Farmaish - 1 in Hindi Love Stories by pooja books and stories PDF | फरमाइश... 1

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फरमाइश... 1

बात काफी पुरानी है, जब दुनिया इंटरनेट की स्पीड से नहीं, तार और टेलीग्राम की रफ्तार से भागती थी।

अनुज की जान-पहचान उस घर में बस एक आवाज से थी। जब भी 'हुमा' नाम पुकारा जाता तो अनुज के कान खड़े हो जाते। वह दीवार से सटकर पूरी बात सुनने और समझने की कोशिश करता लेकिन कुछ एक लफ्जों के सिवा उसके पल्ले कुछ नहीं पड़ता। असल में उसे समझना भी कुछ नहीं था, उसे बस वही बारीक आवाज सुननी होती थी। जो केवल हां या ना में या बहुत हुआ तो एक दो पुछल्ले शब्द जोड़कर अपनी बात पूरी कर देती।

तब अनुज बारहवीं के बाद आगे की पढ़ाई के सिलसिले में देहरादून आया और यहीं का होकर रह गया था। पीछे छूट गए घर में ऐसा कुछ न था जिसकी फिक्र उसे वापिस ले जाती। न ही उसके पास एक नौकरी ढूंढने के सिवा तब जिंदगी में दूसरा कोई मकसद भी था।

उसी दौर में अनुज की जिंदगी में इस आवाज ने अपनी ठीक-ठाक जगह बना ली थी। बड़े शहर में रहने के लिए उसके पास पैसे नहीं थे तो उसने मुस्लिम मोहल्ले में दो कमरों के मकान में से एक कमरा किराए पर ले लिया था। जिसका 2500 रुपए महीने का किराया वह तीन- चार महीनों में एक बार भर पाता था। एक टाइम का खाना उसे यही घर देता। बाकी दिन भर उसके खाने का कोई ठिकाना न था। कभी समोसा-चाय तो कभी चाय-बिस्किट और कभी केवल पानी पीकर पूरा दिन निकल जाता। दिन भर वह डिग्री कॉलेज के बाहर फोटो स्टेट शॉप पर काम करता। शाम को नाटक-थिएटर मंडली के बीच सपनों की दुनिया में तैरता रहता और घर लौटकर कुछ पढ़ता-लिखता या उसी सुरीली आवाज को सुनने के लिए ध्यान लगाता। बीच में मिले समय में वह सरकारी नौकरियों के फॉर्म भी भरता रहता।

घर पर रहने से उसे यह तो पता चल गया कि बगल वाले कमरे में कम से कम पांच आवाजें रहती हैं। इनमें एक भारी मर्दाना आवाज थी जो सब पर रौब गांठती। दूसरी खंखारती हुई उम्रदराज जनाना आवाज जो जरूरत पड़ने पर ही कुछ कहती और घर के पेचीदा मामलों में उसकी बात ही मानी जाती। एक आवाज तेज जवान होते गुस्सैल लड़के की थी, एक नटखट बच्ची की और सबसे सुरीली थी- हुमा की आवाज। जो केवल अपना नाम पुकारे जाने पर ही कुछ लफ्ज खर्च करती।

उस कमरे के पांच लोगों के अंदर-बाहर निकलने और अनुज के आने-जाने का समय इतना बंधा हुआ था कि उसे कभी इन लोगों की शक्ल देखने का मौका तक नहीं मिलता। किराया भी वह सामने की दुकान पर दे जाता जहां बड़ी उम्र के कई बुजुर्ग दिन धूप का स्वाद लेते और शाम का खाना तो उसके दरवाजे के बाहर पड़े एक छोटे तिपाये स्टूल पर ही रख दिया जाता। खाली समय में वह अपने दिमाग में ही बगल के कमरे में रहने वाली आवाजों की शक्ल बनाता-बिगाड़ता रहता। सबसे ज्यादा अच्छा उसे हुमा की तस्वीर बनाने में लगता। वह अपने हिसाब से उसमें भरसक बदलाव करता।

दो साल में पहली बार अनुज छह महीने से घर का किराया नहीं भर सका था। उसे पता चला कि शाम को उसे मिलने वाले खाने में एक तरकारी कम हो गई थी और चावल की जगह एक एक्स्ट्रा रोटी ने ले ली थी। पहले तो उसे लगा कि शायद उसे किराये की याद दिलाने के लिए मेन्यू में बदलाव हुआ है लेकिन कुछ दिनों बाद हुई लड़ाई सुनकर उसे समझ आया कि शायद पूरे घर को ही खाने के लाले हैं।

हां, पर ईद के दिन अनुज को खाने में काफी कुछ मिला था। नमकीन से लेकर मीठे तक। वैसे तो घर का खाना खंखारती हुई जनाना आवाज ही बनाती थी। हुमा को केवल अनुज की थाली लगाने और उसे बाहर रखने का काम मिला था। उसे दो साल में हर सब्जी का स्वाद याद हो गया था, लेकिन आज खाने का स्वाद अलग था। हो न हो ये खाना हुमा ने ही बनाया था। यह सोचते हुए वह सारा खाना खा गया था।

सेवई की कटोरी के नीचे एक तुड़ा-मुड़ा कागज था। जिस पर आड़ टेढ़ी इबारत लिखी थी 'किराया न दे सको तो हफ्ते भर में कमरा खाली कर देना।' इस कागज को कई दफा पढ़ने के बाद भी अनुज को इस खतो-किताबत का मतलब समझ नहीं आया।