Wadi in Hindi Classic Stories by Ekta Vyas books and stories PDF | वाड़ी

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वाड़ी

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फरवरी 2019, अमरीका के न्यूयॉर्क शहर में सपरिवार बस गए भीमजी भाई बरसों बाद, अपनी अंग्रेजी सभ्यता में पली-बढ़ी और सदा अंग्रेजियत का कवच ओढ़े रहने वाली पत्नी रमा बेन और अपने दोनों बेटों को साथ लेकर गुजरात के कच्छ जिले के गाँव  माधापर में अपनी वाड़ी बेचने के उद्देश्य से आए। उस समय भारत समेत कई देशों में कोरोना महामारी ने दस्तक दे दी थी, लेकिन उनके दोनों बेटों और रमा बेन की ज़िद थी कि हम कच्छ में नहीं रहते हैं, तो वहाँ संपत्ति होने का क्या फायदा? जितनी जल्दी इसे बेच सकें तो पैसा काम आएगा। भीमजी भाई के लाख मनाने के बावजूद भी वे तीनों नहीं माने। अंत में, भीमजी भाई ने हार मान ली और संपत्ति दिखाने और बेचने का वादा कर, वे परिवार को लेकर यहाँ आए। कच्छ और अपने देश भारत की शायद यह उनकी आखिरी यात्रा होगी, यह सोच कर उनका दिल डूबा जा रहा था।

 

माधापर दुनिया का सबसे अमीर गाँव है। इस गाँव के हर परिवार का कोई न कोई व्यक्ति लंदन, कनाडा, अमेरिका, केन्या, युगांडा, दक्षिण अफ्रीका जैसे देशों में बस गया है।  विदेशों में ये लोग खूब पैसा कमाते हैं, लेकिन देश में आज तक किसी ने अपना घर या खेत नहीं बेचा। आज भी वे कोई न कोई सामाजिक कार्यक्रम के बहाने देश में आते रहते हैं। भीमजी भाई एकमात्र अपवाद थे जो कई वर्षों तक अपने वतन नहीं आए थे। माधापार स्थित उनका आलीशान घर फलों के पेड़ों से घिरा हुआ था। आसपास की कृषि भूमि में केसर आम, चीकू, खजूर आदि वृक्ष उगाए गए थे, इसलिए इस घर को "भीमजी भाई की वाडी" के नाम से जाना जाता था।

 

इधर भारत पहुँचते ही… ‘अरे इतने गंदे, जाहिल लोग, बेशर्म लोग....’ बार-बार पत्नी और बेटों के मुँह से सुनकर भीमजी मन ही मन चिढ़ने लगे, फिर भी चुप रहे। जानते थे कि कहने से कुछ न होगा, दस बातें और सुननी पड़ेगी। हसमुख वाडी में स्थित उनकी हवेली की देखभाल करता था, जो अपने परिवार के साथ वहाँ वाडी में ही रहता था। परिवार में दो बच्चे, पत्नी और उसकी माताजी थी। हसमुख की बेटी अपनी माँ के काम में हाथ बँटाती थी। बेटी बड़ी हो रही थी तो उसके लग्न की चिंता करना भी लाजिमी था।

 

भीमजी भाई और उनके परिवार के आने से पहले, घर की साफ-सफ़ाई हो चुकी थी। गोदडी और पथारी, घर की एक-एक चीज एकदम चोखी। एक बार के लिए भीमजी का परिवार सब कुछ बड़े करीने से सजा हुआ देखकर हैरान रह गया, लेकिन वह नौकर है, उसे तनख्वाह मिलती है, घर, बिजली, पानी सब कुछ मुफ्त है, इसलिए उसे काम करना ही होगा। यह भाव भीमजी भाई के परिवार के चेहरों पर स्पष्ट दिखाई दे रहा था।  

 

थके हुये भीमजी भाई किसी और चिंता में डूबे हुए थे। खटिया पर बैठते ही हसमुख की बेटी घर की बनी छाछ ले आई, साथ ही रात का बना बाजरी का ठण्डा रोटला। बरसों बाद छाछ के साथ रोटला खाकर मन तृप्त हो गया। अनायास ही हसमुख की बेटी को आशीर्वाद दे डाला, ‘खुश रहो बेटा, तुम बहुत समझदार हो।‘ रमा बेन और बेटों को हसमुख की बेटी की तारीफ करना पसंद नहीं आया। यह उनके चेहरे से साफ नजर आ रहा था।

 

भीमजी भाई के कहने पर हसमुख ने ब्रोकर को पहले ही बुला लिया था। उनसे बातचीत हुई, कुछ फाइनल नहीं हुआ। वे दो-चार दिन बाद आने का कहकर चले गए। अब भीमजी भाई का मन इस वाडी से जुड़ी अतीत की मधुर स्मृतियों में गोता लगाने लगा। आज भी यह वाडी कितनी सुंदर है! हसमुख और उसके परिवार ने इसे कितने जतन से संभाला है। सुविधाओं से युक्त यह विशाल भवन, थोड़ी ही दूरी पर वह कुआँ। आसपास की कृषि भूमि में आज भी तरह-तरह की सब्जियाँ, तरह-तरह के फूलों के पौधे उगाए जा रहे हैं। विभिन्न फलों के पेड़ आज भी वैसे ही खड़े हैं, जैसे भीमजी भाई से पूछ रहे हैं, ‘कहाँ थे इतने दिन?’

 

उनकी आँखें भर आईं। उन्हें याद आया कि कैसे वे वाड़ी में हर मौसम का लुत्फ उठाते थे। मौसम के अनुसार चना, अमरूद, पपीता, पोंक, भुट्टे या उंधिया की पार्टियाँ होती थीं। लोक गीतों को सुनने के लिए आयोजित ‘डायरा’ के कार्यक्रम से मिलने वाले आनंद को कोई कैसे भूल सकता है? बारिश के दिनों में कभी-कभी दोस्त मिलकर चौसर खेला करते थे। कभी देर रात तक भजन या तो कभी डांडिया रास के कार्यक्रम भी होते थे। भीमजी भाई की आँखों से आँसू टपकने लगे। उन्होंने जल्दी से आँखे पोंछ ली।

 

रात खाने में मेथी के थेपले और आलू की सूखी भाजी के साथ लहसुन की चटनी और छाछ देख कर भीमजी भाई का मन भर आया। मोहनथाल देख कर तो उनकी आँखें फिर भर आईं। हसमुख की माताजी को अभी तक भीमजी भाई की पसंद याद थी! याद आया कि हसमुख की माताजी जिन्हें वे बा कहते थे, हमेशा उनकी माताजी के साथ रसोई में व्यस्त रहती थीं। क्या दिन थे वे जब पूरी वाड़ी गुलजार रहती थी! बा खाना बनाने क़ी शौकीन और बापू जी खाने के। सो अक्सर दावतें भी होती रहती थी। 

 

खाट पर लेटे-लेटे भीमजी भाई को कितनी ही बातें याद आती रहीं। नींद नहीं आई तो उठकर बाहर आ गए। ध्यान से देखा तो घर के बाहर खड़ा नीम का पेड़ कुछ मुरझाया हुआ दिख रहा था। इसके आसपास बना चबूतरा भी टूटा हुआ था। उस पर गिरे सूखे पत्ते मानो उसकी बदहाली ढकने की नाकाम कोशिश कर रहे हों। श्रीनाथजी की हवेली और पास में खड़ें फलों के पेड़ अभी भी उसी मुस्तैदी से खड़े थे मानो शिकायत कर रहे हों, 'अब क्यों आए हो? जिस मिट्टी में खेल-कूद कर जवान हुए, आज उसी मिट्टी को बेचने आए हो, उसकी महक भूल गए हो? क्या भूल पाओगे इस माटी को, गाँव को, हमें?’ अचानक 'ओ भईला...' की आवाज सुनाई दी, पीछे मुड़कर देखा तो कोई नहीं था! न जाने वो बचपन के दोस्त आज कहाँ होंगे?

 

कुछ देर इधर-उधर घूमने के बाद वे वापस आकर बिस्तर पर लेट गए। बाड़े में बंधी गायो के गले क़ी घंटियों की आवाज से जागे तो देखा कि पूर्व दिशा में सूर्य उदय हो चुका था और और केसरी उजाला चारों तरफ़ फैलने लगा था। पत्नी और बेटे तीनों अपनी अपनी चारपाई पर सोये थे।  भीमजी भाई ने उन्हें उठाना उचित नहीं समझा। हाथ-मुँह धोकर बैठे ही थे कि हसमुख की बेटी चाय ले आईं, साथ ही रात का बचा हुआ ठण्डा रोटला भी। भीमजी भाई फिर चौंक गए। रात का खाना खाते वक्त उनकी माताजी बापूजी को कहती थीं, ‘मारा भीमजी ने ठण्डो रोटलो भावे छे, एना माटे एक राखजो हों।’ एक ही रोटला बचता तो उनके लिये छुपा कर रखतीं। बा उन्हें कभी भीमजी नहीं बल्कि ‘बाबू भाई’ कहा करती थीं। अपना यह नाम सुने हुए बरसों हो गए। चाय के साथ धीरे-धीरे रोटला चबाते हुए भूली-बिसरी यादों में खो गए।

 

दिन चढ़ आया, अब तक कोई क्यों नहीं उठा? थोड़ी चिन्ता सी हुई। करीब जाकर देखा तो तीनों को तेज बुखार था। भीमजी भाई को याद आया कि अब मार्च का महीना है और पूरी दुनिया में कोरोना महामारी ने अपनी रफ्तार पकड़ ली है।  वे बहुत घबरा गए। डॉक्टर की तलाश में निकल पड़े, पर इस कोरोना काल में डॉक्टर मिलता भी तो कहाँ? करीब दो घंटे तक इधर-उधर भटकते रहे और वापस आ गए। आकर देखा तो हसमुख की बेटी, पत्नी और उसकी माँ, मुँह पर कपड़ा बाँधे तीनों को गर्म काढ़ा पीला रहे थे। रमा बेन की तबीयत कुछ ज़्यादा ही ख़राब थी। उनकी साँस फूल रही थी। अब तो उन्होंने उल्टी ही कर दी।

 

हसमुख की पत्नी ने हाथ में प्लास्टिक की थैली बाँधकर उलटी साफ कर दी। हसमुख ने न जाने कहाँ से डॉक्टर की व्यवस्था कर दी थी। उन्होंने रमा बेन और बेटों के केस की जानकारी लेकर ऑनलाइन ही दवाइयाँ लिखवा दी। हसमुख ने ही दवाइयों का इंतज़ाम किया। उसका पूरा परिवार सेवा में लगा हुआ था। भीमजी भाई को परेशान देख हसमुख ने कहा, ‘साहेब डरने क़ी कोई बात नहीं। आप चिन्ता न करें। हम सब आपके साथ हैं।

 

बात फैलते ही आसपास के लोग भी यथासंभव मदद के लिए आगे आने लगे। अपने साथ खाने-पीने की चीजें, फल और देसी दवाइयाँ भी लाए। एक मिनट के लिए भीमजी भाई भूल गए कि वे इस देश को छोड़कर जा चुके हैं। उनके मन में कुछ चुभने लगा। भारतीय संस्कृति जिसे उनका परिवार भूल चुका था। अतिथि देवो भवः की यह भारतीय परम्परा अभी भी अक्षुण्ण देखकर उन्हें एक सुखद अनुभूति हो रही थी। अनपढ़ हसमुख का परिवार नौकरों की तरह नहीं अपनों की तरह भीमजी भाई के परिवार की सेवा कर रहा था।

 

अमेरिका जैसे देश में व्यक्तिवाद के दृष्टिकोण ने तो सार्वजनिक गुणों को ही छीन लिया है। कोई किसी को नहीं पूछता। यहाँ तो सारे पड़ोसी भी परिवार जैसे लगते हैं। अपने वतन की, अपने लोगों की, अपनी मिट्टी की बात ही अलग है। इस बात को अब भीमजी भाई का पूरा परिवार महसूस कर रहा था। नतीजा यह हुआ कि उनके परिवार ने ही वाड़ी बेचने का इरादा रद्द कर दिया।

 

बेटों को महसूस हुआ कि इस मिट्टी में कितना अपनापन है, जो विदेश में खोजने पर भी नहीं मिलता। विदा लेते समय हसमुख और उसका परिवार रो पड़ा। हसमुख ने कहा, ‘अच्छा किया साहेब, वाडी बेचने का बिचार छोड़ दिया। ये वाड़ी नही आपके बा-बापूजी है़। माँ-बाप को कोई बेचता है़ भला!’ भीमजी भाई ने बेटों और रमा की ओर देखा। इससे पहले कि वे कुछ कहते, रमा बोल उठी, 'सच कह रहे हो हसमुख भाई, हम इस मिट्टी से दूर रहकर इसकी महक भूल गए थे। अब हर साल आएंगे ताकि दोबारा भूल न जाएँ।' बेटों ने भी हँसकर हामी भर दी। हसमुख की माताजी के पैर छूकर सभी एयरपोर्ट के लिए रवाना हो गए।