Dwaraavati - 66 in Hindi Classic Stories by Vrajesh Shashikant Dave books and stories PDF | द्वारावती - 66

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द्वारावती - 66

66

सूर्योदय हुआ। गुल अपने नित्य कर्म पूर्ण कर, भड़केश्वर महादेव की आरती-पूजा-अर्चना कर लौट आइ। उस समय उत्सव वहाँ नहीं था। किंतु गुल की प्रतीक्षा में कुछ यात्री थे। प्रवासियों का समूह कई दिनों के पश्चात गुल के आँगन में आया था।
पिछले दिनों यात्रियों का प्रवाह कुछ मंद हो गया था। जो यात्री भगवान के दर्शन करते थे उनमें से एकाद अंश यात्री ही गुल के पास आते थे। गुल यात्रियों को समुद्र की ध्वनि में श्री कृष्ण की बांसुरी की अनुभूति कराती थी ऐसी बात प्रचलित थी।जिन यात्रियों को यह अनुभूति करनी होती थी वह गुल के पास समुद्र तट पर आते थे। 
अनेक दिवसों के पश्चात आठ दस यात्रियों का समूह आया था। गुल ने उनका स्वागत किया। द्वारका के विषय में समूह की रुचि अनुसार उससे बातें की, चर्चा की, प्रश्नों के उत्तर दिए। अंत में सभी को समुद्र के तरंगों की ध्वनि में श्री कृष्ण की बांसुरी की अनुभूति करवाई। प्रसन्न होकर यात्री चले गए। 
गुल ने समुद्र तट पर दृष्टि डालकर उत्सव को खोजने की चेष्टा की। पूरे तट को देख लेने पर भी उसे उत्सव कहीं दृष्टिगोचर नहीं हुआ। वह कक्ष में लौट आइ।
कक्ष में प्रवेश करते ही वह रुक गई, अचरज से देखने लगी। कक्ष के भीतर उत्सव था। वह अनेक पुस्तकों से घीरा हुआ था। वह किसी पुस्तक को ध्यान से पढ़ रहा था। गुल के आगमन से वह अनभिज्ञ था। वह पुस्तक पढ़ने में इतना लीन था जैसे कोई योगी समाधि में हो।
गुल ने उसकी क्रिया में व्यवधान ना हो इस हेतु अपने चरणों की ध्वनि को मंद कर दिया, रसोई की तरफ़ चली गई। महादेव के भोग को तैयार किया। जब रसोई से वह बाहर आइ तब भी उत्सव वहीं था। इस समय वह किसी पुस्तक को पढ़ नहीं रहा था। किसी पुस्तक को हाथ में पकड़े हुए, आँखें बंद किए हुए स्थिर बैठा था। जैसे कोई ऋषि किसी विषय पर गहन चिंतन कर रहा हो, समाधि ग्रस्त हो।
‘पुस्तक पढ़ने से भी समाधि लग जाती है !’
गुल मन ही मन बोल पड़ी। उत्सव की उस अवस्था को चलित किए बिना ही उसने उस पुस्तक का नाम पढ़ा-कृष्ण। पुस्तक तथा उत्सव को वहीं छोड़कर वह महादेव भड़केश्वर को भोग लगाने चली गई।
जब वह लौटी तब उत्सव घर के बाहर बैठा था। मुख पर उत्साह का अभाव था। जैसे किसी बात से वह निराश हो। 
“उत्सव किस बात पर दुखी हो?”
“दुखी हूँ, निराश हूँ, चिंतित भी हूँ।”
“इतने सारे नकारात्मक भाव? किस लिए, उत्सव?”
“मैं जिस प्रयोजन से यहाँ आया था, तुमसे मिला था उस प्रयोजन हेतु मैंने तुम्हारी अनुमति के बिना, तुम्हारी अनुपस्थिति में, तुम्हारे पुस्तकों को पढ़ने का कृत्य किया है।” 
“मुझे इस बात का संज्ञान है, उत्सव।”
“इसलिए प्रथम तो मैं तुमसे क्षमा प्रार्थी हूँ।” उत्सव ने गुल के प्रति हाथ जोड़ दिए।
“क्षमा प्रदान की। चलो, आगे कहो।”
“इन पुस्तकों को देखते देखते कुछ पुस्तकों के कुछ अंश को देखा, पढ़ा, जाना, समझा। किंतु मेरे प्रश्नों के उत्तर इन पुस्तकों में भी नहीं मिले। अतः मैं निराश हूँ।” उत्सव ने गहन साँस ली।
“सभी प्रश्नों के उत्तर पुस्तकों में नहीं होते हैं, उत्सव। यदि ऐसा होता तो तुम यहाँ आते ही क्यों?” 
“किंतु पुस्तकों में उत्तर क्यों नहीं होते?”
“एक तो तुमने पुस्तक के कुछ अंश ही पढ़ें हैं। किसी पुस्तक को जब तक पूरा नहीं पढ़ लेते, पुस्तक से तुम्हें कुछ नहीं प्राप्त होता है। दूसरा, पुस्तकों में उत्तर होते हैं किंतु सभी प्रश्नों के उत्तर नहीं होते हैं। अतः नहीं मिलते हैं।”
“ऐसा क्यों, गुल?”
“पुस्तक किसी ना किसी मनुष्य के द्वारा लिखा जाता है। वह अपने भीतर उठे प्रश्नों के उत्तर खोजता है। उन्हीं प्रश्नों के उत्तर पुस्तक में देने का प्रयास करता है। प्रत्येक मनुष्य भिन्न है, प्रत्येक मनुष्यों के प्रश्न भी भिन्न होते हैं। तुम्हारे प्रश्न पुस्तक के रचयिता से भिन्न होंगे। जो प्रश्न उन्हें नहीं हुए उनके उत्तर वह कैसे देगा?” 
“यह तो पुस्तक की सीमा है।”
“पुस्तक की नहीं, रचयिता की सीमा है। सीमा ही पुस्तक को सौंदर्य प्रदान करती है।”
“सीमा और सौंदर्य?”
“सीमा में ही सौंदर्य होता है। जैसे यह समुद्र। कभी अपनी सीमा को नहीं लांघता। यही इसका सौंदर्य है। यदि समुद्र सीमा में नहीं रहता तो क्या होता?”
“सीमा हीन समुद्र रौद्र लगेगा, सब नष्ट कर देगा। किंतु मेरे प्रश्नों के उत्तर कैसे मिलेंगे?”
“नियति ने उसका समय निश्चित कर रखा है। जिस क्षण वह क्षण जन्म ले लेगी, उसी क्षण तुम्हें जो अपेक्षित है वह प्राप्त हो जाएगा।”
“वह क्षण कब आएगी? क्या कभी आएगी भी? इस बात पर ही मैं चिंतित हूँ।” 
“वह क्षण भी आएगी। चिंता के स्थान पर प्रतीक्षा करो।”
“उस बाबा ने तो कहा था कि मेरे प्रश्नों के उत्तर तुम्हारे पास है। तुम मेरे प्रश्नों के उत्तर कब दोगी?”
“यदि मेरे पास उत्तर हैं तो मैं अवश्य दूँगी। मुझे ही देना पड़ेगा। मैं चाहूँ तो भी, ना चाहूँ तो भी।”
“किंतु कब?”
“जब तुम अपने प्रश्नों से मुझे अवगत कराओगे तब। तुम्हारे प्रश्नों से अभी तक तो तुमने मुझे परिचय नहीं करवाया।”
“तुमने भी तो इस विषय में अभी तक मुझे पूछा नहीं।”
दोनों हंस पड़े।
“चलो, इस समय भोजन कर लो, भोजन से बड़ा कोई महत्वपूर्ण कार्य नहीं होता।”
दोनों ने भोजन कर लिया। उत्सव कहीं चला गया।