तो मेरा स्मार्ट फोन अब समय बर्बाद करने का नहीं समय का सदुपयोग करने का साधन बन गया है |

आज भी जब मै टॉयलेट में प्रवेश किया तो मेरा मोबाइल फोन मेरे साथ ही था | कुमोट पर बैठते ही रोजाना की तरह की तरह सबसे पहले फेसबुक खोला | १० नोटिफिकेशन थे | इसमें से दो मेरे काम के थे | मेरे पिछली पोस्ट पर एक लाइक और एक कॉमेंट था | कॉमेंट को मैंने लाइक किया और आगे बढ़ा | मित्रों के कुछ पोस्ट थे अधिकांस सुन्दर-सुन्दर तस्बीरों के साथ सुप्रभात, गुड मॉर्निंग जैसे सन्देश ही थे | मै सबको लाइक करते हुए आगे बढ़ रहा था | कुछ सुन्दर महिलाओं और नजदीकी मित्रों को कॉमेंट में मै भी सुप्रभात और गुड मॉर्निंग लिख रहा था | स्क्रॉल करते करते अचानक मेरी नज़र एक पोस्ट पर पड़ी, लिखा था "कृपया इस पोस्ट को इग्नोर मत करना | " मेरी उत्सुकता बढ़ी मैंने कंटिन्यू किया | आगे लिखा था | "इस पोस्ट को लाइक करके कॉमेंट में जय माता दी लिखकर ज्यादा से ज्यादा लोगों में शेयर करें आज आपको कोई अच्छा न्यूज मिलेगा | इग्नोर करने वालों को अनहोनी का सामना करना पड़ सकता है | " निचे बैष्णव देवी का फोटो था | मैंने तुरंत स्क्रॉल करके उस फोटो को स्क्रीन से हटाया और आगे बढ़ गया | मैं धार्मिक प्रवृर्ति का हूँ लेकिन धर्म भीरु नहीं हूँ | मैंने ना तो उस पोस्ट को लाइक किया ना ही कॉमेंट में कुछ लिखा या इसे शेयर किया | फ्रेश होने के बाद ब्रश किया और बाथरूम से बाहर निकला | निकलकर, फोन को चार्ज करने के लिए उसे चार्जर के साथ कनेक्ट किया | फिर ना जाने क्यों मुझे उस पोस्ट को फिर से देखने की इच्छा जागृत हुई | मैंने फेसबुक खोलकर उस पोस्ट को फिर से एकबार देखा | इसे २ घंटे पहले ही मेरे एक फेसबुक मित्र के द्वारा पोस्ट किया गया था | और अब तक इसे ४० लाइक और ३७ कॉमेंट मिल चुके थे | इसे २० लोगों ने शेयर भी कर दिया था | इतनी जल्दी इतने लाइक, कॉमेंट और शेयर तो मेरे किसी भी पोस्ट को नहीं मिले थे | मैंने माता वैष्णवी को मन ही मन प्रणाम किया और उस पोस्ट पर बिना कोई प्रतिक्रिया दिए फोन को चार्ज होने के लिए रख दिया | स्नान करने के पश्चात नित्य की भाँति घर के ही मंदिर में पूजा- अर्चना करने लगा | धूपकाठी जलाकर जब माता दुर्गा को दिखा रहा तो अचानक उस पोस्ट में लिखे शब्द मेरी आँखों के सामने नाचने लगे | " इस पोस्ट को लाइक करके कॉमेंट में जय माता दी लिखकर ज्यादा से ज्यादा लोगों में शेयर करें आज आपको कोई अच्छा न्यूज मिलेगा | " हालांकि मुझे कई दिनों से कुछ अच्छा न्यूज पाने का इंतज़ार था फिर भी मैंने इसे बकवास समझ कर कोई प्रतिक्रिया नहीं दिखाई | लेकिन जैसे ही मुझे बाद का लाइन याद पड़ा जिसमे लिखा गया था " इग्नोर करने वालों को अनहोनी का सामना करना पड़ सकता है | " ने मुझे परेशान कर दिया | अनहोनी की कल्पना ने मुझ जैसे मजबूत ह्रदय वालों को भी कमजोर बना दिया | जल्दी- जल्दी पूजा समाप्त करके ऑफिस जाने के लिए तैयार होने लगा लेकिन पोस्ट के अंतिम कुछ शब्द मुझे अब तक परेशान कर रहे थे | कभी सोचता यह पब्लिसिटी स्टंट है | मुझे झांसे में नहीं आना चाहिए | फिर अनहोनी की संभावना भी मुझे उस पोस्ट को लाइक, कॉमेंट और शेयर के लिए उकसाने लगती | बड़ी अजीबोगरीब स्थिति मेरे सामने उत्पन्न हो गई थी |

खाने के टेबल पर नाश्ता लगाकर श्रीमती जी मेरा इंतजार कर रही थी | नाश्ता के लिए टेबल पर बैठकर भी मै उसी उहा-पोह में पड़ा था की मुझे इसे अन्धविश्वास मानकर इग्नोर कर देना चाहिए या फिर पोस्ट में कही गई बात को सच मानकर विश्वास कर लेना चाहिए | कहते है की अपनो के साथ परेशानियों को बांटने पर परेशानिया काम होती है | और उस खाने के टेबल पर मेरी सबसे करीबी साथी मेरी स्त्री मेरे साथ ही बैठी थी | मैंने नाश्ता करते करते इस पोस्ट की घटना को श्रीमती जी को सुनाया | उसने कहा तो कर दो ना | कर देने में क्या जाता है |

मैंने कहा-" मुझे प्रतिक्रिया देने से कोई आपत्ति नहीं है | लेकिन इससे मेरी धर्म के प्रति कमजोरी प्रदर्शित होगी | धर्म के प्रति ऐसी ही कमजोरी का कुछ लोग फ़ायदा उठाकर ठगी करते है और धर्म बदनाम होता है | " अपने श्रीमती जी परेशानी शेयर करने के बाद में स्वयं को कुछ हल्का महसूस कर रहा था | इसलिए

मैंने पोस्ट पर कोई भी प्रतिक्रिया नहीं देने का दृढ निश्चय कर लिया | मैंने अपने स्कूल के किताब में पढ़ा था की " दृढ संकल्प से दुबिधा की बढ़िया काट जाती है | " मेरी भी दुबिधा की बेड़ियाँ कट चुकी थी |

लेकिन औरते स्वभाव से ही धर्म के प्रति काफी भीरु होती है | श्रीमती जी भी जिद पर उतारू हो गई | कहने लगी " मेरी बात मानो जैसा लिखा है वैसा कर दो | नहीं करने से यदि कुछ अनहोनी हो गई तो बाद में पछताना पडेगा | ऐसे भी अपने दिन-काल कुछ अच्छे नहीं चल रहे | तुम्हे बात मान लेने से यदि कुछ अच्छा हो गया तो क्या खराबी है | "

मैंने उसे समझाना चाहा -" ऐसा कुछ नहीं होता | लोग अपनी पोस्ट को प्रचार दिलवाने के लिए ऐसा करते है | "

श्रीमती जी भी जिद पर अड़ गई और कहने लगी " यदि तुम नहीं करते तो दो मैं कर देती हूँ | " इतना कहते -कहते वह मेरे हाथ से फोन लेने के लिए अपना हाथ बढाई | अब जाकर मुझे झुकना ही पड़ा | मैंने पहले उस पोस्ट को शेयर किया फिर अपने शेयर किये पोस्ट को लाईक और कॉमेंट में लिख दिया -"कृपया ऐसे पोस्ट सेयर करके लोगों के धार्मिक भावनाओं का खिल्ली ना उड़ाया जाय | "

***

3 - लालच

प्रदीप मिश्र

राजधानी का एक नामी नर्सिग होम – मार्डेन नर्सिग होम ! क्रीम कलर में रंगी बहुमंजिली इमारत| सेंट्रल –एयर कंडीशन| हर मंजिल तक लिफ्ट से पहुचने की मुस्तैद व्यवस्था | लिफ्टमैन के टोकाटोकी के बावजूद उसमे सवार होने वालो में रोगियों के अलावा दूर दराज के शहरों से साथ आये तीमारदार कुछ जायदा ही उत्सुक दिखते थे | अब ये और बात है कि लिफ्ट फंस जाने जैसी आपात स्थिति में बाहर निकलने के लिए चीखने –चिल्लाने व बेहोश तक हो जाने वालो में भी यही लोग प्रमुख होते थे | बाहर मुख्य द्वार पर काफी ऊँचा लोहे का गेट, जिस पर काली वर्दी में तैनात ब्लैक कैट कमांडो सरीखे दिखते सिक्यूरिटी गार्ड | पार्किंग में सैकड़ो लग्जरी कारों की भरमार थी, जिसे देख रोडवेज पकड कर वहाँ पहुँचने वाले अधिकांश लोग अपना आधा आत्मविश्वास तो गेट के बाहर ही खो देते थे | वैभव का जो आतंक उनपर हावी होने लगता था, उससे उबरने के उपक्रम में जेब में सहेजकर रखी नोट की कृशकाय गड्डी को एकबार टटोलकर ही वे अन्दर घुसने का साहस जुटा पाते थे| अंदर ओपीडी में काफी चहल-पहल | डॉक्टर की प्रसिद्धि के अनुरूप मरीजो की खासी तादाद | प्रदेश के कोने-कोने से आयी | अपनी बारी की प्रतीक्षा में चौकन्नी बैठी| बैठने की विशेष व्यवस्था के तहत मुलायम, आरामदेह सोफे के कई सेट | गंभीर मरीजो के लेटने के लिए दो तीन बेड एक कोने में रखे थे | रिसेप्सन पर एक स्मार्ट, छरहरी कन्या थी, जिस पर हर आगुन्तक के नजर एकबार टिकती जरूर थी ...अब ये देखना पलभर का होता या फिर अपलक -ये देखने वाले के स्वभाव व परिवार जनित संस्कार पर निर्भर करता था | दो तीन और काउंटर थे, जिनपर ओपीडी फॉर्म देने, पर्चा बनाने और फीस जमा करने का काम निचुड़े चेहरे वाले कुछ स्त्री –पुरुष के जिम्मे था | काउंटर से कुछ फासले पर रखे अकुरियम में तैरती रंगीन-चमकीली मछलियां कंक्रीट के इस जंगल में भी आँखों को बेहद सुकून दे रही थी |

डॉक्टर के केविन के ठीक बाहर दरवाजे से सटी दीवार पर लगे सॉफ्ट बोर्ड में अखबारों की दर्जनों कटिंग लगी थी....ये सभी दूरदराज के कई इलाको में डॉक्टर द्वारा गरीबो के लिए लगाये गये निशुल्क कैम्पों के गुनगान से ओतप्रोत थी | डॉक्टर के भीतर कूट-कूट कर भरी समाजसेवा की भावना को उजागर करती एक तस्वीर ऐसी भी थी, जिसमे वह एक अत्यंत दुर्बल बूढी महिला की पीठ पर हाथ रख बड़ी आत्मीयता से उसका दुःख –दर्द सुन रहे थे| भीतर डाक्टर के केबिन के बीचो – बीच में पड़ी विशालकाय चमचमाती मेज कमरे को दो बराबर भागो में विभाजित कर रही थी | मेज के बांयी ओर आठ दस कुर्सिया पड़ी थी | मरीजो और उनके साथ आये लोगो के बैठने के लिए | मेज के दाई ओर डॉक्टर की कुर्सी थी | सिंहासन के सामान ऊंची व भव्य | कुर्सी के पीछे दीवार से सटे शीशे के दो शो केस में रखी थी तमाम ट्राफियां व प्रमाण पत्र | चिकित्सा क्षेत्र में डॉक्टर के अभूतपूर्व योगदान के गवाह- शिलालेख सरीखे| इसमें सबसे दर्शनीय थी – महामहिम के हाथो पदमश्री ग्रहण करते डॉक्टर की सुनहरे फ्रेम वाली बड़ी सी तस्वीर | सामने मेज पर एप्पल का लैपटॉप, मोबइल, शानदार टेबल लैंप आदि सुसज्जित थे | औसत कद काठी के स्थूलकाय डॉक्टर ने चर्बी से भरे अपने चेहरे पर अतिरिक्त गंभीरता ओढ़ रखी थी | एक छरहरा गोरा हीरो सा दिखने वाला जूनियर डॉक्टर सामने बैठे मरीज की केस हिस्ट्री उन्हें समझा रहा था | मरीज दोनों डाक्टरों के अंग्रेजी में हो रहे वार्तालाप को हक्का-बक्का हो सुन रहा था| सबकुछ उसकी समझ में परे था | जूनियर डॉक्टर से केस हिस्ट्री डिस्कस करने के बाद डॉक्टर ने सामने बैठे मरीज पर एक गहरी नजर डाली तो उसे लगा जैसे डॉक्टर साहब उससे कुछ पूछने जा रहे हो | वह सभंल कर बैठ गया | पर अगले पल ही वह सर झुका कर पर्चे पर कुछ लिखने लगे | बेचारा मरीज डॉक्टर को अपनी करुण व्यथा सुनाने बेक़रार बैठा बस उनका मुंह ताकता रह गया |

अस्पताल के भीतर मरीजो की भर्ती करने के लिए बनाये गए वार्ड कई श्रेणियों में विभक्त थे – आई सी यू वार्ड, प्राइवेट वार्ड, सेमी प्राइवेट वार्ड, जनरल वार्ड आदि | हैसियत के हिसाब से सुविधा पाने की सटीक व्यवस्था| यहाँ का वातावरण अपेक्षाकृत बोझिल सहमा सहमा सा था | जिंदगी से आरपार की लडाई लड़ रहे मरीजो की आँखें खौफजदा थी | पुरुष तीमारदारो के चेहरे उड़े –उड़े थे | वे दवा लाने, जांच रिपोर्ट कलेक्ट करने, कैश काउंटर पर रुपया जमा करने की भागमभाग में थे | कई महिला तीमारदारो की आँखे रोने से सूज गई थी... अक्सर घर पर मरीज की तबियत के बारे में मोबाईल पर बताते बताते जब वे फफक कर रो पड़ती, तो आस पास का माहौल बेहद गमजदा हो उठता | यही जनरल वार्ड में वह मेरे मरीज के बगल वाले बेड पर था | कई दिनों से लीवर की बेहद जटिल बीमारी से जूझता हुआ | दिखने में निपट देहाती, मटमैला धोती कुर्ता (जिनका घड़ी डिटर्जेंट संग संसर्ग हुये महीनो बीत चुके थे ) पहने | गले में अंगौछा| उभर आई हड्डियों वाले सूखे चेहरे पर अधपकी दाढ़ी और कुछ-कुछ डरावनी सी लगती बाहर को निकली पीली –पीली आँखे | पैरो में मोची के कौशल व धैर्य की कई बार परीक्षा ले चुकी एक जोड़ी टूटी फूटी निढाल चप्पले | पैरो में फटी गहरी बिवाईयां गवाह थी – उसके मेहनतकश किसान होने की ...अभावग्रस्त जीवन की |

ऐसे निरीह, पीड़ित लोगो को अस्पतालों में इधर-उधर रिरियाते दुत्कारे जाते देख न जाने क्यों भीतर एक टीस सी उठती है .....जो लोग कभी अपनी जिंदगी को गंभीरता से ले पाने की स्थिति में नहीं होते ...न वे खुद को हेल्थ इंश्योरेंस प्लान से लैस कर पाते और न ही भारी भरकम पेंशन प्लान से | हाड तोड़ मेहनत और रूखी-सूखी जो मिले उसी से बसर कर लेना, जिनके जीवन का आधार होता है | ऐसे हल्के फुल्के लोगो को अपने चपेट में भला क्यों ले लेती है, इतनी गंभीर बीमारियाँ !!! सबसे ज्यादा कोफ़्त तो तब होती है, जब गरीबो की सरकार...गरीबो के द्वार जैसे जुमले उछाल कर सत्ता में आये हमारे जनसेवक अमेरिका –ब्रिटेन –सिंगापुर कही भी जाकर अपनी बड़ी से बड़ी बीमारी को सरकारी खर्चे पर उसकी औकात दिखाकर मुस्कुराते हुए स्वदेश वापस लौटते है |

खैर, इंडोस्कोपी जांच करा कर जब वह वापस वार्ड में लौटा, तो उखड़ा हुआ था | अपने लड़को पर बिना बात के झल्ला रहा था | शाम को राउंड पर जब डाक्टर साहब आए तो वह उठ कर बैठ गया बड़ी तत्परता से |

‘...क्या बात है कोई तकलीफ है ...दर्द वगैरा …’, डॉक्टर ने बड़े शिष्ट अंदाज में पूछा |

‘…साहब हमका छुट्टी चाही .....गाव जायक है …’ वह तैयार बैठा था |

‘… क्यों ? किस हालत तुम यहाँ लाये गए थे भूल गए क्या… अभी भी तुम खतरे से बाहर नहीं हो .....वैसे अगर तुम जाना ही चाहते हो, तो भी आज रात रुक जाओ,,,, कल सुबह चले जाना तब तक ये बोतल भी चढ़ जाएगी ...’डाक्टर का स्वर अब तक स्थिर था |

‘...साहब... का खरचा लागी रात भर कय...’

‘... एक हजार रुपये बेड चार्ज और कुछ दवा...’

‘...साहेब ...बीस हजार लैय कय आयन रहा ...सब खरच होय गा दुइ दिन मा...बस पांच सव बचा है ...यही मा तीन जने कय केरवा-भारा..’ कहते कहते उसके स्वर में शारीरिक पीड़ा से कही अधिक आर्थिक पीड़ा का समावेश हो गया था |

‘...अब इसके लिए मैं क्या कर सकता हूँ ...तुम जाना चाहते हो तो जाओ, पर ऐसी हालत में तुम्हे कुछ हो गया तो मेरे हॉस्पिटल की कोई जिम्मेदारी नहीं होगी ...’ डॉक्टर ने मरीज को डराने वाले अंदाज में कहा | उसका मूड उखड चुका था|

‘...ठीक हय साहेब ...बस रहम कय के हमका जाय देव...भले हम गेट वप मरि जाई ...हाँ, गाँव पहुच जाब तव खेत पात बेच कय फिर आइब ...इलाज करावय...’ मरीज की बात सुन डॉक्टर की आँखे चमक उठी | वह सलाह देने की मुद्रा में आ गया था | पहले जैसे मुलायम अंदाज में वह बोला ...

“...तो फिर इसमें इतना परेशान होने वाली क्या बात है...अपने एक लड़के को भेज क्यों नहीं देते गाँव ...खेत बेचकर वह रुपये ले आएगा और तुम्हारा इलाज भी चलता रहेगा ...’’

“...हुहं...ये हमरे लरिके कौनव लायेक नाही हय ..हमका भरोसा नाही हय ...हजार क्य बेचिए तव पांच सव बतैहये...हम खुदये जायेक ठोक बजायक सौदा करब...’’

मरीज का ऐसा निश्चय देख डॉक्टर झुझला उठा |

“...लीवर सिरोसिस एडवांस स्टेज में है ...मौत के मुहाने पर खड़ा है, फिर भी लालच देखो इसका ...भाड़ में जाओ ...’ मन ही मन बुदबुदाता डॉक्टर दूसरे बेड की ओर बढ़ गया था |

उसका बड़ा लड़का बड़े विजयी भाव से डिस्चार्ज स्लिप लेकर वार्ड में दाखिल हुआ, तो मरीज ने सुकून की साँस ली | छोटा लड़का बैग में जल्दी –जल्दी सामान भरने लगा | चलते चलते उसने मेरी ओर इतनी आत्मीयता से देखा कि मै उसके करीब चला गया ...

“...अब चलित हय बाबू… राम.. राम..’’ कहते –कहते उसके चेहरे पर एक फीकी उदास मुस्कान खिच गयी, जिसमे यहाँ से निकल पाने का फौरी सुकून तो था, पर रफ्ता रफ्ता हाथ से फिसलती जा रही जिंदगी की गहरी टीस भी थी| बाये कंधे पर बड़ा सा चीकट बैग लादे छोटा लकड़ा उसे सहारा देता साथ चल रहा था | मंद कदमो से| बड़े लड़के ने अपने दाहिने हाथ को सिर से कुछ ऊपर उठा रखा था | उसके हाथ में ग्लूकोज की लगभग भरी बोतल थी, जो पिता के शरीर में अब भी बूँद –बूँद कर उतर रही थी |

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4 - हन्ना घोड़ी

शहंशाह हुसैन

कल्लन ने हन्ना घोड़ी को एक ज़बरदस्त चाबुक रसीद की. एक भद्दी सी गाली दी और कहा, "साली, खाना ढेर भर और काम के बखत नखरा". यह कहते हुए उसने, एक और ज़ोरदार चाबुक घोड़ी को जड़ दी. हन्ना घोड़ी अपने ऊपर होने वाली चाबुक की बौछार से यूँ बेअसर थी, मानो जैसे कुछ हुआ ही ना हो. असर लेती भी कहाँ तक, उसके लिए तो यह रोज़मर्रा की बात थी. कल्लन की गाली और चाबुक से उसका रोज़ का नाता था. फिर भी दिल ही दिल में वह कल्लन को अपनी ज़बान में खरी-खोटी सुनाने में पीछे नहीं रही. "बड़ा आया ढेर भर खाना खिलाने वाला. पहले खुद तो पेट भर खा ले, फिर मुझे ढेर भर खिलाना. भूखा-प्यासा दिन भर तांगे में रगेदता है, मेरी बिसात से कहीं ज़्यादह बोझ मुझपर लादता है. मेरी खून-पसीने की कमाई से अपना पेट पालता है और ऊपर से मुझे ही ढेर भर खाने का ताना देता है". यह कहते हुए उसने एक दुलत्ती हवा में उछाल ही दी.

कल्लन अपनी मरियल घोड़ी को हन्ना घोड़ी कहता था. वह अपनी बीबी कमरून को भी हन्ना कहकर बुलाता था. उसके लिए उन दोनों में सिर्फ इतना ही फ़र्क़ था कि एक को हन्ना घोड़ी कहता था और दूसरी को सिर्फ हन्ना. अगर एक पर दिन में चाबुक बरसाता था, तो दूसरी को रात में रौंदता था. जब वह कमरून को, ”अरी वो हन्ना” कहकर बुलाता, तो कमरून के तन-बदन में आग लग जाती, पर बेचारी करती भी तो क्या करती. कुछ बोल तो सकती नहीं थी. यह बात अलग थी कि उसका मन भी हन्ना घोड़ी की तरह उसको, यानि कल्लन को, खूब खरी-खोटी सुनाने का करता, लेकिन मजबूर थी, क्योंकि कल्लन हन्ना घोड़ी की ज़बान भले ना समझता हो, लेकिन उसकी और कल्लन की ज़बान तो एक ही थी. सो मन मसोस कर रह जाती. देखा जाए तो इस नज़रिये से उसकी हालत हन्ना घोड़ी से भी गई-गुज़री थी. लिहाज़ा ख़ामोशी ही उसका मुक़द्दर था, जिसे वह पिछले दस एक सालों से झेल रही थी.

कमरून बहुत ही कमसिन थी जब वह कल्लन के साथ ब्याह दी गयी. जबकि कल्लन उसके मुक़ाबले खूब खेला-खाया पूरा मर्द था. शुरू दिनों में तो कल्लन को देखते ही उसकी रूह काँप जाती थी. डर के मारे उसकी सिट्टी-पिट्टी गुम हो जाती. कमसिनी में तो उसको डर के अलावा किसी और बात का एहसास ही नहीं हुआ, लेकिन जैसे-जैसे उम्र बढ़ी. अक़्ल आयी, उसको अपने आप से घिन आने लगी. ”यह भी कोई ज़िन्दगी है”, वह अपने आप से कहती, ”दिन भर घर- बाहर खटना और रात में एक ऐसे शख्स के साथ सोना जिसे वह फूटी आँख भी पसंद नहीं करती थी”. और क्यों पसंद करती, सुबह-शाम की गाली-गलौज, मार-पीट और दस साल में पांच बच्चे, कुल जमा यही तो थी कल्लन की देन. और बच्चे भी हाड-मास के पुतले, जिन को देख के तरस आता था, मानो उनको खाना नसीब ही नहीं होता, और होता भी कैसे. भला कल्लन की कमाई में दो परानी वह, पांच बच्चे, कुल सात और आठवीं वह हन्ना घोड़ी. इतने लोगों के लिए पेट भर खाना जुरता तो कहाँ से. वह हर दम ग़ुस्से से भरी रहती. उसका ग़ुस्सा अगर उतरता भी तो उन्हीं निरीह बच्चों पर, जिनको अक्सर वह पहले तो झुंझलाहट में पीटती और बाद में अपनी बेबसी पर उनको सीने से चिपका कर, जी भर कर रोती और जब उसका जी हल्का हो जाता, तो बचा कर रक्खे गए पैसों में से, एक आध रुपया बच्चों को देती कि जाओ कुछ लेकर, आपस में बाँट कर खा लेना और झगड़ा मत करना. बचे भी खुश हो कर, हल्ला मचाते हुए, बाहर की तरफ ऐसे भागते, जैसे कुछ हुआ ही ना हो.

कमरून दिन रात इसी उधेड़ बुन में रहती कि किस तरह इस जंजाल से छुटकारा हासिल हो. कैसे दो जून की रोटी साथ इज़्ज़त के जुटायी जा सके, ख़ास कर अपने बच्चों के लिए. कल्लन की कमाई में तो यह मुमकिन ही नहीं था और अगर हो भी जाता, तो सुकून और इज़्ज़त की रोटी नसीब हो, इसका तो सवाल ही पैदा नहीं होता था. पर करे क्या, यह उसकी समझ से परे था. पढ़ी लिखी वह थी नहीं. उसके लिए काला अक्षर भैंस बराबर था. गुन-ढंग के नाम पर उसे कुछ सिलाई-तगाइ ज़रूर आती थी, लेकिन जिस बस्ती में वह रहती थी, उनके तन पर ढंग के कपडे तक तो रहते नहीं थे, तो वहां सिलाई-तगाइ कहाँ से मिलती. जब उसके पढ़ने लिखने के दिन थे, तब उसे कल्लन के पल्ले बाँध दिया गया, और जब से कल्लन के घर आयी, सुकून से सांस लेने की फुर्सत तो मिली नहीं, पढ़ने लिखने और गुन-ढंग सीखने की बात कौन करे. फिर वह करे क्या. कैसे इस जंजाल से छुटकारा मिले. यह सवाल उसके सामने हमेशा मुंह बाये खड़ा रहता था. आस-पास, अड़ोस-पड़ोस में भी कोई ऐसा नहीं था, जिससे वह अपने मन की बात या अपना दुःख साझा कर सकती. कुछ सलाह मशवरा कर पाती. सब अव्वल दर्जे के जाहिल और तमाशबीन थे. मर्द तो मर्द, औरतें और ज़्यादा खतरनाक थीं. किसी के घर का लड़ाई झगड़ा उनके लिए दिल बहलाने का सबसे अच्छा जरिया था. पहले हमदर्दी जताना, फिर दिन भर चटखारे ले-ले कर एक दूसरे से उसका बयान करना. ऐसे लोगों से अपने मन की बात करना, आ बैल मुझे मार वाली कहावत थी. वे पहले बड़ी हमदर्दी जताते हुए उसका दुखड़ा सुनतीं और फिर कल्लन से, उसमें खूब नमक मिर्च लगा कर बतातीं और नतीजा यह होता की मसले का हल तो अलग, कल्लन की झूठी ग़ैरत के साथ उसकी जवाँ मर्दी और जाग पड़ती, जिसका नतीजा होता, हत तेरे की धत्त तेरी. ऐसे माहौल में कमरून के पास घुट-घुट कर जीने और तिल-तिल मरने के अलावा कोई और चारा नहीं था.

इसी उलझन के दौरान उसकी मुलाक़ात बस्ती में नई-नई आयी मालती से हुई. बस्ती में नई होने के नाते, उस पर अभी बस्ती का रंग नहीं चढ़ा था. वैसे भी स्वाभाव से मालती और उसका पति शंकर दोनों, कुछ अलग से थे. जल्द ही कमरून की उनसे दोस्ती हो गई. एक दिन कमरून ने दिल पक्का कर के मालती से अपना दुखड़ा कह ही डाला. मालती से भी उसकी हालत कहाँ छुपी थी. मालती ने कुछ सोचते हुए कहा की अगर उसकी मर्ज़ी हो तो वह इसका ज़िक्र अपने पति, जो खन्ना मिल में मेट था, से करे. शायद वह उसको वहां कोई काम दिलवा सके. अंधे को क्या चाहिए दो आँखें, लेकिन कमरून ने मालती से हाथ जोड़ कर विनती की कि वह इसका ज़िक्र फिलहाल अपने पति के अलावा किसी और से न करे. बाद में अगर काम मिल गया तो फिर देखा जाएगा. मालती ने उसको दिलासा देते हुए कहा, वह परेशान न हो, उसका राज़, राज़ ही रहेगा.

एक दिन मालती ने मौक़ा महल देख कर, शंकर से कमरून की बात चलाई. पहले तो शंकर ने किसी के मामले में टांग न अड़ाने की सलाह दी, लेकिन जब मालती ने बहुत ज़ोर दिया, तो वह राज़ी हो गया कि मिल के मुनीम से, जो कि एक खड़ूस आदमी था और बिना लिए-दिए कोई काम नहीं करता था, बात कर के बताएगा. कुछ ही दिनों के बाद शंकर ने बताया कि कमरून का नसीब अच्छा है. मिल को आजकल एक बहुत बड़ा आर्डर मिला है. नये काम करने वालों की ज़रुरत है और उसने मुनीम जी से बात कर ली है, वह मज़दूरी में अपना कमीशन काट कर काम देने को तैयार है, अगर कमरून इस शर्त पर काम करने को राज़ी हो तो उसे काम मिल सकता है. मालती ने जब यह खुशखबरी उसे दी तो उसकी ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा और वह हर शर्त पर काम करने को तैयार हो गयी, उसने मालती को गले से लगा लिया, उसकी खूब अलाये-बलाए लीं और मारे ख़ुशी के उसकी आँखों में आंसू आ गए. उसे यह जान कर और ख़ुशी हुई कि मिल में काम सुबह दस से शाम पांच बजे तक ही था. यह तो और भी अच्छा था क्योकि शुरू-शुरू में कल्लन से इसे छुपाया भी जा सकता था. कल्लन तो सुबह ही निकल जाता था और रात देर गए घर आता था. उसने सबसे पहले अपने बच्चों, ख़ास कर अपनी बेटी जो उनमें सबसे बड़ी थी को अपने पाले में लिया. उन्हें सब बातें अच्छी तरह समझा और दूसरे दिन सुबह, कल्लन को रोटी-सोटी खिला-पिला कर रुख़्सत किया. बच्चों को भी खाना-पीना खिला और उन्हें सब बातें फिर से अच्छे से समझा, शंकर के साथ खन्ना मिल की तरफ रवाना हो गयी.

शंकर कमरून को लिए हुए मुनीम जी के सामने हाज़िर हुआ. उसने हाथ जोड़ते हुए मुनीम जी से कहा, "यही कमरून है, जिसके बारे में आपसे बात की थी, बहुत परेशान है बेचारी, कुछ दया-मया हो जाये, इसके बच्चे आपको दुआ देंगे. "मुनीम, जो कि एक पकी उम्र का शख्स था, ने एक नज़र कमरून पर डाली और हूँ कहते हुए शंकर से कहा, "इसे सब समझा तो दिया है. "उसका इशारा पगार में अपने कमीशन की तरफ था. शंकर ने जल्दी से कहा, "हाँ, हाँ मुनीम जी, सब एकदम अच्छे से समझा दिया है, आप निसाखातिर रहें. "ठीक है, रवि बाबू से कह कर इस का जॉब कार्ड बनवा दे, उनसे बता देना कि हमने कहा है. "शंकर ने सर हिलाते हुए कमरून से चलने का इशारा किया. दोनों मुनीम जी को सलाम करते हुए वहां से चल दिए.

जॉब कार्ड वग़ैरह की कार्रवाई पूरी होने के बाद, शंकर उसे लेकर एक बड़े से हाल में आया, जहाँ पहले से ही बहुत से लोग काम कर रहे थे. शंकर एक मुक़ाम पर जा कर रुका और कमरून को उसका काम समझाया. "खूब अच्छी तरह देख-भाल कर काम करना. गलती न हो. अगर कहीं कोई परेशानी हो, तो मैं सामने वाले हॉल में हूँ, आकर पूछ लेना. कमरून ने हाँ में सर हिलाया. शंकर जाने लगा तो कमरून ने, रुंधे गले से कहा, “शंकर भैय्या, आपका यह एहसान हम कभी नहीं भूलेंगे”. "ठीक है, ठीक है”, यह कहते हुए वह चला गया.

कमरून को आज मिल में काम करते एक हफ्ता हो गया था. मिल में मज़दूरी हफ्ते-हफ्ते मिलती थी. आज पैसे मिलेंगे, यह सोच कर कमरून का दिल बल्लियों उछल रहा था. दिन बीता और वह वक़्त भी आ गया जब मुनीम जी ने अपना कमीशन काट कर उसे सत्रह सौ पचास रुपए मज़दूरी के दिए. मुनीम जब उसे मज़दूरी देने के लिए पैसे गिन रहा था, तब कमरून की अजीब हालत हो रही थी. उसके सारे जिस्म में कप- कपी सी हो रही थी. रुपए हाथ में लेते वक़्त उसके माथे पर पसीने की बूँदें साफ़ देखी जा सकती थीं. रुपए लेने के बाद वह थोड़ी देर वहीं एक मुक़ाम पर बैठी रही और जब दिल की धड़कन में कुछ सुधार हुआ तब वहां से घर की तरफ चली. धीरे-धीरे उसके बदन में ताक़त वापस आ रही थी, बल्कि हर पल एक नई चुस्ती-फुर्ती का एहसास उसको हो रहा था. उसकी चाल-ढाल में बदलाव भी साफ़ तौर पर देखा जा सकता था. उसमें अब एक अजीब तरह की मस्ती और बेफिक्री थी. बाजार से उसने अपने कमाये गए पैसों में से बच्चों के मन पसंद खाने-पीने की चीज़ें लीं और तेज़-तेज़ क़दमों से घर की तरफ चल दी.

घर पहुँच कर उसने बच्चों को अपने सीने से चिपका कर खूब प्यार किया और उनको उनके पसंद की चीज़ें खाने को दीं. बच्चे भी अच्छी चीज़ों को देख कर खाने के लिए क़रीब-क़रीब उनपर टूट ही पड़े. कमरून कमरे में गयी और सबसे पहले उसने अपनी कमाई को अपने ख़ुफ़िया ठिकाने पर रक्खा. हाथ मुंह धोया और ताक़ से मुंह देखने का शीशा उठाया और ज़िन्दगी में पहली बार अपने को शीशे में ज़रा ग़ौर से देखा और फिर खुद ही शर्मा गयी. शीशे को फिर ताक में रक्खा और धम्म से पलंग पर गिर पड़ी. टकटकी लगा कर छत को घूरती रही. इस वक़्त उसकी आँखों में ना जाने कितने ख्वाब तैर रहे थे. इसी हाल में न जाने कब, शायद थकान की वजह से या फिर दिमाग़ी सुकून की वजह से, उसकी आँख लग गई और वह ख़्वाबों की दुनिया में खो गई. बच्चों के शोर-शराबे से उसकी आँख खुली. वक़्त का अंदाजा किया और हड़बड़ा कर उठ बैठी. मुंह पर पानी की छीटें मारी और जल्दी-जल्दी रात का खाना पकाने में जुट गई.

कल्लन रात देर गए, ताड़ी के नशे में धुत्त, घर आया. यह उसका रोज़ का मामूल था. उसको इस हालत में देख कर कमरून के तन-बदन में आग सी लग गई, लेकिन मुंह से कुछ न बोली. चुप चाप कल्लन को खाना दिया. बच्चे पहले ही खाना खा कर सो चुके थे. उसने भी बच्चों के साथ ही खाना खा लिया था. कल्लन को खाना देने के बाद वह सोने चली गई. दिन भर की थकी थी जल्द ही नींद ने उसे अपनी बाँहों में जकड लिया और वह गहरी नींद में सो गयी. नींद में उसे एहसास हुआ की कोई उसे ज़ोर-ज़ोर से झंझोड़ रहा था. यह कल्लन था. उसका रोज़ का यही ढंग था. वह होश में आ चुकी थी. लेकिन चुप-चाप बनी पड़ी रही. लेकिन जब झंझोड़ना-भभोड़ना हद से ज़्यादा बढ़ा तो उसने अपनी पूरी ताक़त से कल्लन को परे धकेलते हुए कहा, "अरे हट, तड़ियल कहीं का, सोने दे". कल्लन उसके इस रूप पर भौचक्का था. बाहर हन्ना घोड़ी के भी ज़ोर से हिनहिनाने और ज़मीन पर पैर पटकने की आवाज़ आई थी.

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