Meri Chuninda Laghukataye - 17 in Hindi Short Stories by राज कुमार कांदु books and stories PDF | मेरी चुनिंदा लघुकथाएँ - 17

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मेरी चुनिंदा लघुकथाएँ - 17

 

लघुकथा क्रमांक : 45 

चिर युवा - गाँधी

राष्ट्रपिता की प्रतिमा के समक्ष कुछ झुकते हुए वह स्वयंघोषित महामानव बुदबुदाया, "खुद पर और ना इतराना ! झुका तो मैं अपने गुरु के पाँवों में भी था। उनके हश्र को देखकर तुम्हें शायद अपने अंजाम का अंदाजा हो गया होगा।"ऐसा लगा मानो स्मित हास्य के साथ वह प्रतिमा एकटक उसी की तरफ देख रही हो और उसकी नादानी पर हँस रही हो इस आशय के साथ कि, 'प्रणाम करते करते तुमने जिस वयोवृद्ध नेता के  पाँवों तले की जमीन खींच ली वह तुम्हारे राजनीतिक गुरु थे,.. मैं तो गाँधी हूँ, ...चिर युवा गाँधी !'

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लघुकथा क्रमांक 46 

 

नजरिया

 

उस छुटभैये नेता ने अपना फेसबुक स्टेटस अपडेट किया। 

पोस्ट डाली 'विरोधियों के हौसले पस्त। नामी नचनिया ' कमली ' के चरणों में पूरा विपक्ष।' विपक्ष अब नचनियों की पार्टी बनकर रह गई है।'

अगले दिन नेताजी को हाइकमान से जानकारी मिली 'कमली ' अपनी पार्टी जॉइन करने वाली हैं। 

अब नेता जी का स्टेटस था 'जमीन से जुड़ी, मेहनतकश व प्रखर व्यक्तित्व की धनी देश की बेटी प्रख्यात नृत्यांगना सुश्री 'कमली जी ' का हमारी पार्टी में दिल से स्वागत है!

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लघुकथा क्रमांक 47

एक और दाँव

 

"अरे वीनू काका ! सुना तुमने ? सरकार ने सवर्ण गरीबों के लिए दस प्रतिशत आरक्षण वाला बिल पास कर दिया है। सरकार ने यह तो वाकई बहुत ही सराहनीय कार्य किया है।" 

 

"हाँ ! इसमें कोई दो राय नहीं कि सरकार ने बहुत ही सराहनीय कार्य किया है, लेकिन तुम इतना खुश क्यों हो रहे हो ?" 

 

"अरे क्यों नहीं खुश होऊँ ? आखिर मैं भी तो सवर्ण गरीब हूँ। इस आरक्षण का लाभ मुझे भी तो मिलेगा न ?"

 

अपने माथे पर हाथ मारते हुए हताश और बुझे हुए स्वर में वीनू काका बोले, "बेटा ! किस भुलावे में हो ? नौकरियाँ आठ लाख सालाना कमाने वाले गरीबों द्वारा खरीदे जाने से बची रहेंगी तब न तुम जैसे आठ हजार महिना कमानेवालों तक पहुँचेंगी ?"

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लघुकथा क्रमांक 48

सौगात

 

विदेशी राष्ट्राध्यक्ष की कार हिंदुस्तानी जमीन पर धीरे धीरे आगे बढ़ रही थी। 

 

सड़क के दोनों तरफ तने सफेद कपड़ों की दीवार देखकर उन्हें आश्चर्य हुआ। 

 

 उन्होंने अपने सहयोगी से पूछा, "आखिर इन सफेद दीवारों के पीछे ऐसा क्या है जो यहाँ का प्रशासन हमें दिखाना नहीं चाहता ?"

 

"सर ! इन दीवारों के पीछे वोटों की खेती होती है जहाँ सरकार कुछ रुपयों और शराब नामक खाद का प्रबंध कर अपने लिए वोटों की बंपर फसल उगाती है।"

 

"लेकिन इसमें छिपाने वाली बात क्या है ? पूरी दुनिया में अधिकांश नेता अपने अपने चुनाव प्रचार में इस तरह के हथकंडे अपनाते हैं।"

 

"सर, यही तो राज की बात है। दुनिया में महँगाई चाहे जितनी बढ़ जाए लेकिन यहाँ के वोटों की कीमत फिक्स है... चंद रुपये और शराब ..

अपने इसी कौशल को ये पर्दे के पीछे छिपाकर रखते हैं।" कहते हुए उसके मुख पर भेदभरी मुस्कान थी।

वह यहीं नहीं रुका, आगे कहता गया, "...और इनकी कीमत न बढ़ने पाए इसलिए ये नेता वोट लेने के बाद इन मतदाताओं को देते हैं गरीबी, भूखमरी, अशिक्षा व नारकीय जीवन की सौगात....इतना ही नहीं, बीच बीच में इन्हें धर्म नाम की अफीम भी चटाई जाती है।"

 

राजकुमार कांदु 

स्वरचित/ मौलिक