Dwaraavati - 77 in Hindi Classic Stories by Vrajesh Shashikant Dave books and stories PDF | द्वारावती - 77

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द्वारावती - 77



77

वाराणसी से मथुरा जानेवाली गाड़ी के एक डिब्बे में उत्सव चड गया। वातायन वाली अपनी बैठक पर बैठ गया। वातायन से गाड़ी से बाहर के जगत को देखने लगा। समय पर गाड़ी चल दी। उसका ध्यान अभी भी बाहर के विश्व पर था। उसे ज्ञात ही नहीं रहा कि बाक़ी सभी सहयात्री अपना स्थान ग्रहण कर चुके थे तथा सभी यात्री उत्सव को ही देख रहे थे। 
उत्सव को तथा उसके कपड़ों को देखकर यात्रियों ने आध्यात्मिक चर्चा प्रारम्भ कर दी। सभी अपनी अपनी सीमित विद्वता का प्रदर्शन करते हुए अपना अपना पक्ष रखने लगे। किसी बात पर यात्री दो भागों में बंट गए। यात्री चाहते थे कि उत्सव का ध्यान अपनी तरफ़ आकृष्ट करें तथा उसे भी उस चर्चा में जोड़ें। इस हेतु उन्होंने प्रयास किए किंतु उत्सव का ध्यान उन बातों पर नहीं था। वह क्षितिज में कहीं देख रहा था, कृष्ण के विचार में मग्न था। 
“सुनो, हमारे इस विवाद का उचित उत्तर यह महाराज ही दे सकेंगे। क्यों ना हम इससे पूछते हैं?”
“यही उत्तम उपाय है।” दूसरे यात्री ने सहमति प्रकट की।
“महाराज, प्रणाम।” एक ने उत्सव को कहा। उत्सव ने स्मित से उत्तर दिया। 
“प्रभु, आप सन्यासी हो, ज्ञानी भी प्रतीत होते हो। तो क्या आप हमारे एक प्रश्न का उत्तर देकर संशय का समाधान करोगे?”
उत्सव पुन: हंस पड़ा। 
“अपने मुझे प्रभु कहा! सन्यासी कहा तथा ज्ञानी भी कहा।”
“सत्य तो कहा।”
“सत्य कुछ नहीं होता। केवल भ्रमणा होती है। हमारा दृष्टिकोण ही स्वयं सत्य - असत्य का निर्णय कर लेता है। छोड़ो उसे। आप कुछ पूछना चाहते थे।”
“हमारे मध्य चर्चा चल रही है। आपने भी सुनी होगी।”
“कैसी चर्चा? क्षमा करना, मैं आपकी चर्चा को सुन नहीं पाया।”
“ऐसा कैसे हो सकता है? आप यहीं हो, आपकी उपस्थिति में ही हम चर्चा कर रहे थे। आपने कैसे नहीं सुना?”
“हाँ, मैं था तो यहीं तथापि कहीं और था। क्या आप अपना प्रश्न मुझे बता सकते हो?”
“एक पक्ष कहता है कि मनुष्यों का मोक्ष होता है। दूसरा पक्ष कहता है कि मोक्ष जैसा कुछ भी नहीं होता। आपका क्या विचार है?”
“मोक्ष? कौन जानता है कि मोक्ष क्या है? यह सब अत्यंत दार्शनिक एवं गहन विषय वस्तु है। किंतु यह सर्व विदित है कि यदि मोक्ष है तो वह मनुष्य की मृत्यु के उपरांत ही प्राप्त होता है।”
“मृत्यु से पूर्व मोक्ष कहाँ सम्भव?”
“जिसने मृत्यु प्राप्त कर ली उसे मोक्ष मिलेगा या नहीं?”
“वह तो वही व्यक्ति बता सकता है जो मृत्यु को प्राप्त कर चुका है।”
“मृत व्यक्ति कैसे बता सकता है?”
“आज तक किसी मृत व्यक्ति ने नहीं बताया कि उसे मोक्ष मिला है या नहीं।”
“तो जीवित व्यक्ति भी कैसे बता सकता है?” उत्सव ने कहा।
“ऐसे में क्या करें? शास्त्र क्या कहते हैं?”
“शास्त्र कहते हैं कि मृत्यु से पूर्व जीवन होता है। होता है ना?” उत्सव ने तर्क रखा।
“हाँ, होता है।” सभी ने एक साथ कहा। 
“वह जीवन के हम सभी साक्षी हैं। किंतु हम में से कौन जानता है कि जीवन क्या है? क्या हमने जीवन को जाना है? जीवन को पूर्ण रूप से जिया है? जीवन का पूर्ण आनंद लिया है?”
“नहीं। हम तो मृत्यु के विचारों में, मोक्ष की अभिलाषा में ही जीवन व्यतीत कर रहे हैं।”
“और वाराणसी आकर मोक्ष को प्राप्त कर लेंगे ऐसी भ्रमणा पाल लेते हैं।”
“तो हमें क्या करना चाहिए?”
“जीवन की प्रत्येक क्षण का आनंद लेना चाहिए। सुख में भी, दुःख में भी।”
“ऐसा एक सन्यासी कह रहा है? “
“हाँ।”
“आपने संसार क्यों त्याग दिया?”
उत्सव के लिए यह प्रश्न अनपेक्षित था। उसे तत्काल उसका उत्तर नहीं मिला तो वह स्मित देकर मौन हो गया। इस प्रश्न का उत्तर स्वयं के भीतर खोजने लगा।
“आपने उत्तर नहीं दिया, महाराज।”
“क्या आप सभी मथुरा जा रहे हो?” उत्सव के इस प्रश्न का उत्तर सभी ने ‘हाँ’ में दिया।
“तो मथुरा पहुँचने से पूर्व आपके प्रश्न का उत्तर दूँगा।”
“जैसा आप उचित समझो।” 
उत्सव मौन हो गया। बाहर गति करते प्रतीत हो रहे, स्थिर पदार्थों को देखने लगा। अपने भीतर उस प्रश्न का उत्तर खोजने का प्रयास करता रहा। गाड़ी चलती रही। उत्सव ने आँखें बंद कर ली।सहयात्री अपनी प्रवृति करते रहे। 
कुछ समय पश्चात एक यात्री ने धीरे से कहा, “बड़ा सन्यासी का भेष पहने हुआ है किंतु ज्ञान तो कुछ है ही नहीं।”
“ऐसे ही ढोंगी लोग साधु बन जाते हैं।”
“और उसके पश्चात उसके पास यह भी उत्तर नहीं कि वह क्यों संसार त्यागकर साधु बन गया।” ऐसी अनेक बातें करते रहे सहयात्री। वह यह मान रहे थे कि उत्सव सो चुका है। उत्सव सोया नहीं था, केवल आँखें बंद कर रखी थी। सभी की बातें सुनकर वह मन ही मन हँसता रहा। 
समय के एक पड़ाव पर गाड़ी मथुरा के समीप आ गई। उत्सव कृष्ण के विचारों से उत्साहित था। तभी किसी ने पूछा, “महाराज, अब तो मथुरा आने वाला है। आपने प्रश्न का उत्तर देने का वचन दिया था।”
“मुझे स्मरण है मेरे वचन का।”
“तो कहो, आपने संसार क्यों त्याग दिया है?”
“जीवन को बचाने के लिए मैंने संसार त्याग दिया था।”
“तो अब जीवन की बातें क्यों कर रहे हो?”
“जो भी शेष है उस जीवन को जीने के लिए।”
“तो आप क्या सन्यास का त्याग कर रहे हो?”
“सन्यास भी जीवन ही है। उसका त्याग क्यों करूँ?” 
“तो जीवन कैसे जी सकोगे?”
“मृत्यु से पूर्व सभी क्षण जीवन ही है।”
“किंतु यह सन्यास ….?”
“जो जीवित है उसका जीवन होता है। क्या सन्यासी, क्या संसारी। सन्यासी का कोई जीवन नहीं होता क्या? यदि जीवन के अर्थ को जानते होते तो यह प्रश्न नहीं करते।”
किसी के पास प्रतितर्क नहीं था। 
गाड़ी मथुरा स्थानक पर रुकी। सभी गाड़ी से उतरने की प्रवृति में व्यस्त हो गए। उत्सव भी उतर गया।