Dwaraavati - 72 in Hindi Classic Stories by Vrajesh Shashikant Dave books and stories PDF | द्वारावती - 72

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द्वारावती - 72

72

दोनों ने अदृश्य ध्वनि की आज्ञा का पालन किया। जिस बिंदु पर दोनों ने दृष्टि रखी वहाँ दृश्य दिखाई देने लगा -
एक विशाल सभागृह भारत भर के विश्व विद्यालयों के प्रतिनिधि छात्रों से पूर्ण भरा हुआ था। प्रत्येक छात्र के मन में चेतना की एक नूतन लहर उठ रही थी। प्रत्येक छात्र स्वयं को उस अभियान का हिस्सा मान रहे थे जो देश में एक क्रांति के लक्ष्य से प्रारम्भ किया गया था। यौवन अपने परम उत्साह पर था। देश विदेश के संचार माध्यमों के प्रतिनिधि भी वहाँ उपस्थित थे। भारत ही नहीं, अन्य कई देशों की दृष्टि इस महा सम्मेलन पर केंद्रित थी। देश विदेश के कई गुप्तचर छात्र के भेष में सभा का हिस्सा बन गए थे। 
विदेशों के गुप्तचरों का अपना उद्देश्य था तो देश के गुप्तचरों का अपना। सभी चाहते थे कि अपना अपना उद्देश्य सफल हो और बाक़ी सभी के उद्देश्य विफल हो। जाने कैसी कैसी मनसा भरी थी उन मस्तिष्कों में! 
सभा का प्रारम्भ हुआ। औपचारिकताओं के पश्चात दूर सुदूर से आए छात्र प्रतिनिधियों ने ऊर्जा से भरे सूत्रों का उच्चार किया, भाषण दिए। उनके प्रत्येक शब्द पर यौवन उत्तेजित होता था और प्रत्येक यौवन मन में क्रांति के लिए स्वयं को समर्पित कर देने का संकल्प करता था। सभा की ऊर्जा, सभा की चेतना, सभा का यौवन, सभा का वैचारिक स्तर अपने चरम पर आ चुका था। उसी समय एक नव युवक ने मंच पर प्रवेश किया। आयु उसकी केवल उन्नीस वर्ष !अब तक भाषण दे चुके सभी की आयु बाइस तेइस से अधिक की ही थी। 
यह युवक सबसे युवा था। मुख पर भिन्न आभा थी। उसकी चाल में यौवन एवं परिपक्वता का अद्भुत संतुलन था। आँखों में तेज था। गाल पर नव स्फुरित दाढ़ी थी। हाथ में उसके तीन पुस्तकें थी। उसके व्यक्तित्व में कोई मोहक तत्व था अतः उसके प्रवेश करते ही सभी का ध्यान अनायास ही उस तरफ़ आकृष्ट हो गया। जो भी उसे देखता था वह अवाक् हो जाता था। उसे देखते ही रह जाता था। क्षणभर में समग्र सभा के आकर्षण का केंद्र बन गया वह युवक। सारा सभागार उस युवक को सुनने के लिए अधीर हो गया, शांत हो गया। उसने अपना स्थान ग्रहण किया। सभी उत्सुकता से उसके शब्दों की प्रतीक्षा करने लगे। वह बोला।
“साथियों। मैं मेरा परिचय केवल एक शब्द में देता हूँ - उत्सव। यही नाम है मेरा। नाम के उपरांत व्यक्ति का जो परिचय होता है उसे उसका चरित्र कहते हैं, व्यक्तित्व कहते हैं। यह व्यक्तित्व, यह चरित्र व्यक्ति के विचारों से स्वतः प्रकाशित होकर विश्व के समक्ष प्रस्तुत होता है। अतः अब मैं जो भी कहूँगा, मेरे जो भी विचार रखूँगा उसके आधार पर मेरा परिचय प्राप्त कर लेना। यह मैं आपके विवेक पर छोड़ता हूँ।
मुझ से पूर्व अनेक नेताओं ने अपनी बात पूर्ण दृढ़ता से रखी है। जिसका सारांश मैं दो चार पंक्तियों में पुनरुक्त करना चाहूँगा। सब का तात्पर्य है कि -
भारत, जिसमें हम सब रह रहे हैं, उस भारत नाम का कोई देश है ही नहीं, ना कभी था। इसमें अनेक राज्यों को बलपूर्वक जोड़ा गया है और इसे एक राष्ट्र, एक देश के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। होना चाहिए था कि इन सभी राज्यों को स्वतंत्र देश बना दिया जाय तथा उसे भारत नाम के राष्ट्र से मुक्त कर दिया जाय। आप भी चाहते हैं ना कि हमें मुक्ति मिले, स्वतंत्रता मिले?”
एक स्वर में सभा गृह गूंज उठा -
लेकर रहेंगे मुक्ति, हमें चाहिए मुक्ति।
लेकर रहेंगे मुक्ति, हमें चाहिए मुक्ति। ……
समग्र सभा आंदोलित हो उठी। करतल ध्वनि प्रवाहित होने लगी। कुछ क्षण पश्चात उन्माद शांत हो गया। उत्सव ने पुन: कहना प्रारम्भ किया।
“आप का कहना है कि इस देश में ईश्वर के नाम पर, धर्म के नाम पर अफ़ीम पिलाया जा रहा है। ईश्वर, जिसका अस्तित्व ही नहीं है उसके नाम पर मंदिरें हैं। उस में उस तथाकथित ईश्वर की पूजा होती है। मंदिरों में दूषण है। हमारे धर्म ग्रंथ जैसे श्रीमद भगवद गीता, मनु स्मृति, वेद, वेदांग, उपनिषद, दर्शन शास्त्र आदि में मन घड़ंत बातें लिखी गई हैं। हमें उन बातों का अनुसरण करने को बाध्य किया जा रहा है। पूजा, ध्यान, योग आदि सब छलावा है। 
हमारे देश में ग़रीबी है, कृषकों तथा श्रमिकों की स्थिति दयाजनक है। यहाँ भूख है। नौकरी एवं व्यवसाय के पर्याप्त अवसर नहीं है। देश में न्याय व्यवस्था जैसा कुछ नहीं है। यहाँ भीड़ का साम्राज्य है। अल्पसंख्यों को भयभीत किया जा रहा है। देश का संविधान भय में है, कोई उसका अनुपालन नहीं कर रहा । देश में जंगल राज है। यही आज की स्थिति है। हमें एक नयी क्रांति करनी है। इन सभी समस्याओं का अंत केवल क्रांति से ही हो सकता है। यही हम चाहते हैं ना?” 
उत्सव ने सभा को एक प्रश्न दे दिया। सभी ने उस प्रश्न को पकड़ लिया। 
“हाँ, हाँ। हम सब यही चाहते हैं। यही हमारी मनसा है, यही हमारा लक्ष्य है।”
पुन: वही क्रांति के स्वर गूंजने लगे। 
लेकर रहेंगे मुक्ति, हमें चाहिए मुक्ति।
लेकर रहेंगे मुक्ति, हमें चाहिए मुक्ति। ……
पुन: कुछ क्षण आंदोलित होने के पश्चात सभागार शांत हो गया।
“मैं इन बातों से सहमत हूँ।” उत्सव ने आगे कहा, “किंतु मेरे कुछ प्रश्न हैं। हमें क्या चाहिए? कैसे चाहिए? किससे चाहिए? इन प्रश्नों के उत्तर के बिना हम अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकते। केवल भाषणों से क्रांति नहीं होती। इन लक्ष्यों को पाने के लिए हमने कौन सा पथ निश्चित किया है? इस विषय में कदाचित किसी ने कुछ नहीं कहा। मैं प्रयास करता हूँ।
आप कहते हो कि भारत एक देश है ही नहीं। चलो यही सत्य मान लेते हैं। दूसरी तरफ़ कहते हो कि हमारे देश में यह है, वह है, आदि आदि। देश के संविधान का पालन नहीं हो रहा है। 
किसी भी क्रांति का प्रथम लक्षण है- लक्ष्य का ज्ञान होना। हमें यह ज्ञात होना चाहिए कि किसके विरुद्ध क्रांति करना चाहते हैं? क्रांति किसी व्यक्ति के विरुद्ध नहीं किंतु किसी व्यवस्था के विरुद्ध, किसी दूषण के प्रति की जाती है। सरकार देश चलाती है। संविधान के अनुसार देश चलाती है। और हमारा यह विश्वास है कि यह सरकार संविधान को नष्ट कर रही है। 
यदि इसी तर्क को स्वीकार कर लें तो अर्थ यह हुआ कि हम संविधान का पालन कराना चाहते हैं। संविधान का स्वीकार कर रहे हैं हम। संविधान के स्वीकार से स्वतः देश का भी स्वीकार कर रहे हैं हम। हमें कुछ भिन्न सोचना होगा। भिन्न करना होगा। अन्यथा हमें यह कभी नहीं कहना होगा कि भारत एक देश है है नहीं। आप किस बात को स्वीकारते हो?”
उत्सव के प्रश्न से सभा दो हिस्सों में विभाजित हो गई। कुछ समय अव्यवस्था के पश्चात सभा को शांत किया गया। उत्सव मंच पर अभी भी स्थित था। 
“मंदिरों में दूषण है।मंदिरों में दूषण कौन करता है? मंदिर जाने वाले भक्त ही ना? आप में से अनेक व्यक्ति मंदिर जाते होंगे। आपके माता पिता, दादा दादी भी मंदिर जाते रहे हैं। क्या आपने कभी कोई दूषण किया? आपके माता पिता, दादा दादी ने दूषण किया?” उत्सव के प्रश्न से सभी मौन थे। 
“आपने कभी किसी को मंदिर में दूषण करते देखा है? यदि देखा है तो क्या आपने उसे रोका है? रोकने का साहस दिखाया है? नहीं ना? यह भी एक क्रांति है। क्रांति साहस माँगती है, वीरता माँगती है। 
कोई ईश्वर को नहीं मानता। यह उनका व्यक्तिगत विषय है। यह आस्था अन्य से क्यों अपेक्षित है आपको? यदि आप को कोई भोजन नहीं पचता तो आप उसका त्याग करें। किंतु दूसरों को उस भोजन ना खाने के लिए क्यों बाध्य करना है। जो पचा सकता है उसे खाने दो। यह आपकी व्यक्तिगत समस्या है, सार्वजनिक नहीं है।”
उत्सव के शब्द ने सभा के कुछ छात्रों को विचार करने पर विवश कर दिया। तो कथित छात्र नेताओं को प्रतीत होने लगा कि उत्सव उनकी योजना के बिंदुओं को अपने तर्क से काट रहा है। वह विचलित होने लगे। 
“आप ईश्वर को नहीं मानते किंतु अल्लाह के अस्तित्व को मानते हो, जीसस को भी स्वीकार करते हो। यह कैसी मान्यता है आपकी? यदि ईश्वर नहीं है तो कोई भी नहीं है। 
अल्प संख्यकों पर अत्याचार होने की बात से आपका तात्पर्य देश के मुसलमानों से है। तो इसे स्पष्ट शब्दों में क्यों नहीं कहते? क्रांति करनी है तो स्पष्ट कहने का साहस भी तो रखो। जिसमें ऐसा साहस नहीं है वह क्रांति से बचें। मुझमें यह साहस है, क्या आप में है?”
पुन: सभा गूंज उठी -
लेकर रहेंगे मुक्ति, हमें चाहिए मुक्ति।
लेकर रहेंगे मुक्ति, हमें चाहिए मुक्ति। …
“इस देश में भूख है, ग़रीबी है, व्यवसाय का अभाव है। सत्य है। इसका उपाय होना आवश्यक है। ग़रीबी क्यों है? भूख क्यों है? व्यवसाय - नौकरी क्यों नहीं है? कारण यही है कि प्रत्येक छात्र पढ़कर बाबू बनना चाहता है। कोई उद्योग का साहस क्यों नहीं करता? 
एक बाबू केवल घर के चार सदस्यों का पेट भर सकता है। किंतु एक छोटा सा उद्योग अनेक परिवार को जीवन दे सकता है। हमने कभी अपने व्यवसाय के विषय में सोचा ही नहीं। हमें सब कुछ चाहिए सरकार से। हमें कुछ काम नहीं करना है। और हमें सरकार का, देश का अस्तित्व ही स्वीकार नहीं है। तथापि हमें सब कुछ चाहिए इस देश से, सरकार से। यह कैसी विडम्बना है हम क्रांतिविरों की?”
कुछ छात्रों ने संकेतों से बात की। उत्सव के मित्रों ने उन संकेतों को पकड़ लिया।
उत्सव अभी भी भाषण दे रहा था, “हमारे धर्म ग्रंथों में मन घड़ंत बातें हैं। किसी विषय का विरोध करने हेतु भी हमें उस विषय का ज्ञान होना चाहिए। उस पर संशोधन कर उसकी त्रुटि खोजनी चाहिए। यदि हमें ही उस विषय पर कोई ज्ञान नहीं है तो हम किस तर्क से उसका विरोध करेंगे? वह विरोध टिकेगा कितना? हम केवल विरोध करना चाहते हैं, विरोध करना नहीं जानते। उसके लिए हमें इन ग्रंथों का ज्ञान होना आवश्यक है। क्या हमने इन ग्रंथों को पढ़ा है? क्या हम जानते हैं कि इन ग्रंथों में क्या है? हम किस बात का विरोध कर रहे हैं?”
उत्सव ने अपने हाथों में रखी गीता तथा उपनिषद की पुस्तक सभा को दिखाई। 
सभा उन पुस्तकों को देखे उससे पूर्व ही उत्सव के मित्रों ने उसे पकड लिया, उठाया और दूसरे मार्ग से सभागृह से बाहर ले आए। वहाँ खड़ी एक गाड़ी में उसे बिठा दिया और चलने लगे।
“यह क्या कर दिया आपने? मुझे इस प्रकार कहाँ और क्यों ले जा रहे हो? मुझे मेरी बात पूर्ण करने देते …।”
“उत्सव, पीछे देखो। एक बड़ी काली गाड़ी हमारे पिछे आ रही है। हमें सर्व प्रथम उस गाड़ी की दृष्टि से कहीं दूर चला जाना होगा। अन्यथा …..।”
“अन्यथा क्या?”
“उत्सव, तुम इस खेल के नए खिलाड़ी हो। इस खेल के नियम तुम्हें ज्ञात नहीं है। तुम जो कह रहे थे वह बातें इन कथित क्रांतिकारियों की योजना से विपरीत है। तुम्हारी बातों से छात्रों में दो हिस्से हो गए हैं। कई छात्र इन तथाकथित नेताओं की मोहिनी से जाग रहे हैं। हो सकता है वह सब इनका साथ ना देकर इस आंदोलन से स्वयं को पृथक कर ले। ऐसा हुआ तो इन नेताओं का व्यापार बंद हो जाएगा। ऐसा वह होने नहीं देंगे। अतः वह तुम्हें मार देना चाहेंगे वह लोग।”
“क्या? ऐसा कैसे कर सकते हैं?”
“ऐसा अनेको बार कर चुके हैं। और उन सभी की मृत्यु का दोष सरकार पर डाल देते हैं यह लोग।”
“ओह, ईश्वर !”
“यह लोग क्रांतिकारी नहीं है किंतु विघटनकारी तत्व हैं। वह सब कुछ कर सकते हैं। तुम बस अपना जीवन बचा लो। अरे, गाड़ी अधिक गति से चलाओ।” 
गाड़ी की गति बढ़ गई। उस काली गाड़ी को भ्रमित करने के लिए मित्र ने गाड़ी को जंगल के मार्ग पर मोड़ दी। जंगल में एक स्थान पर रोककर बोले, “उत्सव, इस नदी को देख लो। तुम्हें इस नदी में कूदना है। किसी अन्य स्थल पर चले जाना है। हम तुम्हें गोली मारने का नाटक करेंगे। तुम हमसे बचते हुए नदी में कूद जाना। हमारी गोलियों की ध्वनि सुनकर वह काली गाड़ी इस तरफ़ आएगी। हम कह देंगे कि उत्सव गोली से मर गया, नदी में डूब गया।”
“ओह, मित्र। तुम्हारा धन्यवाद। जीवन रहा तो पुन: मिलेंगे।”
“चलो शीघ्रता से उतरो। भागो।” 
उत्सव भागा, नदी में कूद गया। पश्चात तीन गोली चली। वह लोग उत्सव को मृत मानकर लौट गए।