N.G.O. in Hindi Short Stories by अशोक असफल books and stories PDF | एन.जी.ओ.

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एन.जी.ओ.

'सुबह जब चिड़ियाँ बोल रही थीं, वे पीसफुली सो रहे थे। और वह थकान और जगार से उनींदी बिस्तर में एक अप्रतिम सुख से सराबोर सोच रही थी कि अब शायद वह एक ऐसी स्त्री बन जाय जो उनसे संबंध बनाए रखकर भी अपने परिवार में बनी रहे। अपनी संतान को अपने नाम से चीन्हे जाने के लिए संघर्ष करे। शायद उसे सफलता मिले! परिस्थिति-वश एक सामाजिक क्रांति के बीज उसके मन में उपज रहे थे। और फुलझड़ी से झड़ते चेहरे में तमाम पौराणिक स्त्रियों के चेहरे आ मिले थे...।

वातावरण निर्माण के लिए स्थानीय स्तर पर कलाजत्थे बना दिए गए थे। जिन्हें नाटक और गीत सिखाने के लिए मुख्यालय पर एक प्रशिक्षण शिविर लगाया गया। प्रशिक्षु उसे दीदी कहते और आकाश को सर। वे लोग रिहर्सल में पहुँच जाते तो जोश में फैज और सफदर के गीत गाने लगते। ऐसे मौकों पर दोनों भावुक हो उठते, क्योंकि दिल से जुड़े थे।जब प्रत्येक टीम के पास प्रशिक्षित कलाकार हो गए तो उन्हें उनका स्थानीय कार्यक्षेत्र दे दिया गया। यानी हरेक टीम को अपने सर्किल के आठ-दस गाँवों में नुक्कड़ नाटक व गीतों का प्रदर्शन करना था। कलाजत्थों, कार्यकर्ताओं व ग्रामसमाज के उत्साहवर्धन के लिए उन्हें प्रतिदिन कम से कम पाँच-छह गाँवों का दौरा करना पड़ता।और एक ऐसे ही प्रदर्शन के दौरान जिसे देखते-सुनते वे दोनों ही भाव विभोर हो गए थे। नेहा आकाश के कंधे से टिक गई थी और वे रोमाँचित से उसी को देख रहे थे, किसी फोटोग्राफर ने वह पॉज ले लिया! और वह चित्र उसे एक खबर प्रतीत हुआ, जो उसने एक स्थानीय अखबार में छपा भी दिया... जबकि उस क्षण वे लोग अपने आप से बेखबर, लक्ष्य को लेकर अति संवेदित थे!बाद में उस अखबार की कतरन एक दिन आकाश ने नेहा को दिखलाई तो वह तपाक से कह बैठी, -यह तो मृत है, जिसे देखना हो, हमें जीवंत देखे!”वे अवाक रह गए।पापा ने भी वह चित्र कहीं देख लिया होगा! वे कॉलोनी को जोड़ने वाली पुलिया पर बैठे मिले। माँ दरवाजे पर खड़ी। भीतर घुसते ही दोनों की ओर से भयानक शब्द-प्रताड़ना शुरू हो गई। वही एक धौंस, -कल से निकली तो पैर काट लेंगे! बाँध कर डाल देंगे! नहीं तो काला मुँह कर देंगे कहीं! बिरादरी में कमी नहीं...। ज्यादा जल्दी हो, और ज्यादा ज्वानी फटी हो तो हाँक देंगे किसी अंगूठाछाप, निठल्ले, काने-कुबड़े के संग, सो होश ठिकाने लग जाएंगे!”और उसी क्षण जरा-सी जुबानदराजी हो गई तो पापा यानी पुलिस ने क्रोध में रंडी तक कह दिया!...कल रात भी वह देर से लौटी थी। माँ ने दरवाजा जरूर खोला, पर कोई बात नहीं की। सुबह आँख खुली तो छोटी की हालत बद्तर! कुछ दिनों से उसके पेट में अपेंडिसाइटिस का जानलेवा दर्द होने लगा था। आखिर उसने माँ के फूले हुए चेहरे को नजरअंदाज कर धीरे से कहा, रिक्शा ले आती हूँ।”सुनकर माँ ने कौड़ी-सी आँखें निकालीं, बोली कुछ नहीं। नेहा सिर खुजला कर रह गई।छोटी की तड़प और तेज हो गई तो, उसने तैयार होकर उसे अकेले दम ले जाने का फैसला कर लिया। तब माँ ने अचानक गरज कर कहा, केस बड़े अस्पताल के लिए रैफर हो गया है!”वह निशस्त्र हो गई। आँखों में अचानक बेबसी के आँसू उमड़ आए।-पापा?” उसने मुश्किल से पूछा।-गए, उनके तो प्राण हमेशा खिंचते ही रहते हैं,” वह बड़बड़ाने लगी, हमारी तो सात पुश्तों में कोई इस नौकरी में गया नहीं। जब देखो ड्यूटी! होली-दीवाली, ईद-ताजिया पर भी चैन नहीं... कहीं मंत्री-फंत्री आ रहे हैं तो कहीं डकैत खून पी रहे हैं!”जबकि पहले वह ऐसी नहीं थी। न पापा इतने गुस्सैल! भाई मोटर-एक्सीडेंट में नहीं रहे, तब से घर का संतुलन बिगड़ गया। फिर दूसरी गाज गिरी पापा के सस्पेंड होकर लाइन अटैच हो जाने से...।पुलिस की छवि जरूर खराब है। पर पुलिस की मुसीबतें भी कम नहीं हैं। एक अपराधी हिरासत में मर गया था। ऐसा कई बार हो जाता है। यह बहुत अनहोनी बात नहीं है। कई बार खुद के डिप्रेशन वश और कई बार सच उगलवाने के चक्कर में ये मौतें हो जाती हैं। राजनीति, समाज और अपराधियों के न जाने कितने दबाव झेलने पड़ते हैं पुलिसियों को। पापा पागल होने से बचे हैं, उसके लिए यही बहुत है। बेटे की मौत का गम और दो कुआँरी बेटियों के कारण असुरक्षा तथा आर्थिक दबाव झेलते वे लगातार नौकरी कर रहे हैं, यह कम चमत्कार नहीं है। कई पुलिसकर्मी अपनी सर्विस रिवॉल्वर से सहकर्मियों या घर के ही लोगों का खात्मा करते देखे गए हैं। माँ तो इसी चिंता में आधी पागल है! नेहा की समाजसेवा सुहाती नहीं किसी को।और वह सुन्न पड़ गई। आकाश रोजाना की तरह लेने आ गए थे!क्षेत्र में ट्रेनिंग का काम शुरू हो गया था। वे दोनों 'की-पर्सन' थे। मास्टर ट्रेनर प्रशिक्षण हेतु जो सेंटर बनाए गए थे उन पर मिलजुल कर प्रशिक्षण देना था। आकाश सुबह आठ बजे ही घर से लेने आ जाते।-क्या हुआ?” उन्होंने गर्दन झुकाए-झुकाए पूछा।-सर्जन ने केस रीजनल हॉस्पिटल के लिए रैफर कर दिया है...” उसने बुझे हुए स्वर में कहा।-पापा?” उन्होंने माँ से पूछा।पर उसने मुँह फेर लिया।...आकाश एक ऐसी सामाजिक परियोजना पर काम कर रहे थे, जिसे अभी कोई फंड और स्वीकृति भी नहीं मिली थी। मगर प्रतिबद्ध थे, क्योंकि परिवर्तन चाहते थे। क्षेत्र में उन्होंने सैकड़ों कार्यकर्ता जुटाए और साधन निहायत निजी। सभी कुछ खुद के हाथपाँव से। जिसके पास साइकिल-बाइक थी वह उससे, और आकाश ने एक पुरानी जीप किराए पर ले रखी थी। शहर से देहात तलक सब लोग मिलजुल कर एक परिवार की तरह काम कर रहे थे। उन्होंने सभी को गहरी आत्मीयता से जोड़ रखा था। पर नेहा की माँ अक्सर उनका विरोध किया करती। परीक्षा से पहले वह एक युवा समूह का नेतृत्व अपने हाथ में लेकर बिलासपुर चली गई थी, उसे वह मंजूर था। उसके जम्मू-कश्मीर विजिट पर भी माँ ने कोई आपत्ति नहीं जताई! पर आकाश के संग गाँवों में फिरने, रात-बिरात लौटने से उसे चिढ़ थी...।नेहा मन ही मन प्रार्थना कर उठी कि वे यहाँ से चुपचाप चले जायँ। मगर उन्होंने परिस्थिति भाँपकर साथ चलने का निर्णय ले लिया और माँ यकायक ऋणी हो गई...।नेहा खुश। बहुत खुश।जरूरत का छोटा मोटा सामान जीप में डाल कर, बैग में जाँच के परचे रख वह घरेलू कपड़ों में ही चलने को तैयार। उन्होंने माँ को आगे बैठाया, बहन उसकी गोद में टिका दी। ड्रायवर से बोले, गाड़ी सँभाल कर चलाना, धचके नहीं लगें।”दरवाजे पर ताला जड़ वह उड़ती-सी पीछे जा बैठी। जीप स्टार्ट हुई तो वे भी बगल में आ बैठे। शहर निकलते ही कंधे पर हाथ रख लिया, जैसे सांत्वना दे रहे हों!सहयोग पर दिल भर आया... जबकि, शुरू में उनके साथ जाना नहीं चाहती थी। जीप लेने आती और वह घर पर होते हुए मना करवा देती। क्योंकि शुरू से ही उसका उनसे कुछ ऐसा बायाँ चंद्रमा था कि एक दिशा के बावजूद वे समानांतर पटरियों पर दौड़ रहे थे...।तकरीबन तीन साल पहले आकाश जब एक प्रशिक्षण कैंप कर रहे थे, वह अपने कोरग्रुप के साथ फाइल में छुपा कर उनका कार्टून बनाया करती थी। उनकी बकरा दाढ़ी और रूखा-सा चेहरा माइक पर देखते ही बोर होने लगती। और उसके बाद उसने एक कैंप किया और उसमें आकाश और उनके साथियों ने व्यवधान डाला... न सिर्फ प्रयोग बल्कि विचार को ही नकार दिया! तब तो उनसे पक्की दुश्मनी ही ठन गई। जल्द ही बदला लेने का सुयोग भी मिल गया उसे! हुआ यह कि एक संभागीय उत्सव में प्रदर्शन के लिए आकाश को उसकी टीम का सहारा लेना पड़ा था। और वह कान दबाए चुपचाप चली तो गई उनके साथ, पर एक छोटे से बहाने को लेकर ऐंठ गई और बगैर प्रदर्शन टीम वापस लिए चली आई! वे वहीं अकेले और असहाय अपना सिर धुनते रह गए।फिर अली सर ने कहा, नेहा, सुना है तुम आकाश को सहयोग नहीं दे रहीं, यह कोई अच्छी बात नहीं है!”वे उसके जम्मू-कश्मीर विजिट के गाइड, नजर झुक गई। उनके निर्देशन में राजौरी तक कैंप किया था। वह उनका सम्मान करती थी। मगर उन्होंने दो-चार दिन बाद फिर जोर डाला तो उसने उन्हें भी टका-सा जवाब दे डाला, माफ कीजिए, सर! मैं खुद से अयोग्य व्यक्ति के नीचे काम नहीं कर पाऊंगी!”बस, यहीं मात खा गई, वे बोले, तुम जाओ तो सही, धारणा बदल जाएगी,” उन्होंने विश्वास दिलाया, नीचे-ऊपर की तो कोई बात ही नहीं... यह तो एनजीओ है- स्वयंसेवी संगठन! सभी समान हैं। कोई लालफीताशाही नहीं।”नेहा अखबारों में उनकी प्रगति-रिपोर्ट पढ़ती...और सहमत होती जाती। और आखिर, उस संस्था में तो थी ही, समिति ने उसे उनके यहाँ डैप्यूट भी कर रखा था! परीक्षा के बाद खाली भी हो गई थी। सिलाई-कढ़ाई सीखना नहीं थी, ना-ब्यूटीशियन कोर्स और भवन सज्जा! फिर करती क्या? साथ हो ली।...जीप इंडस्ट्रियल ऐरिया के मध्य से गुजर रही थी। हॉस्पिटल अब ज्यादा दूर न था। लेकिन छोटी दर्द के कारण ऐंठ रही थी। माँ घबराने लगी। आकाश ने ड्रायवर से कहा, गाड़ी और खींचो जरा!” नेहा खामोश नजरों से उन्हें ताकने लगी, क्योंकि चेसिस बज रही थी। गाड़ी गर्म होकर कभी भी नठ सकती थी।-कुछ नहीं होगा! उन्होंने चेहरे की भंगिमा से आश्वस्त किया तो, पलकें झुका लीं उसने।वापसी में अक्सर लेट हो जाते। तब भी गाड़ी इसी कदर भगाई जाती। और गर्म होकर कभी कभी ठप्प पड़ जाती तो सारी जल्दी धरी रह जाती! उसे लगातार वही डर सता रहा था। मगर इस बार जीप ने धोखा नहीं दिया। बहन को कैज्युअलिटी में एडमिट करा कर सारे टेस्ट जल्दी जल्दी करा लिए। दिन भर इतनी भागदौड़ रही कि ठीक से पानी पीने की भी फुरसत नहीं मिल पाई। रात आठ-नौ बजे जूनियर डॉक्टर्स की टीम पुनर्परीक्षण कर ले गई और अगले दिन ऑपरेशन निश्चित हो गया तो थोड़ी राहत मिली।वे बोले, चलो, जरा घूमकर आते हैं।”उसने माँ से पूछा, कोई जरूरत की चीज तो नहीं लाना?”उसने 'न' में गर्दन हिला दी। माथे पर पसीने की बूँदें चमक रही थीं। किंतु उसकी परेशानी को नजरअंदाज कर वह आकाश के साथ चली गई।चौक पर पहुँच कर उन्होंने पावभाजी और डिब्बाबंद कुल्फी खाई। असर पेट से दिमाग तक पहुँचा तो रोशनी में नहाई इमारतें दुल्हन-सी जगमगा उठीं। चहलकदमी करते हुए वे फव्वारे के नजदीक तक आ गए। बैंचों पर बैठे जोड़े आपस में लिपटे हुए मिले। माहौल का असर कि कोई अजानी प्यास, आकाश से अनायास सटने लगी...! और उन्हें अच्छा लगने लगा। जानते थे, प्रेम एक एहसास है जो दिमाग से नहीं दिल से प्रकट होता है। और इसमें अनेक भावनाओं व अलग-अलग विचारों का समावेश परिस्थिति-जन्य होता है...। प्रेम स्नेह से शुरू होकर धीरे-धीरे एक मज़बूत आकर्षण और निजी जुड़ाव की ओर ले जाता है। फिर यह भावना जो अपरिमित खुशी देती है, सबको भूलकर उसके साथ जाने को प्रेरित करती है, कि जिसके साथ हर कोई जा नहीं पाता! सो, समय रहते वे चेते और आँखों में आँखें डाल विनोदपूर्वक कहने लगे, 'योगी किस कदर ध्यान-मग्न बैठे हैं!'लाज से गड़ गई कि - आप बहुत खराब हैं!'फिर उसे वार्ड में छोडकर वे अपने मित्र के यहाँ रात गुजारने चले गए। वह तब भी उन्हें आसपास महसूस करती रही। मानो, करीब रहते-रहते भावनात्मक संक्रमण हो गया था। उनकी आवाज, ऊष्मा और उपस्थिति हरदम मँडराती थी सिर पर।...सुबह वे जल्दी आ गए, सो तत्परता के कारण दुपहर तक ऑपरेशन निबट गया। छोटी का स्ट्रेचर खुद ही धकेल कर ओटी तक ले गए और वापस लाए। हड़ताल के कारण उस दिन कोई वार्ड बॉय न मिला था। दुपहर बाद अचानक बोले, -नेहा! अब मैं रिलैक्स होना चाहता हूँ! तुम्हें कोई जरूरत न हो तो चला जाऊँ?”वे अपने स्थानीय मित्र के यहाँ जाने के लिए कह रहे थे, शायद! बहन को फिलहाल न दवाइयों की जरूरत थी और न जूस की। नाक में नली पड़ी थी और प्याली में उसका पित्त गिर रहा था। नेहा को कपड़े धोने थे, कुछ इस्त्री करने थे। जल्दीसल्दी में गंदेसंदे और मिचुड़े हुए ही रख लाई थी।उसने माँ से पूछा, मम्मी, दो घंटे के लिए मैं भी चली जाऊँ सर के साथ?”और वे लाचारी से देखती रहीं। पति होते तो मजबूत होतीं। कपड़े उसने बैग में ठूँसे और बछड़े की तरह रस्सा तुड़ाकर भाग खड़ी हुई।बाहर आते ही आकाश ने इशारे से स्कूटर बुलाया और वे लोग मुस्तैदी से उसमें बैठ गए। काम की फिक्र में ड्रायवर को सुबह ही गाड़ी समेत वापस भेज दिया था। समिति के दूसरे लोगों को लेकर वह फील्ड में निकल गया होगा!कैंपस निकलते-निकलते वे एक प्रस्ताव की भाँति बोले, 'अपन चल तो रहे हैं,' थोड़े हँसे, 'क्या-पता, बिजली पानी की किल्लत हो वहाँ!' फिर ऊँचे स्वर में ऑटोचालक से कहा, "यहाँ आसपास कोई लॉज है, क्या?”उसने गर्दन मोड़ी, आँखों से बोला- है!-चलो, किसी लॉज में ही चलो...।” आकाश ने नेहा को देखते हुए कहा। पर उसके तईं जैसे, कुछ घटा ही नहीं! घर हो या लॉज, उसे तो एक बाथरूम से मतलब था। जब तक वे रेस्ट करेंगे, कपड़े धो लूँगी! लेकिन काउंटर पर आकर रिसेप्शनिस्ट ने पूछा, 'सर! साथ में वाइफ हैं?' तो वह सकुच गई और वे भीतर ही भीतर मुस्करा उठे। रिसेप्शनिस्ट ने चाबी पकड़ा दी और चल दिये तो नेहा फिर सामान्य हो गई - दुनिया है!' पर परिस्थिति इतनी सहज नहीं थी, यह उसे रूम में आकर पता चला! बाथरूम की ओर जाने लगी तो वे हाथ पकड़ हाँफते से बोले, 'नेहा, थोड़ा तो रेस्ट कर लो! बाद में धो लेना...।'उसने तब भी यही सोचा कि मेरी खटपट से नींद में खलल पड़ेगा, इसलिए ऐसा बोल रहे हैं!' सफेद चादर पर बेड का किनारा पकड़ कर लेट गई कि- झपक जाएँगे तो खिसक लूँगी!'लेकिन झपकने के बजाय वे उसकी ओर सरक कर कुछ बुदबुदाए जो वह सुन नहीं पाई, तो अकस्मात बाँहों में भरकर चूमने लगे। अब, उसके तईं तो यह कतई अप्रत्याशित घटना थी...। हलक सूख गया। न प्यार उमड़ा न उत्तेजना, बल्कि डर लगने लगा। और वह रोने लगी...। मगर उसके ताप और स्पर्श से निरंकुश हो चुके आकाश के लिए अब खुद को रोक पाना मुमकिन नहीं था। वे उसके आँसू पीते हुए बोले, 'पहली दफा थोड़ी घबराहट होती है... डरो नहीं!' जबकि इस कहर से भयभीत वह एकदम निस्तेज पड़ गई थी। अपनी बोल्डनेस उसे आज सचमुच महँगी पड़ गई थी। घबराहट में सूझ नहीं रहा था कि करे तो क्या! जबकि वे घबराहट मिटाने के बहाने दिल की जगह उरोज सहलाते तेजी से उसे अपनी गिरफ्त में लिये जा रहे थे! बहुत हिम्मत जुटाकर रुँधे गले से कहना भी चाहा कि- भाई-सा, आप ये क्या कर रहे हैं!' पर हाँफते हृदय के कारण मुँह से केवल हवा निकल कर रह गई, जिसे उन्होंने प्यार में निकला उच्छ्वास समझा और तब ओठ भी ओठों में भर लिये!डर से दिल बैठ चुका था और जब वह खुद को छुड़ाने की हिम्मत खो बैठी थी तभी सहसा अभियान का एक गीत जेहन में गूँज उठा:'अबला नहीं सबल्ला है तू, शक्ति का नाम ही नारी है, धर्म-अधर्म का पाठ पढ़ाती, सब दुष्टों पर भारी है...गृहणी बन घर स्वर्ग बनाती, दुर्गा बन दिल दहलाती, सत्य असत्य का बोध कराती, राह सदा दिखलाती है...बहुत हुआ अब और नहीं, कुंठा का यह दौर नहीं...'और मानों विस्फोट हो गया! नेहा झटके से उन्हें परे धकेल, बैग कंधे पर टाँग, गेट फटाक से खोल, तेजी से सीढ़ियाँ फलाँगती नीचे उतर आई। फिर तनिक-सी 'आपे' की राह देख, पैदल ही सरपट अस्पताल की ओर चल पड़ी। भीतर जैसे, हडकंप मचा हुआ था।तब कुछ देर में वे भी पीछे-पीछे आ गए। और साथ चलते हुए कातर स्वर में कहने लगे, 'नेहा-आ! प्लीज, ऐसी नादानी तो मत दिखाओ... तुम मेच्योर हो, पढ़ी लिखी... रिलेक्स-प्लीज!'उनका गला भर आया था, 'मैं तो सोच रहा था कि दो दिन से बड़ा स्ट्रेस था, तुम भी रिलेक्स फील करोगी...'पर उसने रुख नहीं मिलाया। न एक शब्द बोली। गर्दन ताने सामने देखती हुई, सरपट दौड़ती-सी चलती रही...।तब उन्हें डर लगा कि जा के मम्मी को न बता दे...लेने के देने न पड़ जाएं कहीं! ये तो नाहक होम करते हाथ जले... नियति ने उन्हें गिड़गिड़ाने को मजबूर कर दिया, 'देखो, आज की दुनिया में कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं है जिसको तनाव न होता हो। तुम्हें पता है कि हम लोग भी एक ऐसे ही घातक दौर से गुजर रहे हैं! ...यों तनाव का होना सामान्य बात है पर तनाव का हद से गुजर जाना खतरनाक हो जाता है। तनाव जब रोजमर्रा की जिंदगी पर छा जाए तो... शायद तुम समझ नहीं रहीं जबकि खुद भी शिकार हो...' वे पछताते से बोलते रहे, फिर खामोश पड़ गए।वार्ड में आकर आकाश दयनीय और बीमार से गैलरी में ही चादर बिछा कर लेट गए। लेकिन नेहा को अब वे शत्रु सूझ रहे थे। चाह रही थी कि आँखों से ओझल हो जायँ। क्यों- उन्होंने एक लड़की को अपनी मर्जी की चीज समझ लिया! उसका जमीर उन्हें धिक्कार रहा था।...रात ग्यारह, साढ़े ग्यारह बजे के लगभग आकाश की तबीयत काफी बिगड़ गई। वे भयानक डिप्रेशन के शिकार हो रहे थे। नेहा का अस्वीकार उन्हें खाए जा रहा था। अब तक उसके पापा भी आ गए थे। आकाश ने खुद को सँभालते हुए उनके सामने ही उससे पूछा, “अब मैं लौट जाऊँ, सुबह ड्रायवर को भेज दूँगा?”"जैसी मर्जी।” उसने उपेक्षा से कहा। और वे अपना बैग उठा, हार्टपेशेंट की तरह घबराहट में डूबे निकल गए वार्ड से। उनके जाते ही नेहा खुद को स्वस्थ महसूस करने लगी।पापा उनके इस तरह चले जाने को लेकर काफी चिंतित हो गए थे। उनके इस भोलेपन पर नेहा ग्लानि से गड़ी जा रही थी। क्योंकि वे पापा ही थे जो उसके लेट हो जाने पर घर के बाहर या और भी आगे कॉलोनी को जोड़ने वाले रोड की पुलिया पर रात दस-ग्यारह बजे तक बैठे मिलते। चेहरा गुस्से से तमतमाया होता, पर मुँह से एक शब्द नहीं निकालते। उस पर यकीन भी था और उसे पुरुषों के समान अवसर देने का जज्बा भी। माँ अक्सर विरोध दर्ज कराती कि वह वापसी में लेट न हुआ करे, अन्यथा यह काम छोड़ दे! मगर उसकी मनोदशा तब काम छोड़ देने की रही नहीं थी। जिस दिन साथ नहीं जा पाती, किसी काम में मन नहीं लगता। खाना-पीना, रहना सब कुछ उन्हीं के साथ भला लगने लगा था...।...अगले दिन जब अस्पताल में झाड़ू-पोंछा चल रहा था, ड्रायवर बाहर गैलरी में आकर खड़ा हो गया। वार्ड की जाली से उसने देखा- वह एक शिष्ट लड़का, उसे दीदी कहता और मानता भी। मुस्कुरा कर उसे आश्वस्त कर दिया उसने। शाम तक वे लोग प्राइवेट वार्ड ले उसमें घर की तरह रहने लगे। रात में सभी सो गए तो ड्रायवर ने उसे एक बंद लिफाफा दिया।आकाश ने यही कहा था...।नेहा ने सुबह तक नहीं खोला। मगर सुबह वह उसी को पढ़ने के लिए अस्पताल के पार्क में चली गई। हृदय संताप से भरा हुआ था। इच्छा न रहते हुए भी उसने लिफाफा खोल लिया और उसमें रखी स्लिप निकाल कर पढ़ने लगी...।आकाश ने लिखा था, मैं अपराधी हूँ। यह एक तरह का अपमान है, बल्कि स्त्री-हत्या! मगर इस कृत्य के लिए तुमने मुझे मानसिक रूप से तैयार कर लिया था!'और उसे याद आया कि तारीखें जुदा थीं तो क्या संयोग से दोनों का जन्मदिन एक ही महीने में पड़ता। वे अपने ग्रुप को किसी न किसी बहाने सेलिब्रेट किया करते थे। बड़े उत्साह से कार्यकर्ताओं के जन्मदिन मनाए जाते। सभी एक-दूसरे को छोटे-बड़े उपहार देते। सहभोज होता और गाना-बजाना भी। डायरी में सभी के जन्म दिनांक उन्होंने पहले से टाँक रखे थे। दिसंबर आया तो एक माकूल शुक्रवार देख आकाश ने घोषित कर दिया कि - आज दीदी का जन्मदिन मनेगा।'- सर का भी तो!' उसने जोड़ा।लोग मगन हो गए। दो-तीन जीपों में भरकर सब नदी तट पर पहुँच गए जो कोहरे की चादर में लिपटी पड़ी थी। वहीं केक काटा, वहीं नाचे-गाए! आकाश ने तो एक स्वरचित गीत भी गाया:'चाँदनी में नहाई हुई थी नदी, पेड़ सोए पड़े थे वहॉं... साऽथ लेकर तुम्हें मैं गया था जहाँ...' और पहली बार वह एक ऐसा अवसर था जब बाहर की सर्दी से बचने वह उनसे सटी-सटी डोल रही थी। इसे भाँप जब आकाश ने कहा कि- अरे, सर्दी से तुम्हारे तो नाखून नीले पड़ गए!' तो उसे सचमुच कंपकंपाहट महसूस होने लगी। तब आकाश ने सबकी उपस्थिति में ही उसकी हथेलियाँ मलीं और देर तक हाथ हाथों में दबाए गर्म करते रहे। अच्छा लगता रहा और उसने तब तक नहीं छुड़ाए जब तक उन्होंने खुद नहीं छोड़ दिये। तब वह इतनी पग्गल थी कि जो वे कहते- अरे! सर्दी से तुम्हारे तो ओठ तक नीले पड़ गए!' और उन्हें ओठों से गर्म करते तो करवा लेती...। केक काटने और एक-दूसरे को खिलाने के बाद दोनों ने एक-दूसरे को उपहार दिए। आकाश ने उसे एक नायाब सलवार सूट तो उसने उन्हें एक खूबसूरत हैट और रेजर! इस पर वे मुस्कराने लगे, क्योंकि दाढ़ी बनाते नहीं, क्रीम कराते थे! स्लिप लिफाफे में वापस डाल उसे अपने सीने के अंगवस्त्र में छुपा लिया उसने। ...और आज इतने दिनों बाद माथा ठोकते सोचा कि- देखो तो, नादानी में क्या दे बैठी थी! उनकी जगह कोई और होता तो अगले दिन ही दाढ़ी बनाकर आ जाता...।...अपने साथ घटी इस दुर्घटना को कदाचित भूल जाती वह, लेकिन आकाश को किसी करवट चैन न था। दिन तो भागदौड़ में किसी तरह कट जाता, मगर रात उन पर भारी पड़ जाती। मम्मी ने कई बार पूछा भी:-लगता है, तू किसी बड़े टेंशन में हैं?” जब से नताशा नहीं रही, वे उन्हें लेकर चिंतित रहने लगी थीं। पर वे हर बार टाल गए। उन्हें क्या बताते कि- बेशक अपने दुर्बल चरित्र के कारण इस दुर्घटना के दागी हुए हैं, पर यह उनके द्वारा प्रायोजित न थी।जून की दुपहर में जब शार्टकट के चक्कर में ड्रायवर जीप को एक धूल भरे मैदान से निकाल रहा था, उन दो के सिवा गाड़ी में और कोई कार्यकर्ता न था, वे आगे ही ड्रायवर और उसके बीच बैठे थे, सूरज आसमान में, किरणें धरती पर चमक रही थीं; कि टायर अचानक गड्डे में चला गया! और जीप ऐसा जोर का हिचकोला खा गई कि नेहा झटके से डेशबोर्ड की ओर झूल गई और हड़बड़ाहट में उन्होंने हत्थे की जगह उसकी गोलाई पकड़ ली! मगर भान होते ही सकपका कर छोड़ दी और ड्रायवर पर खिसियाने लगे, कैसे चलाते हो, ऐं- ऐं?” फिर सॉरी बोलने नेहा की ओर गर्दन मोड़ी तो अचंभित रह गए- वह खिड़की की जानिब मुँह किये धीरे धीरे हँस रही थी।पाँच साल पहले नहीं रही नताशा उस रात सपने में बिस्तर पर आ गई। आकाश ने दोनों मुट्ठियों में उसकी गोलाइयाँ भर लीं। फिर हाथ उसके अधोवस्त्र में डाल दिया जो चिपचिपा गया और वे, अरे राम! कह उठ बैठे। फिर दुबारा सोए तो नताशा की जगह नेहा आ गई! हाथ ने फिर उसकी गोलाई थाम ली। क्योंकि हाथ वह गर्म-गुदगुदा स्पर्श भूला नहीं था।वापसी में अक्सर रात हो जाती। जीप में बैठ आँखें मूँदते ही वह सिर उनके बाएं कंधे से टिका लेती और तब तनिक देर में ही उनका बायां हाथ उसकी गर्दन के पीछे से निकल बाएं कंधे पर पहुँच जाता...। देह सटते-सटते, अनजाने में ही देह को चाहने लगी थी! ...तीन-चार दिन बाद वे विवश से फिर अस्पताल पहुँच गए।  छोटी के पलंग और सोफे के बीच फर्श पर जो जगह खाली थी, उसी पर चटाई डाले नेहा सो रही थी। मम्मी बाथरूम के अंदर। पापा और ड्रायवर का अतापता नहीं! आकाश ने झुककर उसकी कलाई छू ली, आँखें टुक से खुल गईं। फिर देखते ही देखते उनमें चमक भर गई।थोड़ी देर में माँ बाथरूम से निकल आई। आकाश पर नजर पड़ते ही रैक से परचा उठाती बोली, ये इंजेक्शन आसपास कहीं मिल नहीं रहा।”परचा उन्होंने हाथ से ले लिया। उठते हुए बोले, चलो नेहा! चौक पर देख लें, वहाँ तो होना चाहिए?”वह जैसे, उपासी बैठी थी! चुन्नी बदल कर झट साथ हो ली।बाहर निकलते ही बातें होने लगीं, आवाज में चहक भर गई।चौक पर स्कूटर से उतरते ही इंजेक्शन उन्हें पहली दुकान पर ही मिल गया। लेकिन आकाश उसका हाथ थाम लगभग दो फर्लांग तक पैदल चलाते हुए एक रेस्तराँ में ले गए। जैसे दो पल पास बिठा विगत दुर्घटना के प्रति माफी मांगनी हो! वे जानते थे कि माफ़ी मांगने के लिए सबसे पहले तो अपनी गलती स्वीकार करनी चाहिए, खेद व्यक्त करना चाहिए, अपने कृत्य की जिम्मेदारी लेनी चाहिए...। जिसे आपने भावनात्मक चोट पहुंचाई है, उसके आहत मन के प्रति सहानुभूति रखना और पश्चाताप प्रदर्शित करना जरूरी है। अव्वल तो इसलिए भी कि जिस रिलेशनशिप के लिए मानसिक तौर पर वह तैयार न थी, उसकी कोशिश ही नहीं करनी थी..। यूँ सामान्यतः रिलेशन में दो लोग एक-दूसरे के करीबी तो हो जाते हैं पर रिलेशन को रिलेशलशिप तक पहुंचाने यानी शारीरिक रूप से जोड़ने मानसिक तैयारी जरूरी है। और बिना इस तैयारी के अकस्मात और जबरन कोशिश तो अपने साथी के साथ बड़ा आघात, महा पाप ठहरा...।नाश्ता करते बराबर सोचते रहे कि माफीनामा अब पेश करें, अब... लेकिन माकूल शब्द सूझे ही नहीं तो नाश्ते के बाद मद्धिम स्वर में हठात पूछ बैठे, क्या पियोगी, गन्ने का जूस कि दही की लस्सी?'सुनकर मुस्करा दी, जैसे कहती हो, अभी जूस की जरूरत नहीं, लस्सी ही ठीक है! और तब लगा कि अब कुछ भी न कहें, शब्द बेमानी हैं। दही की लस्सी पीकर चुपचाप उठ लिए। फिर रास्ते में बताया कि- आप लोगों के चले आने से कैसी कठिनाई आ रही है! जीप तो जैसे तैसे हैंडल कर ली, पर जो महिला संगठन सुस्त पड़ रहे हैं, उन्हें सक्रिय नहीं कर पा रहे।”उस तनाज़े के बाद इस मुलाकात का फल यह निकला कि उसे अस्पताल छोड़कर वे लौटने लगे तो वह अवश-सी उन्हें अकेले जाते हुए देखती रही...।पहले उसे समझ में नहीं आता था कि वे इतने बेचैन और उद्विग्न क्यों हैं! जबकि हम यथास्थिति में मजे से जिए जा रहे हैं! लोग तीज-त्योहारों, खेलों, प्रवचनों-कुंभों में इतने आनंदित हैं। और यह सुविधा हमें लगातार मुहैया कराई जा रही है!'वे कहते - हमारी मूल समस्या से ध्यान हटाने की यह उनकी नीतिगत साजिश है। समाज को नशे में बनाए रखकर वे अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं।'एक दिन मुश्किल से कटा। दूसरे दिन उसने ड्रायवर से कहा, 'तुम्हें पता है, अपने क्षेत्र में आज पर्यवेक्षक आ रहे हैं!''सर ने बताया तो था एक बार... पर उन्होंने मुझे यहाँ छोड़ रखा है! कोई और इंतजाम कर लिया होगा!''हाँ, कर लिया है,' वह मुस्कराई, 'गाड़ी खुद चलाने लगे हैं! कभी उसका गीयर निकल जाता है, कभी सेल्फ नहीं उठता... पचते रहते हैं!''अरे!' वह आश्चर्यचकित-सा देखता रह गया। उनके गाड़ी चलाने लगने से एक कौतूहल मिश्रित खुशी उसके भीतर नाच उठी थी। उसने कहा, 'अपन लोग चलें वहाँ! छोटी दीदी की हालत में अब तो सुधार है, मम्मी-पापा हैं-ही...।'वह जैसे इसी बात के लिए उसका मुँह जोह रही थी! पहली बार पापा से मुँह खोलकर बोली, 'आप देखते रहे हैं, हम लोगों ने कितनी मेहनत उठाई है! यही समय है, जब अच्छे से अच्छा प्रदर्शन कर हम प्रोजेक्ट को आगे ले जा सकते हैं...।'उन्होंने बेटी की आँखों में गहराई से देखा। वहाँ शायद, आँसू उमड़ आए थे! बीड़ी का टोंटा एक ओर फेंकते धीरे से बोले, 'चली जाओ,' फिर बीवी को कसने लगे, 'इससे कहो, रात में अपने घर जाकर सोए!'उसे बुरा लगा। सिर झुका लिया तो आँसू बरौनियों में लटक गए।...लेट होने पर माँ प्रायः बखेड़ा खड़ा कर देती। कभी कभार जुबानदराजी हो जाती तो राँड़, रंडो, बेशर्म कुतिया तक की उपाधि मिल जाती! मगर अगले दिन पैर फिर उठ जाते। माँ देखती, हिदायत देती रह जाती। ऐसे वक्त निकलती जब पापा घर में नहीं होते। गाड़ी समिति के दूसरे लोग मॉनीटरिंग वगैरह के लिए ले जाते तो साइकिल से ही आसपास के गाँवों में चली जाती। एक भी दिन खाली नहीं बैठती। नेहा को बच्चा बच्चा जानता। चहुँओर से नवजात पिल्लों की तरह दुम हिलाते, दौड़े चले आते! औरतों के चेहरे खिल जाते। लड़कियाँ जोर से गा उठतीं, देश में गर बेटियाँ मायूस और नाशाद हैं...” किसान-मजदूर सभी उत्साह से भर उठते। कोई कहता, बोल अरी ओ धरती बोल, राज सिंहासन डाँवाडोल!” कोई कहता, “इसलिए राह संघर्ष की हम चुनें...” तब वह खुद भी गुनगुनाती हुई आगे बढ़ जाती, ले मशालें चल पड़े हैं लोग मेरे गाँव के!”...बैग में वापसी योग्य सामान ठूँसकर ड्रायवर के साथ बस में बैठ अपने नगर चली आई। भाग्य से रिक्शा आकाश की जीप से बीच राह टकरा गया। वह किलक कर अपनी जगह पर आ बैठी। ड्रायवर अपनी जगह। वे पर्यवेक्षकों की अगवानी के लिए स्टेशन जा रहे थे। नेहा को अचानक पाकर हर्षातिरेक में हाथ अपने हाथ में ले बैठे। दूसरी ओर ड्रायवर घने बाजार में चपलता से गाड़ी चला रहा था। अब वे आधे अधूरे नहीं थे। उनके स्वर में वही पहले-सी बुलंदी और दिमाग में वही तेजी मौजूद थी, जिसके बल पर कितने दिनों से एक अंतहीन बाधादौड़ दौड़ते चले आ रहे हैं।पर्यवेक्षकों को रेस्टहाउस में टिका कर वे लोग फील्ड में निकल गए और शाम तक तीन-चार गाँवों में घूम आए। कार्यकर्ता को तो उत्साह का खाद-पानी चाहिए। उन्हें पाकर वे ऐसे जोश में भर उठे कि- असेसमेंट कल हो तो अभी हो जाए! ...अब से पहले रात में वह कभी उनके घर नहीं गई थी। कपड़े गंदे हो रहे थे और उनमें अस्पताल की बू भरी थी। झिझकते देख मम्मी ने कहा, 'अलमारी बहूरानी के कपड़ों से भरी पड़ी है!'हाथ-मुँह धो तनिक संकोच के साथ आलमारी से एक नाइट सूट निकाल लिया उसने। आकाश की नजर पड़ी तो अनायास मुस्करा पड़ी, जैसे कहती हो- आप इन्हीं में तो देखना चाहते थे - हमें! फिर वे बेड पर ही खाने के लिए बैठ गए। आकाश ने अखबार बिछाते हुए कहा, 'यह रहा हमारा दस्तरख्वान!'नेहा मुस्कराती रही...। जानती थी, यूँ करीब से क़रीबतर बिठाना चाहते हैं। डाइनिंग टेबिल पर सिर नहीं जोड़ सकते-ना! मम्मी प्रसन्नता के साथ खिला रही थीं। वे पचपन-साठ की अनुभव सम्पन्न महिला, जिनकी बिन माँ की एक पोती, एक पोता था। बेटा पेशे से वकील और ख्यातनाम सामाजिक कार्यकर्ता। बहू के अभाव में घर-गृहस्थी और तीसरी पीढ़ी को सपेरने में पता ही नहीं चलता कि दिन-रात कब गुजर जाते! हठात छठी इन्द्रिय की प्रेरणा से इम्तिहान-सा लेते पूछ बैठीं, 'अच्छा नेहा, बताओ - काहे की सब्जी है?'उसने एक क्षण सोचा और किसी प्रायमरी स्टूडेंट-सी सशंकित स्वर में बोली, 'चौल्लेइया की...!'-तुम कभी धोखा नहीं खा सकतीं! वे ताड़ गईं। मगर वह पापा की हिदायत भूल गई कि रात में अपने घर से बाहर नहीं सोना! आकाश बच्चों के बेडरूम में ले आये, और वह चली आई। छोड़कर चले गए तब पता चला कि पहले मम्मी-डैडी सोते थे यहां। दिल में रातभर गुदगुदी मची रही।...सुबह वे उससे पहले उठकर फील्ड में निकल गए, तब कहीं अपने घर पहुँची! बरसात अभी थमी नहीं थी। पर जाने क्या सूझा कि सारे फर्श झाड़पोंड डाले! ढेर सारे कपड़े भिगो लिए... बेडसीट्स, चादरें, मेजपोश, कुर्सियों के कुशन और खिड़की, दरवाजों के परदे तक नहीं छोड़े! माँ होती तो कहती, जिस काम के पीछे पड़ती है, हाथ धोकर पड़ जाती है!माँ को क्या पता, उसे तो सबकुछ अच्छा लगने लगा था। अच्छा आज से नहीं, पिछली सारी ऋतुओं से। चिलचिलाती धूप में जब चेसिस आग हो जाती, इंजन धुआँ उगल उठता, आकाश से सटकर वह पसीने से ठंडक पा लेती...। इतनी बेरुखी बरतने के बाद भी उनका फिर से अस्पताल जा पहुँचना - जगाना, हाथ पकड़ घुमाना, घर ले जाना, साथ खिलाना, सुलाना... सब कुछ कितना सुखद! एक जादुई यथार्थ। जिसमें विचरण की वह आदी हो गई है! कैसे संभव है उससे निकल पाना! जिस दिन साथ नहीं मिलता, पगला जाती! कुछ भी अच्छा नहीं लगता, किसी काम में दिल नहीं लगता!...पर्यवेक्षकों ने मेप ले लिया था। वे अपनी मरजी से कुछ अनाम केंद्रों पर पहुँचने वाले थे। दुपहर तक एक अन्य जीप आ गई और वह ड्रायवर के साथ फील्ड में निकल गई। पर्यवेक्षण के आतंक में सौ फीसदी केंद्रों को सजग करना था।रात नौ-दस बजे तक वे सब लगाम खींचे घोड़ों की तरह लगातार दौड़ते रहे। मगर काम से पर्यवेक्षक इतने प्रभावित हुए कि सबके सामने ही आकाश का हाथ अपने हाथ में लेकर बोले, प्रोजेक्ट की सफलता के लिए हमें पूरे देश में आप सरीखे वॉलंटियर्स चाहिए!”-अरे!' उसके तो हाथपाँव ही फूल गए! आँखों से खुशी के आँसू छलक पड़े।वे उसे आकाश से भी अधिक महत्व दे रहे थे... क्योंकि असेसमेंट के दौरान ही एक ग्रामीण ने बड़ा अटपटा प्रश्न खड़ा कर दिया था, कि- हमारे मौजे का रकबा इतना कम क्यों होता जा रहा है?'और वह अड़ गया कि - हमें परियोजना नहीं जमीन चाहिए, पानी और बिजली चाहिए!'जाहिर है, वे राजनैतिक नहीं थे जो कोरे वायदे कर जाते... हकला गए बेचारे! आकाश ने उसे समझाना चाहा तो मुँहजोरी होने लगी। विरोध में कई स्वर उठ खड़े हुए। तब उसने बीच में कूदकर सभा में एक ऐसा प्रतिप्रश्न खड़ा कर दिया कि सबके मुँह सिल गए।उसने कहा था- 'आपकी जमीनें कोई और नहीं हमारी जनसंख्या निगल रही है! बस्तियाँ बढ़ती जा रही हैं... गाँव से जुड़ा एक छोटा-सा उद्योग ईंट भट्टा ही कितने खेतों की उपजाऊ मिट्टी हड़प लेता है! परिवार के विस्तार से ही जरूरतें सुरसा का मुख हो गई हैं जिनकी पूर्ति के लिए खुद आप लोग ही हरे वृक्ष काटने को मजबूर हैं। फिर पानी क्यों बरसेगा, नहरें और कुएँ कहाँ से भरेंगे। जरा सोचें, बिना जागरूकता के यह नियंत्रण संभव है! अशिक्षा के कारण ही सारी दुर्गति है, फिर आप जाने... पर आप क्यों जानें? आप तो प्रकृति और सरकार पर निर्भर हो गए हैं...!'आवेश के कारण चेहरा लाल पड़ गया था। सभा में सन्नाटा खिंच गया।वापसी में पर्यवेक्षक उसे अपनी कार में बिठाना चाह रहे थे। उन्होंने उत्साहित भी किया कि - प्रोजेक्ट के बारे में वह उन्हें अपने अनुभव सुनाए जिससे वे दीगर क्षेत्र के कार्यकर्ताओं को लाभान्वित कर सकेंगे!” ऐसी बातों से आत्मविश्वास काफी बढ़ गया था। पर अपने सर को छोड़कर इस वक्त वह कहीं जाना नहीं चाहती थी।...पर्यवेक्षकों की रवानगी के बाद वे केंद्र प्रमुख के यहाँ भोजन के लिए गए। जहाँ कम से कम आधे गाँव की औरतों ने घेर लिया उसे! इतनी उत्साहित कि आने न दें, रतजगा करने पर आमादा! उसे भी कुछ ऐसी भावुकता ने घेर लिया कि उसी घर में पनाह ढूँढ़ने लगी। इच्छा हो रही थी कि आकाश के साथ रात भर यहीं रहकर जश्न मनाए! जैसे, जीत का सेहरा उनके सिर बाँधना चाहती थी या उनसे अपने सिर बँधवा लेना चाहती थी! मुगल-ए-आजम का वो दृश्य आंखों में झिलमिला रहा था जिसमें अकबर ने अनारकली के सिर पर अपने हाथों से ताज रख दिया था जबकि उसमें सलीम को बेहोश करने की शर्त छुपी थी!तभी किसी ने आकर बताया, 'दीदी! जीप स्टार्ट हो गई, सर उसमें बैठ गए हैं...' तो वह हड़बड़ाती-सी उत्सव गृह से निकल अपनी जगह पर आ बैठी। हृदय की उमंग उसके भीतर ही दफ्न हो रही। उसने निराशा में भरकर कहा, 'अब तो हमें उनके निर्देशन में यह आंदोलन चलाना पड़ेगा!''और-क्या!' वे कुछ और सोच रहे थे।'फिर आपके परिवर्तनकामी सोच का क्या होगा?' उसने टोह ली। उनका लक्ष्य कुछ और ही था। वे हमेशा विद्रोह की बातें करते थे।-हम वही करेंगे...' उनकी आँखें हँस रही थीं।उसने उन जैसा आत्मविश्वासी व्यक्ति नहीं देखा! मुतास्सिर हो कंधे से टिक गई तो बाँह उन्होंने गले में डाल ली! जंगल के सफर में अंतरिक्ष की यात्रा का एहसास होने लगा। दिल गा रहा था, सफर कभी बीते नहीं! मगर नदी-पुल पर आकर इंजन यकायक गड़गड़ा उठा।ड्रायवर ब्रेक लेकर बोला, 'सर! गाड़ी गरम हो रही है...'-क्या!' वह यकायक चौंक गई। बोनट से तेज भाप निकल रही थी! एक बार इसी तरह चेंबर कहीं टकरा गया था... ऑयल निकल गया और फिर इंजिन सीज!'बंद मत कर देना,' आकाश बौखला रहे थे, 'स्टार्ट नहीं होगी, फँस जाएँगे! तुमने ध्यान नहीं दिया, रेडिएटर लीक था!!''नईं-सर! वो बात नहीं है, कूलेंट गिर गया है।' महेश ने ब्रेक ले गाड़ी से उतर वोनट खोल दिया और बोतल से पानी उँड़ेलने लगा। तब उन्होंने नेहा को पीछे बैठने का इशारा कर दिया। और महेश ने दुबारा आकर स्टेयरिंग संभाला और उसे पीछे देखा तो आकाश से कहा, 'सर आप भी उधर ही निकल जायँ, इधर एक बाघ के घुस आने की खबर है!' क्षण के भीतर रात और जंगल का भय मन के अंदर घुस गया...। और आकाश बगल में आकर बैठ गए तब भी कलेजे ने काँपना न छोड़ा। तब सुरक्षा की दृष्टि से खिड़कियों और पीछे का भी पर्दा डाल लिया उन्होंने और महेश से धैर्यपूर्वक कहने लगे, 'तीसेक मिनट और खींचों जैसेतैसे, पहले तुम्हारा ही रूम पड़ेगा, रख लेना वहीं, हमलोग पैदल निकल जाएँगे।'नेहा ने घड़ी देखी। अलबत्ता, ऑटो रिक्शा भी नहीं मिलेगा! फिर ध्यान इंजन की ध्वनि पर केंद्रित हो गया। पहले जब सीज हो गया था, आकाश को पच्चीस हजार भरने पड़े। उस रात वह साढ़े तीन बजे घर पहुँची। मन हजार कुशंकाओं में फँस गया। बीच में फिर एक बार भाप तेजी से उठी तो जीप साइड में रोक पानी उँड़ेला उसने... उसके बाद ज्योंही आगे बढ़ाई कोई झाड़ी पर्दे में उलझ गई और वह ईईई करती उछल कर आकाश की गोद में आ गई। ड्राइवर ने गर्दन मोड़कर देखा पर वह अंधेरे में कुछ देख नहीं पाया, बोला, 'दीदी आप डरें नहीं, सर बगल में बैठे तो हैं! फिर बाघ हो या शेर चलती जीप पर अटैक तो नहीं कर सकता ना।'आकाश बोले, 'ऐसा नहीं है। बाघ और शेर दोनों ही जंगली जानवर हैं। उनके नेचर को समझना टेड़ी खीर है। वे आम तौर पर चलती जीप पर हमला नहीं करते, यह सच है, लेकिन अपने शिकार को पकड़ने के लिए तो चलती ट्रैन पर भी अटैक कर सकते हैं!''अरे!' सुनकर वह थरथर काँप उठी। तब आकाश ने छोटी बच्ची की तरह दोनों बाँहों में छुपा ली। मगर उसके स्पर्श और ऊष्मा से उत्तेजित होने लगे। सबसे अधिक आवेशित तो वे उसके सुकोमल नितंबों से हो रहे थे जो जीप के धचकों के कारण उनकी जाँघों की पटरियों पर फुदकते-फुदकते बीच से खुल गए थे और उनकी गहराई में उनके पतलून की जिप धँस गई थी। तिस पर मुसीबत यह कि हर धचके के बाद संभलने के लिए नितम्ब वह कसती तो जिप पहले से अधिक फूल जाती।कूलेंट का गिरना भला लग रहा था। अफसोस हो रहा था कि जल्दी पहुंच गए।शहर में घुसते ही पंजा दाईं ओर मोड़ गाड़ी ड्रायवर के कमरे की ओर मुड़वा दी उन्होंने। थोड़ी देर में वह रूम के आगे इंजन बंद कर पूछने लगा, 'स-र! साइकिल निकाल दूँ?'उन्होंने एक पल सोचा और हाँ में सिर हिला दिया। और वह खुशी में नहाया साइकिल निकाल लाया तो वे पैडल पर पाँव रख सीट पर बैठ गए, नेहा जम्प ले कैरियर पर।झटके से वे समझ गए कि वह लड़कियों की तरह उचक कर पैर एक ओर करके नहीं बल्कि बलिष्ठ किशोर की तरह दौड़ लगा, जम्प मार, धच्च से बैठी है पैर दोनों ओर लटका कर। जीभ खुजलाई कहने कि ऐसी मर्दानगी बिस्तर पर दिखाओ तो नताशा की पांच साल की कमी एक रात में रिकवर हो जाय! पर उसके तईं तो यह कोई अनोखी बात न थी। उसे तो इसका भान भी न था। वह तो बचपन में इस तरह पापा और भैया के साथ रोज ही जाती रही...। राह में गश्त के सिपाही मिले, वे भी कुछ नहीं बोले। उस वक्त वे फैमिली मेंबर ही लग रहे थे। मगर घर आकर उसने ताला खोला तो साइकिल उन्होंने अंदर लाकर रख ली! और वह उजबक-सी खड़ी रह गई तो गेट खुद ही जाकर बंद कर आये! तब जाकर एहसास हुआ कि वे क्या प्लानिंग किये बैठे थे!दिल इंजिन की तरह धड़धड़ा उठा।...घर सख्त हो आया था तब उसने ताजिए के नीचे से निकल कर मुराद माँगी थी। साथ के लिए, सिर्फ साथ के लिए! तब उसे खबर नहीं थी कि मुहब्बत इतनी विचित्र शह है! लाख घबराहट के बावजूद मुस्करा पड़ी, 'कान्ग्रेच्युलेशंस ऑन योर सक्सैस।''ओह! सेम-टु-यू!!' वे गहरे भावावेश में फुसफुसाए। फिर अचानक चेहरा हथेलियों में भर ओठ ओठों पर रख दिए!-आऽकाऽश...!उसका स्वर भहरा गया। जैसे, होश में नहीं थी। उसने कभी उन्हें नाम से नहीं बुलाया। हमेशा सर या भाईसाब! वे दो पल यूँ ही बाँधे रहे, जिनमें बीती बरसातें, सर्दियाँ-गर्मियाँ, माँ की जली कटी बातें और पिता का तमतमाया चेहरा सब बिला गया।घड़ी की टिकटिक दिल की धड़कन से हारने लगी तब ओठ ओठों से छुड़ाकर बमुश्किल कहा उसने, 'दो बज गए!' और वे सहमे से स्वर में पूछने लगे, 'मे आइ गो...?' तो दिल घायल परिंदे सा तड़पने लगा। देर से रुकी थी, बैग कंधे से निकाल बाथरूम के अंदर चली गई। घर में इस छोर से उस तक एक चिड़िया न थी जिसकी आड़ ले लेती! उसने सोचा जरूर कि दो पल एकांत के मिल जायँ और मैं बधाई दे लूँ! पर इतना अरण्य एकांत और क्षणों का अंबार। यह तो कुंती जैसा आह्वान हो गया! बेखुदी में फ्लश की जगह शॉवर खोल लिया। तरबतर निचुड़ उठी तो होश आया कि बदलने के लिए खूँटी पर छोटी के घिसे हुए स्कर्ट-ब्लाउज के सिवा और क्या था! देर बाद भीगी बिल्ली बनी जैसेतैसे निकली; साइकिलिंग की वजह से झरते पसीने को सुखाते वे शर्ट के बटन खोले पंखे के नीचे बैठे मिले। नजरें मिलीं तो उठकर करीब आ गए! और दिल बेशक काँप उठा मगर उन्होंने मुस्कराते हुए वदन बाँहों में भर लिया...। फिर होश नहीं कि लटें चूमते-चूमते कब उस रूम में ले आये जहाँ बैठने, बात करने, टीवी देखने के लिए सोफा; पढ़ने के लिए कुर्सी-टेबिल और आराम के लिए दीवान बेड था। सुबह से शाम तक की सारी थकान गोया एक मुश्त मिटाने उसी पर ला लिटाया!'तुमने सचमुच कर दिखाया...' कहते जैसे तारीफ में मशगूल ब्लाउज पकड़ लिया! गुदगुदी होने लगी- अंदर ब्रा न थी।'और किसी की सामर्थ्य न थी।' हाथ रख दिया स्कर्ट पर, गोया झंडा गाड़ने जमीन तलाश उठे! और वह घबरा कर यकायक चीख पड़ी, 'न-हींऽऽऽ!' गहन सन्नाटे में हठात ऐसी खौफनाक चीख सुन एकदम सहम गए आकाश...। बंधन शिथिल पड़ गया। और वह नीचे से निकल बेड से उतर कर जाने लगी तो जोर से हींड़कर पहुँचा पकड़ लिया, 'तुम चाहती नहीं क्या?'सुनकर दिल घायल हो गया। बोल गले में फंस गए, 'चाहते नहीं तो यहां तक आ पाते, आ-का...!''फिर ये दूरी क्यों...' आँसू निकल पड़े, 'जी नहीं पाएंगे, ने...' 'ओह! तुम कितने भावुक हो आकाशऽ!' आवाज लरज उठी। सीना चेहरे पर टिका भावावेश में झुक गई ऊपर। हाथ पीठ पर धर लिए। और प्यासे को पनघट मिल गया...। हाथ उठा हुक खोल लिए ब्लाउज के, और उसके कान से मुंह लगा बुदबुदाए, 'ताज्जुब कि उस दिन कैसे चौकस आ गए थे मुट्ठी में!''जाने कब से तके बैठे थे...' वह मुस्कुराई।  'अच्छा!' सुनकर मस्ती चरम पर पहुँच गई। और जैसे ततारोष में मुँह फाड़ बारी-बारी दोनों चूस उठे कस कर कि इनकी चुस्ती निकाल दें। पर यों तो वे फूलकर कुप्पा हो गए! और कुचाग्र एकदम सख्त जिनमें चिकोटी काट उठे तो उसने भी हाथ नीचे डाल प्रतिशोध में भर जिप मसल दी उनकी। और जिसके बदले में उन्होंने स्कर्ट मुट्ठी में दबोच ली, जैसे चिड़िया, तो वह दच्च से गोद में बैठ गई! तब आकाश ने उसे बाँहों में भर बेड पर डाल लिया और हँसते-हँसते उसके ऊपर आ अंग-अंग से जोड़ दिया। और वह मदहोश-सी मुस्कुरा उठी तो गोलाइयाँ मुट्ठियों में और ओठ ओठों में भर झटके से झंडा गाड़ दिया फतह का...। नेहा चीख मार जोर-जोर से कराहते, अभियान से जुड़े अपने अनुभव पर्यवेक्षकों को सुना उठी।घर उनके मिलन का चश्मदीद गवाह बन गया...। दरो-दीवार के भी कान होते हैं! वे आज नहीं तो कल मिलन की यह महागाथा परिजनों को सुनाएंगे जरूर जबकि इन प्यार के मारों को अभी यह पता न था!...लाख सजगता के बावजूद जीप खराब हो गई थी। अगले दिन लेने नहीं आई। दुपहर तक प्रतीक्षा करने के बाद वह बस से और फिर पैदल चल कर खुद स्पॉट पर पहुँच गई। क्योंकि पर्यवेक्षकों ने उस उखाड़-पछाड़ के बाद दस दिन और एनवायरमेंट बिल्डिंग की हिदायत दी थी। और आकाश ने जागृति केंद्र संयोजकों को रात में ही प्रोग्राम बनाकर दे दिया था। टीम दुपहर के प्रदर्शन के बाद तालाब किनारे वाले मंदिर पर लौट आई थी। उस दिन उन्हें खाना नहीं मिला था। गाँव में पार्टीबंदी थी। दल प्रमुख ने स्थानीय राजनीति में उलझने के बजाय शाम का प्रदर्शन निरस्त कर खाना खुद पकाने की योजना बना रखी थी। सुबह उसने टीम को गाँव की दूकानों से छुटपुट नाश्ता करवा दिया था। अब आटा, तेल, मिर्च-मसाला, सब्जी, बर्तन, ईंधन आदि का जुगाड़ किया जा रहा था। पीपल के नीचे चंद ईंटों का चूल्हा बना लिया गया था...। उसे हँसी छूटी, बोली, 'खाना मैं पका लूँगी। तुम लोग नाटक नहीं रोको।''अरे, दीदी! आप क्यों चूल्हे में सिर देंगी? छोड़ो, एक प्रदर्शन से कोई फर्क नहीं पड़ेगा! लड़के खिसियाए हुए थे।''मैं क्या पहली बार चूल्हा फूँकूँगी? कई बार गैस और केरोसिन की किल्लत हो जाती है तब अँगीठी और लकड़ी का चूल्हा तक चेताना पड़ता है। जाओ तुम लोग नाटक करो, हार नहीं मानते।' उसने समझाया।थोड़ी देर में वे राजी हो गए। शाम का नाटक वहाँ के शाला भवन में रखा गया था, जहाँ रामलीला होती, सारा गाँव जुड़ता। वह अपनी सफलता पर आत्मविभोर थी। सहायता के लिए एक लड़का उसके पास छोड़कर वे सब चले गए। शाम घिर आई थी। बिजली सदा की तरह गुल। मंदिर का दीपक उठाकर उसने चूल्हे के पास रख लिया। यह भी एक विचित्र अनुभव... इतने लोगों का खाना वह पहली बार बना रही थी। जैसे किसी शादी-समारोह में हलवाई बनी लगी हो! खूब बड़े भगौने में आलू और बैंगन मिलकर चुर रहे थे। नीचें ईंटों के चूल्हे में सूखी लकड़ी और उपले भकभक जलते हुए। पसीने से लथपथ वह बड़े से परात में आटा गूँद रही थी। दुपट्टा गले में लपेट रखा था।तभी अचानक आकाश आ गए। जैसी कि उम्मीद थी। वे दिन में नहीं आ पाए थे। तय था कि प्रत्येक टीम के पास दिन में एक बार पहुँचेंगे! इसी संबल के कारण अभियान शिखर पर था। उसे इस तरह सन्नद्ध पाकर इतने भावुक हो गए कि लड़के की उपस्थिति में ही झुककर उसके माथे की पेशानी चूम ली! यह प्यार नहीं, शाबाशी थी उसके प्रति। उसके सहयोग और प्रतिबद्धता के लिए समिति का हार्दिक आभार। उसकी जगह कोई लड़का होता तो वे उसकी ठोड़ी चूम लेते।'नाटक चालू हो गया?' उसने मुस्कराते हुए पूछा।'अभी नहीं। लड़के माइक, गैस लालटेन वगैरह चालू कर रहे हैं। पर गैस शायद निकल गई है, रेगुलेटर ढीला रह गया होगा...''बिजली क्यों नहीं है?' 'कोई बात नहीं, देखो कितनी बढ़िया चाँदनी है, पूरे चाँद की रात...' 'पर बिजली क्यों नहीं?' वह चिढ़ गई थी।'यहाँ भी ट्रांसफार्मर फुँका पड़ा है...''कब से...?''पता नहीं... रिलैक्स,' वे मुस्कराए, 'हम इसी जागृति के लिए कटिबद्ध हैं! मोक्ष और जातीय पहचान दिलाने वालों और अपन में यही फर्क है। वक्त लगेगा, पर एक बार फिर नहरों में पानी, तारों में बिजली, पाँव तले सडक, हाथ को काम, शाला में टीचर और पंचायत में धन और न्याय होगा... हमें इसी तरह निरंतर लगे रहना है, बस!'भगौने से सब्जी पकने की महक आने लगी थी। उसने ढक्कन खोला तो खदबदाहट धीमी पड़ गई। चूल्हे की लौ में, आकाश का दाढ़ी मढ़ा चेहरा ऐसा दमक रहा था, जैसे भोर के कुहासे में उगता सूरज। उसने आँखें झुका लीं, उसे यकीन है, वे यह चमत्कार एक दिन करके दिखा देंगे!चमचे द्वारा सब्जी इधर उधर पलटने के बाद उसने कहा, 'लड़कों को बुलवा कर खाना खिलवा देते, नाटक में समय लगेगा। सुबह से भूखे हैं-बेचारे!'घूम कर उन्होंने उस लड़के की ओर देखा।'बुला लाएँ सर!' आशय भाँप वह तपाक से बोला।- हाँ।' उन्होंने सिर हिला दिया और वह दौड़ गया।नेहा सँग सब्जी का भगौना उन्होंने चूल्हे से उतरवा कर नीचे रखवा दिया तो उसने उस पर तवा चढ़ा दिया और टिक्कर ठोकने लगी। सेंकने के लिए वे उकड़ूँ बैठ गए। दोनों ऐसे चौकस तालमेल के साथ काम कर रहे थे, जैसे अपने बच्चों के लिए खाना पका रहे हों! और यह बात सोचकर ही उसके मन में गुदगुदी होने लगी। चेहरे पर स्थायी मुस्कान विराजमान हो गई थी, जिसे निरखते आकाश अभिभूत थे। उस सघन मौन में वे एक-दूसरे से मन ही मन क्या कुछ कह-सुन रहे थे, खुद को ही नहीं पता! उस बेखुदी से गुजरते हुए दिल को जिस सच्चे आनंद की अनुभूति हो रही थी, उसे व्यक्त नहीं किया जा सकता, शायद!थोड़ी देर में लड़का वापस आ गया, 'स-र!' उसने दूर से आवाज दी।'क्या हुआ, आए नहीं?' आकाश बौखला गए।'सर! पब्लिक आ गई है... वे तो अब नाटक करके ही आएँगे।' उसने करीब आकर कहा।'ठीक तो है... इसमें क्या आफत?' नेहा आकाश को देखते बोली।'सर! हम भी चले जायँ!' लड़के ने निहोरा किया।'हाँ-हाँ, क्यों नहीं? सर क्या खा जाएँगे!' उसने लताड़ा।आकाश मुस्कराकर रह गए। और वह उल्टे पाँव नाटक स्थल की ओर दौड़ गया।'कलाकार को भूख-प्यास नहीं सुहाती।' गोया, उसने माफी माँगी।'अब यहाँ रसोई रखाओ!' वे हँसे।'इसमें कौन-सी आफत है!' उसने चट कहा और पट से मठिया के बगल के दालान में सामान उठा-उठा कर रखने लगी। और वे इस उठा-धराई में उसकी हैल्प करने लगे...।दालान और उसके अंदर का कमरा शायद, साधुओं की शरण स्थली, जो कभी कभार भूले भटके आ जाते हों! हनुमान जयंती और धार्मिक उत्सवों पर भजन-कीर्तन होता हो! तभी तो इतने झड़े पुँछे, पुते हुए! ताल किनारे होने से जेठमास में भी विशेष गर्मी नहीं। कमरे में अगल-बगल बड़ी-बड़ी खिड़कियाँ, दालान में तीन द्वार! हवा बे-रोक-टोक बहती हुई...।टंकी से हाथ-मुँह धोकर वह वहीं आ बैठी जहाँ आकाश पहले से बैठे थे। पेड़ों के बीच से झाँकता चाँद-तारों भरा निर्मल आकाश भला लग रहा था। पीपल की चोटी पर हनुमान जी का लाल ध्वज लहराता हुआ, जो चाँदनी के कारण श्याम प्रतीत हो रहा था।आदतन उन्होंने चुटकी ली, 'इनकी बड़ी मान्यता है...''होनी चाहिए,' वह स्वभावतः धार्मिक, तुरंत एक वैज्ञानिक कयास जोड़ती हुई बोली, 'हमारे पूर्वज हैं! आखिर हम मनुष्य वानर जाति से ही तो...''ये केशरीनंदन, पवन देव के भी नहीं, शिव जी के औरस पुत्र हैं!' आकाश मुस्कराए।'क्या-हुआ! उस युग का समाज ही ऐसा था,' उसने हमेशा की तरह उन्हें हराने की सोची, 'दशरथ का पुत्रेष्ठयज्ञ और कौरव-पांडवों की वंश परंपरा...''वही तो...' वे खुलकर हँसने लगे। और अर्थ समझ कर उसने अपनी जीभ काट ली! फिर जैसे कल सरीखे एक्सीडेंट से बचने चटाई उठाकर कमरे के अंदर चली आई, कहती हुई कि 'हमें नींद आ रही है... आप सो नहीं जाना, नहीं तो कुत्ते रसोई चट कर जाएं!' और कहने के साथ ही दिल धड़कने लगा कि कहीं वे दबे पाँव बगल में न आ लेटें, सँभलूँ तब तक दबोच लें...! कल का घाव तो अब तक पुरा नहीं...' मगर वे आए नहीं तो दिल तड़पने लगा। जैसे दालान में बैठे हिरन की नाभि में कस्तूरी बंधी थी। उठकर वह वहीं आ गई और बोली, 'अब आप जाकर सो लीजिए, हम तो सो आये।' आकाश बोले, 'इतनी जल्दी!' 'अरे यार तुम भी तो थके हो!' बगल में बैठ वह लाड़ लड़ाने लगी।और वे समझ गए, बोले, 'सामान अंदर ही रख लेते हैं, फिर निश्चिंत हो सोते हैं।'इस युक्ति पर वह उनकी बुद्धि का लोहा मान गई। चटपट सामान अंदर रखवा लिया और कोना पकड़ लेटते हुए कहा, 'कल जैसी हरकत न देना...''क्यों?' आकाश ने बगलगीर होते पूछा।'अरे-यार, कमर अब तक दुख रही है।''लाओ, दबा दें!' वे बैठ गए। फिर उसने लाख मना किया, पर कमर दबाने लगे। फिर पीठ और फिर स्तनों पर हाथ डाल दिये। तब वह फुसफुसाई, 'दर्द यहाँ नहीं हो रहा!''तो जहाँ हो रहा वहाँ दबा दें!' वे भी फुसफुसाए।'दबाने से काम नहीं चलेगा... पता नहीं, छिल गए हैं या चिर गए...बहुत दुखता है।''तो एक उपाय है,' वे उठ गए और सरसों का तेल उठा लाये, जिससे सब्जी छौंकी थी, बोले, 'यह एंटीबायटिक है। इससे आराम मिल जाएगा।' और उसने कहा, 'लाओ लगा लें,' तो बोले, 'सीधी हो जाओ, हम लगा देते हैं!' तब उसने हँसते हुए कहा, 'घाव अंदर है, आप नहीं लगा पाएंगे, उंगलियां इतनी लंबी कहाँ!' तो बोले, 'हम पर इंजेक्शन है, उसमें भर के लगा देंगे।'बदमाशी वह समझ रही थी मगर फंस चुकी थी। और फिर से उसी दर्द को लेने की इच्छा भी हो रही थी। धड़कते दिल से सलवार निकाल हँसते-हँसते सीधी हो गई। मगर उन्होंने इंजेक्शन में ऑयल भर जाँघों के बीच घुसाया तो छटपटाते हुए सी-सी कर उठी, जैसे तेज मिर्ची लग रही हो!फिर वे उसके दर्द की परवाह छोड़ पाँव पाँवों में फंसा, नितम्ब मुट्ठियों में कस आगे-पीछे करते गोया मालिश कर उठे और दर्द से उसकी सीटी बज उठी। पर चरमोत्कर्ष से पूर्व वह भी उनकी पीठ अपनी कलाइयों में कस कमर हिला उठी तो नाटक से ज्यादा मजा आने लगा। और अंत में उसके फूले उरोज चूमते हुए आकाश ने कहा कि, 'भरी जवानी में नताशा का साथ छूट गया तो हमने सोचा, ये फल अब किस्मत में बदे नहीं हैं।' तो उसने जोड़ा कि, 'बीवी भाग्यशाली की मरती है, जिससे नई मिले!''नई से क्या मतलब!' वे बोले। 'मतलब तो तुम्हीं जान रहे होंगे...' वह मुस्कुराई और बात अधूरी छोड़ दी। यह बात मौसी पापा से कहा करती थीं, 'जीजू तुम बड़े भाग्यशाली हो!...फील्ड में पहली बार रात गुजार कर लौटी तो पाया, पापा छोटी की छुट्टी करा लाए हैं! माँ और वे दोनों उसे खा जाने वाली नजरों से घूर रहे थे। बचती बचाती वह छोटी की तीमारदारी में जुट गई। जीप खराब सो, लेने नहीं आई और वह खुद हफ्ते भर घर से न निकली। मगर अगले हफ्ते मौसी का फोन आ गया!'नेहा, तुमने आज का अखबार देखा?''हाँ!''खबर पढ़ी?''कौन सी?''इसका मतलब पढ़ी नहीं!''किस पेपर में?''चंबल वाणी में।''पापा मँगाते नहीं, लोकल है ना! भास्कर आता है...''भास्कर नहीं, गुल तो इसी ने खिलाया है! तुम यहाँ आकर पढ़ लो।'लगा - जरूर कुछ अनहोनी हुई होगी! मौसी समिति में हैं। वे उसका हरदम ख्याल रखती हैं। वे आकाश का भी कम ख्याल नहीं रखतीं। उनके कहने से कान खड़े हो गए उसके...।पत्रकार ने पीछा नहीं छोड़ा था जिसने पहले चित्र छपा दिया था, सुनी सुनाई बातों के आधार पर कुछ दिनों बाद बॉक्स में झूठी खबर! और तब आकाश ने प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया से इस बात की शिकायत कर दी थी कि 'प्रकाशित समाचार द्वारा दिया गया विवरण भ्रामक एवं द्वेषपूर्ण है। समिति द्वारा नुक्कड़ नाटक दलित बस्तियों में कराए जा रहे हैं। इस बात पर नाराज प्रभुवर्ग जागरूकता अभियान का विरोध कर रहा है। इसका ज्वल्वंत उदाहरण मुकटसिंह का पुरा नामक ग्राम में दिनांक 2 जून को देखने में आया, जब कला जत्था, नाट्य प्रदर्शन ठाकुर मुकुटसिंह के दरवाजे न कर हरिजन बस्ती में करने गया। उस दिन भी नाट्य टीम पर सवर्ण जाति के युवा लड़कों द्वारा पत्थर फेंके गए एवं बाराकलाँ नामक ग्राम में दिनांक 9 जुलाई को नरवरिया एवं निम्न जाति की बस्ती में नाटक करने पर भी यही घटना घटी। कुछ लोग तो वहाँ अपने हथियार तक निकाल लाए...। कमोबेश यह वही हमला है जो स्वर्गीय सफदर हाशमी पर हुआ था।पत्रकार जो कि लोकतंत्र के चौथे स्तंभ हैं, उन्हें यह खतरा गम्भीरता से समझ लेना चाहिए। यदि समाचार लेखक एक बार भी इस अभियान को नजदीक से देख लेता तो ऐसी भ्रामक रपट न लिखता। जिला मुख्यालय की सीमा से लगे ग्राम कल्यानपुरा तक का यह हाल है कि नामचीन लोग जुए के अड्डे तथा शराब की दुकानें चलाते हैं। शोहदे दिन छुपते ही महिलाओं का दिशा-मैदान दूभर कर देते हैं। संगठन की स्थानीय महिला कार्यकर्ता शोभिका, जो कि स्वयं मूक-वधिर थी, ने गाँव की महिलाओं को संगठित कर इस निजाम के खिलाफ आवाज उठाई तो 29 दिसंबर को उसका बलात्कार कर नृशंस हत्या कर दी गई। जब कोई स्वयंसेवी संगठन स्वस्थ जनमत तैयार करने, समाज में वैज्ञानिक चेतना पैदा करने और अशिक्षा के अंधकार में भटकते रूढ़ियों, कुरीतियों, आपसी द्वेष और जातिवाद के कीचड़ में फँसे समाज को उबारने का काम कर रहा हो तब मीडिया को अपनी भूमिका खुद समझनी होगी।'तब उनकी यह ललकार सारे पत्रकारों को चुभ गई। एक साप्ताहिक ने कहकहा लगाया, 'जागरूकता अभियान या भ्रष्टाचार का अड्डा!' और विधायक ने प्रेस कान्फ्रेन्स आयोजित कर कहा, 'भ्रष्ट अधिकारियों की मिलीभगत से जागरूकता के नाम पर अय्यासी बढ़ी है...' फिर तो अखबारों ने यहाँ तक छाप दिया कि 'आकाश की गाड़ी रोज शाम शराब के ठेके पर लग जाती है!'कुशंकाओं की पोटली बाँधे वह मौसी के घर जा पहुँची। उन्होंने पूछा, 'नाश्ता करके आईं?'उसने कहा, 'नहीं।''तो आओ, पहले नाश्ता करलो...।' कहती वे रसोई में ले गईं उसे और पहले से तैयार रखे पोहे, प्लेट में परस खाने को दे दिए।नेहा ने मुसीबत के कौर निगले। पानी पीकर पूछा, 'कहाँ है चंबल वाणी, क्या छाप दिया अब, उसने?''लो, पढ़ लो!' मौसी ने छुपाकर रखा अखबार उसे पकड़ा दिया।सुर्खी पढ़ते ही हाथ पाँव फूल गए, 'समन्वयक ने अपने ही दल की महिला कार्यकर्ता से किया रेप!'निज प्रतिनिधि - 30 जून। पुरुषों का सारा मजा जबरदस्ती में है, ऐसे बहुत कम पुरुष मिलेंगे जो शादी के बाद दूसरी स्त्री पर नजर नहीं डालते। ज्यादातर तो अपने पर भरोसा करने वाली लड़कियों को ही लूट लेतें हैं, फिर वे चाहे उनकी कुलीग हों, रिश्तेदार या दोस्त! हाल ही में ऐसा वाकया फूप कस्बे के ताल वाले हनुमान मंदिर पर पेश आया जब एक पढ़ी-लिखी युवती के साथ उसी के एक साथी ने मौका लगाकर यह घटना घटा दी। घटना इसी माह गत सप्ताह 23 जून को घटी जब जागरूकता अभियान की टीम वहाँ नाटक करने गई थी। टीम के साथ अभियान के समन्वयक एवं महिला समन्वयक भी वहाँ पहुँची थी...। बता दें कि टीम जब रात में स्थानीय शाला भवन में नाटक के लिए चली गई, समन्वयक-द्वय मंदिर पर भोजन पकाते रह गए थे, जहाँ एकांत और निर्जन में पुरुष ने महिला के साथ यह घटना घटा दी। पत्र को जानकारी देते हुए जागरूकता अभियान के एक स्थानीय कार्यकर्ता ने बताया कि माकाश (काल्पनिक) और जोहा (काल्पनिक) जब वहाँ अकेले रह गए तो यह हिंसात्मक घटना घटी। ताज्जुब कि घटना समन्वयक महोदय ने घटाई जो अपने भाषण में स्त्री की अस्मिता की दुहाई देते नहीं थकते। जो यह कहते रहे कि अगर दो व्यक्ति एक दूसरे से प्रेम करते हैं और साथ रहना चाहते हैं, तो उन्हें साथ रहने की पूरी स्वतंत्रता मिलनी चाहिए, लेकिन किसी भी पुरुष को यह हक नहीं जाता कि वह बिना मर्जी के अपनी पत्नी को भी हवस का शिकार बनाए! उन्हीं ने अपनी साथिन के साथ यह दुष्कृत्य कर डाला...।चश्मदीद ने बताया कि रात 11 बजे के आसपास जब वह प्रदर्शन-स्थल पर इन दोनों को ले जाने के लिए आया ताकि उद्बोधन करा सके, तो मंदिर की कोठरी से उसे नारी-कंठ की चीख सुनाई दी। चुड़ैल के डर से पहले तो उसके पाँव नहीं पड़े मगर जब पुचकारने का पुरुष-स्वर भी सुनाई पड़ा तो कान खड़े हो गए कि हो न हो, ये दीदी और सर हैं! हिम्मत जुटाकर वह आगे बढ़ गया और उन्हें रंगे हाथों पकड़ लिया। मगर समन्वयक ने अपने प्रभाव से उसकी जुबान सिल दी। आखिर हफ्ते भर बाद उसने अखबार के प्रतिनिधि के आगे लिखित में सच्चाई कुबूल कर ली। सवाल उठता है कि महिला द्वारा जो अपने पुरुष मित्र और कुलीग से छली गई, रिपोर्ट न करने पर बलात्कारी को दंड तो नहीं मिलेगा, पर क्या नैतिक दृष्टि से यह कृत्य इन लोगों के लिए उचित है जो समाज के सामने आदर्श स्थापित कर उसे शोषण, जहालत, अंधविश्वास, असमानता, अन्याय से उबारना चाहते हैं...? स्त्री की अस्मिता की रक्षा कर उसे गरिमामयी बनाना चाहते हैं...!'नेहा ताज्जुब से भर गई। रिपोर्टर के कयास पर वह हतप्रभ थी। लड़के बुलाने जरूर आये पर वे लोग किसी आपत्तिजनक हालत में नहीं; आकाश तो दालान में बैठे मिले थे उन्हें और वह कमरे में बदस्तूर सोती हुई।...मौसी उसके चेहरे की रंगत देख रही थीं, 'आकाश ने रेप किया?' वे विचलित थीं।'न-हीं।' बोल मुश्किल से फूटा।'बताओ... इनका कैसे भला होगा!' उन्होंने बद्दुआ दी।अपने प्रति उनके इस अडिग विश्वास पर आँखें भर आईं उसकी। देर तक वे सिर पर हाथ फेरती रहीं। पर जाते-जाते सख्त, मगर नेक हिदायत दे बैठीं, 'रात-बिरात जरा दूरी बनाकर रखना! अकेले में औरत को पाकर मर्द ऑक्टोपस बन जाता है। शिकार दिखते ही उसकी सारी भुजाएँ एक साथ सक्रिय हो जाती हैं!'सुनकर जहन में कच्ची उम्र के कुछेक दृश्य-संवाद तैर हो उठे :हल्की सर्दियों के दिन। माँ की तड़प ने नींद खुलवा दी थी। उम्र में छोटी और कुआँरी मौसी उन्हें बड़ी-बूढ़ियों की तरह झिड़क रही थीं, 'यों ही हींसती हो घोड़ी-सी, तनिक सहन करो...।'रात के तीन बजे होंगे... चाँदनी दूध में नहा रही थी। लालटेन धरकर वह लॉर्ड डलहौजी वाला कठिन पाठ लिखने बैठ गई। बमुश्किल चौथे की पढ़ाई। कस्बे की रिहाइस। बिजली न अस्पताल। पर थाने के पीछे ही खूब बड़ा घर! जिसके मैदान सरीखे आँगन के पिछवाड़े एक बड़े-अनुपयोगी और बिना किवाड़ वाले कमरे में तो भूसे की छल्ली पे छल्ली अँटी रहतीं। पापा गाय रखे थे। छोटी के हो जाने से माँ सोहर में पड़ गई, सारा काम मौसी के जिम्मे आ पड़ा। दिन भर धाँय-धाँय लगी रहतीं और शाम होते ही उसके सँग घोड़े बेच सो जातीं; सुबह देर से उठतीं।मगर उस रात जब वह सो रही थी, वही तड़प फिर सुन पड़ी जो छोटी के प्रसव पर सुनी थी। सो अधनींद उठके माँ के कमरे में चली आई। पर वहाँ उनकी नाक बज रही थी, भाई-बहन सोये पड़े थे, कहीं कोई उपद्रव नहीं। भ्रम हुआ जान वह लौट आई। पर देखा मौसी बिस्तर पर नहीं थीं। सोचा, बाथरूम को उठ गई होंगी। पर लेटते ही लगा कि रात के सन्नाटे को तोड़ती कहीं कोई आहट तो है! कमरे से पुनः निकल बाहर आ ध्यान से सुना तो आवाज आँगन के पिछवाडे से आ रही थी...। और जिज्ञासा और भय से भरी आँगन पार कर वह उधर पहुँची तो मौसी भूसे की छल्ली पर झुकी मिलीं, पापा उनके पीछे खड़े, जिनकी पीठ पर पड़ा जनेऊ कमरे में घुसती तिरछी चाँदनी में सफेद साँप सा चमक रहा था...। एकदम सहम गई कि मौसी आज पुलिस के हत्थे चढ़ गईं! थाने से कई बार चीख-पुकार की आवाजें आतीं और वे पुलिसिये ही होते जो बड़े-बड़े लट्ठ लेकर अपराधियों की खबर लेते रहते। ...अखबार वहीं छुपा नेहा घर चली आई।माँ ने पूछा, 'कोई लफड़ा लग गया क्या?'आँखें भर आईं जिन्हें छुपाए वह बाथरूम में जा घुसी...। यूँ भी कम कठिनाई नहीं थी। इससे तो बदनामी की इंतिहा हो गई। पापा के कुलीग कानफूसी करने से बाज नहीं आएँगे! हो सकता है, वे किसी दिन वहीं से तमंचा भरकर लौटें!...दो महीने निकाल दिये, घबराहट में डूबे-डूबे। बड़ी उल्टी-सीधी खबरें आ रही थीं। हारकर एक दिन उनके घर जा पहुँची। शाम का वक्त! घर में सिर्फ मम्मी दिख रही थीं। आशंकित मन पूछा, 'कोई है नहीं?''15 अगस्त की शापिंग करने बाजार गए हैं।' कहते मुस्करा पड़ी।'15 अगस्त की शापिंग?' नेहा समझी नहीं।'कंट्री का 'बर्थ-डे' है ना!' वे खुलकर मुस्कराने लगी, 'पड़ोसी बच्चों को सेलिब्रेट करने गुव्वारे-झंडे वगैरा लेने गए हैं। केक का नक्शा बनाकर बताएँगे...''भाई साब!?''वो तो है...' मम्मी हँसी, जैसे जानती हों, बच्चों से क्या काम, आई तो उसी के लिए है! तो वह झेंप मिटाती बोली, 'स्कूल के प्रोग्राम से इतनी फुरसत मिल जाएगी!?''सब मिल जाएगी,' वे फिर हँसी, 'खेल में थकते कहाँ हैं...' कहती किचेन में उसके लिए चाय बनाने चली गईं और वह भीगी बिल्ली-सी आकाश के कमरे में चली आई जहाँ वे उद्भ्रांत से सिर झुकाए बैठे थे। जैसे, सूरज सचमुच डूब गया हो!नेहा गमगीन हो आई।आकाश विवशता भरे स्वर में कहने लगे :'विरोध हद से ज्यादा बढ़ गया है... अब तो सांसद तक मुँह चलाने लगा! शोभिका के हत्यारे उसके संरक्षण में हैं... एनजीओ के हित में यही लग रहा है कि मैं इस्तीफा दे दूँ!'सुनकर वह विह्वल हो आई : 'जनता इनके लिए तोरणद्वार सजाती है...'देर बाद आँसू पोंछ निर्णीत स्वर में बोली, 'यों तो शैतानों के हौसले और बढ़ जाएँगे! फिर वे किसी को काम नहीं करने देंगे! आपको मेरी कसम, काम छोड़ो नहीं! मैं साथ हूँ तो! जिसे रोकना हो रोक ले!'अगले दिन वह जल्द ही टूर के लिए तैयार हो गई। ड्रायवर से उसने रात को ही बोल दिया था। वह भी इतना कटिबद्ध कि हरदम तैयार मिलता। और तो और उनकी माँ भी नेहा की हाँ में हाँ मिला उठीं! झिकझिक करते दोपहर तो हो गई पर उन्हें मजबूर हो उसके साथ निकलना पड़ा! और बेमन ही सही, शाम तक वे लोग तीन-चार गाँवों में घूम आए। इससे हुआ यह कि क्षेत्र में जो भ्रांति फैल रही थी, अभियान ठप हो गया... कुछ हद तक मिट गई। कार्यकर्ता को तो उत्साह का खाद-पानी चाहिए। उन्हें पाकर वे फिर जोश से भर उठे। पर वापसी में जीप एक कच्चे पहुँच मार्ग में फँस गई।ड्रायवर गियर अदल-बदल गाड़ी आगे-पीछे झुलाता रहा। हड़ गया तो इंजन बंद कर मुआयना करने नीचे उतर गया।गर्दन मोड़ नेहा ने आकाश को देखना चाहा तो उसी क्षण उन्होंने भी। सो, नजरें जुड़ते ही दिल में कशिश-सी उठ खड़ी हुई और उसने अनायास ओठ चूम लिए! फिर झेंप कर नजरें घुमा लीं, बोली, 'अब?''ट्रेक्टर मिले तो इसे खिंचवाया जाय!' वे उसका मूड भाँप रहे थे।'गाड़ी यहीं छोड़ कर मेनरोड तक निकल चलें... अभी तो कोई साधन मिल जाएगा!' सर पर पापा का खौफ मंडरा उठा।'हां... क्या पता कब तक निकले गाड़ी यहां से,' कहा उन्होंने फिर स्वर चिंतातुर हो आया, 'महेश अकेला पड़ जायेगा!''यह तो है...' धर्मसंकट में पड़ गई वह भी। महेश भाई सरीखा ही लगता बल्कि उससे अधिक। मगर घर नहीं पहुंची तो, 'पापा!' उसके मुंह से निकला।ड्राइवर नीचे खड़ा सब सुन रहा था। मोर्चा सँभाल लिया अचानक, 'सर! आप दीदी को लेकर निकल जायँ, रात में कोई न कोई ट्रेक्टर निकलेगा इधर से...' ...जीप के खोल से निकल बाहर आ गई तो लगा असीम हो गई। दिल बाग-बाग। नजर उठाके देखा उन्होंने भी- फिरोजी कलर के सलवार सूट में मानो अभिसार को आमंत्रित करती नायिका, जिसका मुख गुलाबी क्षितिज की आभा से चौदस के उगते चाँद-सा दमक रहा था। दिल फिर अपनी छलाँग चूकने लगा। जज्बात जज्ब न हुए। चेहरा आगे बढ़ा कपोल चूम लिया, 'तुम सचमुच दिलकश हो, ने-हा!'शब्द और चुम्बन की ध्वनि कानों में भर गई, ओठ कपोल पर चिपक कर रह गए... आवेग में मुस्कुरा उठी वह। दिशाओं में संध्या फूल रही थी...।कौतूहल से भरे कुदरत के नजारे निरखते कदम-कदम बढ़ ही रहे थे कि बारिश झरने लगी। तब उन्हें एक बार फिर ड्रायवर के अकेले रह जाने का ख्याल हो आया और उसे पापा के खौफ का...। मगर फिसलन से बचने एक-दूसरे का हाथ थाम लिया तो दिल में झींसियाँ-सी बज उठीं। फिर पता नहीं चला, अँधेरा कब उनके कदमों से तेज चलकर चला आया! पर गिरते-पड़ते किसी तरह मुहांड तक पहुँच गए।ऐसा तिराहा जो तीन प्रांतों को जोड़ता...। इसे दो-तीन सालों से भली-भाँति जानती। नीमों की बगिया के बावजूद जो अक्सर सूना रहता। जहाँ वर्षों से गड़ी पीडब्ल्यूडी की खिड़कीनुमा दरवाजे वाली रेल के डिब्बे-सी टीन की गुमटी हमेशा कौतूहल जगाती। जब भी इधर से गुजरती, भीतर झाँक लेने की इच्छा हो आती। बारिश तेज हो गई तो टॉर्च के सहारे उसके भीतर ही एक छोटी-सी तख्ती पर शरण लेना पड़ी, जिसके एक टूटे पाये के नीचे ईंटें भरी थीं! इच्छाएँ किस कदर पूरी होती हैं, वह चकित थी, पूछती हुई कि- मजदूर इसमें कैसे रहते, बनाते-खाते होंगे?''बनाते-खाते, रहते ही नहीं; बच्चे भी कर लेते हैं!' कहते, बताते वे मुस्कराए, 'मीत साथ हो तो वनखण्ड भी सुंदरवन बन जाता है!''ये तो है...' भावुकता में फुसफुसाई वह भी। संझा-आरती का वक्त। दूर किसी देवालय से शंख-झालर की मधुर ध्वनि आ रही थी। मगर हवा के झोंकों के साथ पानी की बौछार भीतर तक आने लगी तो आकाश ने गुमटी का वह खिड़कीनुमा द्वार भी बंद कर लिया। फिर भी मुरली बजाते श्याम और उन पर मुग्ध राधा, जेहन में नाचते रहे। तिलिस्म में डूबते-उतराते कहा साथी से :'राधा-कृष्णा का प्यार भी क्या गजब फिनोमिना है, यार!' 'सचमुच अभूतपूर्व, एक दुर्लभ घटना, धरती पर आने वाले हर इंसान को चौंकाने वाला। पर उसे अंतर्ज्ञान या तर्क के बजाय इंद्रियों के माध्यम से ही जाना जा सकता है...' कहा उन्होंने तो हठात कृष्ण की फुफेरी बहन बिजली ऐन ऊपर आ जोर से तड़प उठी और वह काँपकर गोद में चढ़ सीने से चिपक गई! तब गोया धीरज बंधाने ओठ ओठों में भर लिए उन्होंने।डर निकल गया और देह-दहलीज पर तेज दस्तक होने लगी...। टाँगे खोल कमर में डाल लीं उसने, पीठ हाथों में बांध ली।जिप फूल उठी और वे टॉर्च फेंक जगह तलाश उठे।'जगह है नहीं...' मदहोशी में हँस पड़ी वह, 'सबदूर धूल-मिट्टी, पत्तियाँ, कचरा...''जगह बनाओ ना!' दीन हो आए, फिर एक बार।आसन कौंध उठा जेहन में जो मौसी ने छुपने के लिए ईजाद किया था! गोद से उठ वह झुक गई तख्ती पर। अचंभित रह गए आकाश। फिर गोया छूटती ट्रैन पकड़ने-सी हड़बड़ी में तख्ती से उतर कमर भर ली बाजुओं में, पोर-पोर चूम उठे, 'नेहा-आ, नेहा-आ... कहाँ तो साथ आने को राजी न थीं... आ गईं तो पूरा छप्पर उठा लिया! कहाँ तो बेड पर भी बर्र बन गईं...कहाँ इस जर्जर तख्ती पर ही ऐसे दुर्लभ रतिदान को आमादा!''आमादा, तुमने कर लिया आ-का-श!' सलवार खिसका दी पेन्टी सहित, भीगे वस्त्र देर से काट रहे थे। फिर कितनी बिजली तड़पी और कितनी झड़ी लगी, पता चला नहीं। एक के बाद एक जब कईएक वाहनों की घरघराहट गुजर गई ऊपर से तब देर बाद आये गुमटी से बाहर। जहाँ से ट्रक में चढ़ कर शहर। ट्रक ड्रायवर ने, जिसकी अभी मसें भीग रही थीं; लगता था उसके अभिसारिका स्वरूप से ही मुतासिर हो लिफ्ट दी थी! सड़क से बार-बार नजरें हटाकर वह इधर ही टिका लेता, जहाँ वोनट के पार वह भीगी देह, फूले गाल और गुलाबी अधर लिए बैठी थी! आकाश उस नादान के भोलेपन पर रह-रहकर मुस्करा लेते।...मगर ऐसे उत्साहवर्धन के बावजूद वे पटरी पर नहीं आए। महीने, दो महीने में वह जब भी मिलने जाती, वही आदर्शवादी बातें करने लगते। कहते, 'हम सब तो सिपाही हैं। एक के गिर जाने पर दूसरे को कंधे नहीं झुका लेना चाहिए, बल्कि उसकी जगह लेकर मोर्चे पर पहले से ज्यादा मजबूती से डट जाना चाहिए।' पर उसके लिए यह सब इतना आसान नहीं था। एक सामान्य से अभियान को जीवन का लक्ष्य और उसके तईं एक युद्ध जिस सेनापति ने बना दिया था, वही मँझधार से लौट पड़े तो कोई अथाह सागर को कैसे पार करे! अलबत्ता, उनकी जगह कार्यकारी समन्वयक ने ले ली थी। जीप फिर आने लगी। मगर उसने लौटानी शुरू कर दी। एक अजीब-सी नर्वसनेस और गुस्से ने उसे अपनी गिरफ्त में ले लिया था। सोचती कि यह सब मेरे कारण हुआ है। सब की मुझी पर नजर थी कि एक कुआँरी लड़की कब से रात-बिरात एक विवाहित पुरुष के सँग छुट्टा घूम रही है...! समाज तो दूध का धुला है, व्यभिचार कब तक बर्दाश्त करता...?दिन-ब-दिन उसका अफसोस गहराता जा रहा था। उसने उनके यहाँ जाना और उनसे मिलना भी बिल्कुल बंद कर दिया था। महीनों से उसे घर में और लगातार घर में पाकर घर खुद हैरान था। क्योंकि घर तो उसे काटने को दौड़ता था। रेलमपेल काम निबटा, सदा रस्सी तुड़ाकर गाय-सी भागती रही थी। दिन छह महीने का होता तो शायद, छह-छह महीने न लौटती! वह तो रात की आवृत्ति ने पैर बाँध रखे थे घर की चौखट से!पापा ताज्जुब से पूछते, 'तुमने काम छोड़ दिया...?'वह रुआँसी हो आती। माँ टोह लेती। भीतर खुशी, बाहर चिंता जताती, 'बैठे से बेगार भली थी...। दिन भर घुसी रहती हो घर में।'तब शायद, उसकी बनावटी पहल की दुआ से ही एक दिन उनका फोन आ गया :'नेहा! कैसी हो-तुम...?''जी अच्छी हूँ!' उसका दिल धड़कने लगा।'देखो,' वे हकलाते-से बोले, 'तुम्हें रिप्रजेंटेशन के लिए दिल्ली जाना है!''मुझे! कब...?' जैसे, यकीन नहीं आया।'हाँ, हमें! जून में... मंत्रालय से फैक्स मिला है।''पर आप तो...''वापसी हो गई है... ब्लॉक अध्यक्ष और महिला मोर्चा की सदस्य ने मिलकर अपील जारी की थी कि ब्लाक जागरूकता समिति द्वारा विकास खंड में चलाए जा रहे जागरूकता अभियान में विगत छह-सात माह से काफी गतिरोध आ गया है। इसका मुख्य कारण प्रशासन एवं स्थानीय जनप्रतिनियों के दबाव में जिला जागरूकता समिति द्वारा अनावश्यक हस्तक्षेप - साधन, सुविधाओं सम्बंधी असहयोग, कार्यकर्ताओं का चरित्र हनन तथा मॉनीटरिंग के नाम पर अनाधिकृत लोगों को क्षेत्र में भेजकर कार्यकर्ताओं को हतोत्साहित करना है। इसी कारण जबकि ग्राम स्तर पर संचालित ट्रेनिंग सेंटर बंद होने लगे, जिला समिति की गैर जिम्मेदारी के चलते विकास खंड समन्वयक ने गत वर्ष 23 अगस्त को इस्तीफा दे दिया। इन दुर्घटनाओं से वर्तमान में विकास खंड में जागरूकता अभियान खतरे में पड़ गया है। सचिव एवं अध्यक्ष से माँग की जाती है कि तत्काल कार्यकारिणी समिति की बैठक बुलाई जाय ताकि समस्याओं का हल खोजा जा सके। और फिर बैठक में सारे जुझारू लोगों ने तय किया कि मीडिया की परवाह न कर भ्रष्ट प्रतिनिधियों और स्थानीय प्रशासन से पंगा लिया जाय!''नहीं!' उसका स्वर काँप गया।'क्यों?' वे जैसे, आफत में पड़ गए।'जा नहीं पाऊँगी।' उसने फोन रख दिया।वह अपने पापा को जनम से जानती थी कि उनके पास एक पुलिसिए की आँख भी है। वे कभी इजाजत नहीं देंगे। उसका दिल बैठ गया था...। यह कैसी खुशखबर थी कि वह रो रही थी! दिन भर से उसने खाना भी नहीं खाया। मगर शाम को एक दूसरा ही चमत्कार हो गया! आकाश मौसी जी को लेकर घर आ गए! वे मानीटरिंग सैल में थीं। उनके होने से ही उसे इतनी छूट भी मिली हुई थी। उन्होंने आते ही पापा को झाड़ा, 'आपने उसे रोक क्यों दिया...?''किसे...?' उन्हें कुछ पता नहीं था।मौसी ने आकाश की ओर देखा, वे सकपका गए, 'जी वो नेहा ने खुद मना किया है...''नेहा का दिमाग खराब है - क्या! कोई बच्ची है जो इतनी गैर जिम्मेदारी दिखाती है! प्रेजेंटेशन के लिए तो जाना ही पड़ेगा। हम लोग कब से लगे हुए हैं...!'वह अंदर छुपी हुई सारा वार्तालाप सुन रही थी। खुशी से दिल में दर्द होने लगा। माँ ने आकर टेढ़ा मुँह बनाया, 'जाना अब! इसी के लिए इतने दिनों से बहानेबाजी हो रही थी।' और उसने उसकी बड़बड़ाहट को नजरअंदाज कर हवाई पुल बनाने शुरू कर दिए। कोई प्यास थी जो लगातार धकेल रही थी।तभी पापा ने अचानक मौसी का अपमान कर दिया! सख्ती से बोले, 'आप जाइए यहाँ से... वह कहीं नहीं जाएगी।''कैसे नहीं जाएगी,' वे तिलमिला गईं, 'बालिग है...''हाँऽ! ले जाना, तेरी दम हो तो!' वे हाँफ गए। फिर आकाश पर झपट पड़े, 'आप जाइए यहाँ से, उठिएऽऽ!' उन्होंने मानों डंडा लेकर उन्हें खदेड़ दिया। तब मौसी भी अपना मुँह लाल किए बड़बड़ाती उठ गईं कि - बड़े आए पुलिसिए... हम तुम्हें कोर्ट में घसीट लेंगे।''घऽसीट लेना, जाऽ!' पापा सड़क तक पीछा करते, चिल्लाते चले गए!कॉलोनी भर में थूथू हो गई। घर में माहौल इतना कड़वा और खौफनाक हो गया कि उसे दहशत होने लगी। मई अभी दूर थी! अभी से धमाल मचाने की क्या जरूरत थी? रोते-रोते बुरा हाल था... आँखें सूज गईं।बात यहीं निबट जाती तो गनीमत थी। उन्होंने तो भाई से कह दिया :'हाथ-पैर तोड़ दे इसके। बाँध के डाल दे कमरे में। देखें कैसे जाती है बाहर... कैसे मिलती है उससे।'और वह खूँख्वार कुत्ते की तरह लग गया पीछे।अब तो सिट्टी-पिट्टी गुम थी नेहा की! फोन तक करने में रूह काँपती। ...पानी सर ऊपर हो गया तो कॉलेज ड्यूटी के बहाने मौका लगाकर एक दिन वह आकाश के घर जा पहुंची। गनीमत कि मिल गए! बच्चे स्कूल गए हुए थे। मम्मी चाय बना कर दे गईं, फिर लौट कर नहीं आईं। गोया दुखियारों की दीन दशा पर रहम आ गया...।दोनों ही उस वक्त सचमुच इतने दीन लग रहे थे, जितना मुश्किल से ही कोई कंगला भिखारी हो! नेहा की आंखें भरी-भरी थीं और आकाश बेहद अपमानित हतोत्साह। वे उस वक्त अपनी वकालत वाली ऊँची कुर्सी पर बैठे थे। टेबिल और उनके बीच जितनी जगह थी वह भहरा कर उसी में धँस गले से लग गई। गोया छाती से चिपक फूट फूट कर रो लेना चाहती थी। मगर निढाल हो नीचे को सरक गई और फर्श पर जमे उनके पंजों पर नितंबों के बल बैठ गई, पिंडलियाँ जाँघों में भर लीं, जैसे कोई बच्चा पैरों का झूला झूलने मचलता हो! पर वह जार-जार रो रही थी और यों फफक-फफक कर रोने से उसके गाल और ओठ सूज गए थे। उनका रंग भी लाल-गुलाबी हो गया था। आकाश उसे धैर्य बंधाने पीठ और फिर सीना सहलाने लगे। तब विह्वलता इतनी बढ़ी कि वह गोद में सिमट आई। और वे कुर्सी से उठा अपने रूम में ले आए। जब पलंग पर लिटा बेतहाशा प्यार करने लगे, वह एक चीज याद कर मुस्कुराने लगी।'क्या गम है, जिसको छुपा रहे हो...' शायरी कर उठे, आकाश।'पता है, पहले हम आपको भाईजान समझते थे...' मुस्कान तारी थी।'तभी तो रिलेशन बनाया!' 'मतलब, आपके खानदान में बहन से?' चकित हो पूछा।'न! साली से।''हम आपकी साली! सो, किस नाते?''हमने नहीं बनाया, तुम खुद बन गईं...' कहते हँसने लगे, 'भाईजान उर्दू वर्ड है, जीजा के लिए बोला जाता है!' 'अरे!''हाँजी!' कहते जकड़ लिया बाँहों में तो मुँह बना इठलाने लगी, 'जीजू आप यही मत किया करो; नहीं तो आगे से हम आएंगे नहीं...' 'क्यों?''अरे धक्का लगता है।''कहाँ?''यहाँ...' कहते कलेजे पर हाथ रखवा लिया तो फिर हँसते लगे, 'शुरूआत में हर लड़की को लगता है, क्योंकि गली सँकरी होती है।' 'और मुसाफिर तगड़ा!' वह जिप मसल मिसमिसाई। 'तभी तो... हमसे चौड़ी करा के ले जाओ, शादी के बाद परेशानी नहीं पड़ेगी! कहते उरोज ऐंठ दिए। और वह रोने लगी। आकाश परेशान हो गए। पूछ-पूछ हड़ गए कि क्या हुआ, अचानक! पर बताया नहीं, आँसू गिराती रही। गीत गूँज रहा था कानों में, 'बड़ी महँगी पड़ेगी जुदाई, किसी से कोई प्यार ना करे...'तब घबराहट मिटाने कुर्ता उठा उरोज मर्दन कर उठे। जिससे गुदगुदी मचने लगी और वह उस शैतानी पर मन ही मन मुस्कुरा उन्हें चूम उठी। और जवाब में जब वे अंग-अंग चूम बेतहाशा प्यार करने लगे तो समर्पण को आतुर सलवार खोल ली उसने। यही सोच कि लकड़ी और लड़की को तो आख़िरश चिरना ही होगा! संसार का सारा खेल ही इसमें समाया हुआ है। करार पा गए तब उसने आपबीती सुनाई। हकीकत जानकर उन्होंने धीरज बँधाया और रास्ता सुझाया कि - एक स्वतंत्र देश की स्वतंत्र न्याय व्यवस्था में अपाहिज नहीं है कोई! तुम कानून की मदद ले सकती हो। पर ख्याल रखना, अपने अभियान का नाम न ले दीगर गतिविधियों का हवाला देना। नहीं तो हमारे जातीय संबंधों की आड़ ले वे केस कमजोर करा देंगे!'शहर से बाहर के एक कॉलेज ने परीक्षा ड्युटी के लिए गेस्ट फैकल्टी में उसे बुलाया था। पुलिस और आकाश को आवेदन की कॉपी दे वह ज्वाइन करने चली गई। पर उसके लौटने के पूर्व ही एक दीवान उसकी रिपोर्ट मि. के एम शुक्ला को वापस कर गया। जिसे भाई माँ तक को जोर जोर से पढकर सुनाने लगा :'यह कि मैं कुमारी नेहा शुक्ला पुत्री श्री के एम शुक्ला एक शिक्षित युवती हूँ। मैंने एम.ए., बी.एड. किया है तथा वर्तमान में पी-एच.डी. कर रही हूँ। एनवायके ब्लॉक अटेर की युवा समन्वयक रही हूँ। मैं ऑल इंडिया वोमैन एसोसियेशन (एपवा) की जिला संयोजिका होने के नाते 5 व 6 अप्रेल को लखनऊ में होने वाले महिला सम्मेलन में भाग लेने वाली मध्यप्रदेश की दो महिलाओं में से एक हूँ। 33 फीसदी महिला आरक्षण के सवाल पर 30 अप्रैल को राष्ट्रीय संसद मार्च में जिले से मैं अपने संगठन की ओर से 200 महिलाओं को ले जाना चाहती हूँ, जिसके लिए मैं सक्रिय प्रयास कर रही हूँ...।आज दिनांक 17 मार्च को मैं शासकीय महाविधालय मेहगाँव में अतिथि विद्वान के रूप में ज्वॉइन होने जा रही हूँ।मेरे घर वाले, पिता व माँ व भाई मेरी सक्रियता और महिला आँदोलन में भागीदारी के कारण अत्यंत नाराज हैं। वे मेरे विकास में बाधक बन गए हैं। वे नहीं चाहते कि मैं घर से बाहर सामाजिक व राजनैतिक कार्य करूँ। मेरे कॉलेज में अध्यापन कार्य करने के भी वे खिलाफ हैं। वे मेरे अपूर्ण पीएचडी अध्ययन को भी रोक देना चाहते हैं।मुझे अपने जीवन, सम्मान तथा अधिकारों के लिए अपने घर वालों से अत्यंत खतरा है। उन्होंने मुझे गंभीर परिणामों की भी धमकी दी है। वे मुझे घर में बंद करके मेरे साथ कुछ भी अनिष्ट कर सकते हैं। मैं अपने घर वालों की महिला विरोधी मानसिकता से परिचित हूँ। मैं बहुत आतंकित हूँ व अपने आपको असुरक्षित महसूस कर रही हूँ। अतः निवेदन है कि उक्त तथ्यों के आलोक में मेरे जीवन, सम्मान व अधिकारों की सुरक्षा करने की कृपा करें ताकि मैं निर्बाध रूप से पूर्व की भाँति अपने विकास और महिला आँदोलन में सक्रिय भागीदारी कर सकूँ।'...भाई ने अपने माथे से पसीना पोंछा और एक लंबी साँस खींचकर दैत्यों सा कठोर चेहरा बनाकर बैठ रहा। बचपन में जो बड़ा भोला और मासूम दिखता था, नेहा से बात-बात में लड़ता-झगड़ता रहता था, पिता के साथ मम्मी से छुपकर सफेद आलू गपागप कर जाता था, वही अब पूरा पोंगा पंडित हो गया है। ब्रह्मगाँठ वाला जनेऊधारी, आसाराम बापू की बड़ी तस्वीर के आगे घंटों हाथ जोड़े खड़ा रहने वाला भीरु! बाबाओं के मकड़जाल में उलझा, सिद्ध-स्थानों के चक्कर काटता मूर्खानंद! नेहा को उसकी सूरत तक नहीं भाती अब...।और माँ तो रिपोर्ट का नाम सुनकर ही सन्न रह गई थी। जिस पर उसमें दर्ज शिकायती बयान ने तो उसके हाथ-पाँव ही फुला डाले। वह मि. के एम शुक्ला से तकरीबन 5-7 साल छोटी एक प्रौढ़ स्त्री है जो घरेलू होने के कारण मोटी-थुलथुल और चिड़चिड़ी हो गई है... स्वर कतई बेसुरा... कि राहत मिलते ही काँख उठना जिसकी प्रकृति हो गई है! वह माँ अपनी कौड़ी सी आँखें निकालकर बोली, 'जि सब तुम्हरी ढील का मजा हय, दारोगा जी... अब भुगतौ!'पंडिज्जी बीड़ी पीते-पीते खाँसने लगे, जैसे पत्नी को मुँहतोड़ जवाब दे रहे हों। भाई उठकर तंबाखू मलते-मलते गोया अपने हाथ मलने लगा।हालात बेकाबू बेशक होगए, पर लड़की आज लौट तो आए... अब तो उसकी छाया भी नहीं जाएगी इस घर से बाहर, लाश भी नहीं।बहन सोचती कि इसके भाग्य में तो काँटे बदे हैं। यह निर्लज्ज, कामपिपासु हमारे खून की प्यासी बन बैठी है। यह लड़की नहीं राक्षसी जन्मी है। दुनिया भर की छोत, कुल्टा, बेहया, पिछले जन्म की बैरिन, डायन, साक्षात मसान!...ऐसी तमाम जली-कटी बातें सुनते बहुत दिन हो गए हैं। अब तो जैसे आदी हो गई है वह। ये बातें घर में न हों तो, बहम होता है कि यह उसका ही घर है! और यूँ तो ये बातें पिछले लगभग तीन बरस से चल रही हैं, लेकिन डेढ़-दो महीने से तो इनकी हद हो गई है। कैसेट जैसे, बार-बार रिपीट की जा रही है। रिकार्ड प्लेयर कभी भाई बन जाता है, कभी पिता तो कभी माँ, छोटी बहन और चंद रोज के लिए माइके आई बड़ी बहन।ऐसा क्यों कर हुआ? वह खुद नहीं समझ पा रही। वह तो बहुत आज्ञाकारिणी थी। कॉलेज से लौटी हो या बाजार से... धूप में तमतमाया चेहरा, कपड़ों-बालों और शरीर से चिनगारियाँ और चाहे आग की लपटें क्यों न फूट रही हों... कि माँ ने सख्ती से कहा, 'जा, बरफ ले आ!' मेहमान को भी दया आ जाती, 'ए, उसे न भेजो, दम ले लेने दो। बाहर आग बरस रही है!' लेकिन माँ, साक्षात चंडी, आँखें निकाल उठती, 'जा, सुनाई नहीं दी?' और वह पलट लेती।बीमार पड़ती, तो पिता होम्योपैथी के ज्ञान से साबूदाने-सी गोलियाँ चुगने को दे देते और वह लोटपीट कर दुरुस्त हो लेती। और फिर से छोटी को रोज स्कूल-कॉलेज-ट्यूशन ले जाती, ले आती साइकिल पर धर कर। बड़ी को गाइड के घर ले जाती और भैंस सी मोटी मम्मी को बैंक, तो कभी दरगाह-मंदिर और शहर भर की रिश्तेदारियों में घुमाती फिरती...। जैसे, वह बँधा हुआ साइकिल-रिक्शा हो घर का। इसके अलावा पिछले पाँच बरस से डाकघर बचत योजना की एस.ए.एस. एजेंट भी। अकेले दम पर सवा तीन सौ बचत खाते खुलवा रखे थे। सबका हिसाब, सभी खातेदारों से हर माह चक्कर लगाकर किस्त वसूलना और डाकखाने में एलोट जमा करना। रोज खड़ी रहती वह डाकखाने की खिड़की पर बाबुओं के आगे लेजरों में सिर खपाती। बाद में यह काम तो भाई ने सँभाल लिया। लेकिन घर की छोटी-मोटी सिलाई, बर्तन, दोनों वक्त का खाना। आए-गए के लिए चाय। नियमित झाड़ू-पोंछा और खाट-बिछौना तक...। यह सब तो अब तक नहीं छूटा। गोया, वह कोई खानदानी बेगारी हो! उसके रहते हैंड पंप से कोई पानी नहीं निकालता।... उसकी दुर्दशा पर आकाश चिढ़ते तो वह आत्मविश्वास से भरकर कहती, 'मैं अपने काम करने की आदत बनाए रखना चाहती हूँ।'वे कहते, 'तुम प्रेशर में हो...'वह कहती, 'नहीं, मुझे कोई प्रेशर में नहीं रख सकता। मैं तो इसलिए इन सब की नौकर बनी हुई हूँ, ताकि जब मैं इस घर से काला मुँह कर जाऊँ, तो ये बत्ती जलाने-बुझाने तक के लिए मेरे नाम की आहें भरें।'अजीब फलसफा था उसका। आकाश कायल हो जाते, 'तुम जिसे मिलोगी, बहुत भाग्यशाली होगा।'वह चिढ़ जाती, 'मैं व्यक्ति नहीं हूँ क्या...? मेरी स्वतंत्र सत्ता नहीं है क्या...? क्या जरूरी है कि मेरे नाम के आगे कोई उपनाम चस्पाँ हो...?'और आकाश उसकी विचारधारा से अभिभूत मूक रह जाते। ऐसे ही तीन साल कट गए। पता भी नहीं चला!रिपोर्ट डालने के बाद उसने सोचा, अब तो राहत की साँस मिलेगी। पुलिस कुछ तो मदद करेगी। डर गए होंगे उसके पापा, भैया और मम्मी वगैरह। किंतु उस अनुभवहीन को यह पता नहीं था कि उन लोगों के साथ पूरी दुनिया है!लौटते ही उसे कैद कर लिया गया। न किसी से मिलने दिया जाता, न घर की देहरी लाँघने दी जाती। तब वह जबरन निकली और भाई से पिटी। माँ से बोल-कुबोल सुने। पिता से गँवारू डाँट खाई...। एक दिन छत से पड़ोस के घर में कूदकर वह एक एजेंट-कम-पत्रकार को अपने डिटेंशन का प्रेसनोट बनाकर दे आई। लेकिन उस बुजदिल ने उसे प्रकाशित नहीं कराया।अपनी मुक्ति के लिए वह सीजेएम के यहाँ भी पेश होना चाही, पर कायर वकील ने ऐसा नहीं होने दिया। आकाश इसलिए सामने नहीं आए कि लड़ाई फिर आमने-सामने की हो जाती।तब घर लौटकर उसने फिर एक बड़ी मार खाई और नौ दिन तक भूख हड़ताल रखी। संयोग से वे नौ दिन चैत्र नवरात्र में पड़ गए। सो वे 'सर्वमंगल मांगल्ये' जाप करते कट गए। पर घर नहीं पिघला। उल्टे उसे छत के कमरे में बंद कर दिया गया। रोज सुबह नैमेत्तिक क्रिया के लिए निकाला जाता और फिर से वहीं ठूँस दिया जाता। जैसे किसी खूँख्वार कुत्ते की जंजीर खोलते हैं फरागत भर के लिए और फिर बाँध देते हैं खूँटे से। खिड़की से खाना डाल दिया जाता।यों दिन पर दिन गुजरते चले गए। उन दिनों नेहा जेल की काल कोठरी के अनुभवों से गुजर रही थी। तभी उसे फिर एक मार्ग सूझा। अबकी बार उसने पिछली खिड़की से नीचे गली में कागज के पुर्जे लिख-लिखकर फेंक दिए :कि - यह मेरे लिए कालापानी की सजा है।कि - मैं यहाँ घुट रही हूँ।कि - यहाँ मेरी लाश भी नहीं बचेगी।हाय - अब मैं और देरी सहन नहीं कर पाऊँगी...।पुर्जे महिला संगठनों तक पहुँचे। क्रांतिकारी दलों तक पहुँचे। बैठकें हुईं। समीक्षाएँ हुईं। और अंततः नुमाइंदे यह निष्कर्ष निकाल कर चुप हो गए कि यह घरेलू मामला है। आखिर माँ-बाप ने जन्म दिया, पढ़ाया, पाला-पोसा, बड़ा किया - वे जो चाहें सो करें उसका। हम क्यों अगुआ बनें...?वह टूटने लगी। आकाश से अवैध संबंधों को लेकर शहर में अफवाहों का बाजार गर्म हो उठा। अब एक चिड़िया भी नहीं थी उसकी तरफ। आकाश की भी लानत-मलामत होने लगी। परिचितों और मित्रों तक ने अपने दरवाजे बंद कर लिए उनके लिए। सहायता की कोई किरण न बची। तब जाकर नेहा की रिपोर्ट निकाली और उच्च न्यायालय का द्वार खटखटाया उन्होंने, 'बंदी प्रत्यक्षीकरण' याचिका दायर करा दी।पर पहली पेशी का नोटिस आते ही माँ-बहनों ने उसका ब्रेनवास करना शुरू कर दिया :'जानती हो, तुम आजाद होकर अलग रहीं तो, हमारा हुक्कापानी बंद हो जाएगा। एक भाई तो चला ही गया। इसका भी ब्याह न हुआ तो वंश की नाठ हो जाएगी। छोटी का भविष्य बिगड़ जाएगा। बिरादरी बाहर हो जाएँगे हम लोग। तुम्हारे बयान से पापा और भैया जेल में सड़ जाएँगे। हम सब जहर खाकर मर जाएँगे। बोलो, इसी में राजी है तुम्हारी?'उसे दिन रात एक ही गीत सुनाया जाने लगा।वह विचलित होने लगी।किंतु जब गहराई से सोचती तो पाती कि आकाश सत्यारूढ़ हैं। वैयेक्तिक स्वातंत्र्य के पक्षधर। अस्मिता के पोशक। न्यायहित शहीद होने को तत्पर। और पिता, बहन, भाई और माँ हैं जाति और परंपरा के रक्षक। स्त्री को स्त्री और आश्रिता बनाए रखने वाली पुरुष प्रधान व्यवस्था के पहरेदार।क्या करे वह...? अनिर्णीत है वह! इधर कुआँ और उधर खाई है। काश! उसे इसी क्षण मौत आ जाए तो सारे द्वंद्व, सारा संत्रास घुल जाय।...गर्मियों की सुबहें। चिड़ियाँ जल्दी बोलने लगीं। घर में जगार हो गई थी। टट्टी-दातून का क्रम जारी हो रहा था। अदालत में पेशी थी। सब लोग जल्दी जल्दी तैयार हो रहे थे। उसके मन में कोई उत्साह नहीं। वह प्रार्थना कर रही थी कि पेशी से पहले खुदा उससे उसकी आखिरी साँस छीन ले तो ठीक रहे।'घर वाले कहते, यह विडंबना उसने स्वयं बुलाई है। हाँ! उसी का तो किया धरा है यह सब! उसी ने तो अपने माँ-बाप और भाई की पुलिस में रिपोर्ट लिखाई! पापा की बदौलत कोई सुनवाई न हुई तो हाईकोर्ट में याचिका दायर करवा दी कि उसे घर में कैद कर लिया गया है। उसका अध्ययन और नौकरी छुड़ा दी गई है। उसके बाहर आनेजाने पर सख्त पाबंदी लगी है। उसे अपने भाई और पिता से जान का खतरा है...। और यह कि - वह स्वतंत्र होकर अलग रहना चाहती है इन लोगों से!'पर यह संभव नहीं है। उसका वकील भी यही कहता था, सभी बुद्धिजीवी मित्र और सहेलियाँ भी... कि एक अविवाहित लड़की का इस समाज में स्वतंत्र होकर अकेले रहना संभव नहीं है। और उसका मानना है कि - जब तक आत्मनिर्भर और स्वतंत्र स्त्रियाँ अस्तित्व में नहीं आएँगी, तब तक महान संतान जन्म नहीं लेगी। फिर हँसती हुई मनुष्यता पैदा होगी कैसे?स्वजन उसे मूर्ख, पागल, सिरफिरी और न जाने क्याक्या समझते हैं। सबसे ज्यादा तो यह कि - उसके सिर पर उसके पुरुष मित्र का जादू चढ़ गया है...।वह विक्षिप्त है। वह सामान्य नहीं है। सामान्य और समझदार लड़की गहना चाहती है। अच्छा घर-वर चाहती है। सुविधाओं से लकदक और सम्मान से भरपूर गृहस्थ जीवन चाहती है। उच्चकुल का सुंदर-सुशील, ओहदेदार और रॉयल पुरुष चाहती है। सचमुच इसका तो सिर फिर गया है!सिर भारी था। लेकिन वह फ्रेश हो ली।छोटी का जब से ऑपरेशन हुआ है, पलंग पर ही पानी माँगती है। पर आज उसने छोटी की तीमारदारी नहीं की। भाई कमाता है तो अपने नहाने के लिए भी बाल्टी नहीं भरता। टुल्लू पंप नहीं, हैंडपंप लगवाया पापा ने नल में ताकि एक्सरसाइज होती रहे और सभी लोग स्वस्थ बने रहें। मगर भाई छुटपन से ही बड़े होने का फायदा उठाता। वही भरती उसके लिए बाल्टी। पर आज नहीं खींचा उसके लिए पानी, हैंड पंप से। दौड़-दौड़ कर पापा को निकर, बनियान, तौलिया, साबुन, तेल नहीं दिया। कौर तोड़ने के बीच उठकर मम्मी का ब्लाउज या छोटी की सलवार मशीन पर नहीं धरी, उधड़ी सींवन के लिए! किसी काम को हाथ नहीं लगाया। आज जैसे कि रुखसत हो रही थी वह इस घर से सदा के लिए...।लगभग आठ बजे वह पिता और बड़ी बहन के साथ बस में आ बैठी हाईकोर्ट जाने के लिए। बस के आगे तो कभी पीछे मोटरसाइकल पर अपने एक दोस्त के साथ भाई भी चल रहा था। वह सामने वाले शीशे से और कभी खिड़की से उसे गुजरता हुआ देख लेती। आज कतई गुमसुम थी वह। आँतरिक तनाव में पता ही नहीं चला कि कब हाईकोर्ट पहुँच गई...। गैलरी में आकाश मिले। कनखियों से देखा - चेहरे पर हवाइयाँ उड़ रही थीं।वकील ने बताया, 'पेशी लंच के बाद होगी।'ऊपर से मरघट-सी शांति पर भीतर अखंड कोलाहल...। आकाश बद नहीं पर बदनाम हो चुके थे। उनकी इमेज, उनकी सोसायटी मिट गई। यह केस हारकर कैसे जिएँगे वे! और पिता, भाई, बहन भी कैसे जिएँगे अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा, जातिगत सम्मान खोकर?- ऐसी परीक्षा ईश्वर किसी की न ले।' सीने में हौल मची थी। एक घंटा एक युग-सा बीता। इजलास भरने लगा। मामला डबल बैंच में था। वकील ने कहा, 'अंदर चलिए।' वे सब भारी कदमों से भीतर आ गए। फाइल पटल पर रख दी गई। मामला पेश हुआ। पिता भरे गले से बोले, 'हुजूर! संतान जब कुमार्ग पर चल उठे तो उसे सद्मार्ग पर लाना अभागे पिता का वश या कुवश फर्ज बन जाता है। मैंने यही किया है, इसकी जो भी सजा मिले!' पंडिज्जी रोने लगे।जज ने गौर किया कि बाप गलत नहीं है।फिर भाई की बारी आई, तो उसने भी तीखे लहजे में यही कहा। तब वकील ने नेहा को पेश किया, पूछा, 'क्या शिकायत है आपको कुमारी जी... अदालत को स्पष्ट बताएँ।''कुछ नहीं!' उसके मुँह से बरबस ही निकल गया जिसे सुनकर वकील तैश खा गया, 'फिर ये याचिका क्यों दायर कराई? बच्चों का खेल समझ रखा है अदालत को?''ये लोग निकलने नहीं देते,' उसने रुँधे गले से कहा, 'मुझे समाज में बहुत काम करना है।''वह तो आप मैरिज के बाद भी कर सकती हैं?' वकील ने जिरह की। और वह फट पड़ी, 'आज इस खूँटे से बँधी हूँ, कल दूसरे से बाँध देंगे। इस समाज में पारंपरिक शादी का यही अर्थ है। न औरत अपना कैरियर चुन सकती है और न समाज-हित में अपनी मौलिक भूमिका... इस घुटन से बाहर निकल कर मैं खुले आसमान में जीना चाहती हूँ। अपना संघर्ष खुद करना चाहती हूँ। आश्रिता होकर, अपमानित होकर, दूसरों की इच्छा पर निर्भर रहकर नही...।''सवाल यह है कि आपकी यह एडॉल्टरी बर्दाश्त कौन करेगा,' वकील ने कुरेदा, 'क्या आप इस धर्मसम्मत व्यवस्था को तोड़ने पर आमादा हैं...?''जो समय के साथ नहीं चलता, समय उसे खुद मिटा देता है,' उसने तैश में कहा, 'किसी पुरुष के लिए यह बंधन कहाँ है? मेरी माँ मेरे भाई के लेट आने पर कोई सवाल खड़ा नहीं करती... पिता को भी इस बारे में कोई उज्र नहीं... और मुझ पर संदेह के पहाड़ खड़े किए जाते है,' वह रुआँसी हो उठी, 'मैं अलग रहूँगी! फिर जियूँ या मरूँ।'इजलास में शांति छा गई।दोनों न्यायाधीशों ने अंग्रेजी में कुछ गुफ्तगू की। फिर वरिष्ठ न्यायाधीश ने दोनों हाथ जोड़, नेत्र मूँद, गर्दन झुका, 'ऊँ कृष्णम् वंदे जगद्गुरु' बोलकर फैसला लिख दिया।कहा, 'यू आर मेजर लेडी। आप जा सकती हैं। आप कहीं भी आने-जाने और रहने के लिए स्वतंत्र हैं, क्योंकि आप में अच्छा-बुरा समझने की समझ और अपने हित में निर्णय लेने की क्षमता है।'और वह चल दी तो बुलाकर पूछा, 'पुलिस की मदद तो नहीं चाहिए...?''नहीं!' उसने ओठ भींच लिए। उसकी आँखें भर आईं। उसे तीन दृश्य एक साथ दिखाई देने लगे :- पिता गर्दन झुकाकर और भाई, बहन उसे घूरते, सीढ़ियाँ उतरते हुए!- आकाश रेलिंग पर झुके, हताश से खड़े, जैसे पिता के पाँव छूकर इस दुर्घटना के लिए माफी चाहते हुए!- और अनगिनत काले गाउनों की भीड़ उसे घेरने, अपने चेहरे पर कहानी जानने की उत्सुकता लिए हुए!फिर हुआ यह कि उसने अपना चेहरा हाथों में छुपा लिया और आकाश के बगल से 'सॉरी' बोल कर गुजर गई... मानों सीढ़ियों पर गेंद-सी लुढ़क गई हो!बाहर खुला आसमान था, धूप थी, पर वह चिड़िया की तरह चहक कर उड़ने के बजाय पिता के साथ हो ली!भाई-बहन उसे हैरत से देख रहे थे...।...अगले दिन आकाश से उसने रिजर्वेशन की तारीख पूछ ली। जाने की तैयारी ऐसे करने लगी, जैसे खुदमुख्तार हो। पहली बार माँ से पूछे बगैर बाजार जाकर साड़ी, सेंडिल, चूड़ी आदि अटरम शटरम ले आई। छोटी ने पूछा, 'तुम्हें तो चिढ़ थी, साड़ी-गहनों से?' उसने कहा, 'समय के साथ रुचि-विचार सब बदल जाते हैं।' और अगले दिन अपने बाल भी कटा आई तो माँ-बहनें सब देखती रह गईं। माँ को वह सुंदर तो लगी, पर उसने रंजिशन ताना मारा, 'अब कौने मूँड़ें चाहतीं हौ!' गुस्सा पी गई वह, बोली, 'दिल्ली जाना है... जैसा देश वैसा भेष भी बनाना पड़ता है!'माँ पिता को बताती, इससे पहले उसने बता दिया, 'मुझे जाना पड़ेगा!'इस बार उन्होंने उफ तक न की। न माँ को कसा कि इससे कहो - रात में अपने घर में आकर सोए!कोर्ट के बाद यह बड़ी और असली फतह थी। नेहा बिस्तर में पहुँच भविष्य के ख्यालों में गुम होते-होते अतीत में घुस गई। नीमों की बगिया में दशकों से गड़ी पीडब्ल्यूडी की टीन की गुमटी बरबस याद आने लगी।आकाश का डिप्रेशन मिटाने खेल-खेल में लिया आसन इतना खतरनाक होगा, उसे खबर न थी। नेकी का फल बदी! धक्का पड़ते ही चीख छोड़ वह फिसल गई तो हँसी छूट गई उनकी! पीठ पर हाथ रख कह उठे, 'कसम से इतना मजा नताशा ने आठ साल में नहीं दिया!''कहाँ से देतीं, जब पहले ही किसी और को दे आईं...' ताना कस दिया उसने भी।'अच्छा! ये बात...' कहते खिसिया कर खींच लिया पीछे और गोया पलीता भर दिया भीतर तक तो मौसी-मम्मी सबकी तड़प कहीं जोर से गिरी बिजली की लम्बी कड़क में खो गई। मगर मौका लगते ही वह फिर फिसल गई और फिर गर्दन मोड़ बिल्ली से गहरे और कर्कश "ग्र्र्र्र"  "ख्र्र्र्र" स्वर में गुर्रा उठी।पर वे डरे नहीं, हँसी छूट गई। लाड़ लड़ाते पीछे खींच कूल्हे सहलाते बोले, 'हम तो समझे थे कि जैसे सायकिल के कैरियर पर टाँगे चीर धच्च से बैठ जाती हो, धक्के का जवाब उसी अदा से दोगी!'सुनकर फिर इच्छा जागृत हो गई और वह बकरे-सी मिमियाती खिंच आईं, वायदा भरवाकर कि जोर से नहीं मारोगे! मगर हंटर की दाढ़ में तो मानो खून लग गया था! वह उनकी कमर से छूट फिर सटाक से पड़ गया उसी घाव पर! दर्द से बेतरह छटपटा उठी मगर लाख जोर लगाने पर भी इस बार फिसलने न दी, रफ्तार बना ली। कहते हुए कि- जैसे जीप में नितम्ब कस कस के जिप फुलाई थी, आज कपड़ा-सी निचोड़ लोगी, तब छोड़ेंगे।और तब हुआ भी यही कि वे चोटी खींच पुरजोर झटके दे उठे तो, लाख आह-ऊह के बीच कमर घुमा-घुमा वह भी कपड़ा-सा निचोड़ उठी...!...नियत तारीख को वह ट्रेन से एक घंटा पहले अपना लगेज ले स्टेशन जा पहुँची। आकाश प्लेटफार्म पर ही मिल गए। उसे देखकर चकरा गए वे। वह सचमुच, हीरोइन लग रही थी आज! सो, वे उसी में खोए रहे और उसने रिजर्वेशन बोर्ड पर चस्पाँ सूची में अपने नाम देख लिए, पानी की बोतलें, चिप्स-बिस्किट के पैकेट खरीद लिए। फिर वे लोग यात्री बैंच पर बैठ खामोशी पूर्वक ट्रेन की प्रतीक्षा करने लगे। मानों यह तूफान के पहले की खामोशी हो! क्योंकि इस बीच बहुत कुछ घट गया था। चाहत चौगुनी बढ़ गई थी। अगस्त के बाद वे तसल्लीपूर्वक जून में मिल रहे थे। इस बीच सन बदल गया था। ऋतुएँ बदल गई थीं। दोनों के जन्मदिन बिना मनाए निकल गए थे। और वसंत पंचमी का वह यादगार दिन निकल गया था, जब पहली बार दोनों उस सेमिनार में मिले थे, जिसमें वह उनका फाइलों में छुपाकर कार्टून बनाया करती थी।और... मिल रहे थे, यह गनीमत थी! मिलने की आशा तो क्षीण हो चुकी थी। भविष्य इतना अनिश्चित हो गया था कि किस रूप में मिलेंगे, सोच पाना भी कठिन था। जीवन में ऐसा घोर संकट इससे पहले आया नहीं था। लग रहा था, हर तरह से ऐन रसातल में चले गए! मगर देखिए, कैसे सूखे निकल आए...! ये किस अदृश्य-शक्ति का खेल था?' वे नेहा को कनखियों से देखते सोच रहे थे जो फैसला पक्ष में सुनने के बावजूद पिता के साथ उसी घर में रहने चली गई थी जो कैद में बदल गया था...। उसके पूर्वानुमान और हौसले से वे चमत्कृत थे, आज!ट्रेन आ गई तो दोनों बोगी में आ गए। उसे लोअर बर्थ देकर आकाश सामने की ऊपर वाली बर्थ पर चढ़ गए थे। फीमेल के कारण ही एक लोअर मिली थी। नेहा को पहली बार उनके साथ इस तरह जाते हुए भारी संकोच हो रहा था। इसी मारे वह हाँ-हूँ के सिवा, खुलकर बात नहीं कर पा रही थी। दिमाग मम्मी-पापा, भाई-बहनों पर ही घूम रहा था। उनकी नजर में तो वह हनीमून पर जा रही थी...। और यह बात आकाश से कह देने को जीभ खुजला रही थी, पर कहने की सोच कर ही मुस्कराहट छूटी पड़ रही थी। वैसे भी यह महीना उसकी जिंदगी के लिए अहम है। साल भर पहले जून के इसी महीने में तो वह उनके साथ चौक पर कुल्फी खाने गई थी, लॉज में कपड़े धोने, अपने ही घर में जीत का सेहरा बाँधने और फिर मंदिर पर रसोई रचाने...। सोते-जागते बराबर एहसास बना रहा कि मुहब्बत निश्चित तौर पर दैहिक आकर्षण से शुरू होती है। देह प्रत्यक्ष नहीं होती वहाँ भी स्त्री के लिए पुरुष और पुरुष के लिए स्त्री की इमेज से ही प्रेमांकुर फूटते हैं हृदय में।...कन्जेक्शन के कारण ट्रेन इतनी लेट पहुँची कि उन्हें सीधे मीटिंग में पहुँचना पड़ा। थकान और घबराहट दोनों एक साथ! मगर बड़े से प्रोजेक्टर पर जब उनके परियोजना क्षेत्र का नक्शा दिखलाया गया और रोशन बिंदुओं को स्ट्रिक से छू-छूकर नेहा-आकाश के नाम के साथ उल्लेखित किया गया तो दिल में खुशी से दर्द होने लगा...।लंच के बाद ग्रुप डिस्कशन हुआ। संयोग से उसे ग्रुप लीडर के रूप में बोलने का मौका मिला। तब सेक्रेटरी ने एक ऐसा प्रश्न खड़ा कर दिया कि वह चकरा गई। आकाश ने अपनी सीट से हाथ उठाकर बोलने की अनुमति चाही, पर उसने उन्हें वरज दिया और नेहा को चैलेंज करने लगा, 'येस-मैडम! सपोज कि आपको प्रोजेक्ट मिल गया, आपका एचीवमेंट भी सेंट-परसेंट रहा... मगर क्या गारंटी है कि आफ्टर समटाइम, रेट जहाँ का तहाँ नहीं पहुँच जाएगा?''नो स-र! इसकी तो कोई गारंटी नहीं है...।' कहते श्वास फूल गया।पार्टिसिपेटर्स हूट करने लगे।आकाश का मुँह उतर गया था। मगर अगले ही पल उसने साहस जुटा कर आगे कहा, 'लेकिन-सर! इतिहास गवाह है कि बुद्ध ने अहिंसा का कितना बड़ा तंत्र खड़ा कर दिया था, गांधी ने स्वदेशी का जाल बुन फेंका और आँबेडकर ने मुख्य रूप से जातिगत असमानता से निबटने के लिए ही समाज को ललकारा पर हम देख रहे हैं, सब उल्टा हो रहा है...। सर! मैं कहना चाहती हूँ कि समाज अपनी गति से चलता है सर!'तो तालियाँ बजने लगीं। और सेक्रेटरी ने कहा, 'साफगोई के लिए शुक्रिया। पर हमें किसी निगेटिव पाइंट ऑफ व्यू से नहीं सोचता है, दोस्तो! ओके। अटेंड टु योर वर्क!'आते समय उन्हें बताया गया कि कुछेक प्रोजेक्टस पर आज नाइट में ही मंत्रालय की मुहर लग जाएगी। वे लोग आज डेली में ही रुकें। और यह बात सभी जिलों से नहीं कही गई थी। इसलिए उन्होंने कयास लगा लिया कि कम से कम हमें तो हरी झंडी मिल ही गई!'उत्साह और हर्ष के कारण दम फूल-सा रहा था। उसके रोल से आकाश तक इतने इंप्रेस हुए कि आदरसूचक शब्दों का इस्तेमाल करने लगे। रोके गए प्रतिनिधियों को एक रिप्युटेड गेस्टहाउस में ठहराया गया! वहीं पदाधिकारियों के साथ रात्रिभोज की व्यवस्था थी। फ्रेश होकर वे वीआईपीज की तरह डाइनिंग हॉल में पहुँचे। बैरे तहजीब से पेश आ रहे थे। कुछ ऐसा माहौल बन गया था कि उसे खुद पर गर्व महसूस हो रहा था। कॉन्फिडेंस के साथ, मैच करते ब्लाउज में पहली बार उसने साड़ी पहनी। हाई हील के सेंडिल और कलाइयों में चूड़ियाँ। इंप्लीमेंटेशन को लेकर दिमाग में नए-नए आईडियाज कौंध रहे थे। अब वह समझ सकती थी कि - तनाव मुक्त मस्तिष्क ही बैटर प्लानिंग दे सकता है।आकाश ने जोड़ा - अफसरों को इसीलिए सुविधाएँ मुहैया कराई जाती हैं, ताकि पीसफुली सोच सकें, बेहतर कर सकें। सर्वहारा के मसीहा लेनिन तक बड़ी ग्लैमरस लाइफ बिताते थे। क्योंकि जनता को आकर्षित करने का यही एक तरीका है। जब तक उसे नहीं लगे कि नेतृत्व अवसर और सुरक्षा दे सकता है, वह साथ नहीं देने वाली।इन्ज्वाइमेंट की गरमी में जोड़े चिड़ियों से चहक रहे थे। उनकी आँखों में उड़ान, वदन में बिजलियाँ कौंध रही थीं।- मतलब, गरिष्ठ भोजन और खुले मनोरंजन से ही शरीर को बल, दिमाग को ऊर्जा मिल सकती है, ना! होटल तभी आबाद हैं।' उसने विनोद किया।झेंपकर वे मुस्कराने लगे। मौसम खुशगवार हो गया।डाइनिंग हाल से निकल कर वे होटल के पार्क में आकर बैठ गए थे। मैथ्यू सर वहाँ पहले से बैठे हुए थे। नेहा को देख खासा चपल हो उठे। थोड़े से नशे के बाद वे काफी खुल भी गए थे। आकाश से कहने लगे, 'इस लड़की में बहुत ग्रेविटी है... तुम इसकी आर्गनाइजिंग केपेसिटी नहीं जानते... जानते हो, टु अवेल ए चांस!'और आकाश हर बात पर 'जी' 'जी' कर रहे थे, क्योंकि उन्होंने असेस किया था, सैंक्शन उन्हीं की रिकमंडेशन पर मिलने जा रही थी। बीच में वे किसी शारीरिक जरूरत के लिए उठ गए तो मैथ्यू सर ने उसका दिमाग चाट लिया!'पता है, विवाह के समानांतर एक नई व्यवस्था चल पड़ी है, लिव-इन रिलेशनशिप!?''जी!''अगला प्रोजेक्ट इसी पर लाना है तुम्हें!''पर उधर तो अभी शुरूआत नहीं हुई, सर!''उसमें क्या, तुम्हीं कर-दो!''........''बोलो-तो...?' नशे में वे अड़ गए।पैसठ-छियासठ की उम्र। कलाइयाँ भूरे रोमों से आच्छादित। भारतीय प्रशासनिक सेवा से रिटायर्ड, योजना आयोग के सदस्य। उनके खिलंदड़ेपन पर वह शर्म से मुस्कराने लगी। पर रूम में आकर यकायक सीरियस हो गई। फैसला याद आने लगा :'पिटीशनर इज ए मेजर लेडी... इज एट लिबर्टी टु मूव एँड टु लिव अकार्डिंग टु हर विल, सिंस शी हेज द केपेसिटी टु डिसाइड व्हाट इज रोंग एँड व्हाट इज राइट फोर हर वेलफेयर।'आकाश से कुछ देर पाक-अमेरिका की बातें करने के बाद साड़ी पहने ही बिस्तर पर अधलेटी हो आई, जैसे सजधज कर फिर किसी समारोह में जाना हो!वे भी सजे-धजे सोफे पर बैठे न्यूज देख रहे थे।टीवी की आवाज, रातदिन की थकान और भोजन के नशे के कारण उसकी पलकें झुकने लगीं...। कुछ देर तो आँखें ताने स्क्रीन देखती रही, फिर झपक गई और सपना देखने लगी कि - घर में भीड़ भरी है और मेरी उनसे शादी हो रही है!मम्मी मान नहीं रहीं, मैं रो रही हूँ...।फिर देखा, कि वे अचानक बहुत छोटे हो गए हैं...। उससे आधी उम्र के! महज दस-बारह बरस के! तो, मम्मी हँसकर मान गई हैं! पर वह घबराई हुई पड़ोस के घर में जा छुपी है...आकाश ढूँढते फिर रहे हैं!झंझावात में नींद टूट गई। टीवी पर न्यूज नहीं, 'लव-यू लव-यू, किस-मी किस-मी' का दौर चल रहा था। और वे सोफे से टिके उसी को ताक रहे थे! स्वप्न और यथार्थ के मेल से घबराई, कपाट से काँख में वस्त्र दबा बाथरूम में चेंज करने चली गई। तब उन्होंने भी परदे के पीछे जाकर कपड़े बदल लिए। मगर संकोचवश फिर से सोफे पर आ बैठे। बिस्तर पर जाने की हिम्मत न हुई। नेहा चेंज करके लौटी तो, वे उसे फूलों-से हल्के श्वेत गाउन में देख ठगे-से रह गए।कपाट बंद कर वह सोफे के नजदीक से गुजरती मंद मुस्कान के साथ बोली, 'आज सोना नहीं है!''नहीं, आज तुम सुंदर लग रही हो!''अच्छा...' कहते हँस पड़ी। और वे उसके कंधों पर झूलते गोलाकार शेप के स्याह बालों पर मुग्ध, अभियान का एक गीत गुनगुना उठे, 'सारी दुनिया अपनी है, बस बाँहें फैलाना तुम...''कोर्ट फीस चुकानी पड़ेगी क्या?' चहक कर पूछा उसने और बत्ती बुझा पहुँच गई बिस्तर में। इशारा समझ दिल में हूक उठने लगी। सोफे से उठ धड़कते दिल से वे उसके बगलगीर हो रहे। वो पिछली मुलाकात जो तीन प्रांतों के संगम पर हुई थी, बारहा याद आ रही थी...कान से मुँह लगा ऐसे फुसफुसाए, जैसे कोई सुन न ले : ऐ ई, उस दिन तुम कैसे तीन पाँव की तख्ती पर लक्ष्मी का अवतार बन गईं...''और तुम आतुर हयग्रीव!' बात उसने बीच में लपक ली। लाक्षणिक अर्थ में ऐसी बात, जिसका उद्देश्य ही भड़काना हो! आवेग में भर गये आकाश...और उसका पिघलता वदन अपने भुजपाश में कस काँपते कंठ से बुदबुदा उठे,  'कहे इक बात फूले सौ शगूफ़े, शरीरों ने बनाई फुलझड़ी बात...'सुबह जब चिड़ियाँ बोल रही थीं, वे पीसफुली सो रहे थे। और वह थकान और जगार से उनींदी बिस्तर में एक अप्रतिम सुख से सराबोर सोच रही थी कि अब शायद वह एक ऐसी स्त्री बन जाय जो उनसे संबंध बनाए रखकर भी अपने परिवार में बनी रहे। अपनी संतान को अपने नाम से चीन्हे जाने के लिए संघर्ष करे। शायद उसे सफलता मिले! परिस्थिति-वश एक सामाजिक क्रांति के बीज उसके मन में उपज रहे थे। और फुलझड़ी से झड़ते चेहरे में तमाम पौराणिक स्त्रियों के चेहरे आ मिले थे...।00