कहानी रमेष खत्री
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जूते
‘‘माॅँॅं....मॉँ....मुझे भी जूते चाहिये'' रामू ज़िद करते हुए अपनी माॅँं के सामने फैल गया, पिछले कई दिनों से वह अपने लिये जूतों की ज़िद कर रहा है । वह जब भी किसी बच्चे को जूते पहने हुए देखता है तो उसकी इच्छा और ज्यादा बलवती हो हुंकारे मारने लगती है, उसका मन हलकान हो जाता और मन में दबी इच्छा उसके सामने पहाड़ सी तन जाती । तभी वह अपनी मॉं के सामने ज़िद की पोटली खोल देता । जब उसके हम उम्र बच्चें मंहगे मंहगे जूते पहनकर उसके सामने इठलाते हुए चलते हैं तब उसको चप्पलों वाले पैर उदास लगते हैं ।
वैसे तो रामू ने आज तक अपने जीवन में अभावों के पहाड़ ही देखे हैं, उसका हर सपना मन के अंदर ही घुटकर रह गया । चौदह वर्षीय रामू बस इसी कारण अपनी उम्र से काफी बड़ा हो गया, उसके मासूम बचपन को अभावों का पहाड़ लीलता रहा । कुल जमा दो प्राणियों का जीवनयापन भी टेड़ी खीर साबित हो रहा है, जबसे समझ ने उसका दामन थामा बस तभी से वह यही सब देखता आया है, अपनी माॅँं को वह रोज़ ही काम की भट्टी में तपते हुए सुबह षाम देखता रहता है । पिता का साया उसके सर से क्या उठा सब कुछ बदल गया, हमेषा दुलार करने वाली मॉंँ चिड़चिड़ी हो गयीं । तस्वीर का डरावना रूप अचानक सामने आ गया और उसके हिस्से में आया यहॉँ.वहॉँ का छोटा मोटा काम जिसे वह अपने छोटे छोटे हाथों से अंजाम देने लगा । इस तरह वह घर का छोटा सा भार अपने नन्हे कंघों पर उठाने को विवष हो गया, ऐसा करके वह घर का एक मात्र पुरूष होने का अपना फर्ज भी निभा रहा था, पर गरीबी तो वह सुरसा है जो सब कुछ निगल जाती है, देखते ही देखते वह रामू का बचपन पी गयी अब किषोरावस्था को निगल रही है ।
जब रामू चौथी में आया था तभी ग़रीबी ने अपना चक्कर चलाना षुरू कर दिया, वह अभिमन्यु की तरह उसके चक्रव्यूह में घिर गया, अब वहॉँ से निकलने का कोई रास्ता उसे नज़र नहीं आता । जब उसने तीसरी कक्षा फर्स्ट डिविजन पास की और रिजल्ट कार्ड को हाथ में लेकर परिंदें सा उड़ता हुआ घर आया तो पिता के चेहरे पर स्मित सी मुस्कान फैल गई थी किन्तु उसके फर्स्ट आने की खुषी ज्यादा देर तक उसके साथ रह नहीं पाई क्यों कि इसी गर्मी में उसके पिता चल बसे, फैक्ट्ी में एक छोटा सा एक्सीडेन्ट हुआ और उसकी दुनिया उजड़ गयी, पिता के साथ ही उसके मन की कोमलता भी हमेषा के लिये विदा हो गयी और उसकी जगह उग आया खुरदुरापन ।
फिर दोनों माॅँ बेटे कुछ दिनों तक तो पिता के षोक के सागर में डुबकी लगाते रहे किन्तु पेट की खाई ने जल्दी ही उनको वहॉँ से उबार लिया । सच्चाई नग्न रूप मेंं उनके सामने तन गयी, ठीक उसी समय सच की कठोर दुनिया में रामू का पदार्पण हुआ और फिर उसके बाद हर पल की कठोरता उसके कोमल मन को कुतर. कुतर कर खाने लगी और समय पहाड़ बनकर उसके सामने तन गया, जिसे चूहे की तरह ही धीरे धीरे कुतरा जा सकता है । तभी से रामू समय को चूहे की तरह कुतरने लगा । अब तक उसकी मॉं ने कई घरों में चौके बर्तन का काम पकड़ लिया था । इस काम के अलावा उसे कोई दूसरा काम आता नहीं था, तो वह इसी के सहारे गृहस्थी की गाड़ी को खींचने लगीं, पर यह धागा भी इतना महीन और कमजोर था कि बार बार हाथ से फिसलकर टूट जाता तब रामू ने परिवार के एकमात्र पुरूष सदस्य होने का फर्ज अदा करना आरंभ कर दिया । सबसे पहले उसने आईसक्रीम का डिब्बा पकड़ा और वह तपती दुपहरी में अपने ही हम उम्र बच्चों के बीच बरफ की कुल्फी बेचने लगा । पूरे दिन की कठोर मेहनत के बाद बमुष्किल दो से ढाई रूपये बच पाते वह भी उसके डिब्बे की सारी कुल्फियॉंँ बिक जाने के बाद । जब उसके डिब्बे की सारी कुल्फी बिक जाती तो उसका मन मयूर सा नाचने लगता और वह भागा भागा आईसक्रीम फैक्ट्ी की ओर जाता वहॉँ डिब्बा और पैसे जमा कर आता और बाकि बचे हुए पैसे माॅँं के हाथ में रखते हुए खुद को गोरवान्वित महसूस करता । माॅँ भी उस समय अपने नन्हे बेटे की काबलियत पर फूली नहीं समाती और उसकी आॅँंखों की कोर गीली हो जाती । मॉँ भी आखिर मॉँ ही थी, वह भी दूसरी मॉँओं की तरह अपने बच्चे को हंसते खेलते देखना चाहती थी । पर इस समय तो उसे अपने रामू का बचपन गरीबी की होली में स्वाह होते नज़र आ रहा था । यह सब वह डबडबायी ऑंँखों से देखती रहती, रामू भी मॉंँ के मन को अच्छी तरह से समझता है ।
अब वह जब नवीं कक्षा में आ गया है तब उसको अपनी विपन्नता खलने लगी, अपने सहपाठियों को अच्छी कम्पनी के जूते पहने देखता तो उसको भी अपने पैरों की फटी चप्पल नज़र आ जाती, जिसके पैबन्द उसका मुंह चिड़ाते रहते । वैसे पैबन्द तो कई लगे हैं मन पर जो दिखाई नहीं देते पर जूतों की कमी पिछले काफी अर्से से कुछ ज्यादा ही सताने लगी है । उसका मन जूतों के आस पास ही सिमटकर रह गया, वह सुबह, दोपहर, षाम बस जूतों के ही सपने देखने लगा । इस सबके चलते जूतें उसके लिए सबसे बड़ी और पहली आवष्यकता बन गये । वह सोचने लगा ‘‘ भला जूतों के बगैर भी कोई जीवन है ?'' रामू को तो पूरा का पूरा संसार ही जूतोें में सिमटा नज़र आने लगा, दुकान के सुंदर षोकेस में सजे जूते उसका मुुंह चिड़ाते हुए लगने लगे थे । तभी उसके मन में ख़याल आया — ‘‘चुपके से इस षोरूम में घुस जाऊं और अपने नाप के बहुत सारे जूते ले लूं , फिर मैं भी रोज नये नये जूते पहनकर सबका मुंह चिढ़ाऊगां ।'' पर यह विचार जिस गति से उसके मन में आया था उसी गति से वापस चला गया उसके ज़ेहन मंें मित्र का दयनीय चेहरा उभर आया, दुकान से पाव चुराते हुए पकड़े जाने पर दुकानदार ने उसकी कितनी पिटाई की थी, उसी पिटाई के कारण वह कितने दिनों तक तो चल भी नहीं पाता था । दोस्त की दयनीय छवि जब रामू के ज़ेहन में उभरी तो उसकी रूह कांप गयी ।
इधर पिछले कई दिनों से रामू की मॉंँ जानकी भी अपने बेटे की ज़िद के आगे घुटने टेक चुकी थी, ‘‘बेटा कितने दिनों से जूतों की ज़िद किये बैठा है पर हाय रे मजबूरी बेटे की छोटी सी ज़िद भी पूरी नहीं कर पा रही हॅूँ , मेरे पास इतने पैसे भी नहीं कि बेटे को एक जोड़ी जूते ही खरीदवा दूंँ....!'' बेटे की ज़िद उसके सामने पहाड़ की तरह तन गई, बड़ती उम्र का बच्चा है यदि उसकी छोटी सी इच्छा भी पूरी नहीं हुई तो उसके मन में कितना विषाद भर जायेगा ।
मैं यह भी जानती हूॅं ‘‘रामू समझदार बच्चा है, वह घर की परिस्थितियों से अच्छी तरह से वाकिफ है, उसको समझाने की जरूरत नहीं है पर जब वह बार.बार जूतों के लिए ज़िद कर रहा है तो जरूर कोई बात होगी, '' उसके मन में भांति.भांति के ख़याल आ रहे थे, ‘‘मै भी क्या करू, कहॉंँ से लाऊं पैसे जहाॅँ काम करती हॅूँ वहॉँ से तो पहले ही दो बार उधार ले चूकी हूँॅ अब और तो पैसे मांगने से रही और यदि मांगती भी हॅूँ तो पैसे मिलने की उम्मीद न के बराबर है और हो सकता है उनके सामने जिल्लत का सामना करना पड़े...पर ग़रीब की क्या इज्जत एक बार मांगकर देख ही लूंगी क्या पता मिल ही जाऐ यदि एक बार पैसे मिल गये तो जूते खरीदना आसान होगा नहीं तो......?''
जानकी ने उसी दिन हिम्मत कर काम वाली जगह पैसे मांगे तो मालकिन चिल्लाते हुए चढ़ पड़ी ‘‘तुझे कितनी बार कहा है तू बार.बार पैसे मत मॉँगा कर...हमें भी तो महिने में एकबार तनख्वाह मिलती है रोज रोज थोड़े ही मिलती है, पर तेरी समझ में तो कुछ आता ही नहीं काम धाम कुछ करती नहीं है और आए दिन पैसे ही मांगती रहती है ।'' मालकिन झल्लाती हुई अन्दर चली गई ।
उसके मन में आया, ‘‘मानो पैसे दान में दे रही हैं, पगार पर काटेगी नहीं क्या ? आज जरूरत है तो मॉँग रही हॅँू नहीं होती तो क्यों मांँगती......?'' पर उसके मन की बात को समझने वाला कौन था । इस तरह कहीं से भी रामू के लिए जूतों का जुगाड़ नहीं हो पा रहा था और जूते रामू के लिए ही नहीं वरन् जानकी के लिए भी अब प्रतिष्ठा का सवाल बन गये थे । वह किसी भी तरह रामू के लिए जूते हासिल कर लेना चाहती थी । वह तीन घरों में झाड़ू, पौछा, बर्तन का काम करती है । केवल एक घर में ही रामू के बराबर का लड़का है, इस घर में झाड़ू.पौछा करते हुए जब बच्चे के जूते हाथ में आते हैं तो उसका कलेजा ही हाथ में आ जाता, वह सोचने लगती है, ‘‘ मेरे बच्चे के पास एक जोड़ी जूते भी नहीं और यहॉँ देखो कितने जूते रखे हैं, इतने सारे जूतों का ये लोग क्या करते हैं.....? ये लोग इतने सारे जूतें खरीद लेते हैं तभी तो हमारे हिस्से में कुछ भी नहीं बचता...इन जैसे लोगों ने ही हमारा हिस्सा चुराया है...?'' जूतों को हाथ में लेकर वह उनको बड़े ही प्यार से साफ करती है और ललचाई नज़रों से देखने लगती, ‘‘हम लोग कितनी मेहनत करते हैं और फिर भी अपने बच्चे के लिए मात्र एक जोड़ी जूता नहीं खरीद पाते और यहाॅँ देखो तो लाईन लगी हुई है और दुर्भाग्य तो यही है कि इनको रोज साफ भी हमें ही करना पड़ता है...'' जानकी जूतों को बड़े ही प्यार से सहलाती रही, घर की सफाई करते हुए उसके मन में न जाने कैसे.कैसे ख़याल आते रहे तभी उसके मन में एक विचार बिजली की तरह कौंधा, ‘‘ क्यों न मैं रामू के लिए इनसे ही एक जोड़ी जूते मांँग लूं...?'' इस विचार के आते ही वह जूतों को और भी स्नेह से देखने लगी, ‘‘ये तो मेरे रामू को आ जायेगें....दोनों बच्चें बराबर के ही तो लगते हैं....पर क्या पता दोनों के पैरों में अंतर हो, पैरों का क्या है छोटे बड़े तो होते ही हैं, पर मांगने में बुराई भी क्या है...?''
जानकी काम को जल्दी जल्दी निपटाती रही, पर उसका मन तो जूतों में ही जाकर अटक गया, वह वहॉँ से हटने का नाम ही नहीं ले रहा था, इसी सबके चलते घर की मालकिन ने काम को लेकर उसे न जाने कितनी बातें सुना दी, वह नज़रें झुकाए चुपचाप सुनती रही क्यों कि उसका ध्यान तो केवल जूतों की तरफ था । किचिन में बर्तन साफ करते हुए उसने हड़बड़ी में गरम तवे को पकड़ लिया, उसका हाथ जल गया पर मन पर जमी जूतों की अमिट छाप फिर भी नहीं हटी, वह तो जैसे जूतों पर ही अटक कर रह गयी । कहते हैं नंगा क्या तो धोये और क्या निचोड़े, क्या तो उसका मान और क्या प्रतिष्ठा पर जानकी के लिए अब जूते ज़िद का विषय बन गये थे, वह कुछ भी करके रामू के लिए कहीं से भी जूतें हासिल कर लेना चाहती थी, बस इसी कारण उसकी विचारतंद्रा जूतों के ही इर्द गिर्द घूमती रही ।
जब उसने घर का पूरा काम निपटा लिया और चलने को हुई तो उसका मन बच्चों के जूतों वाली अलमारी पर ही अटक कर रह गया, पर मालकिन से मॉँगने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही थी । किन्तु जब वह दरवाज़े से बाहर निकलने को हुई तो उसने अपने अंदर के स्वाभिमान को नोचकर बाहर फेकते हुए घर की मालकिन से बोली, ‘‘मम्मीजी, बाबा के जूते हो तो मुझे दे दीजिये ना... मेरे बच्चे के लिए..।''
मालकिन भी कम खुर्राट नहीं थी, वह तो उस समय से उसकी मंषा भांप चुकी थी, जब वह टुकुर टुकुर जूतों को ललचायी नज़रों से देख रही थी, टका सा जवाब देती हुई बोली, ‘‘तू घर के सामानों पर नज़र मत लगाया कर... पहले ही होता ही नहीं है और ऊपर से तूने मांगना षुरू कर दिया...अभी देने लायक कोई जूते नहीं है, होंगे तो मैं अपने आप दे दूगीं.....और तूने यह कौनसा नया काम षुरू कर दिया...पहले तो कभी भी....हैं । ''
‘‘....वो मालकिन...मेरा बेटा हैं न रामू... कई दिनों से जूतों के लिए ज़िद कर रहा है, मैं भी क्या करूं....कहॉँ से लाऊँ... न हो तो मुझको कुछ पैसे ही दे दो महिने पे काट लेना, मैं उसे जूते तो दिला दूूं...!''
‘‘तू भी किस पचड़े में पड़ गयी जानकी, वह तो बच्चा है ज़िद कर रहा है पर तू तो समझदार है । अगर आज उसकी एक ज़िद पूरी की तो वह कल दूसरी करेगा फिर रोज़ रोज़ उसकी ज़िद को तू कैसे पूरा करेगी, बच्चा है आज ज़िद कर रहा है तो कल भूल जायेगा....ऐसा कर तू उसे प्यार से समझा । बच्चे तो समझदार होते हैंं वह भी समझ जायेगा ।''
जानकी अपना.सा मुंँह लेकर वहॉँ से चली आयी पर मन अंदर तक कचोटता रहा, ‘‘खुद के बच्चे के लिए तो दस जोड़ी जूतें भी कम है और मेरे बच्चे के लिए एक जोड़ी भी नहीं .... और ऊपर से बातें इतनी बड़ी.बड़ी....? पर मैं भी क्या करूँ गरीब की जोरू पूरे गॉँव की भौजाई होती है, मुझको ही ज्ञान बांट रही है अरे नहीें देना है तो साफ मना कर दो फालतू की बातें क्यों करती हो... अरे मैं भी कौनसा दान में मांग रही थी काम करती हॅूँ कितने काम तो इधर.उधर के वैसे ही करवा लेती हैं उसका तो कुछ भी नहीें आज बच्चे के लिए जूते मांँग लिये तो देखों मुझे ही षिक्षा देने लगी । हे भगवान देखों तो कैसा समय आ गया कोई किसी की भी रत्तीभर भी मदद नहीं करना चाहता ।'' वह देर तक कुलबुलाती रही ।
घर लौटते समय बाज़ार में सजी जूतों की दुकानों ने उसका ध्यान बरअक्स ही अपनी ओर खींच लिया, षोकेस में सजे जूतों को वह भूखी नज़रों से घूरती रही । न जाने कब जूते रामू की जगह जानकी के मन में समा गये और वह उनकी ज़़िद किये बैठी थी, काफी देर वह दुकान के सामने अन्यमनस्क सी खड़ी रही । उसे इस तरह खड़ा देखकर दुकानदार पूछ बैठा ‘‘क्या चाहिये..?''
‘‘जूते देखने हैं...''
‘‘अन्दर आकर देख लो....!''
‘‘जानकी इतने बड़े शोरूम में जाने की हिम्मत नहीं कर पायी चुपचाप आगे निकल गई, आगे उसे जूतों की एक छोटी दुकान दिखी तो वह उसके सामने खड़ी होकर सोचने लगी तभी दुकानदार ने उसे अन्दर बुला लिया तो वह दुकान में चली गई । दुकानदार ने पूछा ‘‘क्या चाहिये...?''
‘‘जूते....''
‘‘किसके लिये चाहिये...?''
‘‘मेरे बेटे रामू के लिये, वह पन्द्रह साल का है, पन्द्रह साल के बच्चे के जूते दिखाओ...!'' जानकी दुकानदार से बोली ।
‘‘जिसके जूते लेने हैं उसको ले आओ तो उसके नाप के बढ़़िया जूते दिखा दूगां ''
‘‘तुम कुछ दिखाओ तो सही उसको भी ले आउगीं '' जानकी जूते देखने के लिए काफी उतावली हो रही थी ।
दुकानदार ने दो चार जोड़ी जूते उसके सामने निकालकर रख दिये, वह बारी बारी से एक.एक जूते को उठाती जाती और उनके दाम पूछती जाती । अलग अलग डिजाईन के जूते बरअक्स ही उसे आकर्षित कर रहे थे । वह उनके माहजाल से छुट नही पा रही थी । कभी इसको उठाती तो कभी उसको उठाती कभी इसके दाम पूछती तो कभी उसके दाम पूछती उनको अपनी निगाहोें से तोलती जा रही थी कोनसा जूता रामू के पैरों में फिट बेठेगा, इनमें से कोई एक पसंद कर लेना चाहती थी वह पर उनके आसमान छूते भाव उसके होसले पस्त किये हुए थे । अजीब सी मनोदषा थी जानकी की उसकी गाठ में एक भी पैसा नहीें और जूते देख रही थी उनका मोल भाव कर रही थी । कभी वह एक का भाव करती तो कभी दूसरे का, दुकानदार बोला, ‘‘तुम ये बताओ तुमको लेना कौनसा वाला है जो तुमको लेना है मैं उसी का वाजिब दाम बता देता हॅूँ ।''
‘‘वह तो जो बच्चे के पैर मेें ठीक बेठेगा वही ले लूंगी.....!''
‘‘तो तुम पहले बच्चे को ले आओ जो जूता उसके पैर में ठीक बेठेगा उसका ही सही दाम बता दूँॅंगां ''
दुकान से भी जानकी अपना सा मुंह लेकर चल पड़ी, कुछ न बन पाया बस एक अंदाज़ा ही लगा कि कितने के जूते आयेंगे, ‘‘पर अभी तो पूरा का पूरा महिना पड़ा है इतने दिनों तक कैसे समझाऊंँगी रामू को.....? ये मुए जूते भी उतने मंहगे क्यों होते हैं आखिर ऐसा क्या लगता है इनके बनने में.... चारों तरफ ही जैसे लूट मची हैं ।'' यही सब सोचते हुए वह अपनी खोली की और चलती चली आ रही थी ।
अब क्या किया जाय कैसे भी करके जूते लेने हैं अब जूते जानकी की आवष्यकता बन गये, उसका ध्यान जूतों से चलता है और जूतों पर ही आकर टिक जाता है वह इनसे बाहर निकल ही नहीं पा रही थी ।
इसी उधेड़बुन में जानकी चलती चली गई, उसे कुछ होष नहीं रहा, जिस रास्ते पर वह चल रही थी । वह उसकी खोली तक तो नहीं जाता था, पर उसका अनकांषियस मन इसी रास्ते पर उसको ठेलता रहा । और वह उसी के वषीभूत चलती रही। बहुत देर तक चलने के बाद उसने देखा यह रास्ता तो षहर के दूसरे कोने में उसे ले आया है, पर उसका मन उसी रास्ते पर ठेलता रहा । बहुत आगे जाकर एक बड़ा.सा मंदिर दिखाई दिया । यह मंदिर षहर का प्रसिद्ध मंदिर है, वह अपने दाये बाये देखने लगी, उसे कुछ समझ में नहीं आ रहा था । वह मंदिर के अंदर चली गई । इस समय मंदिर में काफी भीड़ थी । दूर दूर से लोग इस मंदिर में दर्षन करने आते हैं, इस समय भी लोगों का ताँता लगा हुआ था ।
मंदिर के मुख्य द्वार के अंदर जाते ही जानकी की नज़रें भौचक रह गई, दरवाज़े के पास ही जूते चप्पलों की लाईन लगी थी, वहॉँ पर सभी तरह के जूते चप्पल बिखरे पड़े थे । सब यहीं पर अपने जूते चप्पल उतारकर दर्षन करने चले जाते हैं । काफी बड़ा मंदिर उसके सामने अपने पंख फैलाये खड़ा था । वह भी भीड़ के साथ अन्दर चली गई दिव्य मूर्ति उसके सामने तनी थी, लेकिन उसके मन में तो जूते समाये हुए थे उसका ध्यान दरवाज़े के पास बिखरे पड़े जूतों पर ही अटक कर रह गया । जानकी दिव्य मूर्ति के सामने देर तक खड़ी रही । न तो उसने हाथ जोड़े और न ही माथा टेका, बल्कि मूर्ति की ऑंँखों में आॅँखें डालकर बदहवास सी देखती रही, लोग आते रहे लोग जाते रहे । आते जाते लोग उसे ठेलते रहे पर वह अपनी जगह से टस से मस नहीं हुई । जैसे बुत बन गई हो । एक मुर्ति मंदिर के अंदर स्थापित थी और एक उस मूर्ति के सामने खड़ी थी काफी देर से ।
जानकी को कुछ पता नहीं कब वह मूर्ति के सामने से चलकर सीढ़ी पर आकर बैठ गई, सीढ़ी के पास ही सब लोग अपने जूते चप्पल उतार रहे थे । वह काफी देर तक सीढ़ी पर बैठी रही, लोग आते रहे अपने जूते चप्पल उतारकर जाते रहे वह उनको निस्पृह निगाहों से देखती रही । सूरज आसमान के ठीक बीचों बीच आ गया था मानो वह भी झाक कर देख रहा हो, जानकी एक.एक जूते को अपनी पारखी नज़रों से तोलती रही, मानो कोई बाज़ काफी समय से अपने षिकार पर घात लगाये बैठा हो । इस समय जानकी भी ठीक ऐसे ही बैठी थी । लोग आते रहे जूते उतारते रहे जाते रहे वह उनको देखती रही । इसी बीच एक परिवार आया रामू की उम्र का लड़का उनके साथ में था, और सबसे बड़ी बात तो उसने जूते भी काफी बढ़़िया वाले पहने थे । जानकी की नज़रें उस बच्चे के जूतों पर ही जाकर ठहर गई । वे लोग बड़ी ही तल्लीनता से आये जूते उतारे और मंदिर के अंदर चले गये । जानकी की चालाक निगाहें आसपास की सारी स्थितियों को लगातार माप रही थी, जैसे ही वे लोग मंदिर के अंदर दाखिल हुए जानकी अपनी जगह से उठी और जूतों के पास पहॅूँचकर उसने बच्चे के जूतों को अपने आंँचल में बच्चे की तरह छिपाकर मुख्य दरवाज़े के बाहर निकल गई । जानकी की चालाक निगाहेंं अपने आसपास का लगातार मुआईना करती जा रही थी ठीक उल्लू की तरह, किन्तु उसका मन और षरीर दोनों ही बूरी तरह के कपकपा रहे थे ।
आॅँचल के पल्लू में जूतों को बच्चे सा छिपाये जानकी तीर की तरह भागी जा रही थी मानो कोई पागल कुत्ता उसके पीछे भागा आ रहा हो, किन्तु उसके पीछे तो कोई भी नहीं था, वह खुद ही अपने आगे और पीछे भागी जा रही थी । काफी दूर चलने के बाद उसकी सांस फूलने लगी तो वह एक जगह खड़ी होकर सुस्ताने लगी, तभी उसने अपने आंँचल में छुपे जूतों से साड़ी हटाकर देखा, उसका पूरा का पूरा षरीर जूतों में ही समाकर रह गया । जूते पा लेने की खुषी से वह आल्हादित हो रही थी, और बड़े ही प्यार से जूतों को सहलाने लगी जैसे कोईं अपने बच्चे को सहलाता है ।
जानकी ने जूतों को अपनी साड़ी के पल्लू से फिर से ढक लिया और आनन फानन अपनी खोली की ओर चल दी, उसकी चाल में अनायास ही तेजी आ गई । अब वह जल्दी से जल्दी घर पहॅूँच जाना चाहती थी । और जूतों को रामू के हवाले कर देना चाहती थी । किन्तु रास्ते में चलते हुए उसके मन में यूंही एक विचार कौंधा ‘‘यदि रामू ने पूछा कि जूते कहाॅँ से लाई मॉंँ....? तो क्या जवाब दूंगी उसे, क्या कहॅूँगी...कि....कहॉँ से लाई हॅूंँ मैं जूते...? और यदि ये जूते उसके पैर में ठीक नहीं बैठे तो क्या करूंगी....?'' यह विचार उसे अन्दर तक तोड़ता चला गया, जूतों को बच्चे की तरह अपनी छाती से चिपकाये जानकी अब इस विचार की गिरफ्त में आकर दूसरी दिषा में सोचने लगी, उसके मन में आया, ‘‘क्या मैं अपने बच्चे को चोरी के जूते पहनाऊँंगी.... हे....! भगवान ये मुझसे क्या हो गया...? ये चोरी के जूते मेरे रामू के जीवन में क्या गुल खिलायेंगे ये पहले क्यों नहीं सोचा मैंने...?'' विचारों के झंझावात ने उसके कदमों में बेड़ियां डाल दी, बस इस एक विचार ने ही उसके कदम वही रोक दिये, अब वह इस बोझ को और आगे ढोनें की स्थिति में नहीं रह गई थी । उसने एक बार फिर जूतों से आॅँचल को हटाकर नज़र भर जूतों का मुआईना किया मानों उनको अपने मन में हमेषा हमेषा के लिए बसा लेना चाहती हो ।
जानकी ने अपने आस पास देखा और दूसरे ही पल जूतों को वहीं सड़क के हवाले कर अपनी खोली की ओर गर्वोन्नत बढ़ गई, अब वह अपने आपको काफी हल्का महसूस कर रही थी ।
रमेष खत्री
संपादक : वैब पत्रिका : साहित्यदर्षन डाट कॉम
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