मुक्त -----उपन्यास की दर्द की लहर मे डूबा सास भी भारे छोड़ ता जा रहा था युसफ का मार्मिक ---------
( 4)
युसफ आज समझा था, जिंदगी के मायने... हर कदम इम्तेहान लेता है, सब्र टूट गया था।
आँखे भरी हुई थी... फट जाने को थी। भविष्य डगमगा रहा था। बोल नहीं हो रहा था, स्वर दबा दबा था, बारीक़ लहरे टूट रही थी। खुदा की कायनात मे लहजा एक ही था ... सुख और दुख। दुख सोचने मे लम्मा चलता है, सुख कब आया पता ही नहीं चला। हम रम जाते है सुख मे... तो कम लगता है... काटे चुभते है, कितना दर्द देते है। बेहिसाब, दर्द अहम भाग ही कयो होता है। " दबे से अलफ़ाजो मे, दर्द बयान करना बहुत मुश्किल है।
टूटना तारो का जैसा ऐसे होता है कभी उचाई से, जैसे दिल टूट जाना... दिया बुझ जाता है, बस ऐसे ही, कभी बिन हवा के, ' ---------" आँखो मे आंसू भरे हुए थे। " बोल नहीं होता था। " हमारा करीम ही नहीं कह सका ... " मन इतना भरा था, बस जो इतना कल खुश था,
आज वो इतना दुखी था... पूछो मत। कोई अल्फाज़ बोल ही नहीं हो रहा था।
वो घुटनो के बल बैठा , भरी आँखो को पोंछने की बजाए... छोड़ रहा था, बुद बुद उसके हाथों पे गिर रही थी... वो उसके किये कर्म को सजदा कर रहा था... आज उसका मन नहीं टिक रहा था... वो जल्दी उठा...
शाम की लाईट जल चुकी थी.. वो उनी बलबो की रौशनी मे अंदर ही अंदर टूट रहा था... और धीरे से सीढ़ी उतर रहा था... घुमाव दार सीढ़ी सिमट और पथर की कटाई से बनी हुई, आज उसे पता नहीं कयो अच्छी नहीं लग रही थी। फिर उसने उतरते हुए सोचा था, " सब खाक है, मिटी है, इसे मे मिल जाना है ------' मन का अथा दर्द था।'
एकाएक जैसे कोई उसकी टागो से कोई लिपट गया। वो घबरा सा गया। कौन था, "ओह, दरवेश ( कुत्ता ) ---अब्बा का दुलारा।" एक दम से रुक गए उसके कदम.... पता कयो, अब्बा का खून था... युसफ खान... वो कह रहा था, " अब्बा नहीं है, अब, मै हूँ, उस कारज साज ने दुनिया बनाई, हम बने.. शुक्र करो। " कैसे उससे खेलता था, ज़ब अब्बा सँग उसे साथ जाने की अनुमति मिलती थी, तब वो खूब खेलता था.... उसका नाम कुछ भी नहीं रख पाया था.. वो... अब्बा की ढेरों स्मृतिया थी... वहा पे... एक टूटी हुई चपल थी... खास चमड़े से बनी हुई... आज युसफ देख के चुप सा था... सकून मे था.. पता कयो... उसे जैसे सकून मिल गया हो, अब्बा साथ है।
दरवेश के साथ मे जैसे उसका खालीपन पूरा हो रहा था। उसके पास कुछ जलेबी नुमा भाजी थी, जो उसने दरवेश (डागी ) को डाल दी थी। सब्र अटूट आ गया हो जैसे। फिर वो घर की और धीरे धीरे चल पड़ा था...सत्य और यकीन एक अटूट बधन एक भाव, बस मालक उस परमात्मा को पाने का........
घर की दहलीज़ तक आ गया था। किंवाड़ किसने खोला उसने ध्यान नहीं दिया। बस वो कमरे मे चला गया.. कंधे पे साफा था, सिर पे टोपी... लाम लशकर कया था अदव, बस।
(चलदा ) नीरज शर्मा,
शहकोट, जलधर।