67
महादेव की संध्या आरती से जब गुल लौटी तब उत्सव तट पर खड़ा था। उसने गुल को निहारा। गुल ने उन आँखों में कुछ देखा।
“क्या इस समय तुम अपने प्रायोजन को व्यक्त करना चाहोगे?”
“मेरे प्रश्न इस नगरी के राजा से सम्बंधित है। तुम जिस राजा की प्रजा हो उस राजा के विषय में मेरे प्रश्नों का उत्तर तुम दे सकोगी? तटस्थ भाव से?”
गुल क्षण भर विचार के लिए रुकी। “मैं जानती हूँ कि तुम द्वारिकाधीश की बात कर रहे हो।”
“मैं जानता हूँ कि अपने राजा के विषय में कोई भी प्रजाजन तटस्थ नहीं रह सकता। उसके प्रति पक्षपात सहज होता है।”
“तुम कब से ऐसे भ्रम में जीने लगे हो, सन्यासी उत्सव?”
“यह सम्बोधन ने मुझे जागृत कर दिया है गुल। क्या मैं भी संसार की माया में घिरता जा रहा हूँ?”
“वह तो तुम जानो। किंतु यह बताओ कि इतने दिनों से तुम इस नगरी में हो। क्या कभी द्वारका नगरी में भ्रमण किया है? कभी मंदिर गए हो? भगवान द्वारिकाधीश के दर्शन किए हैं? प्रजाजनों से मिले हो?”
“नहीं। इनमें से कुछ भी नहीं किया है।”
“तुमने इतना समय व्यर्थ नष्ट कर दिया। और अब तुम अपने उत्तरों के लिए शीघ्रता चाहते हो। यह कैसा बालपन है?”
“सो तो है। मैं क्या करूँ?”
“प्रथम यह सब कर लो। पश्चात अपना प्रायोजन मेरे समक्ष प्रकट कर देना।”
“अभी, इसी समय क्यों नहीं?”
“दो कारण है, उत्सव। एक, जिस नगरी के राजा के विषय में उत्तर चाहते हो उस नगरी को देखे बिना ही, उस राजा के दर्शन किए बिना ही उस पर प्रश्न करना उचित नहीं होता है। दूसरा, सम्भव है कि तुम जब इस नगरी का भ्रमण करोगे, राजा के दर्शन करोगे, यहाँ के प्रजाजनों से मिलोगे, यहाँ की सभ्यता एवं संस्कृति से परिचय करोगे तब तुम्हारे प्रश्नों के उत्तर स्वतः तुम्हें प्राप्त हो जाए।सभी संशय स्वयं ही निर्मूल हो जाए।”
“तुमने मेरी अनेक भ्रमणाओं को निरस्त कर दिया। क्या तुम मुझे इस नगरी का भ्रमण करा सकती हो?”
“अवश्य। किंतु हमारे मध्य एक संधि होगी, तुम पर एक प्रतिबंध होगा।”
“केसी संधि? कैसा प्रतिबंध?”
“यही कि समग्र भ्रमण के समय तुम जो भी देखोगे, जो भी सुनोगे, जो भी अनुभव करोगे वह तुम अपने दृष्टिकोण से ही करोगे। इन सबका आकलन करने में तुम मेरी सहायता नहीं लोगे। ना ही तब तुम मुझे मेरा दृष्टिकोण पूछोगे।”
“इससे क्या होगा?”
“तुम जो भी अनुभव प्राप्त करोगे वह मेरे विचारों से मुक्त होगा, मेरे अभिप्रायों से प्रभावित नहीं होगा। जो भी होगा वह तुम्हारा होगा। स्वयं का होगा। बोलो स्वीकार्य है?”
“जी।”
“कल प्रातः हम चलेंगे।”
68
सूर्य ने अवनी पर प्रवेश करने की सज्जता कर ली थी।कुछ ही क्षणों में वह द्वारका नगरी को अपनी रश्मियों से प्रकाशित कर देगा। सूर्य के आगमन से पूर्व स्वयं स्फुट मद्धम मद्धम प्रकाश अपना अस्तित्व प्रकट कर चुका था।
उत्सव उसी प्रकाश को निहार रहा था।अनिमेष दृष्टि से उसने किसी एक बिंदु पर ध्यान केंद्रित किया था।वह सूर्य के आगमन का बिंदु था। जिस प्रकार वह उसे देख रहा था उससे प्रतीत हो रहा था कि उसे उस बिंदु से सूर्य की प्रतीक्षा हो, नूतन प्रभात की प्रतीक्षा हो। वही आशा एवं अपेक्षा थीं उन आँखों में।
‘द्वारका नगरी के भ्रमण के उपरांत मुझे मेरे प्रश्नों के उत्तर प्राप्त हो जाएँगे। अथवा कोई भी उत्तर ना मिले। अथवा कुछ और नए प्रश्न जन्म ले लें। किंतु एक आशा, एक अपेक्षा से द्वारका नगरी के भ्रमण को उत्सुक हूँ। गुल की प्रतीक्षा कर रहा हूँ।
मेरी दृष्टि भले ही सूर्य पर है किंतु मेरे कान समुद्र की तरफ़ है। मैं समुद्र तट से उत्पन्न प्रत्येक ध्वनि को ध्यान से सुन रहा हूँ। इसी तट पर गुल के आने से जो ध्वनि उत्पन्न होगी वही मेरी प्रतीक्षा का अंत करेगी।’
‘किंतु तट पर से अभी तक कोई ध्वनि क्यों नहीं आ रही? केवल समुद्र की ध्वनि ही सुनाई दे रही है।’
‘समुद्र की ध्वनि ! इस ध्वनि में आज कोई भिन्न स्वर मिले हुए हैं। कोई विशेष ध्वनि सर्जन कर रहा है यह अरब सागर। इस ध्वनि में उत्सुकता है, प्रतीक्षा है, आशा है, अपेक्षा है, उतावलापन है, जिज्ञासा है, कौतुक है, कुतूहल है। ना जाने कितने भाव इस ध्वनि में मिश्रित है।’
‘यह ध्वनि मेरे भीतर एक ऊर्जा को उत्पन्न कर रही है जो इससे पूर्व कदाचित ही मेरे भीतर जन्मी थी।’
“उत्सव चलें?”
गुल ने उत्सव को कहा किंतु उत्सव ने नहीं सुना। गुल ने दो तीन बार कहा किंतु शून्य। उत्सव ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। गुल उत्सव के सम्मुख आकर बोली, “उत्सव …..।”
उत्सव तंद्रा से जागा, “हाँ, हाँ… । कहाँ?”
“कहाँ हो तुम, उत्सव? मेरी बात पर इस प्रकार प्रश्न क्यों कर रहे हो? हमने द्वारका नगर के भ्रमण को जाने की योजना बनाई है। क्या वह भी विस्मरण हो गया?”
उत्सव ने स्मित दिया और गुल के साथ चल पड़ा द्वारका नगरी की तरफ़। सूरज प्रकट हो गया।
“गुल, रुको।” गुल रुक गई।
“क्या हुआ? कहीं विचार बदल तो नहीं गया?”
उत्सव समुद्र की तरफ़ मुड़ा , “गुल, इस समुद्र को देखो। इसकी ध्वनि को ध्यान से सुनो।” उत्सव ने अपनी आँखें तथा कान समुद्र के प्रति लगा दिए।
“क्या है, उत्सव?”
“इस समुद्र की ध्वनि में एक विशेष स्वर है, उसे तुम सुनो।”
गुल ने समुद्र की तरफ़ कान लगाया, “मुझे कुछ विशेष नहीं लग रहा। तुम ही कहो, क्या बात है?”
“गुल, समुद्र कह रहा है कि मुझे भी तुम अपने साथ नगर भ्रमण को ले चलो। हमसे वह विनती कर रहा है, आग्रह कर रहा है। क्या तुम्हें भी यही लग रहा है?”
गुल ने ध्वनि को पुन: ध्यान से सुना। “हाँ उत्सव, मुझे भी यही प्रतीत हो रहा है।”
“और अब उसकी लहरों को देखो। हमारे साथ चलने की उत्सुकता प्रकट हो रही है उनकी चंचलता में।”
गुल ने लहरों को देखा, “किसी बालक की भाँति समुद्र अपनी तरंगों के माध्यम से हमारे साथ चलने की चेष्टा कर रहा है।”
“अर्थात् समुद्र हमारे साथ चलने की इच्छा कर रहा है। क्यों?”
“इच्छा रखने में क्या है? इच्छा किसी भी बात की की जा सकती है। किंतु उसकी पूर्ति की सम्भावना को समझे बिना इच्छा करना अनुचित है। किंतु समुद्र ऐसी इच्छा क्यों रखता है उसका उत्तर है मेरे पास।”
“इसके लिए भी मुझे आग्रह करना पड़ेगा तब कहोगी क्या?”
“सुनो। जो मेरा तर्क है वह सम्भव है मिथ्या तर्क हो। किंतु तुम उसे सुनो, धैर्य से। यदि तर्क अनुचित लगे तो उसे भूल जाना।”
“ठीक है।”
“जब कृष्ण ने इस द्वारका नगर को बसाया होगा उससे भी पूर्व यह समुद्र यहाँ स्थित है। उसके तट पर आनेवाले व्यक्तियों से वह सदैव द्वारका के वैभव को सुनता रहा है। इतने युगों से यह नगर, यह मंदिर तथा यह समुद्र अपने अपने स्थान पर स्थित हैं। द्वारका के सबसे निकट समुद्र है। किंतु इस समुद्र का दुर्भाग्य तो देखो कि आज तक वह इस नगरी को नहीं देख पाया। उसके वैभव का अनुभव नहीं कर पाया। भगवान के दर्शन नहीं कर पाया। इतने युगों से उसने ना जाने लाखों बार इस नगरी को देखने की मनसा की होगी। किंतु उसकी विवशता को देखो, समझो। उसके विरह को जानो। कितनी पीड़ा होगी इस विरह में? प्रत्येक क्षण वह इस विरह में रोया होगा। इतना विशाल, इतना प्रचंड होते हुए भी कितना विवश है यह समुद्र! वह स्वयं तो नगर में जा नहीं सकता। किंतु इच्छा तो प्रकट कर सकता है, विनती तो कर सकता है, आग्रह तो कर सकता है।”
“तो आज ले चलते हैं अपने साथ।”
“समुद्र जानता है कि एक सन्यासी का मन उसकी बातों से द्रवित हो जाएगा और उसे ले चलेगा अपने साथ। इसी लिए तो वह तुम्हें आग्रह कर रहा है। किंतु, किंतु समुद्र को किसी वचन देने से पूर्व यह समरण रहे कि यह सम्भव नहीं है।”
“क्यों, गुल?”
“नगर प्रवेश करने के लिए समुद्र को अपनी सीमाओं के बंधनों को तोड़ना होगा। समुद्र को अपनी सीमा कभी नहीं लांघनी चाहिए।”
“समुद्र अपनी सीमा क्यों नहीं लांघ सकता?”
“स्मरण है तुम्हें? तुम ही ने कहा था कि सीमा विहीन समुद्र रौद्र होता है।”
“तो? रौद्र तो महादेव भी लगते हैं।”
“समुद्र हो या महादेव, जब रौद्र हो जाते हैं तो विनाशक बन जाते हैं। सभी सर्जन का विसर्जन कर देते हैं। तुम्हें स्मरण होगा कि स्वयं कृष्ण की रची हुई द्वारका समुद्र में, इसी समुद्र में डूब गई है।”
“मुझे यह ज्ञात है। समुद्र के भीतर इसके असंख्य प्रमाण भी प्राप्त हुए हैं।”
“तो क्या तुम जानते हो कि द्वारका समुद्र में कैसे डूबी?”
“नगर भ्रमण की इच्छा से सीमा उल्लंघन किया होगा इस समुद्र ने। नगर प्रवेश किया होगा और डूब गई द्वारका नगरी। सुवर्ण नगरी द्वारका!”
“सत्य में ऐसा ही हुआ होगा। अब कहो ले चलें इस समुद्र को अपने साथ?”
“नहीं, कदापि नहीं। मैं तुम्हारे तर्क से सहमत हूँ। हमें इसे यहीं छोड़कर जाना होगा। किंतु तुम इतना सोच कैसे लेती हो, गुल?”
“अब अविलम्ब, किसी भी वार्तालाप के बिना प्रस्थान करें?”
समुद्र को वहीं छोड़कर दोनों चल पड़े। निराश, दुखी समुद्र ने अपने सुर बदल लिए। उसकी ध्वनि में किसी बालक के रुदन के स्वर घुल गए।