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उत्सव काशी में बस गया था। काशी को अत्यंत निकट से उसने देखा - परखा। उसके भीतर एक सर्जक ने जन्म ले लिया। उसने काशी के जीवन पर पुस्तक लिखना प्रारम्भ किया। प्रतिदिन वह काशी के विविध मंदिरों में तथा विविध तट पर भ्रमण करता। वहाँ जी रहे, वहाँ प्रवासी के रूप में आए व्यक्तियों की चेष्टाओं को वह निहारता, निरीक्षण करता । उससे उसे उन लोगों की जीवन कथा का ज्ञान होता था। रात्रि भर वह उन व्यक्तियों की कथाओं को लिखता रहता।
जैसे जैसे वह काशी के जीवन को लिखता गया वैसे वैसे उसे प्रतीत होने लगा कि
‘यहाँ जीवन का नहीं किंतु मृत्यु का अनुभव ही मुख्य है। काशी में जी रहे व्यक्ति जीवन जी रहे हैं या मृत्यु को? मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहे हैं। यहाँ जीवन से अधिक मृत्यु की प्रबलता है। मैंने जीवन को लिखना चाहा है किंतु प्रत्येक बार मेरी लेखनी मृत्यु पर जाकर ही रुकती है। कोई तत्व है जो मेरी लेखनी को जीवन से मृत्यु की तरफ़ ले जाती है। कौन सा तत्व है? मैं अनभिज्ञ हूँ उस तत्व से।’
इसी क्रम में उत्सव ने तीन पुस्तकें सम्पन्न कर ली। स्थानीय प्रकाशक ने उन पुस्तकों को प्रकाशित करने की इच्छा प्रकट की। उत्सव ने सम्मति प्रदान कर दी।
लेखन कार्य के लम्बे परिश्रम से मुक्ति हेतु उत्सव, दूर सुदूर गंगा तट पर एकांत के साथ खड़ा था। गंगा यहाँ कुछ चंचल थी। उसका शांत स्वरूप किसी नवयौवना के उन्मुक्त रूप में बदल गया था। यह रूप काशी की गंगा के परिचित रूप से भिन्न था। उत्सव इस रूप से आकृष्ट हुआ।
वह गंगा के समीप गया, क्षण भर उसे देखा और गंगा के भीतर उतर गया। मनभर गंगा स्नान किया। जब तृप्त हो गया तो तट पर जाकर बैठ गया।
वह अनिमेष दृष्टि से गंगा को देखने लगा। उसके प्रवाह से उत्पन्न कल कल निनाद को सुनने लगा। कुछ समय पश्चात उसने गंगा से कहा, “हे मां गंगे, तुम्हारे तट पर प्रतिदिन मैं आता रहा हूँ। प्रतिदिन मैं किसी ना किसी व्यक्ति के जीवन से जुड़ता रहा हूँ। उनके जीवन की कथाओं को लिखता रहा हूँ। प्रत्येक कथा मैं जीवन से प्रारम्भ करता रहा किंतु अंत उसका मृत्यु से होता रहा। ऐसा क्यों? कोई उत्तर दे सको तो दो। इसी लेखन के कारण मेरे मन एवं मस्तिष्क में मृत्यु के विचार ही प्रभावी रहे हैं। अब यह सारी कथाएँ पुस्तक के रूप में प्रकाशित होगी। इन पुस्तकों का नाम भी मैंने ‘मृत्यु के रूप’ रखा है। आपके इस पुत्र उत्सव ने ठीक किया ना?”
“नहीं, यह ठीक नहीं है।” किसी ने उत्सव के प्रश्न का प्रतिभाव दिया।
‘किसी स्त्री का स्वर? क्या मां गंगा स्वयं उत्तर दे रही है?’ उत्सव ने मन ही मन तर्क करते हुए स्वर की दिशा में देखा।
सम्मुख उसके वही विदेशी युवति खड़ी थी जिसे कुछ महीनों पूर्व गंगा के भीतर गीताजी को पढ़ते हुए उत्सव ने देखा था, उससे कुछ बातें की थी। उसे देखते ही उत्सव सहसा खड़ा हो गया, आश्चर्य से बोला,“आप यहाँ? क्या आपने मेरी बात सुनी है?” युवति ने एक मोहक स्मित के साथ उत्तर दिया, “उत्सव, यह ठीक नहीं है।”
“आप को मेरा नाम कैसे ज्ञात हुआ? और मैंने क्या ठीक नहीं किया?”
“आपका नाम? अभी अभी तो आपने स्वयं बताया था अपना नाम। आप मां गंगा को पूछ रहे थे कि ‘आपके इस पुत्र उत्सव ने ठीक किया ना’?’”
“ओह। ठीक है, ठीक है।”
“किंतु आपने मृत्यु पर लिखा वह ठीक नहीं है।”
“क्यों?”
“मृत्यु, जीवन का अंतिम एवं अटल अंत है यह सब को विदित है। किंतु मृत्यु से पूर्व जीवन होता है। आपके लिए इस जीवन का कोई महत्व नहीं है? केवल मृत्यु की ही महिमा है?”
“है, जीवन की महिमा है। किंतु मैं क्या करूँ? सभी कथा का वास्तविक अंत मृत्यु से ही हुआ है। अतः वाकदेवी स्वतः मृत्यु को लिखाती गई। इसमें मेरा क्या दोष?”
“आपका ही दोष है, उत्सव। आप जब से इस नगरी में आए होंगे तब से आपने प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में मृत्यु को ही खोजा है। क्यों की आपको आपकी प्रत्येक कथा का अंत चाहिए था। काशी की कथा हो तो प्रत्येक कथा का अंत मृत्यु से अधिक रुचिकर क्या हो सकता है। अतः वही करना तुमने पसंद किया है। जीवन को खोजने से जीवन मिलता, किंतु आपको अपनी कथाओं का अंत नहीं मिल पाता। आपके दर्शन शास्त्र ने आपको मृत्यु की खोज पर ही ध्यान केंद्रित करा दिया।”
“दर्शन शास्त्र?”
“मुझे ज्ञात है कि आपने दर्शन शास्त्र पढ़ा है। पूरा काशी इस बात को जानता है। प्रत्येक दर्शन मोक्ष की बात करता है, मोक्ष का मार्ग बताता है। तो सहज ही है कि वह शास्त्र का ज्ञाता मोक्ष के बहाने मृत्यु को ही खोजता रहेगा। किंतु तुम प्रयास करते तो जीवन भी मिल जाता।”
“जीवन है कहाँ इस नगरी में? मुझे तो यहाँ के प्रत्येक कण में, प्रत्येक क्षण में तथा गंगा की प्रत्येक जल कणिका में मृत्यु ही दिखता है।”
“गीता को पढ़ो, कृष्ण को पढ़ो। प्रत्येक क्षण जीवन का अनुभव होगा। दर्शन शास्त्र अपने स्थान पर उचित ही है। वह मोक्ष का मार्ग बताते हैं किंतु जीवन जीने से, जीवन को देखने से तो इन शास्त्रों ने कभी नहीं रोका।”
“आपने गीता पढ़ी है। कृष्ण से भी आप परिचित हो। आप ही बताएँ कि जीवन कहाँ है? कैसा है? हाँ, आपका नाम क्या है?”
“अब मेरा नाम कालिन्दी है। मेरा नाम ही प्रमाण है कि ….।”
“अर्थात् भारत आकर आपने अपना नाम बदल दिया। कालिन्दी से पूर्व क्या नाम था आपका?”
“कालिन्दी नाम रखने के पश्चात उस नाम का कोई महत्व नहीं रहता।”
“नाम बदलने से क्या होता है?”
“जब काम बदल जाता है तो नाम भी बदल जाता है।” कालिन्दी ने स्मित किया और अपने अधरों पर बांसुरी रखी।
“आपके पास बांसुरी भी है? मुझे तो ज्ञात ….।” उत्सव आगे कुछ कहे उससे पूर्व कालिन्दी के अधरों ने बांसुरी पर मधुर तान छेड़ दी। वह उसे बजाती रही, उसके प्रत्येक सुर में जीवन की गति का अनुभव उत्सव को होता रहा। गंगा के प्रवाह ने भी उस सुर से अपना सुर मिला दिया। गंगा के प्रवाह के सुर भी बदल गए। उत्सव ने अपनी आँखें बंद कर ली। सुर बजते रहे, वह सुनता रहा। जीवन का अनुभव करता रहा।
उत्सव ने जब आँखें खोली तो सम्मुख उसके ना कालिन्दी थी, ना ही बांसुरी थी। उसने प्रत्येक दिशा में देखा, वहाँ कोई नहीं था। किंतु उत्सव किसी भी दिशा में देखता था, उसे वहाँ जीवन दिख रहा था। गंगा का चंचल प्रवाह भी उत्सव को जीवन की अनुभूति करा रहा था।