Tuti Futi Kahaniyon Ka Sangrah - 6 in Hindi Anything by Sonu Kasana books and stories PDF | टूटी फूटी कहानियों का संग्रह - भाग 6

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टूटी फूटी कहानियों का संग्रह - भाग 6

तीन भाइयों का जीवन का ज्ञान

प्राचीन समय की बात है। एक गाँव में तीन भाई—विजय, विक्रम और वासुदेव—अपने माता-पिता के साथ रहते थे। तीनों भाई अपने पिता से विद्या प्राप्त करना चाहते थे और जीवन का गूढ़ अर्थ समझने के लिए काशी जाकर शास्त्रों का अध्ययन करना चाहते थे। पिता ने उन्हें आशीर्वाद दिया और वे सभी काशी पहुँच गए, जहाँ उन्होंने वर्षों तक वेद, पुराण और शास्त्रों का अध्ययन किया। ज्ञान अर्जन करने के बाद तीनों भाई अपने गाँव लौटने के लिए निकल पड़े।

रास्ते में, वे एक घने वन से होकर गुजरे, जहाँ एक शांत और दिव्य आश्रम दिखाई दिया। आश्रम में एक संत महात्मा ध्यान मग्न बैठे थे, जिनके मुख पर गहरा तेज और एक अद्भुत शांति थी। तीनों भाइयों ने उन्हें प्रणाम किया। संत ने उनसे पूछा, “वत्स, इतनी विद्या पढ़कर क्या तुमने जीवन का वास्तविक अर्थ समझा?”

तीनों भाइयों ने एक स्वर में कहा, “भगवन्, हमने शास्त्रों का अध्ययन तो कर लिया है, लेकिन अब भी हम जीवन की असल सच्चाई को पूरी तरह से नहीं समझ सके हैं। कृपया हमें वास्तविक ज्ञान प्रदान करें।”

संत ने मुस्कुराते हुए कहा, “तुम्हें इस संसार का सत्य बताऊँगा। आज रात मेरे आश्रम में विश्राम करो।” संत ने प्रत्येक भाई को 5000 मोहरें दीं और कहा, “ये मोहरें तुम्हारे पास सुरक्षित रखो और कल सुबह मिलो।”

रात्रि में सोते समय संत की माया के प्रभाव से तीनों भाई स्वप्न देखने लगे:

पहला स्वप्न: विजय ने देखा कि उसकी 5000 मोहरें खो गई हैं। वह अत्यंत दुखी हुआ, लेकिन जल्द ही उसकी नींद खुल गई। जागने पर उसने देखा कि मोहरें उसके पास सुरक्षित थीं। यह देख वह अत्यंत प्रसन्न हुआ।

दूसरा स्वप्न: विक्रम ने देखा कि उसे 5000 मोहरों के अतिरिक्त 5000 और मिल गई हैं। वह स्वप्न में खुश हुआ, लेकिन जागने पर उसे सिर्फ 5000 मोहरें ही मिलीं, जिससे वह निराश और दुखी हो गया।

तीसरा स्वप्न: वासुदेव ने देखा कि उसे अतिरिक्त 5000 मोहरें तो मिल गई थीं, लेकिन स्वप्न में ही वे खो भी गईं। जागने पर उसे वैसा ही दुख अनुभव हुआ, जैसा स्वप्न में हुआ था।

प्रातः तीनों भाई संत के पास पहुँचे। संत ने तीनों के चेहरे पर अलग-अलग भाव देखे और पूछा, “विजय, तुम प्रसन्न क्यों हो?”

विजय ने उत्तर दिया, “भगवन्, मैंने स्वप्न में देखा कि मेरी सभी मोहरें खो गईं। मुझे अत्यंत दुख हुआ, लेकिन जैसे ही मैं जागा, मैंने देखा कि आपकी दी हुई मोहरें मेरे पास थीं। इसीलिए मैं बहुत प्रसन्न हूँ।”

संत ने विक्रम की ओर देखा और पूछा, “विक्रम, तुम दुखी क्यों हो?”

विक्रम ने कहा, “भगवन्, मैंने स्वप्न में देखा कि मुझे 5000 अतिरिक्त मोहरें मिल गई हैं, जिससे मैं अत्यंत प्रसन्न हुआ। परंतु जब मैं जागा, तो मुझे सिर्फ वही 5000 मोहरें मिलीं जो आपने दी थीं। इसीलिए मुझे निराशा हुई।”

फिर संत ने वासुदेव से पूछा, “और तुम क्यों दुखी हो, वासुदेव?”

वासुदेव ने कहा, “भगवन्, मैंने स्वप्न में देखा कि मुझे अतिरिक्त मोहरें मिलीं, लेकिन वे फिर खो भी गईं। स्वप्न में ही मुझे दुख हुआ और जागने पर भी वही दुख बना रहा। मुझे ऐसा लगा कि जीवन में भी यही होता है—जो चीजें हमें मिलती हैं, वे स्थायी नहीं रहतीं।”

संत ने मुस्कुराते हुए तीनों को समझाना शुरू किया, “वत्स, यह संसार भी एक स्वप्न की भांति ही है। जिस प्रकार तुमने रात में अपनी-अपनी मोहरों के बारे में स्वप्न देखा और जागने पर अलग-अलग भावनाएँ महसूस कीं, ठीक उसी प्रकार संसार की सारी इच्छाएँ और भौतिक वस्तुएँ माया का ही एक खेल हैं। जैसे स्वप्न में चीजें तुम्हें मिलीं और खो गईं, वैसे ही इस जीवन में भी सब अस्थायी है।"

संत ने आगे कहा, “इस संसार में जो भी भौतिक वस्तुएँ, धन, पद और प्रतिष्ठा हमें मिलते हैं, वे केवल हमारे कर्मों का प्रतिफल हैं और क्षणिक हैं। माया का जाल बहुत गहरा है, जो मनुष्य को बार-बार फँसाता है। जो वस्तुएँ हमारे पास हैं, वे वास्तव में हमारी नहीं हैं। यह तो केवल प्रभु की कृपा है, जो हमें संसार में साधन के रूप में मिलती हैं।”

संत ने तीनों को शास्त्रों का संदर्भ देते हुए बताया, “वास्तविक सुख और संतोष वह है, जो आत्मा के अंदर छिपा हुआ है। जब तुम इस संसार के मोह-माया से मुक्त हो जाओगे और यह समझ जाओगे कि कोई भी वस्तु सदा तुम्हारे पास नहीं रहेगी, तब तुम सच्चे अर्थ में प्रसन्नता का अनुभव करोगे। जो विजय की खुशी है, वह इसलिए है कि उसने जागने पर पाया कि जो खो गया था, वह उसे वापस मिल गया। परंतु समझो, असली संतोष वह है जो वस्तुओं पर आधारित नहीं होता। स्वयं में संतुष्ट रहना ही वास्तविक सुख है।”

तीनों भाइयों ने संत के प्रवचनों को ध्यानपूर्वक सुना और उनके ज्ञान का मर्म समझा। उन्होंने प्रण लिया कि वे अपने जीवन में सत्य और संतोष को ही सर्वोच्च रखेंगे, और संसार के मोह-माया से दूर रहकर जीवन व्यतीत करेंगे।