रमेश एक छोटे से गांव में रहने वाला युवक था। उसका बचपन कठिनाइयों में बीता था। मां का साया सिर से बचपन में ही उठ गया था, और पिता काम के सिलसिले में अक्सर बाहर रहते थे। उनके इस व्यस्त जीवन के कारण रमेश की देखभाल करने वाला कोई नहीं था। गांव के अन्य बच्चे अपने परिवार के साथ खुश रहते, पर रमेश हमेशा एक अजीब-सी खालीपन से घिरा रहता था।
जब रमेश बड़ा हुआ तो उसने शिक्षा के लिए शहर का रुख किया, लेकिन वहां की भीड़भाड़ और तेज़ रफ्तार जिंदगी में रमेश को कभी किसी का साथ न मिल सका। कॉलेज के दिनों में उसके साथी तो थे, लेकिन वो भी केवल पढ़ाई तक सीमित थे। उनका आपसी मेलजोल न के बराबर था। सब अपने-अपने रास्तों पर थे, किसी को किसी की परवाह नहीं थी। ऐसे में रमेश की जिंदगी फिर से एक बार अकेलेपन से घिर गई।
शहर में पढ़ाई के बाद नौकरी करने लगा, लेकिन अकेलापन उसका पीछा छोड़ने का नाम नहीं ले रहा था। उसकी जिंदगी में न तो कोई दोस्त था, न ही कोई ऐसा व्यक्ति जिससे वो अपने दिल की बात कर सके। धीरे-धीरे यह अकेलापन उसकी जिंदगी का हिस्सा बन गया।
रमेश को हमेशा लगता कि उसकी जिंदगी में कुछ कमी है। उसे किसी का साथ चाहिए था, पर किसका, ये उसे खुद भी नहीं पता था। वह अक्सर छत पर जाकर आसमान की तरफ देखता और सोचता, "क्या मेरी जिंदगी भी ऐसी ही खाली और बेमकसद रहेगी?"
एक दिन उसके दफ्तर में एक नई कर्मचारी आई, जिसका नाम स्नेहा था। स्नेहा चंचल, खुशमिजाज और हंसमुख स्वभाव की थी। उसकी मुस्कान में कुछ ऐसा था जो रमेश को बहुत अच्छा लगा। धीरे-धीरे स्नेहा से उसकी दोस्ती हो गई। स्नेहा ने उसके दिल की गहराईयों को समझा और उसकी तन्हाई को दूर करने की कोशिश की। स्नेहा का साथ पाकर रमेश को जिंदगी में एक नई ऊर्जा का अहसास हुआ।
स्नेहा ने एक दिन रमेश से कहा, "रमेश, मैंने तुम्हारे चेहरे पर हमेशा एक गहरी उदासी देखी है। क्या तुम अपने अकेलेपन को दूर नहीं करना चाहते?"
रमेश ने हल्की मुस्कान के साथ कहा, "स्नेहा, मैंने जिंदगी में बहुत अकेलेपन का सामना किया है। शायद अब मैं इसे अपनी किस्मत मान चुका हूं।"
स्नेहा ने रमेश की ओर देखते हुए कहा, "अकेलापन हमारी किस्मत नहीं है, यह हमारे सोच का परिणाम है। हमने इसे अपने जीवन का हिस्सा बना लिया है। अगर तुम इसे एक नए नजरिए से देखोगे, तो शायद तुम्हें इसमें भी एक साथी नजर आए।"
रमेश ने पहली बार अकेलेपन के बारे में इस तरह सोचा। उसने स्नेहा की बातें मन में बैठा लीं और अपने खाली समय में खुद के साथ समय बिताना शुरू किया। उसने कई किताबें पढ़ीं, खुद को नए-नए कार्यों में व्यस्त रखा और अपनी सोच को सकारात्मक बनाना शुरू किया।
कुछ समय बाद, रमेश का स्थानांतरण एक दूसरे शहर में हो गया। वहां भी उसका पहले जैसा ही जीवन था - दिनभर काम, फिर घर आकर अकेले खाना बनाना और खाना। पर इस बार फर्क ये था कि उसे अब अपना अकेलापन दुखी नहीं करता था। उसने खुद में एक साथी पा लिया था। वह खुद से बातें करता, खुद के साथ समय बिताता और अपनी छोटी-छोटी खुशियों का आनंद लेता।
एक दिन उसके पड़ोसी विजय से उसकी मुलाकात हुई। विजय एक बुजुर्ग आदमी थे, जिन्होंने जीवन में बहुत संघर्ष देखे थे। उनके परिवार के लोग विदेश में रहते थे, और वह इस शहर में अकेले रहते थे। विजय ने रमेश को देखकर महसूस किया कि वह भी अकेलेपन का शिकार है।
विजय ने एक दिन रमेश से पूछा, "बेटा, क्या तुम्हें कभी अपने अकेलेपन से डर नहीं लगता?"
रमेश ने मुस्कुराते हुए कहा, "पहले बहुत लगता था, लेकिन अब मैंने इसे अपना साथी बना लिया है। अकेलापन हमें खुद से मिलवाता है, हमारी सोच को गहराई देता है।"
विजय ने रमेश की बातों में सच्चाई देखी और बोले, "बिलकुल सही कहा तुमने। अकेलापन हमें अपनी आत्मा से जोड़ता है, हमें खुद से परिचित कराता है। जो लोग इसे समझ लेते हैं, उन्हें जिंदगी की सच्चाई समझ में आ जाती है।"