File in Hindi Motivational Stories by Mayank Saxena Honey books and stories PDF | फाइल

Featured Books
Categories
Share

फाइल

फाइल

 

"भोला ओ भोला", पता नहीं ये भोला कहाँ मर गया। भोला...

भोला: (ज़ोर से बोलते हुए) "आया साहब।"

भोला तेज गति से चलते हुए लिपिक 'प्रवेश' के पास आया।

भोला: (प्रवेश के घनाकार केबिन के पास आकर): "साहब आपने बुलाया!"

प्रवेश: "भोला, इस फाइल को ले जाकर अनीश बाबू के ऑफिस में रख दो। अभी आ रहा होगा मणिराम फिर रोना धोना मचाएगा।"

भोला: "साहब बुरा न मानें तो कुछ कहूँ?"

प्रवेश: "हाँ बोलो"

भोला: "साहब आप उसका काम कर दो। बेचारा दीन हीन दरिद्र सा; महीने भर से ऑफिस के चक्कर काट रहा है। और सच्ची बताऊँ, मैंने उसे बाहर रोते भी देखा...."

प्रवेश: (बात बीच में काटते हुए) "तू बहुत भोला है, भोला। देख हमारे हाथ नियमों में बँधे हुए है। सरकारी कर्मचारी हैं, काम तो नियम से ही होगा न। मेरे अंत से फाइल पास है, अब आगे बड़े बाबू जानें। तू जल्दी जाकर फाइल अनीश बाबू को...."

"राम-राम प्रवेश बेटा" (अचानक से किसी ने प्रवेश बाबू के केबिन के बाहर आकर अभिवादन किया)

ये आगन्तुक और कोई नहीं बल्कि मणिराम था। कपडे के जूते जिसका तलवा ऐसे घिसा हुआ था कि किसी अंत से ज़्यादा और किसी अंत से थोड़ा कम। मैली सफ़ेद धोती और उस पर मटमैला सा हल्का फटा सा कुर्ता। रीढ़ की हड्डी हल्की झुकी हुई थी जिसके चलते मणिराम आगे की ओर हल्का झुका हुआ था। सर पर न के बराबर बाल थे, आँखें हल्की सूजी हुई और उसके नीचे काले घेरे, आँखों पर चश्मा और झुर्रिदार चेहरे पर हल्की सफ़ेद दाढ़ी। यदि भोला के शब्दों में संक्षिप्त में कहते तो एक दम दीन-हीन सा।

प्रवेश: "राम-राम मणिराम।" (कहकर प्रवेश ने मणिराम के अभिवादन का उत्तर दिया।)

मणिराम: "बेटा मेरा काम हुआ?"

प्रवेश: "देखो मणिराम, मैं तुम्हें इतने दिनों से यही समझा रहा हूँ, कि सरकारी काम है, हर काम का एक समय होता है और काम पूरे नियमों के साथ करना पड़ता है। जल्दबाज़ी करने पर तुम्हारे काम में विघ्न पड़ सकता है। खैर। तुम्हारी फाइल मैंने अनीश बाबू के दफ़्तर पहुँचा दी है। मेरे कार्यालय का काम पूरा है अब आगे तुम्हारी फाइल वो ही संभालेंगे।"

मणिराम: "साहब एक महीना से ज़्यादा का..."

प्रवेश: (बात बीच में काटते हुए): "देखो मणिराम, बहस करने से कोई लाभ न होगा। जो समय लगेगा उसमें हम कुछ नहीं कर पाएंगे।"

मणिराम: "अनीश बाबू कहाँ बैठते हैं?"

प्रवेश: "दो कक्ष छोड़कर। किन्तु आज वो छुट्टी पर हैं, कल मिलेंगे।"

मणिराम: "ठीक है बेटा। राम-राम"

प्रवेश: "राम-राम"

और इतना कहकर मणिराम उस दफ़्तर से अपने घर को वापस लौट जाते हैं।

"बाबा आप आ गए" कहते हुए स्नेहा ने अचानक चिंतामग्न मणिराम को एक गहरी सोच से बाहर खींचा। स्नेहा मणिराम की पुत्री थी जिसकी आयु लगभग 15 वर्ष के आस-पास की होगी।

"हाँ बिटिया" कहकर मणिराम ने स्नेहा के प्रश्न का उत्तर दिया।

स्नेहा: (उत्सुकतापूर्वक) "क्या रहा बाबा? हुआ कुछ आपकी फाइल का समाधान?"

मणिराम: "कुछ नहीं हुआ बिटिया। कह रहे हैं फाइल आगे बढ़ा दी है किसी दूसरे बाबू के पास।" कहते हुए मणिराम ने मुखाकृति अभिव्यक्ति द्वारा घोर निराशा व्यक्त की।

स्नेहा: "बाबा, महीना बीत गया, कब तक फाइल पर समाधान मिलेगा? माँ की स्तिथि दिन-प्रतिदिन ख़राब होती जा रही है। आपने कहा था कि इस पैसे से हम माँ का इलाज करवाएंगे।" कहकर बालमन स्नेहा फ़फ़क-फ़फ़क कर रो उठी।

मणिराम भी बेबस से स्नेहा को रोते देख कर अपने आँसू रोक न सके और उन्होंने भी मन हल्का करके स्नेहा को सँभालते हुए उसे माँ के पास जाने का निर्देश दिया।

मणिराम अगले दिन प्रातः, फाइल की अद्यतन स्तिथि जानने के लिए पुनः सरकारी कार्यालय पहुँचा।

 

"राम-राम प्रवेश बेटा।" कहकर मणिराम ने लिपिक प्रवेश का अभिवादन किया।

प्रवेश: "राम-राम मणिराम। मिल लिए अनीश बाबू से?"

मणिराम: "कहाँ बेटा। बस वहीं जा रहा था सोचा आपसे राम-राम करता चलूँ। वैसे आज आएं हैं अनीश बाबू?"

प्रवेश: "जी बिल्कुल आये हैं। तुम पहले उनसे मिल लो।"

"अच्छा बेटा।" कहकर मणिराम दो कक्ष छोड़कर अनीश बाबू के स्थान पर उनसे मिलने पहुँचे और "राम-राम अनीश बाबू" कहकर ज़ोर से अभिवादन किया।

अनीश: "जी, राम-राम। आप...?"

मणिराम: "बाबूजी, मैं मणिराम।"

अनीश: "कौन मणिराम?"

मणिराम: "आपके पास मेरी फाइल आई होगी। प्रवेश बेटा ने भेजी होगी।"

अनीश: "मैंने अभी आपकी फाइल नहीं देखी है। आप बाहर प्रतीक्षा करें मैं आपकी फाइल पढ़ने के बाद बुलाता हूँ।"

इतना कहकर अनीश बाबू ने ज़ोर-ज़ोर से भोला-भोला चिल्लाना शुरू किया।

भोला: "जी साहब।"

अनीश: "मणिराम जी को बाहर बैठाइये"

भोला: "मणिराम जी चलिए।" इतना कहकर भोला मणिराम को प्रतीक्षा कक्ष की ओर ले जाता है।

 

कुछ घण्टों के पीड़ादायक और गहन सोच में डुबो देने वाले समय की समाधि से जगाने के लिए अनीश बाबू का बुलावा लेकर भोला मणिराम के पास प्रतीक्षा कक्ष में आया।

भोला: "मणिराम जी, आपको साहब ने बुलाया है।"

मणिराम: (उत्सुकतापूर्वक): "क्या फाइल पास हो गई?"

भोला: "वो सब हमको नहीं पता, आप साहब से ही पूछ लेना। चलो तो। साहब ने बुलाया है।"

मणिराम प्रतीक्षा कक्ष के सोफा से उठ कर अनीश बाबू के कक्ष की ओर चल देता है।

मणिराम: "अनीश बाबू आपने बुलाया?"

अनीश बाबू: (कुर्सी की ओर इशारा करते हुए): "हाँ मणिराम जी, आईये, बैठिए"

मणिराम: "क्या रहा बाबूजी? फाइल पास हो गई क्या? अब मुझे पैसे मिल जाएंगे क्या?"

अनीश बाबू: "मणिराम जी, मैंने आपकी फाइल का गहनता से अध्ययन किया। सभी दस्तावेजों और अभिलेखों का गंभीरता से विश्लेषण किया लेकिन मैं क्षमा चाहूँगा कि ये फाइल अस्वीकृत की जाएगी।"

मणिराम: (अत्यंत निराशा के भाव के साथ): "लेकिन क्यों, बाबूजी। मैंने सभी आवश्यक दस्तावेज प्रपत्रों के साथ लगा दिए थे और फिर प्रवेश बाबू ने कहा था..."

अनीश बाबू: (बात बीच में काटते हुए): "प्रवेश बाबू ने क्या कहा, क्या नहीं, ये मेरे लिए मायने नहीं रखता।"

मणिराम: "लेकिन प्रवेश बाबू....."

अनीश बाबू: (बात बीच में काटते हुए): "इसीलिए तो प्रवेश बाबू छोटे बाबू हैं और हम बड़े बाबू। उनके स्वीकृत कर देने से फाइल स्वीकृत नहीं होती। फाइल तब स्वीकृत होगी जब बड़े साहब उस पर स्वीकृत लिखकर अपने हस्ताक्षर करेंगे और वो तब होगा जब फाइल मेरे कार्यालय से स्वीकृत होकर आगे जायेगी।"

मणिराम: (हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाते हुए): "साहब कुछ तो कीजिये। मेरी पत्नी मर जायेगी साहब। मैं आपके हाथ जोड़ता हूँ पैर पड़..."

अनीश बाबू: (बात बीच में काटते हुए): "देखिये मणिराम जी, ये सब नाटक मेरे सामने करने की कोई आवश्यकता नहीं है। यह सरकारी कार्यालय है; काम सब नियमानुसार ही होगा। आवश्यक कागज़ लेकर आना तब बात करेंगे मुझे और भी काम है। उठिये; चलिए जाइये" कहकर अनीश बाबू ने मणिराम को कक्ष से बाहर जाने का निर्देश दिया। किन्तु निराशा के घोर अन्धकार में डूबा मणिराम बस हाथ जोड़े रोने में लगा हुआ था कि एकाएक अनीश बाबू ने पुनः ज़ोर से चिल्लाया: "भोला, ओ भोला"

भोला: "जी साहब।"

अनीश बाबू: "मणिराम जी को बाहर लेकर जाओ।"

भोला मणिराम को ले जाने उसके पास आया कि मणिराम ने फिर अनुरोध करना शुरू कर दिया, "साहब एक महीने से चक्कर लगा रहा हूँ। इन पैसों की बहुत आवश्यकता है..."

अनीश बाबू ने बिना मणिराम की बात सुने, भोला को चिल्लाते हुए कहा: "मैंने तुमसे कहा न भोला, लेके जाओ।"

भोला मणिराम को पकड़कर कार्यालय से बाहर ले आया।

कार्यालय से बाहर आते हुए मणिराम की स्तिथि अत्यंत दयनीय दिखाई पड़ रही थी। बिना रुके रोते-रोते मणिराम भोला से बस यही पूछ रहे थे कि आखिर उनकी फाइल कब पास होगी? भोला मणिराम को प्रतीक्षा कक्ष बैठा कर उन्हें वहीँ प्रतीक्षा करने का अनुरोध करके, तत्काल वहां से दौड़ लगाकर उनके लिए पीने का पानी लाता है और उन्हें शांत और सामान्य करने का पूर्ण प्रयास करता है। मणिराम के सामान्य होने के बाद भोला मणिराम से उत्सुकतापूर्वक साक्षात्कार करने का प्रयास करता है।

भोला: "बाबा, तुम्हारी आयु 60 के आस पास जान पड़ रही है। तुम्हारी उमर कितनी होगी?"

मणिराम: "बेटा, मेरी आयु 55 वर्ष है। जीवन के विकृत और अप्रत्याशित अनुभवों के चलते मेरी ये स्तिथि..."

भोला: (बात काटते हुए): "सुना है, किसी सरकारी धन की स्वीकृति हेतु तुम यहाँ चक्कर काट रहे हो। कोई बेटा नहीं है तुम्हारा? उसे क्यों नहीं भेजते?"

मणिराम बेटा बोलकर पुनः फ़फ़क-फ़फ़क कर रो उठा।

भोला: (मणिराम को सँभालते हुए): "बाबा क्या हुआ तुम्हें, कुछ गलत पूछ लिया? तुम पानी पियो।" इतना कहकर भोला पुनः मणिराम को सँभालते हुए पानी पिलाकर शांत करने का निरर्थक प्रयास करने लगा। भोला का यद्यपि यथा नाम-तथा गुण स्वभाव वाला व्यक्तित्व था तथापि उसे मणिराम की स्तिथि से सहज ही किसी अनिष्ट का बोध हो रहा था और उसका मन उसे और अधिक जानकारी निकालने का दबाव बना रहा था। मणिराम के शांत हो जाने के उपरान्त उत्सुकतापूर्वक भोला पुनः प्रयास करता है।

जमीन पर बैठा हुआ भोला, सोफा पर बैठे मणिराम के घुटनों से जाँघों की तरफ़ अपना हाथ फेरते हुए सहायतार्थ भाव के साथ पुनः पूछता है।

भोला: (मणिराम से): "बाबा, तुमने बताया नहीं। बेटा क्यों नहीं चक्कर काटता? तुम क्यों इस उमर में कार्यालय के चक्कर काट रहे हो।"

मणिराम की आँखें पुनः आँसुओं से भर जाती है।

मणिराम: (वेदना समेटते हुए): "मेरा बेटा और मैं दोनों एक निजी कार्यालय में अत्यंत कम मासिकी पर कार्यरत थे। मासिकी बेहद कम थी, किन्तु घर का गुजर बसर चल रहा था। मेरे दो बच्चों में बेटा सबसे बड़ा था, उसकी आयु 30 वर्ष की थी। बेटी के लिए हमारी प्रार्थना ईश्वर ने देरी से सुनी पर एक छोटी बेटी भी है मेरी जिसकी आयु 15 वर्ष है। गाँव की एक कृषि-भूमि थी जिसको किराये पर देकर उससे भी छोटी-मोटी आय बनती थी। आज से तीन वर्ष पहले पता चला कि मेरी धर्मपत्नी की खाँसी के साथ खून आने का कारण तपेदिक (क्षय रोग) है। उसकी सेवा-सुश्रुषा के चलते मैंने नौकरी से त्यागपत्र दे दिया। बेटे की आय और कृषि-भूमि से प्राप्त किराए से दो समय की रोटी पर्याप्त चल रही थी किन्तु धर्मपत्नी का इलाज सही तरह से नहीं चल पा रहा था। बेटे ने सोचा कि कृषि-भूमि पर फ़सल बोने के लिए बैंक से कर्ज़ा लेकर फसल से प्राप्त आय द्वारा उसकी माँ का इलाज करवाएंगे। बेटा किरायेदारों से कृषि-भूमि छोड़ने का अनुरोध करने गया तो ज्ञात हुआ कि वो (किरायेदार) भूमि पर (अनैतिक) कब्ज़ा करके उस पर कर्ज़ा पहले से लेकर बैठे हैं। बेटे के तमाम अनुनय-विनय के पश्चात भी जब उन्होंने भूमि न छोड़ने का मन बताया तो मेरा बेटा लखन ने पुलिस का सहारा लिया। पुलिस को शिकायत देकर उनसे सहायता करने का अनुरोध किया। चंद पैसों में बिकने वाली पुलिस दबंगों के हाथ बिक गई और मेरे बेटे पर उल्टा फ़र्ज़ी मुक़दमा लगा दिया। लक्ष्मण की भाँति अत्यंत क्रोधी स्वभाव वाला मेरा बेटा “लखन” अन्याय के सामने घुटने न टेकने का मन बनाकर उग्र-रौद्र स्वरुप में लट्ठ लेकर किरायेदारों से बात करने गया, जहाँ आपसी नोक-झोक में.... (पुनः मणिराम फफक-फ़फ़क कर रो उठा)"

भोला: (नम आँखों के साथ): "सम्भालों खुद को; फिर क्या हुआ?"

मणिराम: (रोते-रोते): "गोली.... गोली मार दी।"

भोला: (भौचक्का सा): "लखन ने उन दबंगों को?"

मणिराम: (वेदना के साथ): "दबंगों ने लखन को..."

और इतना कहने के साथ ही मणिराम माथा पीटने लगा, फूँट-फूँट के रोने लगा। मणिराम को संभाल पाना, सांत्वना दे सकना भोला के बस के बाहर जान पड़ रहा था। फिर भी भोला प्रयासरत रहा और अंततः मणिराम को ढाँढस बँधा सकने में सफल रहा।

भोला: (नम आँखों के साथ): "बाबा, फिर आगे क्या हुआ?"

मणिराम: (अश्रुपूरित नयनों के साथ, नज़रों को जमीन की तरफ करके): "पुलिस ने मामला तूल पकड़ता देख उन दबंगों को गिरफ़्तार कर लिया। भूमि पर अवैध कब्ज़ा का केस न्यायालय में पंजीकृत हो चुका है। अधिवक्ता का कहना है कि ये सिविल केस हैं और इस पर सुनवाई कि गति अत्यंत मंद होती है, 20-20 वर्षों में ऐसे केस पर कोई फैसला आता है। निःसंदेह उस दिन को देखने के लिए न तो मैं और न ही मेरी धर्मपत्नी इस दुनिया में जीवित बचेंगे।.."

भोला: "और इस फाइल का क्या रहस्य है?"

मणिराम: "समाचार पत्रों द्वारा इस हत्या के मामले को प्रकाशित किया गया जिसमें कानून व्यवस्था पर तमाम प्रश्न चिन्ह लगाए गए थे जिसमें सरकार भी घिर रही थी। अपनी गर्दन बचाने को सांसद की संस्तुति पर सरकारी धन से 3 लाख रुपया क्षतिपूर्ति के तौर पर देने को आश्वस्त करके मामले को ठंडा करने का प्रयास किया। समय बड़ा बलवान होता है। समय के साथ मेरे और मेरे परिवार के आँसू तो सूख गए किन्तु हृदय की वेदना अब तक कम नहीं हो सकी है। सोचा था इस पैसे से अपनी पत्नी के तपेदिक का इलाज करवा कर उसको जीवनदान दे सकेंगे किन्तु न अब सांसद जी सुनते हैं और न ही ये कर्मचारी। आवश्यक दस्तावेज़ उपलब्ध करवाने के बाद भी एक महीने से अधिक का समय निकल चुका है। तुम ही बताओ मैं क्या करुँ?"

और इतना कहकर निराश होकर मणिराम नीचे की ओर देखने लगा और उसके आँसू भोला के हाथ पर गिरने लग गए।

भोला: (मणिराम को सांत्वना देते हुए): "ठीक है बाबा, तुम कल आओ, कोई समाधान बनाते हैं। मैं साहब से व्यक्तिगत अनुरोध करके देखता हूँ।"

मणिराम दुःखी भाव के साथ सोफा से उठकर, भोला को अभिवादन करके वहां से प्रस्थान करता है।

पूरे दिन भोला का मन काम में न लगकर इसी दुःखभरी घटना की ओर था। भोला मन ही मन सोच रहा था: "मणिराम सही था। उसकी आयु ने उसे बूढ़ा नहीं किया था बल्कि ऐसे हृदयविदारक अनुभवों से प्राप्त तनावों का प्रभाव मणिराम के मन-मश्तिष्क पर ऐसा पड़ा होगा कि उसके शरीर ने आवश्यकता से अधिक ऊर्जा व्यय करनी प्रारम्भ कर दी होगी और फलतः वो वृद्ध दिखने लगा। आखिर इस परिवार को किसकी कुदृष्टि लगी थी! यदि ईश्वर कहीं था, तो क्या उसकी छाती नहीं फटी, एक पूरे परिवार का अनिष्ट करते हुए और ये सरकारी कर्मचारी! इनके स्वयं के परिचित जब कार्यालय आते हैं तो ऐसे ही काम चंद दिनों में कर दिए जाते हैं; लेकिन क्या इनकी आत्मा मर जाती है जब किसी ग़रीब अपरिचित आम नागरिक का काम करना होता है! अपने रिश्तेदारों का काम करने में सभी नियम क़ानून को ताक में रखने वाले अनीश बाबू, एक गरीब वृद्ध को नियम कानून समझा रहे हैं। साहब से बात करनी अत्यंत आवश्यक है।" ऐसा सोचते हुए भोला साहब के कक्ष की ओर चल देता है।

उधर मणिराम एक पान की दुकान के पास जाकर रुक जाता है। मणिराम बीड़ी (देशी सिगरेट) पीने का आदी था, और उसके पास बीड़ी समाप्त हो चुकी थी और फिर सरकारी कार्यालय में इस सबकी आज्ञा नहीं थी। मणिराम ये कभी नहीं चाहता था कि सरकारी कर्मचारियों को काम न करने का कोई भी बहाना मिले अतः वो बाहर आने के पश्चात ही बीड़ी पीता था। बीड़ी पीते समय अचानक ही मणिराम को निकट ही चल रहे झगड़े की आवाज़ श्रव्य होती है। दो युवक आपस में किसी विवाद पर झगड़ रहे थे। दोनों हमउम्र (लगभग समान आयु के) थे। झगड़ा बढ़ते-बढ़ते मार-पीट तक जा पहुँचा। मणिराम ने झगडे में पड़ना उचित न समझा। अन्य लोग भी दर्शकों की भाँति उस नाटक-नौटंकी को देख रहे थे कि एकाएक उसमें से एक युवक अत्यंत क्रोध के साथ अपने मोटर-वाहन की तरफ दौड़ता हुआ गया और उसमें रखी लाईसेंसी पिस्तौल निकाल कर लाकर उस युवक पर निशाना तान करके चलाने का प्रयास कर ही रहा था कि अचानक से उस गिरे हुए लड़के में उस मणिराम को लखन दिखा। मणिराम के शरीर ने नियमित ऊर्जा से दुगुनी ऊर्जा उत्पादित करनी शुरू कर दी और उसने एक पत्थर उठा कर उस पिस्तौल ताने लड़के के पिस्तौल पर निशाना लगाया। ऐसे निशाने तो मणिराम ने बचपन में न जाने कितने आमों को तोड़ने हेतु आमों के पेड़ पर मारे थे। निशाना था कि अनुभव कहिये, अपने लक्ष्य पर जा लगा। गोली चली तो सही पर निशाना चूकने की वजह से उस गिरे लड़के के कंधे के पास से छूती हुई निकल गई। उधर मणिराम के इस प्रयास से भीड़ में भी अत्यंत जोश आ गया जिससे भीड़ उस पिस्तौलधारी के पीछे दौड़पड़ी। अपनी जान बचाने के लिए पिस्तौलधारी वहां से भाग खड़ा हुआ। मणिराम उसे नजदीकी सरकारी अस्पताल ले गए। घायल युवक ने अपना नाम अनिरुद्ध बताया और प्रारम्भिक चिकित्सा के उपरान्त मणिराम को काका कहकर उनका धन्यवाद किया। मणिराम ने अनिरुद्ध से इस झगडे का कारण पूछा तो अनिरुद्ध ने बताया कि कुछ पैसों का दाँव था जिसके पैसे थे वो डूब गए थे तो घरवालों से पैसा माँगने का साहस न हुआ और इसी विवाद ने झगडे का रूप ले लिया। मणिराम ने सही शिक्षा देते हुए वहां से घर की ओर फाइल पास न होने के निराशमन के साथ प्रस्थान किया।

उधर भोला साहब के कमरे में पहुँचा।

भोला: "साहब आपकी चाय।"

साहब: (बड़ी प्रसन्नता के साथ): "अरे वाह भोला। मैंने तो चाय का कहा भी नहीं था, पर तुझे कैसे पता कि मेरा मन चाय का है!"

भोला: "साहब आप इतना काम करते हैं, थक भी जाते हैं, तो मैंने सोचा चाय लेता चलूँ।"

साहब: "ये काम तूने बहुत सही किया। पर आज तू बड़ा निराश सा लग रहा है।"

भोला: "बस साहब मन भर आया है।"

साहब: (गंभीरतापूर्वक): "क्या हुआ भोला? तेरे गाँव में सब कुशल-मंगल? पैसों की ज़रूरत तो...?"

भोला: (बात काटते हुए): "नहीं साहब। आपके आशीर्वाद से सब कुशल-मंगल है और यदि धन की कुछ आवश्यकता होती तो निःसंदेह मैं आपके पास आता किन्तु..."

साहब: "बेटा मैं इस कार्यालय का अधिकारी हूँ, यदि कोई आवश्यकता हो तो कह सकते हो, अगर कुछ याचना सरकार से भी करनी होगी तो इस पर विचार किया जा सकता है।"

भोला: (प्रसन्नता के साथ): "सच साहब !"

साहब: (धीरे से): "भोला के लिए, व्यक्तिगत! बोलना नहीं किसी से"

साहब: "चलो अब बात बताओ।"

भोला: (हाथ जोड़कर): "साहब एक बूढ़ा व्यक्ति अपने दफ्तर के चक्कर काट रहा है। उसका नाम मणिराम है। एक महीने से अधिक समय बीत चुका है किन्तु उसकी फाइल स्वीकृत नहीं की जा रही है। उसका बेटा मर चुका है और बीवी अत्यंत बीमार है। आप कुछ करिये साहब!"

साहब: "भोला, व्यक्तिगत तुम्हारा कोई काम हो तो मैंने उस पर स्वीकृति दी..."

भोला: (बात काटते हुए): "साहब यही मान लीजिये कि मेरा ही काम है ये।"

साहब: "भोला ! बेटा सरकारी काम, सरकारी तरीकों से पूर्ण नियमों से ही तो संभव है।"

भोला: "पर साहब आपने अभी कहा कि आप सरकार तक से बात कर सकते हैं।"

साहब: "भोला, दुनिया से लड़ना संभव होता है, पर अपने लोगों से लड़ना उतना भी आसान नहीं।"

भोला: "मुश्किल भी तो नहीं है, साहब"

साहब: "अच्छा, फाइल कहाँ रुकी हुई है?"

भोला: "अनीश बाबू के दफ्तर में"

साहब अनीश बाबू को फ़ोन लगाते हैं।

साहब: "हाँ अनीश"

अनीश: "जी साहब।"

साहब: "एक फाइल आई होगी तुम्हारे पास..."

साहब भोला की ओर देखकर: (धीरे से, फुसफुसाहट के साथ): "नाम क्या है?"

भोला: (धीरे से): "मणिराम"

अनीश: "हेलो!"

साहब: "हाँ हेलो ! एक फाइल आई होगी तुम्हारे पास किसी मणिराम की।"

अनीश: "हाँ साहब आई थी; पर नियमानुसार उसमें सभी दस्तावेज संलग्न नहीं है।"

साहब: "ठीक है अनीश। उन्हें कल बुलाइये। जो भी दस्तावेज प्रपत्र के साथ नियमानुसार संलग्न करना आवश्यक है वो मणिराम को बताइये और उसे एक सप्ताह में पास करके मुझ तक पहुँचाना आपकी ज़िम्मेदारी है। ध्यान रहे इसमें किसी भी तरीके की चूक न होने पाए। यदि वो दस्तावेज उपलब्ध करवाने में अक्षम है तो उसका कोई अन्य विकल्प उन्हें दिया जाए। ठीक है अनीश?"

अनीश: "जी साहब ! मैं कल ही उन्हें बुलवा लेता हूँ।"

साहब इसके बाद फ़ोन कॉल वियोजित कर देते हैं।

साहब: "ठीक है भोला?"

भोला: (हार्दिक प्रसन्नता के साथ): "बहुत-बहुत धन्यवाद, साहब।"

अभिवादन करके भोला, साहब के कार्यालय से प्रस्थान करता है।

बिटिया स्नेहा के पूछने पर मणिराम अनीश बाबू के साथ हुई वार्तालाप बता ही रहे थे कि एकाएक उनका फ़ोन बजता है। स्नेहा उस फ़ोन कॉल को उठाती है।

स्नेहा: "हेलो"

दूसरे अंत से: "हेलो, क्या मणिराम जी से बात हो सकती है?"

स्नेहा: "जी करवाती हूँ।"

स्नेहा: "बाबा, आपके लिए फ़ोन है।"

मणिराम फ़ोन कॉल पर आते हैं।

मणिराम: "हेलो, कौन?"

दूसरे अंत से: "मणिराम जी मैं अनीश बात कर रहा हूँ, तहसील से।"

मणिराम: "हाँ अनीश बाबू, राम-राम"

अनीश: "मणिराम जी, कल 11 बजे आपको मेरे कार्यालय आना है, आपकी फाइल के सम्बन्ध में कुछ बात करनी है।"

मणिराम: "जी साहब।"

अनीश बाबू फ़ोन कॉल वियोजित कर देते हैं।

 

अगले दिन प्रातः ठीक 11 बजे मणिराम अनीश बाबू के कार्यालय पहुँच जाते हैं और उनके कार्यालय के प्रवेश द्वार को खोलते हुए अभिवादन करते हैं:

मणिराम: "राम-राम अनीश बाबू।"

अनीश: "राम-राम। आईये मणिराम जी। बैठिये" इतना कहकर कुर्सी की ओर ऊँगली से संकेत देते हैं।

मणिराम जी कुर्सी पर बैठ जाते हैं।

अनीश: "मणिराम जी, जैसा मैंने कल भी कहा था, आपकी फाइल अस्वीकृत है क्योंकि इसमें कुछ आवश्यक दस्तावेज नहीं लगाए गए हैं। उन दस्तावेजों को बनने में अधिकतम 30 दिन तक का समय लग सकता है, सरकारी नियमावली के अनुसार। पर मुझे वो दस्तावेज अधिकतम तीन दिन में चाहिए।"

मणिराम: (दुःखी होकर): "तीन दिन में कैसे और कहाँ से होगा?"

अनीश: "तुम चाहो तो कार्यालय के बाहर एक व्यक्ति बैठता है “हिमांशु”। वो इस सब में तुम्हारी सहायता कर सकता है। चाहो तो उससे मिल लो।"

मणिराम: "जी अच्छा।"

इतना कहकर मणिराम उस हिमांशु को ढूंढते हुए उस ठिये पर जा पहुँचता है जहाँ पर हिमांशु बैठता है।

मणिराम: "बेटा आप हिमांशु...?"

हिमांशु: "जी मैं ही हिमांशु हूँ, बताईये?"

मणिराम: "अनीश बाबू ने भेजा था। कुछ दस्तावेज तीन दिन में बनवाने थे?"

हिमांशु: "बन जाएंगे। हमारा तो काम ही यही है। दस्तावेज कौन से चाहिए?"

मणिराम: "अनीश बाबू ने कहा वो आपको बता देंगे, एक बार आप उनसे बात कर लो।"

हिमांशु: "जी ठीक है।" इतना कहकर हिमांशु अनीश को फ़ोन कॉल लगाता है।

अनीश: "हाँ हिमांशु?"

हिमांशु: "अनीश बाबू आपने किसी को मेरे पास भेजा है? कौन से दस्तावेज की आवश्यकता है?

अनीश: "स्पीकर पर तो नहीं है तेरा फ़ोन?"

हिमांशु: "नहीं अनीश बाबू"

अनीश: "इसका नाम मणिराम है। इसके दस्तावेज पर्याप्त है लेकिन तू तो जानता है कि एक-एक फाइल पर पूरे विभाग में रेवड़ी बटती है और ये ईमानदारी से काम करवाना चाह रहा है। रोज़ाना ये तहसील के चक्कर काट रहा है लेकिन इसको कोई मुँह करके पैसों की माँग नहीं कर पा रहा है; इसके दीन-हीन दरिद्र से दिखने के चलते। साहब को तो तू जानता है, कोई सामने होगा तो कुछ और कहेंगे और उसके जाते ही वो पैसों की माँग कर देते हैं। नेताओं और बड़े अधिकारियों या प्रेस-मीडिआ वालों की फाइल तत्काल बिना कुछ लिए-दिए पास हो जाती है, पर अगर आम नागरिक की फाइल होती है तो अधिकतम तय सीमा तक जाकर सभी आवश्यक प्रपत्रों के पूरे रहने पर पास होती है या फिर अधिकाँश समय तो होती भी नहीं है और हर फाइल से एक निश्चित धनराशि हर स्तर पर बँटती है। प्रवेश ने अच्छा बनते हुए, पूरा समय लगाकर फाइल को पास करके मुझे सौंप दिया। मैं ठहरा मध्यस्थ, छोटे बाबू और साहब के बीच। पूरी उम्मीदें मुझ पर डाल दी जाती है। बुड्ढे पर मुझे बड़ा तरस आता है पर अगर फाइल पास की तो मेरा पूरा विभाग मेरा दुश्मन बन जाएगा। इतनी-इतनी मासिकी के बाद भी इन निर्लज्ज लोगों की आत्मा मर जाती है। साहब का कॉल आया कि एक सप्ताह में फाइल पास करके मुझे हस्तांतरित करो लेकिन कुछ ही मिनटों बाद दुबारा कॉल आया कि भोला सामने था इसलिए किया था, तीन लाख का भुगतान है कम से कम 10000 रुपये लिए बिना फाइल आगे नहीं आनी चाहिए।"

हिमांशु: (नौटंकी करते हुए): "अरे अनीश बाबू, कैसी बात कर रहे हो। आपने इतना कह दिया कि मणिराम जी आपके परिचित है तो समझिये काम बिल्कुल घर जैसा होगा। तीन दिन तो ज़्यादा बोल दिए, दो दिन में ही बन जाएंगे सभी दस्तावेज। अच्छा अभी मैं फ़ोन कॉल वियोजित कर रहा हूँ।"

उधर मणिराम मन ही मन प्रसन्नता के साथ सोच रहे थे हो न हो इसमें भोला का सहयोग है, कि अचानक इस सोच से हिमांशु ने उन्हें बाहर निकला:

हिमांशु: "मणिराम जी!"

मणिराम: "हाँ बेटा।"

हिमांशु: "बात हो गई है। तीन दस्तावेज नियमानुसार बनेंगे। कोई और होता तो 25000 रुपया लगता..."

मणिराम: (भौचक्के होकर): "25000 रुपया..."

हिमांशु: (बात काटते हुए): "हाँ 25000 रुपया लगता है। फीस इत्यादि के उपरान्त सभी फाइल को रोककर तुम्हारा काम करने के लिए सम्बंधित विभाग भी तो अपना सुविधा-शुल्क लेंगे। लेकिन तुम तो अनीश बाबू के परिचित हो तो मैं तुम्हारी फाइल को व्यक्तिगत तौर पर सम्भालूंगा। तुम 12000 दे देना।"

मणिराम सोचने लगे कि पूरे घर में तो केवल दो हज़ार रुपया ही है और फिर पत्नी का उपचार..

हिमांशु: "किस सोच में डूब रहे हो मणिराम। ये कोई इतनी बड़ी रकम नहीं है और फिर फाइल पास हो गई तो तीन लाख मिलेंगे..."

मणिराम: (सर झुकाकर): "बात तीन लाख की नहीं है। पूरे घर में केवल दो हज़ार रुपया ही है।"

हिमांशु: "तो किसी परिचित से उधार ले लो!"

मणिराम: "गरीब को कौन उधार देता है!"

हिमांशु: "ठीक है, आपके लिए 10000 रुपया, आखिरी। अंतिम प्रस्ताव। अगर नहीं स्वीकारना तो इससे कम में संभव नहीं। यदि स्वीकार हो तो 2 घण्टे में बता देना।"

इतना कहकर वो कार्यालयी दलाल हिमांशु, पीड़ित मणिराम पर मानसिक दबाव बनाने हेतु, अपने ठिये से उठ कर चला जाता है।

इस धनराशि की व्यवस्था कहाँ से और किस तरह की जाए, इसी दुविधा में सरकारी तंत्र को मन ही मन कोसते हुए मणिराम बीड़ी की तलब में पान वाले की दुकान पर जा पहुँचता है।

बीड़ी पीते-पीते कई विचार मणिराम को सोचने पर विवश कर देते हैं, "लोगों को क्या ही आवश्यकता होती है दूसरों के साथ धोखाधड़ी करने की। धन और संपत्ति को गलत तरह से अर्जित करने के चक्कर में कोई इतना भावशून्य और विवेकशून्य कैसे हो सकता है कि वो ये तक नहीं सोच पाता कि जिस व्यक्ति का वो धन, वो संपत्ति है, जिसको अर्जित करने के लिए उसने दिन-रात एक किये होंगे, न जाने किस तरह अपनी दैनिक आवश्यकताओं में समझौता किया होगा, और उस धन-संपत्ति के छिन जाने पर उसके और उसके परिवार पर क्या ही इसका दुष्प्रभाव पड़ेगा? क्यों लोगो की जान की कीमत इस देश में इतनी कम है कि कोई भी किसी की हत्या करने से पहले उसके परिवार तक की नहीं सोचता। ये तक नहीं सोचता कि यदि मरने वाले की जगह हत्यारे का कोई अपना होता तो उसे कैसा लगता! दूसरों की अर्जित सम्पत्तियों, ज़मीनो पर अवैध कब्ज़ा इतना आसान क्यों है इस देश में। यदि निर्लज्ज पुलिस उस दिन चंद पैसों के लिए अपनी अंतरात्मा न बेचती तो मेरा लखन आज जीवित होता और उसके परिवार को इतनी कठिनाइयों का सामना न करना पड़ता। तब ही ऐसे हराम के पैसों पर अपनी अंतरात्मा बेचने वालों का परिवार बहुत ही बुरी तरह बर्बाद होता है। पर मैंने किसके साथ गलत किया। मेरे साथ आखिर ये सब क्यों?" इसी सोच में डूबा मणिराम बीड़ी पीते पीते पुनः मन की वेदना न समेट सकने की स्तिथि में फफक-फफक कर रो उठा कि एकाएक एक आवाज़ ने उसका ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया:

"नमस्ते, काका"

मणिराम ने उसे पहचानने का प्रयास किया। ये वही अनिरुद्ध था जिसका जीवन कल मणिराम ने अपने लखन की स्मृति में बचाया था।

मणिराम: "नमस्ते"

अनिरुद्ध: "काका पहचाना!"

मणिराम: "हाँ, बेटा। तुम अनिरुद्ध हो। घाव कैसा है? दर्द तो होगा ही?"

अनिरुद्ध: "पहले से ठीक है काका। आप रो क्यों रहे थे?"

मणिराम: "बस ऐसे ही बेटा?"

अनिरुद्ध: "ऐसे भला कोई रोता है? या तो प्रसन्नता में रोते हैं या फिर दुःखी होने पर ! आपका चेहरा तो दुःखी होने का संकेत दे रहा है?"

मणिराम: "नहीं बेटा, बस सोच रहा था कि लाखों रुपये कमाने वाले, दुनिया भर का भत्ता लेने वाले कुछ सरकारी कर्मचारी एक गरीब का उत्पीड़न प्रत्येक सीमा के परे करते हैं। इनका पेट न जाने किस मिटटी से बनाता है भगवान, जो इनकी तृष्णा कभी नहीं मिटती, इनकी पैसों की भूख कभी शान्त नहीं होती।"

अनिरुद्ध: "कुछ तो अत्यंत गम्भीर है, पर मुझे जानना है, काका। अगर आप अपना बेटा मानते हो तो सब सच बताना पड़ेगा।"

मणिराम को बेटे की दुहाई ने पुनः भावुक कर दिया। अश्रुपूरित नयनों के साथ मणिराम ने सब कुछ अनिरुद्ध को बता दिया। अनिरुद्ध ने अपने आँसू पोंछते हुए मणिराम को आश्वस्त किया कि कल उनका सभी कार्य सफल हो जायेगा और उनकी फाइल भी कल ही पास हो जायेगी और इसी के साथ अनिरुद्ध ने मणिराम को कल प्रातः 11 बजे तहसील के मुख्य प्रवेश द्वार पर मिलने को बोला।

मणिराम इसी सोच में मग्न थे कि जिस कार्य में इतने विघ्न हो उसको ये 25-30 वर्षीय युवक कैसे दूर कर पायेगा। क्या फाइल पास होगी? भविष्य के गर्भ में दबे इन प्रश्नों पर कल्पनाओं से उठते उत्तर, मणिराम को और गहन कल्पनाओं में जाने को मजबूर कर रहे थे। ऐसे में अधिक न सोचते हुए, मणिराम ने घर जाने का निर्णय किया।

अगले ही दिन प्रातः तय समय पर मणिराम और अनिरुद्ध तहसील के मुख्य प्रवेश द्वार पर मिले। अनिरुद्ध ने समझाया कि आपको साहब के कक्ष में अंदर जाना है और साहब को अपना परिचय देते हुए, फाइल की अद्यतन स्तिथि जाननी है, मैं आपके बाद आऊंगा।

मणिराम साहब के कक्ष के बाहर पहुँचता है। साहब का व्यक्तिगत सहायक बिना पूर्व अनुमति के मणिराम को अंदर जाने से रोकता है कि अचानक पीछे से वहां अनिरुद्ध आ जाता है और वो आँखों द्वारा उस सहायक को संकेत देता है कि मणिराम को अंदर जाने दिया जाए। सहायक बिना रोक-टोक किये मणिराम को साहब के कक्ष में जाने की स्वीकृति दे देता है। मणिराम जैसे ही कक्ष में प्रवेश करते हैं, अनिरुद्ध छुपकर उस कक्ष के द्वार को थोड़ा खुला रखने के लिए पर द्वार-रोधक लगा देता है ताकि सभी वार्तालाप बाहर स्पष्ट सुनाई दे सके।

मणिराम: "साहब जी राम-राम"

साहब: "राम-राम, आपका परिचय?"

मणिराम: "साहब मेरा नाम मणिराम है, मेरी एक फाइल अनीश बाबू के कार्यालय में लंबित है। पिछले एक महीने से इस कार्यालय के चक्कर काट रहा हूँ किन्तु मेरी फाइल पास नहीं की जा रही।"

साहब: "तो मेरे पास किस लिए आये हो? अनीश से बात करो।"

इतना कहकर साहब भोला को बुलाते हैं, किन्तु अनिरुद्ध भोला को बाहर ही रोक लेता है और भोला को अनीश बाबू के कार्यालय से मणिराम की फाइल लाने को बोलता है।

साहब कोसते हुए व्यक्तिगत सहायक को बुलाते हैं लेकिन वो भी अनिरुद्ध की वजह से अंदर नहीं जाता है।

साहब अत्यंत गुस्से में मणिराम को वहां से तत्काल जाने का आदेश देते हैं। मणिराम वहीँ रोते-रोते ज़मीन पर बैठ जाता है और क्रन्दित-स्वर में कहता है "साहब मेरी पत्नी मर जाएगी। इस तंत्र ने मेरे बेटे की भी बलि ले ली।"

साहब: "मरते हैं तो मर जाये, सभी काम नियमानुसार होंगे। ऐसे किसी के दबाव में हम कोई काम नहीं करते। हर किसी का काम आवश्यक है और प्रत्येक व्यक्ति को बस अपना दर्द नज़र आता है।"

अनिरुद्ध मणिराम की उस फाइल में उस अंग्रेजी में भरे हुए प्रपत्र और उसके साथ लगे सभी अंग्रेजी दस्तावेजों का अवलोकन करता है। वो ये देखकर स्तब्ध रह जाता है कि आखिर किस अन्य दस्तावेज की आवश्यकता शेष है? अनिरुद्ध अनीश से जब इस सम्बन्ध में पूछताछ करता है तो अनीश उससे झूठ नहीं बोल पाता और सब सच बता देता है। क्रोध के आवेश में अनिरुद्ध साहब के कक्ष में प्रवेश करता है।

साहब: "अनिरुद्ध, तुम यहाँ कैसे?"

अनिरुद्ध: (मणिराम की ओर ऊँगली से संकेत देकर): "ये कौन है, और ऐसे क्यों रो रहे है?"

साहब: "इनकी एक फाइल आई हुई है तहसील में। दस्तावेज अधूरे हैं और ये हमसे अनैतिक तरीकों से फाइल पास करने का दबाव बना रहे हैं।"

अनिरुद्ध: "अच्छा साहब मुझे 10000 रुपयों की आवश्यकता है। मेरे महाविद्यालय का एक प्रोजेक्ट पूरा करना है।"

साहब: "रुको।" इतना कहकर साहब अनिरुद्ध को 10000 रुपये जेब से निकाल कर दे देते हैं।

मणिराम रोते-रोते मन ही मन सोच रहा होता है कि साहब सच में दिल के बहुत अच्छे हैं, जैसा भोला ने भी कहा था। अन्यथा आज के समय में कौन किसी अपरिचित को एक रुपया भी देता है। पर ये मेरी सहायता क्यों नहीं करते। संभवतः ये मेरे ही भाग्य का दोष है और इतना कहकर पुनः रोने लगता है।

अनिरुद्ध: (फाइल पर 10000 रूपये रखकर साहब को देते हुए): "फाइल के सभी दस्तावेज पूरे हो गए हैं। फाइल पास कर दो।"

साहब: (अनिरुद्ध की इस धृष्टता से क्रोधित होकर चीखते हुए): "ये क्या बदतमीज़ी है!" और इसी के साथ अनिरुद्ध के गाल पर एक ज़ोरदार तमाचा रख देते हैं।

अनिरुद्ध: "बदतमीज़ी ! नहीं साहब नहीं ! ये बदतमीज़ी कहा है? मुझे आपके कार्यालय ने सब सच बता दिया है। दस्तावेज में कमी नहीं है, कमी आपकी नीयत में है। नीयत में खोट है आपकी साहब जी।"

साहब: (गुस्से से): "अपनी ज़ुबान को लगाम दे, पागलों की तरह कुछ भी तमाशा करने की आवश्यकता नहीं है। ये मेरा कार्यालय है, घर नहीं।"

अनिरुद्ध: "अच्छा साहब सोचिये, यदि आपके पास ये नौकरी नहीं होती, आपकी कलम शक्तिविहीन होती। एक आम नागरिक होते आप भी, इसी मणिराम की तरह, और आपके बेटे को भरे बाजार में कोई आपके कार्यालय के पास ही जान से मार देता और इसी मणिराम की तरह आप भी फाइल लेकर हर किसी के कार्यालय जाकर उससे प्रार्थना करते, भीख मांगते, लेकिन आपकी फाइल सिर्फ इसलिए रोकी जाती कि उस कार्यालय को अपना ही काम करने के लिए आपसे अनैतिक और अवैधानिक धन की माँग करनी है। कैसा लगता उस समय आपको?"

साहब: (कुटिलतापूर्ण मुस्कान के साथ): "ऐसा कभी न हुआ और न होगा..."

अनिरुद्ध: (बात काटते हुए): "पूरा तो नहीं पर आधा हो चुका होता अगर ये मणिराम जी नहीं होते।"

साहब: "जो बोलना है साफ़-साफ़ बोल। मेरे कार्यालय में नाटक-नौटंकी करने की कोई आवश्यकता नहीं है।"

अनिरुद्ध: "स्पष्ट ही कहा है, पर आप समझना नहीं चाहते। अभी दो दिन पूर्व आपके बेटे के चोट लगी थी। बाइक से गिरने के कारण। वो झूठ था। आपके बेटे के दिल पर पिस्तौल से गोली चलाई गई थी, इन्ही मणिराम की वजह से आज आपका बेटा जीवित है।"

मणिराम भौचक्का होकर अनिरुद्ध की ओर देखने लगता है। अनिरुद्ध मणिराम की प्रश्नपूर्ण निगाहों को भाँप लेता है।    

अनिरुद्ध: "हाँ काका, मैं इन साहब का वही बेटा हूँ जिसकी तस्वीर पर आपने साहब को फूलमाला चढाने का सौभाग्य नहीं दिया, मुझे जीवनदान देकर। मैं आपसे क्षमाप्रार्थी हूँ कि आपकी फाइल पर इस वज़न के चक्कर में इस विगत एक महीने में आपके और आपके पूरे परिवार का न जाने कितना वज़न क्षय हुआ होगा, कि आखिर कहाँ से इतना धन आएगा और न जाने फाइल कब पास होगी।"

साहब बस अपलक अनिरुद्ध को देखने में लगे हुए थे। इस पूरे प्रकरण को अपने कानों से सुन रहे अन्य कर्मचारियों को साहब की तरह ही ये अनुभूति हो चुकी थी कि ऐसे गलत तरह से अर्जित किया जा रहा धन, अपने साथ एक पीड़ित और उसके परिवार की हाय भी ला रहा होता है। ऐसी वेदना और दर्द में भीगे पैसो से भला कौन से सपनों के महल बनाये जा सकते हैं!

आँसू पोंछते हुए साहब ने तत्काल अपना फाउंटेन पेन निकाल कर उस फाइल पर अपने हस्ताक्षर करके उसे स्वीकृत किया और तत्काल ही मणिराम को उसका सरकारी धन उपलब्ध करवाया।

साहब में ऐसा परिवर्तन सहज ही था। जीवन का एक सर्वोत्तम पाठ आज उन्हें नियति ने सिखा दिया। लखन की उस अंतिम कमाई से उसकी प्यारी माँ का जीवन संकट से बाहर आ चुका था। स्नेहा भी अपनी स्वस्थ माँ के प्रेम और वात्सल्य में अत्यंत आनंद का अनुभव कर रही थी।…

 

लेखक

मयंक सक्सैना 'हनी'

पुरानी विजय नगर कॉलोनी,

आगरा, उत्तर प्रदेश – 282004

(दिनांक 01/नवंबर/2024 को लिखी गई एक कहानी)