The Author Ramesh Khatri Follow Current Read महायात्रा By Ramesh Khatri Hindi Short Stories Share Facebook Twitter Whatsapp Featured Books तत्वज्ञान ओशो ओशो, जन्मनाव रजनीश चंद्रमोहन... क्रीपि फाईलज - खरी दृष्य भीतीची ... - सीजन 1 - भाग 3 व्हिक्टोरिया 405 भाग ३भाग 3." मामा - मला वटवाघळू नाय बनायचं... भज्यांची आमटी भज्याची आमटीहा एक अत्यंत चविष्ट आणि खमंग प्रकार जो भात भाकरी... जर ती असती - 4 समर ने स्वराला बेडवर नेऊन झोपवलं आणि पटकन विनोदला फोन करून ब... नियती - भाग 36 भाग 36सुंदर च्या हालचालींचे निरीक्षण करत...फौजदार म्हणाले...... Categories Short Stories Spiritual Stories Fiction Stories Motivational Stories Classic Stories Children Stories Comedy stories Magazine Poems Travel stories Women Focused Drama Love Stories Detective stories Moral Stories Adventure Stories Human Science Philosophy Health Biography Cooking Recipe Letter Horror Stories Film Reviews Mythological Stories Book Reviews Thriller Science-Fiction Business Sports Animals Astrology Science Anything Crime Stories Share महायात्रा 1.4k 6.8k कहानी महायात्रा रमेष खत्री मो. 09414373188 ‘हे राम....! हे....राम.......' की कराहटोें के साथ सुबह होती , यह सब पिछले तीन महिनों से चल रहा है; पर उस दिन मन उदास हो गया, अभी तक सुबह का सूरज पूरी तरह रात के अंधेरे को पी भी नहीं पाया था एक तरह से अंधेरे और उजाले के बीच संक्रमण का समय था । यह सब प्रकृतिजन्य था या मन के अतिरेक का परिणाम समझ नहीं पाया । इतना तय था मन अंधेरे के गर्त में गोते लगाने को विवष था तभी ‘हे राम... हे... राम .....' की कराहटों ने उबार लिया । उनकी कराहटें इसी तरह सुबह से षाम तक सुनी जा सकती है, इन कराहटों से मन आहत होता है और उनका दुःख उनका न रहकर पूरी गुआड़ी का हो जाता है । यहाॅँ रहने वाले आठ—दस परिवारों में बँंट जाता है पर उनका दुःख तो अपनी जगह बरकरार है ही । यदि बांँटने से ही दुःख बंँटने लगा तो फिर क्या कहने ! कहते हैं, ‘हर आदमी अपने हाथों की लकीरों में अपने दुःखों का हिसाब किताब लिखाकर लाता है, ।' उन दिनोंं वे भी अपने हाथ की लकीरों का ही हिसाब पूरा कर रहे थे, षायद इसी कारण तकलीफ़ों का पहाड़ टूटा है उन पर, षरीर ने साथ छोड़ दिया और मन है कि अपनी ही पैदा की हुई उलटबाँसी में लगातार खोया रहता है । इन सबके बीच कराहटें ही उनको उबारती है गहन अंधकार के गव्हर से । कोई नहीं जानता उनका असली नाम क्या है ? सभी उनको मामा कहकर पुकारते हैं, एक तरह से वे जगत मामा कहलाते हैं । मैं नहीं जानता कब, क्यों और कैसे मन में एक छोटी सी लकीर के रूप में जगत मामा ने प्रवेष किया और फिर वह स्थान बढ़ता चला गया । अब तो ठीक से याद भी नहीं है कि कब हम षहर में आये और इस गुवाड़ी का हिस्सा बन गये । उस समय मैं बहुत छोटा था , पाॅँंच या छः वर्ष की उम्र रही होगी मेरी । यह हिसाब भी गणित की कमजोरी के कारण गड़बड़ा सकता है, बस तभी से मामा से परिचय हुआ और समय की किताब के पन्नों पर न जाने कब यह परिचय गहराता चला गया, पता ही नहीं चला । बहुत छोटा परिवार है मामा का; एक कुत्ता भूरिया, दो तोते और एक अदद पत्नी । उनकी दिनचर्या भी इसी छोटे परिवार के आसपास घूमती रहती । भूरिया और तोतों की सेवा में उनका पूरा दिन बीत जाता और रात मौज मस्ती में, रही षाम, वह तो दीन दुखियों की सेवा को समर्पित थी। षाम होते ही मामा अपनी मोरपंखी झाड़न लेकर कमरे के बाहर ओटले पर दरी बिछाकर बैठ जाते, फिर ताता लग जाता बीमार.दुखियों का । वे अपनी मोरपंखी झाडन से बीमारों की तकलीफें दूर करने का प्रयास करते, मुंह से मंत्र फूँकते जाते और झाड़न से बीमारी को दुत्कारते और बीमार को सांत्वना देते । उनके आषीष लोगों को फलते भी बहुत थे, षायद उनकी मोरपंखी झाड़न से लोगों की तकलिफें दूर होंती होंगी तभी तो सांझ होते ही दीन दुःखी उनके आसपास मंडराने लगते थे। इस सब में षाम बीत जाती और फिर रही रात उसका क्या है उसे तो वे नषे में बिता देते । कोई न कोई रोज ही उनकी सेवा में हाजिर हो जाता और रात रंगीन होने लगती, आधी रात तक धींगा.मस्ती चलती रहती, बाकि की रात कब बीत जाती उन्हे पता ही नहीं चलता । सूरज निकलने से पहले मामी अपना बिस्तर छोड़ देती और घर के कामों को निपटाने लगती, उनके बर्तनाें की खटर.पटर से दूसरे लोगों की नींद खुलती थी । मेरी नींद भी उनके बर्तनाें की आवाज़ से ही टूटती तो मन खिन्न हो जाता पर सुबह की ठण्डी हवा मन मस्तिष्क को सकून पहुॅँचाती । मामी अपने कामों में व्यस्त रहती बीच.बीच में तोतों से मराठी में बात करते हुए कभी तो उनको डपटती और कभी लाड़ दिखाते हुए कहती, ‘काई मांगतो रे चांगळा...?' वें फिर अपने काम में लग जाती, भूरिया उनके आगे पीछे घुमता रहता, वें जहॉँ भी जाती भूरिया साथ में होता । पानी भरने सरकारी नल पर जाती तो वह वहॉंँ भी पहुँच जाता, बर्तन मांजने कुए पर जाती तो वह वहाॅँ तैनात रहता । कुआ हमारी गुआड़ी में ही था, कुल जमा दो हाथ की रस्सी से उसमें से पानी निकाल लेते । आव काफी तेज होने के कारण पानी उथला था, इसलिए पानी के लिए कभी परेषान नहीं होना पड़ता था । बरसात के दिनों में तो हम बाल्टी को सीधे कुए में डुबोकर पानी निकाल लिया करते मानो ड््रम से पानी निकाल रहे हो ! छोटा सा कुआ गर्मी में भी सूखता नहीं था, इससे गुआड़ी के लोगों को पानी की बड़ी सुविधा थी, केवल पीने भर का पानी सरकारी नल से लाना पड़ता था बाकि का काम इसी कुए से चल जाता था । घर का काम निपटाने के बाद मामी चाय बनाती, चाय मग में छानने के बाद वें मामा को जगाते हुए कहती, ‘‘चाह, झाला .....इतका दिवस झाला.....उठा अहो....!'' ‘अग....ओपुन दे ना.....मेरे को बाबा किधर को जाना है........! अता काई कराईच....?'' मामा फिर करवट बदलकर सो जाते । जब मामा नहीं उठते तो मामी अपना सारा गुस्सा भूरिया पर उतारते हुए उसको डाँटने लगती, ‘हट मेल्या....समझत नाई का......बईस बाहर, उगइस लागत या पाटी मग्...... !' तभी मामा गुस्सा होकर उठ बैठते, भूरिया को अपने पास बैठा लेते, वह भी अच्छे बच्चे सा उनके पास चुपचाप बैठ जाता और इस तरह वे चाय की चुस्कियोंं में सुबह को घोल लेते । चाय पीने के बाद मामा जैसे ही बिस्तर छोड़ते तो तोतो को डांटना नहीं भूलते, ‘मिठ्ठू अत नीत पाणी न बोल राम राम बोल..... गोड़ गोड़ बोल.....!' भूरिया मामा का लाड़ला था तो तोते मामी के, दोनों एक दूसरे को चिड़ाने के लिए ऐसा करते, पर जब दोनों में से कोई भी एक व्यक्ति घर में होता तो उस समय मिट्ठू और कुत्ता दोनों ही बराबर प्यार पाते बच्चों की तरह उन्होने जानवर को भी आपस में बांट लिया था । सात बजते बजते मामी हाथ में थैला लेकर निकल पड़ती काम पर, उन्होने चार—पॉँच घरों में चौका बर्तन का काम पकड़ रखा था । मामी के जाने के बाद मामा अपनी ड्यूटी पर लग जाते । तोते के पिंजरों को उतारते उनको साफ करते तोतों को नहलाते उनको चुग्गा पानी देकर वापस उनको उनके स्थान पर टांग देते । भूरिया उस समय उनके आगे पीछे घुम रहा होता, तोताें की सेवा के बाद नम्बर आता भूरिया का, प्यार, अपनत्व और अधिकार का मिलाजुला संगम देखने को मिलता । यह सब करते हुए मामा किसी दूसरी ही दुनिया में खो जाते । उन दिनों मेरे कोमल मन पर मामा की दूसरी ही छवि अंकित थी, मैं उनको और उनके इन कामों को हेंय दृष्टि से देखता और उनको धिक्कारता था, ‘बुड्ढा, साला जोरू की कमाई पर मजे कर रहा है ।' समय के साथ मेरी यह धारणा भी बलवती होती जा रही थी । मामा मेरे लिए हेय और घृणा के पात्र बनते जा रहे थे । बचपन का किताबी आदर्षवाद मेरे मन मस्तिष्क पर हावी था वास्तविकता की कठोर ऑँच से बचा हुआ मेरा मन काल्पनिक उड़ानों में ही खोया रहता था, लेकिन समय के निर्मम पेण्डुलम के साथ डोलते हुए मुझे बाद में पता चला, ‘वास्तव में मैं जिन किताबी खयालों में खोया था, वे तो रेत के समंदर मेंं नाव खेने के समान थे, जहाॅँ दूर.दूर तक न तो कोई किनारा था और न ही किसी मंज़िल का पता....तो अब तक मैं अंधेरे में ही तीर चलाये जा रहा था ?' समय के उसी बेरहम पेण्डुलम ने मेरे हाथ में कुछ डिग्रियां थमा दीं और फिर षुरू हुआ कार्यालयों मेंं नौकरी के लिए चक्कर लगाने का सिलसिला, बेरोज़गार की लम्बी लाईन में खड़े हुए खुदको असहाय महसूस करने लगा, इससे उपजी निराषा ने मेरे मन में पलायन के बीज बो दिये, जिसकी बू मेरे व्यवहार में झलकने लगी थी । मैं जब भी खुदको वर्तमान से जोड़ने की कोषिष करता तभी मेरा किताबी आदर्ष मुँंह बाये सामने खड़ा हो जाता, मेरा मन किसी विद्रोह के ताने बाने बुनने लगता । पर एक बेरोज़गार आदमी करे भी तो क्या नंगा क्या तो धोये और क्या निचोड़े । समय की इसी आपा.धापी में खुद को एडजेस्ट करने की कोषिष करता हुआ जब भी मामा का मस्त मौला चेहरा देखता तो कुछ समय के लिए ही सही राहत मिलती, मैं खुदको भुलने का प्रयास करने लगता, उस समय मेरे मन के तार अनायास ही उनसे बंध जाते । आर्थिक रूप से तंगहाल मामा का परिवार समय के परींदे के पर गिनता हुआ कैसे अपना समय बिता रहा था, पर कभी भी किसी प्रकार की चिंता को उन्होने अपने चेहरे पर फटकने नहीं दिया । हमेषा ही हंसता.खिलखिलता उनका चेहरा अपनी प्राकृतिक आभा बिखेरता मन में गहरे तक उतर जाने को आतुर रहता । मामा अपनी दिनचर्या निपटाने के बाद निष्चिंत हो जाते, भूरिया घर की रखवाली करता और तोते सीता.राम, सीता.राम की रटन्त से पूरी गुआड़ी को सर पर उठा लेते । उनका घर हमेषा खुला रहता, मैंने कभी उनके घर का दरवाज़ा बंद होते नहीं देखा । एक छोटा सा कमरा वह भी पूरा खाली, आर्थिक तंगी एक एक कर घर के सामान को चाट गई, बाकी बचा एक अदद तखत जिस पर मामा हर दम लेटे रहते, वह कभी खाली नहीं रहता । बिस्तर जिस पर ढकी पुरानी फटी चादर बिन बोले ही आगन्तुक को अपनी तथा घर की कहानी सुना देती, कुछ तस्वीरें, जिन पर जमी मिटृटी की तहें, झाड़ने की एक झाड़न मैला कुचला तौलिया और खाली वक़्त यही पूॅंँजी थी उनकी । इसके अलावा एक पुराना पीतल का स्टोव, कुछ बर्तन, तीन.चार पुराने कनस्तर जो हमेषा खाली ही रहते । इस पर भी किसी तरह की कोई चिन्ता नहीं कोई फिक्र नहीं, विपन्नता की हर स्थिति में कोई कैसे मस्तमौला की तरह रह सकता है यह कोई उनसे सीखे । मन में आत्मीयता, चेहरे पर मुस्कान, होठों से षब्दों के रूप में टपकता अपनत्व यही उनके व्यक्तित्व की निषानी थी । षायद इसी कारण उनके यहॉँ आने.जाने वालों का ताता लगा रहता, जिनमें कोई भी अपना सगा नहीं बस थोड़ी सी जान पहचान और अपनत्व ही काफी है उनके घर में मेहमान बनने के लिए । यहाँ हर आने वाला मेजबान की हालत देखकर खुद ब खुद परिवार का सदस्य बन जाता, घर के खर्च और काम में बराबर की भागीदारी निभाता । यहाँ पर मामा.मामी के प्यार और अपनत्व की इतनी बरसात होती कि उसका मन भीग जाता वह अपने को धन्य समझता और लौट लौटकर यहॉँ आने की फिराक में लगा रहता । यहॉँ का मोह उसके मन मस्तिष्क में हमेषा के लिए अंकित होकर रह जाता । यह सब कुछ मैं तिक्त नज़रों से देखता रहता, हमारे घर और उनके घर के बीच में बस कुछ ही कदमों का फाँसला है, जैसे आमने.सामने ही हैं हमारे घर । एक ही गुआड़ी में रहते हुए पन्द्रह सालों से अधिक का समय बीत गया । हमारा भी एक ही कमरे का घर है इस कारण अधिकांष समय बाहर ओटले पर ही बीतता, वहीं पर पंलग डाल कर एक अस्थाई बैठक बना ली गई है, जितनी भी देर में घर पर रहता पलंग पर ही बैठा रहता । मेरा तो अधिकांंष समय ही इसी पंलग पर बीतता, मैंने अपनी पढ़ाई इसी पंंलग पर पूरी की और बेरोजगारी के दिनोें में न जाने कितने सपने इसी पंलग पर बैठे.बैठे देखे, न जाने कितने हवाई किले मैंने इसी पलंग पर बनाये और फिर उनको धराषायी होते हुए भी देखता रहा । ये पंलग एक तरह से मेरे अतीत का हमसफर है, जों आज तक अपना साथ निभा रहा है । इसी पंलग पर बैठकर मैंने अपने भविष्य के सुनहरे संपनों को संजोया और फिर उनको अपनी आॅँंखों के सामने ही रेत में दफन होते हुए भी देखा है । ऐसे ही न जाने कितने दिन आये और सांझ की आगोष में समाते चले गये । उस षाम भी मैं इसी पंलग पर बैठा था, दिनभर की आषा आकाक्षांओें को अजानी भट्टी मेें होम हो जाने को याद कर रहा था। ठीक तभी मैंने मामा को अपने पास खड़ा पाया, ‘अरे आप यहॉँ .....आओ बैठो.....?' अपने पास ही पंलग पर जगह बनाते हुए मैंने कहा । मुझे प्रष्नाहत नज़रों से देखते हुए वे पंलग पर बैठ गये । अचानक उनको अपने पास पाकर मैं असामान्य सा हो गया, दूर की राम.राम के अलावा अभी तक कोई संबंध नहीं बन पाया था । उनका इस तरह अचानक आ धमकना मुझे खल रहा था, एक बार तो ख़याल आया, ‘बुड्ढा, आज अपना समय पास करने के लिए यहॉँ चला आया, लगता है आज कोई मुर्गा नहीं मिला ?' ‘पिछले कई दिनों से मैं देख रिया हॅूँ....तू बहोत परेषान दिखरिया है.....?' थोड़ रूककर वे फिर बोले, ''मेरे को बता बात क्या है ?'' मैंने अपने चेहरे पर झूठी हंंसी के छीटे मारते हुए कहा, ‘कुछ नहीं....बस यूं ही.....!' ‘मैं रोज देखता नी हॅूँ क्या..बेटा मुझसे ही छुपाये जा रिया है...! बता तो क्या है जो तेरे को अन्दर ही अन्दर खाये जा रिया है ....?' उस समय मेरा हलक रूंध गया, एक षब्द भी बाहर नहीं निकल पाया, मैं तिक्त नज़रों से उनको देखता रहा । पहलीबार किसी ने इतनी आत्मीयता से मुझसे मेरी परेषानी के बारे मेंं पूछा था । इससे पहले तो सभी ओर से ताने ही सुनने को मिलते जो मेरे मन को गहरे तक आहत करते । ‘तू बोलता क्यों नहीें है ?' ‘बस यूं ही...नौकरी को लेकर...' इसके बाद के षब्द गले मंेंं ही अटककर रह गये । ‘ऐसा है भैया ऊपर तो सीढ़ियां चढ़कर ही पहुँचा जाता है न.....समझा..... मैं क्या के रिया हॅूँ ...?' मुझे लगा आज किसी ने पहली बार मेरे अंतर्मन के जख़्मों पर प्यार से मरहम लगाने की कोषिष की हो, मुझे उनकी अपनत्व भरी बातें सुनकर सकून मिला और पहली बार अहसास हुआ कि यह व्यक्ति लोगों में क्या बाँटता फिरता है ? षब्दों का अमृत ही इसके मुंह से झरता रहता है । मैं विचारों की इसी श्रृंखला में उलझा था कि तभी उन्होने पंलग से उठते हुए आदेष दे दिया, ‘दिन भर बैठा.बैठा यहॉँ क्या करता रहता है, उठ चल..?' चाहते हुए भी मैं उनके आग्रह को टाल नहीं पाया, एक अंजाने संमोहन के पीछे यंत्रबद्ध सा चल दिया । मुझे साथ में लेकर वे न जाने कहॉँ.कहॉँ घूमते रहे । उज्जैन की सड़कों को बेवजह नापते रहे, उनके साथ घूमते हुए मेरे मन में विचार आया, ‘इस तरह बेवजह घूमकर मैं अपना कीमती समय क्यों जाया कर रहा हॅूँ ...?' पर उनके साथ चलते हुए उनसे बातें करते हुए मन को काफी राहत महसूस हो रही थी, हमारा बेमेल साथ किसी धरातल पर एक हो रहा था । कुछ ही देर में हमारे बीच से उम्र का फासला ख़्ात्म हो गया, उनकी भाव भंगिमाओं और हास परिहास से मेरा मन हल्का हो गया, मन पर छाये निराषा के बादल धीरे धीरे छँटने लगे । पहली बार मैं उनके साथ इन सड़कों पर यूं ही बेवजह घूम रहा था, हालाँकि यार दोस्तों के साथ ऐसे ही न जाने कितना समय बीता होगा, पर इस थोड़ी सी देर के साथ में ही मैं जान पाया, ‘मामा के चाहने वालों की संख्या इस षहर में बहुत है, जिनमें हर उम्र और हर वर्ग के लोग षामिल हैं । हम नलियाबाखल से निकलकर दौलतगंज होते हुए नई सड़क पर आ गये थे । यहॉँ एक दुकान पर जाकर मामा बैठ गये, दुकानदार ने उनकी काफी आवभगत की । मैं यहाॅँ अपने आपको उनसे पूरी तरह नहीं जोड़ पा रहा था, पर वे अपनी बातों में मस्त थे । मेरे ऊपर अनजानेपन का साया हावी था, इस कारण भी मैं उनकी बातों का सहभागी नहीं बन पा रहा था । काफी समय बीतने के बाद हम लोग छतरीचौक की तरफ निकल पड़े, वहॉँ पर फलों के कई ठेले लगे हुए थे, षहर की सारी सड़कें यहॉँ आकर एक हो जाती है, जैसे सारी नदियॉँ समुद्र में मिलकर समूद्र हो जाती है, गोल सर्किल के एक ओर गगन चूमता मस्जिद का गोल गुम्बद, उसके पीछे अलसाया सा गोपाल मंदिर, उसमें आज भी आम दिनों की तरह भीड़ दिखाई दे रही थी । गोल सर्किल के आधे हिस्से मेंं फलों के कई ठेले लगे थे । हम अपनी ही धुन में आगे बढ़ते जा रहे थे, तभी पीछे से एक ठेलेवाले ने आवाज़ देते हुए कहा, ‘‘अरे....मामा..! आज तफरी के लिए इधर चले आये क्या....?' ‘क्यो रे षंकर तू है....?' ‘क्या मामा....' ष्षंकर ने दांत निपोर दिये । ‘अबे तूने ये ठेला कब से चालू कर दिया...?' ‘अभी थोड़े दिनों से ही, आपको नहीं पता क्या..?' ‘अच्छा है ! अच्छा है..' मामा उसके ठेले को देखते हुए फिर बोले, ‘देख षंकर, खूब मन लगाकर मेहनत करना...समझा क्या....ईष्वर देगा....खूब देगा..पर अबके भी मत बैठ जाना अड्डे पर...!' ‘नहीं मामा अब ऐसा नहीं करूगांँ...।' षंकर बच्चे की तरह कान पकड़ते हुए बोला । देखूँगा...तुझे अबके भी देखूगाॅँं षंकरिया.....या...?' ‘देख लेना....! ' इस बार षंकर का विष्वास उसकी ऑंँखों से झर रहा था । हम वहॉँ से जब आगे बढ़ने लगे तो षंकर मामा का हाथ पकड़ कर बोला, ‘क्या मामा आज ऐसे ही जाओगे ......षंकर की बोहनी नहीं करवाओगे ? और षंकर आपको ऐसे ही जाने देगा क्या.....?' ‘अच्छा... ऐसा क्या...चल देेदे आधा दर्जन ।' हमने वहीं खड़े होकर केले खाये, उस समय भी मेरे मन में असंख्य सवाल अपने फन उठाये लहरा रहे थे । जिनको मैं बड़ी ही बेरहमी से कुचलता जा रहा था, मेरे पास इसके सिवाय कोई दूसरा चारा भी नहीं था । करता भी तो क्या कुछ भी कह पाने की न तो हिम्मत थी और न ही हौसला, खाली नज़रों से वह सब कुछ देखता जा रहा था जो मेरी आॅँंखों के सामने चलचित्र की भांँति चल रहा था, जो भी चित्र मेरी ऑंँखों के सामने आते जा रहे थे उन्हे देखना मजबूरी था । केले खाने के बाद मामा ने दो रूपये का नोट षंकर के हाथ में थमा दिया, जिसे वह लेने से मना कर रहा था । पर मामा माने ही नहीं बोले, ‘बेटा, तू धंधें मेंं ऐसे रिष्तेदारी निभाता रहा तो हो गया तेरा धंधा ।' ‘पर मैं आपसे पैसे कैसे ले लूं ....?' ‘क्यों...! क्यों नहीं लेगा ?' ‘ये बात मेरे मन में ही रहने दो तो ठीक है ....' ‘पर बेटा ! अपने को अपने बारे में भी तो सोचना चाहिये कि न .....' ‘नहीं मामा.... नहीं मेरे लिए मेरे अपने भी इतना नहीं करते जितना आपने मुझ गैर के लिए कर दिया ।' षंकर भावुक हो रहा था । ‘अरे पगले, मिनख ही तो मिनख के काम आता है .....।' मामा आगे बढ़ गये, तभी षंकर ने उनका हाथ पकड़ते हुए दो रूपये का नोट फिर से उनकी जेब में डाल दिया । यह सब कुछ मैं मूकदृष्टा की तरह देखता रहा, इस मान मनव्वल में भी अपनापन छलका पड़ रहा था । लम्बे समय से मेरे मन में दबी मामा की छवि करवट लेकर अपना रूप बदलने लगी, वह भी उस व्यक्ति के प्रति जिसको मैं पिछले कई वर्षों से हिकारत की नज़रों से देखता आया था । आदमी के साथ ऐसा कई बार होता है बरसाेंं से संचित किया हुआ उसका आदर्ष, उसकी मान्यताऐं किसी एक घटना से चूर.चूर हो जाती हैं । आदमी का मन भी कितना चंचल है, वह पल.पल में अपने अंदर दबी छवियों को बदलता रहता है, उसमें जमा बरसों की पॅंूँजी पल में ही न जाने कहाॅँ विलीन हो जाती है । ऐसे समय लगता है कि हमारा ज्ञान अधूरा है, हमारी धारणाएें, मान्यताऐं कहीं एक पक्षीय तो नहीं । ठीक ऐसे ही समय हमें अपने अधूरेपन का अहसास होता है । दरअसल एक आदमी के अन्दर कई.कई आदमी छिपे होते हैं और हर एक के कई कई पहलू होते हैं, हम किसी एक पहलू को देखकर आदमी के बारे में अपनी धारणा बना लेते हैं, ऐसे समय हम आदमी के बहुआयामी व्यक्तित्व का पूरा आँकलन कहॉँ कर पाते हैं ? तभी तो हमारे मन में अंकित क्यक्ति विषेष की धारणा क्षणभर में ही रेत के महल की तरह धराषायी हो जाती है और हम नीरीह ऑंँखों से उसे देखते रह जाते हैं । मामा के बारे में मेरी धारणा तो कच्ची उम्र की वो बलवती इच्छा थी, जिसे आत्मीयता की एक छोटी सी लहर ही समन्दर की कोख में बहा ले गई, जहाँ अतल गहराईयों के अलावा कुछ भी नहीं था । मेरे मन में ख़यालों के झंझावात चल रहे थे और नज़र मामा के चेहरे पर टिकी हुई थी, उनके सपाट लम्बोतरे चेहरे पर घनी मुछें अपने होने का अहसास करा रही थी । वे अपनी इन्ही घनी मूछों में मुस्कुराते तो घनी भवें सिकुड़ जाती और ऑंँखें छोटी होकर अन्दर को धंस जाती । अचानक ही कोई उनके चेहरे की ओर देखे तो उन्हे पहाड़ी समझ बैठे, पर वें तो हिन्दी मिश्रित मराठी बोलते हैं, तो षायद महाराष्ट्रियन होंगे ! पर मुझे आज ही पता चला वे इस सबसे ऊपर एक अच्छे इन्सान हैं । मषीनी आपाधापी के इस दौर में आदमी से जब आदमियत ही जुदा हो गई है और जिसने भी अपने अंदर इसे बचाये रखा वह धीरे.धीरे हाषिये पर होता चला गया । दुनिया ने उसे कभी सनकी करार दिया तो कभी पागल । इतिहास के पन्नों में ऐसे आख्यान भरे पड़े हैं जहॉँ या तो क्रूरता विराजी है या फिर इन्सानियत । मामा का व्यक्तित्व भी एक पहेली था, जो धीरे.धीरे मेरे सामने खुलता जा रहा था । एक घन्टे का उनका साथ उनके व्यक्तित्व की पहेली को सुलझा रहा था । बगुले की तरह सफेद कुर्ता पाजामा पहने मामा के सर पर सफेद गांधी टोपी उनको नेताओं की जमात में खड़ा कर देती है, पर उनका तो किसी भी पार्टी से कोई लेना देना नहीं है, वे तो इन्सानियत के अगुआ हैं, आदमी जैसे जैसे उनके करीब आता जाता है उसके भ्रम के जाले छँटते जाते हैं कूड़े कचरे की सफाई हो जाने के बाद मन से उनकी इज्जत करने लगता है, मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ । मैं लम्बे समय से उनको जानता जरूर था पर पहचान आज पाया हॅूँ । अबसे पहले की उनकी छवि ने मेरे मन में वितृष्णा के जाले बना रखे थे, जिसे उनके साथ ने साफ कर दिया और मेरे मन की संचित धारणा पानी के रेले की तरह बह गई, उसकी जगह पैदा हुआ अपनत्व का सागर जो एक खुले वितान की तरह मेरी आॅँंखों के सामने हिलोरे लेने लगा । मैं अपने मन मेंं उठ रहे इन्ही झंझावातो के साथ मस्ती मेंं सड़क पर उनके साथ चला जा रहा था, कि तभी जोर का धक्का लगा और मैं दूर जा गिरा । यह सब पल भर में ही कब और कैसे हो गया पता ही नहीं चला, मेरी ऑंँख खुली तो देखा मामा सड़क के बीचों बीच चित्त पड़े हैं । एक ही क्षण में सब कुछ बदल गया । जैसे तैसे उठकर मैं मामा के करीब गया, ‘आपको चोट तो नहीं आयी......?' ‘कुछ होष भी है तेरे को.... यह सड़क है बाबा...?' उनकी प्रष्नवाचक नज़र मेरे चेहरे पर स्थिर हो गई । ‘................. ।' मैंने अपनी नज़रें झुका ली । ‘अभी मैं धक्का देकर अलग नहीं करता तो पता है तेरा क्या बनता उस जीप से..?' इतना बोलते ही मामा बेहोष हो गये । वहाॅँ भीड़ जमा हो गई कोई कुछ बोल रहा था तो कोई कुछ । ‘अरे....रे ...क्या हो गया....?' ‘अजी होना क्या है आजकल के छोकरे ठहरे सड़क को तो अपनी खाला का घर समझते हैं, देखा नहीं जीप कितनी तेज़ चला रहा था वह लौण्डा....?' ‘देखा भाई.... देखा, इस हजरत को भी तो देखो.....सड़क के बीचो बीच कैसे टहल रहा था ।' ‘ये तो अच्छा हुआ बाबा ने धक्का देकर बचा लिया, नहीं तो आज तो इसकी चटनी बननी ही थी ।' ‘अरे भाई कोई बाबा को भी तो देखो, बेहोष हो गये हैं षायद......?' ‘इन्हे ज्यादा चोट तो नहीं आई......?' ‘कोई अस्पताल भी तो ले जाओ......!' मामा सड़क पर मूर्छित पड़े थे, मैंने ही उनको उठाकर ऑटो में लिटाया, सदमे के मारे मेरी भी हालत पतली हो रही थी, पलक झपकते ही क्या से क्या हो गया जो कल्पनातीत था । मुझे बचाते हुए मामा गंभीर रूप से जख्मी हो गये थे, अनजाने ही यह कैसा उपकार उन्होने मुझ पर कर दिया था । मामा को बहुत चोटें आई,, उनके सिर पर गहरी चोट थी, एक पैर टूट चुका था, रातभर बेहोषी के आलम में खोये रहे । मैं उनके पलंग के पास स्टूल पर बैठा रहा । मामी तो पथरा गयी थी, सुबह मामा को होष आया तो लगा सूरज किसी अंधकार को चीरकर बाहर निकला हो, सूबह की धूप में पत्तों पर पड़ी ओस की बूंदें चमकने लगी हो ऐसी लग रही थी उनकी ऑंँखें । उस समय जाना, ‘आदमी दु;ख में भी अपने आपको कितना संतुलित रखकर जी सकता है ।' वह तो पैर का पलस्तर उनको पलंग से बांधे हुए था, वरन् वे तो कभी के निकल चुके होते अस्पताल से बाहर । फिर कुछ दिनों तक मैं उनसे मिलने अस्पताल नहीं जा सका, समय ने अचानक करवट ली, मैं एक प्राइवेट कम्पनी में नौकरी करने लगा, मैं अपनी इस नयी नौकरी के गोरखधन्धे में उलझकर रह गया, जिस कम्पनी में मेरी नौकरी लगी थी वह षहर से काफी दूर थी । सुबह जल्दी घर से निकलना और फिर देर रात घर लौटना, यही दिनचर्या बनकर रहा गयी, प्राइवेट कम्पनी की नई—नई नौकरी अपनी घानी में मेरा तेल निकाल रही थी । ऐसे में मामा के कहे षब्द ‘ऊॅँंची मंज़िल को पाना है तो सीढ़ी दर सीढ़ी ही चढ़ना पड़ता है, तभी आदमी अपनी मंज़िल को पा सकता है और आसमान को छू सकता है ।' मेरा संबंल बनते, दरअस्ल यह नौकरी भी मामा के ही प्रयासों का नतीजा थी, उन्होने ने उस रोज़ दुकान पर बैठकर जो गुटरगू की थी, यह कम्पनी भी उसी दुकान वाले की ही थी इसका पता मुझे काफी बाद में चल पाया । कुछ ही समय में इस कम्पनी ने पूरी तरह से मुझे अपनी गिरफ्त में ले लिया । अब न तो मेरे पास भटकने की फुर्सत थी और न ही षक्ति, मामा की छवि हमेषा मेरी ऑंँखों के सामने लहराती रहती जो मन को सकून प्रदान करती । मुझे मामी से उनके हाल चाल पूछकर ही संतोष करना पड़ता । अस्पताल में रात में मरीजों से मिलने नहीं दिया जाता और सुबह होने से पहले ही मुझंें कम्पनी के लिए निकल जाना पड़ता, साप्ताहिक छुट्टी मुझे कई महीनों से नहीं मिली थी । छोटी सी कम्पनी थी जो मेेनेेजर ने कह दिया वही वहाँ का नियम था, उससे परे जाने की किसी को भी अनुमति नहीं थी, उस लक्ष्मणरेखा को लांघने का मतलब हमेषा के लिए छुट्टी पा लेना था । ऐसे समय में मामा के कहे षब्द कानों में गूंजते रहते और आॅँखों के सामने बेरोजगारी के दिनों का विषाद घूमने लगता और मैं सीढ़ी दर सीढ़ी अपनी मंज़िल की तरफ बढ़ने की कोषिष मेंं जी जान से जुट जाता उस समय मेरे मन में ख़याल आता, ‘हर बुलंद इमारत की नीव धरती की कोख में ही तो दफन रहती है, नीव जितनी मजबूत होगी इमारत उतनी ही बुलंद होगी ... मुझे भी अपनी नीव को मजबूत करना है, जिस पर मेरे भविष्य की भव्य इमारत खड़ी हो सके....!' बस यही सोचकर मैं धरती से लगी पहली सीढ़ी पर मजबूती से पैर जमाये हुए था । जिससे मौका मिलते ही ऊॅँंची छलाग लगा सकूं । समय की आपाधापी के उस दौर ने न जाने कितना कुछ बदल दिया, कहते हैं समय के पैर नहीं होते वह तो चुपचाप किसी चोर की तरह खिसक जाता है, हवा की तरह, उसके बीत जाने के बाद ही उसका अहसास हो पाता है । मामा अस्पताल से घर आ गये थे, उनके साथ ही आया था यह, ‘हे राम..... हे राम... !' का जाप जिसे वे हर समय दोहराते रहते, अब यही उनकी सच्चाई बन गया था । इसी हे...राम के साथ अतीत और वर्तमान की कड़ी जुड़ गई, उनके ये षब्द भूतकाल से वर्तमान में घसीट लाये किन्तु जीवन की कठोर सच्चाई सामने सुरसा की तरह मुंहबाये खड़ी थी । मामा के इन्ही षब्दों ने उपन्यास के पन्नों को पर्त दर पर्त हटाया और रहस्य से परदा उठता चला गया । पूरे दो साल बीत गये, आज भी वह घटना मेरी आॅँंखों के सामने हरी है, उस दिन के बाद मामा बिस्तर से ही लगकर रह गये, उनका एक पैर पूरी तरह से बेकार हो गया, कई महिनों तक तो उनको अपना दैनिक कार्य भी बिस्तर पर ही करना पड़ा । काफी समय बीत जाने के बाद बड़ी मुष्किल से वे किसी सहारे से चलने की स्थिति में आ पाये वह भी थोड़ी सी दूर के लिए ही । उनका एक पैर सूखकर पतला हो गया और दूसरा भी कांंंंपने लगा था, इसके साथ ही उनकी हिम्मत भी जवाब दे गई थी । अब तो वे पूरे दिन ही तखत पर बैठे रहते और खुले आसमान में न जाने क्या तलाषते रहते, उनकी सूनी सूनी ऑँखें हमेषा आसमान की ओर उठी रहती । अब मामी की परेषानी और बढ़ गई थी, घर की स्थिति बद से बदतर होती चली गई , उनका अधिकांष समय मामा की सेवा में बीतने लगा, इस कारण उनके लगे लगाये काम भी छूट गये । उनका एक तोता इस बीच मर गया और भूरिया सूखकर कांटा हो गया । अब उनसे मिलने वालों की संख्या भी कम हो गयी, षुरू में तो उनको देखने वालोंं का ताता लगा रहा किन्तु कुछ ही समय में उनका क्रम भी टूटता चला गया । आखिर कोई कब तक दूसरों के दुख में दुबला होता रहेगा, यह संसार तो वैसे भी सुखों को भोगने वालों से भरा पड़ा है उसमेें मामा जैसे लोगों के लिए कोई जगह नहीं है, वैसे तो हम सभी स्वार्थी हैं समी सांझ के मरे को आखिर कब तक रोया जाय ? मैं भी कभी कभार ही उनके पास बैठ पाता, मेरी व्यस्तता की अपनी अलग राम कहानी है, इस पर भी माता पिता मुझसे खफा ही रहते थे उनका अपना तर्क था, 'बेवजह वहॉँ बैठकर मैं अपना वक्त क्यों जाया कर रहा हूँ , जिन्दगी की जिस सीढ़ी पर मैं खड़ा हॅूँ, वहॉँ इस तरह से समय बर्बाद करने से कुछ भी हासील नहीं होगा ।' प्राइवेट नौकरी करते हुए सरकारी नौकरी की फिराक मेस समाचार पत्रों में ‘आवष्यकता है' के कालमों में उलझ कर रह गया था, उनमेंं खुदको फिट बैठाता और फिर आवेदन कर इन्तजार की कतार में खुदको खड़ा पाता, कई बार तो मुझको लगने लगता — ‘कहने को तो फिर भी मैं नौकरी कर ही रहा हॅूँ , पर यह कैसी विडम्बना है, जीवन का महत्वपूर्ण समय अंधी सुरंग में भटकते हुए ही बीत रहा है, मेरे पास तो भटकने का फिर भी कोई कारण नहीं है पर जो कुछ भी नहींें कर रहे हैं वे ऐसे समय क्या करते होंगे ? इन्तज़ार करते हुए आदमी की मानसिक दषा क्या होती है ?' न जाने कितने कितने प्रष्न अपने पैने औजारों से मुझे बेधते रहते, मैं उनका कोई उत्तर नहीं खोज पाता । मन में जब बहुत उथल.पुथल होती तो उठकर मामा के पास चला जाता, उनके पास अजीब तरह का सकून मिलता, पीपल के पेड़ के नीचे किसी तह की हुई गुदड़ी की तरह मामा बैठे रहते और थोड़ी थोड़ देर में, 'हेे राम.....हे राम..... ' की टेर लगाते रहते, मैले कुचेले कपड़ों में लिपटे वे दयनीय दिखाई देते । मैं जब भी उनके पास आकर बैठता उनकी ऑंँखों में एक अजीब तरह की चमक महसूस करता, वहॉँ अब भी अपनत्व का सागर हिलोरे ले रहा होता । वे अपने मुँह से कुछ भी नहीं बोलते किन्तु ऑंँखें ज़ुबान का काम करने लगी थी । अपने होठ जरूर उन्होने सिल लिये थे, पर उनकी दयनीय दषा मुझसे देखी नही जाती । बस इसी लिए मैं गाहे बगाहे उनको कुछ रूपये चुपचाप दे दिया करता, जिससे उनका तम्बाकू बीड़ी का खर्च चल सके । मैने यह भी महसूस किया रूपयों को कभी वे अपने हाथ में नहीें लेते थे, मैं ही उनको तकिये के नीचे रख आता, जिसे वे बड़ी ही दीन नज़रों से स्वीकारते मानो उनका आत्मसम्मान आहत हो रहा हो, षारीरिक विवषता के चलते वे कुछ भी कर पाने की स्थिति में नहींं रह गये थे । दिन तो फिर भी जैसे तैसे बीत जाता था, पर पूरे दिन के बाद इन्तजार बना रहता सांझ ढलने का । सूरज के अस्त होने के साथ ही उनके तखत के पास बीमारोें की भीड़ जमा होने लगती । वे अपनी मोर पंखी झाड़न से लोगों को झाड़ने लगते, मंत्र फूँकते और दीन दुखियों को ढाढस बंधाते । आस्था का दरबार लगता उनके तखत के पास, लोगों के मन में उनकी झाड़न की बड़ी मान्यता थी । काफी दूर दूर से लोग आते थे उनके पास उनको कुछ आराम भी होता ही होगा, नहीं तो कौन आता अपनी गाठ के रूपयोंं को खर्च करके ! दीन दुखियों की सेवा से फुर्सत होकर फिर उनका दरबार लगता गुआड़ी के बाहर सड़क पर, लाईट के खम्बे के नीचे । वहॉँ वे जैसे तैसे पहुँच जाते, उनके पहुँचते ही आसपास के दो चार लोेग और इकट्ठे हो जाते और फिर षुरू होता इक्का, राजा, रानी और गुलाम का दरबार जो आधी रात तक चलता । कभी कभार मैं भी उनके इस दरबार में हा़िजरी देने से अपने आपको रोक नहीं पाता, इस कारण हमारे घर में तनाव पसरने लगता, पिताजी नाराज़ होते । उनके कानों में पहले ही मामा को आर्थिक सहायता करने वाली बात पहुँच चुकी थी, इसलिए भी उनकी नाराजगी का पारा सातवें आसमान पर रहने लगा था । उन दिनों पिताजी फिल्म के विलेन की तरह नज़र आने लगे थे, अब मैं उनके सामने आने से कतराने लगा था । जब वे घर में होते मैं पहले ही घर से बाहर निकल जाया करता, ऐसे में उनका सारा गुुस्सा मॉँ पर निकलता । उनका गुस्सा होना वाजिब था । यह स्थिति भी ज्यादा दिन नहीं रह पायी, दिन पर दिन मामा की हालत खराब होती चली गई, धीरे धीरे उनका मानसिक संतुलन गड़बड़ा गया, इस बीच उनका कुत्ता भूरिया भी मर गया । जिसका उनके मन मस्तिष्क पर गहरा आघात लगा । अब वे दिन भर तखत पर बेसुध पड़े रहते, उनकी साल सम्हाल करने वाला कोई नहीं था । मामी अलसुबह घर के काम निपटाकर काम पर निकल जाती तो फिर दोपहर के बाद ही टिफिन लेकर लौटती, सुबह से दोपहर तक मामा तखत पर पड़े बड़बड़ाते रहते, बीच बीच में, ‘हे राम.... हे रामा... ' का जाप उनको अंधेरी काल कोठरी से उबार लाता । पूरे समय वे अपने से ही बातें करते रहते, खुद ही सवाल करते और खुद ही जवाब भी देते रहते, यदि कोई उनकी बातों को ध्यान से सुने तो उसे यही अहसास हो, 'जरूर कोई बैठा है उनके पास, जिससे वे बातें कर रहे हैं, अकेला आदमी भला किससे बातें करेगा ?' उनके चेहरे पर दाढ़ी के रूप में खेत लहलहाने लगा था । अब तो बड़ी हुई दाढ़ी और बालों के कारण उनका चेहरा विभत्स दिखने लगा था, षरीर भी हडि्डयों का ढांचा भर रह गया था । उन्ही दिनों मुझे भी सरकारी नौकरी मिल गई, इस नौकरी के साथ ही अलगाव का तोेहफा भी विरासत में मिला । सरकारी नौकरी मिलने का जितना मन में उत्साह था, उतना ही इस षहर से रूखसत होने का दुःख भी मन के अंदर कचोट रहा था, पर लम्बी साधना के बाद मिले इस नौकरी रूपी प्रसाद को तो ग्रहण करना ही था सो कर लिया । उन्ही दिनों मैं उनसे मिला और अपनी इस नयी नौकरी के बारे में बताया तो वे खुष हुए, उनकी ऑंँखों में खुषी की चमक कुछ पल के लिए जुगनू की तरह चमकी और दूसरे ही क्षण उनके मुँंह से निकला, ‘तो तू भी जा रहा है...... छोड़कर....?' उनकी आॅँंखों में उदासी समा गयी । ‘मामा आप ये क्या कर रहे हैं ....! अपना दिल इतना छोटा क्यों करते हैं आप.....? मैं कोई हमेषा के लिए थोड़े ही जा रहा हॅूँ, आता जाता रहूँॅंगा........।' ‘सो तो ठीक है...... ?' उनकी डबडबाई ऑँखें मुझ पर केन्द्रित होकर रह गई, उनकी ऑँखों से निकले पैनी निगाहों के प्रष्न मेरे चेहरे पर टंग गये । उनके सवाल और सवालिया निगाहों से खुदको बचाता मैं वहाँ से उठ खड़ा हुआ, वहॉँ ओर बैठे रहने की मुझमे हिम्मत नहीं रह गयी थी । माॅँं पिताजी सरकारी नौकरी की खुषी में फूले नहीं समा रहे थे, पूरा घर खुषियों से अटा पड़ा था, चारों तरफ खुषियां ही खुषियांँ बरस रही थी । सबकी आॅँखों मेंं खुषी का हर्ष समाया था । वे लोग मेरी विदाई को भी जष्न के रूप में मना रहे थे, बस एक मामा ही थे जिन्होनेे ज़ुदा होने के दुःख को महसूसा था, अपनी चिंता जाहिर की थी और मेरे जाने के ग़म में आंसू बहाये थे । एक बार घर से निकला तो पराया हो गया, दो चार महिनों में ही अब घर आना हो पाता, लेकिन जब भी यहॉँ आता मामा की हालत दयनीय ही पाता । उनको अन्दर ही अन्दर दीमक खाये जा रही थी, उनकी विक्षिप्तता और बढ़ गई, अब वे गन्दी गन्दी गालियांँ देने लगे थे । उनकी स्मरण षक्ति भी चुक गई थी । उनका अपना पराया कोई नहीेंं बचा सिवा मामी के, अब वे उनको भी गालियां देते रहते । एक तरह से देखे तो मामा सबको समान दृष्टि से देखने लगे, कोई अपना नहीं, कोई पराया नहीं । मामी भी अकेली कब तक उनकी देखभाल करती, घर की पूरी जिम्मेदारी तो पहले से ही उन पर थी ही । पर वो भी जीवट की महिला थी, हर मोर्चे पर डटी रही पूरी जिम्मेदारी से । मामा दिनभर तखत पर गंदा फटा अंगोछा पहने बैठे बड़बड़ाते रहते तो कभी डंडे के सहारे छोटे से कमरे में इधर से उधर घूमते और अदृष्य में किसी को गरियाते रहते, उनका बड़बड़ाना हमेषा चालू रहता । अब तो इस गुवाड़ी में उनकी गाली गलोच के षब्द हमेषा हवा में सनसनाते रहते, यहॉँ रहने वाला हर षख्स उनको नज़रअंदाज करने लगा था । सीलन भरे छोटे से कमरे ने क्या क्या नहीं देंखा, कभी तो मामा अपने आप पर हंसने लगते, तो कभी जोर जोर से रोने लगते और फिर बैठे बैठे अचानक चिल्लाने लगते, तो जोर जोर से गालियां बकने लगते । घिसट.घिसटकर, तिल.तिल मरते देखा है इसने मामा को, यह मूक साक्षी है उनके दुःख का, दर्द का । इतना सब होने के उपरान्त भी सूरज का स्वागत वे . ‘हे राम....... हे राम.......!' की रामधुनी से ही करते । उनकी लगन इहलोक में रहकर परलोक से लगी हुई थी । इन दिनों भी दफ्तर से छुट्टी लेकर मैं अपने घर आया हुआ हॅूँ । वैसे भी अकेला आदमी तो घर भागने के बहाने ढूँढता है, मैं अक्सर ही छुट्टी लेकर घर आ जाया करता हॅूँ । ऐसे ही एक दिन सूरज निकलने से पहले मामा की राम धुन के स्थान पर मामी के रोने की आवाज़ सुनाई दी । मामी का रूदन गुवाड़ी और सुबह की स्तब्धता को तोड़ता हुआ चारों तरफ पसर गया, मामा का देहान्त हो गया । पूरी गुवाड़ी में मातम छा गया, सूरज की पहली किरण गुवाड़ी में मातम लेकर आयी । आज से पहले यही किरणें, ‘हे...राम..... हे राम.... ' की रामधुनी के साथ गुवाड़ी में प्रवेष करती थी, पर आज उसको रामधुनी चोला पहनाने वाला ही गहरी नींद में सोया था । गुवाड़ी के लोग मामा के घर इकट्ठा होने लगे, मामी का रूदन लगातार जारी था । उनके घर के बाहर कण्डा जलाकर रख दिया गया जिसका घुआ चारों ओर फेलने लगा । औरतों ने मामी को घेर लिया, बाहर ओटले पर आदमी बैठे थे, वहॉँ रखे तख़त को हटा दिया गया था । उस सीलन भरे कमरे के बीचो बीच मामा को ज़मीन पर लिटा दिया गया, उन्हे सफेद चादर ओढ़ा दी गई । सभी जैसे किसी के इन्तजार में बैठे थे, समय पहाड़ सा तन गया । जिसको भी जैसे भी पता चला वह सीधा यहीं चला आया । धीरे धीरे लोगों की भीड़ बढ़ने लगी । बाहर बैठे लोगों में से ही किसी ने कहा, ''अरे भाई ! कोई उनसे पूछकर इनके रिष्तेदार को तो बुलवा लो..... इनका दाग कौन देगा ....?'' ‘हॉँ भई.... जरा .... जल्दी करो........?' ‘अब भी नहीं आये तो फिर कब आयेंगे.... ?' ‘इतने दिनों से ज़िदा आदमी को देखने जब कोई नहीं आया तो अब उसकी लाष को फूँकने कौन आयेगा....?' ‘कोई आये या न आये...पर सूचना करने का तो अपना फर्ज बनता है कि नहीं...!' ‘हॉँ भई... फर्ज तो बनता है, चलो जल्दी करो .....।' ‘वो तो सब ठीक है, पर उनके आने से पहले सामान की व्यवस्था भी तो करनी पड़ेगी, घर में क्या धरा है जो वह निकाल कर दे देगी....?' ‘ठीक कहते हो... सब मिलकर व्यवस्था कर लेते हैं ।' तीन चार आदमी एक साथ बोले । तभी मैंने अपनी जेब से रूपये निकालकर उनके हाथ मेंं रख दिये । मामी से पूछकर दो तीन जगह फोन किये गये, सभी पचास साठ किलोमीटर के फासले के नम्बर थे, इन्दौर, देवास, मक्सी, आगर और षाजापुर के जहाँ से आसानी से डेढ़ दो घन्टे में आया जा सकता है, पर तीन चार घन्टे बीत जाने के बाद भी कोई नहीं आया । बाहर बैठे लोग इन्तज़ार करते थक गये, इन्तज़ार का तो वेसे भी पल पल भारी होता है, पर यहॉँ तो मौत के बाद का इन्तज़ार था । दो घन्टे और बीत गये, कोई नहीं आया । मामा का षव इन्तज़ार कर रहा था दाग देने वाले का और वे थे कि आने का नाम ही नहीं ले रहे थे । इन्तज़ार का लम्बा अर्सा सबके धैर्य को पी गया, मामी उदास नज़रों के साथ एक कोने में समा गयी । आदमी के रोने की भी अपनी सीमा होती है, अब उनकी आॅँंखों के आँंसू सूख गये, उनकी जगह आग भर गयी थी, जिससे ऑँखों का रंग लाल हो गया । षहर की मुख्य सड़क से गुजरती हई मामा की अंतिम यात्रा, ‘राम नाम सत्य है...., सत्य बोलो गत्य है...... राम नाम सत्य है...., सत्य बोलो गत्य है......।' के साथ उनकी पार्थिव देह ष्मषान की ओर बढ़ रही थी । अब सभी जल्दी में थे, इन्तजार में पहले ही काफी वक्त बीत गया था । अब एक पल भी नहीं गवाना चाहते थे लोग, किन्तु न जाने क्यों मुझे अब भी लग रहा था, ‘जरूर कोई न कोई आयेगा, इस तरह से अनजान लोगों के हाथों अपने पिता का अंतिम संस्कार थोड़े ही होने देंगे वे.......?' पर थोड़ी ही देर में मेरे इस विष्वास पर भी पानी फिर गया । मामा की पार्थिव देह इन्तज़ार करती रही अग्नि का, उन्हे आग देने वाला कोई नहीं था । दूसरों के लिए जान देने वाले व्यक्ति की ऐसी मिट्टी पलीत होनी थी ? जिसने अपने जीवन में रिष्तों से ज्यादा इंसानियत पर जोर दिया, उसको मरने के बाद इस तरह से अग्नि के इन्तजार में चिता पर पड़े रहना पड़े, तो फिर सारे रिष्तों को नये सिरे से खंगालने की जरूरत है । मामा की चिता को अग्नि देते हुए मेरे मन में यही सब लगातार घूमता रहा, फिर एक ही पल में आग की लपटोें ने मामा की देह को चारों तरफ से घेर लिया, मानो अग्नि मामा के षरीर का षुद्धिकरण कर रही हो । आग की लपटों ने मामा की पार्थिव देह को पंचभूत में मिला दिया । इसी आग में उनका षरीर जलकर भस्म हो गया और उनके साथ ही जल गया. ‘‘हे राम..... हे राम...... ।'' का सदा चलने वाला उनका जाप । मेरी आॅँखों से सहसा कुछ बून्दे टपकी और गालों पर आकर ठहर गयी, जीवनदान देने वाले को मैं तिक्त नज़रों से राख के ढेर में तब्दील होते देखता रहा । रमेष खत्री (संपादक नेट मेगजीन साहित्यदर्षन डाट इन) 53/17, प्रताप नगर ,सांगानेर , जयपुर e.mail- RAMESH_AIR 2012 @rediffmai मो- 9414373188 Download Our App