Dwaraavati - 78 in Hindi Classic Stories by Vrajesh Shashikant Dave books and stories PDF | द्वारावती - 78

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द्वारावती - 78



78

समीर की एक तरंग उत्सव को स्पर्श कर चली गई। उस स्पर्श में उत्सव ने कुछ अनुभव किया। वह उस अनुभव को समझे उससे पूर्व दूसरी तरंग आकर स्पर्श कर चली गई। उस तरंग ने भी वही अनुभव करवाया। एक एक कर तरंगें आती रही, उत्सव को स्पर्श कर चली जाती रही। प्रत्येक स्पर्श में कुछ अनूठा था जो उत्सव ने इससे पूर्व कभी अनुभव नहीं किया था।
उत्सव उस अनुभूति को समझ नहीं पाया। उसने पढ़े सभी ग्रंथों का ज्ञान भी उस अनुभव को समझाने में विफल रहा। उसने प्रयास त्याग दिए, बस अनुभव करता रहा। 
उस अनुभव के आदी होने तक उत्सव स्थानक पर ही रुका रहा। गाड़ियों से उतरते प्रवासियों को देखा। प्रत्येक प्रवासी उत्साह से भरा प्रतीत हुआ। प्रत्येक व्यक्ति प्रसन्न था। प्रत्येक प्रवासी के मुख पर कृष्ण का नाम था। कोई नंदलाल की जय बोल रहा था तो कोई कृष्ण कन्हैया लाल की। कोई माखन चोर की तो कोई रणछोड़ की जय कर रहा था। प्रत्येक व्यक्ति मुक्त विचरण कर रहा था, सभी बंधनों से मुक्त, सभी भार से मुक्त।
उन सभी को देखकर अनायास ही उत्सव भी बोल पड़ा, “हरे कृष्ण । हरे कृष्ण।”
वह इस मंत्र को जपने लगा। जैसे जैसे वह उसे जपता गया, उसे समीर के उन स्पर्शों का अर्थ समज में आने लगा। 
‘हरे कृष्ण, हरे कृष्ण।’ जपता हुआ उत्सव मथुरा नगरी में प्रवेश कर गया। यमुना के तट पर आ गया। उसके प्रवाह को देख मन ही मन बोला, ‘यमुना! गंगा की सहोदरी यमुना। कितना भिन्न रूप है इसका, काशी की गंगा से। निर्बाध बह रही यमुना। मुक्त यमुना। तुम्हारे पर क्या कोई दायित्व का भार नहीं?’
‘कृष्ण को तमस भरी, वर्षा की उस रात को मथुरा से गोकुल ले जाने के दायित्व निर्वाह के पश्चात मैं किसी भी दायित्व से मुक्त हो गई हूँ।’ यमुना ने प्रत्युत्तर दिया और अपनी गति से बहती रही। 
उत्सव ने यमुना में स्नान कर रहे भाविकों को देखा। स्नान का आनंद तथा भक्ति का भाव उनके मुख पर स्वतः प्रकट था। 
अनेक भक्त तट पर बैठे थे। वह सभी यमुना के दर्शन मात्र से ही संतुष्ट थे। उत्सव ने अन्य दिशा में देखा। एक बिंदु पर उसकी दृष्टि रुक गई। 
विदेशी भक्तों का एक समूह वहाँ कृष्ण का कीर्तन कर रहा था। नृत्य कर रहा था। मृदंग, ढोल, मंजीरें बज रहे थे। कृष्ण नाम संकीर्तन के साथ सभी नाच रहे थे। 
सभी नृत्यकार एक विशेष रूप से नाच रहे थे। उन सभी का ध्यान केवल कीर्तन, संगीत एवं नृत्य पर ही था। अन्य जगत से वह अनभिज्ञ थे। नृत्य में मग्न, नृत्य में ही खोये हुए।
‘यह कैसा नाच? इतनी तल्लीनता? इतना समर्पण। इतना भाव। इतनी ऊर्जा। यह नृत्य, यह नाच अजोड है। यह भी इस नदी, इस भूमि का प्रभाव ही होगा। विदेशी भक्त किसी लज्जा से मुक्त कृष्ण भक्ति में नाच रहे हैं। इनमें सभी विदेशी ही हैं। कोई भारतीय क्यों नहीं? भारतीय भक्तों को भी साथ साथ नाचना नहीं चाहिए? इस नृत्य में भारतीयों को लज्जा आ रही है? लज्जा क्यों? कहते हैं कि भक्ति में पूर्ण समर्पण होता है। भक्ति के मार्ग में यदि लज्जा शेष है तो अर्थ यही है कि समर्पण पूर्ण नहीं है। यह भक्तों का समर्पण, भक्ति, अभी अपूर्ण प्रतीत होती है।’
‘उत्सव, तुमने अन्य भक्तों का कितना त्वरित एवं सरलता से न्याय कर लिया। किंतु क्या तुम अपना न्याय कर सकते हो?’
‘अर्थात्?’
‘तुम स्वयं भी तो दर्शक बनकर देख रहे हो। तुममें भी लज्जा शेष बची है।’
‘मेरे में? मैं कहाँ भक्त हूँ?’
‘तो यहाँ क्यों आए हो?’
‘वह तो कालिन्दी ने कहा था ….।’
‘कालिन्दी। नृत्य कर रहे भक्तों में अनेक युवतियाँ भी है। वह सभी कालिन्दी की भाँति कृष्ण प्रेम में समर्पित होकर, अपने देश का त्याग कर यहां आइ हैं। इतना समर्पण है तुम में?’
‘मैं तो ….।’
‘सभी तर्कों को छोड़कर कृष्णमय हो जाओ। जाओ उस नृत्य समूह के साथ नृत्य करो।’
अपने मन के आदेश का अनुसरण करता हुआ उत्सव नृत्य समूह में जुड़ गया। नाचने लगा। नाचता रहा। उसके तन में, उसके मन में नई ऊर्जा बहने लगी। वह सब कुछ भूल कर नाचता रहा। संगीत के सुरों को सुनता रहा, कीर्तन करता रहा, नाचता रहा। 
धीरे धीरे संगीत मंद होने लगा। तथापि उत्सव नाचता रहा, कीर्तन करता रहा। कुछ समय पश्चात संगीत सुनाई देना बंद हो गया। उसके चरण रुक गए, नृत्य थम गया। उसने आँखें खोली। चारों तरफ़ देखा, वहाँ कोई नहीं था। तट पर वह एक मात्र था। नृत्य समूह कहीं दूर चला गया था। 
स्वयं को अकेला पाकर क्षणभर वह चकित रह गया। पश्चात वह हंस पड़ा। हंसने लगा। खूब हंसा, हँसता रहा। हंसते हंसते थक गया तब तट पर बैठ गया। तन शांत हो गया, मन अभी भी नृत्य कर रहा था। आनन्दमय था। निर्मल आनंद, अखंड आनंद।