-नीलम कुलश्रेष्ठ
तब वे एक पुस्तक विमोचन के अवसर पर मंच पर मुख्य अतिथि की तरह उपस्थित थीं। वे कह रही थीं, “आप करोड़ रुपये भी किसी के सामने रखकर कहिए कि मुझे कवि बना दीजिए तब भी वह आपको कवि नहीं बना सकता। कविता करना, लेखन करना भगवान का दिया आशीर्वाद है। मुझे साहित्य में रुचि है, लेकिन मैं कविता नहीं लिख सकती, मैं तो इस क्षेत्र में चिड़िया हूँ।“
श्रोताओं में बैठी मैं कह उठती हूँ, “तीसरे सत्र में भी बड़ौदा ने आपको ही सांसद चुना है, तो आप चिड़िया कहाँ है, आप तो शेरनी हैं।“
उनकी हाज़िर जवाबी थी, “यदि कोई हमारे देश की तरफ दुश्मन-नजर से देखे तो मैं शेरनी हूँ वरना कविता के क्षेत्र में तो छोटी-सी चिड़िया हूँ।“
श्रोताओं में से कोई कहता है, “वह भी कोयल।“
बड़ौदा की सहज, लेकिन विलक्षण सांसद, जयाबेन ठक्कर, हँस पड़ती हैं। जया बेन सन 1998 से 2009 तक लोक सभा में सांसद रहीं .एक बार वह अस्मिता, महिला साहित्यिक मंच के कार्यक्रम में आकर मंच पर से ही गीतों को गाती कोयल बन गई थीं, “मैं भी तुम्हारे संग चलूँगी ,`रूक जा ए हवा ! थम जा ए हवा।`“
पुरुष शासित क्षेत्र राजनीति में उन्होंने पुरुष के साथ चलकर अपनी जिद्द को प्रमाणित भी कर दिया है लेकिन अपनी नारी सुलभ भावनाओं को नहीं खोया है, वे अपना पसंदीदा गीत गाती है, ‘तड़प ये दिन रात की, कसक ये बिन बात की ।’ वे गाने का रियाज करतीं हैं, बेहद मुश्किल में जुटाये क्षणों में या कार यात्रा के दौरान।
एक झलक और- महिला दिवस के दिन वे मंच पर उपस्थित थीं। गरबा गायिका के साथ झूम-झूम कर गरबा गा रही थीं। मैं हाथ में खाने की प्लेट लिये उन्हें अभिवादन करने गई। उनकी बातों में कुछ ऐसी उलझी कि खाना का ध्यान नहीं रहा। वे धारा प्रवाह बोल रही थीं, ‘अगर हर काम दिल से पूरी सामर्थ लगा कर किया जाए, तो व्यक्तित्व अपने आप सुंदर बनता है। मैं कभी ब्यूटी पार्लर नहीं जाती लेकिन योग करती हूँ।’
मुझे लगता है कि वह कम से कम एक डेढ़ घंटा योग करती होंगी। उनके घर पर बैठे हुए ये राज खुलता है कि वह कैसा योग करती हैं। वे बताती हैं, ‘मैं हमेशा सहज योग करती रहती हूँ। ध्यान रखती हूँ कि हर साँस से वायु नाभि तक अवश्य पहुँचे।’
यानी कि उनका हर काम साँस से जुड़ा है, जैसे कि एक सांसद की तरह उनकी मानसिकता कि सरकारी पैसे का एक एक पैसा ज़रूरतमंदों तक ही पहुँचे। पार्टी उन्हें ऐसे क्षेत्रों की समस्याएं सुलझाने के लिए भेजती है, जहाँ पर पार्टी के कार्यकर्ता असफ़ल होकर लौट आते हैं। जहाँ बंदूकें चल जाती हैं या कुछ लोग पिटकर फटी कमीजों के साथ निराश लौट आते हों।
वे बताती हैं, “मैं ऐसे स्थानों से सफ़ल होकर लौटती हूँ। लोग कहते हैं क्या दादागिरी है। मैं कहती हूँ ये दादागिरी नहीं है। मैं स्त्री हूँ, इसलिये ये दादीगिरी है। स्त्रियां अपने को पता नहीं क्यों अबला मानती हैं? वे तो सबला है। औरत के हथियार है स्नेह से समझाना, आँसू व कर्मठता। मेरा विश्वास है स्त्री के सेवाभाव, प्रेम, समर्पण, सद्भावना और यहाँ तक कि माँ के दूध तक में दादीगिरी है। इस दादीगिरी के आगे अच्छे अच्छे झुक जाते हैं, सहयोग देते हैं।”
उन्हें गुजरात के या देश-विदेश के सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक या धार्मिक कार्यक्रमों में देखा जा सकता है। गांव के दौरों में ग्रामीण महिलाओं में से वे एक बन जाती हैं। यदि सरपंच महिला हो, तो वह बड़े ही श्रद्धा भाव से जयाबेन के हाथ जोड़ती है, क्योंकि हर राजनीति में आई महिला का आदर्श जयाबेन हैं। वे हँसती बोलती, खिलखिलाती, निखालिस गुजराती अदा में सामने वाले के हाथ पर अपने हाथ से ताली मारती मिल जायेंगी। इतनी ऊर्जा, कर्म के प्रति इतना समर्पण, निष्ठा व ईमानदारी का स्रोत क्या है, जो बड़ौदा की आम जनता ने तीसरी बार भी उन्हें ही चुनकर संसद भेजा था।
आपने ये कहावत तो सुनी होगी `सोने की चम्मच के साथ जन्म लेना ` लेकिन, जयाबेन ने एक समृद्ध परिवार में प्लेटिनम की चम्मच के साथ जन्म लिया था क्योंकि जब वे पाँच वर्ष की थीं, तो उनकी सगाई भरतभाई से हो गई थी, जिनके दादाजी हिम्मतभाई की सात मिलें थीं, सात गाँवों में से आधे गाँव उनके थे। उस पर ऊपर वाले की इतनी मेहरबानी कि ऐसा कहता कि उस प्लेटिनम की चम्मच पर संस्कारों के हीरे, मोती, माणिक जड़े थे, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। उनके दादा ससुर को गीता कंठस्थ थी, जो ज्ञान, विज्ञान, संस्कृति में बहुत रूचि रखते थे। उन्होंने अपनी जमीन देकर गर्ल्स हॉस्टल बनवाया था।
जयाबेन की शिक्षा-दीक्षा बड़ौदा में हुई । अंग्रज़ी व हिन्दी के साथ वह संगीत भी सीखा करती थीं व आकाशवाणी पर कार्यक्रम देती थीं, जब उन्होंने संगीत की परीक्षा उत्तीर्ण की, तो उनके दादा ससुर ने एक अँगूठी दी, जो आज भी उनकी ऊँगली में जगमगाती रहती है।
वह बचपन से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में जाती थीं। वहीं उन्होंने सीखा राष्ट्र सेवा, राष्ट्रपिता, शिक्षा व मानव धर्म, समाज धर्म क्या होता है ? प्रत्येक नागरिक की क्या ज़िम्मेदारी होती है। उनके पति भरतभाई बड़े होकर आर.एस.एस. के ज़िला ज संचालक बने। आज उनके दोनों बेटे श्यामल व धवल ज़िला संचालक हैं। एक बातचीत में मैं पूछती हूँ।
“आपके व्यक्तित्व की स्फ़ूर्ति का राज?”
“बचपन से ही दोनों परिवारों से मुझे व्यक्तित्व विकास का मौका मिला। जब भी कॉलेज से किसी की फ़ीस न देने के कारण कॉलेज छोड़ने की नौबत आ जाती सबसे पहले मेरे पिताजी फ़ीस भर आते थे। ससुराल में भी समृद्धि साथ ज्ञान व उदारता थी। मेरे ये दोनों परिवार कुलीन व संस्कारी थे। यहाँ हमेशा सिद्धांतो का पालन होता था । मैं अपने मातापिता की बहुत लाड़ली थी, क्योंकि उनके विवाह के सत्रह वर्ष बाद मेरा जन्म हुआ था। उनका प्यार भी अनुशासित था, जिससे आज मैं अनुशासित जीवन जी रही हूँ।”
“आप की किस बात पर सबसे अधिक आस्था है?”
“मेरी आस्था है- `जो रब का है, वह सब का है आज से नहीं कब का है, सृष्टि बनी तब का है।` मेरे दादा ससुर शास्त्रों के निचोड़ कर्म, यज्ञ व दान पर विश्वास करते थे। गीता मंदिर में समाज सेवा का किया जाने लगा, तो उन्होंने एक लाख रुपया गीता मंदिर को दान दिया था।”
जब वह आर.एस.एस. में काम करती थीं तब उन्होंने एक-एक करके गीता के अठारह अध्यायों की परीक्षा दी थी। यहीं पर करीब सत्तासी बच्चों को प्रशिक्षण दिया। जब इस संगठन का उद्देश्य था लड़कों को मुक्त मन से ऐसा प्रशिक्षण देना कि वे राष्ट्र के सर्वोच्च शिखर पर आसीन हों, तब उनके दादा ससुर ने प्रश्न उठाया कि क्या बेटियों के लिए कुछ नहीं करना है ? तब लड़कियों के लिए भी पंद्रह दिन का ऑफ़िसर ट्रेनिंग सेन्टर (ओ.टी.सी.) आरम्भ किया, व उनमें आत्म विश्वास जगाया गया कि महिला अबला नहीं सबला है। संसार-रथ की सारथी है। उन्होंने केशुभाई पटेल के साथ काम किया।
जया जी के व्यक्तित्व में आंतरिक समृद्धि व दृढ़ता परिलक्षित होती है। उनका विश्वास है मन को मंदिर बनाओ, घर को, समाज को मंदिर बनाओ। उनकी सफ़लता का एक और राज है। उन्हें जो जन कल्याण के लिए संसद निधि से दो करोड़ रुपये मिलते हैं, वह पूरी प्रामाणिकता के साथ लोगों के विकास की योजना बनाकर खर्च करतीं हैं । पहले जरूरतमंद क्षेत्रों का दौरा करती हैं। कहीं सड़क बनवानी है, कहीं पानी का इंतजाम करना है, कहीं कुछ और माँगें हैं। इनमें से जायज माँगों को चुनकर संसद निधि में से रुपया देती हैं। बाद में उस काम के लिए क्षेत्र विकास निधि जन कल्याण निधि से सहायता दी जाती है। ये सब काम कलेक्टर की देख रेख में होते हैं। इस शहर को केन्द्रीय सरकार से संबद्ध बनाने की वह बीच की कड़ी है। गुजरात के प्रश्नों को संसद में उठाने में भी वह अग्रणी है। स्वास्थ्य समस्याएं, प्रदूषण नियंत्रण, एच.आई.बी. क्षेत्रीय विकास, पानी प्रबंध, शिक्षा आदि ऐसे कार्य हैं जो, वे बहुत धीरज के साथ करती जा रही हैं।
मैं पूछती हूँ, “आपकी राजनीति में रुचि थी?”
“ये बात मैंने सोची भी नहीं थी। केशुभाई की सरकार के समय उन्होंने मुझे ग्राहक सुरक्षा संगठन में लीलाबेन चाँदोदकर के साथ लिया। मेरे काम को देखकर सब समझ गए कि मेरा स्वभाव कैसा है? मैं स्पष्ट बोलने की हिम्मत रखती हूँ। आनंदीबेन पटेल व श्री अटल बिहारी वाजपेयी की प्रेरणा से मैं राजनीति में आई। उनका मानना था कि सम्भ्रांत घरानों की महिलाएँ राजनीति में .आयेंगी तो समाज अच्छा बनेगा। सन 1971 में भरतभाई से मेरी शादी हुई। हमारे परिवारों के संस्कार ऐसे थे कि मुझे याद नहीं आता कभी हमारा झगड़ा हुआ हो या एक मिनट भी एक दूसरे से नाराज हुए हों।”
“एक सांसद सदस्य के रूप में भी आपको जनता ने सिर आँखों पर बिठा रखा है।”
“यदि सभी संसद सदस्य ये सोच लें कि जनता ने ही हमें चुनकर ये पद दिलवाया है तो लोगों की समस्याएं सुननी चाहिए, उनका निदान करना चाहिए, सच्चाई का साथ देना चाहिए, परोपकार करते रहना चाहिए, तो जनता भी आपको मान्यता देगी।”
वड़ोदरा जिले में विभिन्न एन.जी.ओ. व सरकार की सहायता से बने निम्नवर्ग की महिलाओं के पैंतालीस सौ स्वयं सहायता दल (सेल्प हेल्प गृप) हैं। जिनके बारे में जयाबेन का कहना है, “जो कमजोर वर्ग की स्त्रियाँ आती थी इन दलों की सहायता से अपना जीवन संवार रहीं हैं। मेरी निजी रूचि महिला उत्थान में है, इसलिये मै संसद सदस्य होकर भी इनका काम देखती हूँ।”
“इनका आर्थिक स्तर क्या बढ़ रहा है?”
“बिल्कुल, यदि ये बहिनें प्रतिदिन एक रुपया बचत करती हैं, तो महिने में तीस रुपये बचते हैं। यदि कोई दल अच्छी बचत करता है, तो राष्ट्रीयकृत बैंक उन्हें छः महीने बाद लघु उद्योग के लिए लोन देता है। हम लोग उन्हें बचत के लिए व अपना लघु उद्योग खोलने के लिए प्रोत्साहित करते हैं।”
“आप जनता की शिकायतें कब सुनती हैं?”
“मैं शनिवार को तीन घंटे जनता से अपने ही घर में बनाये ऑफिस में मिलती हूँ। आप इतनी देर से देख रही होंगी मैं जब घर में होती हूँ तो मैं ही फ़ो उठाती हूँ।”
“आप इतने कार्यों के लिये समय कैसे निकालती हैं?”
“समय का यदि समुचित प्रबंधन किया जाये तो बहुत से काम किये जा सकते हैं।”
“आपके कार्यों से लोग संतुष्ट होते हैं?”
“हाँ, होते तो हैं, किन्तु यह एक थैंकलेस जॉब है, किसी व्यक्ति के सौ में निन्यानवे काम कर दो, लेकिन एक नहीं हो पाए तो वह नाराज़ हो जाता है।”
“आप को अपने कामों से संतुष्टि मिलती है?”
“हाँ, बहुत, लेकिन मुझे सबसे अधिक संतुष्टि मिलती है पत्नीत्व व मातृत्व से । मैं रसोई में जाकर कुछ बनाती हूँ तो बहुएं कहती भी हैं आप इतने बड़े पद पर हो तो काम क्यों करती हो? मैं उनसे यही कहती हूँ जब स्त्री अपनों के लिए कुछ पकाती है तो वह सुख विलक्षण होता है।”
बाजवा के ग्राम पंचायत चुनाव में पंच के पद की उम्मीदवार ने आखिरी समय में नाम वापिस ले लिया तो जनता ने चुपचाप उनकी छोटी बहू सेजल का नाम प्रस्तावित करके उन्हें पंच चुन लिया। जनता में है एक राजनीतिज्ञ, एक सांसद, पर जनता की आस्था का प्रमाण यही है। यही है जयाबेन का जनता के लिए समर्पण का प्रमाण।
“आप अपनी सफ़लता का श्रेय और किन बातों को देना चाहेंगी?”
“राग द्वेष से दूर, मनोयोग व स्वच्छ मन से कर्म करते चलो तो ईश्वर अवश्य सफलता देता है। लोगों का मुझ पर इतना विश्वास है कि म्युनिसपल स्तर की भी समस्या लेकर मेरे पास आते हैं।”
जयाबेन के व्यक्तित्व का विश्लेषण करके लगता है, हर परिवार में पैदा होने वाला बच्चा सोने या प्लेटिनम की चम्मच के साथ पैदा नहीं हो सकता, लेकिन यदि हीरे, मोती, पन्ना, माणिक जैसे अच्छे संस्कार उसके व्यक्तित्व में जड़ दिये जायें तो वह दुनिया को अवश्य निर्मल बनाता रहेगा।
मेरा उनसे अंतिम प्रश्न था ,``आपकी प्रगति का क्या यही राज़ है की दोनों परिवार साथ दिया ?``
``हाँ ,और तकदीर ने भी --रास्ता गुलाब फैलाताचला गया और मैं उस पर निरंतर चलती गई। ``
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नीलम कुलश्रेष्ठ
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