Spandan - 6 in Hindi Spiritual Stories by Madhavi Marathe books and stories PDF | स्पंदन - 6

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स्पंदन - 6

                                                                                 १७: मौन का मंदिर

           साक्षात्कार प्राप्त हुए चुका शोईची, अपने शिष्यों को, तोफुकू मंदिर में सिखाते थे। दिन-रात मंदिर ओैर पुरे परिसर में मौनपुर्ण शांती फैली हुई थी। किसी भी तरह का आवाज, कलकलाहट वहाँ सुनाई नही देता, एक अबुज शांती पुरे वातावरण से भरी हुई थी। शोईची गुरु अब मंत्रपाठ, ग्रंथों का अध्ययन भी नही करते, अपने शिष्यों के साथ ध्यानमग्न अवस्था में रहते हुए साधना करते थे।

           एक दिन पडोस में रहनेवाली महिला ने मंदिर में मंत्रपठण ओैर घंटानाद का आवाज सुना, ओैर वह समझ गई की शिष्यों के गुरु चुका शोईची का देहांत हो गया है।

            मतितार्थ, कितनी सुंदर कहानी है। गहनपूर्ण। मौन की शांती किसी के बताने पर समझ नही आती, उसका खुद मौन में रहकर ही अनुभव कर सकते है। गुरु ने वह शांती अपने मन के अंदर से महसुस की थी ओैर उसका अनुभव कैसे करना है वही बात अपने शिष्यों को समझाते थे। मौन में अचानक नही जा सकते उस प्रक्रिया में रहते शांती को अनुभव करने का अभ्यास निरंतर जारी रखना पडता है। सातत्यता से वह अनुभव करते रहना आना चाहिये। निसर्ग में सुनाई देनेवाले आवाज भी जब स्तब्धता लाते है तभी मौन की उपलब्धी होने की शुरुवात हो जाती है। मौन ही आत्मा की आवाज है। ब्रम्हाण्ड की झलक मौन की के एक क्षण में ही मिल जाती है। ज्ञान के विशिष्ट स्तर पर केवल मौन ही बचता है। वहाँ एक शब्द भी कलह जैसा महसुस होता है। मौन यह केवल बाह्य रुप नही है तो मन में बार-बार विचारों, कल्पनाओं का आदान-प्रदान शुरू रहता है। तथा भूतकाल, भविष्यकाल में मन जो उलझा रहता है, यादों की शृंखला चलती रहती है, क्षण में सुख, क्षण में दुःख मन अनुभव करता रहता है इससे मन की शक्ती क्षीण होने लगती है। ऐसी अवस्था में शांती प्राप्त होना मुश्किल हो जाता है। अंदर से इंद्रियों का संयमन होना चाहिए। मन के विचार तरंग रुकने के बाद ही मन शांती का आनंद ले सकता है। तभी मौन का मार्ग खुला हो जाता है, लेकिन यह मौन का रास्ता प्राप्त होने के लिए गुरु की आवश्यकता होती है। वही मार्ग दिखाते है। लेकिन गुरु के पश्चात अभ्यास में सातत्यता रखना यह शिष्यों का खुद का काम है। अगर वह मौन में नही जा पाते या वहाँ की शांती से डर जाते है तो शिष्य फिर से ग्रंथ, मंत्रपठण का सहारा लेने लगते है।

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                                                                                          १८: स्वर्ग

 

        एक बार दो यात्री रेगिस्तान में भटक गए। कही से भी उन्हे मार्ग समझ नही आ रहा था। भुख-प्यास से तडपते वह बेहाल हो गए थे। दुर-दूर तक ढुंढने पर एक जगह ऊँची दिवार उनके सामने आ गई। उस दिवार के पिछे से कलकल बहते हुए पानी की आवाज,  पँछियों की चहचहाहट सुनाई दे रही थी। ऊँची दिवार के उपर तक पेडों की डालियाँ झुमती हुई नजर आ रही थी। उन डाँलियों में लदे हुए रसीले फलों के दर्शन, उन भुखे-प्यासे यात्रियों को अमृतसमान लगे।

         दो यात्रियों में से एक यात्री किसी भी तरीके प्रयत्नपुर्वक वह दिवार लाँघ गया ओैर दुसरी ओर चला गया। दुसरे यात्री ने वह दिवार लाँघने का प्रयास नही किया, रेगिस्तान की ओर अपने कदम बढाए। उसका उद्देश था की रेगिस्तान में जो भी भटके हुए यात्री है उन्हे इस उद्यान का मार्ग दिखाने का काम वह करेगा।

         मतितार्थ, जीवन की रुक्षता में अनेक यात्री अपना मार्ग खो देते है। सब तरह की आधि-व्याधी, भौतिक जगत से परेशान लोगों को फिर से जीवनउद्देश की ओर लाने का काम किसी को तो करना पडता है। कोई तो मार्गदर्शक हो यह लगभग हर व्यक्ती की मनोकामना होती है। मानसिक आधार, बल देनेवाले की हमेशा जरुरत रहती है। ऐसी अवस्था में जिसे जीवन हेतु समझ आ गया है वही लोगों को मार्ग दिखा सकता है। खुद को मुक्ती प्राप्ती तक पहुँचाना यह तो जरूरी है लेकिन जब मुक्ती का रास्ता दिख जाए तो अपने मुक्ती के प्रयास के बजाय दुसरों की मुक्ती के लिए सहायता करना यह तो बहुत बडी बात है। ऐसे लोग अपने उन्नती की ओर अग्रेसर होने के बजाय लोगों को भी यह मार्ग मिल जाए यही चाह रखते है। एक बार उन्होने अपने चेले को दुसरों को राह दिखाने के काबिल बना दिया, तब मुक्ती की वह ऊँची दिवार फाँदकर गुरु मुक्ती की ओर बढ जाते है।

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                                                                                   १९:  सच्चा चमत्कार

 

           बेनकेई नामक एक प्रसिद्ध झेनगुरू रयूमों के मंदिर में झेनयोगा की शिक्षा विद्यार्थीयों को देते थे। उनके बहुत सारे अनुयायी थे। शिन्शू नामक झेन मास्टर एक अलग विचारधारा की शिक्षा अपने शिष्यों को देते, उस धर्म के लोग बौद्धमंत्र का जोर से उच्चारण करते थे। वहाँ सिखनेवाला एक पंडित अनुयायी बेनकेई गुरु का बहुत द्वेष करता था। उनकी प्रसिद्धी वह देख नही पाता। अपने गुरु का अभिमान उसे जादा महत्वपूर्ण लगता था। इसीलिए वह बाकी गुरुओं का वह द्वेष करता, ओैर कम से कम एक बार वह बेनकेई गुरु के साथ शास्त्रार्थ करने की इच्छा मन में लिए बैठा था। शास्त्रार्थ करते समय उनका अपमान करने का संकल्प लिया था।

         एक दिन बेनकेई अपने शिष्यों को पढा रहे थे, तभी अचानक शिन्शू शिष्य वहाँ आया ओैर तार स्वर में मंत्र पठण करने लगा। वह आवाज सुनकर बेनकेई मास्टरजी को अपना पढाना रोकना पडा। उस के पास जाकर उन्होने पुछा” तुम्हे क्या चाहिये? क्युँ इतने जोर से मंत्र पठण कर रहे हो ?”

         शिन्शू शिष्य ने कहा “ मेरे गुरु इतने प्रतिभाशाली, दिव्यगुण संपन्न है की नदी के एक छोर पे अपने हाथ में रंगों का ब्रश लेकर खडे रहते ओैर दुसरे तट पर एक शिष्य हाथ में कागज लेकर खडा रहता है, तो मास्टरजी जब ब्रश से हवा में चित्र निकालते थे तब दुसरे किनारे के कागज पर अपने आप पेंटिंग बन जाता था। ऐसे आप कर सकते हो?”

       बेनकेईं ने उसे बडी मृदुतापुर्वक कहा “ तुम्हारे आश्रम की बिल्लिया भी यह चमत्कार करती होगी, लेकिन यह शुद्ध झेन आचरण नही है। मेरा चमत्कार तो यह है की जब भुख लगती है तब खाना खाता हूँ, प्यास लगती है तब पानी पिता हूँ।”

       शिन्शू पंडित को कुछ बात समझ ही नही आ रही थी की इस में क्या चमत्कार है? यह तो सभी लोग करते है। उसकी चर्या देखकर बेनकेई ने कहा “ झेनयोग सजगता सिखाता है। आपने कितना ज्ञान अर्जित किया इसका प्रदर्शन करना यह तो सच्चा धर्म है ही नही। व्यक्ती जो साधना करती है, वह खुद के लिए करती है। खुद के मुक्ती के लिए करती है। इस में प्रदर्शन किस बात का? स्पर्धा कैसी? व्यक्ती को सिर्फ सजगता से अपना मार्ग चलते रहना है। अचूकता से पहचानना है की हमे क्या चाहिये? वही अपना मन केंद्रित करना है। खाते, पिते, नहाते वक्त अनेक तरह के विचार अपने मन में चलते रहते है। उन्ही विचारों को देखकर उन्हे वही खत्म कर सकते है ओैर सजगता से पानी का ठंडा, गरम, आल्हाददायक स्पर्श, भोजन स्वाद, नैसर्गिकता का अनुभव करने से ही तुम साधना में आगे बढ सकते हो। वही से तुम्हारा सफर सुक्ष्मता की ओर शुरू हो जाता है। मंत्रपठण के फायदे तो जरूर है। कर्म करना तथा व्यवहारिक दिनक्रम का आचरण करना यह तो करना ही पडता है, लेकिन जो भी कर्म हम कर रहे है वहाँ पुरे मन से उपस्थित रहना ओैर जरूरी है। इसे ही सजगता कहते है। अगर साँस पर तुम ध्यान रख पाए, वहाँ मन केंद्रित कर पाए तो भूत-भविष्यकाल का रंजन कम होने लगता है। अपने भेजे में जो प्रिफ्रन्टल कोरटेक्स है वह दिशा देने का काम करता है लेकिन सिर्फ विचारों में ही व्यक्ती व्यग्र रहा तो कृती भी यांत्रिक बन जाती है। धीरे-धीरे केवल सराव के कारण काम करने लगते है। खयालों में मन उलझा रहता है तो भुख लगी, प्यास लगी यह भी ठीक तरह से समझ नही पाता। खाने का वक्त हो गया तो खाना खाओ, पानी पीओ, ऐसे वक्त के दायरे में वह फँस जाता है। वही बात है साँस लेने की, जो अविरत चलती रहती है लेकिन हम महसुस नही कर पाते। अगर साँस का छुना, उसकी गरमाहट, ठंडापन, मंदगती, मध्यम, तीव्रगती का अनुभव होने लगा तो हम वर्तमान में मतलब सजगता में रहने लगते है। वर्तमान में ना दुःख होता है ना सुख, उस क्षण में एक अभुतपूर्व शांती मिलती है। बिना सजगता के क्षण मेंदु के द्वारा, क्रिया-प्रतिक्रिया की ओर बढता है ओैर विचारचक्र शुरू हो जाता है। भूत-भविष्य अनुमान लगाकर निर्णय प्रक्रिया शुरू हो जाती है ओैर उसी समय शांती भंग हो जाती है। अगर हमने वह क्षण केवल जाना ओैर वही पर छोड दिया तो आगे की विचारधारा प्रगट ही नही होगी ओैर व्यक्ती के विचारहीन क्षण की शांती बढती जाने लगेगी। इसी तरह कर्म बनना कम होने लगेगा ओैर संचित कर्म का भी र्हास होने लगेगा। यही से शुरू होता है मुक्ती का मार्ग।   

      सहज ज्ञान की अनोखी विचारधारा से परिचित होने से शिन्शू पंडित स्तंभित हो गया ओैर बेनकई गुरू के सामने नतमस्तक होते हुए उनसे शिष्यत्व प्राप्त किया।

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                                                                                      २०: पिता-पुत्र

 

       एक पिता अपने पच्चीस वर्षीय पुत्र के साथ  रेल्वे से सफर कर रहे थे। उनका लडका खिडकी की सीट पर बैठकर बडी कुतुहलता भरी नजरों से बाहर का नजारा देख रहा था। दौडते हुए पिछे की ओर जानेवाले पेड, परबत, जंगल देखकर वह खुशी से झुमता ओैर अपने पिताजी को बडे आनंद से उनका वर्णन सुनाता। पिताजी भी उसके आनंद में बडे प्यार से शामिल हो रहे थे। फिर से अत्यानंद से पुत्र ने पिताजी को कहा “ पिताजी, देखो वह सुरज ओैर बादल भी अपने साथ चल रहे है।”

       सामनेवाले सीट पर बैठे मुसाफिर बडी देर तक पिता-पुत्र का वह वार्तालाप सुन रहे  थे, देख रहे थे। उनमें से एक को रहा न गया ओैर उसने पुछा “ आपका लडका इतना बडा है, फिर भी इस तरह की बाते कर रहा है, उसमें कोई दोष है क्या? आपने इसे किसी डॉक्टर को दिखाया है?”

        पिताजी ने कहा “ हम दोनो अभी हॉस्पिटल से आ रहे है। यह लडका दो साल का था तब अपनी आँखे गवाँ बैठा था। ऑपरेशन हुआ ओैर कल ही वह दुनिया देखने लगा।”

       मतितार्थ, समाज हमेशा सद्यस्थिती देखता है। गतकालिन परिस्थिती, वेदना, देखने से पहले ही कोई लोग टीका-टिप्पणी, बेमतलब का मश्वरा देते रहते है। जो बात कर रहे है, उससे किसी के दिल को चोट तो नही पहुँच रही है? इसका खयाल भी उनके मन में नही आता। जिन लोगों ने विपरीत परिस्थिती से गुजरते हुए जीत हासिल की है उनका आनंद इतना बडा होता है की सामनेवाला कोई ताना दे रहा है इस बात की भी उनको फिक्र नही रहती। अब जीवन का मतलब उनके समझ में आ चुका है, इस वजह से ऐसे लोगों के प्रति उनके मन में दयाभाव ही जागृत होता है। पता नही कब कौनसे घडी में इस बिचारे पर मुसिबतों का पहाड टुट पडेगा? कैसे जीवन का सामना उसे करना पडेगा? क्षमाभाव रखते हुए उन लोगों से ऐसे इन्सान दूर ही रहते है।

          पुत्र को प्राप्त हुई दृष्टी से पिता का दिल, इतने आनंद से भर गया है की समाज उन दोनों के बारे में क्या कहता है इसकी उन्हे जरा भी फिक्र नही। अपना पुत्र जीवन के नये रंग, सृष्टी देख रहा है इससे ओैर कोई खुशी दुनिया में उनके लिए थी ही नही।

          इस कहानी का दुसरा नजरिया यह भी हो सकता है की, व्यक्ती साधना पदपथ पर या अध्यात्म मार्ग पर चलना शुरू कर देती है तब अंतर्मन की दृष्टी प्राप्त होकर एक अलग नजरिये से जीवन के पैलू सामने आने लगते है। समाज के कोई भी रिती-रिवाज, तथा बाहयज्ञान के परे वह व्यक्ती निकल जाता है। अंतर्ज्ञान की गहराई ओैर विशालता एक बार व्यक्ती के समझ में आ गई तो आनंद यह शब्द भी शून्य हो जाता है।

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                                                                                      २१: भोजन का नेवता

        

           एक धनवान आदमी ने झेनगुरू इक्क्यू को अपने घर भोजन के लिए आमंत्रित किया। इक्क्यू अपने भिक्षु वस्त्र में ही उनके घर भोजन के लिए के लिए चले गए। धनवान आदमी ने भिक्षु वस्त्र में उन्हे पहचानने से इन्कार किया ओैर वहाँ से भगा दिया।

            इक्क्यू वापिस अपने निवासस्थान आ गए ओैर अत्यंत सुंदर, महेंगे, अलंकृत कपडे परिधान किए। महँगे वस्त्र पहनकर फिर से उस धनवान के घर चले गए। अब तो इक्क्यू को देखते ही धनिक, बडे आदर-सम्मान के साथ घर के अंदर ले गया। उनका आदरातिथ्य किया ओैर भोजन करने की बिनती की।

            इक्क्यू महाशय ने भोजन के लिए बैठने के आसन पर अपने मेहेंगे अलंकृत कपडे उतारकर रख दिए ओैर उस धनिक से कहा “ मैं जब साधे कपडे परिधान करते हुए यहाँ आया तब तो तुमने मुझे पहचनने से भी इन्कार किया, ओैर महँगे, अलंकृत वस्त्रो में जब तुम्हारे घर आया तो तुमने बडे प्यार से मेरा आदरातिथ्य किया। इसका मतलब है तुमने मेरे वस्त्रों को खाने के लिए बुलाया था। तो पहले इन वस्त्रों को भोजन खिला देना।

             ऐसी ही कहानी अपने व्रत-वैकल्य के कहानियों में भी है। मनुष्य हमेशा दिखावे के बाह्यरुप से मोहित हो जाता है। व्यक्ती की परख बहुत कम लोगों में दिखायी देती है। बाह्यरुप को प्रसिद्धी मिल जाती है। इतने लोगों को दान दिया, मदत की इस बात का बढा-चढकर वर्णन किया जाता है। बडे-बडे मंदिरों में दान देने वाले लोगों के नाम लिखे जाते है। पायदानों पर नाम खुदवाए जाते है। यह तो सब अहंकार की बाते है। आपको अगर सच में किसी को दान देना है या परोपकार करना है तो करो ओैर भुल भी जाओ। परोपकार करने से व्यक्ती को जो आनंद मिलता है वह उसी का हकदार होता है। उसका डिंडोरा पिटने से तो पुण्य वही पर खत्म हो जाता है। इसीलिए संत कहते है पुण्य करो तो इस हाथ का उस हाथ को भी मालूम ना हो ऐसे करो। जिन लोगों को सच में जरूरत है वही लोगों तक मदत पहुँचाओ फिर इसका लाभ सबको मिलेगा। धनवान आदमी ने, गुरु को खाने के लिए बुलाया यही दिखाना चाहता था। अगर वह सच्चा भक्त होता तो यह नही देखता की गुरु कौनस भेष धारण करते हुए आये है। पहचान नही पाया तो भी भुकेले आदमी को खाना तो खिला ही सकता था, लेकिन उसे समाज में दिखावा करना था। गरीब व्यक्ती को इतने नम्रता से बात कर ही नही सकता था। जब गुरु अच्छे वस्त्र पहनकर आए तब बडी नम्रता दिखाकर आदरभाव से उन्हे खाना खिलाना चाहा, लेकिन ज्ञानी व्यक्ती मनुष्य के सच्चे-झुठे भाव को झटसे पहचान जाते है। उनसे कोई भी भावना अपरिचित नही रहती। साधना मार्ग पर चलना है तो एक सच्चे इन्सान बनो, ओैर अपरिमित आनंद के हकदार बन जाओ।

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           एक दिन एक युवा बौद्ध सन्यासी भ्रमणयात्रा समाप्त करते हुए अपने घर वापिस जा रहा था। उसके मार्ग में बहुत बडे नदी का पात्र सामने आया तो  बहुत देर तक वह सोचता रहा की इतनी बडी नदी अब पार कैसे किया जाय? विचारों से थककर, निराश होते हुए वह निकलने ही वाला था की सामने के किनारे एक सन्यासी खडा हुआ उसे दिखाई दिया। जोर से आवाज देते हुए उस सन्यासी को कहा “ महात्मन, क्या आप बता सकते है, यह नदी पार करते हुए उस किनारे, मैं कैसे पहुँच जाऊँ?”

            यह सुनकर सामनेवाले सन्यासी ने कुछ क्षण नदी की ओर देखा ओैर जोर से आवाज देते हुए बोला “ बच्चे, तुम नदी के दुसरे किनारे ही खडे हो।”

            मतितार्थ, हर कोई विचार की सिर्फ एक बाजू ही देखता है, जहाँ विचार का अंत हो जाता है। विचार की दुसरी बाजू भी हो सकती है यह बहुत कम व्यक्ती देख पाते है। इसका मतलब विश्व में हर एक व्यक्ती की परिस्थिती, आकलन शक्ती के नुसार अपनी-अपनी विचारों की सृष्टी निर्माण हो जाती है। एक-दुसरे के विचारों में तफावत आने से या विचारों का आपस में ना मिलने से दुनिया में जो कलह उत्पन्न हो जाते है वह केवल स्वनिर्मित होते है। सृष्टी की लय तो चलती ही रहती है अनादी कल से अंत तक। मनुष्यप्राणी उस लय में सिर्फ आता-जाता रहता है। अपने कर्म के नुसार जन्म लेता है, दायरे में सीमित जिंदगी जी कर मृत्यु के अँधेरे में कही खो जाता है।

          व्यक्ती को लगता है सामनेवाला मनुष्य कितना सुखी है, वही विचार सामनेवाला व्यक्ती भी करता रहता है। इसका मतलब हर कोई दुसरा किनारा, सामने का किनारा साध्य करने की कोशिश में लगा रहता है। इसके लिए अपने अंदर की कमी को पहचानकर, उस कमी को दूर करते हुए प्रगती का मार्ग खुद प्रशस्त करना चाहिए। तभी दुसरे किनारे को हम पा सकते है। लेकिन कहानी यही पर नही खत्म हो सकती, अगर हम मेहनत से नदी किनारा लाँघ भी गए तो भी किनारे के आगे पहाड, जंगल ऐसे अलग-अलग मुसिबतों का भी सामना करना पड सकता है। मोह-माया के जंगल, मुसीबतों के पहाड, नदी के पानी की किलकीलाहट, मतलब जीवनानंद ऐसे उतार-चढाव भरी जिंदगी चलती रहती है। फिर भी जीवन की डोर  हाथ नही आती, हमेशा दुसरा किनारा ही दिखायी देता है।

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