उन्नीस सौ बानवे के जिन दिनों कस्बापुर के एक पुराने डाकखाने में जब मैं सब पोस्ट मास्टर के पद पर नियुक्त हुआ था,तो मैं नहीं जानता था अस्सी वर्षीय मणिराम मेेरे डाकखाने पर रोज़ क्यों आते थे ?
‘स्टोरेज कनवेयर’ में क्यों झांकते थे?
‘सैगरिगेटर’ के ऊपरी बेलन पर घूम रही ‘मिक्स्ड’ डाक को बीच में रोक कर उसकी ‘फ़्लो’ क्यों बिगाड़ दिया करते थे?
बाहर से आए पत्रों के ‘एड्रेस’ की ‘फ़ेसिंग’ कर रहे कर्मचारी का हाथ क्यों बंटाया करते थे?
‘शार्ट’ हो चुके पत्रों के ‘पिजनहोल’ में क्यों अपना हाथ जा डालते थे?
फिर मुझे बताया गया बाइस वर्ष पूर्व वह मेरी कुर्सी से रिटायर हुए थे–सन उन्नीस सौ सत्तर में–और जभी से सरकारी छुट्टियों के अतिरिक्त इने-गिने दिनों को छोड़ कर,जब उन की बेटी यहां कस्बापुर आयी होती,डाकखाने आने का उन का नियम कभी नहीं टूटा था। उन की बेटी तनिकको ब्याहे हुए सत्ताईस वर्ष पूरे होने जा रहे थे,किंतु उन पिता -पुत्री के पोस्टकार्डों का नैत्य मंद न पड़ा था ।
जिज्ञासावश मैं पिता- पुत्री के पोस्टकार्ड छानने लगा । तिथियों के अतिरिक्त किसी भी पत्र में ज़्यादा कुछ न रहता ।
पुत्री हर पत्र में लिखती ही लिखती,’ अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखियेगा,बाबा।मेरी ओर से,मेरी खातिर…..’
और मणिराम हर पत्र में दोहराते ही दोहराते, ‘अपनी खुशी अपनी मूठ में रखना,बिटिया।और खूब खुश रहना….’
फिर एक साथ तीन दिन उन की पुत्री का पत्र नहीं आया ।
चौथे दिन उन्हों ने हमारे ही डाकखाने से बस्ती के लिए एक ट्रंक कौल बुक करायी । उसी हेडमास्टर के नाम जिस की मार्फ़त वह पुत्री को पत्र भेजा करते थे। यह वह समय था जब मोबाइल और पी.सी.ओ. जैसी सुविधाएं जनसाधारण को उपलब्ध नहीं थीं ।
पूरे पांच घंटे उन्होंने उस ट्रंक कौल के कार्यान्वित हो जाने की प्रतीक्षा में हमारे पास बिताए: मूर्तिवत।
कौल जब मिली तो वह बातचीत के बीच ही अचेत होकर फ़र्श पर ढह गए।
मैं ने दो आदमी डॉक्टर के यहां दौड़ाए और दो उन के घर के पते पर।
डॉक्टर पहले आए। उन्हों ने नब्ज़ देखी और सिर हिला दिया,’ इन का निधन हो चुका है।’
परिवारजन के दो स्कूटर सवार बाद में आए,
’हमारे दादा ,मणिराम , यहां हैं?’
‘ क्या आपकी बुआ नहीं रहीं?’ मैं ने पूछा।
‘आप कैसे जानते हैं,’ एक नए हैरानी जतलाई।
‘फूफा जी ने क्या इधर भी फ़ोन किया था?’
‘उधर चाचा जी के दफ़्तर पर फूफाजी ने रात में चौकीदार को बताया था,’ दूसरा बोला।
‘लेकिन चौकीदार रात में दफ़्तर कैसे छोड़ता? चाचा सुबह दफ़्तर पहुंचने पर ही जान पाए। फिर घर दौड़े आए तो बाबा गायब मिले,’ पहला बोला।
‘ समझिए पिछले चार घंटों से शहर भर में हम बाबा ही को ढूंढ रहे थे…’ दूसरे ने जोड़ा।
‘इधर क्यों नहीं आए?’ मैं ने उन्हें लताड़ा।
‘हमें क्या मालूम? वह यहां होंगे?घर में किसी से बात ही नहीं करते थे ।मानो वह बोलना जानते ही न थे ।’