६ : मैले कपडे
जपान के ओसाका शहर के नजदिक, एक छोटे गाव में एक झेन मास्टर रहते थे। उनकी विद्वत्ता की किर्ती सर्वदूर फैली हुई थी। विश्व के कोने-कोने से लोग उनसे मिलने आते ओैर अपने शंकाओं का समाधान करते थे।
एक दिन अमृतबेला के समय झेन मास्टर अपने एक शिष्य के साथ घुम रहे थे। इतने में एक व्यक्ती उनके पास पहुँचा ओैर गालियाँ देने लगा। उसने झेन मास्टरजी का बहुत अपमान किया, फिर भी मास्टरजी हँसते हुए अपने मार्ग पर चलते रहे। उनका मुस्कुराना देखकर वह व्यक्ती ओैर भी चिढ गया ओैर मास्टरजी के पुर्वजों की निंदा करने लगा। फिर भी उन पर कोई असर ना दिखने के कारण यह व्यक्ती निराश होकर वहाँ से चली गई।
मास्टरजी का शिष्य यह सब घटना देख रहा था। व्यक्ती के चले जाने पर उसने मास्टरजी से पुछा “ मास्टरजी, उस व्यक्ती ने आपको कितना भला बुरा कहा फिर भी आप उसे कुछ नही बोले। उल्टा यह बात सुनकर मुस्कुराते रहे। उसके बात से आप के मनपर कोई भी असर नही हुआ?”
शिष्य के बात पर भी मास्टरजीने मुस्कुराते हुए उसे अपने पिछे आने का इशारा किया ओैर वहाँ से चले गए। कोई जबाब उसे नही मिला। कुछ दुरी पर चलते वह दोनो मास्टरजी के कुटिया के पास पहुँच गए। अंदर जाकर उन्होने अपने कपडे बदले, फिर वह कपडे लेकर शिष्य के पास आए ओैर कहा “ अब यह मैले कपडे तुम पहन लेना।” उन मैले कपडों में से दुर्गंध भी आ रही थी। शिष्य ने कपडे दूर फेंक दिए। मास्टरजी ने कहा “ क्या हुआ? यह मैले, दुर्गंधी युक्त कपडे तुम पहन नही सकते?”
शिष्य ने वह बात सुनकर मुँह मोड लिया। मास्टरजी बोले “ इसी तरह मैं भी उस व्यक्ती के अपशब्दों को ग्रहण नही कर सकता। इतना याद रखना, कोई तुम्हे अपशब्द कहे ओैर वह सुनकर मन गुस्से से भर जाए तो समझ लेना अपने साफ कपडों के जगह उसने फेंके मैले, फटे कपडों का तुमने स्वीकार किया है।”
मतितार्थ, शांत चित्त से अपने विचारों पर अंकुर रख दिया, तो सामनेवाले व्यक्ती ने कितनी भी मानसिक या किसी भी तरह से तकलिफ देने की कोशिश की तो भी हम पर कोई असर नही पड सकता। ऐसी अवस्था प्राप्त करने के लिए साधना मार्ग का अवलंबन करते रहना जरूरी है। यह साधना बरसों की होती है। एक बार अपमान, क्रोध के फोलता के बारे में हम जान गए तो उन विचारों से दुर रहने में जादा समय नही लगेगा। कभी-कभी ऐसा भी होता जाएगा की हम, अपने आप में खुश रहने लगेंगे तो मन में भ्रम पैदा होगा की अब हमे किसी बात पर गुस्सा नही आता। किसी के प्रति मोह पैदा नही होता। इस भ्रम को लेकर जब समाज से टकराते है, तब इन भाव-भावनाओं की परीक्षा होती है। अपना मन कितने काबू में है, यह पता चलता है। अपमानजनक परिस्थितीयों को कितना नजर-अंदाज कर सकते है, प्रसंगावश शांत रह सकते है, इन बातों का अवलोकन समाज में ही कर सकते है। फिर जहाँ सुधार लाया जा सकता है उस बारे में सोच-विचार करते हुए आगे साधना बढाने की कोशिश जारी रखते है। इन सब बातों में जो व्यक्ती हमारे साथ बुरा व्यवहार करता है उसका कुछ फायदा नही रहता, इससे अपने ही मन को शांती मिलती है या तकलिफ होती है। दुनिया का क्षणभंगुरत्व याद रखते हुए अनित्य भावना जागरूक रखनी चाहिए।
दुनिया के अनित्यता के विचार से जीवन जीने का आनंद कैसे ले सकते है? जीवनानंद लेते बिना कैसे जीएंगे? आनंद तो लेना ही है। आनंद मतलब सकारात्मकता। इसके साथ हम जितनी जिंदगी बिताएंगे उतनी वह सँवर जाएगी। सिर्फ सुख में ही नही तो दुःख में भी सकारात्मकता का सहारा नही छोडना है। सुख ओैर दुःख दोनों भी स्थिती है। वह कभी एक जैसी नही रहती, पर एक-दुसरे पर निर्भर भी है। सुख का अतिरेक होने से दुःख की स्थिती पैदा होती है ओैर दुःख का निवारण करने से सुख प्राप्त होता है। साधना से आध्यात्मिक दुःख मतलब रोग, मानसिक विकार का समावेश होता है। उनसे सामना करने कि हिम्मत आती है। आधिभौतिक दुःख मतलब गरीबी, जानवरों से उपद्रव, भुतबाधा इन सब से लढने की क्षमता प्राप्त होती है। आधिदैविक दुःख मतलब प्राकृतिक संकट, प्रकोप में दैवी सहायता मिल जाती है।
जीवन संघर्ष से अपनी जीवनयात्रा शुरू होती है, चलती रहती है, फिर खत्म हो जाती है। पुरे जीवनभर साधना साथ देती रहती है। जीवनमार्ग कितने सजगता से जिया अथवा नकरात्मकता से दैव को कोसते हुए व्यतित किया इस बात का हलकापन तथा भारीपन व्यक्ती खुद महसुस कर सकती है।
झेन मास्टरजी का पढाया पाठ यही दर्शाता है की जिंदगी तो एक बहती धारा है इससे तुम अच्छाई-बुराई जो चाहो वह ले सकते हो। परिस्थिती तुम्हारे हाथ में नही है लेकिन उसमें से कैसे निकलना है यह तुम्हारे हाथ में है।
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७ : सायकल
एक झेन गुरूने देखा, उनके पाँच शिष्य अपने-अपने साइकिल से बाजार से लौट रहे है। जब वह उतरे तब झेनमास्टर ने पुछा “ मुझे एक बात बताओ तुम सब साइकिल क्युँ चलाते हो?”
पहिले शिष्यने जबाब दिया “मैने साइकिल पर आलू का भारी बोझा बांध दिया तो उस वजह से उसका भारी वजन मेरे पीठ पर लादने की जरूरत नही पडी।”
मास्टर ने कहा “ होशियार हो। जब तूम बुढे हो जाओगे तब मेरे जैसे झुककर चलने की तुम्हे जरूरत नही पडेगी।”
दुसरा शिष्य बोला “ मास्टरजी, साइकिल चलाते वक्त पेड-पौधे, खेती, निसर्ग का रुप निहारने में मुझे बडा मजा आता है।”
मास्टरजी बोले “ अच्छी बात है तुम आँख खोलकर जग को देखते हो, निहारते हो।”
तिसरे शिष्य ने कहा “ जब मैं साइकिल चलाता हूँ तब मन में मंत्रजाप करता हूँ।”
इस बात पर मास्टरजीने प्रशंसापूर्वक उस शिष्य से कहा “ बढिया है। जब साइकिल को नया पहिया लगाया जाता है तब साइकिल चलाना आसान हो जाता है। सहजता से किया हुआ सफर सुखद लगता है ओैर मन उस में समा जाता है, इसी तरह से तुम मंत्रजाप तल्लीनता से करते रहना।”
चौथे शिष्य ने कहा “मास्टरजी जब मैं साइकिल चलाता हूँ तब सब जगत, सृष्टी से एकात्मता का अनुभव करता हूँ।”
मास्टरजी ने प्रसन्नता से कहा “ तुम अहिंसा के स्वर्णीम पथ पर अग्रेसर हो, ऐसे ही आगे बढते रहना।”
पाँचवे शिष्य की बारी आयी तो वह बोला “ मास्टरजी, मैं जब साइकिल चलाता हूँ तब सिर्फ साइकिल ही चलाता हूँ।”
पाँचवे शिष्य का जबाब सुनकर मास्टरजी अपने आसन से उठे ओैर शिष्य के पैरों तलें बैठ गए, ओैर बोले “ आज से मैं तुम्हारा शिष्य बन गया।”
मतितार्थ, वे पाँचो शिष्य बाह्य रुप से साइकिल चलाने का एकही काम कर रहे थे लेकिन मनोदशा हर एक की अलग थी। अपने स्वभाव के नुसार उनका उद्दिष्ट अलग-अलग था। हर एक का दृष्टिकोन जानने के बाद मास्टरजी सकारात्मकता से जीवनमूल्य बताते रहे।
लेकिन पाँचवे शिष्यने जब कहा की मैं साइकिल चलते वक्त सिर्फ साइकिल चलाता हूँ, तब मास्टरजी समझ गए यह जो दृष्टिकोन है वह जीवन के बारें में कोई सार नही बताता, बल्की वह जीवनमुक्ती का मार्ग बन जाता है। यही तो झेनयोगा है। सजगता यही तो साधना है। सजगता में विचार नही आते या कम आते है इस कारण संस्कार भी कम बनने लगते है। हर एक विचार मतलब एक-एक जीवन की कडी है। जैसे-जैसे विचार कम होने लगेंगे हमारी जीवन शृंखला कम होती जाएगी। सजगता से पहले तो नकारात्मक विचारों का आना कम हो जाता है, सकारात्मक विचार से जीवन में सुधार आने लगता है अंत में सकारात्मक विचारों का आना भी कम होने लगता है। वह भी एक तरह के विचार ही है उन्हे भी रुकना होगा। पाप-पुण्य की परिभाषा इसी से बनती है ओैर हर एक व्यक्तीनुरूप इसकी परिभाषा अलग-अलग होती है। सार यही है नकारात्मक सोच मतलब पाप ओैर सकारात्मक सोच मतलब पुण्य ऐसा भी रुप हो सकता है। जैसा है वैसा हमने स्विकार किया तभी मुक्ती का मार्ग खुल जाता है। पाप-पुण्य के परे का रास्ता दिखायी देता है। यह इतना आसान भी नही है, लेकिन करते रहना यही साधना है। पहला सुधार नजर आएगा वह, जीवन में जो कठिणाईयाँ आती है तब शांती से हम उससे सामना कर पाते है। निराशा आस-पास भी नही आती। जिस बात को हम बदल नही सकते उस बात की चिंता हम क्यों करे? बाकी चार जो शिष्य थे उन्होने बाहयक्रिया में दिखावा किया। वह बात भी गलत नही है, वह एक अवस्था है। सीखते-सीखते ही उपर जाते है। लेकिन पाँचवे शिष्य ने कोई भी अंतरध्यान का दिखावा किए बिना उसकी अवस्था बता दी जो है वह इसी क्षण में है उसकी गहराई मास्टरजी जान गए। जो अवस्था प्राप्त करना चाह रहे थे उसका रास्ता, मार्ग उन्हे मिल गया तक्क्षण गुरु-शिष्य का अंतर भी समाप्त हो गया। फिर उन्होने अपनी आध्यात्मिक प्रगती अग्रेसर करने के लिए शिष्य से ही शिष्यत्व ले लिया। अध्यात्म में कोई छोटा-बडा नही होता। हर एक की न जाने कितने जन्मों की साधना होती है ओैर उस व्यक्ती का समय आनेपर किसी भी क्षण वह आत्मद्यान प्राप्त कर सकता है।
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