---------मनहूस " मंज़िले " पुस्तक की सब से श्रेष्ठ कहानी है।
चलती हुई ट्रेन की टक टक थक थक... चल सो चल थी। कभी पटरी से ट्रेन के पहिये घिसते हुए टक टक टक करते गुज़ रहे थे.... शायद कोई छोटा सा स्टेशन होगा, छूट गया... चादर थी काली रात की जैसे मसया हो... चाद डूब गया, आज जैसे भूल ही गया, सच मे, कोई खो गया लगा जैसे कोई चाद का, बहुत कुछ, हक़ीक़त मे, खुदा किसी से न करे ऐसा, कया था... एक टीस उठी, एक वेदना उठी, " मेरा भी बाप होता " सोचा एक छोटे युवक ने, निसंदेह था। बाप के होते बेटे को कोई शायद चिंता नहीं होती, सच मे... सभी ख़याल बाप के परिवार प्रति निस्वार्थ होते है। हकीकत मे, भूल जाना किसी को कही अच्छा थोड़े लगता है। माँ के साथ ट्रेन मे मेरा पहला सफर था। ट्रेन की वही "ठक ठक थक थक" भागी जा रही थी ¡! रात का सफर शायद थकावट वाला था। नींद थी पर आ नहीं रही थी, भूख थी, खाना खा नहीं हो रहा था...कयो ? पता नहीं कयो ? मुझे माँ का फ़िक्र था, वो दड़ास लगा के बैठी थी, जैसे मेरे बारे कुछ सोच रही हो।
तारीख थी, माँ ने भुक्तन करना था। मैंने माँ से पूछा था, " माँ ये तारीख कया होती है " माँ ने कहा था, " ये मनहूस होती है, बेटा बंदा जिदे जी डूब जाता है, सब खत्म हो जाता है। " मैं चुप कर जाता था.. " अच्छा, ये मनहूस कया होता है। " मै चुप ही था। आख़री स्टेशन दादरी था, हम उतरे।
टेक्सी, रिक्शा, पता नहीं कया कया था... लम्मी लम्मी सडके, सुबह होने मे टाइम था, शहर वाले सोते नहीं है।
" माँ, हम कहा जा रहे है... बता दू मै दस साल का था, गांव का रहने वाला। " आज सोच कर ही बहुत दुख आता है, पता कयो, मामा की तारीख... गवाही बाप के नाम पे मामा को... " देखा जी "
माँ ने देखा हो कभी तो कहे " हाजी... बोली नहीं जी "
मामा ने मथे पे हाथ मारा... "कमबख्त बहन "
उल्टा पुल्टा.... जानी मामा सारे गुडाम खा गए... और बहन कहे नहीं... कयो अनपढ़ बाप की दलील पे।
आज मैं बीस साल का हूँ, समझता हूँ सब, वर्ष 1960 की कहानी लोग कितने भोले थे, पर क़ानून नहीं... "गुडाम से संबंध बाप का कया है... " मामा को जेल आजीवन नहीं, छे महीने, बहन को सुना जिसने भी कहानी मे सर पे हाथ मारा।--------
कितना दुख मई था वो समय मेरी माँ के ऊपर, हकीकत मे पढ़ा लिखा होना बहुत जरुरी है । कभी मामा से मैं नहीं मिला, आज मैं एक फैक्ट्री का मालिक हूँ। मेरी पत्नी है, और दो बच्चे है।
माँ है.... पिता नहीं.... मामे है, चाचे है... ना के बराबर...
मैं प्रकाश वर्मा हूँ, एक टायरो चिम्पां का हेड... ये ऑनलाइन नहीं है, भाई... समय तो देखो, 1966 का है। शेर मार्कीट थी उस वक़्त.. पर जो समय वो था, आज का समय मोबाइल मे है ----- किसी को फ़िक्र है, किसी का,
मतलब है बस फोटो का... बस फोटो....
भाई फोटो मे अमीर लगूं, वैसे मैं जो मर्ज़ी हूँ.... ये कौन जनता है...
पहले किरदार निखर ते थे, फिर फोटो ज़नाब।।
------ चलदा ----/ / / नीरज शर्मा,
/ / शहकोट, ज़िला, जलधर