*!! नया नज़रिया !!*
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*झारखंड के एक छोटे से कस्बे में एक बालक के मन में नई-नई बातों को जानने की जिज्ञासा थी। उस बालक के मोहल्ले में एक गुरुजी रहते थे। एक दिन बालक उनके पास गया और बोला, 'मैं कामयाब बनना चाहता हूं, कृपया बताएं कि कामयाबी का रास्ता क्या है?'*
*हंसते हुए गुरुजी बोले, 'बेटा, मैं तुम्हें कामयाबी का रास्ता बताऊंगा, पहले तुम मेरी गाय को सामने वाले खूंटे से बांध दो, कह कर उन्होंने गाय की रस्सी बालक को दे दी। वह गाय किसी के काबू में नहीं आती थी।*
*अतः जैसे ही बालक ने रस्सी थामी कि वह छलांग लगा, हाथ से छूट गई। फिर काफी मशक्कत के बाद बालक ने चतुराई से काम लेते हुए तेजी से भाग कर गाय को पैरों से पकड़ लिया। पैर पकड़े जाने पर गाय एक कदम भी नहीं भाग पाई और बालक उसे खूंटे से बांधने में कामयाब हुआ।*
*यह देख गुरुजी बोले, 'शाबाश, बेटे यही है कामयाबी का रास्ता। जड़ पकड़ने से पूरा पेड़ काबू में आ जाता है। अगर हम किसी समस्या की जड़ पकड़ लें, तो उसका हल आसानी से निकाल सकते हैं।*
*बालक ने इसी सूत्र को आत्मसात कर लिया और जीवन में आगे बढ़ता गया।*
*शिक्षा:-*
*हमें किसी भी समस्या का हल तब तक नहीं मिलता जब तक हम उसकी जड़ को नहीं पकड़ लेते। अत: हर समस्या का समाधान उसकी जड़ काबू में आने पर ही होता है।*
*"मौत से बड़ा भय"*
*एक पुरानी तिब्बती कथा है कि दो उल्लू एक वृक्ष पर आ कर बैठे। एक ने सांप अपने मुंह में पकड़ रखा था। भोजन था उनका, सुबह के नाश्ते की तैयारी थी। दूसरा एक चूहा पकड़ लाया था। दोनों जैसे ही बैठे वृक्ष पर पास-पास आ कर, एक के मुंह में सांप, एक के मुंह में चूहा। सांप ने चूहे को देखा तो वह यह भूल ही गया कि वह उल्लू के मुंह में है और मौत के करीब है। चूहे को देख कर उसके मुंह में रसधार बहने लगी। वह भूल ही गया कि मौत के मुंह में है। उसको अपनी जीवेषणा ने पकड़ लिया और चूहे ने जैसे ही देखा सांप को, वह भयभीत हो गया, वह कंपने लगा। ऐसे मौत के मुंह में बैठा है, मगर सांप को देख कर काँपने लगा। वे दोनों उल्लू बड़े हैरान हुए। एक उल्लू ने दूसरे उल्लू से पूछा कि भाई, इसका कुछ राज समझे ? दूसरे ने कहा, बिलकुल समझ में आया। जीभ की, रस की, स्वाद की इच्छा इतनी प्रबल है कि सामने मृत्यु खड़ी हो तो भी दिखाई नहीं पड़ती। और यह भी समझ में आया कि भय मौत से भी बड़ा भय है। मौत सामने खड़ी है, उससे यह भयभीत नहीं हैं चूहा; लेकिन भय से भयभीत है कि कहीं सांप हमला न कर दे।*
*मौत से हम भयभीत नहीं हैं, हम भय से ज्यादा भयभीत हैं। और लोभ स्वाद का, इंद्रियों का, जीवेषणा का इतना प्रगाढ़ है कि मौत चौबीस घंटे खड़ी है, तो भी हमें दिखाई नहीं पड़ती। हम अंधे बने हुए है।*
*इस प्रसंग से हमें निम्नलिखित शिक्षाएं मिलती हैं:*
*1. भय का वास्तविक स्वरूप: हम अक्सर वास्तविक मृत्यु से अधिक अपनी कल्पनाओं और भय से डरते हैं। भय, चाहे वह वास्तविक हो या कल्पित, हमें कमजोर बना देता है।*
*2. लोभ का अंधापन: हमारी इच्छाएं और इंद्रियों का आकर्षण इतना प्रबल हो सकता है कि हम अपने चारों ओर के खतरों को नजरअंदाज कर देते हैं। यह हमें आत्मघात की ओर ले जा सकता है।*
*3. चेतना और विवेक की आवश्यकता: जीवन में सतर्कता और विवेक बहुत महत्वपूर्ण हैं। लोभ और भय से मुक्त होकर हमें अपने वास्तविक उद्देश्यों को समझना चाहिए।*
*4. मृत्यु की स्वाभाविकता: मृत्यु जीवन का स्वाभाविक हिस्सा है, इसे स्वीकार करना चाहिए। डर के बजाय हमें इसे समझने और जीवन को सार्थक रूप से जीने का प्रयास करना चाहिए।*
*5. संतुलन का महत्व: जीवन में लोभ और भय के बीच संतुलन बनाए रखना चाहिए ताकि हम सही निर्णय ले सकें।*
*सदैव प्रसन्न रहिये - जो प्राप्त है, पर्याप्त है।*
*जिसका मन मस्त है - उसके पास समस्त है।।*
आशिष