Sanatan - 4 in Hindi Short Stories by अशोक असफल books and stories PDF | सनातन - 4

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सनातन - 4

कथा में आज मैंने यही विषय उठा लिया :मैंने कहा, 'हमें अपने भीतर ही रमण करना चाहिए। गीता में इसे आत्मा से आत्मा में रमण करना कहा गया है। पर आत्मा को खोजेंगे तो उलझ जाएँगे। मन सरलता से उपलब्ध हो जाएगा। मन हमारे अत्यंत निकट भी है। इसलिए मन से मन में ही रमण करें। मन दो क्या दस भी हो सकते हैं। मन उतने हो सकते हैं जितने आप चाहें। आप सभी जानते हैं कि राम जब अयोध्या लौट कर आए तो समस्त प्रजाजन उनसे एक साथ मिलना चाहते थे। राम ने सोचा कि इतना तो मेरा आकार नहीं और न इतनी लंबी भुजाएँ जो उन्हें फैला कर सबको एक साथ अपने सीने में समेट लूँ। और फिर सबको मुझे गले मिलने की इच्छा भी नहीं। कुछ लोग मेरे पैर छूकर आशीर्वाद लेना चाहते हैं तो कुछ मुझे आशीर्वाद देना भी चाहते हैं। अगर सभी से एक-एक कर मिलूँगा तो बहुत समय लगेगा। ...तो उन्होंने अपने उतने मन बना लिए जितने वहाँ पर लोग थे! इस तरह सारे प्रजाजन क्षण भर में ही अपने-अपने राम से मिल लिए। तो हम बड़ी आसानी से ढेर सारे मनों से एक साथ तर्क कर सकते हैं। हम मन से खेल सकते हैं। मन की एक अद्भुत शक्ति है, कल्पना। वह कल्पना में हमें कहीं भी ले जा सकता है। और हमारे भीतर ही किसी को खड़ा भी कर सकता है! जैसे कि मैं इस घर में हूँ और मीनाक्षी के साथ हूँ। यथार्थ में मीनाक्षी अलग है और मैं अलग हूँ। हम लोगों में कोई रिलेशन नहीं है। लेकिन अगर मैं अपने मन में मीनाक्षी को बिठा लूँ तो फिर मैं उसे किसी भी रूप में पा सकता हूँ।'...जब सब लोग चले गए तब मीनाक्षी ने पूछा, 'क्या किसी की रजा के बिना उसको अपने मन में बिठाया जा सकता है!'मैं इस प्रश्न के लिए तैयार नहीं था। एकदम अकबका गया। फिर बोला, 'बेशक! क्योंकि मन तो बे-लगाम है। और वह आपको आपकी रजा के बिना भी अपने अंदर बिठा सकता है, यह सच है। ध्यान बस इतना रखेंगे कि गलत जगह न बिठाएँ। गलत विचार न करें। जैसे पानी अपनी प्रकृति के अनुसार नीचे की ओर बहता है लेकिन अगर हम उसे तपाएँ तो वह भाप बन ऊपर की ओर उठता है। तो बात यह है कि प्रयास पूर्वक हमें उसे ऊर्ध्वगामी बनाना है।''सच में!' कहकर वह मुस्कराई।और मैं हकलाया, 'उच्च... वि...चारों की ओर उ...ठाना है।''इससे फायदा...' वह लगातार मुस्कुरा रही थी। जैसे कि मेरे मन को पढ़ना जानती थी और अब तक बहुत कुछ पढ़ भी चुकी थी...। फिर भी मैंने अपने को बहाल रखा] 'फायदा यह होगा कि हमारा जो सांसारिक संत्रास है, यह चिंताएँ; वह मिट जाएँगी। हमारे जो छोटे-छोटे क्लेश हैं, परिवार के, संबंधों के, संसार के...'और वह मुस्कुराती हुई बीच में ही उठकर चल दी, 'खाना तैयार करना है!'खिसियाया-सा मैं दीवान पर बैठा रह गया था। सोचता कि कल जरूर इसने मुझे अपने बेडरूम में देख लिया! फिर जनेऊ कान पर चढ़ाते एक निश्वास छोड़ते कि देख लिया तो देख लिया, वाशरूम के अंदर चला गया। और फिर सोचने लगा कि- मेरी बातें सच थीं और काम की भी। उस दौरान मंत्रमुग्ध हो सुनते लोगों को लग रहा था कि- किसी बाहरी गुरु की जरूरत नहीं है, जब हमारे पास एक मन है। शायद कोई बुद्धि भी है जो मन को नियंत्रित करती है और एक चित्त भी है जो मन को किसी खास अवस्था में स्थित कर देता है, जिससे कि वह इधर-उधर नहीं भागे!निसंदेह, लोगों को अच्छा लगा।' मैंने फरागत होते सोचा, उन्हें बड़े सरल तरीके से बातें समझ में आ रही थीं। मैंने उन्हें अहंकार और आत्मा के फेर में नहीं डाला। मैंने कहा कि जो हम सबका 'मैं' है, वही अहंकार है। पर उसे अहंकार का नाम देना गलत है। अहम तो कायम रहना चाहिए। अगर 'मैं' नहीं रहेगा तो पहचान मिट जाएगी। इसलिए 'मैं' को जिंदा रखो। पर 'मैं' को जिंदा रखने के लिए दूसरे के 'मैं' को मिटाना या छोटा करना गलत है।'अपने आप से संतुष्ट हो हाथ-मुँह धो और सर पर पानी छिड़क मैं बाहर निकल आया। फिर जमीन पर आसन बिछा संध्या वंदन करने लगा। और वह किचन से निकल ड्रेसिंग टेबिल के आगे खड़ी हो जैसे कहीं जाने को तैयार होने लगी। पूछना चाहता था पर पूछा नहीं क्योंकि उसकी प्राइवेसी में ज्यादा दखल देना ठीक भी तो नहीं! ऐसा क्या रिश्ता बन गया उससे जो रोकता-टोकता। इस तरह अपने मन को मारे संध्या करता रहा। जब फारिग हुआ, वह शायद बालकनी के लिए निकली और मेरे इतने करीब से निकली कि उसके खुले बाल मेरे सर ऊपर से बदलियों से उड़ते चले गए! तब फिर कामशास्त्र याद आया कि- अगर किसी स्त्री को किसी पुरुष को आकर्षित करना है तो वो उसे अपने बालों से छूते हुए निकलेगी और अपने पीछे एक खास सुगंध छोड़ जाएगी!मन फिर से उद्वेलित हो गया। इच्छा होने लगी कि वह कहीं बाहर जाए तो मुझे भी ले जाए। मैं उसकी स्कूटी पर पीछे बैठने का सौभाग्य पाना चाहता था। इसलिए जब वह लेगी सूट पहन, कंधे पर अपनी शान का प्रतीक वैनिटी बैग टाँग पाँव में फैंसी चप्पल डाल सचमुच कहीं जाने लगी, मैंने अधीरता से पूछा, 'कितनी देर में आओगी?'मीनाक्षी अपने कान के बड़े-बड़े झालों को हिलाती बोली, 'पास ही एक डिपार्टमेंटल स्टोर से छोटा-मोटा सामान लेने जा रही हूँ।''मैं भी चलूँ!' मैंने बड़ी हसरत से कहा।'चलिए ना, दो दिन से फ्लैट में ही बंद हैं, जी उकता रहा होगा।''नहीं यह बात नहीं, तुम हो तो ऊब कैसी, पर सोचता हूँ, जा रही हो तो साथ घूम ही आऊँ!' कहते मैं झट से उठा और खूँटी से बैग उतार निसंकोच उसके बेडरूम में कपड़े बदलने चला गया।लौटकर आया तो मुझे देख वह मुस्कुरा दी। क्योंकि अब मैं सफारी सूट में था। यह मेरी आदत थी कि जब कथा-प्रवचन करता तभी पंडितों वाली पोशाक पहनता। बाजार या कहीं आने-जाने के लिए निकलता तो सफारी। और घर में सफेद बंडी और पीली लुंगी। पीछे-पीछे बाहर निकल आया तो उसने गेट लॉक कर दिया। फिर हम लोग लिफ्ट लेकर नीचे उतर आए। लिफ्ट में इतने नजदीक खड़े थे जितने पहले कभी नहीं। सोच रहा था कि अगर साथ जाने का मौका न मिलता तो यह सौभाग्य कैसे मिलता?स्कूटी पर जब उसके पीछे बैठ गया तो उसके कपड़ों के परफ्यूम की खुशबू मुझे मदहोश करने लगी। इसके अलावा हवा से उसके खुले बाल बार-बार मेरे चेहरे पर आ जाते तो लगता कि स्वर्ग में फर-फर उड़ता चला जा रहा हूँ...। मेन रोड पर जिस तरह वह गाड़ी चला रही थी, काबिले तारीफ थी। मैंने कहा, 'तुम्हारी ड्राइविंग बहुत अच्छी है।''क्या हुआ...' पीछे की ओर गर्दन मोड़ वह जिस आत्मविश्वास से मुस्कुराई वह छवि मेरे मानस पटल पर अंकित हो गई। मैंने कहा, 'मेरी हिम्मत नहीं है ऐसे ट्रैफिक में ड्राइविंग की।'तब वह फिर एक बार फर-फर गाड़ी चलाती गर्दन मोड मुस्कुराई। और मैं सोचने लगा कि अगर उसके साथ हमबिस्तर होने का अवसर मिले तो यह मेरा परम सौभाग्य होगा! क्योंकि वह तब भी ऐसे ही रह-रह कर मुस्कुराएगी। यही तो उसका नायाब तरीका है...।शॉप से कुछ छोटी-मोटी चीजें लेकर थैली उसने डिग्गी में रख ली और मुझे चाबी पकड़ाते हुए बोली, 'लीजिए! हिम्मत कीजिए।'अब मैं इनकार नहीं कर सकता था, क्योंकि मैं जानता था कि स्त्री बलिष्ठ और कुशल पुरुष पर ही जाती है। यह शायद मेरी परीक्षा हो और इनकार कर मैं नाहक मारा जाऊँ! सो चाबी मैंने ले ली, गाड़ी स्टार्ट कर ली। कंधे का सहारा ले वह पीछे बैठ गई। गाड़ी अपनी लेन पर चलाते हुए मैंने कुछ पूछा या कहा तो सुनने के लिए और नजदीक हो गई जिससे उसके उरोज मेरी पीठ से सट गए। वे इतने सॉफ्ट थे कि पीठ में गुदगुदी होने लगी। सामान्य सड़क का सफर मुझे अंतरिक्ष-सा प्रतीत होने लगा। यह जल्दी खत्म न हो इसलिए मैं बहुत धीरे-धीरे गाड़ी चला रहा था। बीच-बीच में रास्ता पूछता जा रहा था। और वह दाएँ, बाएँ, स्टेट, ऐसे-वैसे हाथ मटकाती बताती जा रही थी।फ्लैट में आकर भी लगता रहा कि उसके स्तन मेरी पीठ से चिपके हैं, ओठ कान को छुए हुए, बोल ऐन जलतरंग-से मन में बजते हुए...।

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