मैं तो ओढ चुनरिया
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गाङी धीरे धीरे सरकती हुई प्लेटफार्म पर आ लगी । सहारनपुर स्टेशन आ गया था । उंघते हुए लोग चैतन्य हो गये । यात्रियों में पहले उतरने की होङ लग गई । उधर चढने वाली सवारियां अलग जल्दबाजी में थी । जैसे तैसे हम लोग नीचे उतरे । मन हो रहा था कि जल्दी से जल्दी माताजी और पिताजी के पास पहुँच जाऊँ ।
काश मैं कोई पंछी होती तो पंख फैला कर आकाश में उङ जाती और घर पहुँच जाती । पर ऐसा कैसे होता । मैं एक भले घर की बेटी थी और अब किसी की ब्याहता तो धीरज से काम लेना था । इसलिए खुद की भावनाओं पर काबू पाया पर आँखें आँसुओं से इस कदर डबडबाई हुई थी कि रास्ता दिखाई नहीं दे रहा था ।
स्टेशन से बाहर आकर हमने साइकिल रिक्शा लिया । सौभाग्य से वह आदमी पिताजी के मरीज रहे थे । प्यारे से महेंद्र चाचा । उन्होंने बङे प्यार से मेरे सिर पर हाथ फेरा – चलो बिटिया , हम ले चले । घर छोङ आएं ।
हमें सच में ऐसा लगा , जैसे पिताजी ही स्टेशन पर लेने आ गए हों ।
मैं तो उछल कर रिक्शा पर बैठ गई । सामान रिक्शा में लादा गया । हम दोनों रिक्शा में बैठे । भाई पीछे टब में खङा हो गया । रिक्शा कचहरी रोड से होता हुआ जोगियां पुल और फिर पुरानी चुंगी आया । वहाँ से डोडेबाज प्यारे चाचा की दुकान से हमने मिठाई बंधवाई ।
अब तो पाँच मिनट का ही रास्ता बाकी रह गया था । पुलिया तक तो सही से आ गये । उसके बाद का दो मिनट का रास्ता हमने दस मिनट में पार किया । पुल से ही कोई न कोई जान पहचान का मिलता रहा ।
सब रिक्शा रोकते । गले मिलते । सिर पर हाथ रखते । हाल पूछते तब हम आगे जाते । ये वह जमाना था जब एक की बेटी पूरे मौहल्ले की बेटी होती थी और सारे मौहल्ले के लोग चाचा ताऊ , बुआ या भाई भाभी । सारा परिवेश एक परिवार होता था । सबके सुख दुख साझे होते थे । गली में आया दामाद सबका दामाद होता था और साला सबका साला ।
खैर जैसे तैसे करके हम आखिर घर पहुँच ही गये । माँ और पङोसन मामियां दरवाजे पर हमारा इंतजार कर रही थी । माँ ने चौखट पर तेल ढाला । हमारी आरती उतारी । माथे पर रोली का तिलक लगाया । मुँह जुठा कर घर के भीतर लाई । मामियां बार बार गले लगाती । देर से रोके आँसू इतना प्यार पाकर गालों तक बह आए थे । पिताजी ने महेंद्र चाचा को सवा रुपया दिया तो उन्होंने हाथ जोङ दिए – नहीं डाक्टर साब , बिटिया को घर लाने के पैसे मैं नहीं लूंगा । ये मेरी भी बिटिया है ।
भाई बोहनी का टाईम है ।
न जी , बेटी के पाँव रिक्शा पर पङ गए तो सारा दिन बरकत रहेगी ।
वे घंटी टुनटुनाते आगे बढ गए ।
ऐसा करो – तुम लोग नहा धो लो । रात भर का सफर था । बैठने के लिए भी ढंग से जगह नहीं मिली होगी । मैं गरमागरम नाश्ता परोस देती हूँ । नहा कर नाश्ता करके थोङा आराम कर लेना । शरीर खुल जाएगा ।
मैंने देखा था – इनके घर में तो सब बैडटी लेने के आदी हैं । सुबह सुबह हाथ मुँह धोकर पहले चाय पीते हैं फिर कोई काम करते हैं तो माँ से कहा – मैं नहाने जा रही हूँ , तब तक इन्हें चाय का कप दे दो । साथ में कुछ मत देना , खाली चाय ही देना ।
ऐसे कैसे ? खाली चाय कौन पीता है वह भी इतनी सवेरे निरने कालजे ।
माँ की बात का मैं क्या जवाब देती , चुपचाप तौलिया उठा कर गुसलखाने में घुस गई । नहा कर वापस आई तो देखा – माँ ने चाय के साथ दो तरह के बिस्कुट , दो तीन तरह की नमकीन की कटोरिया लगाई हुई हैं । मुझे देखते ही शिकायत के सुर में बोली – इसने तो एक भी बिस्कुट नही लिया , न नमकीन ।
मैंने कहा तो था माँ कि सुबह सुबह ये लोग चाय खाली ही लेते हैं ।
वह भी बिना नहाए धोए ।
हाँ
मैं बिना रुके बाल बनाने भीतर कमरे में चली गई । पिताजी अपनी पूजा में थे । आज उन्होंने अपनी पूजा दस मिनट में ही पूरी कर ली वरना तो एक घंटे से कम समय क्या ही लगता होगा । जैसे ही कमरे में आए , मेरा सारा संयम बह गया । मैं भाग कर उनसे चिपक ही तो गई । पिताजी की आँखों से आँसू बहने लगे । ये जिंदगी में पहली बार थी , जब मैं पाँच दिन उनसे दूर रही थी । करीब पाँच मिनट मैं उनके गले से लगी रही । आखिर जब इनका ध्यान आया तो अलग हुई । पिताजी भी बेहद भावुक हो गये थे । बार बार तौलिए से अपनी आँखें पौंछ रहे थे । मैं मंदिर गई । ठाकुर जी को प्रणाम किया । दुर्गा स्तोत्र का पाठ कर नीचे आई तो कांता मामी ने आलू के परांठे बना लिए थे । थाली में डाल रही थी
ले लाडो , ये थाली जीजाजी को पकङा दे और ये जमाईराज को ।
मामी मौहल्ले के नाते से पिताजी से घूंघट करती थी । कभी बात नहीं करती थी । मैंने थाली पकङ ली ।
लाओ पिताजी को दे देती हूँ । ये तो नहा लें फिर देंगे ।
मैंने एक थाली ले जा कर पिताजी को पकङाई और अटैची से इनके कपङे निकाल कर पलंग पर रखे ।
नहा लो , नाश्ता तैयार हो चुका है ।
तब तक सामने वाले गुड्डू भाई ने गुसलखाने में दोनों बाल्टी भर दी थी ।
चलिए जीजाजी पानी भर दिया है , नहा लीजिए ।
नहाने धोने से निबटकर हमने नाश्ता किया । यकीन करना , इतने स्वाद आलू के पराठे न पहले लगे थे न कभी बाद में । दही के साथ मैं तो चार पराठे खा गई ।
मामी ने चुहल की – लगता है , ससुराल में पाँच दिन खाने को कुछ नहीं दिया गया । सास ने भूखा रख लिया ।
मैंने नजरें झुका ली । कैसे कहती कि मामी सच कह रही हो , मैंने सचमुच वहाँ कुछ नहीं खाया ।
खाना खा कर आराम के लिए लेटी तो आँखों से नींद गायब हो गई । दस मिनट लेट कर मैं उठ बैठी और दुकान पर पिताजी के पास जा बैठी । वहाँ पिताजी से छोटी छोटी बातें करती रही । मरीजों से ढेर सारी बातें की । वहाँ से भीतर आई तो माँ नाश्ते के बाद रसोई धो संवार कर अब दोपहर के खाने के लिए सब्जी काट रही थी ।
लाओ मैं काट दूँ ।
रहने दे , यह तो हो जाएगा । तू आराम कर ले । - माँ ने थाली परे सरकाते हुए कहा ।
अभी तो नींद नहीं आ रही । फिर मैं सहेलियों से मिल आती हूँ – कहते कहते मैंने पैर में माँ की चप्पल फंसाई और यह जा वह जा ।
दो घंटे इधर उधर घूम कर सबसे मिल कर जब मैं वापस आई तो कृष्णा मौसी सब्जी छौंक रही थी ।
ये क्या रानी बेटी , मैं तो तुझ से मिलने आई थी । तू कहाँ घूम रही है ।
यहीं थी मौसी , तुम कैसी हो ।
दोपहर का पूरा खाना मौसी ने ही बनाया और मनुहार कर करके खिलाया । शाम को हम सिनेमा देखने गये । इनके लिए यह हैरानी की बात थी कि सहारनपुर में तब चौदह थियेटर थे । जबकि कोटकपूरा में अभी पहला सिनेमाघर बन रहा था और फरीदकोट में इकलौता थियेटर था जिसमें ज्यादातर पंजाबी फिल्में चला करती थी ।
अगले दो दिन हमने हर रोज दो दो फिल्में देखी । एक दिन हम मसूरी घूमने भी गये । इनकी छुट्टियां अब खत्म होने को थी ।
बाकी फिर ...