एक समय की बात है, एक छोटे से गाँव के किनारे एक चरवाहा अपने झुंड की भेड़ों को लेकर रहता था। उसकी भेड़ें उसके लिए केवल पशु नहीं थीं, बल्कि उसके परिवार जैसी थीं। हर शाम, चरवाहा बड़े प्रेम से अपनी भेड़ों को हरी-भरी वादियों में चराता और जब सूरज ढलता, तो वह उन्हें सुरक्षित बाड़े में पहुँचा देता। वहाँ वह दरवाजों को बंद कर देता ताकि रात के अंधेरे में कोई भेड़िया या अन्य शिकारी उनके पास न पहुँच सके।
एक रात, जंगल के भूखे भेड़िए बाड़े के पास आए। उन्होंने हर तरफ से देखा, लेकिन बाड़ा मज़बूत था, और दरवाज़े भी बंद थे। अंदर जाना उनके लिए मुमकिन नहीं था। कुछ सोचने के बाद, भेड़ियों ने एक चालाक योजना बनाई। अगली रात, भेड़ियों का झुंड चरवाहे के घर के पास आकर जोर-जोर से प्रदर्शन करने लगा। वे "भेड़ों की आज़ादी" और "भेड़ों के अधिकारों" के नारे लगाने लगे। ये भेड़िए बड़े होशियार थे, उन्होंने ऐसे शब्दों का इस्तेमाल किया जो भेड़ों को प्रभावित कर सकते थे।
जैसे-जैसे भेड़ों ने बाहर से आती हुई आवाज़ें सुनीं, वे धीरे-धीरे भेड़ियों की बातों में आ गईं। "आज़ादी!" का शोर सुनकर भेड़ों के मन में भी स्वतंत्रता का लालच जाग उठा। कुछ उत्साही भेड़ों ने नारे लगाने शुरू कर दिए, और धीरे-धीरे पूरा झुंड बाड़े से बाहर निकलने की कोशिश में जुट गया। भेड़ियों के उकसावे में आकर भेड़ों ने अपने सींगों से बाड़े की दीवारों और दरवाज़ों को मारना शुरू कर दिया। अंततः दीवारें और दरवाजे टूट गए। कई भेड़ें घायल हुईं, कुछ की सींग टूट गई, लेकिन उन्हें इससे कोई परवाह नहीं थी, क्योंकि अब वे खुद को "आज़ाद" महसूस कर रही थीं।
बाड़ा टूटते ही भेड़ें बाहर खुले मैदान में निकल आईं। आज़ादी की खुशी में वे इधर-उधर दौड़ने लगीं, लेकिन तभी उन्होंने देखा कि भेड़िए उनके पीछे-पीछे आ रहे हैं। चरवाहा अपनी लाठी लेकर दौड़ा और चिल्लाया, "रुको! वापस आओ!" लेकिन उसकी आवाज भेड़ों तक नहीं पहुँची। उन्होंने अपने चरवाहे की चेतावनियों को नजरअंदाज कर दिया।
भेड़ियों ने मौका देखकर, जैसे ही भेड़ें बाड़े से बाहर निकलीं, उन पर हमला कर दिया। रात का अंधेरा भेड़ों के लिए खतरनाक हो चुका था, और भेड़िए उस रात का दावत मनाने लगे। कुछ समय बाद, सब शांत हो गया।
अगली सुबह जब चरवाहा बाड़े के पास पहुँचा, तो उसने वहाँ का दृश्य देखकर अपनी आँखों पर विश्वास नहीं किया। जहाँ भेड़ों ने अपनी "आज़ादी" पाई थी, वहाँ केवल लाशों के टुकड़े और खून से लथपथ हड्डियाँ पड़ी थीं। चरवाहे की आँखों में आँसू थे। उसकी भेड़ें, जो उसके लिए परिवार जैसी थीं, अब इस दुनिया में नहीं थीं।
शासक अच्छा हो लेकिन प्रजा मुर्ख हो जो किसीके बहकावे में आसानीसे आ जाती हो तो उनका पतन निश्चित है। हमारे भारत में लोकगण इतने दक्ष और दूरदर्शी थे की एक बार उनका राजा वेन जो राजगादी के लिए लायक नहीं था । उनको पकड़ कर सता से बेदखल कर दिया।
"मूर्ख प्रजा से राष्ट्र का विनाश होता है" – इस विचार में एक गहरी सच्चाई छुपी है, जो समाज, देश, और सभ्यता के उत्थान या पतन का कारण बन सकती है। इसके आधार पर कुछ प्रेरणादायक और जागरूकता फैलाने वाले विचार प्रस्तुत हैं:
ज्ञान से राष्ट्र का निर्माण होता है, अज्ञान से विनाश।
जब जनता जागरूक, शिक्षित और सजग होती है, तब राष्ट्र की प्रगति सुनिश्चित होती है। अज्ञानता हमें विकास से दूर करती है और समाज में अस्थिरता लाती है।
समझदार नागरिक मजबूत राष्ट्र का आधार होते हैं।
एक सशक्त राष्ट्र वही है जहाँ नागरिकों में सोचने-समझने की शक्ति हो। ऐसे नागरिक ही राष्ट्र के हित और भविष्य को संवार सकते हैं।
मूर्खता केवल व्यक्तित्व का नहीं, राष्ट्र का भी पतन कर सकती है।
जब लोग बिना ज्ञान के, बिना जिम्मेदारी समझे फैसले लेते हैं, तो इसका असर संपूर्ण समाज पर पड़ता है और धीरे-धीरे राष्ट्र को नीचे की ओर धकेलता है।
मूर्खता से मुक्ति, राष्ट्र के विकास की कुंजी।
समाज की उन्नति तब तक संभव नहीं जब तक उसकी जड़ें मूर्खता में फँसी हों। समझ और विवेक से भरे समाज ही सच्चे लोकतंत्र का निर्माण