-नीलम कुलश्रेष्ठ
[ साहित्यिक चेतावनीः यह संस्मरणनुमा कथा कोई रोमांटिक कहानी नहीं है ]
‘धी --रे चलें, आप पर्वतों की गोद में हैं’-चलती टैक्सी की खिड़की से मैंने सड़क के बांई तरफ़ लगे बॉर्डर रोड ऑर्गनाइज़ेशन-‘स्वस्तिक’ के पीले बोर्ड पर सरसरी नज़र डाली। पर्वतों की गोद में चलना तब महसूस होता है जब आप पर्वत पर ऊंचे चढ़ आए हों । सामने वाले पहाड़ की गोल गोल घूमती सड़क पर कार व टैक्सी घूम रही हो-कभी छिपती, कभी दिखाई देती। यों तो पर्वतो की गोद लंबे देवदारों के भीगे पत्तों, बीच बीच में दिखाई देते माचिस की डिब्बी जैसे मकानों के बीच पहाड़ों को तराश कर बनाई गई लहकाती, बलखाती मूडी सड़क यानि की कभी गायब होती, जरा घूमो तो नूडल्स की तरह बलखाती सड़क, पर मेरे लिये यह सफ़र नया नहीं था। बस मन में एक नया थ्रिल है, वो प्रदेश ऐसा है, जो कभी अपना नहीं था। वहां के चोग्याल (राजा) ने पहाड़ की मुसीबतों में घबराकर भारत का दामन थाम लिया था। अब वह हमारा है बिना वीसा, पासपॉर्ट के झंझट के ।
‘इट्स नॉट रैली, एंज्वाय द वैली’ सड़क के बांई तरफ़ लगे पीले बोर्ड के काले अक्षरों पर शायद ड्राइवर का ध्यान भी गया होगा। उसने टैक्सी धीमी कर दी। ऐसा न भी करता तो उसे धीमी करनी पड़ती, सड़क पर पहाड़ गिरा पड़ा था। अपनी धूल, कंकड़ों व पत्थरों के साथ बिचारा पहाड़। ये तो अच्छा हुआ हमारी टैक्सी के वहां तक पहुँचने से पहले स्वस्तिक वालों ने पिचहत्तर प्रतिशत कचरा साफ़ करवा दिया था। उस समय क्रेन का बड़ा हाथ गिली मिट्टी को भर रहा था इसलिये हमारी टैक्सी को रुकना पड़ा। जैसे ही उस हाथ ने पलटकर कचरे को थैली में फेंका हमारी टैक्सी चल पड़ी, हम चल पड़े।
‘इतनी जल्दी क्या है प्यारे, रुककर देख प्रकृति के नजारे’ सड़क के इस बॉर्ड पर नजर पड़ते ही एक मुस्कराहट होठों पर आ जाती है। बस का सफ़र हो या ट्रेन का, मैं नींद का भरपूर आनंद ले सकती हूं। इस उल्लास के साथ कि जब तक यहाँ हूँ चार बार रसोई में जाने की ज़हमत से मुक्त हूं। तो क्यों न दिमाग को नींद के हवाले कर आराम किया जाये। लेकिन दो पहाड़ों के बीच तिस्ता नदी बहकर आपका साथ दे रही हो, नदी के दूसरे पाट के पहाड़ों के पीछे अनजाना रहस्य आपको आकर्षित कर रहा हो-` उस पार न जाने क्या होगा ?` की तर्ज पर। सड़क का बोर्ड याद दिला रहा हो---`प्यारे ! रुककर देख प्रकृति के नजारे। ``बचपन में आसमान की तरफ़ सिर उठाकर जैसे देखते थे, देखा तो सफ़ेद सिलेटी बादल के ऊपर हम थे, न स्वर्ग का पता था न नर्क का, न भगवान का और नीचे थे रूई के कोमल फाहों से आधे पहाड़ों पर आच्छादित बादल आधी घाटी व तिस्ता नदी को ढके हुए।
पहाड़ की बारिश में भीगी सरसराती हवाओं में, नींद कैसे आ सकती थी? नीचे छल छल करती नदी का तट, पहाड़ों के कटाव, उनके पेड़-पौधे सब कुछ सुंदर जड़े हुए से ...ऐसी अनुभूति अंदर उतरे जा रही थी- दिमाग की, नहीं, नहीं दिल की परतों में बहुत नाजुकता से सहेजते हुई।
‘रीच होम इन पीस (शांति के साथ) नॉट इन पीसेज(टुकड़े-टुकड़े में नहीं)’- ड्राइवर ने मोड़ पर ज़ोर से ब्रेक लगाकर तेजी से स्टियरिंग घुमाकर टैक्सी को बांई तरफ़ ले लिया। सामने आते एक ट्रक से टकराते टकराते, हम पीसेज (टुकड़ों) में होने से बच गए।
ड्राइवर ने एक छोटे से कस्बे के छोटे से बाजार में गाड़ी रोक दी। कितने भी तेज रफ्तार वाला ड्राइवर हो, ये घुमावदार रास्ते के चक्कर उसे डेढ़ घंटे में थका डालते हैं। आस-पास और भी टैक्सियाँ रुकी खड़ी हैं। सवारियां आस-पास रेस्टोरेंटनुमा दुकानों पर गर्म पकोड़े, समोसे खा रही हैं या चाय पी रही हैं ऐसे स्थानों की सभी दुकानों में टॉयलेट एक अनिवार्यता है। दुकान की प्लेटें फुर्ती से लगाती हृष्ट-पुष्ट मालकिन को देखकर और अचार से आती सरसों के तेल की महक को सूंघ मैं अपने को रोक नहीं पाती, ‘आप कहाँ की हैं?’
`‘बिहार की, लेकिन हमारे पुरखे बरसों से पुराने यहीं बस गए हैं।’`
टैक्सी के चलते ही पहाड़ों व उसके पेड़ पौधों पर नजर गढ़ाये हुए हूँ। जैसे ही पश्चिम बंगाल की सीमा खत्म हो, मैं प्रकृति की इन कृतियों के बदलाव से समझ जाऊं कि यहाँ पश्चिम बंगाल की सीमा समाप्त होती है, सिक्किम की शुरू। जब सिक्किम की सीमा रेखा का चेकपोस्ट आता है तभी पता लगता है-बस यहीं तक था पश्चिम बंगाल। बांई तरफ़ बने एक छोटे दालान वाले ऑफ़िस में कुर्सियों पर बैठे एक वर्दीधारी पुलिस कांस्टेबिल व एक और नवयुवक को देखकर लगता है वाकई सिक्किम आ गया है क्योंकि दार्जीलिंग में देखे भरे चेहरे, फैली नाक वाले मुस्कराते चेहरों की जगह ये गोरे लंबे चेहरे, पतली नासिका वाले हैं। एक दृढ़ता व गंभीरता लिये हुए। दार्जिलींग में ही बता दिया गया था कि सिक्किम सिर्फ़ सिक्किम की टैक्सियां ही जा सकती हैं, इसलिए चेकिंग नहीं होती।
सफ़र जारी है, प्रदेश दूसरा हो, लेकिन पहाड़ वही है, पेड़-पौधे वही हैं, सरसराती हवाएं वही हैं। सारे शरीर को सहलाती नमी वही है। बारिश के मौसम में सुरमई उजाला वही है।
मेरी उत्कंठा रास्ते में पड़ने वाले छोटे-छोटे शहरों (क्योंकि उनके बड़े व मज़बूत मकानों के कारण गांव कहना उचित नहीं होगा) को बार-बार गंगटोक समझ रही है। पता तो तब लगता जब सड़क के दोनों ओर लगे खंभों के बीच एक लंबा आसमानी बोर्ड नजर आता है जिस पर लिखा है ‘गंगटोक(सिक्किम) आपका स्वागत करता है।’ लेकिन कहीं दिल जैसे मुरझा जाता है- इस स्वागत को स्पांसर करने वाली कंपनी का नाम भी लिखा हुआ है। बस ऐसा लग रहा है कोई अबोध पहाड़ी लड़की बेतुके कपड़े व मेकअप में होटल के रैंप पर कैट वॉक कर रही है।
गंगटोक की साफ़ सुथरी सड़कें ऊंची-ऊंची इमारतें, बंद हुए बड़े शो रूम दुकानों के शटर्स, समृद्धि की कहानी कह रहे हैं। टैक्सी एक ढलान पर होती हुई टैक्सी स्टैंड पर रुक गई है। अनेक टैक्सी वाले हमें घेर लेते हैं, `‘साब जी आपको एक अच्छे होटल ले चलें।``
``नहीं, हमने दार्जिलिंग से ही होटल बुक करवा लिया था।’ ``
हमारे बताये होटल तक जाने के लिये टैक्सी ड्राइवर भाड़ा बताते हैं. हम पर्यटक धर्म निबाहते हुए बताए हुए मूल्य को कम कर देते हैं। हमारी बात से सब तितर बितर हो जाते हैं। शेड के बाहर तेज पानी बरसने लगता है। एक मध्यम कद का, मध्यम वयस्क गोल मुंह मिचमिची आंखों वाला, गोरे चेहरे पर गोल टोपी लगाए एक टैक्सी ड्राइवर हमारे पास आता है, ‘`साबजी, मैं आपको होटल बताऊं।’`
`‘नहीं हमारा होटल बुक है।’ `एमके होटल का नाम बताते हैं।
वह तुरंत कहता है, `‘मैं आपको छोड़ दूंगा।’`
टैक्सी उसी ढलान से चढ़ती ऊपर सड़क पर आकर वापिस उसी सड़क पर जाने लगती है जहां से हम आए हैं। बाहर बारिश की तेज बौछार जारी है। अंधेरा गिर आया है। उधर बातूनी ड्राइवर कुछ न कुछ बोलने में लगा है, `‘साबजी। आपने बेकार ही दार्जिलिंग से रूम बुक करवाया। अभी ऑफ सीजन है आपको और भी सस्ता कमरा इदर मिल जाता।’`
``‘खैर... अब तो हो गया।’ `
‘साब जी। आप जिस होटल में ठहरे हो वह इदर से बहुत दूर है। वहाँ खाने का पूछ लेना। यदि नहीं मिले तो खाने के लिये आपको वापिस इदर आना होगा। मैं सामान रखवाकर आपको इदर ले आऊंगा। आप लोग किदर से आए हैं?’``
‘गुजरात से।’`
‘`भूकंप के बाद, दंगे के बाद अब सब तो ठीक है न?’`
हम सब चौंक जाते हैं। ये ड्राइवर तो सुदूर गुजरात की खबर रखता है। एम के कहते हैं, ``‘सब ठीक है।’
सड़क के दोनों तरफ़ की इमारतें देखकर मेरे मुंह से निकल पड़ता है,` ‘गेंगटोक तो बड़ा रईस शहर लग रहा है।’`
`‘मेमसाब जी। बीस साल पहले यहाँ ऐसा नहीं था। अब तो लोग बिजनेस कर रहे हैं। पैसा बढ़ता जा रहा है, बिल्डिंग ऊंची होती जा रही हैं। सिक्किम की औरतें बहुत मेहनती हैं। वे नौकरी कर रही हैं या घर में कोई न कोई काम कर रही हैं।``
`‘दार्जिलिंग में, शिलांग के बड़े बाजार में भी औरतें बहुत सी दुकाने संभाल रही हैं। कितनी मेहनत से घूम घूम कर शॉल बेचती हैं।’`
`‘सच ही यहाँ की स्त्रियों ने कड़ी मेहनत कर पहाड़ों की गरीबी की शक्ल ही बदल डाली है। अच्छा, गंगटोक में सबसे ऊंची इमारत कितनी मंजिल की होगी ?`’
``‘सात मंजिल।’``
‘बाप रे।’
‘`बिना म्यूनिसिपेलिटी से नक्शा पास कराए लोग ऊंची इमारतें बनाए जा रहे हैं। एक रोज आपके गुजरात जैसा होगा। भूकंप आएगा और पहाड़ नीचे जा गिरेगा। हम आपका जैसा मैदान में रहने वाला हो जाएगा... हा...हा...हा...।’`
गुजरात के भूकंप की स्मृति इतनी भयानक है कि हम हंस नहीं पाते। थोड़ी देर बाद वह पूछता है, ‘कल आप लोग किदर को घूमने जाएगा? लोकल टूरिस्ट प्वाइंट या यूम थांग घाटी या...?’``
एमके बीच में बात काट देते हैं,` ‘हमारे पाससिर्फ़ एक दिन है इसलिए लोकल टूरिस्ट प्वाइंट ही देखेंगे।’``
‘हम आपको चार सौ रुपये में सब दिखा देगा। इदर का टेक्सीवाला सात सौ आठ सौ रुपया लेता है।’`
``‘सुबह कितने बजे ले चलोगे?’``
‘पांच बजे, छह बजे, सात बजे जैसा आप बोलो?’````
‘जरा होटल वाले से पूछ कर देख लें।’
‘ साब जी। मैं आपसे बात कर रहा हूँ। ये होटल वाला बीच में किदर से आ गया। आप राजी बीच में तीसरे का क्या काम? बोलो साब जी। कितने बजे आऊं?’``
`‘अभी सोचकर बताते हैं।’`
खिड़की से बाहर सड़क पर अभी भी हल्के अंधेरे को भेदना चाहती हूं, जाने कितने रहस्य अपने में समेटे हुए हैं।
‘सोचना क्या है? जब हमारी बात तय हो गई तो तीसरे का क्या काम?’`
उसकी चतुरता पर बरबस मुस्कराहट आ ही जाती है।
हमारे उत्तर न देने से उसकी आवाज़ कुपित हो गई है, `‘लीजिए आ गया आप का होटल। यहां का एसपी बहुत कड़क है। बारिश हो रही है इसलिए ‘रांग साइड’ टैक्सी खड़ा कर रहा हूं- जल्दी सामान उतारिए।’`
हम लोग जल्दी जल्दी सामान निकालकर बाहर रखते हैं। होटल का पोर्टर हमें देखकर बाहर आकर सामान उठाने लगता है। टैक्सी वाला पूछता है, ‘`सर जी कितने बजे आऊं?’`
``‘अभी थोड़ी देर में बताते हैं।’
‘अबी नहीं बता रहे तो फिर कब बताएंगे?’ वह बड़बड़ाता तेजी से टैक्सी दौड़ाता बिना अपना भाड़ा लिए ओझल हो गया है।
`‘अजीब अहमक है अपने रुपये भी नहीं ले गया।’`
होटल के बाईं तरफ़ से सीढ़ी उतर कर छोटे से कमरे को देखकर पापा-बेटे का पारा चढ़ जाता है, `‘एजेंट ने कैसा होटल बुक किया है ?रूम छोटा है, कलर्ड टीवी कहां है?’`
`‘हमें यहां एक ही रात तो बितानी है, डोन्ट स्पोइल योर मूड।’ `कहते हुए मैं बाथरूम में जाकर गीज़र ऑन कर देती हूं। पहाड़ों पर ठंड है तो हर होटल के हर कमरे की गीज़र अनिवार्यता ।
तभी कोई दरवाज़ा खट खट करता है।
``‘कम इन।’
एक लड़का दरवाजा खोलकर अंदर आता है,` ‘मैं ट्रेवल एजंट हूं। आप लोग कल घूमना चाहेंगे? मेरी एजेंसी बाजू में है।``’
‘हां, लोकल प्वाइंट्स जाना चाहेंगे। कितने रुपए लगेंगे?’`
``‘सात सौ रुपए।’`
`‘थोड़ी देर में हम बताते हैं।’`
सब फ़्रेश होकर कपड़े बदलकर बाहर निकल आए हैं। चाय पीकर सोचते हैं- करें तो क्या करें? फ़ोन करने पास के एसटीडी बूथ तक जाते हैं। फ़ोन बिगड़ा हुआ है। छह-सात बंद दुकानों के बाद फिर एसटीडी बूथ का पीला बोर्ड दिखाई दे रहा है। भीगे व काई लगे फुटपाथ पर कदम जमा कर चलते हुए हम आगे बढ़ते हैं। वहाँ पहुंच देखते हैं कि एक अच्छी खासी दुकान है जो चाइनीज़ सामान से भरी हुई है। सुनसान पड़े शहर में टाइम पास करने का जैसे कोई शगल मिल गया हो। एक सांवली सी, साड़ी पहने कसी चोटी वाली स्त्री सामान दिखा रही है। मेरे से रहा नहीं जाता- मैं पूछ बैठती हूँ, ‘`आप किस प्रदेश की हैं?’`
`‘यूपी की।’`
`‘अरे? हम भी वहीं के हैं लेकिन गुजरात में बस गए हैं।’`
`‘और हम सिक्किम में।’` वह मुस्कराती है,`` पहाड़ी औरतों को मेहनत करते देख हम भी दुकान चलाना सीख गई हैं।``
सनी पास खड़े उसके बेटे से पूछता है`, ‘भैया, ये ऑटो टॉर्च कितने की है?’`
वह सांवला लड़का अपनी जैकेट की बांहे चढ़ाता हुआ कहता है, `‘तुम लेना चाहो तो ले लो वरना चाइनीज़ माल की कोई गारंटी नहीं है। मेरी टॉर्च का बल्ब एक बार फ्यूज हो गया तो पूरा सिक्किम छान मारा, दार्जिलिंग छान मारा। ऐसा दूसरा बल्ब नहीं मिला।’`
सफ़ेद चीनी मिट्टी के दो फ्लावर वास देखकर उन्हें खरीदने का मन हो रहा है। उस पर रंग बिरंगे फूल व रंग बिरंगे परों वाली परियां बनी हैं।
‘`मैडम ! मैं इसकी पेकिंग अच्छी तरह कर दूंगा लेकिन जब आप लोग इतने लंबे टूर पर निकले हैं तो हो सकता है रास्ते में टूट भी जाए।’`
एमके एक वॉकमेन हाथ में जैसे ही लेते हैं, वह कह उठता है, ‘`सर, ये चल जाए तो चलता रहेगा लेकिन कभी दो तीन बार चलकर भी बंद हो जाता है।’`
हम आश्चर्यचकित हैं। जीवन में यह पहली बार ऐसे दुकानदार को देखा जो अपने यहां की चीज़ोज की कमियां बारीकी से समझा रहा है। हो सकता है अपने प्रदेश का भाईचारा निबाह रहा हो।
इतनी नसीहतों के बावजूद एमके वॉकमैन खरीद कर सनी टॉर्च खरीद कर अपनी तरफ़ से भाईचारा निबाह देते हैं। सनी अपनी फ़ोन डायरी लेने होटल चला जाता है। हम बेवजह और सामान देखते रहते हैं।
वह लौटकर कहता है, `‘पापा। वही टैक्सी ड्राइवर वापस आ गया है। आप उससे घूमने की बात कर लीजिए। ’`
सड़क पर खड़ा ड्राइवर सफाई देता है, `‘हम उधर टैक्सी स्टैंड चला गया था। उधर से इधर का सवारी मिला तो वापिस आ गया। कल मैं कितने बजे आऊं सर?’`
`‘सात बजे।’`
`‘आप लोग सामान साथ में लेकर निकलिए। मैं आपको दोपहर में खाना खिलाकर एनजेपी (न्यू जलपाईगुड़ी) की तरफ़ जाने वाली टैक्सी में छोड़ दूंगा।’`
``‘ठीक है।’
उसके जाते ही मैं एलान कर देती हूं,‘`हम सामान साथ में लेकर नहीं जाएंगे।’`
`‘क्यों?’`
`‘हम टूरिस्ट प्वाइंट देख रहे होंगे तो ये सामान में से कुछ पार कर सकता है।’`
`‘टूरिस्ट प्लेस के ड्राइवर ऐसे नहीं होते।’`
`‘हां, वह दार्जिलिंग का ट्रेवल एजेंट बड़ा अच्छा था न। जो ज्यादा रुपए लेकर उसने इस बेकार होटल को बुक कर दिया है। उसने कुछ सामान निकाल लिया तो वापिस यहीं आने से रहे।’ `
इस तर्क से वे निरुत्तर हो जाते हैं।
खाना खाकर बिस्तर पर लेटते हुए जैसे ही मैं कंबल खोलकर उसे ओढ़कर तकिये पर सिर टिकाती हूँ, पास लेटा सनी कहता है, `‘ये टैक्सी ड्राइवर बता रहा था उसका बेटा, मेरे बराबर का है. वह कलकत्ते में पढ़ रहा है।’`
``‘क्या?’
`‘हां, वहां पर वह बीए कर रहा हौ व सिक्किम सिविल सर्विसेज की तैयारी कर रहा है।’`
``‘अच्छा? तुझे देखकर उसे अपने बेटे की याद आ गई होगी।’
वह ड्राइवर साढ़े सात बजे टैक्सी लेकर आ जाता है। टैक्सी गंगटोक की सड़कों पर दौड़ने लगती है। किसी भी पहाड़ी नगर के ऊंचे ऊँचे पेड़, कभी ऊंची जाती, कभी नीचे जाती, कभी पर्वत का चक्कर लगाती सड़क पर बादलों की इतनी धुंध है कि देखना मुश्किल है कि थोड़ी दूर पर क्या है। उधर हल्की हल्की बूंदाबांदी इधर ड्राइवर की बातें,`` ‘ये मनीपाल मेडिकल कालेज है। ये पब्लिक स्कूल है लेकिन इदर सब पैसे वालों के बच्चे पढ़ सकते हैं। फीस तो बाप रे बाप। आजू बाजू के शहरों के अमीर घर का बच्चा लोग इदर आता है। सिक्किम वालों के बच्चा को कुछ फायदा नहीं है। बड़ा लोग का बच्चा ही बड़ा बनता है- कोई डाक्टर...कोई इंजीनियर कोई सीधा कलेक्टर..।’ `
ये जानकारी है या हताशा...समझ पाना बहुत आसान है। मैं पूछ बैठती हूं,`` मेरा बेटा बता रहा था कि आपका बेटा कलकत्ते में पढ़ रहा है।`
`‘जी, इदर रहता तो क्या करता? हमारी तरह टूरिस्ट सीजन की तरफ़ देखकर जीता मरता रहता।’`
`‘उसके रहने का खर्च...?’`
`‘हमारा वाइफ अस्पताल में नौकरी करता है। एक बेटा है, इसलिये उदर को भेज दिया। सिक्किम सिविल सर्विस का कंप्टीशन में अभी ईमानदारी है। इसलिए इतना खर्च करता है।’`
मैदानों से इन पहाड़ों तक इनके उत्तुंग शिखरों सी ये महत्त्वाकांक्षाएं शिक्षा की उड़ानें...नौकरियों की महत्त्वाकांक्षा...मेरा दम जैसे बैठने लगता है । मेरी पूछने की हिम्मत नहीं, `‘यदि वह अफसर नहीं बन पाया तो?’`
दार्जिलिंग में हम जहां रुके थे वहां पास में ही टेक्सी स्टैंड था। जोशीले, फुर्तीले, दमकते चेहरों वाले टैक्सी ड्राइवर टैक्सी की स्टियरिंग व्हील को तेजी से कभी इधर घुमाते, कभी उधर घुमाते। ऊंची नौकरियों के ख़्वाबों से मुक्त। जिंदगी को भरपूर फुर्ती से जकड़े हुए या खूब सजी धजी दार्जिलिंग की ऊंची नीची सड़कों पर आत्मविश्वास भरे कदमों से नापती हुई शॉल बेचने वालियां । तब अपने शहर में देखे मुझे पिटे चेहरे याद आ रहे थे।
``‘आपका नाम क्या है?`’ सनी टैक्सी ड्राइवर से पूछता है।
`‘नीमा लिप्चा।’` कहते हुए उसने टैक्सी रोकी, `‘आप इस सीड़ी से ऊपर जाइए। ये मिलिट्री लोगों को बनाया हनुमान जी का मंदिर है।’`
मिलिट्री टैंपल की बनावट व आसपास के बाग की क्यारियाँ। मिलिट्री जैसी अनुशासित होती है, वैसी ही मुस्तैद इन में अनपहचाने फूल खिले हुए हैं। वहाँ के हनुमानजी तो और भी अजूबे हैं। भारत के हनुमानों से अलग, गोटे जड़े लाल कपड़े पहने हुए।
नीमा रास्ते में कहता है,` ‘अब हम यहां का सबसे पुराना, बहुत ओल्ड इंचे मोनेस्ट्री (बौद्ध मंदिर) जाएंगे जो पुराने राजा लोगों ने बनवाया था... ये दाईं तरफ़ का बिल्डिंग यहां का एसेंबली है।’`
विधान सभा की इमारत कुछ कुछ पैगोडा की आकृति में है। मोनेस्ट्री के गेट के पास वह टैक्सी खड़ी करके हिदायतें देता है।,`‘ये जो लंबा रास्ता जा रहा है इसके दाईं तरफ़ छोटी दीवार पर ऊपर से लटकते जो लंबे-लंबे आरेंज कलर के दिखाई दे रहे हैं उसको`` धर्मचक्र बोला जाता है। जब आप प्रार्थना करके वापिस लौटें तो इन्हें घुमाते आइए। ऐसा बोला जाता है कि जितनी तेजी से ये धर्मचक्र घूमता है उतनी ही देश में, जीवन में सुख शांति रहती है।’
भव्य मोनेस्ट्री के भव्य दरवाजे। अंदर जाते ही छत पर लटकती विंडचाईम्स - वे हवा में घूम-घूम कर टुनुक रही हैं हमारे मंदिरों की घंटियों की याद दिलाती। अंदर की पीतल की बौद्ध प्रतिमा के पास राज परिवार के व्यक्तियों की पीतल की मूर्तियां हैं। कौन से राजा? इसका उत्तर तो दाईं तरफ़ फर्श पर बैठे किशोर बौद्ध भिक्षु भी नहीं बता सके।
हम लोग हाथ जोड़े आँखें बंद किए दिमाग पर ज़ोर डालते हैं कौन सी प्रार्थना करे ? ‘बुद्धं शरणं गच्छामि’ के अलावा कोई पंक्ति याद नहीं आ रही थी।
इस मुख्य कक्ष से बाहर आते ही दाईं तरफ़ बने विशाल धर्मचक्र को हम उत्साह से घुमाते हैं।
बाहर निकलकर विशाल आँगन के उस पार बरामदे में चल रही बौद्ध कक्ष पर नज़र जाती है। एक-एक बौद्ध शिक्षक मेरून रंग का कपड़ा लपेटे बच्चों को कुछ पढ़ा रहा है। लेकिन सबकी तिरछी नजर जाते टूरिस्ट पर ही है। टैक्सी स्टार्ट करते ही नीमा कहता है, `‘आपने स्कूल के बच्चों को देखा होगा । वो शादी नहीं बना सकता। ऐसा धर्म का नियम है।’`
उनके भोले चेहरे व दुनिया को खोजती उनकी ललक भरी दृष्टि याद करके मन कसैला हो उठता है। ये गरीब घर के बच्चे होंगे या अनाथ। ऐसे ही बच्चों के कंधों की बैसाखी का सहारा लेकर हर धर्म का रथ आगे बढ़ता है।
नीमा जैसे अपना सारा ज्ञान हमें देने में लगा है, `‘अब हम दूसरी मोनेस्ट्री जाएंगे वहां नीचे ही रिसर्च इंस्टीट्यूट ऑफ तिब्बतोलॉजी है लेकिन वो लोग शादी बना सकता है...बाप रे वो लोग कितना पढ़ता है। गुफ़ा में बैठकर मेडीटेशन करता है।’`
‘यहां भाषा कौन-सी बोली जाती है?’
‘बोली जाती है नेपाली, सिक्किमी, लिप्चा, हिंदी, अंग्रेजी, भूटानी। इधर एक कड़क एसपी. आया है। उसको आईपीएस में सिलेक्ट होते ही सीधे इदर भेज दिया है। ये जो आप सिक्किम में सफ़ाई व ट्रेफिक डिसीप्लिन देख रहे हैं सब उसी ने करवाया है। बाप रे। क्या आदमी है इधर आकर नेपाली सीखा, सिक्किमी, भूटानी सीखा। नेपाली का फ़ेस्टीवल हो तो नेपाली ड्रेस पहनकर नेपाली गीत गाता है। सिक्किमी फ़ेस्टीवल हो तो सिक्किम लोगों का ड्रेस पहनकर उनका गीत गाकर डांस करता है। भूटिया(भूटानी) के बीच भी वइसा बन जाता है। दिल्ली से एक से एक कड़क ऑफ़िसर इदर भेजकर सिक्किम को ए-वन कर दिया है। हमारे राजा ने बोत अच्छा किया जो सिक्किम इंडिया को दे दिया।’
‘तभी बाकी सारे देश का हाल बेहाल है’, -मैं सोचती हूं। ऊपर से कहती हूं, `‘यहां के लोग तो बहुत खुश होंगे।’`
`‘बोत बोत खुश हैं कि लेकिन अब सरकार चीन से बिज़नेस करने की सोच रही है। अगर चीन से बिज़नेस शुरू हो गया तो कहीं ईस्ट इंडिया कंपनी जैसा न हो जाए...हा...हा...हो।`’ नीमा हंस रहा है लेकिन सामने के आई ग्लास में दिखाई देती सड़क पर जमी उसकी मिचमिची आंखें में अंदेशे के काले धुएं हैं।
`‘आजकल स्कूल-कॉलेजिस की क्या छुट्टियां हैं?’ `एम.के. वातावरण को हल्का बनाने के लिए पूछते हैं।
`‘सेशन स्टार्ट हो गया है। ये महिना लोगों का कैसा निकलता है...बोत सी स्कूल फीस...यूनीफार्म...किताबें...स्कूल बैग...पैरेंट्स का कितना खर्च होता है..इदर सिक्किम में छुट्टियां बोत हैं। नेपाली, भूटानी, तिब्बती, सिक्कम या हिंदू लोगों का फ़ेस्टीवल होगा तो छुट्टी। लेकिन हम टेक्सीवालों का छुट्टी कबी नहीं होता...हा...हा...हा।’`
वह सड़क पर से बाईं तरफ़ गीली मिट्टी में ले जाकर टैक्सी रोक देता है। हरी भरी पहाड़ी के बीच में बने कांच के एक कक्ष में पानी के थपेड़ों से तेजी से घूमते एक बड़े धर्मचक्र को दिखाता है जो छोटे झरने के पानी के थपेड़ों से तेजी से घूम रहा है। हर प्राकृतिक चमत्कार पर किसी भी धर्म की मूर्ति या चिह्न रखकर उसे धर्म से जोड़ दिया जाता है। बहते हुए झरने के आगोश में चाहे वैष्णो देवी हो या बौद्ध धर्मचक्र, इन चमत्कारों को रचित करने वाली शक्ति को नमन है ये।
नीमा जब टैक्सी रोकता है को ताशी व्यू पॉइंट आ चुका है। सनी पूछता है, `‘ताशी का क्या मतलब होता है?’`
`‘ताशी इदर का राजा था। तो कुछ तो उसका नाम होना चाहिए। ऊपर जाकर सारा गंगटोक दिखाई देता है। बाईं तरफ़ कंचनजंघा दिखाई देता है लेकिन बादल के कारण आपको कुछ नहीं दिखाई देता।’`
सीढ़ियां चढ़कर, फिर यहां बनी सबसे ऊपर की छतरी पर चढ़कर हम कल्पना करते हैं- कैसा लगता होगा गंगटोक, कैसी लगती होगी कंचनजंघा?
थोड़ी देर बाद हरीतिमा की चादर में सुरमई-धुंध में सड़क को खोजती नीमा की टैक्सी व उसकी बातें उड़ी चली जा रही हैं,` ‘साब जी। दो लोगों ने सिक्किम का नाम बहुत ऊंचा किया है । इंडिया को बताया है कि हम सिक्कमी लोग भी कुछ हैं- एक डैनी डेंग्जोवा...वो एक्टर वेस्ट सिक्किम का है। दूसरा ‘क्रिकेटर’ वान चुंग भूटिया...भूटिया को तो हर वर्ष इदर बुलाकर सरकार उसका ऑनर करता है।’
नीमा मेरी कही बात नहीं भूलता, `‘आपको भूटानी ड्रेस बक्कू देखना है। ये आ गया ‘तिब्बती हैंडीक्रॉफ्ट सेंटर’।’` मैं अपने परिवार की अपनी तीन प्रिय ‘ऑल्डीज’ के लिये बक्कू लेना चाहती हूँ, जिससे उनके बूढ़े शरीर को ठंडी के मौसम में आराम मिल सके। लेकिन टेरिकॉट के बने बक्कू देखकर निराश हो जाती हूं। कड़क ठंड को ये कैसे रोक पाएंगे ? सिक्किम में बनी कुछ छोटी-छोटी चीजें लेकर हम बाहर आ जाते हैं।
`‘यहां सिक्किम में टेस्टी खाने को क्या मिलता है?’ `
`‘वह भी वेजेटेरियन।’ `मैं जोड़ती हूं।
`‘पास्ता एवं मोमोज।’`
नाम कुछ बेतुके से लगते हैं [ क्योंकि सुने भी तो बीस वर्ष पहले थे ] मतलब हमारे सुने नामों के हिसाब से।
‘आपको छितन स्तूप व फ्लॉवर शो प्वाइंट दिखाकर वेजीटेरियन रेस्तरां में छोड़ देगा। खाना खाकर आप टेक्सी स्टेन्ड से एन.जे.पी. (न्यू जलपाईगुड़ी) के लिए टैक्सी ले लिजिए।’
छितन स्तूप एक आम प्राचीन स्तूप जैसा है। हम फ्लॉवर शो प्वाइंट अहाते को पार करके मुख्य इमारत में पहुंचकर दीवार पर लगी रंगीन तस्वीरों को देखकर ग्लास हाउस में प्रवेश करते हैं। सिक्किम में खिलने वाले हर फूल की नस्ल में, जमीन की सौंधी मिट्टी में, दीवार पर लटकते पौधों में मौजूद है विलक्षणता, बीच बीच में अजीबो गरीब कैक्टस की आकृतियां फूलों के बीच जीवन की विद्रूपताएं याद दिलाती हुई एक फूल के केंद्र से निकलता दूसरा फूल, फिर दूसरे से तीसरा फूल, दोनों हथेलियों के बराबर फैले लाल केंद्र वाले सफ़ेद फूल, लंबे, चौड़े, छितरे हरे पत्तों के बीच झूमते फूल ही फूल, कैसा अद्भुत होता है अपना घर जिसके हम कुएं के मेढकनुमा राजा होते हैं। उस घर से सिर निकाल इस ग्लासहाउस में खड़े हम बेबस सोच रहे हैं। काश! हम वनस्पतिशास्त्री होते या विदेशी पर्यटक होते जो गंगटोक के विषय में किताबें रटकर ही यहाँ आते।
इन फूलों को कैमरे की आंख में कैद कर हम चल देते हैं।
नीचे ढलान पर से टैक्सी ले जाकर नीमा टैक्सी स्टैंड पर उसे रोकता है। ऊंची सड़क के पार वह वेजीटेरियन रेस्तरां का बोर्ड दिखाता है। इस छोटे मोटे चलते फिरते सिक्किमी ज्ञानकोष को हम दिल से धन्यवाद देते हैं।
वह भी तरल है, ”साबजी। दोबारा गंगटोक जुरूर आइए, इसी नीमा लिप्चा को याद कीजिए। सिक्किम का उत्तरी भाग बहुत सुंदर है यूमथांग घाट, युमसडांग लाचूंग लाचेन, चोपटा घाटी, गुरूडोंगमार झील।``
हर पर्यटन स्थल एक अलग दुनिया जैसा होता है। कितना भी देख लो यही लगता है अभी देखा ही क्या है, अभी तो बहुत कुछ देखना बाकी है।
उस सेल्फ सर्विस वाले रेस्तरां में सामने की ऊंची लंबी मेज के पास स्कूल बैग कंधे पर लगाए एक सिक्किमी लड़का खड़ा है, मेज पर रखी प्लेट में रखी हरी चटनी में समोसा डुबो डुबोकर आत्मलीन होकर खा रहा है। सामने की ऊंची मेज पर हम गर्म गर्म चिली मोमोज़ के प्लेट मे रखी टमाटर लहसुन की लाल चटनी का स्वाद ले रहे हैं। किसी हद दर्जे तक उत्तेजित। पता नहीं था चिली मोमोज़ इतने स्वादिष्ट होते हैं, पास्ता इतना ‘टैस्टी’ होता है। मेरी नजर सामने की सड़क के ढलान पर जींस या स्कर्ट पहने ऊंची हील की चप्पलें पहने बेफिक्री से उतरती चढ़ती लड़कियों पर लगी हुई है। उत्तर पूर्वी भारत के इन पहाड़ों पर ब्राह्मणवाद और स्त्री के लिए कड़क नियम पनप नहीं पाए हैं इसीलिए इन पहाड़ों की खुली फिजाओं में स्त्रियां पूरे श्रृंगार में विचरती रहती हैं, पूरे विश्वास के साथ पहाड़ों की ऊंचाइयों, गहराइयों को नापती रहती हैं।
होटल से टैक्सी में एन.जे.पी. के लिए सामान रखवा कर हम इस गंगटोक से लौट चले हैं। तिस्ता नदी के साथ-साथ चलते उसी पहाड़ी रास्ते से। मन कुछ कसक सा रहा है। हरे-भरे, बारिश में भीगे गंगटोक का ये दिन जीवन के इतिहास का पृष्ठ भर बन जाएगा। पीछे छूटे पहाड़ की ऊंची चोटी जैसे नीमा, उसकी पत्नी, उसके बेटे की महत्त्वाकांक्षाओं का क्या होगा? क्या होगा बेटे को एक अधिकारी बनाने के उनके सपने का ?
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श्रीमती नीलम कुलश्रेष्ठ
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एपलवुड्स टाउनशिप
एस.पी . रिंग रोड , शैला
अहमदाबाद ---380058 [ गुजरात ]
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