बिहार की कहानियां
लेखक प्रभात रंजन
मूल्य- 60 रुपये
1.
फ़्रांसिसी रेड वाइन
चंद्रचूड़जी की दशा मिथिला के उस गरीब ब्राह्मण की तरह हो गई थी जिसके हाथ जमीन में गड़ी स्वर्णमुद्राएं लग गईं। बड़ी समस्या उठ खड़ी हुई। किसी को बताए तो चोर ठहराए जाने का डर न बताए तो सोना मिट्टी एक समान..
कभी-कभी उस दिन को कोसते जिस दिन रितेश उनके लिए विदेश से रेड वाईन की बोतल लेकर आया। उसी दिन से उनका मन तरह-तरह की कल्पनाओं में खोया रहने लगा था। तरह-तरह की योजनाएं बनाने लगा था...
चंद्रचूड़ किशोर, कैशिएर, भारतीय जीवन बीमा निगम की नेमप्लेट वाले उस छोटे से घर में उनकी दिनचर्या बड़े नियमित ढंग से चल रही थी। रोज सुबह छह बजे उठकर राधाकृश्ण गोयनका कॉलेज के ग्राउंड का एक चक्कर लगाते, घर आकर एक कप चाय के साथ दैनिक हिन्दुस्तान का नगर संस्करण मनोयोग से पढ़ते, तैयार होते, पत्नी के हाथ का बनाया नाश्ता करते...
ठीक पौने दस बजे रिक्शा पर बैठकर मेन रोड, सीतामढ़ी के अपने ब्रांच ऑफिस के लिए चल देते...
पढ़-लिखकर कुछ बनना चाहते थे। एम.ए. की पढ़ाई के लिए दिल्ली विश्वविद्यालय में फॉर्म भी भरा। मगर होनी को कौन टाल सकता है। पिताजी को एक दिन ऑफिस में ही हार्ट अटैक हुआ। मशहूर डॉक्टर बी.एन.सिन्हा के क्लिनिक में इलाज चला। लेकिन बच नहीं पाए।
पिता श्री कृष्ण किशोर एलआईसी में ब्रांच मैनेजर थे। उनके इस तरह असमय चले जाने से घर की सारी जिम्मेदारी चंद्रचूड़जी के ऊपर आ पड़ी। उच्च शिक्षा का सपना अधूरा छोड़कर उन्होंने अनुकंपा के आधार पर मिल रही नौकरी कर ली। बस एक अंतर आया। पिताजी की तरह इनको मुजफ्फरपुर में नहीं सीतामढ़ी में नौकरी मिली। मां की इच्छा थी। सीतामढ़ी पुश्तैनी गांव से नजदीक जो था। मां पिताजी के गुजर जाने के बाद से गांव में ही ज्यादा रहने लगीं। इसलिए सीतामढ़ी में नौकरी करना उनके लिए अधिक सुविधाजनक था।
कोर्ट बाजार मुहल्ले में छोटा सा घर किराए पर ले लिया। पहले अकेले रहते थे। दो साल पहले विवाह हो गया। रहना तो कुछ दिन और अकेले चाहते थे। मगर मां की इच्छा... बचपन की सहेली की बेटी सीमा से विवाह तय कर दिया। इन्होंने भी बिना ना-नुकुर के हामी भर दी। तबसे अकेलेपन से उनका रिशता टूट गया है। बीच-बीच में मां कभी पोता होने के लिए कोई मन्नत मानने, कोई पाठ रखवाने, किसी सिद्ध बाबा की जड़ी देने के लिए आती रहती हैं।
उनकी दिनचर्या भंग नहीं हो पाई थी। सब कुछ उसी तरह से चल रहा था, जो अनुकंपा के आधार पर मिली इस नौकरी के लिए सीतामढ़ी आने के बाद शुरू हुआ था। ऊंचे-ऊंचे सपने नहीं थे उनके, न उच्च शिक्षा प्राप्त न कर पाने का कोई मलाल। कहते छोटे शहर में रहने के लिए छोटा बनकर रहने में ही भलाई है। अपने दादाजी की सुनाई एक कहावत वे अक्सर सुनाया करते- संसार में अगर संतोष से जीना है तो अपने से आगेवालों को नहीं पीछेवालों को देखना चाहिए। आप पाएंगे कि बहुत सारे लोग हैं जिनकी अवस्था आपसे भी बुरी है, बहुत सारे लोग हैं जो बुनियादी सुविधाओं से भी महरूम हैं। आगे वालों को देखने से महत्वाकांक्षा पैदा होती है, जिसके पूरा न होने पर असंतोष होता है।
चंद्रचूड़जी का जीवन पहले की तरह ही संतोषपूर्वक चलता रहता अगर उनका साला रितेश फ्रांस न गया होता।
वहां से उनके लिए रेड वाईन लेकर नहीं आया होता, पेत्रूस रेड वाईन...
उनकी शादी के साल रितेश दिल्ली में कंप्यूटर का कोर्स कर रहा था, संयोग देखिए अगले साल मल्टीनेशनल कंपनी में नौकरी मिल गई... तीसरे ही साल कंपनी ने ट्रेनिंग के लिए फ्रांस भेज दिया... उनके जानने वालों में पहला आदमी था रितेश जो विदेश गया। कभी सोचा नहीं था उनका कोई इतना करीबी रिश्तेदार कभी विदेश भी जाएगा।
विदेशी के नाम पर उनके पास एक अंग्रेज की लिखी चिट्ठी थी। दादाजी के नाम की। देश की आजादी के समय दादाजी मिड्ल स्कूल में अध्यापक थे। स्कूल का प्रिंसिपल अंग्रेज था। चिट्ठी उसीने लिखी थी। अपने देश लौटकर उसने दादाजी को चिट्ठी लिखकर उनके सहयोग के लिए आभार जताया था। दादाजी से मिलने उस गांव में जो भी आता उसे वह चिट्ठी दिखाते। धीरे-धीरे आसपास के गांवों में जो भी हमार परिवार को जानता था वह इस तथ्य से भी अवगत होता था कि हमारे परिवार के किसी व्यक्ति को किसी अंग्रेज ने विलायत से चिट्ठी लिखकर हाल-समाचार पूछा था।
उस दिन चंद्रचूड़जी ने चिट्ठी संभाल कर रख ली थी जब पहली बार अखबार में यह पढ़ा कि इस तरह की सामग्री को एंटीक कहा जाता है। जिसकी संसार के बड़े-बड़े शहरों में नीलामी होती है। लोग लाखों-करोड़ों देकर ऐसे धरोहरों को खरीदते हैं। हो सकता है उस विलायती बाबू की चिट्ठी भी किसी दिन एंटीक मान ली जाए और वह भी हजारों-लाखों में नीलाम हो जाए।
एक दिन उनका कोई सगा विदेश जाएगा और उनके लिए वहां से ऐसा दुर्लभ तोहफा लेकर आएगा, ऐसा उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था।
बताया तो था पत्नी ने, रितेश कह रहा था कि वह जीजाजी के लिए स्पेशल कुछ लेकर आने वाला है। सरप्राइज...
परफ्यूम लेकर आएगा, इंडिया टीवी का समाचार देखते चंद्रचूड़जी ने मन ही मन सोचा। फ्रांसीसी सेंट लगाकर जब वे ऑफिस जाएंगे तो कोई समझ भी नहीं पाएगा किस ब्रांड का है। किसी ने कभी फ्रांसीसी सेंट लगाया हो तब ना...सोचकर उनके होंठो पर मुस्कुराहट ऐसे फैली कि देखकर पत्नी को कहना पड़ा-
क्या सोच-सोच कर मुस्की छोड़ रहे हैं...
कुछ नहीं, देख रही हो समाचार के नाम पर क्या-क्या दिखाते रहते हैं... चंद्रचूड़जी ने हड़बड़ाते हुए जवाब दिया।
केवल फ्रांसीसी परफ्यूम लेकर ही नहीं आया था रितेष। टीशर्ट, शेविंग किट, चॉकलेट और छोटे-मोटे अनेक तरह के सामान लेकर आया था।
एतना समान लाने का क्या जरूरत था, सारा सामान समेटते हुए रितेश से उन्होंने कहा।
आप एक ही तो जीजाजी हैं मेरे, आपके लिए नहीं लाता तो किसके लिए लाता। छोटा-मोटा समान सब है। हवाई जहाज में अगर सामान का वजन तीस किलो से अधिक हो जाए तो एक्स्ट्रा चार्ज करते हैं। नहीं तो कुछ बढ़िया सामान लाता।
अरे, क्या बात करते हैं रितेषजी, विदेष में तो समान बहुत महंगा भी होता है। सुनते हैं वही समान अब अपने देष में बड़ा सस्ता मिल जाता है।
नहीं जीजाजी, जो समान वहां मिलता है वह यहां कहां मिलेगा। यहां तो सारा चाइनीज माल मिलता है। उसी पर मेड इन इंगलैंड, मेड इन फ्रांस लिख देते हैं। लेकिन अंतर तो यूज करने पर ही समझ में आता है। देखिए रेड वाईन तो अब इंडिया में भी बनने लगा है...महाराष्ट्र में लोग बताते हैं सस्ता भी मिलने लगा है... लेकिन पीजिएगा न तो आपको क्वालिटी का अंतर खुद ही समझ में आ जाएगा... ऐसा वाईन तो बस फ्रांस में ही मिल सकता है। इसीलिए तो फ्रांसीसी रेड वाईन की संसार भर में बड़ी मांग है। कहावत है, वाईन बनाना और खाना खाना फ्रांसीसियों से सीखना चाहिए...
दक्षिण फ्रांस की वादियों के बेहतरीन लाल और काले अंगूरों के मिश्रण से तैयार होने वाले पेत्रूस वाइन की दक्षिण अमेरिका के देशों में बड़ी मांग है। कीमत पचास यूरो से शुरू होती... रघुनंदन साइबर कैफे, महंथ साह चौक में गूगल सर्च पर मिली इस जानकारी से उनको रोमांच हो आया था। रितेश ने फ्रांसीसी वाईन की ऐसी महिमा बखान की कि उसके जाने के बाद सबसे पहले उन्होंने साइबर कैफे में जाकर उसकी बातों की सचाई जांचने की कोशिश की... रितेश सच कह रहा था... रेड वाईन रईसों की शान समझी जाती है। हाईसोसायटी में शराब नहीं रेड वाईन परोसी जाती है। घर में तरह-तरह की रेड वाईन रखना अमीरों का नया शगल है...
साइबर कैफे से बाहर निकलकर जब वह रिक्शे का इंतजार कर रहे थे, उन्हें अचानक अपने बालसखा कैलाशपति की बात याद आ गई। उसके बारे में सब कहते कि पहले गांजा-चरस ही बेचता था अब तो दिल्ली-मुंबई में हेरोइन, कोकीन भी पार्टी लोगों को पहुंचाने लगा है। एक बार मिलने पर उन्होंने उससे पूछ लिया था। जवाब में उसने हंसते हुए कहा था, तस्करी तो नहीं करता सेवन जरूर करता हूं।
लेकिन ये सब तो ड्रग्स होते हैं, जीवन को बर्बाद करने वाले, आश्चर्य से उन्होंने कहा।
प्यारे, तुम तो नहीं पीते हो! तुम ही बता दो तुम्हारा जीवन कौन सा आबाद हो गया! पता है इनका सेवन कौन लोग करते हैं, अखबार तो पढ़ते होगे, किस-किस तरह के लोग इसके सेवन के आरोप में पकड़े जाते हैं- बड़े-बड़े फिल्म अभिनेता, क्रिकेट खिलाड़ी, फैशन डिजाइनर, बड़े-बड़े नेताओं के रिश्तेदार... अगर मैं तुम्हारी तरह कभी-कभार पत्नी के पीठ पीछे शराब पीता होता तो आज मैं भी किसी बैंक में थोड़े से पैसों के लिए नोट गिनने की नौकरी कर रहा होता। चरस पीता हूं, कोकीन चखता हूं तो समाज के बड़े-बड़े लोगों की संगत में बैठता हूं... उनकी ही मदद से एक्सपोर्ट का काम करता हूं। लोगों को लगता है तस्करी करता हूं। कभी कोकीन चखने का मन हो तो आ जाना। ईमान से, ऐसा नशा कभी किया नहीं होगा। अपनी कमाई से चाहो भी तो इसका नशा नहीं कर सकते हो तुम, समझे! रईसों का नशा है, रईसों की सोहबत में बैठकर किया जाता है।
उस दिन से उनके दिमाग में यह बात बैठ गई थी कि कोकीन का नशा ही दुनिया का सबसे महंगा नशा होता है इसीलिए अमीरों के वह शान की चीज समझी जाती है। लेकिन उस दिन उनको समझ में आया, रेड वाईन रईसों के बीच फैशनेबल समझी जाती है। और इसका सेवन कोकीन या हेरोइन की तरह छिपकर नहीं करना पड़ता...
तो कम से कम तीन हजार की है यह बोतल जो रितेश उनके लिए लेकर आया है। शराब तो कम ही पीते थे। कभी-कभार दोस्तों के साथ, कभी छुट्टी के रोज... जब पत्नी मायके जाती तो जरूर मौका देखकर अक्सर पीने लगते थे। लेकिन वैसे उनको कोई लत नहीं थी।
अपने आप पर गर्व हो रहा था उस दिन... इतनी महंगी शराब शहर में कितने लोग पीते होंगे, शराब तो हो सकता है बहुत लोग पीते हों...अफसर...नेता...ठेकेदार...डॉक्टर... ढाई-तीन हजार रुपए का मोल ही क्या रह गया है आजकल... शहर में कितने डॉक्टर हैं जिनकी रोज की प्रैक्टिस ही इससे अधिक होगी... अफसर तो अफसर कितने बाबू-किरानी ऐसे होंगे जो एक दिन में टेबल के नीचे से इससे ज्यादा रकम खिसका लिया करते होंगे... राकेश भइया, उनके मामा के लड़के, ने अपने मुंह से बताया था। परिहार ब्लॉक में बीडीओ के पीए बनकर गए उनको छह महीने हुए थे जब वे उनसे मिलने गए थे- बड़ा बढिया पोस्टिंग है... दिनभर में इतने लोग आते हैं कि पांच सौ-हजार तो सलामी में ही मिल जाते हैं। साहब से मिलवाने का अलग, फाइल पर साइन करवाने का अलग, लोन दिलवाने का अलग, वृद्धावस्था पेंशन का अलग... दिन भर में ढाई-तीन हजार तो बिना मांगे मिल जाता है...
उनका मुंह खुला रह गया था।
पैसा कोई कितना ही कमा ले रेड वाईन तो नहीं खरीद सकता, सोचकर उनको कुछ संतोष हुआ। वह भी फ्रांसीसी रेड वाईन... इंटरनेट पर उन्होंने खुद पढ़ा था कि दक्षिणी फ्रांस की वादियों के अंगूरों में खास तरह का खट्टापन लिए मिठास होती है, जिससे वहां की वाईन के स्वाद में हल्का तीखापन आ जाता है जो पीने वाले को अपने स्वाद का दिवाना बना देता है।
साइबर कैफे से रिक्शे पर बैठकर घर लौटते हुए उन्हें मन ही मन अपने आप पर गर्व हो रहा था और अपनी पत्नी पर ढेर सारा प्यार उमड़ रहा था... वह न होती तो रितेश जैसा साला नहीं होता। जिसके कारण आज वे एक ऐसी दुर्लभ वस्तु के मालिक हो गए थे जिससे शहर के गणमान्य लोगों में वे गिने जा सकते थे। रेड वाईन तो दिल्ली-मुंबई जैसे शहरों में भी कम ही लोग पी पाते हैं। यहां सीतामढ़ी में...
अगर इसके आधार पर शहर के गणमान्य लोगों की सूची तैयार की जाए कि रेड वाईन की मिल्कियत किन-किन लोगों के पास है तो चंद्रचूड़ किशोर का नाम उसमें प्रमुखता से आएगा... सोचते-सोचते वे इतने उत्तेजित हो गए कि उसी तरंग में रिक्शेवाले से बोले- जल्दी-जल्दी पैडल काहे नहीं मारता है...ऐसे चलाएगा तो कितना देर में कोर्ट बाजार पहुंचेगा...
रिक्शावाला रिक्शा रोककर पीछे मुड़कर उनको देखने लगा।
ऐसा नहीं है कि इससे पहले रेड वाईन के बारे में उन्होंने सुना ही न हो। स्कूल के दिनों का उनका एक दोस्त महाशय मुंबई में अंग्रेजी के डी अक्षर से शुरू होनेवाले टीवी सीरियल बनाने वाली एक मशहूर कंपनी में प्रोडक्सन मैनेजर बन गया था। उसने कोई साल भर पहले उनको एक कहानी सुनाई थी जिसका संबंध रेड वाईन से था...
उसने बताया कि कहीं भी शूटिंग हो प्रोडक्शन से जुड़े लोगों का काम होता है वहां का सारा इंतजाम देखना। मैं एक्टर्स का इंतजाम देखता... किस एक्टर को कब किस की जरूरत पड़ जाए इसका ध्यान रखना, कोई सुबह के नाश्ते में केवल अंडा खाता है, किसी को अंडे की सूरत से भी नफरत होती है, कोई केवल ताजे संतरे का जूस पीना पसंद करता है, कोई दूध में गाजर का जूस मिलाकर पीता है, किसी को बिना बाथटब के बाथरूम में नहाने की आदत नहीं होती, किसी को मिनरल वाटर से नहाने की आदत होती है... सबका ध्यान रखना पड़ता है... आउटडोर शूटिंग में कब कौन नाराज हो जाए और शूटिंग का शेड्यूल बिगड़ जाए...
किस्सा सुनाते हुए उसने बताया- एक बार हमलोग उतराखंड के रानीखेत में सीरियल की शूटिंग कर रहे थे... उसमें शोभित राय की मुख्य भूमिका थी। उसके साथ मैंने पहले कहीं काम तो किया नहीं था। मुझे उसकी पसंद-नापसंद के बारे में कुछ पता नहीं था। प्रोड्यूसर कंजूस नहीं था। उसने खूब बढ़िया इंतजाम कर रखा था। लेकिन शाम होते-होते माहौल ऐसा बिगड़ा कि सारा इंतजाम किसी काम नहीं आया। शूटिंग खत्म होने के बाद शाम में शोभित राय ने प्रोड्यूसर से कहा, रेड वाईन चाहिए। प्रोड्यूसर ने कहा होटल वाले ने एक से एक स्कॉच का इंतजाम कर रखा है। आज इसी से काम चलाइए, पहाड़ी इलाका है... कल किसी को शहर भेजकर मंगवा दूंगा... अंधेरा घिर रहा है... अभी किसी को भेजना खतरनाक होगा... रोड की हालत खराब है...
शोभित राय टीवी का सुपरस्टार! फैल गया। बोला मैं तो रेड वाईन के अलावा कुछ पीता भी नहीं हूं। सिर्फ पीने की बात नहीं है, मुझे तो डॉक्टर ने कह रखा है रोज शाम खाने से पहले एक बोतल रेड वाईन पीना हेल्थ के लिए बहुत अच्छा होता है। मेरी तो तबियत खराब हो जाएगी, कहकर उसने अपना कमरा अंदर से बंद कर लिया। प्रोड्यूसर ने मुझे ऑर्डर दिया, कहीं से कम से कम एक बोतल रेड वाईन लेकर आओ। एक बात जानते हो, प्रोडक्सन का आदमी बहाने नहीं बना सकता। उसे हर हाल में प्रोड्यूसर का कहा पूरा करना पड़ता है। चाहे जो हो जाए... उसने संजीदा होते हुए बताया।
रानीखेत जैसे पहाड़ी शहर में रेड वाईन! लेकिन लाना तो था ही। किसी होटल में नहीं मिला। जंगल विभाग के अफसरों के घर पुछवाया, अगर एक बोतल है तो दिलवा दीजिए, चाहे जो कीमत ले लिजिए। होता जो मिलता। मेरे प्रोडक्शन के कैरियर में पहली बार ऐसा होने जा रहा था कि प्रोड्यूसर से जाकर कहना पड़ता- काम नहीं हुआ। कहने की नौबत नहीं आई। मोटरसाइकिल से आधे रास्ते ही पहुंचा था कि गोल्फ कोर्स के मैनेजर का घर दिखाई दिया। मैंने कुछ सोचकर उसके घर के आगे गाड़ी रोक दी। मुझे लगा गोल्फ का खेल बड़े-बड़े लोग ही खेलते हैं। बड़े-बड़े लोगों का यहां आना-जाना होता होगा। क्या पता इसके पास किसी ने हिफाजत के लिए रख छोड़ा हो। पूछने पर उसने कहा, है तो एक बोतल, लेकिन पांच हजार रुपए लूंगा। मेरी जान में जान आई। शूटिंग का शेड्यूल गड़बड़ाने से रह गया।
उस दिन सोते समय चंद्रचूडजी बड़ी देर तक अभिनेता शोभित राय के ललाई लिए चेहरे के बारे में सोचते रहे और यह अनुमान लगाते रहे कि कितने दिन रेड वाईन पीने से उनका चेहरा भी ऐसे ही लाल हो जाएगा...
इतना सामान लाया था रितेश कि ऑफिस में हेड कैशियर को भी उन्होंने मेड इन फ्रांस पेन भेंट कर दिया। आखिर उनका बॉस था। इस ताकीद के साथ कि आपके लिए तो साले से बोलकर खास तौर पर मंगवाया था। आपको पेन का बहुत शौक है न। किसी को बताइएगा नहीं पेन आपको मैंने दिया है। समझ रहे हैं न! सबके लिए वहां से कुछ लाने के लिए तो कह नहीं सकता था।
आप एतना ध्यान रखते हैं मेरा। मेरा भी तो कुछ फर्ज बनता ही है न, पान रंगे दांतों को निपोरते हुए हेड कैशियर नमोनारायण जी जवाब में बोले।
ऑफिस में उनसे सब पूछते आपका साला फैशन की नगरी पेरिस गया था, वहां से क्या लेकर आया। किसी से कहते कि वहां अब पहले वाली बात नहीं रही। अब ऐसा क्या नहीं मिलता है हमारे देश में कि विदेशी सामान की बाट जोही जाए। किसी से कहते जो सामान यहां सस्ता मिलता है उसी पर मेड इन फ्रांस लिखकर वहां महंगा बेचते हैं। क्या फायदा! पूछा था उसने क्या लाऊं, मैंने ही मना कर दिया। ऑफिस के सहकर्मी कहां मानने वाले थे। वे भी रोज-रोज पूछते। आखिर इस पूछापूछी से तंग आकर एक दिन वे घर से चॉकलेट लेकर आए और ऑफिस में सबको बांट दिया।
बताना चाह रहे थे कि उनका साला उनके लिए फ्रांस से असली रेड वाईन लेकर आया है। फिर सोचते क्या पता कोई ठीक से समझ ही न पाए रेड वाईन का क्या मतलब होता है। ऑफिस में काम करने वाले बाबू-किरानी क्या समझ पाएंगे रेड वाईन की शान को। यही सोचकर सबको बताने का फैसला मुल्तवी कर उन्होंने चॉकलेट बांटने का फैसला किया।
एक दिन रितेश के बचपन का दोस्त जयदेव मिलने आया। मर्चेंट नेवी में अफसर था। बोला छुट्टी में आया था, सोचा दीदी से भी मिल लूं। उसके आने पर पत्नी ने उनको एक कोने में ले जाकर कहा, जयदेव मेरे लिए रितेश से कम नहीं है। इसका खातिरबात जरा ठीक से करना है। मौसी की बेटी से इसकी शादी की बात भी चल रही है। क्या पता कल को आपका साढूभाई ही हो जाए, कहकर पत्नी मुस्कुराते हुए किचेन में चली गई। अपने सगे से भी बढ़कर भाई के लिए खाना जो बनाना था।
चंद्रचूड़जी ने सोचा जब इतना ही खास भाई है तो क्यों न इसका स्वागत रेड वाईन से किया जाए। बोतल निकालने जा ही रहे थे, सोचा पहले जयदेव से पूछ लिया जाए। उसके पास जाकर बैठ गए और धीरे से बोले- रितेशजी फ्रांस से एक बोतल रेड वाईन लेकर आए थे। मुझे इसका कुछ ज्यादा शौक तो है नहीं। ले आता हूं, आपके साथ थोड़ा बहुत मैं भी चख लूंगा...
जयदेव ने साफ मना कर दिया।
बोला, पिछले साल मेरा जहाज यूरोप में ही घूमता रहा। वहां तो पानी की तरह वाईन पी जाती है। खाने के साथ वहां लोग पानी नहीं वाईन पीते हैं। वाईन पी-पी कर मैं ऊब चुका हूं। वहां तो आम आदमी भी वाईन ही पीता है। लेकिन अपने देश में वाईन को बड़े लोगों का शौक समझा जाता है। बड़े-बड़े अफसर-मंत्रियों को अगर ऊपहार में वाईन दिया जाए, वह भी विदेशी तो काम होने की संभावना बढ़ जाती है। मेरा एक दोस्त है। रेलवे में अफसर है। उसकी पोस्टिंग बहुत दिनों से दूर-दराज के इलाकों में हो रही थी। किसी अच्छे शहर में तबादले के लिए वह खूब कोशीश कर रहा था। लेकिन कुछ हो नहीं पा रहा था। उसे किसी ने बताया कि चेयरमैन केवल पैसे से ही प्रभावित नहीं होता। वह वाईन का बहुत शौकीन है। अगर वाईन के साथ उससे मिलो तो शायद कुछ काम बन जाए।
उसने मुझसे बात की। संयोग से मैं यूरोप से लौटा ही था। मेरे पास इटली की रेड वाईन थी। उसे चार-पांच बोतल भिजवा दिए। अगले सप्ताह फोन आया कि चेयरमैन ने उसके दिल्ली तबादले का आदेश दे दिया है। दिल्ली में तो कहा जाता है कि किसी को खुश करना हो तो उसे रेड वाईन तोहफे में देना चाहिए। कितनी भी महंगी शराब आप किसी को दें उसमें वह बात नहीं होती जो एक बोतल वाईन में होती है। वह भी अगर रेड वाईन हो तो क्या कहने! मैं पीने के लिए नहीं प्रभावशाली लोगों को उपहार में देने के लिए वाईन खरीदता हूं, जयदेव बोला।
वैसे, कौन सी वाईन है, थोड़ा रुककर उसने फिर पूछा।
जवाब में चंद्रचूड़जी अंदर से बोतल निकाल लाए।
पेत्रूस... अरे, यह तो फ्रांस की बड़ी मशहूर वाईन है। यहां इंडिया में तो बहुत मुश्किल से ही मिलती है। मिलती भी है तो बहुत महंगी... लिजिए, ठीक से रख लिजिए, उसने उलट-पुलटकर बोतल देखने के बाद वापस देते हुए कहा।
उस दिन उनको समझ में आया कि कितनी बड़ी चीज उनके हाथ लग गई है। रितेश ने उनके हाथ एक ऐसी चीज दे दी है जिसके माध्यम से वह देश के न सही शहर के ताकतवर लोगों तक तो पहुंच ही सकते हैं। षहर के प्रभावशाली लोगों के साथ कुछ देर बैठ सकते हैं।
बोतल को उन्होंने बहुत संभालकर रख दिया। छिपाकर...
उस दिन से पेत्रूस रेड वाईन की बोतल को लेकर तरह-तरह की योजनाएं उनके दिमाग में चलने लगीं। कभी-कभी पत्नी टोकती पी के तो देखिए, कैसा लगता है, एतना दूर से आपके लिए लाया मेरा भाई। कहते, अभी नहीं। रितेश ने भी कई बार फोन पर पूछा, पीकर देखा जीजाजी, कैसा लगा, जवाब देते अगले महीने पांच दिन की छुट्टी पड़ने वाली है, तब इत्मीनान से इसका स्वाद लूंगा।
जबसे जयदेव मिलकर गया था वे वाईन पीने के बारे में कम किस उपयुक्त व्यक्ति को उसे दिया जाए इसके बारे में अधिक सोचने लगे थे। वे समझ गए थे जो काम किसी भी तरह नहीं हो पा रहा हो उसे रेड वाईन संभव बना सकती है...
यह आपको किसी के करीब ला सकती है। उनके मुहल्ले में जिला भाजपा अध्यक्ष नरेश शर्मा रहते थे। कभी आते-जाते वे दिख जाते, चंद्रचूड़जी उनको नमस्कार करते तो वे जवाब में कभी सिर हिला देते या कभी हाथ उठाकर हिला देते। एकाध बार उन्होंने इनका हालचाल भी पूछ लिया था। वे सोचने लगे अगर उनको रेड वाईन दे आएं तो अच्छी पहचान हो जाएगी... शहर में रहना है तो किसी न किसी प्रभावषाली आदमी से संबंध बनाकर जरूर रखना चाहिए। वैसे भी प्रांत में भाजपा की सरकार है, इससे सरकार में पहुंच भी हो जाएगी। क्या पता कल क्या काम पड़ जाए.
कल को बाल-बच्चे होंगे। पिछले महीने जब मां रामनवमी का मेला देखने आई थी तो बता रही थी गांव में नेपाल से एक सिद्ध महात्मा आए थे। उन्होंने मां का मुंह देखते ही कहा, तेरे घर में बड़ा प्रतापी बालक आने वाला है।
अगर हुआ तो कल को बड़ा भी होगा। स्कूल में उसका नाम लिखवाना पड़ेगा। शहर के अच्छे स्कूलों में नाम लिखवाने के लिए या तो डोनेशन देने के लिए मोटा पैसा चाहिए या किसी प्रभावशाली आदमी की पैरवी। पैसा तो है नहीं, ऐसे में रेड वाईन की यह बोतल प्रभावशाली आदमी तक तो पहुंचा ही सकती है। शहर में पत्नी के साथ रहते हैं। भगवान न करे कुछ हो, लेकिन अगर कल को कुछ हो गया तो मदद के लिए कोई मजबूत सहारा तो चाहिए।
बस एक समस्या थी। सुबह-सुबह लोहापट्टी के हनुमान मंदिर में पूजा करके माथे पर रोली का टीका लगाने वाले नरेश षर्मा के बारे में उनको यह मालूम नहीं था कि वे सुरा का सेवन करते हैं या नहीं। चाहते तो उनसे मिलने-जुलने वालों से पता लगा सकते थे, लेकिन अगर किसी ने कुछ गलत-सलत बता दिया तो... पता चला लेने के देने पड़ गए। उनसे संबंध बनाने से फायदा हो न हो उनकी नाराजगी से नुकसान तो जरूर हो जाता। बहुत सोच-विचार कर उन्होंने यही तय पाया कि पूरी तरह पता करने के बाद ही उपहार में यह बोतल किसी को देंगे। कम से कम उसको जो इसके महत्त्व को समझता हो। जो इसके रुतबे से वाकिफ हो।
ऑफिस में दूर-दूर तक प्रोमोशन का कोई चांस नहीं था। इसलिए दो-एक बार बड़े साहब को देने का खयाल मन में आया भी तो उस पर उन्होंने ज्यादा विचार नहीं किया। उल्टे साहब को देने से इस बात का खतरा था कि पीने के बाद अगर उनको पसंद आ गया तो हो सकता है वे बार-बार इसकी मांग करें- मिस्टर किशोर, इस बार आपके ब्रदर इन लॉ जब विदेश जाएं तो उनसे ये वाली वाईन जरूर मंगवा दीजिएगा। और हां, इस बार आपको मुझसे पैसे लेने पड़ेंगे। पूछ लिजिएगा, कितने का था... बाहर तो सुनते हैं सस्ता मिलता है... ये सब आइटम...हें...हें...हें...
अगली बार नहीं देता तो नाराज और हो जाते! अब बार-बार ट्रेनिंग के लिए कंपनी रितेश को फ्रांस तो भेजेगी नहीं... भेज भी दिया तो वह बार-बार रेड वाईन लाएगा नहीं... वह तो पहली बार गया था... सोचा होगा कुछ ऐसा ले चलते हैं जो जीजाजी को भी याद रहेगा... बाद में कहेंगे- जब रितेशजी पहली बार विदेश गए थे तो वहां से रेड वाईन लेकर आए थे...
इसलिए बॉस को देने के खयाल के खयाल से भी वे भागने लगे।
इधर कुछ दिनों से चंद्रचूड़जी कुछ परेषान चल रहे थे। नहीं कुछ खास नहीं... ऐसे ही... उनके पड़ोस में एक कोठी है। जबसे उन्होंने किराए पर यह मकान लिया तबसे उसके गेट पर ताला पड़ा था। महीने-दो महीने पर कोई आता साफ-सफाई करवा जाता। सुनता किसी इंजीनियर साहब का मकान है। अमेरिका में रहते हैं। दो महीने पहले ही उसका ताला खुला... उसमें आकर कोई नौजवान रहने लगा है। महादेव किराना भंडार वाले राघवजी बता रहे थे, इंजीनियर साहब का बेटा है, अभी छह-आठ महीने रहेगा। इंजीनियर साहब के शहर में तीन मकान हैं, गांव में कुछ खेती-बाड़ी-घरारी... सबका हिसाब करने आया है... अब एतना प्रोपरटी बेचना है तो समय तो लगेगा ही न...
वे क्या, आसपास के लोग भी उसे कम ही देख पाते थे। गेट अब भी बंद ही रहता था, लेकिन अंदर से... कभी-कभी गेट के बाहर कोई बड़ी गाड़ी रुकती उससे कोई बड़ा आदमी उतरता, गेट खुलता वह अंदर चला जाता, गेट फिर बंद हो जाता... कभी कोई और गाड़ी इसी तरह आती...
उनको इस सबसे कोई परेशानी नहीं थी...
वह बड़ी तेज आवाज में म्यूजिक बजाता था। वह भी आधी-आधी रात में... उनको लगता जैसे अपने घर में ही स्टीरियो बज रहा हो। वह भी पता नहीं कौन-कौन से अंग्रेजी गाने! कई बार सोचा जाकर गेट खटखटाएं और कहें... भाई साहब! यहां आसपास और लोग भी रहते हैं। आपको नींद नहीं आ रही है तो हमारी नींद क्यों खराब करते हैं, रात को सोचते सवेरे कहेंगे, सवेरे सोचते ऑफिस से लौटकर शाम को इत्मीनान से रिक्वेस्ट करेंगे... हर दिन गेट खटखटाना, कहना अगले दिन तक के लिए टल जाता... महीनों से टलता आ रहा था...
सोच रहे थे घर बदल लें। लेकिन दिल्ली तो है नहीं कि जब चाहा घर बदल लिया। एक तो इस शहर में इतना अच्छा हवादार घर किस्मतवालों को ही मिलता है। वह भी इतने कम किराए पर। फिर ऐसा शगुनिया घर छोड़ने का मन भी नहीं कर रहा था। यहीं आकर नौकरी ज्वाइन की, यहीं रहते इतनी अच्छी पत्नी मिली, ऐसा साला मिला जो उनके लिए फ्रांस से रेडवाईन लेकर आया...
उस बंद गेट वाले बंगले में रहने वाले उस अमेरिका पलट लड़के से वे आजिज आ चुके थे। दिन भर ऑफिस में रहते हैं। घर में पत्नी अकेली... अब कहीं... नहीं-नहीं! अपनी पत्नी सीमा पर तो उनको पूरा भरोसा है... लेकिन आजकल का जमाना ही कुछ ऐसा हो गया है। सब चमक-दमक के पीछे भागने लगे हैं। क्या भरोसा... जब भी ऐसा खयाल उनके मन में आता जी करता उस हाई-फाई भाई की ऐसी-तैसी कर दें। ऐसा कुछ कर दें कि अंग्रेजी गाना सुनना भूल जाए। लेकिन...
कई बार मन में आया पिटवा दें। लेकिन सीतामढ़ी शहर में तो वे अपने ऑफिस वालों को ही जानते थे। उनमें से किसी से इस मामले में शायद ही मदद मिल पाती। उन्होंने शहर के नामी बदमाश नवाब सिंह के बारे में सुन रखा था। एकाध बार मेन रोड सीतामढ़ी से एक सफेद क्वालिस को उन्होंने तेजी से गुजरते देखा था। उसे देखते ही लोग सड़क से किनारे की ओर हटने लगते। बताते गाड़ी में नवाब सिंह जा रहा था... उसके बारे में मशहूर था कि जिसका नहीं भाई-बाप, उसका है नवाब! मन में एकाध बार आया आया उससे जाकर कहें हमें परेशान कर रहा है, जरा उस अमेरिकी बाबू का गुरूर तोड़ दीजिए... मगर अकेले उसके पास जाने की हिम्मत नहीं हुई।
मन में आया उसे जाकर वाईन दे आऊं तो काम भी बन जाएगा... शहर के एक बड़े आदमी से पहचान भी हो जाएगी। शहर के मामले में महादेव किराना भंडार वाले राघवजी बरसों से उसके मार्गदर्शक-पथप्रदर्शक थे। उनका कहना था- शहर में छाती तानकर चलना है चंदरचूड़ बाबू तो किसी बड़ा आदमी से राम-सलाम बहुत जरूरी है। चाहे किसी अफसर से हो चाहे नवाब सिंह जैसे रंगदार से... अगर एक बोतल रेड वाईन से नवाब सिंह से बढ़िया राम-सलाम हो जाए तो क्या बुरा...
जब इस बात पर उन्होंने कई बार विचार किया तो उन्हें इसमें कुछ-कुछ बुराई दिखने लगी। शहर में पति-पत्नी बस दो प्राणी हैं। कहीं घर आने-जाने लगा... वे तो दिन भर ऑफिस में रहते हैं... कहीं कुछ हो गया तो... अमेरिकापलट के अंग्रेजी गाने से तो नवाब सिंह हो सकता है मुक्ति दिला दे, लेकिन नवाब सिंह से कौन बचाएगा...
एक दिन मन हुआ जाकर अपने पुराने सर साइंस कॉलेज के प्रोफेसर मदनानंद जी को गिफ्ट कर आएं। उन्होंने इंटर से बीए तक अपने इस होनहार शिष्य को बिना पैसे लिए ही ट्यूशन पढ़ाया था। उस दौरान अपने गुरु के सबसे प्रिय शिष्य होने के कारण वे अच्छी तरह जानते थे प्रोफेसर साहब को तरह-तरह की शराब पीने और पीने से भी ज्यादा रखने का बहुत शौक था। अगर उनको रेड वाईन दें तो वे सचमुच बहुत खुश होंगे... अपने इस होनहार शिष्य को दुआएं भी बहुत देंगे... और कुछ उनके लिए नहीं कर पाए यह छोटी सी खुशी तो उनको दे ही सकते हैं।
उनको देने से क्या फायदा होता, यह सवाल जब चंद्रचूड़ जी के जेहन में कौंधा तो बार-बार कौंधने लगा। ठीक है अतीत में प्रोफेसर साहब के बड़े अहसान रहे हैं उनके ऊपर, लेकिन आदमी की मुशकिल यही होती है कि उसे भविष्य के सपनों के लिए जीना पड़ता है। उनके वर्तमान जीवन में प्रोफेसर साहब का कोई रोल नहीं रह गया था, भविष्य की कोई उम्मीद भी उनसे नहीं रह गई थी। वह तो उसी दिन समाप्त हो गई थी जिस दिन अनुकंपा के आधार पर मिली यह नौकरी उन्होंने ज्वाइन कर ली और सीतामढ़ी आ गए...
रेड वाईन तो किसी ऐसे आदमी को देना चाहिए जिससे समाज में उनका कुछ रुतबा बढ़े। जिससे शहर के किसी बड़े आदमी के साथ कम से कम उनको बैठने का मौका मिले। प्रोफेसर वह भी रिटायर किस काम के... उन्होंने इस बारे में भी सोचना छोड़ दिया!
उनकी उधेड़बुन बढ़ती जा रही थी। किसी एक आदमी को देने के बारे में सोचते कि किसी दूसरे का ध्यान आ जाता। वे पिछले की जगह उस आदमी को देने का मन बनाने लगते। ऐसा कौन हो सकता था जिसे वे गिफ्ट देते तो वह न केवल खुश होता उनको अपने अजीजों में भी शामिल कर लेता। उनके छोटे-बड़े काम चुटकियों में करवा देता। शहर में उनको भी छाती फुलाकर चलने का मौका देता। उसे मिथिलेष ठाकुर की याद आई। दिल्ली से पढ़कर आया था। सबसे छिप-छिपकर रहता। सब कहते दिल्ली गया था पढ़ने। किस्मत का ऐसा मारा है, कुछ कर नहीं पाया बेचारा। दिल्ली जाते तो बहुत लोग हैं, बाकी आईएएस, आईपीएस कोई-कोई ही बन पाता है।
देखते-देखते मिथिलेश की किस्मत ही बदल गई। दिल्ली के रामजस कॉलेज में उसका एक सहपाठी रमेश चंद्रा मुजफ्फरपुर का कलेक्टर बनकर आ गया। कलेक्टर बनकर ही नहीं आया अपने पुराने सहपाठी के घर आने-जाने लगा, अपनी लालबत्ती वाली गाड़ी में उसको घुमाने लगा। कहीं भी निकलता लोग कहते देखो, कलेक्टर साहब का दोस्त जा रहा है... शहर में वह सिर झुकाकर नहीं सिर उठाकर चलने लगा था। उसके दरवाजे पर भी मिलने वालों की भीड़ लगी रहती। शायद ही कोई आदमी ऐसा रहा हो शहर में जो मिथिलेश को न पहचानने लगा हो।
चंद्रचूड़ जी की और भी मुश्किलें थीं। पिताजी के मरने के बाद पुश्तैनी घर पर पट्टीदारों ने कब्जा कर लिया था। कोई उनकी शिकायत सुनने वाला भी नहीं था। थाना-पुलिस, कोर्ट-कचहरी में हजारों खर्च हो जाते और कुछ हाथ भी नहीं आता। चुपचाप सोचते रहते किसी तरह कलेक्टर के पास शिकायत करने का मौका मिल जाए तो शायद उनको उनका हक मिल जाए।
डीएम तक पहुंच पाने का कोई रास्ता ही नहीं सूझ रहा था...
एक दिन वैशाली चाट भंडार में मिक्स्ड चाट खा रहे थे। बगल में दो आदमी बतिया रहे थे। एक कह रहा था नया डीएम साहब के बारे में सुने हो। कलेक्टेरियट में कल कोई बता रहा था कि षाम होते ही मस्त हो जाते हैं, आठ बजे के बाद किसी से नहीं मिलते। उसके बाद काले शीशे वाली गाड़ियां आने लगती हैं, आधी-आधी रात तक महफिल जमी रहती है... इसके आगे की बातचीत पर उन्होंने ध्यान ही नहीं दिया। बस, यही बात उनके दिमाग में अटक गई। उनको यह सुनहरा मौका लग रहा था शहर के राजा से संबंध बनाने का। याद रखो, देश में तीन ही आदमी का तंत्र चलता है- डीएम, सीएम और पीएम, बाकी ई लोकतंत्र, जनतंत्र सब बेकार की बातें हैं। उनको अपने गांव के शिवशंकर मास्साब की बरसों पुरानी कही बात याद आ गई। डीएम साहब के बारे में मिली इस जानकारी में उनको अपना पुश्तैनी घर वापस मिल सकने की उम्मीद दिखाई देने लगी।
शाम होते ही मस्त हो जाने वाले डीएम साहब तो रेड वाईन पाकर बहुत खुश हो जाएंगे। पेत्रूस एक ऐसी वाईन है जिसे पाकर शायद कोई ऐसा शौकीन न हो खुशी से फूल न जाए, उनको जयदेव की बात याद आई...
इस योजना को कार्यरूप देने के बारे में सोचने लगे तो पहली व्यावहारिक समस्या यह उठ खड़ी हुई कि कलेक्टर साहब तक पहुंचा किस तरह जाए। उनके कर्मचारियों के पास बोतल छोड़कर आने का कोई तुक नहीं बनता था। एक तो इससे इस बात की कोई गारंटी नहीं रहती कि रेड वाईन की बोतल साहब के पास पहुंच जाएगी। दूसरे, अगर कर्मचारियों के माध्यम से बोतल कलेक्टर साहब तक पहुंच भी जाती तो इससे उनको क्या फायदा होता। उनका उद्देशय कलेक्टर साहब को विदेशी वाईन पिलाना तो था नहीं। वे तो उनके साथ उसी तरह संबंध बनाना चाहते थे जैसे दिल्ली में दलाल अफसरों-नेताओं के साथ बनाते थे। रितेश के दोस्त ने बताया था कि बड़े नेता या अफसर घूसखोरी-कमीशनखोरी का काम अपने हाथों से नहीं करते। यह काम वे ऐसे किसी आदमी के माध्यम से करते हैं जो उनको खिला-पिलाकर खुश रखता हो, उन्हें अपना हितैषी दिखाई देता हो।
मिथिलेश के बारे में लोग कहने लगे थे, डीएम उसीके माध्यम से लेन-देन की बात करता है। तभी तो हमेशा साथ-साथ लिए डोलता रहता है। आजकल बिना मतलब के बेटा बाप को नहीं पूछता दोस्त तो बहुत दूर की बात हो गई! उसका एजेंट है एजेंट! क्या पता डीएम साहब उसको ही अपना स्थानीय एजेंट बना लें। जब तक वे वहां डीएम रहेंगे तब तक शहर में उसकी इतनी साख बन जाएगी कि उसी रसूख के सहारे आगे का जीवन मजे में कट जाएगा।
जबसे उनका साला विदेश हो आया था उनको महसूस होने लगा था कि उनकी पत्नी उनको उतना आदर नहीं देती थी। पिताजी का जल्दी देहांत नहीं हुआ होता... उनको अनुकंपा के आधार पर मिली यह नौकरी नहीं करनी पड़ती तो आज वह भी कंपटीशन पास करके कम से कम डिप्टी कलक्टर तो बन ही गए होते। लेकिन अब यह सब करने का समय नहीं रह गया था। न सोचने का...
वे भी अपनी पत्नी को कुछ करके दिखाना चाहते थे।
उन्होंने तय किया कि वे कलेक्टर से मिलने का कोई न कोई रास्ता जरूर निकालेंगे... और अपने हाथ से जाकर उनको फ्रांस की मशहूर पेत्रूस वाईन भेंट करेंगे। हो सकता है उसी आगामी मुलाकात में उनके उस संभावित भाग्योदय के संकेत छिपे हों जिसकी ओर देवी मंदिर के पंडित बेनीमाधव मिश्र ने उनका हाथ देखकर संकेत किया था।
वे हर समय सोते-जागते इसी जुगत में लगे रहते कि किस तरह डीएम से मिलने का रास्ता निकाला जाए... एक बार सामने-सामने मिलने का!
एक शाम जैसे ही घर के बाहर उनका रिक्शा रुका। पत्नी गेट खोलकर बाहर आकर उनको देखने लगी। उनको कुछ आशंका हुई। इस तरह पत्नी जब उनको देखने आती है तो जरूर कुछ न कुछ बात होती है। पिछली बार जब इस तरह आई थी तो खाना बनाते-बनाते गैस खत्म हो गया था। यहां एक बार गैस खत्म हो जाए तो उसका इंतजाम करना भी तो बड़ी बात होती है। गैस का इंतजाम समय पर न कर पाने के कारण पत्नी को स्टोव पर खाना बनाना पड़ता और उनको शर्मिन्दा होना पड़ता था। क्या सोचती होगी पत्नी, कैसे हैं, इतना दिन से शहर में रहते हैं, एलआईसी में काम करते हैं, मगर मौका-कुमौका एक गैस का इंतजाम भी नहीं कर सकते।
खैर... एक बार डीएम से भेंट हो जाए इस तरह की छोटी-मोटी सारी परेशानी दूर हो जाएगी। उनको बार-बार शर्मिन्दा नहीं होना पड़ेगा।
रिक्शेवाले को पैसे देकर जल्दी से घर की ओर बढ़े।
गोदरेज वाले आल्मारी में क्या रखे थे, पत्नी ने सवालिया निगाहों से उनको देखते हुए पूछा।
क्या हुआ, उसमें तो कपड़ा है और क्या है, क्या हुआ बात बताओ,
कपड़ा में लपेट कर क्या रखे थे, पत्नी ने सवाल के जवाब में फिर से सवाल दागा।
क्या हुआ, फिर कुछ सोचते हुए बोले, उसमें तो रेडवाईन की बोतल रखी थी। क्या हुआ, अब उनकी आशंका गहरी हो चुकी थी।
आप नाराज मत होइएगा। हमको कहां पता था कि आप वहां क्या रखे हैं। आपको बता देना चाहिए था न! वहां से आपका कुर्ता-पाजामा निकाल रही थी प्रेस करवाने के लिए तो बोतल गिर गया।
क्या टूट गया, अरे, रितेश ही तो बोला था वाईन के बोतल को लिटाकर रखना चाहिए। सीधा खड़ा रखने पर उसका टेस्ट खराब हो जाता है। इसीलिए वहां रखे थे। क्या हुआ, टूट गया, बताया नहीं.
और क्या! कपड़ों के बीच से लुढ़क कर गिर गया। वह तो आधा ही बहा था कि मैंने बोतल को खड़ा कर दिया। आधा बोतल बच गया है। दूसरे बोतल में डालकर फ्रिज में रख दिया है...
चंद्रचूड़जी को कुछ सुनाई नहीं दे रहा था. उनकी पत्नी क्या बोले जा रही थी। लग रहा था जैसे सुंदर सपना बीच में ही टूट गया हो। उसी दिन रिमझिम सैलून में उनकी भेंट डीएम के स्टेनो से हुई थी। उसने कहा था, अगले सप्ताह मिलने का टाईम दिलवा दूंगा। वे खुशी-खुशी घर आ रहे थे...
कहां सोचा था कि घर आते ही सारी खुशियों का अंत हो जाएगा...
गुस्सा तो बहुत आ रहा था, मगर कुछ बोल नहीं पाए। चुपचाप कमरे में गए और दरवाजा बंद कर लिया। बोलकर करते भी क्या.
चाय बना दूं! पत्नी की आवाज आई। उन्होंने मना कर दिया।
काफी देर तक संज्ञाशून्य से बैठे रहे। उठे, फ्रिज खोला, बची-खुची वाईन निकाली और पीने लगे। उसका तीखा खट्टा स्वाद लेते हुए... एक बात है रेड वाईन का स्वाद शराब से एकदम अलग होता है, चुस्कियां लेते हुए मन ही मन सोचते रहे। वे इस समय फ्रांस की सबसे मशहूर वाईन में से एक का सेवन कर रहे हैं, अचानक उनको ध्यान आया। गर्दन घुमाकर चारों तरफ देखने लगे...
कोई नहीं था...
उस रात उनको गहरी नींद आई। सुबह उठे तो पत्नी हैरत से उनको देख रही थी।
पूछा-क्या हुआ.
आपको रात क्या ठीक से नींद नहीं आई, जवाब में पत्नी ने पूछा।
क्यों?
पता नहीं, आप नींद में क्या-क्या बड़बड़ा रहे थे- डीएम साहब, खास तोहफा... मुझे तो डर लग रहा था। आपको उठाने लगी तो गले से घों-घों आवाज निकलने लगी। मैं तो घबड़ा ही गई थी। लगता है काम का दबाव बढ़ गया है। दो-तीन दिन छुट्टी लेकर आराम कर लिजिए...
वे कुछ नहीं बोले। सोचने लगे, वह सपने टूटने की आवाज थी या रेड वाईन का नशा।
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2.
जानकी पुल
ऐसा लगा जैसे कोई भूली कहानी याद आ गई हो...
सारा किस्सा नंदू भाई के ईमेल से शुरु हुआ। नंदू भाई पिछले कई वर्षों से इंडोनेशिया के रमणीक द्वीप सुमात्रा में रह रहे हैं। नंदू भाई वहां एक प्रसिद्ध कागज-निर्माण कंपनी में इंजीनियर हैं। सुमात्रा से नंदू भाई ई-मेल से ही रिश्तेदारी निभा लिया करते।
पिछली दीपावली पर जब नंदू भाई का हैप्पी दीपावली का मेल आया तो न जाने क्यों इस बार उनको बीस वर्ष पहले अपनी नानी और मेरी दादी के गांव में मनाई गई उस दीपावली का स्मरण हो आया जब हमने आखिरी बार दीपावली पर साथ-साथ पटाखे छोड़े थे। लगे हाथ नंदू भाई ने उस जानकी पुल का भी स्मरण कर लिया था, जो उसी साल बनना शुरु हुआ था या कह सकते हैं कि जिसका शिलान्यास हुआ था। वह जानकी पुल जो मेरे गांव मधुबन और शहर सीतामढ़ी के बीच की दूरी को मिटा देने वाला था...
बीस साल पहले उस गांव के सपने में एक पुल लहराया था...
नंदू भाई मेरे सगे भाई नहीं हैं। मेरी सगी बुआ के लड़के हैं। मैं उन दिनों अपने गांव में रहता था और अपनी साइकिल पर बैठकर दस किलोमीटर दूर शहर पढ़ने जाया करता। दरअसल मेरे गांव और शहर के बीच एक बाधा थी। नेपाल की नदी बागमती की एक धारा मेरे गांव और शहर को अलगाती थी। पुल बनते ही वह दूरी घटकर एकाध किलोमीटर रह जाने वाली थी। नदी होने के कारण षहर दूसरी तरफ से होकर जाना पड़ता। गर्मियों में जब नदी में पानी कुछ कम होता तो गांव के कुछ बहादुर नदी तैरकर पार कर जाते और उस पार सीतामढ़ी पहुंच जाते।
उसी साल देश में रंगीन टीवी का प्रसारण शुरु हुआ था और गांव के जो लोग शहरों में मारवाड़ी सेठों या साहबों के यहां काम करते थे वे बताया करते कि किस तरह रंगीन टीवी पर हमलोग देखना या चित्रहार देखना बिलकुल वैसे ही लगता है जैसे सेठ भागचंद-गोवर्धनमल के किरण टाकीज में सिनेमा देखना लगता है...
सच कहता हूं तब मुझे अपना गांव में रहना बेहद सालता था।
बुआजी हर साल दीपावली में एक महीने की छुट्टी मनाने आया करतीं। साथ में नंदू भाई भी होते। जिस समय मुझे यह खबर मिली कि पुल बनने वाला है नवंबर की उस दोपहर बुआजी दादी के सफेद बालों को कंघी से सीधा करने में लगी थीं। माँ बुआजी के लिए तुलसी का काढ़ा बनाने में लगी थी और मैं नंदू भाई के लिए अमरूद तोड़ रहा था। तरह-तरह के अमरूदों के पेड़ थे- कोई ऊपर से हरा होता था और अंदर से उसका गूदा गुलाबी होता, किसी अमरूद में बीज ही बीज होते तो किसी में बीज ढूंढे नहीं मिलते...
मैं अमरूदों के उस विचित्र संसार की सैर कर नंदू भाई के साथ कच्चे-पक्के अमरूद जेबों में भरकर लौटा तो मैंने देखा दादाजी बुलाकी प्रसाद मिश्र, रिटायर्ड हेडमास्टर अपनी आरामकुर्सी पर अधलेटे हुए से बैठे थे। सामने की कुर्सी पर मुखियाजी बैठे हुए थे।
आज पुल का शिलान्यास हो गया।
मैंने सुना मुखियाजी कह रहे थे। दादाजी ने जवाब में कमरे में टंगी जवाहरलाल नेहरू की धुंधलायी-सी तसवीर की ओर देख भर लिया था। मानो उनके प्रति कृतज्ञताज्ञापन कर रहे हों। मैंने नंदू भाई की ओर देखा था, मेरे लिए तब जीवन की सबसे बड़ी खबर थी वह, उस पुल के बन जाने के बाद मुझे किसी से भी शरमाने की जरूरत नहीं पड़ती- यह बताने में कि भले मैं शहर के बेहतरीन स्कूल में पढ़ता था और दिन भर अपनी एटलस साइकिल से शहर की गलियों की ही खाक छानता रहता था, लेकिन मैं रहता मधुवन में था। मधुवन शहर का कोई मोहल्ला नहीं था नदी की दूसरी ओर बसा छोटा-सा एक गांव था।
मैं बेहद खुश हुआ था। उस रात सोते समय जब नंदू भाई टीवी धारावाहिक हमलोग के किस्से सुना रहे थे तो मैंने उस रात उनसे कहा था कि उस साल वे मेरे लिए जीवन की सबसे बड़ी खुशी लेकर आए थे। अगले दिन मैं नंदू भाई के साथ शिलान्यास का वह पत्थर भी देखने गया। उस पर लिखा था- माननीय सिंचाई मंत्री श्री अशफाक खां द्वारा जानकी पुल का शिलान्यास। हम दोनों काफी देर तक पत्थर छू-छूकर देखते रहे और यह अंदाजा लगाते रहे कि पुल कितने दिनों में बन जाएगा।
उन दिनों मैं यानी आदित्य मिश्रा शहर के प्रसिद्ध श्री राधाकृष्ण गोयनका कॉलेज में इंटर में पढ़ता था। उन दिनों मेरे कई छोटे-छोटे सपने होते थे। जैसे एक सपना था मेरे पास सीतामढ़ी में रहने के लिए घर हो जाए। एक सपना था मेरे पास न सही रंगीन, ब्लैक एंड व्हाइट टेलिविजन सेट हो जाए, ताकि मैं भी उस पर किरण टाकीज की तरह हमलोग और चित्रहार देख सकूं। मेरे इन सपनों में कुछ सपने अक्सर घटते-बढ़ते रहते थें उन दिनों जो सपना मेरे सपनों में आ जुड़ा था वह इला का सपना था- इला चतुर्वेदी।
इला मेरे ऐसे सपनों में रही जिसे मेरे सिवा सिर्फ नंदू भाई ही जानते थे। मैं राधाकृष्ण गोयनका महाविद्यालय में कला का छात्र था और मेरे ट्यूशन गुरु मुरली मनोहर झा की उन दिनों इतिहास, राजनीति विज्ञान, अंग्रेजी जैसे विषयों के पारंगत शिक्षक के रुप में धूम थी। उन्हीं दिनों जब शहर की मशहूर जच्चा-बच्चा विषेशज्ञ डॉ. मालिनी चतुर्वेदी ने प्रोफेसर साहब से अपनी ग्याहरवीं कक्षा में पढ़ने वाली लड़की इला को परीक्षाओं तक घर आकर इतिहास और राजनीति विज्ञान पढ़ा जाने का आग्रह किया तो प्रोफेसर साहब ने अपनी व्यस्तताओं का हवाला देते हुए उनके घर आने में अपनी असमर्थता व्यक्त कर दी थी। लेकिन प्रोफेसर साहब ने उन्हें इस बात का पक्का भरोसा दिलाया कि वे गेस पेपर और नोट्स अपने किसी प्रतिभाशाली, योग्य शिष्य के हाथों भिजवा दिया करेंगे। प्रोफेसर साहब ने वह मौका मुझे यह कहते हुए दिया था कि तुम पर बड़ा विश्वास करता हूं।
सच कहता हूं मैंने उनका विश्वास कभी नहीं तोड़ा। मैं इला के घर कभी वीरेश्वर प्रसाद सिंह की राजनीतिशास्त्र के सिद्धांत या बी. एन. पांडे का भारत का इतिहास या राय रवीन्द्र प्रसाद सिन्हा की पुस्तक भारतीय शासन एवं राजनीति देने-लेने जाया करता या गेस पेपर और झा सर के नोट्स लेकर जाता। यहां मुझे शायद बताने की आवश्यकता नहीं पड़नी चाहिए कि मैं जिस समय की बात कर रहा हूं उस वक्त तो फोटोस्टेट जैसी सुविधा दिल्ली जैसे शहर में भी इतनी आम नहीं हुआ करती थी। मैं जिस शहर सीतामढ़ी की बात कर रहा हूं साहब, उस समय पूरे शहर में कुल एक फोटोस्टेट मशीन हुआ करती थी और फोटोस्टेट करवाना तब इतना महंगा पड़ता था कि बड़े-बड़े मारवाड़ी सेठों के लड़के ही उसका लाभ उठाने की ऐयाशी कर सकते थे।
इला के घर आने-जाने का मेरा सिलसिला चल पड़ा। मैं एक बार उसके घर नोट्स देने जाता और एक बार नोट्स वापस लेने और फिर नए नोट्स या कोई पुस्तक देने जाता रहता।
इला ने शुरू में दो-एक बार ग्यारह से एक बजे के बीच आने की हिदायत दी लेकिन मैं समझ गया कि उसके घर जाने का सबसे मुफीद समय यही होता था। तब उसकी मां या तो क्लिनिक में होती थी या अपने पब्लिक प्रासीक्यूटर प्रेमी वाई. एन. निषाद के साथ होती जिसके बारे में षहर भर में शहर भर में अफवाह फैली रहती कि कल काले रंग की फिएट में सुरसंड रोड में देखी गई थी या परसों होटल सीतायन में, वगैरह, वगैरह। इस दौरान उसके वकील पापा विनोद चतुर्वेर्दी सिविल कोर्ट में मुवक्किल फंसाने में लगे रहते थे...
मैं उसी दरम्यान कभी राजनीति विज्ञान, कभी इतिहास के नोटस लेने-देने जाया करता। वह इसका एहतियात रखती कि चिट्ठी मेरे नोट्स के ही बचे पन्ने पर लिख दिया करती। कभी अलग से उसने कुछ नहीं लिखा।
वह आम तौर पर चिट्ठी-पत्री कुछ इस तरह से लिखती थी जैसे मेरे कपड़ों, मेरी चाल-ढाल, लिखने-पढ़ने आदि की तारीफ कर रही हो। वह इसी तरह के कुछ वाक्य अंग्रेजी में लिख दिया करती जो अक्सर अंग्रेजी के मुहावरे हुआ करते थे ताकि कोई अगर उसे पढ़ भी ले तो कुछ और न समझ ले। मैं ही उसे और-और समझता रहा... उसके उन मुहावरेनुमा पत्रों को पढ़ने के चक्कर में उन्हीं-उन्हीं नोटृस को बार-बार पढ़ता रहा मानो मुझे बारहवीं का नहीं ग्यारहवीं का पर्चा देना हो।
उन सारे सपनों में जुड़ा सबसे नया सपना था- जानकी पुल।
शहर के एस.डी.ओ. साहब के अर्दली रामप्रकाश, जो हमारे ही गांव का था, ने जो खबर दी थी उसके मुताबिक पुल का शिलान्यास भले ही सिंचाई मंत्री अशफाक खां के हाथों हुआ हो, लेकिन इस पुल के बनवाए जाने की असल जिद तो तो कलेक्टर साहब ए.के.सिन्हा की पत्नी डॉ. रेखा सिन्हा ने ठानी थी। रेखा सिन्हा असल में तो साहित्य की डाक्टर थीं यानी हिन्दी साहित्य की पी.एच.डी. थीं और स्त्रीवादी रूझानों के कारण मां जानकी की अनन्य भक्तिनी थीं। मां सीता की जन्मभूमि में ही अपने पति के पदस्थापन को वे मां जानकी की असीम अनुकंपा ही मानती थीं और इसलिए एक भी दिन वे बिना उनके दर्शन के नहीं बितानी चाहती थी। उन्होंने ही एक दिन अपने पति को नाश्ते के वक्त यह सुझाव दिया कि इस नदी पर अगर एक छोटा-सा पुल बन जाए तो मां सीता की जन्मभूमि जाकर दर्शन करने में बड़ी सुविधा हो जाएगी। मां जानकी की जन्मस्थली नदी की दूसरी ओर तो किलोमीटर ही थी, लेकिन दूसरी ओर से आने में लगभग एक घंटा लग जाता था और रोज-रोज जाना संभव नहीं हो पाता था...
कलेक्टर साहब को सुझाव पसंद आ गया था। उन्होंने आनन-फानन में शिलान्यास करवा दिया था। योजना थी अगले बजट तक पुल बनाने का काम शुरु हो जाएगा...
सारा मधुवन गांव जानकी पुल के सपने में जीने लगा था। पक्की सड़क कुछ साल पहले ही बन चुकी थी और तभी से गांव वालों की उम्मीद जगी थी कि अब उनके गांव और शहर की दूरी खत्म हो जाएगी...
पुल के शिलान्यास की खबर के बाद मेरे दादाजी बड़े आशावादी हो चले थे। सतहत्तर के चुनाव में वहां महंथ केशवानंद गिरि सांसद बने, जिनके बारे में बाद में यह कहा गया कि वे आंधी की तरह आए और तूफान की तरह चले गए। उन्हीं महंथजी ने और कुछ किया हो या न किया हो पर न जाने क्यों चुनाव प्रचार के दौरान मधुवन गांव के निवासियों से यह वादा कर आए थे कि अगर वे चुनाव जीत गए तो उस गांव में पक्की कोलतार की सड़क बनवा देंगे और सबसे आश्चर्यजनक रहा कि न जाने क्यों चुनाव जीतने के बाद उन्होंने जाते-जाते सड़क बनवाने का अपना वादा पूरा भी कर दिया। अगर वे कुछ दिन और सांसद रह गए होते उन्होंने वहां पुल भी बनवा दिया होता। लेकिन एक तो चुनाव जल्दी हो गए और दूसरे वे चुनाव भी नहीं जीत पाए।
जब तक पक्की सड़क नहीं बनी थी मधुवन गांव के लोग बड़े संतोषपूर्वक रहते। नदी के उस पार के जीवन को शहर का जीवन मानते, अपने जीवन को ग्रामीण और बड़े संतोषपूर्वक अपना सुख-दुख जीते। कोलतार की उस पक्की सड़क ने उनके मन को उम्मीदों से भर दिया था। दादाजी से मिलने कभी-कभी जब गांव के एकमात्र रायबहादुर अलख नारायण सिंह आते तो यह चर्चा उनके बीच होती कि अब बस पुल की कमी है और फिर हमारा गांव किस मामले में शहर सीतामढ़ी से कम रह जाएगा? राय साहब चाय की चुस्कियों के बीच कहते, मेरे जीते-जी बिजली आई। पानी पटाने का बोरिंग आया, अब सड़क आ गई है तो पुल भी बन ही जाएगा। दादाजी भी उनकी हां में हां मिलाते।
भले ही महंथजी संसद का चुनाव हार गए लेकिन मधुवन गांव वालों की आंखों में उम्मीद छोड़ गए थे। सपना छोड़ गए थे...
अब पुल का शिलान्यास तो जैसे उस सपने को सच में ही बदलने वाला था। मैंने पढ़ रखा था कि ऐसा सपना जिसे बहुत सारी आंखें एक साथ देखने लगें तो वह सपना नहीं रहता। वह सच हो जाता है...
जानकी पुल उस गांव का ऐसा सपना बन गया था जो बस सच होने ही वाला था।
गांव के बीचोबीच एक पीपल का पेड़ था- पक्की सड़क के ठीक किनारे। गांव वाले पीपल को पाकड़ कहते थे और भविष्य के शहर का ख्याल करके उस जगह को उन्होंने चौक बना डाला और उसका नाम रख दिया- पाकड़ चौक। वहां पर बरसों से गांव के रिक्शा चलाने वालों, बाजारों में दिहाड़ी कमाने वालों को काशी चायवाला चाय पिलाया करता था और चाय के साथ खाने के लिए बिस्कुट वगैरह भी रखा करता था। उसने अपनी बांस की खपच्चियों की जोड़ी हुई दुकान के बाहर शहर सीतामढ़ी के दुकानदारों की तर्ज पर टिन का साइनबोर्ड लगवा लिया था और उस पर लिखवा लिया था- काशी के प्रसिद्ध चाय की दुकान, मेन रोड, मधुवन। बस इंतजार इसी का था कि एक बार जानकी पुल बन जाए और मेन रोड, मधुवन मेन रोड, सीतामढ़ी का हिस्सा बन जाएगा।
गांव भर में पुल बन जाने के बाद के जीवन को लेकर चर्चा चलती रहती थी, योजनाएं बनती रहती थीं। कोई अपनी जमीन पर मार्केट बनवाना चाहता था, कोई अपने मकान के आगे पीछे दुकान बनवाना चाहता था। कभी खबर आती कि पटना के एक प्रसिद्ध स्कूल के मालिक आए थे, स्कूल के लिए जमीन खरीदने। कभी खबर आती कि शहर के एक प्रसिद्ध डाक्टर वहां जमीन देखने आए थे, शायद नर्सिंग होम खोलना चाहते हों।
कुल मिलाकर, यही लग रहा था कि बस पुल बन जाए उसके बाद देखिए क्या-क्या होता है मधुवन में। दादाजी बुलाकी प्रसाद मिश्र ने अपनी कुछ अलग ही योजना बना रखी थी। मेरे पशु-चिकित्सा अधिकारी पिता जब छुट्टियों में आते तो दादाजी समझाते कि एक एकड़ जमीन है नदी के पास सड़क किनारे अपनी। बेच कर बैंक में रख देंगे पैसा। दो-एक पीढ़ी तो बैठकर खाएगी ही।
मैं उस दरम्यान जब भी इला के यहां नोट्स लेने-देने जाता या डायमंड क्रिकेट क्लब के बाकायदा सदस्य की हैसियत से क्रिकेट खेलने जाता तो बात-बात में सबको अपने गांव में बन रहे पुल के बारे में बताता। इला अक्सर कहती कि अच्छा है एक बार पुल बन जाए तो मैं तुम्हारे गांव गन्ना खाने आउंगी या कभी आंवले का पेड़ देखने की बात करती। जवाब में मैं कहता तब हमारा गांव, गांव थोड़े ही रह जाएगा। इला आश्चर्य से पूछती, जब वह भी नहीं रह जाएगा तुम्हारे गांव में तो बाकी क्या रह जाएगा वहां? मैं सोचता रह जाता था।
मेरी बारहवीं की परीक्षा आ गई। इला की ग्यारहवीं की। दोनों ही अच्छे नंबरों से पास हुए। इला बारहवीं में आ गई, लेकिन उसको बारहवीं में नोट्स पहुंचाने, किताब पहुंचाने के लिए मैं सीतामढ़ी में नहीं रह पाया। मैं आगे की पढ़ाई करने के लिए दिल्ली आ गया।
यह बात बीस साल पहले की है।
अब मैं नंदू भाई को क्या बताता इन बीस सालों में क्या-क्या हुआ! पुल के बारे में तो मैं भी भूल चुका था। उनको पता नहीं कैसे सुमात्रा में बैठे-बैठे जानकी पुल की याद आ गई थी।
हुआ यह कि कलेक्टर ए. के. सिन्हा का तबादला हो गया और उनकी पत्नी पुल पार कर जानकी जन्मभूमि देखने का सपना संजोए ही रह गईं। उसके बाद जब भी मैं दीपावली के आसपास छुट्टियां बिताने गांव आता तो यही खबर सुनता कि अगले बजट में पुल जरूर बन जाएगा। हर साल जब बजट का पैसा आता तो नदी में बाढ़ आ जाती और जब बाढ़ का पानी उतरता तो बजट समाप्त हे चुका होता था। इस प्रकार, हर साल जानकी पुल का निर्माण-कार्य अगले बजट तक के लिए टल जाता।
छुट्टियों में जाता तो इला से मिलने का कोई बहाना नहीं रहता था। उसके पास तो फोन था लेकिन तब आज की तरह गली-गली पीसीओ बूथ नहीं खुले हुए थे कि आप गए दो रुपए दिए और फोन पर बात हो गई। तब फोन बड़े-बड़े लोगों के पास ही होता था। मैं गांव में रहता था और मेरे पास फोन होने का कोई सवाल ही नहीं उठता था। दिल्ली जाने के कुछ साल बाद जब मैंने अपने दोस्त श्रीवल्लभ के घर से पहली बार इला को फोन किया था तो उसने बताया कि उसकी शादी अमेरिका में रह रहे किसी साफ्टवेयर इंजीनियर से तय हो गई थी। उसने मुझे मिलने के लिए बुलाया।
समय तब भी ग्यारह से एक का रहा। उसे शायद अच्छा लगा हो कि इतने साल दिल्ली में रहने के बाद भी मैं उसे भूला नहीं था उसके एक बार कहने पर ही तत्काल उससे मिलने पहुंच गया। उस मुलाकात में मैंने उससे कुछ निशानी मांगी। आखिरी ताकि उसकी याद रहे। उसने अपनी तस्वीर के पीछे द बेस्ट विशेज लिखकर मुझे दिया। मैंने भी अपनी तस्वीर उसे देनी चाही उसने हँसते हुए कहा, इतना छोटा-सा तो तुम्हारा चेहरा है, हमेशा मेरे दिल में बसा रहेगा।
मैं जेब में उसकी तस्वीर संभाले लौट आया था।
वह इला से मेरी आखिरी मुलाकात थी। न मेरे गांव में पुल बना न वह उसे पारकर गन्ना खाने, आंवला खाने वहां आ पाई। वह अमेरिका चली गई। हडसन और मिसीसीपी नदी पर बने पुलों को पार करते हुए...
नंदू भाई हांगकांग चले गए थे। इसी बीच दादाजी का देहांत हो चुका था और मरते वक्त उन्होंने मेरे रिटायर्ड हो चुके पशु-चिकित्सक पिता की आंखों में अपना सपना दे दिया था। उन्होंने कहा था कि पुल बनेगा जरूर इसलिए जमीन बेचने में हड़बड़ी मत करना। इन दिनों पिताजी गांव में रहते हैं और आसपास के गांवों में पशुओं के अचूक चिकित्सक के रूप में जाने जाते हैं।
बुआजी नागपुर में बस गईं, चाचाजी लखनऊ में, मामा कोलकाता में, दीदी बिलासपुर में। सब टेलिफोन पर रिश्तेदारी निभाते रहते थे। नदी पर पुल नहीं बना तो क्या उन्होंने टेलिफोन के ही पुल बना लिए थे।
नंदू भाई से काफी दिनों तक कोई संपर्क नहीं रह गया था। भला हो इंटरनेट का, पिछले चार-पांच सालों में उसने हम भाई-बहनों को फिर से जोड़ दिया था। मैंने नंदू भाई को ईमेल किया था कि दिल्ली में पिछले चार-पांच सालों में इतने फ्लाइओवर बन चुके हैं कि पहचानना मुश्किल पड़ जाएगा।
ऐसा नहीं है कि इन बीस सालों में मधुवन गांव के लोग उस पुल को भूल गए हों। इस बीच गांव में हाथ-हाथ मोबाइल आ गया था, रंगीन टेलिविजन आ गया था, सामूहिक जेनरेटर आ गया था, स्कूल खुल चुका था।
और जानकी पुल...
कई साल बाद जब मैं पिछली बार दीपावली पर घर गया था तो पिताजी ने बताया था कि अगले बजट में पक्का बन जाएगा...
सोच रहा हूं नंदू भाई को यही ईमेल कर दूं। गांव में अब भी लोग जब पाकड़ चौक पर बैठते हैं तो जानकी पुल की चर्चा चल पड़ती है। भले ही उसका शिलान्यास का पत्थर अब पहचाना नहीं जाता और वह सड़क जिसने पुल का सपना गांव वालों की आंखों में भरा था, जगह-जगह से टूटकर बदशक्ल हो चुकी थी। गांववाले अब भी यही सोचते हैं कि एक बार पुल बन जाए तो सब ठीक हो जाएगा- जानकी पुल।
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3.
बोलेरो क्लास
बोलेरो क्लास में जाना है, भईया! आप तो मैनेजमेंट पढ़कर कारपोरेट क्लास में चले गए। हमको बोलेरो क्लास में जाना है...
बोलेरो क्लास? पिक्कू ने जब पहली बार कहा मैं सचमुच समझ नहीं पाया। एक बार अपने गाँव-कस्बे से बाहर रहने लगिए तो उसकी जुबान भी आपको पराई लगने लगती है... उस साल छुटि्टयों में गया तो पिक्कू ने बताया शहर के नए-नए आबाद हुए मुहल्ले राजा बाजार के मेन मार्केट में रेस्तरां खोल रहा है। धनतेरस के दिन उद्घाटन है।
उसकी बात सुनकर उद्घाटन के दिन रसमलाई खाना छोड कर जब मैं उसकी ओर देखने लगा तो मेरी निगाहों में अनजानापन भांपते हुए उसने कहा-
नहीं समझे? आप दिल्ली क्या गए अपने तरफ का सब बात-व्यवहार भुला गए हैं। यहां नेता लोगों का फेवरेट गाड़ी वही है... रहते तो देखते मुजफ्फरपुर-सीतामढी में बोलेरो पर सत्तारूढ पार्टी का झंडा टांगकर चलने में कितना रुआब है। नसीब में होता है तो आगे विधायक का प्लेट भी लग जाता है, ऊपर लालबत्ती। राजा गाडी है राजा! सडक पर कितनो धूल-धक्कड हो शीशा बंद करके एसी चला लिजिए कुछ नहीं बुझाता है, सडक चाहे कितना भी उबड -खाबड हो मक्खन की तरह दौडती है उसके ऊपर। इतनी बडी कि साथ में चार-पाँच लटक भी चल सकें... और एकाध समाजसेविका भी, उसने धीरे से कान में कहा और जोर का ठहाका लगाया।
पिक्कू यानी पंकज मेरे स्कूलिया दोस्त रमेन्द्र का छोटा भाई है। वैसे कहने को ही छोटा भाई है। मथुरा उच्च विद्यालय, रिंग बांध में एक साल ही जूनियर था हमसे। एक ही ग्रुप था। रमेन्द्र तो इंटर के बाद ही नेवी में चला गया था। उससे तो बरसों से भेंट-मुलाकात नहीं हुई, छुटि्टयों में जब जाता तो पिक्कू से ही मुलाकात होती। मैं भी पहले प्राइवेट से मैनेजमेंट करने दिल्ली आ गया और फिर एक प्राइवेट कंपनी में नौकरी करके यहीं रहने लगा। पिछले छह सालों में कंपनियां तो कई बदलता रहा मगर शहर दिल्ली ही बना रहा। पिक्कू सीतामढी में ही जमा रहा। बी.ए. पास करने के बाद उसने वहीं कई तरह के कामों में हाथ आजमाए...
पहले कुछ दोस्तों के साथ मिलकर एक चिट फंड कंपनी की एजेंसी ले ली। लोग कहते उसने कंपनी का काम अच्छा चलाया शहर में लेकिन कंपनी ही डूब गई। कई लोगों के पैसे डूब गए। पिताजी ने गाँव में खेत बेचकर किसी तरह लोगों की देनदारी चुकाई। लेकिन साथ ही अपने छोटके दुलरुआ बेटे को यह भी साफ-साफ बता दिया, आगे किसी रोजगार के लिए मुझसे कुछ उम्मीद मत रखना जो कुछ बचा-खुचा था सब इस चिट फंड के दंड में चला गया। चिंता मत करिए पिताजी जल्दी ही सूद समेत सब चुका दूंगा- सुनते हैं उस दिन उसने अपने पिताजी को जवाब में कहा और तेजी से कमरे से निकल गया।
उसके बाद उसके बारे में कहानियां तो तरह-तरह की सुनाई देने लगीं लेकिन वह खुद कम ही दिखाई देता। कभी-कभी जब विधायक अजायब सिंह की बोलेरो गाड़ी शहर के मेन रोड से तेजी से गुजरती तो कुछ लोग कहते पीछे वाले शीशॆ से अक्सर उसका चेहरा भी दिखाई दे जाता। खैर... विधानसभा चुनाव आते-आते यह बात सबके सामने खुल गई। अजायब सिंह की लगातार दूसरी जीत के जुलूस में जब गाडियों का काफिला शहर के मेन रोड से गुजरा तो सबने देखा विधायकजी के ठीक पीछे चल रही बोलेरो में बाहर वह भी लटका हुआ एक हाथ उठाए लोगों का अभिवादन कर रहा था।
लोग कहते अजायब सिंह की जीत में उसकी अहम भूमिका थी।
पाँच गाँव का भोट अकेले मैनेज किए भइया- उसने मुझे खुद बताया था। लोग कहते चुनाव जीतने के बाद विधायकजी ने उसकी वफादारी का मोटा ईनाम दिया। असल में रेस्तरां भी तो उसी चुनाव का प्रसाद है।
जब पिक्कू रेस्तरां का उद्घाटन करने विधायक अजायब सिंह खुद आए तो किसी को इसका कोई शुब्हा नहीं रह गया कि विधायकजी से उसकी कितनी नजदीकी है। अब इसे संयोग कहिए या विधायकजी के शुभ हाथों की महिमा कि रेस्तरां का व्यवसाय का हश्र उसके पिछले व्यवसाय से बेहतर रहा। कुछ ही दिनों में रेस्तरां चल निकला।
लोग जब उसके बारे में बातें करते तो कहते पिक्कुआ को होटल धार गया... वैसे चर्चाएं तो और भी बहुत सारी चलतीं। बीच में जब-जब गया पिक्कू से कम ही भेंट हुई। हर बार सोचता कि उसके रेस्तरां में जाकर मिलूंगा उससे लेकिन किसी न किसी कारण जाना टलता रहा। अलबत्ता उसके बारे में किस्से खूब सुनने को मिलते रहे...
पता चला कि उसने अपने रेस्तरां में पुराने ढंग के कुछ केबिन लगवा रखे हैं। कॉलेज में पढ़नेवाले नौजवानों के लिए वे केबिन उस शहर में दुर्लभ एकांत उपलब्ध करवाते और इस सुरक्षित एकांत के एवज में वह उनसे अच्छी रकम वसूलता, खाने-पीने के अलग। एक बार किसी ने बताया कि शाम को जब रेस्तरां बंद हो जाता है तो उसके शटर के पीछे नेता लोग जुटते हैं। साकी वाईन शाप के एक कर्मचारी ने अपना नाम गुप्त रखे जाने की द्रार्त पर बताया शाम के बाद चार से पाँच बोतल व्हिस्की रोजाना पिक्कू रेस्तरां में जाती है।
तरह तरह की बातें। खैर... उसके घर में समृद्धि दिखाई देने लगी थी। उसके पुराने घर की बरसों बाद रंगाई-पुताई हुई और जब छोटी बहन की शाादी हुई तो शहर के करीब एक हजार लोगों ने उसके यहां लजीज खाने का लुत्फ उठाया, पूरा मोहल्ला लाईट से जगमगा गया और गानों के शोर से धमधमा गया। पिछली बार जब उससे मुलाकात हुई तो उसने मुझे खुद बताया था- अगले धनतेरस के लिए बोलेरो का ऑर्डर दे दिए हैं भइया...
धनतेरस आने ही वाला था कि एक सुबह ऐसी खबर आई कि खबरों की खबर बनती चली गई। शहर में नए-नए शुरु हुए अखबार दैनिक अमृत खबर ने विस्तार से लिखा था- नए-नए आए एस.पी. मयंक खरे ने शहर में अपराध खत्म करने के अपने संकल्प को कार्यरूप देते हुए पिक्कू रेस्तरां पर देर रात छापे की कार्रवाई। कहते हैं कि छापे के दौरान रेस्तरां के ऊपर के कमरों से नेपाल से भगाकर लाई गई छह लडकियां बरामद हुईं। सूत्रों से पता चला है कि शहर के कुछ गणमान्य लोग भी इस छापे के दौरान पकडे गए हैं। पुलिस ने बरसों से चले आ रहे देह-व्यापार के एक बडे रैकेट के खात्मे का दावा किया है। जिसमें अनेक राजनेताओं के भी शाामिल होने का संदेह है। रेस्तरां के मालिक पंकज को पुलिस हिरासत में भेज दिया गया है। और भी तमाम तरह की खबरें आने लगीं...
लोग चर्चा करते अजायब सिंह ने जबसे अपनी ही पार्टी के मुखयमंत्री के खिलाफ मोर्चा खोला है उसी का नतीजा है... कहते उस रात वहाँ विधायक खुद भी मौजूद था। जाने कैसे उसको भनक लग गई। पेशाब करने के बहाने उठा और बाथरुम जाने की बजाय रेस्तरां से बाहर निकल गया...बाकी लोग पकड़े गए। जितनी मुँह उतनी बातें...
बोलेरो तो नहीं आई लेकिन बोलेरो क्लास में जाने का उसका सपना पूरा हो गया शाायद- दीवाली से छठ की छुट्टी के दरम्यान मैं सच बताऊँ यही सोचता रहा। कम से कम बोलेरो पर चलनेवाले जिले के बडे-बडे नेताओं की पंक्ति में उसका भी नाम तो छप ही रहा था!
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4.
लाइटर
उस दिन के बाद सब उसे बबलू लाइटर के नाम से बुलाने लगे।
नाम तो उसका बबलू सिंह था। जबसे वह राधाकृष्ण गोयनका महाविद्यालय में पढ़ने आया था तबसे उसके इसी नाम की शोहरत फैली थी। इंटर में दाखिला लेते ही उसने अपने नाम का डंका बेलसंड प्रखंड ही नहीं, पूरे सीतामढ़ी जिले में बजवाया था। उस साल उसके विधानसभा क्षेत्र से उसके सजातीय ठाकुर रिपुदमन सिंह ने पहली बार विधानसभा का चुनाव लड़ा था। उसने कॉलेज के हॉस्टल में रहने वाले बीस समर्पित नौजवानों का ऐसा दल बनाया कि कहते हैं उस दल ने अपने दम पर पैंतालीस-जी! बीस और पाँच पैंतालीस-बूथ छापकर ठाकुर साहब को 22,000 मतों से विजयी बनवाने में अहम भूमिका निभाकर जिले की राजनीति में दशकों से दखल रखनेवाले नेताओं को भी उसने एक बार अपने नाम के बारे में सोचने को मजबूर कर दिया था।
जब भी अलग-अलग पार्टियों के छोटे-बड़े नेताओं का जमघट कहीं लगता तो उनमें इस बात को भी लेकर चर्चा छिड़ जाती थी कि आखिर इंटर फर्स्ट ईयर में पढ़ने वाले इस बबलुआ ने कमाल कर दिया। खुद ठाकुर साहब ने चुनावी जीत के अपने जलसे में उसके माथे पर लाल पगड़ी बांधते हुए यह घोषणा भी कर दी कि असल में बबलू सिंह उस जिले का भावी युवा हृदय सम्राट है।
कोई और होता तो उसकी राजनीति चमक गई होती, मगर लगता है जैसे बबलू की किस्मत कुछ खास अच्छी नहीं थी। एक तो कारण यह कि ठाकुर रिपुदमन सिंह झोंक-झोंक में अपने पीढ़ियों पुराने दुश्मन राम अजायब सिंह को सत्तारूढ़ पार्टी द्वारा टिकट दे दिए जाने के कारण निर्दलीय ही चुनाव में खड़े हो गए थे। पटना पहुंचने के बाद भी सरकार में अपनी कुछ खास साख नहीं बना पाए, क्योंकि सत्तारूढ़ पार्टी को अपनी बदौलत सदन में पूर्ण बहुमत मिल गया था। इसके कारण निर्दलियों की कुछ खास दरकार सरकार को रह नहीं गई थी। दूसरा कारण यह भी था कि अपने अक्खड़ स्वाभाव के कारण ठाकुर रिपुदमन सिंह की कोई साख भी नहीं बन पाई। वे निर्दलीय के निर्दलीय बने रहे। बस, बबलू और उसके कुछेक साथियों को जी-जान से की गई मेहनत के बदले यही लाभ मिल पाया कि एमएलए बनने पर ठाकुर साहब को जो यात्रा-कूपन मिले थे उसका उपयोग करते हुए वे दो-चार दफा दिल्ली की यात्रा कर आए, वह भी एसी कोच में बैठकर।
यात्रा में ठाकुर रिपुदमन सिंह की कोई खास दिलचस्पी नहीं थी। वे चाहे बेलसंड के अपने पैतृक गांव में रहते हों या पटना के विधायक निवास में हर शाम एक ही स्थान की यात्रा करते थे- मुजफ्फरपुर के चतुर्भुज स्थान में रेशमा खानम के कोठे पर गजल सुनने जाया करते थे। इस यात्रा के लिए उनकी गाड़ी ही पर्याप्त थी। इसलिए रेलयात्रा का कूपन वे अपने लगुओं-भगुओं में बांट दिया करते।
बहरहाल, ठाकुर साहब अगला चुनाव हार गए और अपने उस स्वायत्त संसार में लौट गए जिसमें अब उनके और रेशमा खानम के गायन के दरम्यान कोई बाधा नहीं रह गई थी। राजनीति के पांच सालों के प्रवास से ठाकुर साहब की बरसों पुरानी नियमित दिनचर्या में बाधा ही आ गई थी। वे नियमित तौर पर गजल सुनने नहीं जा पाते थे। जल्दी ही ठाकुर रिपुदमन सिंह राजनीति के संसार के लिए गुमनाम हो गए और बबलू सिंह की राजनीति दिशाहीन हो गई।
शिक्षा में भी इन पांच सालों में उसने कुछ खास प्रगति नहीं की थी। इन पांच सालों में वह शिक्षा के महज तीन पायदानों को ही पार कर पाया था। अभी वह बीए फाईनल ईयर का छात्र था। कुछ तो सेशन लेट होने के कारण वह पिछड़ गया था और एक साल मौज में आकर उसने परीक्षा भी नहीं दी थी। उसका सारा ध्यान कॉलेज-विश्र्वविद्यालय के चुनाव लड़ने और जीतने पर था।
ठाकुर साहब विधानसभा का चुनाव क्या हार गए बबलू सिंह के लिए तो जैसे दुनिया ही बदल गई। जिस लॉज में रहते थे, जिस मेस में खाना खाते थे उसकी ओर से बकाए का तकाजा आने लगा। एक दिन पुलिस वाले ने बिना हेल्मेट स्कूटर चलाने पर मेहसौल चौक के व्यस्ततम चौराहे पर शाम के छह बजे उस समय रोक लिया था जब अमूमन पान खाने के लिए शहर के बड़े-बड़े नक्शाबाज वहां प्रिंस पान भंडार के सामने जुटते थे। पुलिस वाले ने डंडे से उसके स्कूटर को कई बार खटखटाया भी। वह तो भला हो चुनचुन यादव का कि उसने आगे बढ़कर पुलिस वाले से कहा कि ये बड़े सीनियर कार्यकर्ता है, जरा संभलकर बात करे। खैर..तब बात आई गई हो गई।
लेकिन एक बात बबलू सिंह के समझ में आ गई कि शहर में पहचान इससे नहीं बनती कि आप किस आदमी का झंडा उठाते हैं। पहचान इससे बनती है कि भले आप चलते बजाज सुपर के स्कूटर से ही हों, मगर उस पर झंडा किस पार्टी का लगा है। आखिरकार मायने यही रखता है।
ठाकुर साहब की निर्दलीय राजनीति गुमनाम हो गई और बबलू सिंह को कोई प्रश्रय देने वाला ही नहीं रहा। ऐसे में कॉलेज में चुनाव जीतकर युवा हृदय सम्राट का सपना खटाई में पड़ता दिखने लगा था।
ऐसा नहीं है कि बबलू भी गुमनामी के गर्त में चला गया हो, वह पढ़ाई-लड़ाई साथ-साथ के नारे में यकीन रखता था। जिले के एकमात्र प्रतिष्ठित कॉलेज में पढ़ने उसके प्रखंड से आने वाले लड़कों की तादाद में कोई कमी नहीं आई थी। उनके बीच उसका अच्छा जोर भी था। उनके ही बूते उसने बताते हैं कि एक बार ऐसा कारनामा कर दिखाया कि उसका नाम शहर के बच्चे-बच्चे की जुबान पर चढ़ गया। उसने दुर्गा पूजा के चंदे के सवाल पर शहर के प्रतिष्ठित श्याम स्टोर्स के मालिक पर चाकू चला दिया था। मालिक लाला रामनाथ को थोड़ी-बहुत खरोंच ही आई। मगर यह घटना उसे अपनी प्रतिष्ठा पर इतना बड़ा आघात लगी कि उसने अगले दिन से दुकान पर बैठना ही छोड़ दिया। सारा कामकाज अपने बच्चों के हाथ में छोड़कर वह बाबा वैद्यनाथधाम रहने चला गया।
बबलू सिंह पर कोई खास कार्रवाई नहीं हुई। वह गिफ्तार तक नहीं हुआ। कहते हैं सत्तारूढ़ पार्टी के एक रसूख वाले नेता ने उसके साहस को देखते हुए उसके ऊपर अपना हाथ रख दिया था। सेठ के परिवार वाले इस घटना से इतने आतंकित हो गए कि उन्होंने भी इस मामले को आगे बढ़ाना उचित नहीं समझा।
इस घटना ने जैसे बबलू सिंह का कद शहर के रंगबाजों में चढ़ गया। लोग कहने लगे यही हाल रहा तो यह कॉलेज से निकलते ही विधानसभा का चुनाव तक लड़ जाएगा। लड़के उसकी दोस्ती में अपनी शान समझते। देखने-सुनने में वह इतना गोरा-चिट्टा, लंबा था कि देखकर कोई नहीं कह सकता था कि उसने इतने बड़े-बड़े कारनामे किए हैं। उन दिनों शहर में गिने-चुने लड़के ही जींस और नाईके या रीबॉक के स्पोर्ट्स शूज पहनते...बबलू उनमें से एक था। चुनाव में अब उसे इस बात की उम्मीद ज्यादा दिखाई देने लगी थी कि सत्तारूढ़ पार्दी के छात्र संगठन का समर्थन उसे मिल जाए। वह छात्र संगठन के जिलाध्यक्ष विमल सिंह तूफानी की दूकान पर अक्सर शाम को उठने-बैठने भी लगा था।
उसकी गाड़ी पटरी पर अच्छी तरह दौड़ रही थी कि कॉलेज छात्र संघ के चुनाव से यह घटना घट गई। उसके बढ़ते राजनीतिक कैरियर पर विराम लग गया। उसका नाम बबलू लाइटर पड़ गया...
घटना कुछ ऐसी है कि उसे मामूली भी कह सकते हैं और चाहें तो यह भी कह सकते हैं कि यह तो बड़ी बात है। आजकल तो इसकी कोई परवाह भी नहीं करता। मगर कौन जानता था कि बात इतनी बड़ी बन जाएगी। लेकिन बात इतनी बढ़ गई कि शहर में जो भी उसे जानता था बबलू लाइटर कहकर बुलाने लगा।
मुझे अच्छी तरह याद है सरस्वती पूजा का दिन था। गोयनका महाविद्यालय सरस्वती पूजा समिति की ओर से कॉलेज की तब पैंतीस साल की परंपरा का निर्वाह करते हुए हर साल की तरह उस साल भी सरस्वती पूजा का आयोजन किया गया था। शहर का शायद ही कोई नवयुवक या नवयुवती हों जो उस जगह सरस्वती मां को माथा नवाने न आते हों। उस साल आयोजकों में बबलू सिंह भी था और जैसी उसकी प्रतिष्ठा थी कोई यह मान भी नहीं सकता था कि वहां कुछ गड़बड़ हो जाए।
बताने वाले बताते कि सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा था, शाम हो चुकी थी और आरती की तैयारी चल रही थी। उस समय डुमरा प्रखंड के बीडीओ साहब गणेशी मंडल की लड़की रोजी सरस्वती माता की वंदना करने आई। वह माता की पूजा करके जाने के लिए पीछे मुड़ी ही थी कि प्रसाद का ठोंगा लेकर बबलू उसकी ओर बढ़ता दिखाई दिया। अब वह पूजा की थकान का बोझ था या भांग का नशा वह रोजी के सामने ऐसा लड़खड़ाया कि उसके हाथ में रोजी के दुपट्टे का पल्लू आ गया। मंडप में ज्यादा लड़के थे नहीं, जो थे भी उनमें से ज्यादातर बबलू के अपने ही इलाके के थे। सब सन्न होकर देखते रह गए।
रोजी रोती हुई वहां से तीर की तरह निकल गई। हल्ला हो गया कि बबलू ने एक लड़की का दुपट्टा खींच लिया। बबलू लाइटर हो गया है...
आप कहेंगे लाइटर माने?
तो साहब उन दिनों हमारे उस छोटे से शहर में जो भी स्कुलिया-कॉलेजिया विद्यार्थी शर्ट को पेंट के अंदर खोंस कर पहनता, पेंट की पिछली जेब में कंघा रखता, तेल या जेल लगाकर बाल को सेट करके रखता, लड़कियों के कॉमन रूम के सामने से निकलते हुए बार-बार अपने बाल ठीक करते हुए चोर निगाहों से उधर देखता, तो लोग उसे लाइटर बुलाने लगते।
सत्तारूढ़ पार्टी के छात्र संगठन के जिलाध्यक्ष विमल सिंह तूफानी कहते- ढ़ने-लिखने वाले लड़कों का ई सब काम थोड़े होता है। ऊ त लाइटर लोग गंड़सटाक पहनकर, जुलफी बढ़ाकर शहर का माहौल खराब करता है।
एक बार तो उन्होंने शहर के लाइटर लड़कों को सुधारने का अभियान भी चलाया था। नगर थाना के जमादार रामबरन सिंह का भी उनको इस अभियान में सहयोग मिला था। उन दिनों बड़ी मोहरी के पेंट पहनने का चलन था। विमल सिंह तूफानी जमादार साहब के साथ स्कूल-कॉलेजों के चक्कर लगाता। जो भी लड़का बड़ी मोहरी का पेंट पहने मिलता उसके पेंट की मोहरी काट दी जाती या किसी लड़के के बाल बढ़े हुए पाए जाते तो उसका तत्काल मुंडन कर दिया जाता। जमादार रामबरन सिंह लड़के के बालों को हाथों से पकड़ कर घोषणा करते हुए कहते- बच्चा लोग घ्यान से सुनो, जिसका भी बाबड़ी मेरे हाथ में आ गया उसका सिर मूंड़ दिया जाएगा। तुम लोग कॉलेज में पढ़ने आते हो, बाबड़ी बढ़ाकर लाइटर बनने नहीं। इस घोषणा के बाद उस लड़के को मुंडन करने वाले के हवाले कर दिया जाता।
विमल सिंह तूफानी और जमादार रामबरन सिंह का यह अभियान सफलतापूर्वक चल रहा था कि अचानक इस पर विराम लगाना पड़ा। हुआ यह कि एक दिन उनके दल ने एक ऐसे लड़के का लाइटर समझकर मुंडन कर दिया जिसके पिता पास के जिले में बड़े अधिकारी थे। इस घटना के बाद जमादार साहब का ट्रांसफर तस्करी रोक अभियान के तहत मोहनिया बॉर्डर पर कर दिया गया। विमल सिंह तूफानी ने पटना दौड़-भाग कर पार्टी के बड़े नेताओं से कह-सुनकर मामला शांत करवाया। वह अधिकारी तो तूफानी को मानहानि के मुकदमे में फंसाकर उसे गिरफ्तार करवाने की तैयारी में था। लेकिन ऊपर से कहने-सुनने पर वह शांत हुआ। खैर, लाइटरों के खिलाफ इसी अभियान के बाद तूफानी पार्टी की छात्र इकाई का जिलाध्यक्ष बन गया।
बबलू सिंह के लाइटर निकल जाने की खबर आग की तरह फैल गई। शहर भर में यह बात खुसफुसाहटों के सहारे फैल गई कि उसने बीडीओ साहब की लड़की का दुपट्टा खींच लिया और वह दनदनाती हुई पूजा के मंडप से बिना प्रसाद लिए ही निकल गई।
विमल सिंह तूफानी ने बयान जारी कर दिया, आदमी लाइटर हो वह कॉलेज में पढ़ने वाली बहनों की क्या रक्षा कर पाएगा। ऐसे लाइटर का सामाजिक बहिष्कार कर देना चाहिए।
अगले दिन मूर्ति के भसान में भी बबलू सिंह नहीं दिखा। लड़के कानाफूसी कर रहे थे कि रात को हॉस्टल से उसे पुलिस उठाकर ले गई थी। आखिर एक अफसर की बेटी को छेड़ा था उसने।
बाद में लौटकर वह आ गया। लेकिन अपने ही गांव, प्रखंड के लड़के उसका साथ छोड़ने लगे। कम से कम सार्वजनिक तौर पर तो वे यही कहते कि भइया कोई देख ले तो हमारी भी बदनामी होगी। पार्टी नेता ने भी अपने हाथ सिर के ऊपर से हटा लिए।
जिधर से भी गुजरता लोग कहते- देखो, बबलू लाइटर जा रहा है।
इसके बाद की कहानी के बारे में मैं केवल इतना ही बता सकता हूं कि बबलू सिंह ने हॉस्टल छोड़ दिया और किराए पर एक कमरा लेकर रहने लगा। चुनाव में भी उसने कोई सरगर्मी नहीं दिखाई। बीए की परीक्षा देकर वह उस शहर के सीन से सदा के लिए गायब हो गया। वैसे भी शहर के नौजवान पढ़ाई-नौकरी के लिए दिल्ली-मुंबई जैसे बड़े-बड़े शहरों का रुख कर रहे थे।
जल्दी ही बबलू लाइटर को हम भी भूल गए...
आप कहेंगे कि मैं भी बौड़म की तरह क्यों बिना किसी संदर्भ के यह कहानी सुनाए जा रहा हूँ। तो अब इसका संदर्भ भी बता देता हूँ।
पिछले साल जब बिहार में पंचायत चुनाव हो रहे थे तब मैं सीतामढ़ी में अपने गांव गया हुआ था। रोज चुनावों को लेकर तरह-तरह की खबरें छपती रहती थीं कि किस तरह पंचायत चुनावों में महिलाओं के लिए आरक्षण लागू कर दिए जाने से गांवों में सत्ता-परिवर्तन तथा सामाजिक रुपांतरण की प्रक्रिया शुरू हो गई है। इसी दौरान हिंसक घटनाओं की खबरें भी अखबारों में छप रही थीं। बेलसंड प्रखंड के एक पंचायत के उम्मीदवार के मरने की खबर भी छपी थी। खबर थी कि उसके प्रतिद्वंद्वी उम्मीदवार ने उसकी हत्या रात में सोते समय करवा दी थी। उम्मीदवार का नाम सीतामढ़ी समाचार में बबलू सिंह लिखा हुआ था। तस्वीर तो नहीं छपी थी कि मैं कुछ और अनुमान लगा पाता। लेकिन बबलू लाइटर की इस कहानी का मुझे ध्यान आ गया।
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