Dwaraavati - 73 in Hindi Classic Stories by Vrajesh Shashikant Dave books and stories PDF | द्वारावती - 73

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द्वारावती - 73

73


नदी के प्रवाह में बहता हुआ उत्सव किसी अज्ञात स्थल पर पहुँच गया। चारों दिशाओं में घना जंगल था। तीन दिन तक उस जंगल में वह भटकता रहा। उसे कोई दिशा नहीं सुझ रही थी। वह जंगल, जैसे अखंड जंगल हो। कहीं कोई छौर नहीं दिख रहा था। 
तीसरे दिन सांध्य समय जंगल के मार्ग से जाती हुई साधुओं की एक टोली उत्सव ने देखी। किसी मनुष्य को देखकर वह अल्प मात्रा में भय से मुक्त हुआ। वह उन साधुओं के पीछे पीछे चलता रहा। रात्रि होने पर साधुओं ने एक स्थान पर विश्राम किया। उत्सव उनके सामने प्रकट हो गया, “मुझे ….।” 
“वत्स, बैठो। तुम्हें यहाँ चिंता करने की कोई आवश्यकता नहीं है। सर्व प्रथम भोजन कर लो। पश्चात बातें करेंगे।”
भोजन से उत्सव तृप्त हो गया। “महाराज, मैं कुछ कहना चाहता हूँ।”
“सुनो वत्स, रात्रि हो गई है। तुम अधिक थके हुए प्रतीत होते हो। तुम्हें विश्राम करना होगा।”
“किंतु प्रातः काल से पूर्व आप यहाँ से गमन कर जाओगे तो मैं मेरी बात ….।” 
“तुम यदि चाहो तो हमारे साथ चल सकते हो। मार्ग में कहना जो कुछ तुम कहना चाहते हो।”
साधु सभी सो गए, थका हुआ उत्सव भी।
रात्रि के अंतिम प्रहर में साधुओं की क्रियाओं की ध्वनि से उत्सव जाग गया। साधुओं की क्रिया कलापों का अवलोकन करने लगा। सभी ने प्रातः कर्म समापन होने पर मंत्रोच्चार प्रारम्भ किया-
“ओहम मित्राय नम: ।
ओहम सूर्याय नम: ।
ओहम आदित्याय नम: ।”
‘यह तो सूर्य का मंत्र प्रतीत होता है। सूर्योदय से पूर्व ही सूर्य वंदना?’ उत्सव अपने प्रश्न में था तभी अन्य साधुओं ने यज्ञ की वेदी सज्ज कर ली। कुछ ही क्षणों में यज्ञ आरम्भ हो गया। वेदों की ऋचाओं से देवताओं का आवाहन हुआ, अग्नि को आहुतियाँ दी गई। जंगल की हवा में यज्ञ की सुगंध प्रसर गई। 
यज्ञ के पश्चात गुरु ने वेदाभ्यास करवाया। सूर्योदय होते ही साधु उत्तर दिशा की तरफ़ चलने लगे। उत्सव जो अभी तक सारी क्रियाओं को प्रतिमा की भाँति देख रहा था, साधुओं के साथ चल पड़ा। उसे कुछ कहना था उस बात को वह भूल गया। साधुओं के साथ चलता रहा।
अनेक दिवसों की यात्रा के पश्चात साधुओं के साथ उत्सव हिमालय के किसी शिखर पर स्थित किसी आश्रम तक आ गया।
यात्रा के समय में उत्सव ने अनेक शास्त्रों का अध्ययन किया। उससे उत्सव की रुचि शास्त्रों के प्रति बढ़ गई। अतः चार वर्ष तक वह उसी आश्रम में रुका, अनेक शास्त्रों का गहन अध्ययन किया। पश्चात गुरु आज्ञा से वह काशी चला गया।काशी में वह प्रतिदिन गंगा तट पर भ्रमण करता। 
ऐसे ही एक दिन भ्रमण करते हुए उसने एक कौतुक देखा। एक विदेशी युवति गंगा के भीतर बैठकर, हाथ में संस्कृत - हिंदी में लिखी श्रीमद् भगवद गीता की पुस्तक लेकर पढ़ रही थी। गंगा का शांत एवं पवित्र प्रवाह उसके तन को स्पर्श करता हुआ बह रहा था। उस स्पर्श से निर्लेप होकर वह गीता जी को पढ़ रही थी। उस दृश्य को देखकर उत्सव निर्लेप ना रह सका, विचलित हो गया। 
‘एक विदेशी युवति, हाथ में गीता जी, जिसकी भाषा मेरे देश की। मन जिसका गीता में और तन गंगा में ! भारत की संस्कृति के प्रति इस विदेशी की कैसी दृढ़ आस्था? और मेरे ही देश में, मेरे ही धर्म के प्रति इतनी उदासीनता? कुछ तो मोह है इस पुस्तक में, इस नदी में, इस मिट्टी में, इस देश की हवा में जो इस युवति को यहाँ तक खिंच लाया है। किंतु हमारे देशवासी इस मोहक तत्व के मोह से अलिप्त हैं।’
वह उसी तट पर रुक गया। युवति की तपस्या पूर्ण होने की प्रतीक्षा करने लगा। लम्बे अंतराल तक वह युवति गीता जी को पढ़ती रही। उत्सव की प्रतीक्षा लम्बित हो गई।
‘इस प्रकार इतने लम्बे समय की प्रतीक्षा करना भी तपस्या है। इस तपस्या का मुझे कोई सकारात्मक फल अवश्य मिलेगा।’ उत्सव भी उस तपस्या का हिस्सा बन गया। जब युवति की तपस्या पूर्ण हुई तब उत्सव की तपस्या भी सम्पन्न हुई। 
युवति गंगा से निकलकर तट पर आइ तो उत्सव ने उससे कहा, “हरे कृष्ण।”
“हरे कृष्ण।” उत्सव को प्रत्युत्तर मिला।
“आप हिंदी एवं संस्कृत पढ़ लेती हैं अतः मैं आपसे हिंदी में ही सीधा सीधा एक प्रश्न पूछता हूँ। ऐसा कौन सा तत्व है जो आप को इस धरती के मोह में यहाँ तक खिंच लाया है?”
“यह तत्व मोह में बांधता नहीं है, मोह से मुक्त कर देता है।”
“वह तत्व क्या है?”
“उसे समग्र संसार कृष्ण के नाम से जानता है।”
“कृष्ण?” उत्सव को विस्मय हुआ। 
“हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण हरे हरे।हरे राम, हरे राम, राम राम हरे हरे ।” बोलती हुई युवति चली गई। उत्सव अचरज से उसे जाते हुए देखता रहा। 
जब युवति दृष्टि से दूर हुई तब उत्सव ने स्वयं को कहा, “कोई क्षणिक आवेश में यह युवति अपना देश त्यागकर यहाँ आ तो गई है किंतु ….।” उसने बात को वहीं छोड़ दिया।