आया था मैं जब दुनिया में,
मां बाप मेरे थे मुस्करा उठे ।
इकलौता ऐसा दिन था जब रोता देख मुझे,
वो दोनों थे खुश हो रहे ।
क्योंकि उसके बाद फिर कभी आई नहीं,
आंखों में आंसू की धार मेरे ।
चलने की कोशिश में जब गिरता था मैं,
आंसू की बूंदें आईं आंखों में मेरे ।
लेकिन मेरे रोने से पहले ही,
एक आवाज पड़ी कानों में मेरे ।
लड़की नहीं हो तुम फिर,
ये आदत किसने लगाई तुम्हें !
फिर ये बात सिखाई,
मिल कर मुझको सभी ने ।
लड़का हो तुम और,
लड़के कभी नहीं हैं रोते ।
छोटा था मैं इतना कि,
समझ इतनी नहीं थी मुझमें ।
फिर चोट लगने पर भी सदा,
आंसू अपने लगा रोकने ।
बड़ा हुआ फिर धीरे धीरे ,
ये बात बिठा कर अपने मन में ।
कुछ भी हो जाए, आंसू कभी भी,
नहीं आ सकते इन आंखों में ।
बचपन से ही टॉपर था मैं,
डिगा आकर के नौवीं में ।
क्योंकि उस वक्त मिला था धोखा,
मुझको अपनी दोस्ती में ।
सबसे अच्छा दोस्त था छूटा,
एक छोटी सी गलतफहमी से ।
रोना भी आता था मुझको पर,
रोक लेता था आंसू इन आंखों में ।
फिर खुद ही संभाला खुद को,
आगे बढ़ा इस जिंदगी में ।
क्योंकि ये सब सोचने का,
समय नहीं था मेरे जीवन में ।
सपना था कि फौजी बनूं मैं,
देश का रक्षक बन करके ।
पर मेरे इस सपने से,
मेरी मां डरती थीं ऐसे ।
लडूंगा सीमा पर खड़े हो,
एक मैं ही अकेला जैसे ।
खैर, छोड़ दिया इस सपने को,
और ख्वाब नया देखा मैंने ।
वैज्ञानिक मैं बनूंगा और,
आविष्कार करूंगा नए नए ।
पर इसी वक्त पिता भी मेरे,
साथ हमारा छोड़ गए ।
कांधे पर लेकर अर्थी उनकी,
शमशान घाट पहुंचा था मैं ।
किसी ने ना पूछा हाल मेरा,
कि अंदर से कैसा हूं मैं ।
तब भी मैं रो ना सका था,
इस धारणा के कारण समाज के ।
इस छोटी सी उम्र में थी आ गई,
परिवार की जिम्मेदारियां मुझ पे ।
सपने सारे छोड़ कर अपने,
काम करने चल पड़ा मैं ।
ख्वाबों कर अपने जला कर अर्थी,
जिम्मेदारियां पूरी करने लगा मैं ।
तकलीफ तब भी बहुत हुई थी,
पर रो नहीं सकता था मैं ।
कहने को था बहुत कुछ पर,
किसी को कुछ बता नहीं सकता था मैं ।
धीरे धीरे ये समय भी बीता,
और वो आई मेरे वीरान जहां में ।
लगा था कि संगिनी होगी मेरी,
वो इस जालिम दुनिया में ।
खोल कर दिल के दरवाजों को,
इसमें उसे बसाया था मैंने ।
पर जब मुझको छोड़ गई वो,
तब भी रो नहीं सका था मैं ।
उससे भी कुछ बोल न पाया,
जिस लड़की से शादी की मैंने ।
आखिर वो भी आई थी अपना,
घर छोड़, मेरे मकान को घर बनाने ।
जब बेटी फूल सी मेरी आई,
पहली बार इन हाथों में मेरे ।
आंखें तब भी भर थीं आईं,
जिन्हें बहने से रोका था मैंने ।
लेकिन सब सोचा सब कुछ,
मैंने अपने बुद्धि विवेक से ।
तब जाकर पहुंचा था मैं,
इस सही निष्कर्ष पे ।
किसने ये निर्णय लिए और,
किसने ये ऐसे नियम बनाए ।
मर्द को दर्द नहीं होता,
हमें ये संभाषण दिए ।
इन्हीं विचारों के चलते,
बाहर से मजबूत बना रहा मैं ।
लेकिन अंदर ही अंदर था,
पूरी तरह से टूट रहा मैं ।
जिस बात का कोई अर्थ नहीं,
उसको था लेकर चल रहा मैं ।
हो गया बहुत अब खुद को,
और प्रताड़ित नहीं करूंगा मैं ।
रोए थें कृष्ण भी तब जब,
राधा का वियोग हुआ था उनसे ।
और तब भी रोए थे जब द्रौपदी का,
हुआ था चीरहरण बीच सभा में ।
रोए थे मेरे राम लला भी,
माता सीता के वियोग में ।
जब क्रोधित होकर इस संसार से,
समा गई थीं वो धरा में ।
इस समाज के आदर्श है जो,
उनके भी आंसू बहे थे ।
फिर हम लड़के आखिर,
क्यों नहीं रो हैं सकते ।
क्यों जब कोई लड़का रोए,
तो हम उसे लड़की हैं बोलते ।
क्या सिर्फ लड़कियों को हक है रोने का,
हम लड़के क्यों नहीं रो सकते ।
बस बहुत हुआ अब ये सब नहीं,
सिखाऊंगा मैं बच्चों को अपने ।
छूट दूंगा उनको कि वो,
पूरे करें अपने सारे सपने ।
भेद कोई नहीं रखूंगा,
अपने बेटी और बेटे में ।
सारे हक बेटी को दूंगा तो बेटे को भी,
अधिकार होगा कि वो भी रो सके ।
पूरा जीवन लग गया मेरा,
केवल ये बात समझने में ।
लेकिन नहीं आने दूंगा,
ये सवाल मेरे बेटे के मन में ।
अधिकार होंगे उसको कि वो भी,
अपने दिल की बात कह सके ।
जरूरत पड़े तो आंसू बहा कर,
अपने दिल को हल्का कर सके ।
जो कुछ भी सह है मैंने अब,
उनको नहीं सहने दूंगा मैं ।
गलत धारणाओं को खत्म कर,
बदलाव ये करूंगा मैं ।
और अब ये परिवर्तन जरूरी है,
केवल मुझमें ही नही, बल्कि इस समाज में ।
समझना होगा लोगों को भी कि,
लड़कों के दुख पर भी ध्यान दें ।
~ देव श्रीवास्तव " दिव्यम "✍️