पश्चाताप - ભાગ ૧૧
एक धनवान व्यक्ति अपनी पत्नी के साथ रहता था। अपने उदार स्वभाव और कर्मों के कारण वह धीरे-धीरे निर्धन हो गया। पैसों की कमी के कारण जीवन की कष्टप्रद वास्तविकता को सहते हुए, एक दिन उसकी पत्नी ने कहा, "जब हमारे अच्छे दिन थे तब आपकी राजा से अच्छी मित्रता थी। आज हमारी इस स्थिति में वे हमारी मदद नहीं करेंगे, जैसे श्रीकृष्ण ने सुदामा की की थी?"
धनवान ने कहा, "मुझे डर है कि जैसे श्रीकृष्ण के समकालीन द्रुपद राजा ने द्रोणाचार्य को अपमानित किया था, कहीं मेरी भी ऐसी ही दुर्गति न हो जाए।"
पत्नी ने उत्तर दिया, "विपरीत समय में नकारात्मक विचार ही आते हैं। एक बार सकारात्मक सोच के साथ राजा के पास जाकर देखिए।"
पत्नी के कहने पर वह भी सुदामा की तरह राजा के पास गया। महल में पहुँचने पर द्वारपाल ने राजा को सूचित किया कि एक गरीब व्यक्ति आपसे मिलना चाहता है और वह स्वयं को आपका मित्र कहता है। राजा भी श्रीकृष्ण की तरह मित्र का नाम सुनते ही दौड़कर आए और मित्र को इस हालत में देखकर भावुक हो उठे। बोले, "मित्र, कहो, मैं तुम्हारी क्या मदद कर सकता हूँ?"
धनवान ने शर्माते हुए अपनी स्थिति बताई।
राजा ने कहा, "चलिए, मैं आपको अपने रत्नों के खजाने में ले चलता हूँ। वहाँ से अपने झोले में जितने चाहो रत्न भर लो। लेकिन तुम्हें केवल तीन अवसर मिलेंगे और समय समाप्त होने पर तुम्हें खाली हाथ बाहर आना होगा।"
धनवान ने कहा, "मुझे मंजूर है, महाराज। चलिए।"
पहला अवसर आया। वह पहले कक्ष में गया। रत्नों के खजाने का अद्भुत प्रकाश देखकर वह चकित हो गया। समय की सीमा को ध्यान में रखते हुए उसने अपने झोले में भरपूर रत्न भर लिए। बाहर निकलने लगा तभी उसने दरवाजे के पास रत्नों से बने छोटे-छोटे खिलौने देखे, जो बटन दबाते ही नाचते-कूदते थे। उसने सोचा कि अभी थोड़ा समय बाकी है, थोड़ी देर खिलौनों से खेलता हूँ। पर क्या हुआ? वह बचपन के खिलौनों के साथ खेलने में इतना मग्न हो गया कि समय का ध्यान ही नहीं रहा। तभी घड़ी का घंटा बजा, जो समय समाप्त होने का संकेत था, और वह खाली हाथ ही बाहर आ गया। मानो उसकी आँखों के सामने बचपन बीत गया।
राजा ने कहा, "मित्र, निराश मत हो। चलो, मैं तुम्हें अपने सोने के खजाने में ले चलता हूँ। वहाँ से जितना चाहो सोना भर लो। लेकिन समय सीमा का ध्यान रखना।"
धनवान ने कहा, "इस बार मैं ध्यान रखूँगा।"
उस कमरे में सबकुछ सोने का था। उसने देखा कि पूरा कक्ष सोने की चमक से जगमगा रहा था। वस्त्र सोने के थे, जूतियाँ तक सोने की। उसने एक-एक कर वस्त्र पहनने शुरू किए और आईने में खुद को देखने लगा। फिर उसकी नजर एक सोने के घोड़े पर पड़ी, जिस पर सोने की काठी सजी थी। "अरे! यह तो वही घोड़ा है, जिस पर बैठकर मैं राजा साहब के साथ घूमा करता था।" वह घोड़े के पास गया, उसे हाथ लगाया और थोड़ी देर के लिए सवारी करने की इच्छा हुई। लेकिन क्या हुआ? समय सीमा समाप्त हो गई और वह अब भी सवारी का आनंद ले रहा था। तभी घड़ी का घंटा बजा, और वह खाली हाथ ही बाहर आ गया। उसे लगा कि उसकी जवानी एक क्षण में बीत गई।
राजा ने कहा, "मित्र, निराश मत हो। चलो, मैं तुम्हें चांदी के खजाने में ले चलता हूँ। वहाँ से जितनी चाहो चांदी भर लो। लेकिन समय सीमा का ध्यान रखना।"
धनवान ने कहा, "इस बार मैं जरूर ध्यान रखूँगा।"
वह कक्ष चांदी की तेजस्वी चमक से जगमगा रहा था, जैसे मनुष्य के बाल बुढ़ापे में चांदी जैसे चमकने लगते हैं। इस बार उसने सोचा कि घड़ी का घंटा बजने से पहले ही बाहर निकल जाऊँगा। कमरे में दाखिल हुआ। दरवाजे के पास चांदी की एक घंटी लटकी हुई थी और साथ में एक तख्ती लगी थी, जिस पर लिखा था, "इसे बजाने से चिंता उत्पन्न होती है। एक बार ऐसा हो जाए तो दोनों हाथों से रोकने का प्रयास न करना।"
उसने सोचा कि इसमें चिंता करने की क्या बात है? यह चांदी की घंटी है, बजाने से चिंता थोड़ी होगी? इसे बजाने में कोई हानि नहीं। इंसान का स्वभाव है कि जहाँ लिखा हो 'हाथ न लगाना', वहीं सबसे पहले वह हाथ लगाता है। उसने जैसे ही घंटी को छुआ, वह अत्यधिक जोर से बजने लगी और एक अजीब तरह की चिंता उत्पन्न हो गई। अब वह दोनों हाथों से उसे रोकने की कोशिश करने लगा, लेकिन व्यर्थ। घबराहट से भरी उस चिंता को वह रोक नहीं सका। मानो उसका पूरा बुढ़ापा चिंता में डूब गया हो। तभी घड़ी का घंटा बजा, और उसे खाली हाथ ही बाहर निकलना पड़ा।
राजा ने कहा, "मित्र, तुम्हारे तीनों अवसर व्यर्थ हो गए। अब तुम अतिथि धर्म निभाओ और विदा लो।" यह कहकर राजा ने उसे जरूरत के मुताबिक सहायता दी और प्रेमपूर्वक विदा किया।
जीवन में हमें मिले हुए अवसरों का सही उपयोग न करने पर पछतावे का समय आएगा।
बचपन = शिक्षा और अध्ययन का समय
जवानी = अर्थ, कामना, और गृहस्थाश्रम
बुढ़ापा = प्रेम की अवस्था (समाज और ईश्वर के प्रति प्रेम)
हा! पछतावा - एक विशाल धारा स्वर्ग से उतरी है,
पापी उसमें स्नान कर पुण्यशाली बनता है,
ओह! कैसी मधुर स्मृति पाप की रहती है!
क्षमादान पाकर मनुष्य ईश्वर की ओर लौटता है!
मृत्यु और बुढ़ापे की अनिवार्यता को ध्यान में रखकर हमें जीवन के हर चरण को समझदारी से जीना चाहिए।
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कृतज्ञता - ભાગ ૧૨
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि।। २/४७ ।।
"कर्म करने का अधिकार तुम्हारा है, लेकिन उसके फल पर तुम्हारा अधिकार नहीं है। इसलिए कर्म को फल के लिए मत करो और ना ही कर्म न करने में तुम्हारी आसक्ति हो।"
इस श्लोक के मुख्य संदेश निम्नलिखित हैं:
कर्म पर अधिकार: मनुष्य का अधिकार केवल अपने कर्मों पर है। हमें अपने कर्मों को पूरी निष्ठा और समर्पण के साथ करना चाहिए।फल पर अधिकार नहीं: कर्म का परिणाम या फल हमें कैसा मिलेगा, यह हमारे हाथ में नहीं है। हमें परिणाम की चिंता किए बिना अपने कार्य को करना चाहिए।फल की इच्छा से कर्म न करें: हमें कर्म करते समय फल की इच्छा या अपेक्षा नहीं करनी चाहिए।आलस्य से बचाव: कर्म न करने में आसक्त मत हो। आलस्य या निष्क्रियता से बचना चाहिए और सतत कर्मशील रहना चाहिए।
ये उन दिनों की बात है जहाँ मानवता अभी भी जीवित थी। उस छोटे से गाव में, एक दिन, एक गरीब लड़का, जो स्कूल की फीस भरने के लिए घर-घर जाकर सामान बेचता था, बेहद भूखा था और उसके पास केवल एक छोटा सा सिक्का बचा था। उस सिक्के से तो कुछ आ नहीं सकता था इसलिए उसने सोचा कि अगले घर में वह खाने के लिए कुछ माँगेगा।
दरवाज़ा खटखटाने के बाद जब एक जवान लड़की ने दरवाजा खोला, तो उसकी हिम्मत नहीं हुई कुछ मांगनेकी। खाने की बजाय, उसने सिर्फ पानी माँगा। वह युवती उसकी हालत देखकर समझ गई कि वह भूखा है। दोप्रहर का वक्त – भोजन का समय बिट चूका था। इसलिए उसने उसे पानी के बजाय दूध का एक बड़ा गिलास दिया।
लड़के ने धीरे-धीरे दूध पिया और फिर पूछा, "मैं आपको कितना दूँ?" उस युवती ने जवाब दिया, "आपको कुछ देने की ज़रूरत नहीं है। हमारी माँ ने हमें सिखाया है कि दयालुता का भुगतान कभी नहीं लेना चाहिए।" लड़के ने दिल से धन्यवाद दिया और वहां से चला गया। लेकिन सिर्फ शारीरिक रूप से ही नहीं, उसका ईश्वर और इंसानियत पर विश्वास भी पहले से कहीं ज्यादा मजबूत हो गया था।
सालों बाद, वही युवती एक गंभीर बीमारी से जूझ रही थी। स्थानीय डॉक्टर उसकी बीमारी से परेशान हो गए थे, इसलिए उसे बड़े शहर के अस्पताल भेज दिया गया। वहां विशेषज्ञ डॉक्टरों की सलाह मांगी गई, और विशेषज्ञ डॉ. राधे श्याम को भी बुलाया गया। जब उन्होंने सुना कि वह महिला उसी बचपन वाले गांव से आई है, तो उनके चेहरे पर एक अजीब सी चमक आ गई। वह तुरंत उसके कमरे में गए और उसे पहचान लिया। इसके बाद उन्होंने उस महिला की पूरी देखभाल और इलाज में विशेष ध्यान दिया। काफी संघर्ष के बाद आखिरकार वह महिला ठीक हो गई।
जब महिला को अस्पताल का अंतिम बिल दिया गया, तो वह डर रही थी कि उसे चुकाने में पूरी जिंदगी लग जाएगी। लेकिन जब उसने बिल देखा, तो उसकी नजर बिल के एक कोने पर लिखे शब्दों पर पड़ी। उसमें लिखा था: "एक गिलास दूध के बदले कृतज्ञता अर्पण की"
किसीने किया हुआ प्रेम का मूल्य नहीं हो सकता।
यह पढ़ते ही उसकी आँखों में आंसू आ गए, और उसने महसूस किया कि एक छोटी सी दया कैसे उसकी जिंदगी बदल सकती है। एक छोटा सा बिज जो बोया था बचपन में आज बरगद बन कर छाव डे रहा है!
"कृतं मे जानतां पुण्यं ज्ञातृन् एवोपतिष्ठति।
अज्ञातानां तु यत्कृत्यं परं पापाय कल्पते॥"
भावार्थ: जो व्यक्ति कृतज्ञ होते हैं, उनके लिए की गई भलाई पुण्य स्वरूप बनकर लौटती है। वहीं, जो अज्ञानी होते हैं, उनके लिए किया गया काम उन्हें पाप का भागी बनाता है।