बीस
गौरांबर के दिमाग ने सुन्न होकर काम बंद कर दिया था। परन्तु उसे बस थोड़ा-सा ढाढस इस बात का था कि उसके साथ, उसी की भाँति इस्तेमाल किया जाने वाला एक युवक और भी था। इसी युवक से अब गौरांबर को यह भी पता चला कि सन्त जी पहले आखेट महल प्रोजेक्ट पर एक कर्मचारी ही थे। और बड़े रावसाहब ने इनके साथ इस तरह धोखा किया कि इन्हें साइट पर दूर भेजकर इनका घर लूट लिया। रावसाहब ने इनकी पत्नी से अनैतिक सम्बन्ध रखे और उसे बाद में कस्बे का एक मन्दिर दान में दे दिया। उसी युवक ने गौरांबर को बताया कि रावसाहब की रखैल बाद में भक्तन माँ के नाम से मशहूर हो गयी और इन्हें घर छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा।
गौरांबर सारी कहानी जानकर दाँतों तले अँगुली दबाकर रह गया। उसने काम की तलाश में भटकने के दिनों में भक्तन माँ का नाम कई बार सुना था।
सारी बातें उजागर हो जाने के बाद सन्त जी ने दोनों युवकों को यह भी बता दिया कि उन्हें क्या करना होगा। उद्घाटन समारोह के बाद विदेशी कंपनी के अधिकारियों, केन्द्रीय मंत्री, रावसाहब व अन्य कुछ सम्मानित लोगों के लिए महल में ही एक बड़ी पार्टी का आयोजन था। इसमें बहुत ही चुने हुए और सीमित लोग महल में आने वाले थे। गौरांबर और उस दूसरे युवक को उसी महल में तैनात करके उन गणमान्य लोगों के भोजन में विष मिलाकर उन्हें जान से मार देने की योजना थी। शंभूसिंह की उस सारे क्षेत्र से वाकफियत और रावसाहब से रिश्तेदारी की वजह से यह मुश्किल भी न था कि वे अपने आदमियों को महल के अतिथि कक्ष की रसोई में पहुँचा सकें।
गौरांबर अपलक वृद्ध की ओर देखता रहा। दूसरा युवक भी हैरत से यह दृश्य देख रहा था। तभी गौरांबर एकाएक मूर्छित हो गया। युवक घबराया। उसने घबराकर इधर-उधर देखा, वहाँ कहीं पानी का बन्दोबस्त भी नहीं था। सन्त जी ने गौरांबर का सिर अपनी गोद में रख लिया और अपनी चादर से जोर-जोर से हवा करने लगे। साथ वाला युवक उत्तेजित और परेशान-सा होकर आसपास कहीं पानी की तलाश करने लगा।
लगभग चालीस मिनट के बाद जंगल के रास्ते से होती हुई एक जीप वापस आयी। पर अब उसमें केवल दो-तीन आदमी ही बैठे हुए थे। वे लोग कुछ महत्त्वपूर्ण जानकारी लाये थे, इसी से उतरते ही सीधे सन्त जी के पास पहुँचे। गौरांबर तब तक सामान्य हो चुका था और उस युवक के साथ ही बैठा हुआ था। विक्षिप्तता का एक दौरा-सा पड़ने के बाद गौरांबर ने इस सारे कार्य के लिए सहमति दे दी थी। साथ वाला युवक भी आश्वस्त-सा था।
जीप से उतरा व्यक्ति लम्बे-लम्बे डग भरता हुआ सन्त जी के समीप पहुँचा। उसी से पता चला कि शहर में आज सुबह से ही जबरदस्त दंगा भड़क उठा है। कई इलाकों में कर्फ्यू लगा दिया गया है। रात को दो-तीन जगहों पर आगजनी भी हुई है।
कहते हैं कि कल देर रात अलीपाड़ा के कुछ नागरिकों का एक दल जिलाधीश से मिला था। और उन्होंने अस्पताल का उद्घाटन मंत्री महोदय से करवाने पर आपत्ति उठायी थी। उनका तर्क था कि अस्पताल की इस इमारत का भूमि पूजन हिन्दुओं की परम्परागत रीति से हुआ था और इसके प्रबन्ध न्यास में लगभग सभी हिन्दुओं का समावेश है। इतना ही नहीं, बल्कि आज रात को इसी इमारत में सत्यनारायण की महापूजा का विराट आयोजन भी किया गया है। इस क्षेत्र के अल्पसंख्यकों को संदेह था कि इससे सभी को समान न्याय मिलने की सम्भावना समाप्त हो गयी है। सरकार को इसमें हस्तक्षेप करना चाहिये और मंत्री महोदय को ऐसे किसी सार्वजनिक समारोह में शामिल होने से बचना चाहिए जो सिर्फ हिन्दुओं के लिए, हिन्दुओं की पद्धति से हो रहा हो।
जिलाधीश ने रात को ही आपातकालीन बैठक बुलायी थी और रात में ही यहाँ के विधायक व दिल्ली से भी फोन पर बात की। स्वयं रावसाहब भी सारी रात इसी चक्कर में व्यस्त रहे।
सुबह के अखबारों से यह बात शहर में फैलते ही जगह-जगह दंगा भड़क गया। युवकों के एक दल ने बस्ती के कब्रिस्तान में जाकर तोड़-फोड़ की और गोलियाँ चलायीं। खबर यह भी थी कि कब्रिस्तान में जिस समय यह हड़कम्प मचा हुआ था, तभी एक शव दफनाने के लिए कुछ लोग वहाँ आये थे। शव के साथ आये लोगों को दंगाइयों ने डरा-धमकाकर भगा दिया और फिर शव में ऐसे ही आग लगा दी। पुलिस ने अड़तालीस आदमियों को गिरफ्तार किया और दो राउण्ड गोलियाँ भी चलायीं। शहर में इस घटना के बाद जगह-जगह पर पथराव हुआ। अभी-अभी थोड़ी देर पहले लड़कियों के एक स्कूल में कुछ गुण्डे घुस गये और वहाँ तोड़-फोड़ की। स्वीडन की उस कंपनी के अधिकारियों ने उस परिवार को बड़ी राशि सहायता के तौर पर देने की पेशकश की थी, जिसके किसी मृतक के शव में दंगाइयों ने आग लगा दी।
कौन क्या कर रहा था, किसी को कुछ पता न था। बस एक कोहराम-सा सारे में मचा हुआ था।
सन्त जी दोनों युवकों व गाड़ी में आये अन्य लोगों के साथ आखेट महल परकोटे की ओर रवाना हो गये। काफी दिन निकल चुका था। धूप खिल रही थी, पर सड़कें वीरान पड़ी थीं। रास्ते में किसी भी पुलिस वाले को खड़ा देखकर सन्त जी ड्राइवर से जीप धीमी करने को कह रहे थे और फिर उनसे हालात के बारे में पूछताछ करते थे। जरा आगे जाने पर पुलिस की एक वैन खड़ी मिली और वहाँ सन्त जी द्वारा पूछताछ करने पर बताया गया कि कर्फ्यू के कारण कार्यक्रम में कोई खास बदलाव नहीं आया है और मंत्री महोदय सुबह ग्यारह के स्थान पर शाम को साढ़े पाँच बजे उद्घाटन करने वाले थे। दोपहर बाद कर्फ्यू में ढील दिये जाने की भी खबर थी। लोग बहुत कम दिखायी दे रहे थे, परन्तु कार्यक्रम की तैयारियाँ हो रही थीं। जीप धीरे-धीरे आगे बढ़ती हुई स्टेशन की ओर चली गयी।
स्टेशन के पीछे वाली सड़क पर यार्ड के उस तरफ एक छोटी-सी कॉलोनी में बने एक मकान में शंभूसिंह और उनकी पार्टी ने डेरा डाला था। यहाँ से थोड़ी देर के बाद ही वे लोग निकलने वाले थे। शंभूसिंह ने आँख मिलाकर आमने-सामने अब तक गौरांबर से कोई बातचीत न की थी। यद्यपि उसे यकीन अब भी न आता था, पर अब सुबह से ही उन लोगों की हलचल और गतिविधियाँ देखकर अविश्वास करने का भी कोई कारण न था।
समारोह स्थल पर गहमागहमी बढ़ती जा रही थी। चारों ओर पुलिस बन्दोबस्त भी और कड़ा हो गया था। यहाँ-वहाँ लोगों की आवाजाही दिखायी देने लगी थी। बस्ती का बाजार, केवल कर्फ्यू वाले इलाकों को छोड़कर, बाकी खुल चुका था। शहर में जगह-जगह पर बैनर लगे हुए थे। कहीं-कहीं सड़कों पर पोस्टर भी चिपकाये गये थे। दो-तीन पुरानी-सी जीपें घूम-घूम कर गली-गली लाउडस्पीकर पर कार्यक्रम होने की घोषणा कर रही थीं। साथ ही लोगों से ज्यादा-से-ज्यादा संख्या में उपस्थित होने का अनुरोध भी किया जा रहा था। बीच-बीच में कभी-कभी माइक पर बड़े नेताओं के भाषणों के कैसेट बजते सुनायी देते थे। ज्यादातर समय यहाँ-वहाँ फिल्मी गीतों की धुनें वातावरण में बिखरी हुई गूँज रही थीं। उद्घोषणा करने वाली जीपों से भी नारे और निवेदनों के बीच-बीच में फिल्मी गीत बजाये जा रहे थे।
दोपहर को उड़ती-उड़ती यह खबर यहाँ-वहाँ फैलने लगी कि सत्यनारायण की महापूजा का कार्यक्रम सार्वजनिक स्थल पर करने की अनुमति प्रशासन द्वारा नहीं दी जा रही है। फलस्वरूप आयोजकों व प्रशासन के बीच इस बात को लेकर रस्साकशी जारी थी। स्थानीय नेताओं के बीच तनातनी चल रही थी। स्थानीय अखबार ने तीसरे प्रहर को अखबार का एक विशेष संस्करण निकाल कर बाजार में छोड़ा था। कुल आठ पृष्ठ के इस परिशिष्ट में आधे हिस्से में ज्यादातर स्थानीय व्यापारियों के विज्ञापन थे। शेष में कई नेताओं के संदेश व फोटो थे। 'सम्पादकीय' में पिछले अड़तालीस घण्टों के घटनाक्रम पर विस्तार से प्रकाश डाला गया था। अखबार ने लिखा था कि आदमी की संवेदनाएँ इतनी बिखरनी नहीं चाहिए और पुलिस को सख्ती से काम लेना चाहिये। वैसे पुलिस, अखबार का सम्पादकीय छपने से पहले ही काफी सख्ती से काम ले रही थी। विपक्षी दलों के नेताओं, कुछ हिन्दू संगठनों, असामाजिक तत्त्वों की या तो धरपकड़ की गयी थी, नजरबन्दी की गयी थी या उन्हें कड़ी हिदायतें दी गई थीं।
शासन हर सूरत में साम्प्रदायिकता के आगे न झुकने की तत्परता दिखा रहा था। ढूँढ़-ढूँढ़कर, छाँट-छाँटकर मुस्लिम व अन्य गैर हिन्दू अधिकारियों को जगह-जगह ड््यूटी पर तैनात किया जा रहा था। जहाँ भी ज्यादा पुलिस तैनात थी, यह खास ध्यान रखा गया था कि हर समूह में एकाध मुस्लिम, सिख या अन्य अल्पसंख्यक समुदाय का व्यक्ति हो। सरकार अन्य सभी सम्प्रदायों को हिन्दू साम्प्रदायिकता से बचाने को कटिबद्ध थी। अलीपाड़ा की मस्जिद के आसपास के क्षेत्र को पुलिस ने घेरकर अपने कब्जे में ले लिया था। बाजार में भी संवेदनशील क्षेत्रों की चौकसी की पूरी व्यवस्था थी।
मन्दिरों में बज रहे भजन व आरतियों के रिकॉर्ड या तो पुलिस ने बंद करवा दिये थे अथवा उन्हें धीमा करवा दिया था। मुस्लिम स्थानीय नेताओं को अतिरिक्त सुरक्षा मुहैया करवायी गयी थी।
दूरसंचार द्वारा पुलिस के पास दिल्ली से सूचना आ चुकी थी कि मंत्री महोदय हेलीकॉप्टर से सात किलोमीटर दूर उतरने के बाद सड़क के रास्ते से आने वाले हैं। यह भी सख्त हिदायत दी गयी थी कि उद्घाटन समारोह में किसी भी ऐसे रस्म-रिवाज का पालन न किया जाये, जो किसी सम्प्रदाय विशेष में प्रचलित हो। खबर थी कि मंत्री महोदय के साथ इस जिले से लगते हुए दूसरे संसदीय क्षेत्र के एक सांसद भी विशेष तौर पर लाये जा रहे थे, जो मुस्लिम थे। यह सांसद सत्ताधारी दल में लगभग तीन वर्ष पूर्व शामिल हुए थे और अब काफी लोकप्रियता तथा रुतबे वाले थे।
आखेट महल अतिथिगृह के विशेष कक्ष में होने वाली पार्टी को अत्यन्त सीमित कर दिया गया था। अब मंत्री महोदय के साथ बहुत ही गिने-चुने लोग ही भोजन के लिए आने वाले थे। शेष लोगों के लिए रावसाहब ने अपने बंगले पर विशेष व्यवस्था की थी। बंगले के साथ ही एक विशाल शामियाना लगाया गया था। विदेशी कंंपनी के दोनों कार्यालय, जो इस बंगले से काफी करीब थे, सारे आयोजन में बहुत मदद कर रहे थे।
शंभूसिंह अतिथिगृह में दो बार हो आये थे। वहाँ पर उनकी संक्षिप्त-सी मुलाकात नरेशभान व उसके साथियों से भी हुई थी। उन्होंने वहाँ की सारी व्यवस्था देख ली थी। वह अच्छी तरह से जानते थे कि गौरांबर को नरेशभान के आसपास भी नहीं लगाया जा सकता। यद्यपि काफी समय बीत जाने के कारण गौरांबर इस समय इस प्रकार से हुलिया बदल चुका था कि उसे वहाँ किसी के द्वारा पहचान जाने की कोई आशंका नहीं थी। गौरांबर की दाढ़ी काफी बढ़ चुकी थी। वह आँखों पर काला चश्मा लगाये हुए था। और वह पीले रंग का कुरता और धोती धारण किये हुए था। कन्धे पर दुशाला भी था। वह सन्त जी के शिष्य की भाँति ही दिखायी दे रहा था। उसके साथ वाला दूसरा युवक जींस व कमीज पहने हुए था।
नरेशभान के वहाँ से चले जाने के बाद शंभूसिंह ने गौरांबर और दूसरे युवक को अतिथिगृह में पहुँचवा दिया। नरेशभान के अब वहाँ लौटने की कोई सम्भावना नहीं थी, क्योंकि उसे रावसाहब के बंगले के पास लगे शामियाने में पार्टी का इंतजाम देखना था। गौरांबर को पहुँचाकर शंभूसिंह वहाँ से निकल गये और अपने अन्य साथियों के साथ अस्पताल के अहाते में ही आ गये, जहाँ पर अब लोगों की भीड़-भाड़ बढ़ने लगी थी। वातावरण गरमाता जा रहा था। घोषणाएँ हो रही थीं। तेजी से फिल्मी गीत बज रहे थे, जिनसे वातावरण की सुबह वाली स्तब्धता लगभग समाप्त हो चुकी थी। सुबह के कर्फ्यू या पिछले दिन के दंगों के कोई अवशेष अब कहीं नहीं दिखाई दे रहे थे। मंच को आकर्षक ढंग से सजाया गया था। कड़ा सुरक्षा बन्दोबस्त था। शंभूसिंह रह-रहकर घड़ी देखते थे। उनके चेहरे पर हल्का-सा तनाव निरन्तर बना हुआ था।
आखिर मंच से उद्घोषणा हुई कि मंत्री महोदय हेलीकॉप्टर से उतर चुके हैं और चंद पलों में कार द्वारा समारोह स्थल पर पहुँचने वाले हैं। रावसाहब, कम्पनी के डायरेक्टर तथा एक चीफ इंजीनियर मंत्री महोदय की अगवानी के लिए गये हुए थे। साथ ही विधायक तथा अन्य स्थानीय नेताओं का काफिला भी आखेट महल के पिछवाड़े मुस्तैदी से तैयार था, जहाँ मंत्री महोदय की अगवानी करके स्वागत किया जाना था। अतिथि गृह को पूरी तरह सुरक्षा घेरे में ले लिया गया था।
लोग बैठ चुके थे। मंच पर भी कुछ अति विशिष्ट लोग आसन ग्रहण कर चुके थे।
थोड़ी देर में माइक से उद्घोषणा हुई और आरती की आवाज आने लगी। आरती का संगीत सुनायी दे रहा था, परन्तु उसके शब्द बदलकर स्वागत गान के रूप में ढाल दिये गये थे। स्कूल के दस-बारह बच्चे हाथों में मालाएँ लिए मंच के एक ओर खड़े थे। आहटों के साथ ही लोग कन्धे उचका-उचका कर इधर-उधर देखने लगे। थोड़ी कानाफूसी-सी हुई। कहीं से तालियों का स्वर गूँजा। मुख्य अतिथि मंच पर आ चुके थे। शंभूसिंह का ध्यान रह-रहकर अतिथि गृह की दिशा में जाता था।
अभी मुख्य अतिथि के लिए कंपनी के एक डायरेक्टर का भाषण चल ही रहा था कि पंडाल के एक किनारे की ओर से थोड़ी-सी आहटें व कानाफूसी की-सी आवाजें आने लगीं। पुलिस वालों ने मुस्तैदी से पंडाल के बाहर निकलकर पड़ताल की। मंच पर बैठे लोगों के साथ-साथ सभा में बैठे लोगों का ध्यान भी पंडाल के दाहिने गेट के बाहर अतिथि गृह की ओर जाने वाले रास्ते की ओर चला गया। पुलिस का एक अफसर लोगों को शांत रहने की सलाह फुसफुसाकर देता हुआ उधर बढ़ गया।
वहाँ अतिथि गृह के दरवाजे पर एक औरत खड़ी हुई थी, जो ड््यूटी पर तैनात पुलिस वालों से भीतर जाने देने की विनती-सी कर रही थी। पुलिस वाले उसे रोक रहे थे, परन्तु औरत अच्छे घर की तथा रौबदाब वाली दिख रही थी, इसलिये पुलिस वाले भी उससे भीतर न जाने का अनुरोध ही कर रहे थे। किन्तु वह परेशान व हड़बड़ायी हुई-सी थी और पुलिस वालों को ठेलकर भीतर घुसी जा रही थी। धीमी आवाज में भी आहटें लगातार बढ़ती जा रही थीं।
''मुझे भीतर जाने दो..''
''इजाजत नहीं है माताजी! आप बोलो, काम बताओ, किससे मिलना है।'' पुलिस अफसर ने रोकने की चेष्टा करते हुए पूछा।
''भीतर मेरा लड़का है.. बेटा है मेरा..'' कहती हुई औरत चली गयी। पुलिस वाले उसके पीछे-पीछे उसे रोकने की असफल कोशिश करते हुए बढ़ने लगे।
''ठहरिये माताजी... क्या नाम है उसका। हम उसे बुलाते हैं..'' पुलिस वाले तैश में आते जा रहे थे।
देखते-देखते यहाँ और भी कुछ लोग आ गये। औरत तेजी से भीतर घुसी और अतिथि गृह के बरामदे में तैनात खड़े लोगों की भीड़ से गौरांबर को पकड़कर उसका हाथ खींचती हुई लौटने लगी। गौरांबर हक्का-बक्का होकर देखता रह गया। वह बिना कुछ बोले इधर-उधर देखते हुए रेशम देवी के पीछे-पीछे आने लगा। उन्होंने गौरांबर की कलाई पकड़ रखी थी।
पुलिस वाले हैरत से देख रहे थे।
''अभिमन्यु.. बेटा अभिमन्यु, घर चल। अब तुझे फिर किसी चक्रव्यूह में नहीं फँसना है। धर्म का क्या भरोसा, कब अधर्म में बदल जाता है.. राजनीति तो है ही छिनाल। रोज मोहरें बदलती है। हम तो इन सल्तनतों की प्रजा हैं। तू घर चल बेटा.. तुझे लेने आयी हूँ। हम इन दोनों से दूर रहेंगे।''
रेशम देवी और गौरांबर के निकल जाने के बाद पुलिस के बड़े अफसरों के कान मुस्तैदी से खड़े हो गये, वे सुरक्षा घेरा और कड़ा करने के लिए पसीना बहाने लगे, पर रेशम देवी के माथे का पसीना अब खुली हवा में आकर सूखने लगा था, क्योंकि वह अंधी आग की लपटों से अपने बेटे को बाहर खींच लायी थीं। आखेट महल का कोलाहल काफी पीछे छूट चुका था।
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