स्वर्ग नर्क के बीच चुनौती देती व जीतती स्त्री
स्वर्गीय चंद्रमौलेश्वर प्रसाद, हैदराबाद
स्त्री विमर्श पर आजकल कई लेखिकाएं कलम चला रही हैं जिनमें नीलम कुलश्रेष्ठ का नाम अग्रणी रचनाकारों में आता है। उनका कहानी संग्रह ‘हैवनली हेल’ भी इस बात का द्योतक है कि स्त्री विमर्श के कई पहलू हैं और उन पर प्रकाश डालना साहित्यकार का कर्तव्य बनता है। नीलम कुलश्रेष्ठ के इस कहानी संग्रह में कुल चौदह कहानियां हैं जिनके माध्यम से उन्होंने कुछ ज्वलंत और कुछ परम्परागत पहलुओं पर प्रकाश डाला है।
‘हैवनली हेल’ कहानी संग्रह की पहली कहानी ही पाठक को प्रभावित करने के लिये काफी है। इस कहानी का शीर्षक है ‘तू पन कहाँ जायेगी’ जिसमें झुग्गी झोंपड़ी में रहने वाली मंगी जैसी महिलाओं के जीवन पर प्रकाश डाला गया है। स्लम में रहने वाली ये महिलाएं काम भी करती हैं, अपने पति से पिटती भी हैं लेकिन जीने के लिए उन्हें इसी सहारे की आवश्यकता होती है जिसे ‘मरद’ कहते हैं। इन्हीं परिस्थियों को झेलती मंगी को देखते हुए उसकी पुत्री ढिंगली बड़ी होती है और ब्याह के बाद उससे भी वही सुलूक होता है। वह अपनी माँ के पास आकर शरीर के ज़ख्म दिखाती है तो मा समझाती है कि ‘ये सारे मरद एक जैसे होते हैं। क्या तूने मेरे निसान नहीं देखे? बस्ती की कोई पन औरत छाती ठोंककर कह पन नहीं सकती कि उसके सरीर पर उसके मरद के निसान नहीं है। बस्तीवाली औरतों को ये सब सहने को पन पड़त है।’(पृ.20) बेटी विद्रोह करती है कि वह अपने पति पर दावा ठोकेगी। वह कहती है, ‘मैं कुछ पन नहीं जानती। उस आदमी पन कोरट करेगी।’ पहले तो माँ समझाती है कि ऐसा करने पर उसका आदमी नई औरत को खोली में डाल लेगा। फिर भी, जब बेटी अपने फैसले पर अडिग रहती है तो वह भी सोचने लगती है कि उसने अपने कंधे पर थैला डाले कितने रास्ते नापे हैं लेकिन कोरट के रास्ते का तो सपने में भी नहीं सोचा था। वह बरबस मन ही मन उसे आशीष देने लगती है, और कहती है, ‘जा ढिंगली जा। अपने मरद पर कोरट कर। ऐसी दुनिया ढूँढ़ जहाँ के मरद धुत होकर अपनी औरतों के सरीर पर निसाँन पन नहीं डालते हों।’ (पृ.20)
इस कहानी में झुग्गी -झोंपड़ी की भाषा का प्रयोग करके इसे बहुत ही प्रभावशाली रूप दिया गया है और यह संदेश भी कि आज की अनपढ़ नारी भी अपने अधिकारों को समझने लगी है। परम्परागत स्त्री को यह समझाया जाता है कि उसका घर ही उसका ‘हैवन’ है भले ही वह उसमें ‘हेल’ की त्रासदी झेल रही हो। उसे सिखाया जाता है कि वह सहनशील और ममता की मूर्ति बनी रहे और पुरुष के सारे आक्रमण झेले, भले ही उसे वहाँ संरक्षण में रोटी और घर के साथ घूँसे भी मिलें। इसके विपरीत आज की नारी विद्रोह करके अपने वजूद का अहसास दिलाना चाहती है क्योंकि उसमें आत्मविश्वास जाग चुका है।
इस संग्रह की कुछ कहानियाँ ऐसी भी हैं जिनमें यह जताया गया है कि नारी को पुरुष के सहारे की आवश्यकता होती है।` चाँद अब भी बहुत दूर है`, `हवा ज़रा थम के बहो`, `एक फेफड़े वाली हंसा`, ऐसी ही कुछ कहानियाँ हैं जिनमें स्त्री को पुरुष के शारीरिक व मानसिक बल की ज़रूरत पड़ती है। ‘चाँद अब भी बहुत दूर है’ की ज्योति एक नौकरीपेशा आधुनिक सोचवाली नारी है। जब उसका बॉस उसे गलत संदेशा देता है तो वह लौट कर रोती रहती है। उसका पति उसे ढाढस बंधाता है और नौकरी छोड़ कर दूसरी नौकरी करने के लिए कहता है। तब उसे अहसास होता है कि पति के सहयोग में कितना बल है। जो अब तक पुरुषप्रधान समाज के विरुद्ध अपनी सोच रखती थी, वही अब करवा चौथ के महत्त्व को समझती है। ‘हवा ज़रा थम के बहो’ में संन्यासिनी शैलमयी आनंदमयी अपने अनुयायी को ब्याह कर लेने की राय देते हुए कहती है कि ‘जीवन की यह विचित्रता है। चरम विलासी भोग या परम सात्विक योग, दोनों ही अपने आप में अधूरे हैं-नितांत अधूरे। अपने पूर्णत्व की प्राप्ति के लिये भटकते हुए किसी दहकते हुए नक्षत्र की भांति।’ (पृ. 46) यह अविवाहित संन्यासिन प्रेम में मिले सुख के बारे में इस तरह बताती है-‘और साधु संतो की बात तो नहीं जानती, लेकिन जब-जब वह मुझसे मिलने आया, तब-तब मुझे मोक्ष की अनुभूति हुई।’(पृ.55)
इसी प्रकार, ‘एक फेफड़े वाली हंसी’ उस गरीब महिला की कहानी है जो एक व्यक्ति के साथ बिना ब्याह रचाये रहने लगती है। उनके बीच ‘केवल सौगंध की डोर’ बंधी थी और जब वह व्यक्ति शराब के लिए घर की चीज़ें भी चुराता है तो वह ‘इस डोर’ के टूटने से घबरा कर चुप रहते हुए अपनी बेबसी दर्शाती है-‘आप तो जानती हो कि मैं इसके साथ एक धागे जैसे सौगन्धनामे के साथ रह रही हूँ, जिसे वह
एक झटके में तोड़ सकता है।’(पृ.61)
समाज में नारी का शोषण होता रहा है। यह शोषण विभिन्न रूप लेकर आता है और ऐसा भी नहीं है कि केवल पुरुष ही नारी का शोषण करता है। ऐसी भी परिस्थितियों पर बुनी गई कुछ कहानियाँ हैं जिनमें नारी की सबसे बड़ी बेबसी उसका शरीर है। उठी हुई उँगली, सीढ़ियाँ, लेकिन, सौतेला पति ऐसी ही कहानियाँ है।
कोई भी संरक्षक एक बड़ी होती लड़की की जिम्मेदारी नहीं ले सकता। ‘उठी हुई उँगली’ उस लड़की की कहानी है जो पिता से तिरस्कृत रही और मौसी के पास पली। बड़ी होती लड़की को पिता ने अस्वीकार किया तो ताऊ के यहाँ नौकरानी की तरह पलती रही। ब्याह के बाद दहेज न मिलने के कारण पति से भी तिरस्कार ही मिला। एक दिन जब पति फिर उस पर हाथ उठाने जाता है तो वह हाथ रोक कर कहती है,- ‘तुम्हारे साथ क्या जीना, जीना कहलाता है। मैं तो मरने को तैयार हूँ लेकिन उस नीच बाप की बेटी के साथ तुम्हारे दो बच्चों की माँ भी तो मर जाएगी।’ (पृ.42)
स्त्री का शोषण कहीं स्त्री करती है तो कहीं अपने भी करते हैं। इसका भी उदाहरण हमें नीलम कुलश्रेष्ठ की कुछ कहानियों में मिलता है। ‘कटी हुई औरत’ की देवी एक हादसे में अपने हाथ खो बैठती है। वह घर के मंदिर में बैठ कर पूजा करती है। कोई स्त्री अपने कष्ट लेकर उसके पास आती है तो वह ढाढ़स बंधाते हुए कहती है कि उसके कष्ट कुछ ही दिन में दूर हो जाएंगे जो सच भी निकलता है। बात मुहल्ले से शहर तक फैल जाती है और चढावे के लालच में अब उसका शोषण सारा परिवार करने लगता है। इतना ही नहीं, प्रेमी बनकर आया व्यक्ति शादी के बाद वही धंधा अपने घर में प्रारंभ कर देता है जिससे पीछा छुड़ाने के लिए ही देवी ने ब्याह किया था।
शोषण के विरुद्ध जब नारी आवाज़ उठाती है तो या तो उसका गला दबा दिया जाता है या उसे निकालबाहर किया जाता है। ‘जर्नालिज़्म’ कहानी में शिक्षा संस्था का मालिक एक महिला जर्नलिस्ट को अपनी संस्था के काम निकालने के लिए नौकरी पर रखता है पर जब वह नारी देह का लाभ उठाकर उसके काम करने को नकार देती है तो अंत में उसे मजबूर होकर नौकरी छोड़नी पड़ती है। कहानीकार ने इसका परिणाम इस तरह बताया है- ‘इसका अंत वही होता है जो अक्सर नारी सशक्तता का झंडा उठानेवालियों का या उसूलों की सलीब को उठानेवालों का होता है यानि इस व्यवस्था के बाहर पटका हुआ ‘बैक टू द पेवेलियन’ यानि कि घर। यानि कि अंगद स्त्री होते तो इस व्यवस्था की सुदृढ़ता से घबरा कर स्वतः ही दरबार से पैर हटा रहे होते। ’(पृ. 175)
‘लेकिन---’ कहानी में भी नारी सी परिस्थिति से दो-चार होती है। संस्थानों के काम करने वाली महिलाओं का शोषण उनके पदाधिकारी करने की चेष्टा करते हैं। जब उन्हें नकारा जाता है तो वे ऐसा बदला लेते हैं जिसका कोई काट भी नहीं होता। लेखिका कहती है कि ‘इन प्रतिष्ठानों को चलाने वाले लोगों के मन की ज़हरीली गैस निष्कासित होकर किसके जीवन से खेल जाए, पता नहीं। यहाँ प्रतिभाशाली महिलाओं की औकात बताते हुए उन्हें इस विभाग से उस विभाग तक चकरघिन्नी-सा घुमाया जा सकता है। उनकी लिखित शिकायतों को रद्दी की टोकरी में फेंका जा सकता है क्योंकि ऊपर भी उन्हीं जैसे उन्हीं के आका बैठे होते हैं। कमर में हाथ डलवाती, अपने पर झुकते हुए चेहरे को तरल करती औसत महिलाओं को सीढ़ी-दर-सीढ़ी चढ़ने में मदद करते हैं।’ (पृ.124)
इस पुस्तक के अंत में शीर्षक कहानी ‘हैवनली हेल’ है जिस में स्त्री-पुरुष के अहम की लड़ाई का मार्मिक चित्रण किया गया है। एक उद्योगपति और उसकी महिला दोस्त (या दुश्मन कहें) के अहम का युद्ध है। उद्योगपति के पास सब कुछ है पर वह इस महिला को बचपन से स्वर्ग ही मिला था- साफ़ सुथरा अच्छाइयों से पगा। परंतु इस खुशी को नष्ट करने और उसे अपने वश में करने के लिए वह पुरुष उस महिला का उद्योग बंद कराने के पैंतरे चलाता है। वह सोचती है कि ‘कैसी होती है इस तरह के मर्दों की दुनिया जो बेहतरीन फर्नीचर, कालीन, कम्प्यूटर्स की तरह सुंदर लड़कियाँ अपने एम्पायर के लिये जुटा लेते हैं। फिर क्यों उस जैसी उम्र की स्त्री पर दूर से मानसिक दबाव डाला जा रहा है?’( पृ.=.145) दूर रह कर भी वे मानसिक रूप से लड़ते रहे। ‘कितना मर्मांतक होता है स्त्री-पुरुष के अहं का टकराव, निरंतर घात-प्रतिघात करना और सहना, आसान नहीं होता दूसरे को चोट देना। इस चोट की प्रतिक्रिया स्वयं पर भी होती है। मन लहुलुहान हो जाता है।’ फिर भी अहम के चलते लोग जलते जाते हैं और अपने स्वर्ग जैसे माहौल को नरक बना लेते हैं, शायद इसे ही ‘हैवनली हेल’ कहते हैं।
स्त्री-पुरुष के संबंधों के अलावा महिला जीवन की आर्थिक व सामाजिक निर्भरता और आत्मविश्वास जगाने का संदेश इन कहानियों में भली प्रकार गूंथा गया है। इसमें कोई शक नहीं कि लेखिका का वह प्रश्न आज भी प्रासंगिक है जिसे वे पुस्तक की भूमिका में पूछती हैं कि इस पुरुष प्रधान समाज में ‘पुरुष सत्ता को चुनौती देती, लड़ती व जीतती स्त्री किससे बर्दाश्त होती है?’
----------------------------------------------------------------------------------
पुस्तक विवरण
पुस्तक का नामः हैवनली हेल
लेखिकाः नीलम कुलश्रेष्ठ
मूल्यः 150 रुपये
प्रकाशकः शिल्पायन प्रकाशन