“चार नंबर की यह पेशंट आज आई?” नाइट ड्यूटी का चार्ज अपने सहयोगी डाक्टर से लेते समय मैं ने पूछा ।
“हां,इसके स्पाइनल टैप ने बताया,यह बैक्टीरियल मैनिनजाइटस का केस है। स्युपूरेटिव। बचने की उम्मीद बहुत कम है…:”
“ओह! ” डाक्टरी की डिग्री लिए हुए मुझे पूरे सात साल हो चले हैं,किंतु आज भी मरणासन्न बच्चे मुझे भयभीत कर जाते हैं।
“ और मालुम है?” जाते जाते मेरे सहयोगी डॉक्टर रुक गए,” यह बच्ची हमारी वेदबाला की बेटी है….”
वेदबाला हमारे अस्पताल की पुरानी और चहेती नर्स थी ।
उसे उद्वेलित अवस्था में हम में से किसी ने कभी न देखा था। आपरेशन के समय हम सभी सर्जन उसे अपने साथ रखना चाहते। वह प्राइवेट वार्ड के कमरों की इंचार्ज थी और उस की देख-रेख के तय-शुदा कमरे तो चमकते ही चमकते,उन कमरों के रोगी भी हमें सुबह के राउंड के समय स्पंज किए हुए मिलते। टेल्कम पाउडर में लिपटे। ताज़े टूथपेस्ट या माउथ वौश की सुगंध लिए। साफ़ दांतों के साथ। उनकी आंखों में रात का जमा कुछ न रहता । कपड़े- लत्ते भी उनके एकदम उपयुक्त रहते । तिस पर उन के चार्ट में उनकी शारीरिक अवस्था के सभी विवरण ठीक समय पर दर्ज किए हुए मिलते: किस घंटे पर बुखार तेज़ रहा और किस घंटे मंद। कब रक्तचाप उछला और कब बैठा।
“गुड ईवनिंग, डा मिश्रा,” तभी एक परिचित स्वर ने मेरा अभिवादन किया ।
ध्यान से देखने पर मैंने जाना वह वेदबाला थी।
अस्त- व्यस्त,बेढंगे और फटीचर कपड़ों में। उसे उसकी यूनिफ़ौर्म के बिना देखने का यह मेरे लिए पहला अवसर था। बल्कि उसके यूनिफ़ौर्म की कलफ़ और सफ़ेदी की मैं घोर प्रशंसिका थी। उसका स्कार्फ़,उसकी कैप, उसके स्टौंकिग्ज़, उसकी सैंडल, उस का रुमाल सभी अपनी अपनी जगह एकदम अनुमोदनीय रहा करते।
“अपनी बेटी से मिलवाओ,वेदबाला,” उस के साथ मैं चार नंबर की ओर बढ़ ली।
चार नंबर की रुग्णा किसी भी कोण से वेदबाला की बेटी नहीं मालूम दे रही थी।
वेदबाला की आंखें छोटी थीं। नाक टेढ़ी थी। माथा छोटा था।और ठुड्डी कुछ ज़्यादा ही लंबी।तिस पर वह सांवली भी रही, जब कि रुग्णा गौरवर्ण थी।
उस की आंखें अच्छी बड़ी थीं।नाक एकदम सधी हुई थी। और उस की ठुड्डी की तुलना में उसका माथा बहुत चौड़ा था। बाल भी उस के अच्छे छल्लेदार थे । जब कि वेदबाला के सीधे सपाट बालों में एक भी घूंघर नहीं था।
मैंने उसका माथा छुआ। वह तेज़ गर्म था।
“पापा!” रुग्णा ने अपनी आंखें खोलीं। और अपना खाली हाथ आगे बढ़ा दिया।उस का दूसरा हाथ उस नली से सम्बद्ध था,जो उस हाथ की एक नस के द्वारा उस की शिराओं में एंटीबायोटिक दवा का अंत: क्षेपण भेज रही थी। उस के बिस्तर के सिरहाने खड़े एक स्टैंड पर एंटीबायोटिक दवा की बोतल लटक रही थी।
बिस्तर के पैतियाने खड़े एक पुरुष ने बढ़ कर अपना हाथ रुग्णा के खाली हाथ में दे दिया।
“यह मेरे पति हैं,” वेदबाला ने मुझे उस पुरुष का परिचय दिया।
नकचिपटे उस पुरुष का कद मझोला था और रंग वेदबाला से भी अधिक सांवला।
रुग्णा और उस में समान लक्षण ढूंढने के लिए मैं ने उस पर दोबारा नज़र दौड़ाई। मगर नहीं।
उस का चेहरा- मोहरा भी रुग्णा से एकदम भिन्न था।
“ पापा!” रुग्णा की आंखों के आंसू डोले।
वेदबाला के पति ने अपने दूसरे हाथ से रुग्णा का खाली हाथ ढांप लिया।
आंसू टपकाते हुए।
“आप घबराइए नहीं,” मैं ने उस के कंधे थपथपाए,” आप प्रार्थना कीजिए…..”
वह खुल कर रोने लगा।
“ आप यह गलत कर रहे हैं,” वेदबाला के नथुने फूल गए और भौंहें चढ़ गईं,” रोकर आप क्या साबित करना चाहतें हैं?”
“पापा!” रुग्णा के आंसू ढुलक कर उस की गालों पर धारियां बनाने लगे।
“पापा! पापा!! पापा!!!,” वेदबाला चिल्ला उठी,” पापा ही को पुकारो तुम…..मैं कौन हूं तुम्हारी ? कुछ नहीं? कोई नहीं?”
“ मेरे साथ आओ,वेदबाला,” उस के उन्माद से मैं चिंतित हुई और उस की पीठ घेर कर मैं उसे अपने ड्यूटी रूम में ले गई।
“ जानती हैं,डा मिश्रा!” वह सिसकने लगी,” इस लड़की को शरण मैं ने दी थी। मैं ने। ग्यारह साल पहले। जिस बेनाम, लावारिस गर्भवती अभागिन ने इसे जन्म दिया था, वह अपनी प्रसूती में चल बसी थी और इस लड़की को छूने तक कोई तैयार न था और उसे ले कर जब मैं घर पहुंची थी तो इसी आदमी ने, इसी ‘पापा’ ने
बोला था,’इस विपदा को अनाथाश्रम में भिजवा देना चाहिए। तुम्हारे अस्पताल की मार्फ़त। हमें इस की जात नहीं मालूम। इस का धर्म नहीं मालूम। और यह भी क्या मालूम इस की मां इस के खून में कौन सी बीमारी छोड़ गयी है?’ लेकिन मेरी दरियादिली भंग न हुई थी….”
“ तुम्हारी अपनी कितनी संतान है?”
“नहीं है,डा मिश्रा। कोई नहीं है। कोई संतान नहीं,” अपने माथे पर अपना हाथ टिका कर वेदबाला अपना सिर झुलाने लगी,” मैं बांझ हूं।
मैं बांझ थी। मेरी शादी को उस समय नौ साल बीत चुके थे और मैं बांझ थी….मेरी शादी को अब बीस साल हो चले हैं और मैं अब भी बांझ हूं।”
“ तुम ने इलाज नहीं कराया ? अपना? अपने पति का?”
“क्या पूछती हैं, डा मिश्रा? क्या बताऊं, डा मिश्रा ? मेरी शादी के समय इस आदमी के पास तीन छोटे भाई थे । दो छोटी बहनें थीं । और सिर पर उन के बाप न था। न कोई देखने- भालने वाला। न मदद देने वाला कोई अमीर रिश्तेदार। भाइयों को उसे पढ़ाना था। बहनों को उस ने ब्याहना था। और मुझ से उसे सिर्फ़ मेरी तनख्वाह चाहिए थी। कोई बाल- बच्चा नहीं।”
“ तुम सब एक साथ रहते हो?”
“शुरू में। लेकिन अब वे बहनें परिवार वाली हैं और भाई नौकरी वाले। इधर कोई चार पांच साल से इस लड़की के सिवा घर में कोई और चौथा नहीं रहता था। मैं थी तो आप वाले इस अस्पताल में खपी रहती।और मेरे पति थे जो अपने स्कूल जाते भी तो तीन जमात पढ़ा कर अढ़ाई घंटे में लौट आया करते । और इन्हीं कुछेक सालों में इस लड़की ने मुुझे क्या क्या नहीं दिखाया…..कैसे कैसे नहीं सताया…..”
“ वह क्या करती थी?”
“ पापा यह,पापा वह….पापा वह,पापा यह…..पापा वह, पापा यह…..” वेदबाला की उत्तेजना बेलगाम हो रही थी ।
“ तुम अपने आप को संभालो,वेदबाला,” उस के कंधों पर मैं ने अपने हाथ जा टिकाए।
“ मेरी नेकी, मेरी भलाई, मेरी अच्छाई, मेरी दरियादिली, मेरी मेहनत, मेरी दया….
सब कुुछ मिट्टी में मिला दिया इस ने…बिसार दिया इसने। मैं ने इसे आसरा दिया था । मैं ने इसे सहारा दिया था । मैं ने इसे घर दिया था….”
“लेकिन प्यार? तुम ने उसे प्यार भी दिया क्या,वेदबाला?”
एक झटके के साथ उस की त्योरी उस के माथे से उतर ली ।
वह कांपने लगी।
बेतहाशा।
“ डा मिश्रा,” जभी नाइट ड्यूटी की एक नर्स मेरे पास हांफ़ती हुई आई,” बेड नंबर चार को अटेंड करिए।अभी। जल्दी…..”
मुझ से पहले उस बिस्तर तक का फ़ासला वेदबाला ने फंलागा।
रुग्णा की सांस उखड़ रही थी और रक्तस्रावी चकत्ते उस के शरीर पर तेज़ी से फैल रहे थे।
“पापा,” उस के होंठ आखिरी बार हिले और उस के प्राण छूट गए।
वेदबाला ने आगे बढ़ कर पहले उस के सिरहाने लटक रही बोतल की एक नली उस के हाथ से अलग की । फिर अपने पति के हाथों में छिपा उस का दूसरा हाथ मुक्त किया ।
यंत्रवत।
क्या वह भूल गई थी, उस समय वह ड्यूटी पर नहीं थी?
और जो पुरुष अपने हाथ खाली होते ही सिसकियां भर कर विलाप कर रहा था, वह उस का पति था?