( कहानी छोटी )
आज पांच शहरो कसबो मे पानी बंद रहेगा। हवा भी दूषित होने के कारण बनोटी हवा का सर्किलुशन निकाले।
हवदत्तफड़ी का माहौल। दूषित हवा को पोरी फाई कर रहे है। इस लिए हमें खबर देने तक शहर के माहौल मे
लोग घबराहट मे ही जान खोने तक क़ी नौबत से झूज रहे है। यह पांच शहर बड़े है..... छोटे कस्बे हालत देख कर हवा को संबालने मे और पानी को दूषित होने से बचा रहे है।
लोगों क़ी चीखो ने कुर्लाहट मचा दी, धीरे धीरे आक्सीजन भी मार्किट से जयादा रेट मे विकने शुरू हुए। पानी बोतलों मे बंद सौ मे विकते विकते कब एक हजार तक चला गया कोई नहीं जानता था।
जिन के पास सब कुछ था।, वो भी मरने से डर रहा था... कैसा चित्र था। दूषित हमने कयो किया कुदरत को। जंगल कयो काटे.... अंदर सब के यही जंग थी।
पानी के दो घुट के लिए फिर से वही हलात बन रहे थे।
पहले हम लड़ते रहे है। हवा दूषित.... गरीब कौन सा जीने आया है।मरने आया है,, पहले आमदनी के दुख से मर मर के मरता था, अब तड़फ तड़फ के मरता है....अमीरों ने खोजबीन से पूरीडिवास क़ी मशीने घरो मे लगा लीं है... हवा दूषित भी पेरिफिओडिवीज़ से शुद्ध हो रही है, अब उनके रंग काले नहीं, फर्क पड़ रहा है.... पानी दूषित भी शुद्ध होके उनकी रक्षा कर रहा है... वातावरण मे हरयाली रह ही कहा गयी है। आदमी आपनी ही जान लेने पे तुला हुआ है। लालच ने यहाँ भी मार दिया... वाह रे बंदे।
जंगल ही काट डाले तूने... अब तरस ता है, मौत क़ी करीबी से...
देख तूने कौन सा तरस किया था। तरस कर, रब भी तरस करेगा। जलाद भी दो फांसी के बाद कापने हट जाता है।
उसका भी गुस्सा गिर जाता है। सोचता है फांसी से सारे गुनाहा हट जाये, तो फिर पहले मेरे पाप धोने से फांसी मेरे गले मे डाल दी जाए।
लोग वही पहली बीमारियों से मर रहे है... लगता है जैसे 1931 मे जी रहे है... उल्टिया हेजा नहीं कुछ बीमारियों का नाम चैज हुआ है।
करोना हेड चेस भाव दिमाग़ मे सक्रमण चला गया, हवा रास्ते... उल्टी और खत्म.... वीरान हो रही दुनिया क़ी हलचल.... खत्म हो रहा जगलो और पानी से आपना छोचरापन , हेकड़ी बंद। महजब क़ी कोई लड़ाई नहीं, सास ही नहीं है, बोलना किसने है। मानव क़ी गलती है मानव कह रहा है, मानव सुन रहा है। वाहों... पहली दफा कोई बहस नहीं।
रोटी मिल रही है, हवा नहीं शुद्ध पानी नहीं..... कया सब मर रहे है, पुरानी बीमारियों क़ी तरा नए बीमारियों के लेवल लगा कर।
अब वीरानियाँ है, नदिया है, वो गुनगुनाती नहीं है। चुप है, ये मंजर देखने को, आदमी भुगत रहा है, गंगा मईया तो कब क़ी धरती छोड़ चुकी है, सतलूज का पानी बस न मात्र है, पथर आज भी जो हमने नौके बनाई थी, आज भी है, कितना डर लग रहा है, मानव अब समझ रहा है, ज़ब चिड़िया चुग गयी खेत।
मानव ने बम्ब बनाये, चले ही नहीं। चाद तक गया, पानी ढूढ़ने, पर धरती का शुद्ध पानी छोड़ कर, लालची इंसान..... सब होली होली खतम हो रहा है, मास्क लगाने क़ी नौबत, जैसे हम चाद ग्रह पर हो।
--------------समाप्ति ---------