दो साल पहले की बात है, जब हमने गुरुग्राम में अपना नया घर लिया था | हमारा बजट अधिकतम 80 – 90 लाख का ही था लेकिन जब घर खरीदने निकले तो गुरुग्राम जैसी जगह पर इतने बजट में घर तो खूब मिले पर पसंद एक भी नहीं आया | किसी में कमरों का साइज छोटा था तो किसी में रसोई का, तो कोई कालकोठरी – से घुटन भरे घर जिसमें साँस लेने के लिए पर्याप्त जगह ही नहीं थी | देखकर ऐसा लगता जैसे यहाँ लोग रहते नहीं बल्कि कोई सज़ा काट रहे हैं | आखिर एक जगह हमें ऐसा घर मिल ही गया जिसमें सब चीजे हमारी पसंद के अनुसार ही थी बस जो हमारे दायरे से बाहर की चीज थी वो थी उस घर की कीमत | डेढ़ करोड़ की कीमत जानकार पसंद होते हुए भी मैंने जानबूझकर कुछ कमियाँ निकालते हुए उस घर को लेने से मना कर दिया | सप्ताहांत में अब जब भी कभी मेरे पति कहीं घर देखने जाने की बात करते तो मैं ये कहकर उन्हें मना कर देती कि छोड़ो, यहाँ हमारी पसंद का घर मिलने से रहा | 4 – 5 साल जितने समय रहना होगा, हम किराए पर ही रह लेंगें | हालांकि एन. सी. आर. में घर लेने का मेरा शुरू से ही मन था पर दिल्ली ट्रांसफर होने के बाद तो मन की बात जिद में कब बदल गई मुझे खुद ही पता नहीं चला | अब तक हम जहाँ भी (राज्य स्तर पर) रहे हर जगह हमें सुख – सुविधाओं से पूर्ण आलिशान घर पति के ऑफिस की तरफ़ से ही मिल जाता था लेकिन दिल्ली हैड ऑफिस में ट्रांसफर होने के कारण पहली बार हमें किराए पर रहना पड़ा जो हमें रास नहीं आया इसलिए घर खरीदने की जिद दिन – प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही थी | 2 – 3 महीने बीत गए, ना तो हम इस दौरान कभी कोई घर देखने गए और न ही इस बारे में कोई बात की | हम भुज से जून के महीने में आए थे और देखते ही देखते दिसंबर आ गया था | धीरे – धीरे किराए के घर में ही मन लगने लग गया था |
साल बदला और समझो मेरी तो ज़िंदगी ही बदल गई | मैं शिक्षिका के तौर पर गुरुग्राम के ही एक विद्यालय में काम कर रही थी पर वहाँ कुछ कमी – सी थी | गुरुग्राम के प्रतिष्ठित विद्यालय में मेरी नौकरी लग गई | संयोगवश वहाँ की संस्कृत शिक्षिका की सरकारी नौकरी लग गई थी तो उन्हें अचानक शिक्षिका चाहिए थी | 10 जनवरी को मैंने शैलोम में पढ़ाना शुरू किया | अच्छा स्कूल, अच्छे दोस्त और अच्छा वेतन पाकर मैं खुश रहने लगी थी और नए घर की बात लगभग भूलने लगी थी | 8 - 10 दिन बाद अचानक मेरे पति ने कहा कि कई दिन हो गए हैं | चलो, तुम्हारी मम्मी के घर चलते हैं | जहाँ मेरे भाई ने घर लिया था, उसी सोसाइटी में वह घर था जो मुझे बहुत पसंद आया था | पहली बार गए तब उसमें कुछ काम चल रहा था पर अब पूरी तरह तैयार था | मेरे भाई ने बताया कि उसके एक दोस्त ने यह घर खरीद लिया है और फरवरी से इसमें इंटिरीयर का काम शुरू हो जाएगा | मैंने अनमने मन से ‘अच्छी बात है |’ कहकर उसे बधाई दी | शाम को हम अपने घर वापस लौट आए पर पता नहीं क्यों मुझे कुछ अच्छा नहीं लग रहा था |
दो दिन बाद मेरा जन्मदिन था | पतिदेव सुबह – सुबह तैयार होकर, ये कहकर चले गए कि संदीप (मेरा भाई) के साथ एक घर देखने जाना जाना है, तैयार रहना.... फिर तुम्हारा केक काटेंगे | मेरे जन्मदिन के दिन उनका इस तरह घर देखने चले जाना मुझे अच्छा नहीं लगा | मैंने जाते – जाते उन्हें सुना दिया कि कितने भी घर देख लो, आपको खरीदना तो एक भी नहीं है | ऐसा सुनकर भी वे इसे हँसी में टालकर चले गए |
दोपहर बाद हाथों में केक का डिब्बा और मिठाई पकड़े हुए घर में दाखिल हुए | मेरा गिफ्ट न पाकर मैं उदास हो गई और उनके मुस्कुराने पर भी मुँह बनाने लगी | इतने में ही उन्होंने एक पेपर मेरे हाथ में थमाते हुए कहा , “ये ले तेरा गिफ्ट |” उस पेपर में लिखा हुआ पढ़ते ही मेरी आँखों से आँसू बहने लगे | मैं हँसना और रोना दोनों काम एक साथ कर रही थी | यह पेपर नहीं बल्कि मेरे जीवन का वह सपना था जो मैंने नींद के साथ – साथ जागते हुए भी देखा था | मेरे सपनों का वही घर जो मुझे बहुत पसंद था लेकिन मेरे दायरे से बाहर का था | आज मेरे पति ने मेरी खुशी के लिए उस दायरे को ही खत्म कर दिया था | पति के गले से लगकर मेरे ख़ुशी के आँसू अविरल बह रहे थे |
उषा जरवाल ‘एक उन्मुक्त पंछी’