Lokesh tum Kaha Ho in Hindi Short Stories by Ramesh Khatri books and stories PDF | लोकेश तुम कहाँ हो

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लोकेश तुम कहाँ हो

कहानी लोकेष तुम कहाँ हो ? रमेष ख़त्री

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मेरी मुलाक़ात बैंक के अहाते में हुई थी । मैं भी उन दिनों इस षहर में नया था, मेरी यहाँ पहली पोस्टिंग थी और इस षहर में किसी को जानता नहीं था । अनजानों के बीच अपने नीड़ के निर्माण में इस अनजान षहर में आना हुआ था । नौकरी की विवषता मुझे अपने घर से इस षहर तक खींच लाई थी । खैर, वह एक अलग दास्तान है, जब मैंने अपने विभाग में ज्वाईन कर लिया तो मुझको एक नया फरमान थमाया गया ‘कार्यालय के नज़दीक के किसी बैंक में अपना खाता खुलवाओ और उसका नम्बर तुरंत दो जिससे वेतन इत्यादि उसमें स्थानान्तरित किये जा सके ।' बस इसी सिलसिले में बैंक जाना पड़ा और वहीं पर उससे मेरा परिचय हुआ ।

यह भी एक दीगर संयोग है कि जैसे ही मैंने बैंक के अहाते में प्रवेष किया मेरी नज़र उस पर जाकर केन्द्रित हो गई वाकया ही कुछ ऐसा था । ठीक उसी समय वह अपना स्कूटर पार्किंग में खड़ा कर रहा था । उसके स्कूटर की हल्की सी टक्कर से पार्किंग में खड़ी कई गाड़ियाँ एक.एककर गिरने लगी जैसा कि हिन्दी फिल्मों में दिखाया जाता है । एक गाड़ी दूसरे पर गिरी और दूसरी तीसरे पर और इस तरह से गाड़ी गिरने का तांता लग गया । इस नव परिस्थिति ने जहाँ मेरा ध्यान उस ओर आकृष्ट किया वहीं उसके लिए समस्या पैदा कर दी, उसके चेहरे पर एक हल्की सी मुस्कान फैल गई । उस समय आसपास जो भी थे उसकी ओर लपके और गाड़ियाँ उठाने लगे, वह भी इस काम में मषगूल हो गया और गाड़ियाँ अपनी अपनी जगह खड़ी होने लगी । इस बीच उसने अपनी स्निग्ध मुस्कुराहट से सभी का धन्यवाद किया और बात आयी गयी हो गई ।

मैं भी इस सबको वहीं छोड़कर अपनी धुन में बैंक में प्रवेष कर गया । हमारे साथ कई बार कई बड़ी घटनाएँ होती है और हम उनको वहीं छोड़कर अपने काम में व्यस्त हो जाते हैं, वह भी एक ऐसी ही घटना थी । दस बजे का समय था बैंक के कर्मचारियों की आमद षुरू हो चुकी थी । मैं भी अपने काम से संबंधित जानकारी लेकर एक टेबल के पास आकर बैठ गया । मुझे बताया गया यहाँ बैठने वाले बाबूजी ही नये खाते खोलने का कार्य करते हैं । मैं तल्लीनता से उनका इन्तज़ार करने लगा । आप तो जानते ही हैं इन्तज़ार किसी का भी हो कितना भारी होता है । तो मैं वही भारी कार्य कर रहा था । जिनका मैं इन्तज़ार कर रहा था वे लेट हो गये थे या फिर मैं ही जल्दी आ गया था पर वे अभी तक आये नहीं थे और मेरा इन्तज़ार भारी होता जा रहा था । मैं बैठे हुए देख रहा था बैंक के कर्मचारी जल्दी में आ रहे थे अपने साथियों से हाय हलो के बाद अपनी सीट सम्हाल रहे थे । मैें जिनके इन्तज़ार में बैठा था, उनको जानता तो था नहीं सो हर आनेवाला सज्जन मुझे वही लगता जिससे मेरा काम होना है । बस इसी कारण मैैं हर एक को ललचाई नज़रों से देख रहा था । और इससे ठीक उल्टा वह मुझे सवालिया नज़रों से घूरता । और अपनी सीट से चिपक जाता । मैंने ही जल्दी आकर कई सारे लोगों के लिए प्रष्न खड़े कर दिये थे । एक ऐसा प्रष्न जिसका हल मेरे पास तो बिल्कुल ही नहीं था । सब उसे अनुत्तरित मानकर चुप लगाने में ही भलाई समझ रहे थे ।

पब्लिक सर्विस को ढोते बैंक कर्मचारी अपनी ड्‌यूटी पर किस तरह से भागते दौड़ते आते हैं यह मुझे उस दिन पता चला, यह मेरे लिए कौतुहल का विषय था । अन्य विभागों में जहॉँ सीधे जनता से सम्पर्क नहीं होता ऐसी जगहों पर काम करने वाले लोगों के आने.जाने का कोई हिसाब नहीं होता । वहॉँ पर तो उनके अधिकारी ही उनके आने.जाने का हिसाब रखते हैं और वे भी कितना रख पाते हैं ये तो वे ही जानते हैं । पर जहॉँ पर सीधे जनता को सेवाऐं देनी होती है ऐसे पदों पर कार्य करने वाले कर्मचारी को तो अपने समय का पाबन्द होना ही होता है । बैंक भी उनमें से एक हैं ।

मैं खुद भी इंतजार करते हुए उकताने लगा था, मुझको यहॉँ पर बैठे हुए काफी समय हो गया था । मेरी सब्र का बांध टूटे इससे पहले मैं अपने आपको जब्त करता रहा । वैसे इतनी जल्दी गुस्सा नहीं आता है मुझे मेरे सब्र की असीमित सीमा है। मैं बहुत विलम्ब से व्यक्त करता हॅूँ, कई बार इसका खमियाजा भी भुगतना पड़ता है, कुछ लोग तुरंत रिएक्ट कर देते हैं और लिया.दिया बराबर । इस मायने में वे प्रसन्न रहते हैंं जबकि मुझ जैसे लोगों को बहुत कुछ अपने अंदर घोटना पड़ता है और खुद पर खीजते हुए बैठे रहो, सो मैं भी बैठा था । इन्तज़ार करते हुए ।

यह तो गनीमत है कि मेरे सब्र का बांध टूटे इससे पहले उस सीट पर आकर वही सज्जन विराज गये जिनसेे अभी कुछ देर पहले मेरी मुलाकात विचित्र परिस्थितियों में बैंक के अहाते में हुई थी । मुझे देखकर उनके चेहरे पर मुस्कान की रेखाऐं फैल गई तो मैं भी हौले से मुस्कुरा दिया । यही पहला परिचय था लोकेष से मेरा । पहली मुलाकात ही इतनी मजेदार थी कि फिर तो बाद में मुलाकातों के दौर चलते रहे ।

बातों ही बातों में उसने मेरे बारे में सम्पूर्ण जानकारी इकट्‌ठा की और मेरा बैंक में वांछित कार्य करवा दिया इतना ही नहीं वह पहली ही मुलाकात में मुझसे अपनापा दर्षाने लगा और मेरे व्यक्तिगत जीवन में उसने घुसपैठ षुरू कर दी । इस अनजान और नये षहर में उसका इस तरह अपनापन दर्षाना अच्छा लग रहा था ।

कुल जमा लोकेष एक हमदर्द और संवेदनषील नौजवान था, उसने मेरी इस महानगर में काफी मदद की क्योंकि मैं भी यहॉँ के लिए उतना ही अनजाना था जितना कि लोकेष, मेरे लिए तो ये दो अनजाने मिलकर दोस्त हो गये और इस तरह से इस षहर से मेरा नाता वाया लोकेष दोस्ती का बना । मैं यहॉँ बता दूँॅ जब उससे मेरी पहले पहल मुलाकात हुई उस समय तक मैं एक होटल में रह रहा था और एक अदद कमरेनुमा घर की तलाष में भटक रहा था । लेकिन लोकेष से मुलाकात होने के उपरान्त उसने मुझे फिर उस होटल में नहीं रहने दिया । वह जबरन मुझे अपने साथ घसीट ले गया । मेरे लाख ना.नुकुर करने के बाद भी वह माना ही नहीें मेरे सारे फैले हुए सामान को उसने बैग में समेटा और मुझे होटल का कमरा छोड़ने पर विवष कर दिया । उस समय मुझे लगा भी कि ‘ये व्यक्ति इतनी उतावली क्यों कर रहा है ?' षक की सुई मेरे मस्तिष्क में अपना कार्य कर ही रही थी । लेकिन उसके मन में क्या चल रहा था मैं पूरी तरह से उससे नावाक़िफ़ था । उसने बड़े ही सहज तरीके से कहा, ‘‘बोस ! ऐसे कैसे तुमको इस तरह से होटल में रहने दूँगा फिर मेरे इस शहर में रहने के माने ही क्या है ? आखिर मेरा भी कुछ फ़र्ज बनता है कि नहीं, जब तक तुम्हारे रहने की कोई माकूल व्यवस्था नहीं हो जाती है तब तक तो तुमको मेरे साथ ही रहना होगा और मुझको झेलना होगा । दोनों मिलकर रहेगें यार......।'

और मैं उसके आग्रह को टाल नहीं पाया । उसके आग्रह में इतनी आत्मीयता घुली थी कि मना करने की हिम्मत नहीं जुटा पाया और इस तरह से लोकेष ने मुझे इस शहर में अपने पैर जमाने के लिए ज़मीन तैयार की । मैंने उसी नींव पर अपने कैरियर का शानदार महल तैयार कर लिया ।

लोकेष भी उन दिनों अकेला ही था और मैं भी, हम दो अकेले इस शहर की गलियों को नापते रहते थे । हमारा अधिकांष समय.साथ साथ बीतने लगा । जब अलग होते तो दोनों एक दूसरे की प्रतीक्षा में समय बिताया करते । कुछ दिनों के बाद हम दोनों रहने तो अलग.अलग लगे किन्तु खाना दोनों का साथ ही तैयार होता था और जीवन की बहुत सी बातों को हमने आपस में बाँट लिया था । जिसका जिक्र करना भी जरूरी नहीं है । हमने बहुत सी बातें उन दिनों आपस में षेयर कर ली थी, जिनमें परिवार के दुःख.दर्द थे और अपनी.अपनी नौकरी की नवांकुरित परेषानियॉँ थी । उन्ही दिनों उसने बताया, ‘‘घर पर उसके पिताजी, माँ, छोटा भाई और एक बहन है । परिवार का वही बड़ा लड़का है और अच्छी नौकरी में भी है । छोटा भाई अभी तक दसवीं में ही है बहन तो उससे भी छोटी है । वह शायद सातवीं या आठवीं में रही होगी । पिताजी की गाॅँव में छोटी सी खेती योग्य ज़मीन है और वें गाॅँव के पास ही किसी सरकारी स्कूल में अध्यापक हैं । वह भी छुटि्‌टयों में अक्सर अपने गाॅँव भाग जाया करता था । क्यों कि उसका गाॅँव इस शहर से काफी नज़दीक था । जबकि मैं अपने घर से काफी दूर आ गया था । मुझे अपने घर जाने के लिए ज्यादा अवकाष की जरूरत थी । दो चार.बार वह मुझे भी अपने साथ खींच ले गया, लेकिन मैं उसके घर जाकर कम्फर्ट महसूस नहीें करता था क्योंकि उसका परिवार सनातन धर्म में विष्वास करने वाला एक पूजा.पाठी परविार था और मैं निरा नास्तिक । उसके पिताजी और माँँ का अधिकांष समय संध्या.पूजा में व्यतीत होता । छूआ.छूत को मानने वाले निरे धार्मिक विचारों के उसके माँँता.पिता के प्रति मेरे मन में श्रद्धा तो पूर्ण थी किन्तु मेरा मन इन सबसे परे आदमियत के फर्ज से बंँधा नये ठिकानों की तलाष में भटकता रहता । किन्तु लोकेष के माता.पिता और भाई.बहन तो निममित मंदिर जाने में विष्वास करते थे । उसके पिताजी थोड़ा उदारवादी रूख रखते थे । भाई शरारती और बहन चंचल चिड़िया की तरह हरदम फुदकती रहती । मुझे उसके घर जाकर अच्छा तो लगता था किन्तु छुआ.छूत का आडम्बर अन्दर तक आहत करता । जब भी मैं उसके घर जाता मुझे भरपूर अपनापन मिलता जिसकी तलाष में आदमी जीवनभर धक्के खाता रहता है । वह सब कुछ मुझे सहज ही मिल गया और मैं उसकी सुवासित गंध में डूबा न जाने कितना समय गुजार दिया करता ।

किन्तु लोकेष जब भी अपने घर जाता उसके मन में अतुल उत्साह कुलांँचे मार रहा होता और जब वह घर से वापस आता तो भी उसके मन का उल्लास उसकी आँखों में समया नज़र आता, इसी के सरूर में उसका पूरा का पूरा सप्ताह बीत जाता और पता ही नहीं चलता । और वह पुनः घर के लिए प्रस्थान कर जाता । यह सब मेरे नसीब में नहीं था, क्योंकि मेरा घर कई सौ किलोमीटर दूर होने के कारण मैं महिने में एकबार जाने की हिम्मत ही मुष्किल से जुटा पाता, मुझे अपने घर जाने के लिए कम से कम दो तीन अवकाष तो लेने ही पड़ते थे और उनको भी सप्ताहांत के साथ एडजेस्ट करना पड़ता, तब जाकर मेरा घर जाने का सपना पूरा हो पाता । और इसके उपरान्त भी दौड़ते.दौड़ते जाता और भागते.भागते वापस आ जाता । क्योंकि मेरा एक दिन तो जाने में और एक दिन आने में खर्च हो जाता । इसी कारण हर बार मैं अपने घर पहुँॅचकर भी अपने आपको पराया महसूस करता, अपनों से ठीक से मिलना हो ही नहीं पाता । आने.जाने के अलावा बीच का समय कब हवा हो जाता पता ही नहीं चलता । मैं वहाँ मेहमान की तरह जाता और मेहमान की तरह ही लौट आता, वहाँ की किसी भी समस्या को हल करने में मेरा कोई सार्थक योगदान नहीं हो पाता । हालाँकि मैं भाईयों में सबसे छोटा था किन्तु मेरी छोटी बहनें तो थी । उनकी पढ़ाई चल रही थी । मेरे असमय पहुँच जाने के कारण उनकी पढ़ाई में भी व्यवधान आता था । आरंभ में तो माँ बीते समय की एक.एक बात विस्तार से बताया करती, किन्तु जैसे.जैसे समय बीतता गया उसकी यह आदत भी छुट गई और मैं उनके स्नेहिल आँचल से बाहर निकलता चला गया और मेरे सर पर चिलचिलाती धूप ने अपना स्थाई बसेरा कर लिया । अपने ही घर में मुझसे पर्दादारी होने लगी । एकाध बार तो पिताजी ने मेरे सम्मुख ही कह दिया, ‘अरे ! यह दो चार दिनों के लिए आया है, इसे तो आराम से रहने दो...इसे क्यों उलझाती हो बेकार के झंझटों में...?' उस समय मैं पिताजी का चेहरा देखता रह गया ।

पर लोकेष के साथ तो यह सब नहीं था । वह अपने परिवार के संपर्क में लगातार था और उनके सुख.दुःख का लगातार भागी था । घर के नज़दीक नौकरी लगने का एक यह लाभ तो था ही और वह इसका भरपूर फायदा उठा रहा था । इस तरह से लोकेष समय के घोड़े पर सवार फर्राटे से भागा जा रहा था और मैं उसको इस तरह भागते हुए देखता रहता । अच्छे दिन बीत रहे थे, लोकेष को भी बैंक में काम करते हुए दो साल से भी अधिक का समय हो गया था और मुझे भी तकरीबन छः आठ महीने तो हो ही गये थे । इस भागम भाग के बीच भी उसमें कमाल का स्टेमिना था, वह एडमिनिस्ट्‌ेटिव सर्विसेस की तैयारी कर रहा था और एक बार तो प्री और मेन एक्जाम को पास भी कर लिया पर इन्टरव्यू केे ठीक पहले जाँडिस हो जाने के कारण वह उसे दे नहीं पाया और अपनी इस शरीरगत असफलता के कारण हमेषा कोसता रहता अपने आपको । असफलता के इस आघात से उबरने में उसे काफी समय लगा । पर उसकी हिम्मत नहीं टूटी, वह कमर.कसकर फिर से तैयार हो गया नये सिरे से । वह हमेषा अपने बैग में इस एक्जाम की किताबें रखता और सफर के दौरान उसकी पढ़ाई चलती रहती, वह तो घर जाकर भी तैयारी में जुट जाता । जैसा वह अक्सर बताया करता, ‘किताबों को तो आपके चौबीस घंटे में से केवल तीन घन्टे ही चाहिये वह आप कहॉँ देते हैं यह आपको सोचना है ।' मैं उसकी बातों से सन्न रह जाता और सोचने लगता ‘यह कैसा व्यक्ति है, चलते फिरते भी अपनी आवष्यकता को निपटा लेता है और कितने ऐसे भी होंगे जो आलस्य और बहानों में ही समय बिता देते हैं ।'

बस तभी लोकष का मन कल्पना के घोड़ों पर सवार लम्बी यात्रा पर निकलने लगा था । उसके घर कई रिष्तें आ रहे थे, पढ़ा लिखा नौकरीषुदा लड़के को कौन छोड़ना चाहेगा । कुल मिलाकर उसकी पहॅुँच बढ़ रही थी । जब भी गाँव से आता हर बात मुझे तफसील से बताता और रस ले लेकर आए मेहमानों की खूबियॉँ और कमियॉँ गिनाता, सबसे ज्यादा विवरण तो भावी जीवन साथी को लेकर होता जिसे मैं देर तक सुनता रहता । उसकी आदत थी हर बात को मजाकिया लहजे में कहने की इसके कारण कई बार वह गंभीर और अतिगंभीर बातें भी मज़ाक में कह दिया करता ।

और फिर एक दिन लोकेष के पिताजी ने सूचना दी, ‘सिविल लाईन्स में फलाँ के घर जाकर लड़की देख आना वे भी तुझे देखना चाहते हैं । बात लगभग तय सी हो गई है ।'

लोकेष सीधा मेरे पास आया और उसने पिताजी का फरमान तफसील से सुनाया । लड़की और उसके माता पिता जयपुर ही रहते हैं, सिविल लाईन्स में एक कोठी है और पिता किसी विभाग में निदेषक हैं । यह सब बताते हुए वह फिर से मज़ाकिया मूड़ में आ गया । तभी मैंने लोकेष को डाँंटते हुए कहा, ‘यार ! तुम कभी तो सीरियस हुआ करो, मजाक की भी कोई सीमा तो होती होगी ना....हर समय कैसे मज़ाक के मूड़़ में रह सकते हो ?'

‘बोस ! अपुन का तो यही स्टाइल है....समझा क्या...' इतना कहकर उसने जोर से ठहाका लगाया और मैं उसके पीछे भागा पीठ पर एक धौल लगाने । उस दिन हम दोनों देर तक हँसते रहे ।

फिर एक शाम वह मुझे सिविल लाईन्स के उस बंगले में ले गया, जिसमें उसकी स्वप्नपरी रहती थी । बड़ा सा सरकारी आवास अपनी गंभीरता ओढे़ हुए था । घर के अंदर का नज़ारा हमें एक दूसरे ही लोक में ले गया । शायद उनको पहले से ही हमारे आने की सूचना रही होगी । तभी इतना आडम्बर ओढ़ा गया था, घर का कोई भी सदस्य तनिक भी अपने ओढ़े हुए लबादे से बाहर ही नहीं आ रहा था । इसी लबादे में लोकेष ने अपनी स्वप्नपरी के दर्षन किए, बातचीत से पता चला, ‘राजस्थान विष्वविद्यालय से पोलिटकल साईन्स में एम.ए. कर रही है ।' उस समय लबादे से लैस होने के बावजूद भी वह शालीन लगी । एक छोटी बहन थी जो बार बार लोकेष को छेड़ती और कनखियोंं से अपनी बहन को देखती जाती । पिताजी घर पर भी निदेषक की हैसियत से ही बैठे थे, उनके लिए वह लबादा सबसे उत्तम था । सो, वे उसमें ही समाए रहे । माँ जरूर अपनत्व दिखाने का प्रदर्षन कर रही थी किन्तु ओढ़ी हुई शालीनता के कारण उनका यह प्रयास भी बचकाना सा लग रहा था । ड्‌्राइर्ंगरूम में बैठे हुए हमें लगने लगा हवा जम गई है बर्फ की मानिंद और हमें साँस लेने में भी तकलीफ होने लगी । साँस के आने.जाने की गति भी आवाज़ करने लगी थी एक अजीब तरह का घर्षणराग सुनाई देने लगा । हालांकि टेबल पर सजी नाष्ते की तष्तरियाँ हमारा मजाक उड़ा रही थी । इतनी तरह का नाष्ता सजा दिया गया कि टेबल ही छोटी पड़ने लगी । टेबल पर नाष्ता सजा था किन्तु हमारी हिम्मत नहीं हो रही थी उसको लेेने की । बार.बार हमसे लेने के लिए कहा भी गया पर चाहते हुए भी हम ले नहींं पाए ।

ऐसे में देर तक नहीं रूक पाए हम वहाँ । बाहर आकर खुली हवा में तेज.तेज साँस ली । लोकेष तो जोर.जोर से हँसने लगा, मैं समझ नहीं पाया उसकी हँसी का कारण । मैंने अपनी प्रष्नाहत नज़रें उसके चेहरे पर केंद्रित कर दी, तब जाकर उसकी हँसी का प्रवाह थमा । हम दोनों ने एक होटल में दबाकर खाना खाया और फिर फिल्म देखने चले गए । बात आई गई हो गई इस बीच मैं भी छुटि्‌टयों में अपने घर चला गया । इसलिए लोकेष और उसकी स्वप्नपरी के समाचारों से अनभिज्ञ ही रहा ।

किन्तु जब वापस लौटा तब तक लोकेष अपनी स्वप्निल दुनिया में पूरी तरह से समा चुका था । अब रात दिन वह स्वप्नपरी के ख्वाबों मेेंं खोया रहने लगा । पन्द्रह दिनों का अंतराल काफी होता है आदमी का संसार बदलने के लिए, वैसे तो एक लम्हा ही बहुत होता है आदमी के ख्वाब की तासीर बदलने के लिए पन्द्रह दिन तो बहुत होते हैं । घर से आने के बाद जब मैं उससे पुनः मिला तो उसने बड़े रस लेकर बताया अपनी होने वाली शादी के बारे में । यानि कि शादी की तारीख पक्की हो गई थी जो कि अगले ही महिने होने वाली थी । शादी सिविल लाईन्स वाली कोठी से ही होनी थी यह भी पक्का था । अब लोकेष अपनी षादी की तैयारियों में खो गया और उसका आर.ए.एस. बनने का सपना सिविल लाईन्स की कोठी में ही सिमटकर रहा गया । एक अच्छा खासा आदमी कैसे बर्बाद होता है, मैं देख रहा था । अब तो उसके पास मेरे लिए भी समय नहीं था । जब भी मिलता भागते हुए ही मिलता और आधी अधूरी बात करके फिर नदारद हो जाता । बैंक से भी आए दिन छुट्‌टी लेने लगा, देर से पहुॅँचना और जल्दी निकल जाना उसकी आदत में शामिल हो गया । अपनी ड्‌यूटी को कर्तव्य समझकर अंजाम देने वाला अपनी ड्‌यूटी से ही मुंँह मोड़ने लगा । अब तो उसके स्कूटर का मुँह युनिवर्सिटी कैम्पस के पोलिटिकल साईन्स विभाग की ओर होता और वह हवा के घोड़ों पर सवार सरपट भागा जाता ।

इसके बाद वह जब भी मिला जल्दबाजी में ही मिला, पर हर बात तफसील से बताने की उसकी आदत अब तक भी बरकरार थी । इस सबके चलते वह अपने मन की उत्सुकता भी नहीं छुपा पाता, ‘किस दुकान से उसने क्या खरीदा, कहॉँ पर उसने अपनी स्वप्नपरी के साथ नाष्ता किया और कहाँ खाना खाया आदि उसकी बातचीत के विषय हुआ करते थे इन दिनों । कई बार मैंने उसे टोका भी, ‘कुछ तो अपने लिये भी बचाकर रखा कर, क्या सब कुछ उगल देता है ।'

‘क्या बात करता है, बचा रखा है ना....सब कहाँ बता रहा हॅूँ । पर तुम तो मेरे सबसे अच्छे दोस्त हो बोस, तुमसे सब कुछ बाँट सकता हॅूँ.........।' उसकी आँखों में अजीब तरह की चमक डोर सी तन जाती तभी मैंने उसकी कमर पर जोर की धौल लगाई और वह लौट आया कल्पनाई दुनिया से, ‘देख भाई मेरी शादी में सब काम तुझे ही सम्हालने हैं, कोई इफ बट नहीं चलेगा....।' उसने मेरा हाथ अपने हाथ में ले लिया था ।

‘यह भी कोई कहने वाली बात है ।' मैं उसके हाथ को हल्के से दबाते हुए बोला ।

इतना सब चल ही रहा था कि तभी एक घटना और घट गई, लोकेष की स्वप्नपरी अपनी शादी की परचेजिंंग करने परिवार के साथ दिल्ली रवाना हो गई और उन्हाेंने दिल्ली में जमकर खरीददारी की । अपनी शादी के सपने में चार चॉद लगाते हुए वे लोग जब वापस लौट रहे थे तो उसके निदेषक पिता को रास्ते में ही सीवियर अटेक आया और चूँकि यह पहला ही अटेक था और वह भी रास्तें में, किसी तरह की दवाईयाॅँ साथ थी नहीं । हालाँकि ड्र्‌ाइवर ने गाड़ी को काफी स्पीड से लपकाया भी जिससे नज़दीक के किसी डाक्टर के पास पहुॅँचा जा सके और तुरंत चिकित्सकीय सहायता मिल सके । पर वह उतनी ज्यादा तेज भी नहीं चला पाया गाड़ी कि समय से आगे निकल जाए । समय अपने पंंखों के सहारे तेजी से भागता रहा और काफी आगे निकल गया । गाड़ी अपनी स्पीड से दौड़ रही थी पर निदेषकजी उस स्पीड में भी पिछड़ गए, वे रास्तें में ही रह गए । जब गाड़ी चिकित्सक के घर पहुॅँची तो चिकित्सक ने निदेषक महोदय को देखकर हाथ खड़े़ कर दिए,‘ही इज़ नो मोर....' अनहोनी घट गई थी । सबके होष फाख्ता हो गए । होनी को कोई टाल नहीं सका । पर जिसको टलना था । वह टल गई थी और वह थी लोकेष की शादी । जिसके लिए वह एक एक दिन गिन रहा था ।

वैसे समय का क्या है आगे पीछे होता रहता है । पर लोकेष के लिए यह समय कुछ ज्यादा ही आगे भाग गया था । अब उसका किसी भी काम में मन नहीं लगता था । उसके स्कूटर का मुॅँह सिविल लाइन्स की तरफ रहने लगा । अब तक तो निदेषक साहब को गए हुए महिने भर से भी ज्यादा समय बीत गया था । इस कारण भी उनके घर पर अब वो पहले वाली धाक रही नहीं । चपड़ासियों का आना जाना कम हो गया । अब वे किसी काम को भी हाथ नहीं लगाते । पहले तो दफ्तर के चपरासी ही बहुत सारा काम कर दिया करते थे और एक दो लोगों को निदेषक साहब ने डेलीवेजेस पर लगा रखा था, जो घर पर ही काम करते थे । और इस तरह से सारा काम निपट जाता था । पर अब वह पहले जैसा आलम कहाँ था, पर आदत तो पहले जैसी ही थी । उसको बदलने में तो समय लगता है । इतनी जल्दी नवाबी चली गई तो क्या हुआ आदत थोड़े ही गई थी । इसका जो परिणाम होना था वह होकर रहा । बाज़ार के कामों के लिए लोकेष सहज ही उपलब्ध था और घर के कामों के लिए एक नौकरानी का इन्तजाम किया गया ।

लोकेष बाज़ार से सामान सुलफ खरीदते हुए पाया जाता । वह कभी सब्जीमंडी से हरी.हरी सब्जी खरीदते हुए दिख जाता तो कभी परचून की दुकान से दाल, तेल, नमक, आटा खरीदते हुए । इन दिनों उससे मेरा मिलना बहुत ही कम हो गया । कभी गाहे बगाहे दिख जाता तो वह भी जल्दी में रहता और उसके मन मस्तिष्क में सिविल लाईन्स घूम रही होती । समय अपना काम कर रहा था । घड़ी की सुईयाँ तो छोटे.छोटे चक्कों के सहारे आगे बढ़ती रही और दिन महिनों मेें बदलते गये । वह न तो किसी की भावनाओं से आगे बढ़ी है और न ही रोके से रूकी है ।

अब फिर से लोकेष की शादी की तारीख तय हुई । अब उसकी शादी निदेषक के बगैर होनी थी । तो उनके जाते ही शादी का आडंबर भी जाता रहा । आप सोच रहे होंगे कि ‘शादी लोकेष की होनी है और मैं इतना उत्साहित क्यों हो रहा हॅूँ ?' आपका सोचना कुछ हद तक सही है ‘लोकेष की शादी और उसके बाद की परिस्थितियों पर जब आप दृष्टिपात करेंगे तब आप ही कहेंगे ‘वाकई यह शादी अन्य की अपेक्षा काफी महत्वपूर्ण है !'

तो लोकेष की शादी धूमधाम से न हुई तो क्या हुआ सादा तरीके से हो गई । शादी तो शादी होती है । कैसे भी की जाए वह शादी ही होती है । और वह स्वप्नपरी लोकेष के साथ आ गई । स्वप्न से हकीकत में तब्दील होकर । शादी के कई दिनों बाद तक उसने अपने गॉँव से स्कूटर पर अप डाउन किया । सत्तर किलोमिटर आना और इतना ही जाना उसके समय और पाकेट को लीलता जा रहा था । और उस पर नेषनल हाईवे का यह सफर मन में हमेषा डर पैदा किए रहता । कई बार बैंक से निकलने में काफी देर हो जाती तो घर पहुँॅचते.पहॅँुचते काफी अंधेरा घिर आता । इधर मौसम ने भी करवट ले ली थी ं। अब वह ठंडाने लगा था । और इस पर स्कुटर पर लगभग ढेड़ सौ किलोमीटर का सफर काफी लम्बा होता है । और वह तो लोकेष की हिम्मत की दाद देनी चाहिये जो वह इसे भी ढोता जा रहा था । उसकी जगह कोई और होता तो कभी का हिम्मत हार चुका होता ।

लोकेष अब दोहरी मार झेल रहा था । एक तरफ जयपुर में मकान का किराया भरता तो दूसरी तरफ स्कूटर का पेट्‌ोल उसकी टाट गंजी किये हुए था । पर वह करता भी तो क्या । उसके माता.पिता नई.नवेली दुल्हन को शहर छोड़ने के लिए बिल्कुल तैयार नहीं थे । एक अजीब तरह की हिचकिचाहट उनके मन में समाई थी । फिर लोकेष ने ही हिचकिचाहट तोड़ते हुए कहा, ‘माँ...मैं आषा को अपने साथ ले जा रहा हूूूॅँ, तुम तो जानती हो आने जाने में कितना समय और पैसा बर्बाद हो रहा है ।' एकबार जब उसने माँ के सामने अपना मुुॅँह खोल ही दिया तो बेचारी माॅँ भी क्या करती । बेमन से ही सही उनको हामी भरनी पड़ी । उधर आषा तो पहले से ही तैयार बैठी थी । उसका गाँव में वैसे भी दम घुट रहा था । किन्तु खुद ही नयी दुल्हन थी कहती भी तो क्या, अभी तो हर एक को आंँक रही थी । बात.बात पर नाक भौं सिकुड़ती, कभी खुद ही गुस्सा जाती और मुँह फुलाकर बैठ जाती तो कभी खिल.खिलाकर हॅँसने लगती । अजीब सी मनः स्थिति में उसने ये पन्द्रह दिनों का समय बिताया । इन पन्द्रह दिनों में उसने लोकेष के कान पोले कर दिए । कभी वह उससे अपनी माँ और बहनों के बारे में पूछती तो कभी वहाँ ले चलने की ज़िद कर बैठती । इस सबसे वह आज़िज आ गया था और निजात पाना चाहता था । इस कारण भी उस दिन उसने हिम्मत करके माँ के सम्मुख अपना मुँह खोला था । और फिर क्या था चिड़िया गॉँव से उड़कर शहर की चोहद्दी में आ गईं, नीड़ का निर्माण करने लगी । वह अपनी तरह से अपना घोसला बसाने में व्यस्त हो गई । इस सबके बीच पीसता रहा बेचारा लोकेष ।

अब वह जब भी मिलता हमेषा भौतिक सामानों का रोना रोता रहता । कभी वह कूलर वाले के यहां भाग रहा होता, तो कभी फ्रीज को किष्त में लेने की जुगाड़ लगा रहा होता । उसकी बैंक की नौकरी आषा की इच्छाओं को बढ़ाने में भी मददगार साबित हो रही थी । क्यों कि अधिकांष फर्में उससे परिचित थीं । कईयों के खाते उसकी ही ब्रांच में थे । उसकी ब्रांच इस तरह के सामानोें की दुकानाें से घिरी हुई थी । वह आसानी से एक—एक सामान इकट्ठा करता चला गया । उसकी तनख्वाह का अधिकांष हिस्सा अब किष्तें चुकाने में ही खर्च हो जाता । जो थोड़ा बहुत बचता उससे वह घर की ज़रूरियात के सामान ले आता । कुल जमा अच्छी खासी नौकरी के होते हुए भी उसको आर्थिक तंगी का सामना करने को विवष होना पड़ रहा था । किन्तु इस सबके लिए वह खुद ही पूरी तरह से जिम्मेदार भी है । वह चाहता तो आषा को प्यार से समझा सकता था । पर शायद उसके मन की दमित इच्छाएं भी थोड़ी सी हवा पाकर परवान चढ़ने लगी थी ।

इस बीच उसने दो तीनबार मकान भी बदल लिये । अब वह मुझसे काफी दूर चला गया था । उसने सिंगल कमरे के मकान को छोड़ दिया था और उसके स्थान पर वन बेडरूम, ड्राईग, डाइनिंग, किचिन का सेप्रेट पोर्षन ले लिया था । और इसके लिए उसने काफी ज्यादा किराया देना भी स्वीकार कर लिया । जबकि इससे पहले भी उसके पास एक कमरे का साधारण सा मकान था जिसमे कमरे के अन्दर ही सेप्रेट किचिन था और लेटबाथ भी सेप्रेट थे । इसका किराया भी काफी कम था । उस समय तक वह उसके लगभग ढाई सौ रूपये किराया दिया करता था । एक बार उसके बैंक में ही जब उससे मुलाकात हुई तो मैंने सहज ही पूछ लिया, ‘यार लोकेष, तुम अचानक ही मकान खाली करके क्यों चले गये, और अब जो इतना मंहगा मकान ले लिया है तो इसके किराये का तुम क्या और कैसे करोगे ?' तब वह मुझे गौर से देखने लगा । जैसे मैंने उसके मन की बात कह दी हो पर अपनी विवषता पर कुछ भी बोलने की स्थिति में नहीं था वह । हंँसकर मेरी बात को टालते हुए बोला, ‘यार वहाँ पर शादी के बाद गुजर नहीं हो रहा था । और तुम्हारी भाभी भी वहाँ घुटी घुटी रहती थी । अब यह पोर्षन काफी खुला है और सारी सुविधाएं भी तो है...तुम आना कभी घर....।' मैं कुछ भी नहीं बोल पाया और उसके चेहरे की ओर देखता रह गया । उसने बातचीत करते हुए बढ़िया सी चाय पिलाई और इसी दौरान यह भी बता दिया, ‘यार मैंंने पेन की रीफिल बनाने की फैक्ट्री लगा ली है, तुम्हारे ऑफिस में खरीद होती हो तो कुछ मदद करना ।' मैं उसे आष्चर्य से देखने लगा, ‘पता ही नहीं चला तुमने यह काम कब शुरू कर दिया ? पर हमारे ऑफिस में तो सारी की सारी खरीद कोआपरेटिव संस्था के माध्यम से ही होती है तुम वहाँ बातचीत कर लो तो कुछ माल हमारे ऑफिस में भी खप जायेगा ।'

‘हाँ, यार वहांँ भी बात करनी है । उस तरफ जाना ही नहीं हो पा रहा है । एक दिन समय निकाल कर जाऊँगा ।'

और फिर मैं उससे विदा लेकर चला आया । रास्ते भर सोचता रहा, ‘अपनी अच्छी भली नौकरी के चलते भी इस आदमी को इधर—उधर हाथ पैर मारने को विवष होना पड़ा, यह अपनी चादर से बाहर पैर निकालने का नतीजा है ।'

फिर काफी दिन बीत गये उससे मिले, इस बीच मैं भी अपने घर चला गया लम्बी छुट्टी लेकर । तकरीबन महिने भर से भी ज्यादा का समय बीता कर वापस लौटा था । और लोकेष से तो लगभग दो महिने के उपरान्त मुलाकात हुई थी । मुलाकात की जगह वही उसका बैंक था । मुझे अपने खाते में रूपये जमा करवाने या निकलवाने के लिये जाना पड़ा । और वहीं उससे मुलाकात हुई थी । पर इस बार उसमें वह उत्साह नहीं बचा था, उसकी जगह थकावट ने ले ली । एक अजीब सा बुझापन मैंने उसमें पाया । एक बार तो ज़बान पर आ ही गया लेकिन फिर उसे हलक के नीचे गटकते हुए मैं चुप लगा गया । इतने दिनों के अन्तराल के बाद मिलना हुआ तो उसमें मैं किसी तरह की खटास घोलना नहींं चाहता था । बस यही सोचकर ज़ुबान पर आये हुए षब्दों को वापस पी गया । इसका अहसास भी लोकेष को हो गया था । एक बार तो उसके मुंह से निकल भी गया, ‘बोस, क्या कह रहे थे ।' वह हमेषा मुझे बोस ही कहकर संबोधित करता था ।

‘कुछ भी तो नहीं...वैसे ही कुछ याद आ गया था, लेकिन फिर पता नहीं कहाॅँ खो गये षब्द !' मैंने सच को दबाने का प्रयास करते हुए कहा । इस समय उसकी तीक्ष्ण निगाहें मेरे चेहरे का मुआइना कर रही थी । और मैं बगलें झांक रहा था । मानो मुझसे ही कोई त्रुटि हो गई हो । जबकि ऐसा कुछ भी नहीं था ।

वह सब समझ गया था, लेकिन फिर भी उसने मुझे उस समय कुरेदना उचित नहीं समझा । और बात आई गयी हो गई ।

ऐसे ही न जाने कितने दिन बीते पता नहीं । फिर अगली मुलाकात के समय वह मुझे पूरी तरह से टूटा हुआ मिला । आर्थिक रूप से तो ध्वस्त हो ही चुका था, हौसले भी पस्त होने लगे थे । बातचीत में ही पता चला इस बीच वह दो बार और मकान बदल चुका है । और इस बार जो मकान उसने किराये पर लिया है उसका किराया ही उसकी तनख्वाह का पच्चतर प्रतीषत के बराबर है । जब मुझे इस बारे में पता चला तो मैं चौंक गया, ‘लोकेष ! यह तुम क्या कर रहे हो, जब किराये के रूप में ही इतनी बड़ी रकम दे दोगे तो बाकि खचोर्ं का क्या करोगे...? मेरा मतलब है कैसे मेनेज करोगे ?'

मेरे प्रष्न पर वह मुस्कुरा दिया । बोला कुछ भी नहीं । उसकी निगाहें इस बीच मेरे चेहरे का लगातार मुआइना करती रही । मैंने भी अपनी नज़रें उसके चहरे पर गड़ा दी । काफी देर के बाद वह बोला, ‘बोस, क्या करें....बच्चें जिसमें खुष रहे वहीं करना पड़ता है । अभी तुम इसलिये ज्ञान दे रहे हो क्योंकि अकेले हो । जब एक से दो हो जाओगे तब बात करना ।'

‘लेकिन कैसे....मेनेज करोगे ?'

‘इसका भी रास्ता निकाला है ।' उसने अपनी ड्र्‌ावर से एक पेम्फलेट निकालकर दिया, जिसमें घरेलु जरूरियात के सभी सामानों की सूची थी और उनके आगे उनके दाम लिखे थे । और नीचे बड़े बड़े अक्षरों में फ्री होम डिलेवरी भी लिखा था ।'

मैंने पूछा, ‘ये क्या है ?' वह नज़रें मिलाता हुआ बोला, ‘नया काम षुरू किया है, एक छोकरा रखा है, जैसे.जैसे आर्डर मिलता है, माल सप्लाई कर देता है । अब देखो काम कितना चलता है ?' उसने प्रष्न मेरी तरफ उछाल दिया ।

‘यार कैसे सम्हालोगे इस सबको ? नौकरी के साथ समय निकाल पाओगे ?' मैंने सहज जिज्ञासावष पूछा ।

‘ये आइडिया भी श्रीमती जी का ही है, इस सारे काम को वहीं सम्हालती है मैं तो अपने जानकारों से आर्डर ले लेता हूँ, बाकि का डिपार्टमेंट उनका है ।'

‘चलो अच्छा है, ईष्वर करे काम चल निकले....?' मैंने इस विषय से छुटकारा पाने की कोषिष की । पर मैं देख रहा था इस समय भी उम्र के निषान उसके चेहरे पर छुटे हुए नज़र आ रहे थे । फूल से खिलखिलाते चेहरे पर हवाईयां उड़ रहीं थी । और गहन निराषा अपने अवषेष छोड़कर जा चुकी थी । अब लोकेष उसे ढो रहा था ।

फिर लम्बा अन्तराल बीत गया । मुझे भी टूर पर चित्तोड़गढ़ जाना पड़ गया । और इस बीच वह भी गांव चला गया । उसके घर नन्हा मेहमान आने वाला था । इस अन्तराल ने क्या कुछ बदला पता नहीं पर फिर जब लगभग दो महिने बाद हमारी मुलाकात हुई तो वह उत्साह से भरा हुआ था । उसके बेटा हुआ था, अब वह पिता बन गया था । उसकी आंखों से खुषी छलक.छलक पड़ रही थी और पैर जमीन पर नहीं टिक रहे थे । कुछ समय के लिए ही सही लोकेष अपनी परेषानियों से फारिग मिला । इससे पहले तो जब भी मिलता हर बार एक नई उलझन के साथ मिलता और उसके निषान लम्बे समय तक मेरे जेहन में अपने अक्स बनाते रहते । मैं चाह कर भी उनसे निजात नहीं पा सकता था । कई बार अपनों की तकलीफ काफी पीड़ादायक होती है । जो लम्बे समय तक आपके मन को कुरेदती है । लोकेष की परेषानियां भी ठीक ऐसी ही होती जो लम्बे समय तक मेरा पीछा नहीं छोड़ती और मैं उनसे दो चार होता रहता । हालांकि कर तो कुछ भी नहीं पाता किन्तु उस मकड़जाल में भटकता रहता जिसमें वह घिर गया था ।

पर इस बार की उसकी प्रसन्नता ने मन को खुष कर दिया । उसने मिलते ही मुझे बाहों में भर लिया । और लम्बे समय तक अपने मन की खुषी का इजहार करता रहा । मैं भी उसके साथ बहकर काफी दूर तक निकल गया । हमने उस दिन का खाना साथ में ही खाया और उसका भुगतान भी उसने ही किया । मेरे लाख मना करने पर भी वह नहीं माना । मेेरा हाथ पकड़कर होटल में ले गया । और अच्छा खासा बिल भुगतान किया । जब वह अपने बटुए से रूपये निकाल रहा था, उस समय भी मेरा मन दुखी हो रहा था । किन्तु उसकी खुषी में मुझे भी खुष होना था, सो उसके साथ मुस्कुराता रहा और अपने भतीजे के बारे में उससे पूछताछ करता रहा। उसने एक.एक बात तफसील से बताई , जैसे वह आँंखो देखा हाल बता रहा हो ।

षाम आधी रात में तब्दील हो गई, वह मुझे भी अपने साथ ही खींच ले गया । घर पहुँंचकर भी काफी देर तक बातें करते रहे । पिताजी की खुषी के बारे में बताता रहा । घर में हुए फंक्षन के बारे में बताता रहा, मेहमानों और नवमेहमान के बारे में बताता रहा । कुल मिलाकर उसका मन ही नहीं भर रहा था बातों से वह मुझे न जाने क्या.क्या बता देना चाहता था । किन्तु मेरी आंँखों में नींद सवार हो रही थी । मैं उसकी बातें सुनते सुनते ही सो गया । मुझे पता नहीं वह फिर कब सोया, पर जब मेरी आंँख खुली तो वह उठकर पानी भर चुका था, नहा चुका था । और उसने चाय भी बना ली थी । उसके घर पर एक बड़ा सा फ्रिज, कलर टी.वी. कूलर और वाषिंग मषीन अपना स्थान बना चुके थे । रात में तो मेरा ध्यान इस ओर नही जा पाया था, अभी जब ध्यान गया तो मैं सोचता रह गया, जिसके बारे में मैं सोच भी नहीं सकता वह सब उसने अपने घर में जुटा लिया था ं। मैंने तुरंत अपना ध्यान इन फालतू की चीजों से हटाकर लोकेष पर केन्द्रित कर लिया । ये सब चीजें भटकाने वाली थी, जबकि लोकेष बांधने वाला । उसने मुझे काफी देर तक बांधे रखा ।

फिर वह अपनी बैंक के लिए निकल गया और मैं अपने दफ्तर के लिए । षाम को उसे फिर गांव के लिये निकलना था । कुल जमा अब उससे मुलाकात अगले सप्ताह के बाद ही होनी है । फिर एक दो छुटि्‌टयां आ रही थी और उसने एक दो दिन की और ले ली, इस तरह से सप्ताहभर का जुगाड़ हो गया । वह मेरे पीछे भी पड़ा था, ‘तुम भी इसी तरह छुट्‌टी ले लो और मेरे साथ ही गाँंव चलो । पिताजी भी तुम्हें याद करते हैं ।' मैं उसके आग्रह को मान नहीं पाया । मुझे अपने भी कई व्यक्तिगत काम थे । पत्रकारिता की डिग्री के लिए मैंने फार्म भर दिया था, और उसकी क्लासेस भी सप्ताह के अंत में लगा करती थी । जिन्हें में अटेण्ड करता था । इस कारण भी उसके आग्रह को मैं टाल गया ।

वह मुस्कुराता हुआ निकल गया । और मैं अपने धत करम में लग गया । फिर कई दिनों तक मुलाकात नहीं हुई । इस बीच मैं भी अपने ऑफिस से छुट्‌टी लेकर निकल गया था अपने घर जहाँं मेरे माता पिता हर दम मेरा इन्तजार करते रहते हैं । जिनकी यादों में मैं हमेषा बसा रहता हूँ । उनकी पथराई आंँखें मुझे पाकर मारे खुषी के फैल जाती और कुछ दिनों के लिए उनके मन में उल्लास और उत्साह घुल जाता । फिर जब मैं वहां से चलता तो मुर्दनी फिर से पसर जाती । उनका अपना रूटीन चालू हो जाता और इधर मेरा । मैं भी अपने रूटीन से छुटकारा पाने के लिए यहांँ से वहांँ दोड़ा करता । उन दिनों भी कुछ ऐसी ही यात्रा पर निकल गया था । किन्तु जब अवकाष खत्म हो गया तो ‘लौट के बुद्धू घर को आए' और मैं फिर से नई उर्जा के साथ अपनी घानी में जुट गया । अपने एकाकीपन से निपटने का अभी तक भी कोई माकूल उपाय नहीं सोच पाया था । इस कारण भी यहांँ की इस जीजिविषा को त्रासद ही पाता । खैर, जैसा चल रहा था उसी के अनुरूप चलता रहा । इन दिनों में मैं कोई परिर्तन नहीं कर पाया । इस बीच लोकेष अपने परिवार को लेकर पुनः जयपुर आ गया । हालांकि उससे मेेरी मुलाकात लम्बे समय से नहीं हुई और उसने भी षायद मिलना उचित नहीं समझा । या कि अपनी ही उलझनों से दो चार होता रहा । अब तो उसके साथ एक नन्हीं जान और जुड़ गई थी।

फिर जब हमारी मुलाकात हुई उस समय भी वह भागता हुआ ही दिखा था । मेडिकल स्टोर से वह दवाईयांँ ले रहा था । मैंने ही आवाज देकर उसे रोका, ‘यार ! लोकेष इस तरह कहांँ भागे जा रहे हो ?' वह पलटकर मुझे देखते हुए बोला, ‘अरे बोस आप हैं क्या ? यहांँ क्या कर रहे हो यार ?' उसने मेरे सवाल का जवाब न देते हुए उल्टे मुझसे ही सवाल कर दिया । अब मुझे उनसे दो चार होना था । मैंने फिर दवाईयों की ओर इषारा करते हुए पूछा, ‘सब ठीक तो है ?' वह मेरे चेहरे की ओर देखते हुए बोला, ‘कहांँ यार, पिछले कई दिनों से सासू जी की तबियत खराब चल रही है, उनकी ही देख.रेख में लगा हूंँ । अभी भी उनकी ही दवाईयाँं ले जा रहा हूूंँ ।' फिर मैने पूछा, ‘बालक और भाभीजी तो ठीक हैं ना ।' वह बोला, ‘हांँ, बाकी तो सब चकाचक है ।' इस छोटी सी बातचीत के बाद हम दोनों अलग.अलग दिषाओं में चल दिये ।

अब लोकेष से ऐसे ही भागते.दौड़ते मुलाकात होने लगी, हम जब भी मिले वह भागता हुआ ही मिला । कभी वह अपने लिए भाग रहा होता तो कभी अपनी साली के लिए, कभी सासू मांँ के लिए । कुल मिलाकर उसका नाता इसी भागदौड़ के साथ स्थाई हो गया । मैं उसकी भागदोड़ का स्थाई गवाह बन गया । उसका नाता जब इससे जुड़ा तो उस समय भी मैं उसके साथ था । वह विवाह बंधन में बंध रहा था और मैं उसके विवाह की दावत उड़ाने में मषगूल था । किन्तु अब धीरे धीरे समय ने अपने पंजे को कसना षुरू कर दिया और लोकेष उसकी पकड़ में पूरी तरह से समा गया । मैं आज़ाद उसे बंधनों के दलदल में घंसते हुए देखता रहा । मैं इसके अलावा कुछ और कर भी नहीं सकता था ।

अब तक उसकी आवष्यकताओं ने आसमान तान दिया था । जिसके सम्मुख उसकी तनख्वाह ऊँट के मुंह में जीरा साबित होने लगी । अपनी आमदनी बढ़ाने के वह हर संभव प्रयास करने लगा और इसके चलते उसकी भागदौड़ में और इजाफा हुआ । नतीजतन वह अपनों से कट गया और उसकी जीवनचर्या भौतिक साधनों को इकट्‌ठा करने की दौड़ का हिस्सा बन गई । जिसके चलते वह अपने इर्द गिर्द कुठाओ के जाल बुनने लगा । हमारे बीच की अंतरंगता भी दम तोड़ने लगी थी । अब हम गाहे ब गाहे ही मिल पाते, जब कभी मेरा अपने काम से बैंक जाना होता । तभी उससे मुलाकात होती । किन्तु कई बार तो बैंक में भी उससे मुलाकात नही हो पाती । वह आए दिन ही अवकाष पर रहने लगा था । उसकी अपनी व्यस्तता ने उसे इस कदर जकड़ा कि नौकरी के लिए भी समय नहीं मिल पा रहा था । हांँ, इस बीच एक बात जरूर हुई । उसके बैंक में नहीं रहने के दौरान उसके ही सहकर्मी भल्ला से मेरी बातचीत षुरू हो गई । और कुछ ही दिनों में हम दोनों एक दूसरे को अच्छे से जानने लगे । लोकष के नहीं रहने के दौरान वह मेरे बैंक के सारे काम जल्दी से निपटा दिया करता और हम एक दूसरे के साथ चाय इत्यादि पीने के साथ आन्तरिक बातें करने लगे थे । कुल मिलाकर आपस में घुलने मिलने का सिलसिला चल निकला था।

अब लोकेष यदा.कदा ही मिल पाता । कुछ दिनों के बाद भल्ला से ही पता चला, ‘लोकेष को कस्टमर से धोखाधड़ी के आरोप में सस्पेंड कर दिया गया है ।' यह सुनकर मुझे बहुत पीड़ा हुई । मैं तुरंत उससे मिलना चाहता था । किन्तु इस बीच उसने फिर से मकान बदल लिया था, नये मकान का पता मुझे नहीं था और न ही बैंक के किसी कर्मचारी को । अब तक उसने बैंक में अपने गांव का ही पता दे रखा था । मैं षाम को सी स्कीम स्थित उसके ससुराल गया । लेकिन वहां से भी वे लोग क्वाटर खाली कर चुके थे । और आस पड़ोस से उनका नया पता नहीं मिल पाया । चाहते हुए भी मेरी मुलाकात इस मुष्किल घड़ी में उससे नहीं हो पाई । और मैं अपना मन मसोसकर रह गया ।

लोकेष के बारे में मुझे अब भल्ला से ही सूचनाएँ मिलने लगी । वह कभी मेरे ऑफिस में आता तो उससे लोकेष के बारे में जानने की उत्सुकता को दबा नहीं पाता । या कभी अपने काम से बैंक में जाना होता तब उसके बारे में पता चलता। अब तक जांच की प्रोसिडिंग षुरू हो गयी थी । लोकेष को जांच अधिकारी के सम्मुख आने के लिये कह दिया गया था । जांच हेड ऑफिस में हो रही थी और उसे वहीं अपनी उपस्थिति देने के लिए कहा गया था । इस बीच मेरी एक बार भी लोकेष से मुलाकात नहीं हो पायी । समयगत परिस्थितियों ने हमारे बीच एक ऐसी अभेद्य दीवार खड़ी कर दी जिसके पार मैं नहीं झांँक पाया । और लोकेष तो अपने ही द्वारा बुने गये जाल में उलझकर रह गया ।

इस बीच मेरा भी स्थानान्तरण हो गया । और मैं इस षहर से विदा ले गया । उस समय भी लोकेष से मेरा मिलना नहीं हो पाया, मैं एक टीस लेकर चला गया । किन्तु मेरे मन में लोकेष की हंँसती मुस्कुराती छवि हमेषा तैरती रही । जब मैं इस षहर से विदा ले रहा था, उस समय भल्ला कमरे पर आया और काफी देर तक साथ रहा । उसी समय मैंने उससे लोकेष के बारे में पूछा । तब उसने पहली बार तफसील से बताया, ‘लोकेष, अपनी षादी के बाद से अपनी आर्थिक स्थिति को लेकर काफी परेषान रहने लगा था । जब से उसकी पत्नी उसके साथ जुड़ी तभी से उसकी महत्वकांक्षाएं काफी बढ़ गई । जिसके चलते वह हर दम परेषान रहने लगा । और उसी का परिणाम था कि उसने रिफिलिंग का काम षुरू किया, पर वह भी नही ंजम पाया । उसे बन्द करके फिर उसने सप्लाई का काम षुरू किया । उसमें कुछ सफलता मिलती इससे पहले ही उसके घर बच्चे का जन्म हो गया । और फिर सब कुछ इधर.उधर हो गया ।' यह तो मैं पहले से ही जानता था । भल्ला ने कुछ भी नई जानकारी नहीं दी वरन्‌ पुरानी सूचनाए ही चुगलता रहा ।

और मैं इस षहर से विदा ले गया लेकिन मेरा मन लोकेष के लिए तड़पता रहा । इस अनजान षहर में उसी ने मित्रता का हाथ बढ़ाया था और काफी हद तक निभाया भी किन्तु बीच की कुछ परिस्थितियों ने हम दोनों के बीच खाई खोद दी जिसके पार वह भी नहीं आ पाया और मैं भी नहीं जा पाया । यहांँ से जाने के बाद भी नाता बना रहा इस षहर से, इसमें मैंने अपने जवानी के दिनों को खर्च किया था और अपने जीवन के स्थायित्व की षुरूआत यहीं से हुई थी । यह षहर तो सदा ही मेरे जीवन में मीठी याद सा बसा हुआ है और इसी के चलते यहांँ बहाने.बहाने से चक्कर लगाता रहा । इन्हीं चक्करों के दौरान एक बार लोकेष से मेरी मुलाकात हो गई । यह मुलाकात काफी अर्से के बाद हुई । लोकेष अब काफी दुबला हो गया था । पहले के खिलखिलाते चेहरे की जगह एक कुम्हालाया हुआ चेहरा आ विराजा था, जैसे सेमल के फूल को तोड़कर किसी ने किताबाें में रख लिये हो और उसे बरसों बाद निकाला गया हो । मुझे देखते ही वह पहले सी ही गर्मजोषी से मिला, मुझे पुराने दिन याद आ गये, उसे भी कुछ न कुछ तो याद आया ही होगा ।

मैंने पूछा, ‘तो लोकेष....कहाँ हो और कैसे हो ?'

‘बस बोस यहीं हूँ , तुम कैसे हो..?'

‘मैं यहाँ से चला गया हूँ , पर जल्दी.जल्दी आता जाता रहता हूँ , इसी के चलते आज तुमसे मुलाकात हो गई वरन तो जाते समय भी तुमसे मिलना नहीं हो पाया था ।' मैं अपने मन के सारे उद्‌गारों को उसके सम्मुख प्रकट कर देना चाहता था, ‘आजकल तुम कहाँ रह रहे हो ? और भाभी और बच्चा कैसा है ? और तुमने अपनी ये क्या हालत बना रखी है कुछ लेते क्यों नहीं हो ?'

मेरे इस उतावलेपन ने उसके चेहरे पर चमक ला दी, वह पहले सा मुस्कुराता हुआ बोला, ‘बोस, तुम्हारा ही कुछ अता.पता नहीं था । इस कारण से कुछ नहीं ले पाया अब मिल गये हो तो ले लेंगे ।' उसके जवाब पर मैं भी खिलखिलाकर हँस दिया और हम दोनों साथ हो लिये ।

उस समय मैं काफी उतावला हो रहा था सब कुछ जान लेने के लिए, पर मुझे मौका नहीं मिल पाया । हम कॉफी हाउस चले गये और इत्मीनान से बैठ गये एक टेबल घेरकर । लोकेष उस समय भी परेषान दिख रहा था । मेरी चिन्ता उसकी परेषानी को लेकर हो रही थी । बेरा आकर चक्कर लगा गया, मैंने उसे काफी का आर्डर पकड़ा दिया और वह उसे चुगलता हुआ चला गया । उसके जाने के तुरंत बाद मैंने अपनी सवालिया आँखें लोकेष के चेहरे पर गड़ा दी । मानो वह इसका इन्तजार ही कर रहा था । कुछ देर इससे बचता हुआ वह इधर.उधर देखता रहा, पर मेरे उतावलेपन के सम्मुख वह ढेर हो गया । कहते हैं, ‘जब तक आदमी अपनी भावनाओं पर अंकुष लगाये हुए है तभी तक वह सोफिस्टिकेटेड है और जैसे ही इस खोल से बाहर निकलता है वैसे ही वह अपने असली रूप में आ जाता है ।'

लोकेष भी कॉफी को सिप करते हुए अपने असली रूप में आ गया । उसके चेहरे पर पहले वाले लोकेष की छवि अंकित होने लगी लेकिन उस छवि पर वर्तमान का लोकेष हावी हो गया और वह उसे लगातार दबाने लगा । जिसे उसने परे धकेलने की भरपूर कोषिष की लेकिन कामयाब नहीं हो पाया । मैं उसके चेहरे के आते.जाते भावों को गहराई से पढ़ता रहा । कॉफी को सिप करते हुए मैंने पूछ लिया, ‘लोकेष, यह सब क्या और कैसे हो गया ?'

वह मेरे चेहरे की ओर देखता रहा काफी देर तक मानो नज़रों से ही मेरे सवाल का जवाब दे रहा हो किन्तु यह संभव नहीं था, उसे बहुत कुछ कहना था और मुझे बहुत कुछ सुनना था । मैंने अपनी गिद्ध दृष्टि पुनः उसके चेहरे पर गड़ा दी । अब उसको अपने अंतस पर लगा बांध हटाना ही पड़ा, ‘क्या करता बोस, मेरिज के बाद से तो तुम जानते ही हो, आषा ने अपनी फरमाइषों में जीवन की सारी बाराखड़ी उलझाकर रख दी, और मैं न चाहते हुए भी उसकी इच्छाओं के आगे अपने घुटने टेकता चला गया । इस सब पर बहुत कुछ दाव पर लगा, एक तरफ मेरे माता—पिता, तो दूसरी तरफ नौकरी और भी न जाने क्या.क्या जो अभी दिखाई नहीं दे रहा है लेकिन समय आने पर वह भी अपने फन फैलाकर खड़ा हो जायेगा । मैंने कुछ दिनोंं तक तो इस सबका विरोध किया पर कलह में डूबे जीवन को सही दिषा और धार देने के लिए अपने आपको समझोतों के दायरों में कैद करने लगा और अब जो कुछ भी है, वह सबके सामने है ।' लोकेष जैसे बोलते बोलते थक गया था । वह पूर्ण विराम सा वहीं रूक गया

मैं फिर उसके चेहरे की ओर देखने लगा, मानो कोई प्रष्न उसकी आँखों में गाड़ देना चाहता था। वह अपने अन्दर उतरते हुए फिर बोला, ‘अब आषा एक प्राइवेट स्कूल में नौकरी करती है और मैं भी कोई छोटा.मोटा काम, समझ नहीं आता बच्चों की पढ़ाई कैसे चलेगी, और घर का तो कुछ मत पूछो !'

‘मैं किसी तरह से कोई मदद कर सकता हूँ ?' सीधा सा प्रष्न उसके सामने उछाल दिया ।

वह मेरे चेहरे की ओर देखने लगा, फिर बोला, ‘नहीं बोस ! मैंने ही अपने सीधे सपाट जीवन में कांटों की बाड़ लगा ली है, अब इनसे दो चार भी मुझे ही होना पड़ेगा, मुझे विष्वास है एक दिन इनसे जरूर निजात पा लूंगा, लेकिन जिस दिन मैं हार जाऊंँ बस उसी दिन थाम लेना तुम मेरा हाथ, मैं उफ तक नहीं करूगाँ......।' इतना कहने के बाद उसने एक गहरी चुप्पी अख्तियार कर ली, जो हमारे बीच सेतु का काम कर रही थी ।

मैंने हल्के से उसके हाथ को थपथपाया, और हम कॉफी हाउस के बाहर निकल आए । हम दोनों ने अपनी अपनी राह ली जो एक दूसरे से बिल्कुल विपरित दिषाओं की ओर जाती थी ।

रमेष खत्री

संपादकः वैब पत्रिकाः साहित्यदर्षन डाट कॉम

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