स्नेहिल नमस्कार मित्रो
दो दिन हुए मेरे पास अहमदाबाद आकाशवाणी से प्रिय दीपशिखा का वाटसैप पर मैसेज आया कि उनकी मम्मी को इस उपन्यास की कहानी बहुत अच्छी लगी कटिंग के साथ!
यह 'महायोग' शीर्षक का उपन्यास 2015 में दिल्ली प्रेस से 17 अध्यायों में प्रकाशित हुआ था।
दीपशिखा हमसे बहुत छोटी हैं और जब मैं प्रिय स्व.साधना बहन (आकाशवाणी,अहमदाबाद की पूर्व निदेशक के साथ पं ब्रजभूषण काबरा जी,प्रसिद्ध 'गिटारिस्ट' के साक्षात्कार की सीरिज़ पर केन्द्र के लिए स्क्रिप्ट तैयार कर रही थी तब दीपशिखा ने आकाशवाणी अहमदाबाद में जाॅयन किया था।वह मुझसे बरसों से परिचित हैं। बहुत बरसों के बाद न जाने उन्होंने कहाँ से मेरा नं ढूँढकर मुझे आकाशवाणी में निमंत्रित किया,मैं उत्फुलित हो उठी थी।कितनी यादें जुड़ी हैं वहाँ के गलियारों से!कमरों से!
आकाशवाणी में बहुत बदलाव आ चुके थे। साधना बहन रिटायर हो चुकीं थीं,मैं अपनी बहुत क़रीबी सखी मंजरी गौतम को खो चुकी थी।जिन कमरों में बैठकर हम ठठाकर हँसते थे। चाय के दौर चलते,विभिन्न नाश्ते की महक कैंटीन में पसरी रहती। हम लोग कैंटीन पहुँचते और कैंटीन वाले भाई गर्मागर्म भजिए(पकौड़े)तलने लगते। मैं उन दिनों पी.एचडी कर रही थी और गुजरात विद्यापीठ पास होने के कारण कभी भी आकाशवाणी का रुख हो जाता।वहाँ से कुछ देर में तो उठने का सवाल ही नहीं होता था।बच्चों को घर पर छोड़कर आती थी तो घर वापिस बच्चों के स्कूल से आने से पहले पहुंचना पड़ता। वे ज़िंदगी भरे खिलखिलाते कमरे अब चुप्पी साधे हुए थे जैसे पहचानते ही न हों।
एक सकारात्मक बात यह थी कि साधना बहन उन दिनों अमेरिका में थीं और लगातार वहाँ जो काम कर रहीथीं उसके बारे में,अपने बेटे की विदेशी पत्नी के बारे में संवाद, तस्वीर साझा करती रहीं थीं।
वैसे तो स्वास्थ्य बाहर निकलने की इज़ाज़त नहीं देता किंतु इस दीपावली पर मित्रों से मिलने बड़ी मुश्किल से मन को मनाकर, शरीर को संभालकर दिल्ली के लिए निकल ही पड़ी जहाँ कुछ दिनों बाद ही मुझे प्रिय दीपशिखा का चौंकानेवाला फ़ोन मिला कि साधना बहन अपनी महायात्रा पर निकल चुकी थीं। मैं बिलकुल नहीं जानती थी कि साधना बहन अहमदाबाद वापिस आ चुकीं थीं।उनसे मिलना भी नहीं हो सका था। मन उदासी से भर उठा लेकिन वही है न कि हमें पल भर की ख़बर नहीं और हम विचरण करते हैं न जाने कितने लंबे बरसों की योजनाओं में! मन में उदासी पसर गई।
प्रिय दीपशिखा! अब दो दिन पूर्व के तुम्हारे मैसेज ने और तुम्हारी मम्मी ने इतने वर्ष पुराने उपन्यास का ज़िक्र करके मुझे प्रसन्नता और बहुत बड़ा पारितोषिक दे दिया।
मैं कोई इतनी बड़ी लेखिका तो हूँ नहीं कि मुझे लोग याद रखें लेकिन मैं इस कटिंग को देखकर वाकई मन से आनंदित हुई।इस पुरानी स्मृति के साथ न जाने कितनी स्मृतियों के चित्र मेरे समक्ष आकर ठिठक गए।
कुछ स्मृतियाँ ऐसी होती हैं जो दिल में फँसकर रह जाती हैं।बस, इनके साथ जुड़कर हम कभी-कभी अपनी ज़िन्दगी के पन्ने पलटकर कुछ समय के लिए एक तसल्ली सी पा जाते हैं।
ज़िंदगी!
याद करते हुए तुझे
छलकने लगती हैं आँखें
धुंधली होने लगती हैं राहें
कभी-कभी एक कोने से
झाँकते कुछ लम्हे
ले जाते हैं खींचकर
और खटखटाने लगते हैं
बंद द्वार
जिनमें से
छनकर आती है
लकीर सी रोशनी!!
सस्नेह
आप सबकी मित्र
डॉ. प्रणव भारती