Spandan - 7 in Hindi Spiritual Stories by Madhavi Marathe books and stories PDF | स्पंदन - 7

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स्पंदन - 7

                                                                        

 

                                                                                     २३: चाय का प्याला

 

            मेइजी युग के नान-इन झेनगुरू के पास विश्वविद्यालय के एक प्रोफेसर झेनयोगा के बारे में ज्ञान प्राप्त करने आ गए।

            नान-इन मास्टरजी ने उनके लिए चाय बनायी ओैर प्रोफेसर के कप में चाय डालने लगे। चाय का कप पुरा भर गया, चाय बाहर छलकने लगी। प्रोफेसर साहब को यह कृत्य बडा अजीब लगा। पहले तो बडे अचरज से वह कृत्य देखते रहे ओैर फिर बोले “ आप यह क्या कर रहे हो? कप तो पुरा भर गया है फिर भी आप चाय डालते ही जा रहे हो?”

             तब नान-इन ने कहा “ इस कप की तरह आप भी अपने विचारों से ओैर मत-मतांतरों से पुरे भरे हुए हो। तो मैं आपको झेनयोगा के बारे में ओैर कैसे बताऊँ? आप जब तक बाकी विचारों से निवृत्त नही हो जाते तब तक सब व्यर्थ है।”

              प्रोफेसर चकरा गए ओैर गुरु को बोले “ आप का कहना सही है, लेकिन पुरे जीवनभर जो शिक्षा मैंने प्राप्त की, आगे की पिढी तैयार करने की जिम्मेवारी ली, व्यवहारीकता, भौतिकता यह तो दुनिया का अविभाज्य अंग है।”

              “ आपने सही कहा, लेकिन मनुष्य सातत्यता से विचार में डुबा रहता है। कभी भुतकालीन खयालों में उलझा रहता है तो कभी भविष्यकाल के मनरंजन पर झुमता रहता है। वर्तमानकाल में जब निर्णय लेने का समय आता है तब उस निर्णय पर हमेशा भुत-भविष्य का पगडा उस में समाया रहता है। जिस व्यक्ती या घटना को हम देखते है उस पर पिछले बातों का भी प्रभाव रहता है। तो यह निर्णय सही नही हुआ। तुम जब विद्यार्थीयों को पढाते हो तब सिर्फ उन्हे सिद्धांत सिखाना है, ज्ञान उपलब्ध करा देना है इसी उद्देश से पढाओ, तुम्हारा मन पुरी तरह से सजग रखो। तब घर के, बाहर के विचार मन में ना लाते हुए सामने विद्यार्थी बैठे है, यही सजगता रहनी चाहिये।” नान-इन उन्हे समझा रहे थे।

          प्रोफेसर अब उलझ गए “ यह कैसे हो सकता है? मन में तो विचार आएंगे ही।”

           “ इसीलिए तो झेनयोगा का अभ्यास करना चाहिये।” मास्टरजी समझाने लगे।

          अब तो प्रोफेसरजी के मन में उत्सुकता जागृत होने लगी। अभी तक धार्मिकता के माहोल में पले-बढे प्रोफेसर ऐसी बातों से अनजान थे। उन के मन में अचानक से अलग विचारों का आकर्षण बढने लगा।

          “ मास्टरजी, कृपया कर के क्या आप झेनयोगा के बारे में कुछ बता सकते है? इसका अभ्यास किस तरह से किया जाता है?”

          “ हाँ जरूर बताऊँगा। व्यवहारिक जीवन के बारे में एक कहावत है ‘ खाली दिमाग शैतान का घर ।’ लेकिन जिस व्यक्ती की ‘स्व’ को जानने की आंतरिक उर्मी बढने लगी है, उसकी जीवन-मुक्ती की तरफ यात्रा शुरू हो गई है उसके लिए खाली बैठना यह एक वरदान साबित हो सकता है। जिस प्रकार से चाय से कप भर जाने पर वह नीचे गिरने लगती है, उसी प्रकार विचार, अनेक ज्ञान को इकठ्ठा करना वह केवल वैचारिक अशांतता ओैर कोलाहल को निर्माण करने जैसा है। बार-बार कोडिंग-डिकोडिंग करते-करते मस्तिष्क क्षीण होने लगता है। ऐसा अशांत मस्तिष्क अराजकता निर्माण करता है। नए ओैर पुराने विचारों का मेल बिठाते वह थक जाता है। व्यक्ती को अगर जीवन-मृत्यु शृँखला से मुक्त होना है तो सर्वप्रथम अपने विचारों पर काम करना पडेगा। एक विचार एक जनम इस तरह से वह जनम लेता ही रहता है। इससे पार होने के लिए ध्यान करना बहुत आवश्यक है। मेरे मन में अब कोई खयाल आने ही नही चाहिये यह बात भी गलत है। केवल साक्षीभाव से, तटस्थता से विचारों का परीक्षण करते रहने से मुक्ती मार्ग प्रशस्त हो जाता है। विचारों में शांती प्रगट होने लगती है। निरर्थक विचारों का बहाव कम होने के कारण मस्तिष्क, शिथिलता महसुस करता है। यह केवल एक दिन में नही होता, सातत्यपुर्ण अभ्यास यही सफलता की कुँजी है। खाली हुए मस्तिष्क में फिर सच्चे ज्ञान की उपलब्धी हो जाती है। इसीलिए चाय का कप खाली करो ओैर सच्चा ज्ञानमार्ग अपनाओ।

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                                                                                              २४: मेहनत का फल

 

             मार्शल आर्ट का एक विद्यार्थी अपने गुरु के पास गया ओैर बडे विनम्रतापूर्वक कहने लगा “ मुझे आपके यहाँ मार्शल आर्ट सिखना पसंद है। इसमें पुर्णत: पारंगत होने में मुझे कितना वक्त लग सकता है?”

            गुरूं सहजता से बोले “ दस वर्ष लग जाएँगे।”

            तब बडे उतावलेपन से चेले ने कहा “ लेकिन मैं इतने साल राह नही देख सकता। उसके पहले मुझे प्रविण्य हासिल करना है। रोज मैं बहुत परिश्रम करूँगा। दस-दस घंटे सराव में लगा दुँगा। तब मुझे सिखने में कितना समय लगेगा?”

            गुरूं इस बात पर जरा विचार करने के बाद फिर बोले “ दस साल।”

           मतितार्थ, हर बात का समय आने पर ही काम पुरा हो जाता है। एखाद पेड जल्दी बढ जाए इसलिए उसे जादा खाद ओैर पानी देते रहे तो भी उस पेड को पूरी तरह बढने ओैर फल आने में ठराविक काल तो लगेगा ही, उलटा जादा खाद, पानी डालने से पेड के सडने का खतरा मँडराता है। वैसे ही कोई भी विद्या में प्रविण होने के लिए समय तो लगेगा ही। तुम्हारा शरीर, मन भी विद्या साध्य करने के लिए तैयार होना, सक्षम होना जरूरी है। जितना हेतू सहजसाध्य उतना तुम्हे आनंद प्राप्त होगा। अन्यथा इर्षा, द्वेष, जैसे विकारों में बंध जाने का खतरा मँडराता रहेगा ओैर प्रगती मार्ग रुक जाएगा। इसीलिए केवल हेतु साध्य करना है, सिखना है यही बात मन में ठान लेनी चाहिए। एक ध्येय, दिशा का अवलंबन करते हुए परिश्रम करते रहने से, पूरी धैर्यता से कार्य करते-करते उत्तम फलप्राप्ती अवश्य मिलेगी। उतावलापन कभी भी हानिकारक है। मानसिक धैर्य का होना अनिवार्य है अन्यथा आज यहाँ तो कल वहाँ ऐसे मन, तुम्हे भटकाता रहेगा। ऐसे एक विद्या में पारंगत होने के लिए बरसों का समय तो लग ही जाएगा। सब्र का फल मिठा होता है।

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                                                                                    २५: अंतिम घोषणा

 

        तंजेन नाम के एक गुरु ने अपने जीवन के आखरी पडाव पर साठ पोस्टकार्ड लिखे ओैर अपने एक शिष्य को वह पोस्टबॉक्स में डालने के लिए कहा। शिष्य के जाने के बाद गुरु ने तुरंत देहत्याग किया। पोस्टकार्ड में उन्होने लिखा था, ‘ मैं इस संसार, जगत से विदा ले रहा हूँ। यह मेरी अंतिम घोषणा है। तंजेन २७ जुलै १८९२।

         मतितार्थ, इस कथा से दो बातों पर प्रकाश डाला जा सकता है। पहला अपने कर्म के अनुसार या इच्छानुरुप कहाँ ओैर कैसे जनम लेना है यह हम ही तय करते होंगे। आंखिर जनम-मरण यह एक प्रक्रिया है। जैसे हमने तय किया की बॉम्बे जाना है तो बस, जहाज, फ्लाइट, पैदल, रेल्वे, सायकल, कार ऐसे अनेक प्रकार से सफर कर सकते है। इन में से एक तय करने के बाद सफर शुरू किया तो सफर में जो भी सहप्रवासी मिल जाएंगे उनके साथ अपना सफर जारी रहेगा। इस के बीच किसी का स्टॉप पहले आ गया तो वह उतर जाएगा। क्युँ की उस व्यक्ती ने वही तक सफर चुन लिया था। अपना स्टॉप नजदिक आने पर परिचित दृश्यों की शृंखला शुरू हो जाती है, ओैर हमको पता चलता है की अपना रुकने का, उतरने का स्थान अब आ गया है। फिर हम साथवाले लोगों से विदा लेने लगते है ओैर अपने स्थान पर उतर जाते है। जब बॉम्बे जाने का प्लान बन जाता है तब उसी हिसाब से सफर में क्या लेना है? पैसे, कपडे, खाने का सामान यह सब लेकर चलते है। वैसे ही भगवान ने भी इस जनम के सफर के लिए पहले ही सब तजविज की होती है। जब तुम इस जनम में साधना पथपर आगे बढ जाते हो तब यह सब बाते समझ में आने लगती है। अपना मृत्युसमय भी व्यक्ती जान जाती है। ऐसे ही तंजेन गुरु समझ गए होंगे की इस जगत के सफर का, जनम का, विदाई लेने का समय आ चुका है अपने जीवनसफर का उतरने का  स्थान आ गया इसीलिए उन्होने परिचितों से विदाई ले ली।

          दुसरा पहलु यह भी हो सकता है, वह इतने ज्ञानी, पहुँचे हुए महात्मा थे, की अपने मृत्यु का समयकाल नजदिक आ गया है यह जानने के बाद उनके जीवन सफर में जो भी सहभागी थे उन के सहयोग के लिए कृतज्ञता पुर्वक धन्यवाद देते हुए अपने मृत्यु के बारे में उन्होने बता दिया।

           तिसरा पहलू यह हो सकता है की जन्म लेते वक्त ना मै कुछ ले आया, लेकिन मेरी पहले से ही सब तजविज भगवान ने कर के रखी थी। स्वतंत्र होने तक संभालना, योग्य समय पर अन्न, कपडा, पैसा, इन सब बातों का ध्यान पहले से ही रखा हुआ था। जैसे एटीएम कार्ड से आज के जमाने में व्यक्ती कही भी अपनी जरूरत पूरी कर सकता है पैसा पॉकेट में रखने की जरूरत नही। पैसे कम होने पर लो बॅलन्स का मेसेज भी आता है वैसे ही अपने शरीर का एटीएम कार्ड खत्म होने लगा तो दात गिरने लगते है, बाल गिरते है, शरीर कमजोर होने लगता है यह तो आम लोगों का हो गया लेकिन ज्ञानी आदमी यह कह जाता है ना मैं साथ कुछ लेकर आया था ना साथ कुछ ले जाऊँगा।

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                                                                                    २६: जलता घर

 

            बहोत साल पहले की बात है। एक नगर में धनवान व्यक्ती रहता था। उसका मकान बहोत बडा था ओैर इतने बडे मकान में बाहर जाने का सिर्फ एक रास्ता था। एक दिन मकान के एक कोने में आग लग गई ओैर वह हवा के कारण जोर से फैलने लगी। जल्दी ही पुरे मकान में वह फैल गई। उस धनवान व्यक्ती के दस से जादा बच्चे एक कमरे में खेल रहे थे। खेल में बच्चे इतने मदहोश हो गए थे की उनको पता ही नही चला घर में आग लगी है।

       वह धनवान आदमी अपने बच्चों को बचाने के लिए उनके कमरे के ओर दौडा ओैर चिल्लाते जोरसे आवाज देने लगा, जल्दी से कमरे के बाहर आ जाओ, लेकिन बच्चे खेलने में इतने मश्गुल थे की उनकी आवाज कोई सुन ही नही पाया। धनवान आदमी चिल्ला-चिल्लाकर बाहर ना आने से तुम लोगों को तकलिफ हो जाएगी यह बात बताता रहा, लेकिन कोई बात गंभीरता से सुनने की स्थिती में थे ही नही।

       फिर पिता ने एक चाल चली ओैर बोले “ बच्चों, देखो तो मैने तुम सब के लिए कितने सारे खिलौने लाए है। वह कार में रखे है। तुम सब बाहर नही आए तो कोई आकर तुम्हारे सब खिलौने चुराकर ले जाएगा।” यह सुनते ही सब बच्चे दौडते हुए घर के बाहर आए ओैर उनके प्राण बच गए।

        मतितार्थ, धनवान पिता मतलब बोधीप्राप्त हुए गुरु, ओैर बच्चे मतलब साधारण मानव। संसार के खेल में मश्गुल हुए लोग, अलग-अलग खिलौने से खेलते रहते है। मनोरंजन, रिश्तेदार, शिक्षा प्राप्ती, परिवार का लालन-पालन, नौकरी, व्यर्थ चिंता इन सब में उलझा रहता है। इस जंजाल से निकल भी सकते है, इसका उन्हे जरा भी ज्ञान नही रहता है। इसी बंधन में जीव घुमता रहता है। उस बंधन में ही मजा है, ऐसे कपोलकल्पित भावनाओं में रहते हुए जीवन के उतार-चढाव सहता रहता है। आधि-व्याधी को निमंत्रित करते दुःख सहता है। ऐसे परिस्थिती से बाहर निकलने के लिए गुरु नानाविध तरीके अपनाकर मनुष्य को समझाते रहते है। उपदेश देते है, लेकिन जीव इसी में कभी खुशी, कभी गम के दायरे में झुमता ही जाता है। फिर जब सांसारिक खिलोनों का नाश होने लगता है तब जाकर कही मनुष्य को संसार के फोलता का ज्ञान हो जाता है। जीवन मतलब ओंस की बुंदे, कब फिसल जाए पता ही नही चलता। गुरूं के मार्गदर्शनपर बातें याद आने लगती है। फिर कोई मनुष्य यही से आध्यात्मिक यात्रा की ओर चल पडता है।

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                                                                                      २७: कहा है स्वर्ग-नरक

 

            नोबुगिशे नाम का एक सैनिक, झेनगुरू हाइकुन के पास आ गया ओैर पुछ्ने लगा “ मास्टरजी विश्व में सचमुच स्वर्ग-नरक होते है?”

             “ तुम कौन हो?” हाइकुन गुरु ने उसे पुछा

             “ मैं एक समुराई हूँ।” सैनिक ने जबाब दिया।

             “ तुम सैनिक हो? तुम्हारे जैसे आदमी को, कौनसा राजा अपने सेना में रख सकता है? तुम तो भिखारी लगते हो।” बडे अचरज से उसे देखते हुए गुरु बोले।

             यह सुनते ही नोबुगिशे को इतना क्रोध आ गया की अपनी तलवार उठाने के लिए उसका हाथ म्यान में गया। हाइकुन यह सब देख रहे थे।

              फिर से उन्होने कहा “ अच्छा, तो तुम्हारे पास तलवार भी है, लेकिन इसमें इतनी धार है की वह मेरा मस्तिष्क उडा सकेगी?”

              यह सुनते ही नोबुगिशे ने एक झटके में अपनी तलवार बाहर निकाली।

               हाइकुन ने कहा “ देखा, नरक का दरवाजा खुल गया ना?”

               यह सुनते ही समुराई को गुरु क्या समझाना चाहते है वह बात समझ में आ गई। अपने हाथ की तलवार गुरु के चरणों में रखकर उन्हें साष्टांग दंडवत किया।

               गुरु ने कहा “  देखो बेटा, अब तो तुम्हारे लिए स्वर्ग के द्वार भी खुल गए।  

               मतितार्थ, कितनी सुंदर कहानी है। ईश्वर ने स्वर्ग-नरक निर्माण नही किया है, मनुष्य के हाथों में इसका निर्माण सोंप दिया है। जिसको लगेगा वह अपने आयुष्य का स्वर्ग तैयार करेगा अन्यथा स्वर्ग जैसे संसार का नरक बना देगा। ईश्वर किसी से भेद-भाव नही करता। राग, लोभ, मोह, मद-मत्सर जैसे विकार मन में आते ही विचारों का तुफान शुरू हो जाता है। फिर अविचार का सैलाब विवेकबुद्धी का नाश करते हुए गलत निर्णय लेते हुए जो कृती करता है उससे जिंदगी नरक जैसी बन जाती है। व्यक्ती के मन में जब अविचार आता है वह नरक होता है ओैर सुविचार स्वर्ग बन जाता है। अच्छे कर्म से मन को शांती प्राप्त होती है। विचार कम होने में मदत होती है। विचार के कम हो जाने से कभी-कभी निर्विचारता के क्षण भी नसीब हो जाते है। निर्विचारता ही असली स्वर्गसुख का द्वार है। मतलब मन पर काबू पाने से या ना पाने से दोनों चीजे अपने पर ही निर्भर है। जिस प्रकार से विचार उत्पन्न होने लगते है उसी प्रकार अपने शरीर में रासायनिक बदल होने शुरू हो जाते है। इसीलिए अपने विचारों का परीक्षण करते रहने से हम खुद ही अपना स्वर्ग-नरक तैयार कर सकते है।

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                                                                                          २८: क्रोधोपचार

 

               गुरुकुल में साधना सिखनेवाले एक शिष्यने एक बार अपने गुरु से कहा “ मास्टरजी मुझे बहोत जल्दी क्रोध आता है, इससे बाहर निकलने का कोई उपाय है क्या? मेरा क्रोध कैसे कम कर सकता हूँ? कृपया आप इस विषयपर मुझे मार्गदर्शन किजिए।”

               गुरु ने कहा “ यह तो बहुत ही अजीब बात है। ऐसे करना तुम मुझे क्रोधित होकर दिखाओ।”

               शिष्य ने कहा “ यह तो मैं अभी नही कर सकता।”

             “ क्युँ? तुम्हे अभी क्रोध क्युँ नही आ सकता?”

             “अब क्रोध आ जाए ऐसे कहने से थोडी क्रोध आ सकता है? वह तो कुछ बात या घटना घटने के बाद ही आ सकता है ना?”

              यह बात है, तो क्रोध यह तुम्हारे प्रकृति का, स्वभाव का भाग नही है। अगर यह तुम्हारे स्वभाव का अंग होता तो तुम वह कभी भी दिखा सकते थे। जो तुम्हारे प्रकृति का भाग नही है, तो उसे अपनेपर हावी होने देना यह कहाँ की शराफत है?”

               गुरु के समझाने पर अब शिष्य ने तय किया ओैर जब भी क्रोध आने की संभावना थी तब गुरु वचन याद करने लगा। इस तरह से शांत ओैर संयमित व्यवहार अपने आचरण में लाने लगा।

               मनुष्य को क्रोध तब आता है जब अपने आस-पास वह अपुर्णता महसुस करता है। इस अपुर्णता को जब उसका मन स्वीकार नही कर पाता तब वह दुसरे व्यक्ती पर या परिस्थिती पर इल्जाम लगाते हुए क्रोधित हो जाता है। एक लहर पुरे शरीर, मन में फैल जाती है, भाव-भावनाओं में उसका तीव्र रुपांतरण होने से शरीर का कपकपाना, अपशब्दों का इस्तमाल करना ऐसी प्रतिक्रिया दिखायी देने लगती है। यह क्रिया अपने मस्तिष्क, शरीर, मन सबको हानिकारक होती है। अगर व्यक्ती ने अपुर्णता का, परिस्थिती का स्वीकार किया तो बात वही खत्म हो सकती है। कोई भी अपेक्षा मन में रखने से लोभ, मोह, मत्सर यह क्रोध का कारण बन जाता है। इसीलिए कम से कम अपेक्षाए ओैर परिस्थिती का स्वीकार यह दो बाते याद रखने से जीवन में क्रोध के क्षण कम हो सकते है। क्रोध यह स्वभाव नही विकार है। गुरूं के वचन के नुसार व्यक्ती ऐसे ही क्रोधित नही हो सकता उसके लिए कोई बहाना चाहिए, जो हम ढुंढते रहते है। असंतुष्ट मन में, कारण की चिंगारी पडने पर क्रोधाग्नी अपने रुप में प्रगट हो जाता है। इसीलिए शांत, संयमित, अपेक्षारहित जीवन ही आनंददायी जीवन है।

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                                                                                      २९: इर्षा, क्रोध ओैर अपमान

 

            टोकियो के पास एक झेन मास्टर रहते है। वृद्धकाल में भी अपने आश्रम में झेन बुद्धिझम की शिक्षा वह देते है। एक तरुण सैनिक, जिसने कभी भी पराजय देखा नही था, उसके मन ने, अहंकार भरे भाव से यह तय किया था अगर मैने झेन मास्टरजी को लढने के लिए तैयार किया तो उनका पराजय करना, मेरे लिए कोई बडी बात नही होगी ओैर मेरी प्रसिद्धी दुर-दूर तक फैल जाएगी। ऐसे सोच-विचार से वह युवक आश्रम में आ गया। अपने क्रोधपूर्ण आवाज में उन्हे आव्हान देना शुरू किया।

          “ कहाँ है वह मास्टर? सामने आ जाओ ओैर मेरे साथ लढकर अपना पराजय कबुल करो।”

          उसकी आवाज सुनकर आश्रमवासी धीरे-धीरे वहाँ इकठ्ठे हो गए। आखरी में मास्टर भी पहुँच गए।

         मास्टरजी को देखते ही सैनिक ने अपमानजनक शब्दों से उनकी निर्भत्सना करना शुरू किया, लेकिन मास्टरजी मौन में रहते हुए शांती से उसकी बाते सुनने लगे। बहुत देर तक अपमान सहने के बाद भी मास्टरजी ने कुछ नही कहा, यह देखकर योद्धा डर गया। ऐसा कुछ हो सकता है यह उसने सोचा भी नही था। उनकी गहरी शांती देखकर सैनिक वहाँ से भाग गया।

          सब शिष्य गुरूं के मौन पर नाराज हो गए। आप सैनिक से इतना क्युँ डर गए? उसे करारा जबाब क्युँ नही दिया? आप अगर उससे लढने के लिए तैयार नही थे तो हमे आज्ञा करते, हम उसे अच्छा सबक सिखाते। ऐसी चर्चा बहुत देर तक सुनने के बाद मास्टरजी ने हँसकर जबाब दिया “ आप सब लोग मुझे एक बात बताओ, कोई आपके लिए कुछ सामान या भेटवस्तू ले आया ओैर तुमने उसे स्वीकार करने से मना किया तो उस सामान का क्या हो जाएगा?”

          शिष्य बोले “ जो लाया था वह उसी के पास रहेगा।”

          “ सही बात की आप लोगों ने। यही बात इर्षा, क्रोध, अपमान जैसे विकारों पर भी लागू हो जाती है। मैने उसकी बातों का स्वीकार नही किया, तो सैनिक को, यहाँ से भागना पडा।”

          मतितार्थ, कुछ लोग ऐसे होते है, उनके स्वभावनुरूप दुसरे ने बर्ताव करने पर उनका अहंकार खुशी देता है। सामनेवाला अपने दर्जे में आते देख वह आगे की ओर बढता है ओैर बुरे व्यवहार करने की उन्हे छूट मिल जाती है। कैसा आध्यात्मिक गुरु है? बात-बात पर गुस्सा हो जाता है, अपशब्द कहता है ऐसी बाते चार लोगों में कहता फिरता है। अहंकारी लोग एक तरह से व्यक्ति का इम्तहान लेनेवाले लोग होते है। ऐसे लोगों से अगर सामना करने की नौबत आ जाए तो उन पर हावी होने का प्रयास करने के बजाय दुर्लक्षित भाव रखते हुए शांत रहना ही उचित होता है। व्यक्ती जब साधना पथपर होती है तब ऐसे लोगों से पाला पडने के बाद ही पता चलता है की हम इस माहोल में भी शांत रह सकते है या नही? अगर हम शांत रह सके तो यह प्रगती का द्योतक माना जाएगा। शांती भंग हो गई ओैर हमने भी ताव में आकर अपशब्द कह डाले तो समझ लेना, साधना प्रगती में हम अभी कोसो दूर है। शांती में रहने से उसका पराभव ओैर अपना, आगे की ओर बढा एक कदम व्यक्ती खुद महसुस कर सकती है।

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