नौ
पुलिस का आखेट महल रोड के पेट्रोल पम्प पर तैनात सिपाही उस रात गौरांबर को कोठी में घुसने की कोशिश करते समय रंगे हाथों पकड़ने के बाद उस समय तो सड़क पर पड़ा ही छोड़ गया, परन्तु घायल कलाई को सहलाते हुए दर्द से छटपटाते सिपाही के पुलिस स्टेशन पहुँचते ही गौरांबर को थाने में ला पटका गया। जिस समय नीम बेहोशी की हालत में उसे लॉकअप में बंद किया गया, उसे अपनी कोई सुध-बुध नहीं थी।
उधर नरेशभान की मोटरसाइकिल और बीस हजार रुपये की चोरी की एफ.आई.आर. पहले ही दर्ज थी, जिसमें शक होने की बात गौरांबर के विरुद्ध पहले ही बता दी गयी थी। गौरांबर का एक सप्ताह तक अपने ठिकाने से फरार रहना और फिर एक रात चोरी-छिपे कोठी में लौटना, ऐसी बातें बन गयीं, जिनसे पुलिस का संदेह और पक्का हो गया। रही-सही कसर गौरांबर के साथ हुई मुठभेड़ ने पूरी कर दी जिसमें गौरांबर ने सिपाही की कलाई को दाँतों से जख्मी कर दिया था। अब तो इस सारे-के-सारे अपराध के पीछे गौरांबर के होने में किसी को कोई शक ही न रहा।
फिर एक चक्कर नरेशभान ने और भी चलाया। जो कुछ गौरांबर ने उसके साथ किया था, उसके बाद उसे यूँ ही आहिस्ता से जेल भिजवा देना नरेशभान को शायद अपनी मर्दानगी का अपमान लगा। उसने करेले को नीम चढ़ाने के लिए स्थानीय अखबार के अपने एक दोस्त रिपोर्टर की भी भरपूर मदद ली। एक गर्मा-गर्म कहानी गढ़कर अपने मित्र को सुना डाली। ये रिपोर्टर नरेशभान का स्कूल के किसी समय का बाल सखा तो था ही, रावले के कई कार्यक्रमों और रावसाहब के अपने पारिवारिक समारोहों में नरेशभान को समय-समय पर आकर उपकृत कर चुका था।
उसे जब नरेशभान ने सारी बात बतायी तो उसे भी उछालने के लिए एक-दो कॉलम का मसाला मिल गया। उसे कहीं से गौरांबर का एक फोटो भी मुहैया करवा दिया गया, जो कभी उस लाचार लड़के से नौकरी देने के नाम पर आवेदन पत्र के साथ लगाने को लिया गया था। उस फोटो को शहर के एक घटिया से फोटोग्राफर के पास खिंचवाने के लिए बेरोजगार गौरांबर ने माँग-ताँगकर छ: रुपये खर्च किये थे।
पुलिस लॉकअप में असहाय पड़ा गौरांबर यह भी नहीं जानता था कि शहरों और गाँवों में गली-गली कुकुरमुत्तों की तरह उगने और कोई परमानेंट धन्धा मिलने तक ऐसे अखबारों में खपे रहने वाले इन तथाकथित रिपोर्टरों की कहीं कोई संहिता भी नहीं होती। शाम को नरेशभान के पास बैठकर एक बोतल दारू पीने और उसके बाद सत्यता प्रमाणित करने के बहाने सरस्वती से थोड़ी-बहुत बातचीत कर लेने के बाद ये सारी कहानी रिपोर्टर द्वारा खुद बना ली गयी। ऐसी खुशबूदार खबर के न छपने का कहीं कोई सवाल ही नहीं आया। अव्वल तो किसी के पास यह सत्यता प्रमाणित करवाने की फुरसत ही नहीं थी, दूसरे सब जानते थे कि यदि दूसरे दिन बात की हवा निकल भी गयी तो अपनी पिछले दिन की खबर का खण्डन छाप देने में कहीं कोई दुविधा नहीं थी। यही हो रहा था, कस्बाई अखबारों की दुनिया में, छापा गया था कि कोठी का केयरटेकर गौरांबर जिस्मफरोशी, दलाली और चोरी के इल्जाम में रंगे हाथों गिरफ्तार हुआ है।
जिस तरह हर धन्धे में स्याह को सफेद और सफेद को स्याह करने वाले होते हैं, उसी तरह कुछ लोगों ने अखबारनवीसी के पवित्र पेशे को भी गंदला कर देने में कोई कसर नहीं छोड़ी, इस बात का जीता-जागता सबूत थी यह खबर, जिसने सारे शहर में देखते-देखते माहौल गंदा कर दिया। रह-रहकर आखेट महल में, परकोटे के दफ्तर में और यहाँ तक कि पेट्रोल पम्प में भी लोगों के चारों ओर से फोन आने लगे। खबर की पुष्टि के लिए खोजबीन करने लगे। खबरों की सत्यता की पुष्टि मानो अखबारों का नहीं, बल्कि पाठकों का नैतिक दायित्व हो गया था।
तेजी से विकसित होते हुए इस इलाके के बारे में ऐसी खबर छपना अपने आप में बहुत महत्त्वपूर्ण था, हाँ कई नई-नई इमारतें, परियोजनाएँ रोज आकार ले रही थीं और हजारों लोग काम और आवास के लिए यहाँ आ रहने के सपने देख रहे थे। फिर रावसाहब द्वारा परकोटे की झील व बगीचे के प्रोजेक्ट हेतु किराये पर लिए गये रेस्ट हाउस में ऐसे घिनौने धन्धे का चलना भला किस कोण से बर्दाश्त के काबिल हो सकता था। तरह-तरह की बातें फैल गयीं।
सरस्वती से, नरेशभान ने फिर से उसी फार्म हाउस की लेबर के साथ पति को बाहर भिजवा देने की धमकी देकर, अपनी मन-माफिक बात उस पत्रकार के सामने कहलवायी। सरस्वती को गौरांबर जैसे शरीफ लड़के के लिए मजबूरी में ऐसी गलत और घिनौनी बात, ऐसे लोगों के सामने कहनी पड़ी जो उससे बात करते समय भी नशे में थे और नजरों से ही उसके अंगों को लहूसार किये दे रहे थे।
पुलिस से एक बार फोन अखबार के दफ्तर में इस बाबत जरूर गया था कि अखबार में तहकीकात से पहले ही बातें क्यों छाप दी गयी हैं, परन्तु यहाँ भी नरेशभान ने सब सँभाल लिया। और नरेशभान ने क्यों, उन टुकड़ों ने सँभाल लिया जो सही वक्त पर सही हाथों में पेश हो गये। नरेशभान के लिए पैसे की कोई कीमत नहीं थी, क्योंकि वह ठेकेदारी के ऐसे व्यवसाय में लगा था जहाँ चाहने पर वह नोटों में तुल सकता था। और बाकी सभी लोगों के लिए पैसे की कीमत थी। कुल मिलाकर परिणाम ये हुआ कि गौरांबर की गर्दन पर इस दुष्चक्र का शिकंजा और मुस्तैदी से कसता चला गया और व्यवस्थाओं में कहीं कोई खरोंच तक न आयी।
रावसाहब और उनके परिवार के लोग इस घटनाचक्र से सकते में आ गये। उन्हें लोगों की जिज्ञासाओं और खोजबीन का सामना करना पड़ा। मोटरसाइकिल की चोरी और बीस हजार रुपये वाली बात तो ऐसी थी, जिसकी भरपाई करने वाली थी बीमा कम्पनी और घाव भरने वाला था वक्त। मगर गौरांबर के बारे में, रेस्ट हाउस में चलने वाले कारोबार के बारे में बात अवश्य गंभीर और चिन्ताजनक थी। नरेशभान ने भी शायद यह न सोचा था कि इसका अंजाम इतना संवेदनशील होगा। गौरांबर का गिरेबां मैला करके उसे सबक सिखाने का यह महज एक नाटक अब प्रत्यक्ष रूप से रावसाहब को और अप्रत्यक्ष से खुद नरेशभान को भी महँगा पड़ने वाला था। रावसाहब हरकत में आ गये।
सबसे पहले तो पेशी खुद नरेशभान की ही हुई। गौरांबर को काम पर रखने का कार्य भी नरेशभान ने ही किया था। इस बात के लिए उसे तलब किया गया। सारी घटना की कैफियत भी माँग गयी। लेकिन इससे हकीकत सामने आने में कोई मदद नहीं मिली क्योंकि नरेशभान ने अपनी रची-बुनी कहानी से रावसाहब को भी बरगला दिया। बहुत पैसे वाले, बहुत बड़े ओहदे वाले या बहुत रसूख वाले आम लोगों की तरह रावसाहब ने भी अपने ही आदमी की कैफियत पर भरोसा किया और किसी तरह की छानबीन की आवश्यकता न समझी।
रावसाहब पर चारों ओर से परिचितों, शुभचिन्तकों और अन्य लोगों का बराबर दबाव आ रहा था, जिसकी वजह से पुलिस को भी निरन्तर अनुवर्तन स्वरूप ये झिड़कियाँ मिल रही थीं कि जब जुर्म के आरोपी को पकड़ लिया गया है तो खोया हुआ माल मिलने में भी देर नहीं होनी चाहिये। लेकिन अब तक चोरी का कोई सुराग हाथ नहीं लगा।
रावसाहब ने थाने के प्रभारी को भी तलब किया था। और शहर के इस भूतपूर्व विधायक और कभी बहुत पहले सत्ता में रहे मंत्री ने साफ-साफ उसे बताया था कि बात को बहुत दिनों तक हवा में बनाये रखना वे बर्दाश्त नहीं करेंगे। या तो उसे बेबुनियाद सिद्ध करना होगा या फिर मामले की गुत्थी रेशा-रेशा सुलझा कर सामने लानी होगी।
ये कहते हुए रावसाहब के भीतर से कोई जनसेवक प्रशासक या नागरिकों का शुभचिन्तक नुमाइंदा नहीं बोल रहा था, बल्कि उनके भीतर का कारोबारी पूँजीपति बोल रहा था। इस वक्त उनकी दिलचस्पी लोगों का विश्वास जीतकर किसी चुनाव में खड़े होने की नहीं थी, बल्कि अपनी परियोजनाओं को अंजाम तक पहुँचा कर फिर से बेपनाह दौलत अपने दायरे में इकट्ठा करने की थी। साठ की उम्र पार कर चुके रावसाहब बेहतर जानते थे कि दुनिया के इस सबसे बड़े लोकतंत्र में राजनीतिज्ञों की इज्जत के दिन भी तेजी से बढ़ते जा रहे हैं। राजनीतिज्ञों को भी रक्तचाप, मधुमेह होने लगा है। राजनीतिज्ञों को अकारण गर्मी-सर्दी बरसात में मोटी और सादी खादी धारण करनी पड़ती है। अपने इलाके के कार्यकर्ताओं और मतदाताओं में से दो-चार महिला प्रतिनिधियों को कभी-कभार साथ सुला लेने पर ये बेवजह स्कैण्डल बन जाते हैं। सारा जीवन सार्वजनिक होता है पर शराब छुपकर पीनी पड़ती है। जिन इमारतों के सरेआम फीते काटे हों, उन्हीं में अपने आदमियों को दबा-छिपा कर उगाही करने के लिए कहना पड़ता है। राजकाज में एकाध आदमी का खात्मा हो जाने पर अखबारों को तरह-तरह से बयान देने पड़ते हैं। न जाने क्या होता जा रहा है पब्लिक को, किसी पॉलिटिकल मर्डर को निर्वाण मानने को तैयार ही नहीं होती अब।
और ये सब खतरे एक आदमी भला कब तक उठा सकता है? इतना दबा-छिपा कब तक साँस ले सकता है। जिनके लिए विशेष रेलगाड़ियाँ जाती हों, जिनके लिए जनता हाथों में फूलमालाएँ लिए स्टेशनों पर आती हो, जिनके प्लेटफॉर्म पर कदम धरते ही शहर भर के अखबार फोटो लेने के लिए भीड़ में कूद पड़ते हों, ऐसे लोगों को चलती गाड़ी में दो-चार घूँट गले में उतारने के लिए खिड़की के शीशे चढ़ाने पड़ते हैं। सुरक्षा के लिए हर समय आदमियों को साथ रखने के बजाय केबिन के बाहर पुलिस के कुत्तों को बँधवाने का आग्रह करना पड़ता है। अब आदमी तो चाहे सरकारी हो चाहे इंसानी, आखिर आँखें और दिल रखता ही है। उसके सामने कैसे सब कुछ करते रहा जा सकता है। हाँ, सुरक्षा के लिए जानवर साथ में हो तो कोई कुछ नहीं कहता। आप कुछ भी कीजिये, वह उत्तेजित भी नहीं होता, शरमाता भी नहीं। बहुत हुआ तो दो-एक बार आपको सूँघने की मुद्रा में जीभ निकालता हुआ थूथन ऊपर उठा देता है। बस, फिर चाहे जो करते रहो।
क्या फायदा इस सब रुतबे से। इतनी आजादी तो आज सभी को है। एक मजदूर भी सरेआम-सरेशाम ठर्रा पीकर चौराहे पर गालियाँ बकता हुआ नाली में पैर फैला सकता है। उसे कोई नहीं रोकता। बेचारा दयनीय तो राजनीतिज्ञ ही है।
फिर ऐसे पेशे में किस इंसान का मन लगेगा भला। पैसा, प्रभाव और मिल्कियत बनाने के लिए राजनीतिज्ञ बनना कहाँ अब फायदे का रह गया है। फायदे की तो है दलाली, चाहे वह सत्ता की हो, औरत की, चाहे ईमान की। आजादी की सबसे बड़ी उपलब्धि इस देश की यही है—दलाली।
तो थाना प्रभारी भी जब रावसाहब की कोठी से निकले, तब अच्छी तरह से समझ गये थे कि उन्हें किसी काम को छोटा नहीं समझना है। और इस बात को अमल में लाने में उन्होंने कोई कोताही भी नहीं बरती।
पुलिस स्टेशन पहुँचते ही उन्होंने अपने एक आदमी को बुलाकर गौरांबर से अच्छी तरह पूछताछ करने का निर्देश दे डाला। हुक्म की तामील भी हुई।
गौरांबर की कुण्डली का राहू फिर वक्र होता हुआ केतु को साथ लेकर शनि की चौखट पर आ बैठा।
तीन दिन से जिस लड़के ने ढंग से दो दाना अन्न पेट में नहीं डाला था, उसके पेट पर एक भरपूर लात पड़ी। एकदम आँखें उलटने को हो आयीं। गौरांबर को रास्ते पर लाने का यह पहला कदम था। जब कोई नेता या आदमी किसी बात को रास्ते पर लाने के लिए दो-चार दिन का उपवास करता है, तो उसके उपवास के समाप्त होने के बाद उसे नींबू का पानी पिलाया जाता है, ये बात ड्यूटी का सिपाही बहुत अच्छी तरह जानता था। उसने भी गौरांबर से कहा, ''साले, अनशन तोड़ने के लिए आज तुझे नींबू निचोड़ना पड़ेगा। तभी तू बोलेगा।''
गौरांबर ने उसकी बात का कोई जवाब नहीं दिया, लेकिन जिस तरह आँखों को चमका कर अपना गुस्सा जता दिया, उससे उसे सिपाही के तीन-चार झापड़ और खाने पड़े।
''भड़वे, साफ-साफ बता दे, और कौन था तेरे साथ? बीस हजार रुपये किस की गाँड में छुपाकर रखे हैं, और कहाँ भगाया तूने मोटरसाइकिल को, वरना याद रखना, अभी तो झूठी खबर ही छपी है अखबार में, कल तेरे मरने की खबर भी छप जायेगी। तू जानता नहीं है नरेश बाऊजी को।''
सिपाही के मुँह से नरेशभान का नाम इस तरह सुनकर गौरांबर चौंका। और इसी बात से उसे यह भी पता चला कि उसके बारे में अखबार में कोई खबर छपी है। वह मन-ही-मन डर गया था।
जब कोई मच्छर उड़ता-उड़ता हमारे कपड़ों में घुस जाता है तो हम तुरन्त झड़का कर उसे बाहर निकालना चाहते हैं। उस समय हमारा मकसद मच्छर को जान से मारना नहीं होता, बल्कि किसी तरह बेचैनी या दर्द से निजात पाना होता है। मगर जब मच्छर देखता है कि ऊपर से चोट पड़ रही है और हिलने-डुलने का कोई रास्ता नहीं है तो वह अपने को मृत्युमुखी मानकर खाल से चिपट जाता है और भरपूर शक्ति से काटने लगता है। उसे कतई परवाह नहीं होती कि जिस जगह वह काट रहा है वह जाँघ है या नितम्ब।
और पुलिस का सिपाही तो फिर पुलिस का आदमी था। सरकार की सुरक्षा मशीनरी का मुलाजिम। मच्छर को कौन-सी पनाह मिलती। कपड़े तो कपड़े, शरीर की दरारें और कंदराएँ तक उसकी नजर से ओझल नहीं थीं। बहुत देर तक चला खेल। पर मच्छर भी चिपका रहा।
गौरांबर बराबर कहता रहा कि जब उसे कुछ मालूम ही नहीं तो वह क्या बताये, कैसे बताये।
लेकिन बस इसी बात का कोई माकूल जवाब गौरांबर के पास नहीं था कि वह कोठी छोड़कर रातों-रात भाग क्यों गया। और वापस लौटते समय सिपाही द्वारा उसे पकड़ने की कोशिश पर उसने भागने की चेष्टा क्यों की। यही दो बातें गौरांबर को सम्भावित गुनहगार साबित किये दे रही थीं। अकारण ही अपनी ओर से नरेशभान व सरस्वती का प्रकरण व खुद छेड़ना नहीं चाहता था, क्योंकि उसे अच्छी तरह मालूम था कि सच बात बता देने पर यहाँ कोई विश्वास नहीं करेगा। और थोड़ी देर पहले सिपाही से नरेशभान का नाम जिस अन्दाज में वह सुन चुका था, उससे तो उसका भय और बढ़ गया था। निश्चय ही ये लोग नरेशभान से भलीभाँति परिचित थे। और नरेशभान जैसे व्यक्ति से परिचय होने का मतलब था, उसका नमक खाये रहना। और जिस आदमी का नमक पुलिस ने खा रखा हो, उसके खिलाफ एक लफ्ज भी बोलने का मतलब भी गौरांबर जानता था।
नरेशभान का नमक, इस पुलिस चौकी में कोई आदमी ऐसा नहीं था, जिसने न खा रखा हो। नरेशभान का परोसा गया नमक बड़ा नायाब और लजीज होता था। गौरांबर ने तो बस एक रात में हल्की-सी झलक देखी थी, मगर नरेशभान और ये पुलिस थाना तो परकोटा-प्रोजेक्ट की इमारत के भूमि पूजन के दिन से ही यहाँ थे। सब जानते थे।
और तभी तो यहाँ की लेबर में सब खुश थे कि ठेकेदार भला आदमी है। साठ आदमी का काम हो तो सत्तर रखता है। मरद काम पर हो तो जनानी को भी रख लेता है। और कितनी ही बार नरेशभान ने साइट पर खुद देखा था कि जब किसी मजदूरनी का बच्चा रोता था और वह काम छोड़कर उसे सँभालने नहीं जाती थी तो उसका मरद उसे कुछ नहीं कहता था। आराम से बीड़ी पीता रहता था। इधर हाल के दिनों में रेलवे का काम रुक जाने से उधर की बेकार और परदेसी लेबर यहाँ आ गयी थी। उनमें तो मरदों का अपनी औलाद के लिए मेल-मोहब्बत बहुत ही कम था। गाँधी जी का नमक आन्दोलन जिस देश में चला था कभी, वहीं आजादी के बाद अब नरेशभान जैसों का नमक आन्दोलन चल रहा था। नमकीन किसे नहीं भाता?
और ऐसे में गौरांबर किस मुँह से, किन कानों को कहता कि नरेशभान के दुराचार के कारण वह भाग गया था। भागना ही दुराचार हो गया, बने रहना मर्दानगी होती और उसका साथ देना तो शायद सदाचार होता।
फिर पुलिस का आदमी भी लाचार। जब मुजरिम बता नहीं रहा कि वह क्यों भागा तो उसे कैसे मालूम चले। और न चले तो उसकी नौकरी कैसी, औकात कैसी? पता तो चलाना ही था। उसे भी तो जवाब देना था।
अब ये कोई कॉलेज या यूनिवर्सिटी तो थी नहीं कि पुलिस का आदमी गौरांबर को करीने से सामने बैठा कर उसकी मौखिक परीक्षा लेता और फिर उसे नम्बर देता। यह तो पुलिस थाना था, जहाँ लड़के के गले में अँगुली या और कहीं भी कुछ भी डालकर उसके हलक से सच्चाई उगलवानी थी और खुद जाकर बड़े साहब से नम्बर लेने थे। और सिपाही फेल हो जाये तो सत्ता का क्या होगा। प्रशासन का क्या होगा। न्याय का क्या होगा।
सिपाही ने तैश में आकर बीड़ी के दो-चार लम्बे-लम्बे कश लिए। आँखें चमकायीं। हाथ का लहू दो-चार बार इधर-उधर सनसनाकर अपनी धमनियों का रक्त संचार दुरुस्त किया और बूट में कसे पाँव जमीन पर पटकाता हुआ पूरा बरामदा पार करके पिछवाड़े लॉकअप की ओर बढ़ा, जहाँ किसी मेमने-सा गौरांबर दीवार का सहारा लिए उकडूँ बैठा जमीन की ओर देख रहा था।
''देख रे छोरे, नरेश बाऊजी ने मुझे सब साफ-साफ बता दिया है। तू भी फूट जा अब। वरना बहुत बुरा दिन देखेगा।''
''क्या बता दिया है नरेश बाऊजी ने?'' अब आशा की हल्की-सी किरण से गौरांबर की आँखें दिपदिपा आयीं।
''ज्यादा बनने की कोशिश मत कर। तू जो रोज मजदूरनियों को बहला-फुसला कर कोठी में यार-दोस्तों को मजा करवाता रहा न, हमें सब पता चल गया है। तू क्या समझता है, सारी बस्ती में एक अकेला तू ही मरद है। अबे भड़वे, वो सारी हमारी जूठन है जिसे चाट-चाट कर तू खुश होता रहा। और देख, इससे हमें कोई मतलब नहीं है। साला छूटने के बाद फिर शुरू कर देना ये धन्धा, पर ये बता दे मुझे कि तेरे साथ चोरी-चकारी में और कौनसे लौण्डे हैं। कहाँ दफा किया है तूने मोटरसाइकिल को। याद रखना, इस शहर में तो क्या, किसी कोने में पहुँचा दे, एक-न-एक दिन तो हम उन्हें पकड़ ही लायेंगे। और फिर साले, तुझे भगवान का कोई अवतार भी नहीं बचा पायेगा हमसे। अब वो दिन गये कि कोर्ट-कचहरी के चक्कर में हम पड़ेंगे, और साल-दो साल की काटकर तू छूट जायेगा। अब तो हम यहीं फैसला कर देंगे। हाथ-पैर तो तोड़ेंगे नहीं। साले, जिसके हाथ-पैर तोड़े उसे तो फिर भी सड़क पर भीख खूब मिल जाती है। ऐसी जगह की बोटियाँ काटेंगे कि किसी को कभी दिखा भी नहीं पायेगा।''
गौरांबर ने चुप्पी से सुनी ये सारी बात। वह भी दो-तीन दिनों से ये सब झेल कर मजबूत हो गया था जिगर से। मन-ही-मन गौरांबर सोच रहा था कि कोई फिल्म होती तो साला कोई-न-कोई बचाने आ जाता। पर अब यहाँ असली जिन्दगी में कौन-सी आस है जिसके आसरे वह अच्छा सोचता। अब तो यह तय था कि जान से हाथ धोना ही था। और जान बच भी गयी तो जिन्दगी तो बचनी नहीं है।
ये सब बातें एक ओर उसमें निराशा भर रही थीं, वहीं दूसरी ओर उसका जी हल्का भी कर रही थी कि यहीं सब कुछ खत्म हो जाये तो कम-से-कम उसे बाहर निकलकर शर्मिन्दगी तो नहीं उठानी पड़ेगी। इस सारे हादसे के बाद अब वह अपने घर-गाँव जाने के बारे में तो सोच भी नहीं सकता था। उसने अपने-आपको पत्थर बना छोड़ा था।
कभी-कभी वह सोचता, उससे गलती क्या हुई? ऐसी क्या बात हुई जो वह यहाँ तक पहुँच गया। मगर वह कुछ सोच न पाता।
सिपाही एकाएक खामोश हो गया। उसने दरवाजे के सींखचों की ओर ऐसे देखा, जैसे वह कोई जादू दिखाने जा रहा हो। वहाँ कोई नहीं था। पिछवाड़े का हिस्सा होने व सामने ही काफी ऊँची दीवार होने के कारण वहाँ लगभग सन्नाटा ही था। सिपाही उसकी ओर बढ़ा, नजदीक पहुँच कर जोर से जूते की एक ठोकर गौरांबर की पीठ पर मारी।
''उठ, उठ साले!'' कहते-कहते दो-एक ठोकर और जमा दी। कँपकँपाता हुआ-सा गौरांबर धीरे-से खड़ा हो गया। वह काँप रहा था, और अपलक सिपाही की ओर देख रहा था।