Manasvi - 5 in Hindi Anything by Dr. Suryapal Singh books and stories PDF | मनस्वी - भाग 5

Featured Books
Categories
Share

मनस्वी - भाग 5

अनुच्छेद-पाँच               

                  देर करने की आदत छोड़ो भगवान जी !           

आपात कक्ष का दरवाजा खुला है। सफाई कर्मचारी कमरे की फर्श पर पोंछा लगा चुके हैं। वातावरण में दवाइयों की गन्ध। मनु अभी सो रही है। उसकी माँ जल्दी-जल्दी स्नान कर तैयार हो गई है। एक बार मनु को झाँकती है। वह अभी सो रही है। इसीलिए माँ भी थोड़ी निश्चिन्त है। मनु के पापा दो कप चाय लेकर आते हैं। एक मनु की माँ को देते हैं एक स्वयं धीरे-धीरे पीते हैं। बीच-बीच में मनु को देखते रहते हैं। चाय पीने के बाद दोनों मनु के बगल स्टूल पर बैठ जाते हैं। धीरे-धीरे मनु की आँखें खुलती हैं। पापा को बैठे देखकर वह खुश हो जाती है, बोल पड़ती है 'पापा, आप लौट आए। घर पर बाबा ठीक हैं न।' 'हाँ' पापा के मुँह से निकलता है। 'तुम ठीक हो न'- पापा पूछते हैं। 'हाँ ठीक हूँ। इस समय साँस भी ठीक है। कल मुझे ठण्ड लग रही थी, आज ठीक हूँ। आपने चाचू को फोन तो नहीं कर दिया।' 'नहीं। बता दिया है कि मनु ठीक है। आने की कोई ज़रूरत नहीं है।' 'ठीक किया। बेकार तंग करना कोई अच्छी बात तो नहीं है। हम ठीक हो जाएँगे तब इलाहाबाद चलेंगे। छोटी को भी देखेंगे। आपने चाय पी लिया?' मम्मी उठकर छोटी तौलिया से मनु का मुँह पोछती है आँख थो देती है। नर्स आकर एक बार मनु को देखती है। चढ़ाए जाने वाले ग्लूकोज के बूँदों की रफ्तार को नियंत्रित करती है। 'मनु ठीक हो न ।' 'हाँ, आज ठीक हूँ।' मनु उत्तर देती है। नर्स फिर अपनी सीट पर जाकर बैठ जाती है। उसके सामने बार-बार मनु का चेहरा आ जाता है, जैसे वह उसके घर की बच्ची हो। वह स्वयं सोचती है कि मनु के साथ उसे इतना लगाव क्यों हो रहा है? वह तो एक नर्स है, सभी बच्चों की देख भाल करना उसका फर्ज़ है। किसी से अतिरिक्त लगाव नहीं। पर उसका मन नहीं मानता। ऐसा प्रायः हो ही जाता है। हर बच्चे से समान लगाव एक कल्पना हो सकती है पर वास्तविकता इससे भिन्न होती है।           'मुझे ठण्ड लगने लगी है पापा।' पापा एक और चद्दर उसके शरीर पर डालते हैं। उसके हाथ को धीरे-धीरे दबाते हैं। पूछते हैं, 'क्या अब भी ठण्ड लग रही है?' 'अब कुछ आराम मिला है।' मनु कह जाती है। 'मुझे बार-बार ठण्ड क्यों लगती है पापा ? क्या आपको भी ठण्ड लगती है?' पापा उसके ऊपर पड़े चद्दर को ठीक ढंग से ओढ़ाते हैं। कोई उत्तर नहीं देते। उन्हें भी लगता है मनु को बार-बार ठण्ड क्यों लगती है? इसी बीच डॉक्टर साहब आ जाते हैं। माँ बताती है- डॉक्टर साहब मनु को ठण्डक लगती है। डॉक्टर साहब मनु से पूछते हैं- 'ठण्ड लग रही है।' मनु धीरे से कहती है, 'लग रही थी, अब ठीक है।' डॉक्टर साहब उसकी फाइल पर एक दवा और लिखते हैं। उसकी आँखों को देखते हैं, छाती पर आला लगाकर साँस की गति का निरीक्षण करते हैं। साँस अभी सामान्य है। मनु से गहरी साँस लेने को कहते हैं। आज उन्हें लगता है कि साँस ठीक चल रही है कल की अपेक्षा। लगता है कि मनु की स्थिति में कुछ सुधार हो रहा है। 'मुझे बचा लेना डॉक्टर चाचू'- मनु जैसे प्रार्थना करती है। डॉक्टर साहब एक बार फिर उसकी आँख का निरीक्षण करते हैं एक दवा और लिखते हैं। 'ठीक हो जाओगी बेटे चिन्ता न करो। तुम्हारे भगवान जी भी तो देखते हैं।' 'हाँ भगवान जी से भी कहूँगी मैं। उनसे कहूँगी कि मुझे ठीक करो। बिस्तर पर पड़े रहना, मुझे अच्छा नहीं लगता है। बच्चे उन्हें बहुत प्रिय हैं न। हमारे लिए जरूर कुछ करेंगे वे। मम्मी भी उनसे प्रार्थना करती है। उन्हें सुनना चाहिए।' 'ठीक है।' कहते हुए डॉक्टर साहब दूसरे बच्चों को देखने चले जाते हैं। मनु पापा से पूछती है, 'क्या मैं ठीक हो जाऊँगी पापा?' 'हाँ ठीक हो जाओगी।' 'मुझे बचाना पापा।'             मनु के मस्तिष्क में एक दृश्य उभरता है। 'मैंने डॉक्टर चाचू से कहा है, भगवान जी से भी कहूँगी। मैं जीना चाहती हूँ। पहली नवम्बर को मेरा बारहवां जन्मदिन पड़ेगा न। सब बच्चों को बुलाऊँगी मैं। शिवानी बुआ आकर लिख जाएँगी हैपी बर्थ डे। बड़ा सा केक ले आना पापा। इस बार बच्चों के साथ उनके मम्मी-पापा को भी बुलाऊँगी। सबको खिला देना पापा। आखिर मैं बीमारी से उठी हूँ। उन सबके आशीर्वाद से ही तो ऐसा हुआ है। सब बच्चे छोटे वाले कमरे में इकट्ठे होंगे। शिप्रा बुआ गुब्बारों से कमरा सजाएँगी। केक पर बारह मोमबत्तियाँ जलाई जाएँगी। उसी दिन तो मैं बारह वर्ष की हो जाऊँगी न। बच्चों की तालियों के बीच केक कटेगा। केक का एक-एक टुकड़ा शिप्रा बुआ सबको बाँटेंगी। दादी-मम्मी सब खाना बनाने में लगी रहेगी। सबको खिलाया जाएगा। कितना अच्छा लगेगा पापा। आप भी दौड़-दौड़कर सबको पानी पिलाएंगे, खाना खिलाएंगे। हम बच्चे खुश होकर एक दूसरे से मिलेंगे। खाना खाएँगे। सबको भरपेट खीर खिलाऊँगी। कोई मना करेगा तब भी कहूँगी एक चम्मच तो ले ही लो। फिर वह मना नहीं कर पाएगा। हम सब साथ खेलते हैं। एक दूसरे को अच्छी तरह जानते हैं। मैं कहूँगी में बारह की हो गयी हूँ इसलिए बारह चम्मच तो खाओ ही। बच्चे हँस पड़ेंगे और मैं थोड़ी-थोड़ी खीर सबके दोनों में डालती जाऊँगी। वे खुश होकर खाएँगे। मैं कहूँगी आज खा लो कल हम लोगों को छिपी-छिपान खेलना है। ताकत कहाँ से आएगी? मैं कहूँगी कि पूड़ी-सब्जी चाहे कम खाओ पर खीर भर पेट खा लो। हमने गाँव से दूध मँगाया है। यह दूध सुई लगाकर नहीं निकाला गया है, ठीक है, फायदा करेगा, नुकसान बिल्कुल नहीं। हमें खूब खाना और खेलना चाहिए। खूब पढ़ना भी।          बच्चे हँसते हुए खाना खाएँगे। मैं दौड़कर पानी लाऊँगी। सब पानी पिएँगे फिर अपनी जेबों से रुमाल निकालकर मुँह पोछेंगे और कहेंगे कि अब चलते हैं। मैं भी हाथ उठाकर उन्हें विदा करूँगी। यह बारहवाँ जन्मदिन याद रहेगा पापा। तुम्हीं तो कहते हो बारह के बाद बच्चे सयाने होने लगते हैं। क्या मैं दो नवम्बर को सयानी हो जाऊँगी? एक ही दिन मैं कैसे बदल जाएगा सब कुछ ? इस सवाल को बाबा से पूछूंगी। बाबा बहुत ठीक ढंग से समझाएँगे। आखिर सयानी होऊँगी ही। एक बार बाबा जी पढ़ा रहे थे- 'सयानी हैं जानकी जानी भली।' बाबा ने सयानी का अर्थ बताया था बहुत देर तक। सीता जी सयानी हैं, इसका अर्थ समझाया था। पर वह सब अब भूल गया है। घर चलूँगी तो बाबा से एक बार फिर पूछेंगी सयानी होना क्या होता है बाबा? और बाबा धीरे-धीरे घण्टों बात करते हुए सयानी का अर्थ समझाएँगे। कितना अच्छा लगेगा उसका अर्थ समझते हुए? किसी चीज का अर्थ मालूम हो जाए तो बात समझ में आ जाती है। सयानी का अर्थ मालूम हो और मैं सयानी हो रही हूँ तो कितना अच्छा लगेगा? पर सभी को क्या मालूम कि सयाना होना क्या होता है? मैं इसे जानते हुए सयानी होऊँगी। क्या सयानी होने से मैं बच्ची नहीं रह जाऊँगी? क्या अब तक जो करती थी वह बदल जाएगा? बच्चों के साथ क्या खेलना भी मना हो जाएगा? अभी तो बच्चों के साथ खेलने में मजा आता है। अगर सयानी हो जाने पर बच्चों से खेल न पायी तो अच्छा नहीं लगेगा। खेलूँगी मैं बच्चों के साथ। उनके साथ खेलने में जो आनन्द आता है वह अलग कहाँ मिलेगा? सयाना होना क्या बचपन से हाथ धो बैठना है? अगर ऐसा है तो बहुत अच्छी चीज नहीं है यह। पर हम सयाने होने से बच भी तो नहीं सकते। तब इसे स्वीकारना ही होगा। चलो, स्वीकार कर ही लेते हैं। पर एक दम से बचपन से खुट्टी भी नहीं करेंगे।'         मनु बिस्तर पर लेटी है, आँखें बन्द हैं, ग्लूकोज चढ़ रहा है, नींद में ही वह एक सरोवर को देखती है। सरोवर के बीच कुमुद के कुछ फूल खिले हैं। कहते हैं कि कुमुद रात में खिलता है। सबेरे खिला हुआ दिखता है। बच्चे कुमुद को डण्ठल सहित तोड़कर माला बनाकर पहनते हैं। बच्चों की दुनिया ही अलग है। मनु के साथ भी कुछ बच्चे हैं। कुमुद काफी गहराई में है और बच्चे ठिठक जाते हैं। दूर से ही उसको देखते हैं। अवध के गाँवों में इसे 'कोइयाँ' कहते हैं। हल्के पीले और हरे रंग से ढके कोइयाँ के फूल सफेदी लिए हुए पानी से बित्ता भर ऊँचे दिखाई पड़ते हैं। मनु और उसके साथी कोइयां को देखकर ललचाते हैं। पानी की गहराई के कारण डर लगता है कि कहीं डूब न जाएँ। इसीलिए बच्चे थोड़ी दूर पानी में जाते हैं। पानी बढ़ने लगता है तो लौट पड़ते हैं। मनु कहती है- चलो डूबेंगे नहीं, कोइयाँ लेकर आएंगे। बच्चे तब भी आगे नहीं बढ़ पाते हैं। उसे लगता है कि हम कोइयाँ को ले आएँगे। बच्चों को तैरना नहीं आता। वे डर रहे हैं कि वे कहीं कुमुद को प्राप्त करने में ही डूब न जाएँ। मनु नहीं रुकती है, कहती है कुमुद को तोड़ना ही है। ऐसा लगता है- मनु ज्यों-ज्यों बढ़ती है कुमुद भी दूर होता जाता है। पानी उसकी नाक तक पहुँच जाता है। अब अगर वह बढ़ती है तो डूब सकती है। कुमुद अभी दूर है। आगे बढ़ते ही वह गिर पड़ती है पर कोई जैसे झपट्टा मारकर उसे उठा लेता है। बच जाती है वह। झपट्टा मारने वाला व्यक्ति उसे कुमुद तक ले जाता है। कुमुद पाकर वह खुश होती है, बच्चों को दिखाती है। यदि तुम लोग भी आगे बढ़े होते तो कोई न कोई कुमुद दिलाने के लिए आ ही जाता और कुमुद तक पहुँचा देता। खुशी खुशी वह कुमुद लेकर लौटती है। बच्चों में कुमुद बाँटती है। बच्चे खुश होते हैं। मनु के चेहरे पर भी खुशी की लहर दौड़ जाती है। उसका चेहरा प्रसन्नता से जैसे दमक उठता है। बिस्तर पर पड़ी है वह। उसकी आँखें खुल जाती हैं। माँ को बैठे देख रही है। 'माँ, मैंने अभी एक सपना देखा है। मैं कुमुद लाने के लिए पानी में उतरती हूँ, गिर पड़ती हूँ। कोई मेरी मदद को आ जाता है, फूल के निकट ले जाता है। मैं फूल तोड़कर बच्चों में बाँटती हूँ, इसी बीच जग जाती हूँ। कौन था वह जो मेरी मदद को आया था? क्या भगवान जी ने किसी को भेजा था? क्या मुझे ठीक करने के लिए भी भगवान जी किसी को भेजेंगे? क्या भगवान जी ने ही हम लोगों को यहाँ भेजा है? कैसे पता लगेगा माँ? भगवान जी से पूछो तो। वे वंशी बजाते घूम रहे हैं, हमें ठीक तो करें।'         मनु की बातों को सुनकर माँ की आँखों में आँसू आ जाते हैं। वह चिंतित हो उठती है, मनु क्या-क्या सोचती है? माँ एक बार ग्लूकोज की बोतल को देखती है। बूंद-बूंद ग्लूकोज टपक रहा है मनु के शरीर में जाने के लिए। 'कितना ग्लूकोज चढ़ेगा माँ?' मनु पूछ लेती है। 'डॉक्टर साहब जितना कहेंगे'- माँ उत्तर देती है। 'मेरे शरीर में पानी अधिक नहीं हो जाएगा माँ।' 'नहीं, ऐसा कुछ नहीं है। तुझे इसी से भोजन भी तो मिलता है।' 'मैं तो तरल पदार्थ पर चल रही हूँ माँ। जो लोग अन्तरिक्ष में जाते हैं वे लोग भी तो तरल पदार्थ लेते हैं।' 'हाँ उन्हें तरल पदार्थ लेना होता है।' 'तब तो मैं भी अन्तरिक्ष यात्री हो गई हूँ।' मनु कल्पना करती है कि वह किसी यान में बैठी हुई है। यान अन्तरिक्ष में भाग रहा है। वह अन्तरिक्ष से दुनिया को देखती है, कितनी छोटी है दुनिया? उसका यान और ऊँचाई पर भागता जा रहा है। अन्तरिक्ष कितना बड़ा है, यह वह देखती है। उसकी केबिन में और यात्री भी हैं। वह सोचती है कि यान चाँद पर जा रहा है। जब लौटेगी तो बच्चों से बताएगी कि मैं चाँद से होकर लौटी हूँ। कितने खुश होंगे वे तब। मनु स्वयं भी प्रसन्न होती है। कल्पना में भी आदमी कितना सुख अनुभव करता है?            इसी बीच नर्स आ जाती है। मनु का तापक्रम देखती है। ग्लूकोज की बोतल को चेक करती है। मनु से पूछती है, 'ठीक हो न? 'हाँ ठीक हूँ'- मनु उत्तर देती है। 'मैं बिल्कुल ठीक हो जाऊँगी न? मनु नर्स से पूछती है। 'क्यों नहीं?' हँसते हुए नर्स उत्तर देती है। 'डॉक्टर साहब मुझे बचाने के लिए पूरी कोशिश कर रहे हैं न।' 'हाँ पूरी कोशिश।' 'ठीक हो जाती तो अच्छा था। बच्चे हमारा इन्तजार कर रहे हैं। महीने भर बाद स्कूल भी खुल जाएगा। मुझे स्कूल के दिए हुए काम भी पूरे करने हैं। आप मुझे जल्दी से ठीक कर दो। देर होने से मेरा नुकसान हो जाएगा। सब बच्चे अपना काम पूरा कर रहे होंगे। मैं यहाँ बिस्तर पर पड़ी हूँ। कोई बच्चा बिस्तर पर पड़ा नहीं रहना चाहता। वह खेलना-कूदना चाहता है। बच्चों को बन्द कर रखने से वे आगे कैसे बढ़ेंगे?' 'ठीक हो जाओ तो खेलना' नर्स कहती है। 'अभी आराम कर लो।' आपात् कक्ष में ही एक बच्चा कराहने लगा है, नर्स उसकी ओर बढ़ जाती है। मनु की आँखें भी उस बच्चे पर लगी है। 'क्या हुआ उसे? क्यों कराहता है वह? जरूर दर्द उठ रहा होगा। वह सहन नहीं कर पा रहा है, इसीलिए कराह उठता है। बच्चों को इतनी तकलीफ क्यों देते हो भगवान जी?' मनु एक बार कह उठती है। उसे लगता है भगवान जी उसके सामने खड़े हैं। उनके ओंठों पर बांसुरी है, वे सुर निकालना चाहते हैं पर मनु को देखकर रुक जाते हैं, मुस्कराते हैं। मनु पूछ लेती है 'भगवान जी मेरी फाइल ठीक हुई कि नहीं? उसमें काट कूट तो नहीं किया है बहुत। मुझे अभी जीना है भगवान जी, मुझे बचा लेना। रोग क्यों पैदा कर देते हो? माँ कहती है कि तुम चाहो तो चुटकियों में रोग ठीक कर सकते हो। फिर ठीक क्यों नहीं कर देते, क्या इसके बदले कोई फीस चाहते हो? मम्मी कहती हैं कि प्रार्थना करने से आप खुश हो जाते हैं। आप खुश भले ही होते हो, मैं ठीक तो नही हो रही हूँ। किसी बच्चे को अस्पताल में भर्ती मत कराओ भगवान जी। उसका खेलना-कूदना बन्द हो जाता है। माता-पिता दौड़ते हैं सो अलग। आपकी हँसी देखकर मुझे खुशी जरूर होती है पर मुझे ठीक भी होना है भगवान जी। केवल हँसने से तो काम नहीं चलेगा। माँ कहती हैं कि आप हर एक की तकलीफ दूर करते हैं। मेरी तकलीफ क्यों नहीं दूर करते? द्रौपदी की लाज बचाने के लिए आप द्वारिका से दौड़े चले आते हैं। एक बच्ची को ठीक करने में आपको परेशानी क्यों होती है? क्या बच्ची का इस संसार में रहना बहुत खतरनाक होगा भगवान जी? मैं तो किसी को दुःख भी नहीं पहुँचाती। चाहती हूँ सभी खुश रहें। सब बच्चे मिलकर खेलें, कोई दुःखी न हो। मेरे यहाँ अमरूद का पेड़ है भगवान जी। अमरूद तोड़कर मैं बच्चों को खिलाती हूँ। मुझे भी अमरूद खाना अच्छा लगता है। तुम्हें भी अच्छा लगता होगा न। मुझे ठीक कर दो तो मैं अमरूद तोड़ लाऊँगी, तुम्हें भी दूँगी। नीबू के कई पेड़ हैं मेरे पास। चाहोगे तो नीबू का शर्बत पिलाऊँगी। अँचार खाना चाहोगे तो माँ नीबू का अँचार बना देगी। हमने आम का पेड़ भी लगाया है। अभी वह फल तो नहीं देता, जब देगा तो तुम्हें खिलाऊँगी। शरीफा का पेड़ भी है, फल भी देता है। बहुत मीठा होता है उसका फल। खाकर खुश हो जाओगे तुम। पपीते के तो कई पेड़ हैं। पके-पके पपीते खिलाऊँगी मैं। पहले ठीक तो कर दो। तुम अब भी मुस्करा रहे हो भगवान जी। अगर ठीक नहीं करोगे तो मैं नाराज़ हो जाऊँगी। कितना भी मनाओगे, नहीं मानूँगी। कहूँगी पहले ठीक करो तब तुम्हारी बात मानूँगी। तुम्हें ठीक करना ही होगा। यह रोग कोई ऐसा नहीं है जिसे तुम ठीक नहीं कर सकते। तुम देरी कर रहे हो। यही मेरी समझ में नहीं आता। जानते हो देरी करने से बहुत नुकसान होता है। देरी करने की तुम्हारी आदत भी है। तुम जरा जल्दी पहुँच जाते तो दुशासन द्रौपदी की साड़ी खींचता ही क्यों? लेकिन तुमने देरी कर दी। दुशासन साड़ी खींचने लगा तब दौड़े। पर कितना नुकसान हो गया था तब तक। दुर्योधन और कर्ण किस तरह मजाक कर रहे थे द्रौपदी से? कितना दुःख हुआ होगा उसे? तुम्हारी देरी से ही तो उसे दुःख हुआ। अपनी यह देर करने की आदत छोड़ो भगवान जी। समय से पहुँचो। लोगों की मदद करो। देर करके आना कोई अच्छी आदत नहीं है। हम कभी देर से स्कूल नहीं जाते थे। घण्टी लगने के पाँच मिनट पहले पहुँच जाते थे। प्रार्थना में भी शामिल होते थे। आप भी पाँच मिनट पहले पहुँच जाया करो भगवान जी। इससे लोगों का दुःख दूर हो जाएगा। आपको भी आनन्द आएगा। दूसरों को खुश देखने में आनन्द लो भगवान जी। दूसरे के दुःख में आनन्द लेने की आदत छोड़ो ।       अपनी आदत बदलो भगवान जी। देर से पहुँचने में कितना कुछ घट जाता है। आपके लिए जैसे कुछ होता ही नहीं। दूसरों की भी चिन्ता करो। जो दुःखी हैं, दीन हैं, रोग से बिस्तर पर पड़े हैं, उनको तो ठीक कर सकते हो। पर ऐसा क्यों नहीं करते भगवान जी? इस कमरे में भी देखो बच्चे कराह रहे हैं और तुम बांसुरी लिए घूम रहे हो। कैसे इनका भला होगा भगवान जी? लोगों के दुःख दर्द को सुनो। मैं यहाँ बिस्तर पर पड़ी हूँ। मुझे बिल्कुल अच्छा नहीं लगता यहाँ बिस्तर पर पड़े रहना। मेरी माँ कितना दुःखी हैं। भगवान जी उसके दुःख को भी पहचानो। उसे दूर करो। माँ कहती है कि भगवान जी दूसरो का दुःख दूर करते हैं पर यहाँ मैं उल्टा देख रही हूँ। हमारे साथ कई बच्चे कराह रहे हैं और तुम बाँसुरी बजाने में मगन हो। मैं कैसे समझूं कि तुम दीन-दुःखियों की मदद करते हो? जो यहाँ बिस्तर पर पड़े हैं वे सभी बच्चे दुःखी नहीं हैं क्या? उनके दुःख को दूर करने की ज़रूरत नहीं है? अच्छी तरह सोच लो। रोगी को ठीक करना भी आपका काम है। डॉक्टर चाचू जब कुछ नहीं कर पाते तब कहते हैं भगवान जी से कहो। मैं तुम से कहती हूँ तो तुम बाँसुरी की धुन सुनाते हो। तुम्हारी धुन सुनने से अगर मैं अच्छी हो जाऊँ तब तो ठीक है। पर अच्छी कहाँ हो रही हूँ? कभी साँस बढ़ जाती है। कभी ठण्ड लगती। यह क्या तमाशा कर रहे हो भगवान जी। अब मैं भीख नहीं माँगूँगी। तुम्हें ठीक करना हो तो करो। न ठीक करना हो, तब भी बता दो। एक बात जरूर कहूँगी कि मुझे अकेले मत ठीक करना। हमारे साथ जो बच्चे यहाँ पड़े है इनको भी ठीक करना। आखिर इनको भी तकलीफ हो रही है न। कौन सुनेगा इनकी? वह पाँच नम्बर वाला बच्चा जब कराहता है बहुत दुःख होता है मुझे। उसके माँ-बाप कितने दुःखी हैं? तुम यह भी देखो भगवान जी। आखिर भगवान जी का काम क्या होता है? कोई मुझे बताता नहीं है, मैं तुम्हीं से पूछती हूँ भगवान जी। तुम्हारा काम क्या है? केवल बाँसुरी बजाना तो काम नहीं हो सकता। सिर्फ रास रचाना भी तो काम नहीं हो सकता। जानती हूँ गायों को चराने में लगे रहते हो। घास भी अब कम ही हो गई है। अपने खेत में कोई चरने न देगा। दिक्कत तो तुम्हें हो रही होगी। गायों को चराना कोई आसान काम तो नहीं है। मैं भी सोचती थी कि पापा एक गाय रख लें पर ऐसा हो नहीं पाया। कौन देखता उसे? पापा भागते रहते हैं कभी खेती देखने, कभी कचहरी का काम। गाय को कौन देखता ? मैं सोचती थी कि मैं ही चारा लाऊँगी। पर मुझे तो गाय खींच ले जाती, कैसे रोक पाती मैं? तुम तमाम गायों को चरा लेते हो, कुछ मुझे भी बताओ जिससे मैं एक गाय तो चरा सकूँ। एक बढ़िया काली सी गाय अगर मेरे घर होती तो कितना अच्छा होता? बाल्टी भर दूध देती। उसके थन से निकला हुआ गरम-गरम दूध पीने में कितना मजा आता? अब बच्चे थन से निकला गरम दूध कहाँ पाते हैं? गाय रखती तो जरूर थन से निकला हुआ ताजा दूध पीती। पर मैं तो यहाँ बिस्तर पर पड़ी हूँ। तुम मुझे ठीक भी नहीं कर रहे हो। डॉक्टर चाचू कोशिश जरूर कर रहे हैं। बिना तुम्हारे हाथ लगाए काम कैसे बनेगा? मन तो चिड़िया की तरह उड़ना चाहता है पर मैं बिस्तर पर पड़ी हूँ। मन के उड़ने से यह देह तो नहीं उड़ेगी। माँ कहती है कि मन ठीक रहेगा तो देह ठीक हो जाएगी। मैं मन को ठीक रखने की कोशिश कर रही हूँ भगवान जी। अब मेरी देह को ठीक करना तुम्हारा काम है। तुम भी अपना काम करो। मुझसे क्यों चाहते हो कि मैं सब काम करूँ लेकिन तुम कुछ न करो ! आखिर तुम भी तो अपना सब काम करो। मैं सब काम करूँ और तुम आधा-तीहा भी न करो। मैंने कौन सा अपराध किया है, यही बता दो। अगर मैंने कोई बहुत बड़ा अपराध किया है तो ठीक है, मुझे इस दुनिया से उठा लो। कोई दुःख नहीं होगा मुझे। लेकिन तुम तो यह भी नहीं बताते कि मेरा दोष क्या है? क्या लड़की का पैदा होना ही अपराध है? या केवल मैं ही अपराधी हूँ। मेरे साथ जो और बच्चे यहाँ पड़े हैं उनका भी अपराध तो बताओ। अगर तुम्हारी फाइल में इनका कोई अपराध नोट नहीं है तो इन्हें तंग न करो। मेरी फाइल में तो कहते हो काट-कूट बहुत है। मान लेती हूँ मैं। पर काट-कूट को सही भी तो कर सकते हो। तुम्हें न आता हो तो मुझे बताओ। मैं काट-कूट को सही लिख लेती हूँ। एक बड़ी लाइन से सबको काट दूँगी और साफ-साफ फिरसे लिख दूँगी। कोई गड़बड़ नहीं। तुम अच्छी तरह पढ़ सकोगे। धर्मराज भी पढ़ लेंगे। मैं अपने स्कूल में गलितयों को काटकर फिरसे साफ लिख देती थी। फाइल को बहुत अच्छे से रखना आता है मुझे। तुम्हारे यहाँ का बाबू काम न कर पाता हो तो मुझे बताओ। हमारी कई सहेलियाँ यह काम बहुत अच्छा कर सकती हैं। तुम्हारा दफ्तर चमक जाएगा। फिर कोई गलती नहीं होगी। रामदीन की जगह गुरुदीन हाजिर नहीं कराये जाएँगे।        देखो भगवान जी ! मैं कहाँ बहक गई! जितने बच्चे यहाँ भर्ती हैं उनकी फाइल तो जरूर देख लो। इनमें कोई न कोई आदेश करो ही। आखिर कब तक हम लोग यो ही पड़े रहेंगे। भगवान जी, हम लोगों की तकलीफ देखो। बिस्तर पर पड़े-पड़े हम लोग ऊब रहे हैं। बच्चे हैं न, कोई बुड्ढे तो नहीं है। खेलने-कूदने के दिन यों ही गुजर रहे हैं भगवान जी। माँ कहती है कि आप न्याय करते हैं। न्याय करो भगवान जी ! मैं दया नहीं चाहती। दया के लायक हूँ भी नहीं। न्याय करो, जल्दी करो। लोग कहते हैं देर से न्याय करने में अन्याय ही होता है। तुम्हें तो देर नहीं करनी चाहिए। यहाँ कमरे में पड़े हुए सारे बच्चे आपके आदेश की प्रतीक्षा कर रहे हैं। मैं भी सोचती हूँ, आखिर आप क्या कहते हैं। अब देर न करो भगवान जी !'          शाम का समय। मनु अपने बिस्तर पर लेटी हुई पंखे का घूमना देख रही है। पंखा जब तेज चलता है तब उसके पंख अलग-अलग नहीं दिखाई देते। एक गोल घेरा सा दिखाई पड़ता है। उसकी आँखें पंखे की गति पर टिकी हुई हैं। क्या हम सब इसी पंखे की तरह भागते रहते हैं। अगर बिजली न हो तो पंखा नहीं चलता। हम लोगों के पास कौन सी बिजली है जिससे हम लोग चलते हैं। क्या मेरे अन्दर कोई बिजली होती है जो मुझे चलाती है? वह बिजली क्या है? क्या उस बिजली की चाभी भगवान जी के पास होती है? वही क्या स्विच को आन-आफ करते हैं? जब भी वे आफ कर देंगे, बिजली का आना तो बन्द हो ही जाएगा, जैसे बिजली जाने पर पंखा बन्द हो जाता है। हमारे यहाँ तो स्विच को आन-आफ हम लोग ही करते हैं। पर कभी-कभी बिजली ही नहीं होती तो स्विच को आन-आफ करने से भी कुछ नहीं होता। बिजली भेजने वाले कोई दूसरे होते हैं। हम लोगों में बिजली कौन भेजता है भगवान जी? क्या यह काम आप ही करते हैं? क्या आपके यहाँ भी बिजली की कमी हो जाती है? इसीलिए हम लोगों को नहीं दे पाते हो। अगर तुम्हारे यहाँ भी बिजली की दिक्कत हो तो हम लोगों को पैदा ही न करो। इससे तुम्हारी दिक्कत कम हो जाएगी। पर तुम तो उधर भी कुछ नहीं करते और जब ज़िन्दगी की बिजली के लिए हाय-तोबा मचती है तब इधर-उधर भागते हो। पैदा ही नहीं करोगे तो बिजली कम होने का सवाल ही नहीं उठेगा। पर मैं देखती हूँ कि जितनी बिजली है, लोग उससे ज्यादा खर्च करना चाहते हैं। इसीलिए लोड ज्यादा हो जाता है। तुम्हारे ऊपर भी लोड शायद ज्यादा हो गया है। इसीलिए सबको बिजली नहीं दे पाते हो। इसका कोई उपाय करो भगवान जी!