**मैं मंच हूँ**
मैं मंच हूँ, जो कई मंच जीवियों का अड्डा है। वैसे आजकल मैं मंच कम और अड्डा ज्यादा हो गया हूँ, अखाड़ा भी कह सकते हैं। मैं अपने शहर का इकलौता सार्वजनिक मंच हूँ, सार्वजनिक भागीदारी से ही बना हूँ। मजदूर के पसीने को ठेकेदार की मिलावट के चूने और सीमेंट में घोलकर बनाया गया है। जल्दी ही शायद पुरातत्व विभाग की नज़र मुझ पर पड़े और मुझे शहर की इकलौती पुरातात्विक धरोहर घोषित कर दे। मेरे पास ही एक खाली मैदान आवंटित कर दिया गया था। पास के मकान वालों ने अपनी 'वसुधैव कुटुंबकम्' की परंपराओं को निभाते हुए मेरी बाउंड्री से हटकर काफी कुछ हिस्सा अपने आँगन में समेट लिया है। मेरे पास ही एक बूढ़ा बरगद का पेड़ है, जो मेरे साथ ही बूढ़ा हो चला है। कुछ ही दिनों की बात है, ये भी इंतजार कर रहा है कि भूतों-चुड़ैलों के लिए परमानेंट होस्टल बन जाए।
शहर में आवास की समस्या बढ़ी है। आप लोग ज़िंदा लोगों को रहने के लिए जगह नहीं देते, तो मरे हुए लोगों को कौन देगा? मैदान बहुउद्देशीय है—दिवाली पर टेंडर की घपलेबाज़ी से उठाई गई फटाका शॉप्स, हर साल गांधी जयन्ती पर लगने वाला खादी मेला। खडी मेला जहाँ झूले, चाट-पकौड़ों के ठेले,अचार मुरब्बों की दूकान,दाद खाज खुजली के मलहम,आँखों के सुरमा बेचने वालों के बीच इक्की-दुक्की खादी की दुकानें भी दिख जाती हैं। वैसे भी खादी अब आम आदमी के बस की बात नहीं रही, वो कुछ खास नेता टाइप के लोगों के लिए ही रह गई है। सरकारी स्कूल का प्लेग्राउंड भी यही है, और सुबह घूमने वालों का वॉकिंग ग्राउंड भी। हर साल राम के भेष में कोई न कोई रावण यहाँ रावण को जलाता है। हर साल रावण की ऊंचाई बढ़ती देखी है।
रावण को जलाने की होड़ में पिछले साल मंच पर ही सर फुटव्वल हो गया था। दोनों पार्टियाँ अपने-अपने राम लेकर आईं। पहली बार राम-राम के बीच युद्ध देखा। बड़ी मुश्किल से दोनों को अलग किया गया, तब तक किसी मनचले ने खुद ही रावण के पीछे जाकर आग लगा दी। लेकिन फटाके सारे फुस्स हो गए, एक भी नहीं चला। रावण ने जलने से ही मना कर दिया। रावण बनाने वाले कारीगर पिछली बार मजदूरी पूरी न मिलने से खफा थे, और इस बार तो वह भी नसीब नहीं हुआ।
चुनावी दौर में मेरी कुछ सुध ली जाती है। लेकिन आजकल कार्यकर्ताओं के बीच कुर्सियों के लिए होने वाली धमाचौकड़ी से ऐसा लगता है, जैसे मेरी छाती पर मूंग दल रहे हों। अरे, मूंग दलनी है तो आम जनता पर दलो, मुझे तो बख्श दो। कितने ही झूठे प्रपंच और घोषणाओं के पुछल्ले मेरे ऊपर से छोड़े जाते हैं। मेरी कसमें खाई जाती हैं—"अगर ये नहीं कर पाया तो मंच पर दुबारा मुँह नहीं दिखाऊँगा"—और दुबारा मुँह दिखाते भी नहीं हैं, वादा ही ऐसा करके जाते हैं।
मेरे बगल में लगी ईंटें धीरे-धीरे सरक रही हैं। यहाँ पड़ा ईंटों का ढेर धीरे-धीरे कम हो रहा है, लेकिन एक तसल्ली है कि कम से कम शहर में बन रही इमारतों में तो काम आ रही हैं। दीवारों के पास ही पब्लिक सुलभ शौचालय बन गया है, बिना छत के.., जो कुत्तों और आदमियों दोनों के लिए समान रूप से काम आ रहा है। मुझे तो कोई फर्क नजर नहीं आता कुत्तों और आदमियों में। किसी ने यहाँ लिख भी दिया है—"देखो, कुत्ता मूत रहा है"—यह देखकर कुत्ते थोड़े कम हो गए, लेकिन आदमी अभी भी अपना काम कर रहे हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि वे आदमी हैं, कुत्ते नहीं। ये कुत्तों के लिए चेतावनी है।
पहले जब यहाँ राम लीलाएं होती थीं, तो रामलीला समिति क्या गज़ब का मंचन करती थी। लेकिन जब से रामायण टीवी पर आई, लोगों ने इंटरेस्ट लेना बंद कर दिया। समिति वालों पर राम दरबार में आई रकम का गबन करने का इल्ज़ाम लगा, और रामलीला भी बंद हो गई। कवि सम्मेलन होते थे। धीरे-धीरे पूरा शहर कवि-मय हो गया। हर गली-मोहल्ले में एक न एक कवि अपनी पूँछ हिलाते मिल ही जाता था। मंच पर कवियों की भीड़ इतनी होने लगी कि मंच छोटा पड़ने लगा, और माइक की लूट-खसोट शुरू हो गई।
शहर के एक लाडले कवि, जो खुद पहले विख्यात हुए, फिर महाविख्यात और अब तो विश्वविख्यात का दर्जा पा गए, जब से उन्हें एक एनआरआई के जुगाड़ से अंतरराष्ट्रीय खिताब मिल गया था । एक बार जनता ने उन पर टमाटर और अंडों की बारिश कर दी, तो वे माइक लेकर भाग गए। तब से कवि सम्मेलन बंद हो गए। अब मैं सिर्फ और सिर्फ कुछ इक्की-दुक्की प्रेम कहानियों का मंच हूँ, जहाँ रात के अंधेरे में प्रेमी जोड़े आकर प्यार की पींगे बढ़ाते हैं, चांद-तारे तोड़ लाने की कसमें खाते हैं।
शहर के कुछ बेसहारे और भटके हुए नौजवान भी यहाँ आते हैं, जो गांजा-चरस के सहारे पले-बढ़े हैं। चोरी-चकारी से जीवन यापन करने वालों के लिए भी मैं आश्रय स्थली हूँ, जहाँ वे आकर ईमानदारी से अपने हिस्से का बाँटकर अपनी रोजी रोटी का इंतज़ाम करते हैं। यूँ तो मैंने होली का दंगल देखा है, नीली छतरी वाले का मेला देखा है, लेकिन सब बीते ज़माने की बातें हैं।
मैंने यहाँ कई लोगों को फर्श से अर्श पर जाते और अर्श से फर्श पर गिरते देखा है।
“तुमसे पहले वो जो इक शख्स यहाँ तख़्त-नशीं था,
उसको भी अपने ख़ुदा होने पे उतना ही यक़ीं था।”
मेरा हश्र भी उस बूढ़े माँ-बाप की तरह हो रहा है, जो घर के आँगन में उपेक्षित पड़े अपने गिने-चुने दिनों को गिन रहे हैं।
बस यूँ ही फिराक गोरखपुरी का यह शेर याद आ गया—
“अजनबी शहर के अजनबी रास्ते,
मेरी तन्हाई पर मुस्कुराते रहे।”
रचनाकार – डॉ. मुकेश असीमित
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