Chuppi - Part -1 in Hindi Women Focused by Ratna Pandey books and stories PDF | चुप्पी - भाग - 1

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चुप्पी - भाग - 1

क्रांति एक ऐसी लड़की थी जिसे ऊपर वाले ने वह उपहार दिया था जो हर किसी के भाग्य में नहीं होता। वह बहुत ही तेज दौड़ती थी। वह जब भी टीवी पर लड़कियों या फिर लड़कों को हॉकी खेलते देखती, उसके तन मन में भी वही खेलने की लगन लग जाती। उस समय उसके पांव मानो दौड़ने के लिए तत्पर हो जाते और वह घर में ही एक लकड़ी लेकर उससे खेलने लगती। बॉल को पूरे घर में इधर से उधर नचाती रहती और ऐसा करके उसे बहुत आनंद मिलता था। ऐसा लगता था कि  मानो भगवान ने उसे जो उपहार दिया है, उसे पूरी तरह से पा लेने की उसने बचपन से ही ठान ली थी। इस समय उसकी उम्र लगभग आठ वर्ष थी।

क्रांति को इस तरह घर में खेलता देखकर उसकी मम्मी रमिया उससे कहती, "अरे क्रांति यह क्या जब देखो तब लकड़ी लेकर यहाँ से वहाँ भागा करती है। आख़िर तू करती क्या है?"

"अरे मम्मी मुझे ऐसे खेलना बहुत अच्छा लगता है। जब भी मैं टीवी पर हॉकी मैच देखती हूँ, मेरा शरीर मुझसे कहता है भाग क्रांति ... भाग, क्रांति उस बॉल को लेकर गोल कर दे। माँ मुझे एक हॉकी ला दो ना? मैं हॉकी खेलना चाहती हूँ।"

उसके मुंह से यह वाक्य निकला ही था कि तभी क्रांति के पापा अरुण घर में आ गए। उन्होंने क्रांति की यह बात भी सुन ली। कानों में उस वाक्य के पड़ते ही उनकी जीभ ने बिल्कुल भी देरी नहीं की और बोल पड़ी, "अरे क्रांति यह हॉकी-वॉकी में कुछ नहीं रखा है, सीधे से पढ़ाई करो जिससे भले दिन हों। भविष्य तो पढ़ाई करने के बाद ही बनता है। यह फालतू के शौक मत पालो।"

रमिया ने अपने पति की तरफ़ देखकर कहा, "अरे क्या आप भी ... बच्ची ने एक हॉकी स्टिक क्या मांग ली आपने तो राई का पहाड़ ही बना डाला। अरे बच्ची है, थोड़ी बहुत देर यदि खेल लेगी तो कौन-सी आफत आ जाएगी।"

"नहीं रमिया मुझे यह पसंद नहीं है। कितनी बार मैंने देखा है कि वह घर में लकड़ी लेकर कैसे दौड़ती-भागती रहती है, थकती ही नहीं और ज़रा पढ़ाई करने बिठाओ तो आधे-पौने घंटे में ही ऊबने लग जाती है।"

क्रांति को अपने पापा की यह बातें बिल्कुल पसंद नहीं आईं परंतु वह उनके खिलाफ कुछ भी बोल नहीं पाई। खैर वह दिन तो गुजर गया परंतु हॉकी खेलना उसका जुनून बन गया। वह रातों को सपने में भी ख़ुद को हॉकी खेलता हुआ ही देखा करती थी। इसी तरह जैसे-जैसे समय आगे बढ़ता गया उसकी हॉकी खेलने की चाह भी बढ़ती चली गई। अब वह सातवीं कक्षा में आ चुकी थी और अपनी बात को अपनी माँ के सामने रखना, अच्छी तरह सीख गई थी।

एक दिन क्रांति ने अपनी माँ से कहा, "मम्मी क्या मेरी हॉकी खेलने की इच्छा किसी फूल की तरह मुरझा जाएगी?"

तब रमिया ने कहा, "क्रांति बेटा तुम यूं ही हॉकी खेलना चाहती हो तो खेलो कोई बात नहीं लेकिन यदि तुम इसे अपना केरियर बनाना चाहती हो और पूरी तरह से इसी में लग जाना चाहती हो तो यह तो बहुत ही मुश्किल काम है।"

क्रांति ने कहा, "लेकिन मम्मी और लड़कियाँ भी तो हैं, वे कैसे आगे आ जाती हैं, उन्हें भी तो कई तरह की मुश्किलों से गुजरना पड़ता होगा। उनका परिवार तो उनका साथ देता है ना?" ऐसा कहते हुए उसकी आँखों में आंसू आ गए।

रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)
स्वरचित और मौलिक 
क्रमशः