मुक्त -----उपन्यास की दूसरी किश्त....
(2)
सोचने से अगर कुछ हो जाए, तो हो जाना चाइये। नहीं होता, वही है जो खुदा का निर्धार्त किया हुआ होता है। कहानी चलती है.... रंग बिरंगे पतग हवा मे उड़ रहे है... आसमान मे कोई टावा बादल है.. जो गहरा जरूर है... बरस जाने को.. धुप साफ निकली हुई, शहर और गांव की ईमारतो को लिश्का रही थी। कितना भावक किस्म का चित्र बन रहा था। पहाड़ी छेत्र था, हरयाली थी। उबड़ खबड़ रास्ते थे, कितना पथर ही पथर विछा हुआ था... खुशक हवाओ को कैसे झेले , बेकार सा सोचना वही की जनता का आखिर तक का सिनसिला था।
मुझे ये सोच के अचम्बा हुआ कि आज सामने जो शॉप है हलाल की बंद थी... वहा जयादा बीमार पशु कटे जाते थे उनका मीट लोग ले जाते हुए दिखे थे। उट अक्सर बीमार हो जाते थे... धीरे से काटना एक बार तो आदमी हिल जाता था। रात भी खुशक थी... चल जो भी था। शेरवानी वाली दुकान खुली थी... युसफ खान ने वही शॉप पे एक पठानी कुरता और सलवार टाइप कपड़े खरीद किये थे, उसकी सलाई की थी.. और टहलता हुआ आ रहा था। आज खुश था। आज उसका पहला कल से दिन था.... बाग देने को, मस्जिद मे.... सब तकलीफो का अंत.... जिक्र खुदा की बदगी मे खुदा का, वो खुश था.. कितना ही... जैसे सितारे चमक रहे हो ----" ये बाप ने उसको अब चाबी सौंप दी थी... वो आने वाले राह मे अचानक रुक गया था।
सामने से हमीद आ रहा था वो उसे देख कर ख़ुश हुआ,
-----" आओ हमीद, ये बाहे मेरी तुझे गलवकड़ी मे लेने को आतुर है " हमीद उसके गले लगा, कस कर जैसे कोई गुनाह हो तो माफ़ पहले हो जाए। " सनाओ अजीज कैसे हो " हमीद ने खुशी मे पूछा। फिर रुका, पूछा, " अबा जान कैसे है " युसफ ने कहा " ठीक है " फिर पूछा " दवाई से फर्क है, मिया " युसफ ने उसके हाथ मे आपना हाथ पकड़ा, और चल दिए, एक पहाड़ जैसी कुंदरा मे, " वो एक सुंदर घर था। जिसकी सीढ़ी दरवाजे के साथ ही ऊपर छत को जाती थी... घरोदा प्यारा सा.. वो छत पर ही गए। लडके जो जवा भी थे, वो भी पतंग उड़ा रहे थे, बूढ़े पापा जी धुप मे थे बैठे, दिसबर की ठंड थी... पर कुछ बादल ढक रहे थे, पहाड़ो को, गांव को, कारण कुछ अचूक वातावरण की ठंड थी। धुप खुशक थी।
" आज सच बोलने का कुछ साहस किया " हमीद ने उसके कुर्ते को दाद दी। " तुम शादी करने के लिए राजी नहीं हो, मैंने सुना है। " हमीद ने पूछा।
"---हाँ -- वो जो चाहता है वैसा ही होता है।" युसफ ने बात जल्दी खत्म करनी चाही।
"धुप तेज और खुशक है ---" अबा तुम ठीक बैठे हो।
अबा जान ने कहा "आओ बेटा तुम्हे कुछ पुछ तो लू "
"हाँ जरूर अबा जान बताहिये कया जान ने वाले है आप " चुप अबा हस पड़ा।
"शादी से इतने कतराते कयो हो, कया महसूस किया है, किसको ऐसे देख लिया कि वो दुखी है, आखिर कया कारण है। " अब्बा ने कितने सवाल ऐसे गिरा दिए जैसे पथर....
" मै ने कहा नहीं,अब्बा जान, नहीं, बस मन उठ गया है--- " फिर युसफ रुका " खाक सार है हम सब.... " अब्बा को उसने हैरत मे जवाब दिया। अब अब्बा चुप था।