Eco friendly Govardhan in Hindi Mythological Stories by Dr Mukesh Aseemit books and stories PDF | इको फ्रेंडली गोवर्धन

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इको फ्रेंडली गोवर्धन

इको फ्रेंडली गोवर्धन

 

गोवर्धन पूजा का समय है, ब्रजवासी हैं, तो गोवर्धन पर्व हमारे लिए कुछ विशेष महत्व का है। मम्मी ने सुबह ही हिदायत दे दी थी कि गोवर्धन बनेगा, चाहे "सोन" का ही क्यों न बनाना पड़े। आजकल हर त्योहार में हर रिवाज "सोन" का सा हो गया है। मसलन औपचारिकताएं... बस परम्पराएं निभाई जा रही हैं। दिवाली पर "सोन" की सी "सोर्ती" (शायद श्रुति शब्द का आंचलिक भाषा में प्रयोग है - शुभ-लाभ दीवारों पर मंडे जाते हैं, स्वास्तिक बनाते हैं) बनती हैं, राखी पर "सोन" के से श्रवण (घर के दरवाजों पर श्रवण कुमार के मांडने) और गोवर्धन पूजा पर "सोन" का सा गोवर्धन।

 

कुछ स्मृतियाँ अभी ताजा हैं गांव की... भरा-पूरा गोवर्धन बनता था। देखते ही लगता था कि भगवान कृष्ण ने जिसे उँगलियों पर उठाया, वह कोई छोटा-मोटा गोवर्धन कैसे हो सकता था। पूरे एक मोहल्ले का एक गोवर्धन। गांव के हर परिवार के सभी पशुओं का गोबर इकट्ठा होता और दगरे में ही गोवर्धन बनता, जो लंबाई और चौड़ाई में पूरे रास्ते को घेरे रहता। पूरा गांव ही एक कुटुंब-नुमा माहौल में गोवर्धन पूजा करता था। बच्चे-बड़े सभी बड़े चाव से गोबर से गोवर्धन बनाते थे। परिक्रमा के वक्त जौ के दाने बिखेरे जाते थे, जो सात दिनों में उगकर गोवर्धन के चारों ओर हरे-भरे होकर एक अलग ही खुशबू बिखेरते थे।

 

खैर, स्मृतियों के धुंधले कुहासे से बाहर आकर अपनी आँखे मलते हुए श्रीमती जी को देखा... परेशान सी बाहर आहाते में घूम रही थीं। मैंने कहा, “क्यों, क्या परेशानी है?” बोलीं, “गोवर्धन बनाना है, गोबर कहाँ मिलेगा?” मम्मी कह रही थीं, “सोन का ही सही, गोवर्धन तो बनेगा।”

 

एक बड़ी ग्लोबल समस्या आन पड़ी। सच में, इस नकली जमाने में, मिलावट के इस दौर में जहाँ हर चीज नकली है, वहाँ असली गोबर मिलना शायद सबसे बड़ी टेढ़ी खीर है। गोबर भी इको-फ्रेंडली मिलना और भी मुश्किल। असली गोबर कहाँ से लाया जाए?

 

बाहर सड़क पर देखा, आवारा पशुओं का झुंड कहीं दिखाई नहीं दिया। लगता है सभी आज पहले ही बुक कर लिए गए होंगे। कहते हैं न..’12 महीने में तो घूरे की भी फिरती है...’ ऐसे ही  इन आवारा पधुओं की कम से कम गोवर्धन पूजा के दिन तो कोई पूछ है..। ऑनलाइन सर्च किया, कहीं इको-फ्रेंडली आयुर्वेदिक गोबर किसी कंपनी ने उतारा हो तो, वहाँ भी नहीं मिला। अब क्या करें? विशुद्ध राष्ट्रीयता का परिचय देना पड़ेगा - मेड इन इंडिया के साथ ही... ऑर्गेनिक, देसी, मौलिक, इको-फ्रेंडली गोबर मिल जाए तो गोवर्धन पूजा में थोड़ा असली रंग आ जाए। क्या भरोसा बाजार का... कहीं इम्पोर्टेड चाइनीज गोबर कोई सरका गया, रिटर्न पालिसी नहीं हो, तो बड़ी मुश्किल होगी। वैसे हैण्ड मेड हो तो और भी बढ़िया। लेकिन हमारी कोशिश नाकाम ही रही। वैसे सरकार चाहे तो मेक इन इंडिया के तहत गोबर बनाने की फैक्ट्री लगवा सकती है, काफी डिमांड है। कुटीर उद्योगों को बढ़ावा मिलेगा।

 

असली गोबर तो अब सिर्फ सोशल मीडिया पर मिलता है, लोगों के दिमाग में मिलता है, साहित्यिक सामग्रियों में मिल सकता है। अब इतनी तकनीक विकसित हो रही है तो वो दिन दूर नहीं जब यत्र-तत्र सर्वत्र बिखर रहे इस गोबर को एक्सट्रैक्ट करने की तकनीक विकसित हो जाए। सच पूछो तो इंधन की समस्या ही खत्म...

 

हाँ, कंडे जरूर ऑनलाइन बिक रहे थे। शायद गोबर की सप्लाई 12 महीने सुनिश्चित हो इसलिए उसे कंडों का रूप दिया गया था। एक बार तो सोचा, कंडों को भिगोकर गीला कर लें, शायद गोबर तैयार हो जाए।

 

खैर, एक गौ-आश्रम की शरण लेनी पड़ी। देखा तो वहाँ आज गोबर लेने वालों की भीड़ लगी हुई थी। सबने अपने बर्तन उपयुक्त स्थान पर लगा रखे थे और ऐसे इंतजार कर रहे थे जैसे नेता जी चुनाव के परिणाम का इंतजार करते हैं। वहाँ से कुछ गोबर इकट्ठा कर के लाया गया।

 

ले तो आए लेकिन अब "सोन" से गोवर्धन को बनाने के लिए सब अपने हाथ खींचने लगे, बगलें झाँकने लगे... बच्चे इधर-उधर अपने मोबाइल लेकर बिजी से हो गए। कोई गोबर में हाथ नहीं डालना चाहता। बड़ी मुश्किल से हमारी चाची" तैयार हुईं। लेकिन चाची ने भी ग्लव्स पहन लिए। एक छोटा सा गोवर्धन जैसे-तैसे बन गया, दगरे में नहीं बना जी... दगरे रहे ही कहाँ अब... नालियों और गड्डों में अब धूल-मिट्टी की जगह कचरा भरा रहता है। तो गोवर्धन मकान की पहली मंजिल की छत पर बना दिया गया।बच्चों ने भी इस सनातनी परम्परा में अपना सहयोग दिया ,गोवर्धन पर्वत के साथ एक सेल्फी खेंचकर सोशल मीडिया पर डाल दी..’सलेब्राटिंग गोवार्धना विद वर फॅमिली ‘ हैश टैग   के साथ ।

 

लग रहा है जैसे अब हम मिट्टी से जुड़े नहीं हैं, हमारी त्यौहार भी अपनी जमीनी संस्कृति के जुड़ाव से बहुत दूर किये जा रहे हैं..अब गोवर्धन भी मिट्टी से जुड़ा हुआ नहीं..। पहली बात तो वो मिटटी रही ही नहीं...कंक्रीट सीमेंट की परतों ने रास्तों के साथ साथ हमारे दिलों को भी  पाट दिया ... नीचे पन्नी बिछा दी गई थी ताकि फर्श गंदा न हो जाए। गोवर्धन, जो सात दिन बाद सिराया जाता था, अब दूसरे दिन ही डिस्पोज कर दिया जाता है। काफी कुछ बदल गया है।

 

बस डर लग रहा है कहीं इस "सोन" के गोवर्धन पर भी सुप्रीम कोर्ट की रोक न लग जाए। ये एनवायरमेंट के रखवाले तथाकथित पर्यावरण विद  , पालनहार ,पर्यावरण का मरसिया गाने वाले कहीं इको-फ्रेंडली गोवर्धन की बात न करने लगें। कल को हो सकता है कि प्लास्टिक का गोवर्धन बाजार में उपलब्ध हो जाए, हर साल उसे ही पूज कर रख दें साल भर के लिए।

 

वैसे भी असली गोबर तो ढूंढने से भी नहीं मिलेगा, भाई साहब। जब पशु भी मिलावटी खा रहे हैं, ज्यादातर प्लास्टिक की थैलियाँ, नाली का कचरा, मिट्टी, कंकड़ खा रहे हैं तो कहाँ से असली गोबर देंगे भला! चारा-खली तो वैसे भी न जाने कौन-कौन खा रहा है। वैसे भी कहा गया है कि हर चारे के तिनके पर लिखा है खाने वाले का नाम...

रचनाकार –डॉ मुकेश असीमित

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