शहर का सबसे नामी-गिरामी इंजीनियरिंग कॉलेज जहां दूसरे शहरों और गाँव से कई छात्र वहाँ पढ़ने के लिए आते, मगर वहाँ न तो पैसों का ज़ोर चलता था और न रुतबे का! वहाँ बस वही पढ़ सकते थे जो योग्य हों।
इसी कॉलेज के उस बड़े से क्लासरूम में फ़िल्हाल ऐसे ही छात्र बैठे थे। वो सब नव विद्यार्थी थे और आज उनका पहला लेक्चर होने वाला था। उस क्लासरूम की एक दीवार पर बनी बड़ी बड़ी खिड़कियों से धूप अंदर आ रही थी। उसी दीवार से सटकर, एक सीट पर वो घुँघराले बाल वाला शिव नामक युवक बैठा था। उसकी गहरी आँखों में जितने सपने थे उतना ही उत्साह भी था, आखिर कॉलेज का सफ़र होता ही ऐसा है!
उसकी नज़रें पूरी कक्षा की सैर कर ही रही थीं जब अचानक वो सबसे आगे बैठी एक लड़की पर टिक गईं, पता नहीं क्यों धूप में खिली हुई वो सुंदर सांवली सूरत उसे जानी पहचानी सी लग रही थी। यूँ तो उसने कई साल से शायद ही किसी लड़की से बात की हो, और ऐसी तो बिलकुल भी नहीं कि उसे याद रह जाए। करता भी कैसे, सरकारी बॉयज़ स्कूल से पढाई की थी उसने और बाकी समय ढाबे पर काम करने में निकल गया था।
तो फिर यह लड़की कौन थी?
वो फिर उसे निहारने लगा, साँवली रंगत, गहरी भूरी आँखें, कमर तक आते घुंघराले बाल और चेहरे पर पूरी जहान की मासूमियत, अगर शिव को वो जानी पहचानी न भी लगती तब भी शायद उसका रूप उसे मोहित कर लेता।
तभी सबके सिर दरवाज़े की तरफ़ घूमें और एक अधपके बाल वाले प्रोफेसर भीतर आ गए। इसी बीच उस लड़की का सिर भी हल्का सा दूसरी तरफ़ हुआ और शिव को वो दिख गया, उसके दाहिने गाल पर एक निशान था जिससे वो भली भाँति परिचित था।
प्रोफेसर के सम्मान में सब खड़े हो गए थे। उन्होंने हाथ से सबको बैठने का इशारा किया और आगे बैठे कुछ बच्चों से अपना परिचय देने को कहा जिनमें वो लड़की भी शामिल थी।
शिव को अब अंदाज़ा था कि वो कौन हो सकती है और उसने अपना नाम बताकर उस अनुमान पर मोहर भी लगा दी। बस उनका नाम सुनते ही शिव के चेहरे पर एक भीनी सी मुस्कान खेल गई।
फ़िर तो क्या लेक्चर और क्या कॉलेज ! वो तो बीती यादों मे गोते लगाता हुआ पहुँच गया मन्दिर के उस पवित्र आंगन में, उन भक्तिगान से गुंजित गलियों में, उन फूलों से महकते बगीचों में, जहाँ "गौरी-शंकर" के घर में वो "गौरी" से मिला था।
शाम हो चुकी थी। गौरी कॉलेज के पहले दिन की सारी बातें अपनी नानी और मौसी को सुना रही थी। तभी उसे कुछ याद आया और वो अपने कमरे में जा कर अपना बैग टटोलने लगी। वो अपना फोन ढूंढ रही थी ताकि कॉलेज में ली हुई तस्वीरें उन दोनों को दिखा सके।
मगर तभी उसके हाथ रुक गए... उसके बैग में फ़ोन और किताबों के अलावा कुछ और भी रखा हुआ था।
उसने झट से उसे बाहर निकाला और पाया कि वो एक शिव-पार्वती के चित्रों वाली कलरिंग बुक थी जिसके पहले पन्ने पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था, ' गौरी भट्ट', उसका अपना नाम ! यह अचानक यहाँ पर कहाँ से आ गई?
वो जल्दी-जल्दी पन्ने पलटने लगी। शुरुआत के पन्नो पे तो सभी चित्रों पर रंग भरे हुए थे लेकिन बाद के पन्नों पर सिर्फ पार्वती जी के चित्र पर रंग था, शिवजी पर नहीं! और उसके मस्तिष्क में अधूरे रंगों वाली यादें उमड़ने लगीं।
***
झील के किनारे स्थित वो एक भव्य, विशाल सा मन्दिर था। भीतर गर्भगृह में गौरी-शंकर की सुंदर प्रतिमाएं स्थापित थीं। बीच मे बना आंगन भक्तिमय सहगान से गूंज रहा था। सुबह का समय था। मन्दिर के चारों ओर बने वृक्षों से हल्की धूप अमरबेल-सी लिपटी थी। वहीं एक पेड़ की छाँव में वो घुँघराले बाल, भूरे और तांबे के मिश्रित रंग की आँखों, और गोरी रंगत वाला बच्चा घुटनों पर सिर टिकाए बैठा था जिसकी उम्र कुछ दस वर्ष ही रही होगी। वो वहाँ आने वाले सभी भक्तजनों को बाहर से ही देख रहा था...!
वो भी तो अंदर जा सकता था, सबकी मनोकामना पूरी होती थी वहाँ, क्या पता उसकी भी हो जाती। मगर मांगेगा क्या?
क्या अपने माता-पिता को वापस मांगे जिन्हें वो दो महीने पहले ही मुखाग्नि देकर आया है! या उन मामा से छुटकारा मांगे जिन्होंने उसके बालमन में कल्पनाओं और सपनों की फसल उपजने से पहले ही उसे डर और घृणा से छल्ली कर दिया था और जिनके घर के अलावा उसके पास जाने के लिए कोई दूसरा ठिकाना न था!... फ़िर अनायास ही उसके कदम मन्दिर की ओर बढ़ने लगे और वो भी आंगन की उस भीड़ में शामिल हो गया।
एक यही करुणाकर तो थे जो इतने शोर में भी उसकी वो विनती सुन सकते थे जो उसने की भी नहीं थी। उसने हाथ जोड़कर आँखे बंद कर लीं और उसे अपनी पीठ के ठीक हो चुके घाव में भी दर्द होने लगा जो कि उसके कंस जैसे मामा की ही देन थी। एका-एक ही उसकी आँखों से अश्रुधारा बह चली, पर फिर एक आवाज़ ने उसकी भीग चुकी आंखें खोल भी दीं, "तुम रो क्यों रहे हो?"
उसने तुरंत अपने बगल में खड़ी उस सांवली सी, गहरी भूरी आंखों वाली बच्ची को देखा जिसने ये शब्द कहे थे।
उसने देखा की उस लड़की के गाल पर एक चंद्राकार क्षतिचिन्ह था और वो हाथों में एक कलरिंग बुक लेके खड़ी थी जो शायद उसने पास के बाज़ार से ही खरीदी होगी।
वो उस से कुछ कहता इससे पहले ही वो अपनी मां का हाथ थामे वहां से आगे बढ़ गई और भीड़ में विलीन हो गई।
वो भी बाहर जाने को हुआ ही था कि कुछ उसके पांव के नीचे आ गया। उसने देखा की वो एक मोरपंख था जो कुछ देर पहले उस बच्ची की कलरिंग बुक से झांक रहा था। उसने उसे उठा लिया और वापस उसी पेड़ के नीचे जा बैठा।
दोपहर से कब शाम हुई और शाम से कब रात घिर आई पता भी न चला। वो अब बस अड्डे पर खड़ा था जहां सुबह उसकी बस आके रुकी थी। पेट में शोर मचाती भूख का न उसे ध्यान था और न उपाय।
अपनी गुल्लक खोल कर वो उस नर्क से भाग तो आया था और संयोग से पहुंचा भी उसके पास था जिसकी शरण में हर कोई पनाह पाता है, मगर एक बच्चे की हिम्मत कितनी ही देर टिकती।
उसके पास कुछ ही पैसे बचे थे जिनसे वो उसके शहर जाने वाली आखिरी बस का किराया देता जो कुछ ही देर में रवाना होने वाली थी...
वो शहर जहां अब उसका अपना कोई नहीं था। फिर सहसा ही उसका हाथ अपनी जेब में चला गया और मुलायम सा रंग बिरंगा मोर पंख बाहर आ गया। वो उसे यूँ ही कुछ पल निहारता रहा। कुछ देर में आखिरी बस भी चली गई और वो उसे जाता हुआ देखता रहा। न जाने कहां से उसमें इतना साहस आ गया था कि उसने ठान लिया कि अब वो वापस वहां नहीं जाएगा जहां उसे ढूंढने वाला तक कोई न है।
वो वापस वहीं मंदिर के पास आ गया। उधर ही कुछ ढाबे वगैरा भी बने थे जो देर रात तक खुले रहते थे। माहौल उधर अच्छा ही था क्योंकि ज्यादातर लोग वहां तीर्थ पे ही आते थे। उन्हीं में से एक ढाबे में जाके उसने अपनी छोटी सी गुल्लक उड़ेल दी और छनछनाते सिक्के बाहर आ गए। ढाबे का मालिक उसे हैरानी से देख रहा था। उसने प्यार से पूछा, "मम्मी-पापा कहां है ?"
"नहीं हैं, भगवान जी के पास चले गए।"
"इधर किसके साथ आया ?"
"अकेले !", उस बच्चे ने सपाट लहजे में कहा।
ढाबे वाले ने एक बार उस बच्चे को और फिर उन सिक्कों को देखा। पैसे कम ही रहे होंगे मगर फिर भी उसने कुछ नहीं कहा और उसे अपने सबसे पास वाली बैंच पर बिठा दिया और एक लड़के को बुलाके दाल- रोटी लाने को कह दिया।
"नाम क्या है तेरा?" उस ढाबे वाले ने पूछा।
"शिव.. शिव शुक्ला।"
और तभी कुछ दूर की मेज़ से एक बच्ची का स्वर उसके कानों में पढ़ा, "ममा मैंने उसे बुक में ही रखा था पर अब नहीं है!" और शिव ने उस आवाज़ को साफ पहचाना ! यह उस बच्ची की थी जिससे वो सुबह मिला था। उसने झटके से मुड़कर देखा और उसे वो दिख गई।
हुआ यह था कि वो अपनी वही कलरिंग बुक खोले बैठी थी और उसमें से वो मोरपंख गायब था जिसे उसने बड़े चाव से खरीदा और बुक में सजाया था।
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झील के किनारे स्थित वो एक भव्य, विशाल सा मन्दिर था। भीतर गर्भगृह में राधे-कृष्ण की सुंदर प्रतिमाएं स्थापित थीं। बीच मे बना आंगन भक्तिमय सहगान से गूंज रहा था। सुबह का समय था। मन्दिर के चारों ओर बने वृक्षों से हल्की धूप अमरबेल-सी लिपटी थी। वहीं एक पेड़ की छाँव में वो घुँघराले बाल, भूरे और तांबे के मिश्रित रंग की आँखों, और गोरी रंगत वाला बच्चा घुटनों पर सिर टिकाए बैठा था जिसकी उम्र कुछ दस वर्ष ही रही होगी। वो वहाँ आने वाले सभी भक्तजनों को बाहर से ही देख रहा था...! वो भी तो अंदर जा सकता था, सबकी मनोकामना पूरी होती थी वहाँ, क्या पता उसकी भी हो जाती। मगर मांगेगा क्या?
क्या अपने माता-पिता को वापस मांगे जिन्हें वो दो महीने पहले ही मुखाग्नि देकर आया है! या उन मामा से छुटकारा मांगे जिन्होंने उसके बालमन में कल्पनाओं और सपनों की फसल उपजने से पहले ही उसे डर और घृणा से छल्ली कर दिया था और जिनके घर के अलावा उसके पास जाने के लिए कोई दूसरा ठिकाना न था!... फ़िर अनायास ही उसके कदम मन्दिर की ओर बढ़ने लगे और वो भी आंगन की उस भीड़ में शामिल हो गया। एक यही करुणाकर तो थे जो इतने शोर में भी उसकी वो विनती सुन सकते थे जो उसने की भी नहीं थी। उसने हाथ जोड़कर आँखे बंद कर लीं और उसे अपनी पीठ के ठीक हो चुके घाव में भी दर्द होने लगा जो कि उसके कंस जैसे मामा की ही देन थी। एकाएक ही उसकी आँखों से अश्रुधारा बह चली, पर फिर एक आवाज़ ने उसकी भीग चुकी आंखें खोल भी दीं, "तुम रो क्यों रहे हो?"
उसने तुरंत अपने बगल में खड़ी उस सांवली सी, गहरी भूरी आंखों वाली बच्ची को देखा जिसने ये शब्द कहे थे। उसने देखा की उस लड़की के गाल पर एक चंद्राकार क्षतिचिन्ह था और वो हाथों में एक कलरिंग बुक लेके खड़ी थी जो शायद उसने पास के बाज़ार से ही खरीदी होगी।
वो उस से कुछ कहता इससे पहले ही वो अपनी मां का हाथ थामे वहां से आगे बढ़ गई और भीड़ में विलीन हो गई।
वो भी बाहर जाने को हुआ ही था कि कुछ उसके पांव के नीचे आ गया। उसने देखा की वो एक मोरपंख था जो कुछ देर पहले उस बच्ची की कलरिंग बुक से झांक रहा था। उसने उसे उठा लिया और वापस उसी पेड़ के नीचे जा बैठा।
दोपहर से कब शाम हुई और शाम से कब रात घिर आई पता भी न चला। वो अब बस अड्डे पर खड़ा था जहां सुबह उसकी बस आके रुकी थी। पेट में शोर मचाती भूख का न उसे ध्यान था और न उपाय।
अपनी गुल्लक खोल कर वो उस नर्क से भाग तो आया था और संयोग से पहुंचा भी उसके पास था जिसकी शरण में हर कोई पनाह पाता है, मगर एक बच्चे की हिम्मत कितनी ही देर टिकती। उसके पास कुछ ही पैसे बचे थे जिनसे वो उसके शहर जाने वाली आखिरी बस का किराया देता जो कुछ ही देर में रवाना होने वाली थी... वो शहर जहां अब उसका अपना कोई नहीं था। फिर सहसा ही उसका हाथ अपनी जेब में चला गया और मुलायम सा रंग बिरंगा मोर पंख बाहर आ गया। वो उसे यूँ ही कुछ पल निहारता रहा। कुछ देर में आखिरी बस भी चली गई और वो उसे जाता हुआ देखता रहा। न जाने कहां से उसमें इतना साहस आ गया था कि उसने ठान लिया कि अब वो वापस वहां नहीं जाएगा जहां उसे ढूंढने वाला तक कोई न है।
वो वापस वहीं मंदिर के पास आ गया। उधर ही कुछ ढाबे वगैरा भी बने थे जो देर रात तक खुले रहते थे। माहौल उधर अच्छा ही था क्योंकि ज्यादातर लोग वहां तीर्थ पे ही आते थे। उन्हीं में से एक ढाबे में जाके उसने अपनी छोटी सी गुल्लक उड़ेल दी और छनछनाते सिक्के बाहर आ गए। ढाबे का मालिक उसे हैरानी से देख रहा था। उसने प्यार से पूछा, "मम्मी-पापा कहां है ?"
"नहीं हैं, भगवान जी के पास चले गए।"
"इधर किसके साथ आया ?"
"अकेले !", उस बच्चे ने सपाट लहजे में कहा।
ढाबे वाले ने एक बार उस बच्चे को और फिर उन सिक्कों को देखा। पैसे कम ही रहे होंगे मगर फिर भी उसने कुछ नहीं कहा और उसे अपने सबसे पास वाली बैंच पर बिठा दिया और एक लड़के को बुलाके दाल- रोटी लाने को कह दिया।
"नाम क्या है तेरा?" उस ढाबे वाले ने पूछा।
"पार्थ.. पार्थ उपाध्याय।"
और तभी कुछ दूर की मेज़ से एक बच्ची का स्वर उसके कानों में पढ़ा, "ममा मैंने उसे बुक में ही रखा था पर अब नहीं है!"
और पार्थ ने उस आवाज़ को साफ पहचाना ! यह उस बच्ची की थी जिससे वो सुबह मिला था।
उसने झटके से मुड़कर देखा और उसे वो दिख गई। हुआ यह था कि वो अपनी वही कलरिंग बुक खोले बैठी थी और उसमें से वो मोरपंख गायब था जिसे उसने बड़े चाव से खरीदा और बुक में सजाया था।
पार्थ ने अपनी जेब में हाथ डाला और उस मेज़ की ओर बढ़ गया।
वो बच्ची अब भी बुझा हुआ चहरा लेकर बैठी थी जब पार्थ ने उसके सामने जाकर वो मोरपंख आगे कर दिया। उस बच्ची के चहरे पर फिर से मुस्कान आ गई और उसके मुख से अस्पष्ट सा 'थैंक्यू' निकल गया।
अगले दिन वो फिर उस मन्दिर के पास बने एक बागीचे में गुमसुम सा बैठा था। उन 'ढाबे वाले अंकल' ने कितने फोन किये थे उसके 'घर' पर, मगर उनमें से एक भी नहीं उठाया गया था।
बेशक उसे अपने मामा बिलकुल पसंद नहीं थे मगर फिर भी इतनी बेरुखी और नफ़रत उसका बालमन कहाँ सह पाता !
तभी वहाँ वही बच्ची आ गई और उसे पुकारने लगी, "सुनो, तुम वही हो न जिसने मेरा मोरपंख ढूँढ़ा था?" पार्थ ने धीरे से सिर हिला दिया !
"मेरे साथ झूला झूलोगे?" वो पास बने सी-सौ की तरफ़ इशारा करते हुए बोली। वहाँ और भी झूले थे जिनसे वो पहले ही ऊब गई थी। उसके माता-पिता भी वहीं एक बेंच पर बैठे थे।
पार्थ, जो अब तक उदास बैठा था, वो अब मुस्कुराते हुए जल्दी से उठ गया और झूले की ओर बढ़ गया। पूरे दो महीने बाद उस बच्चे के अंदर का बचपन फिर से जाग गया था।
शिव ने अपनी जेब में हाथ डाला और उस मेज़ की ओर बढ़ गया।
वो बच्ची अब भी बुझा हुआ चेहरा लेकर बैठी थी जब शिव ने उसके सामने जाकर वो मोरपंख आगे कर दिया। उस बच्ची के चहरे पर फिर से मुस्कान आ गई और उसके मुख से अस्पष्ट सा 'थैंक्यू' निकल गया।
अगले दिन वो फिर उस मन्दिर के पास बने एक बग़ीचे में गुमसुम सा बैठा था। उन 'ढाबे वाले अंकल' ने कितने फोन किये थे उसके 'घर' पर, मगर उनमें से एक भी नहीं उठाया गया था। बेशक उसे अपने मामा बिलकुल पसंद नहीं थे मगर फिर भी इतनी बेरुखी और नफ़रत उसका बालमन कहाँ सह पाता !
तभी वहाँ वही बच्ची आ गई और उसे पुकारने लगी, "सुनो, तुम वही हो न जिसने मेरा मोरपंख ढूँढ़ा था?"
शिव ने धीरे से सिर हिला दिया !
"मेरे साथ झूला झूलोगे?" वो पास बने सी-सौ की तरफ़ इशारा करते हुए बोली। वहाँ और भी झूले थे जिनसे वो पहले ही ऊब गई थी। उसके माता-पिता भी वहीं एक बेंच पर बैठे थे।
शिव, जो अब तक उदास बैठा था, वो अब मुस्कुराते हुए जल्दी से उठ गया और झूले की ओर बढ़ गया। पूरे दो महीने बाद उस बच्चे के अंदर का बचपन फिर से जाग गया था।
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गौरी अपने ख्यालों में अब भी डूबी थी, उस बात को आठ साल बीत गए थे। उसे यूँ तो ज़्यादा कुछ याद नहीं था मगर इस कलरिंग बुक ने सब याद दिला दिया था....
जब वो गर्मियों की छुट्टी में अपने ननिहाल आई थी, और लगभग रोज़ दो किलोमीटर दूर बने उस मन्दिर में जाया करती थी। वो पहले भी कई बार यहाँ आई थी मगर उस बार तो उसमें अलग ही उत्साह रहता था, आखिर उसे एक प्यारा सा दोस्त जो मिल गया था...
जो स्कूल के दोस्तों की तरह उसके साँवले रंग को चिड़ाता न था, जो घण्टों उसके साथ झूले झूलता था, उन पावन गलियों में रेस लगाता था, उसके साथ बैठ कर उस कलरिंग बुक में रंग भरता था। उनका नियम था कि पार्वती जी में रंग शिव भरेगा और शिवजी में गौरी।
आज पार्वती जी के चित्र में तो रंग सजे थे मगर शिवजी अब भी 'अधूरे' थे। उसे याद आया कि जब वो वहाँ से जा रही थी तब उसने अपनी बुक वहीं छोड़ दी थी और आखिरी पन्ने पर एक नोट भी छोड़ा था कि वो फिर मिलेंगे। मगर उसकी नानी पास के दूसरे शहर अपनी बेटी के साथ यानि की यहाँ रहने आ गई और वो दिन कभी आया ही नहीं।
मगर अब तो शिव वापस आ गया है और पक्का उसके कॉलेज में है, मगर वो उसे पहचानेगी कैसे? और इस 'कैसे' का जवाब उसे शीघ्र ही मिल गया।
अगले दिन कॉलेज में कैंटीन जाने से पहले उसने जान बूझ कर अपनी किताब से मोरपंख टेबल पर गिरा दिया और वैसा ही हुआ जैसा उसने सोचा था। शिव के अलावा किसी का ध्यान नहीं गया उस पर ! शिव ने फटाक से मोरपंख उठाया और अपनी गौरी के पास पहुँच गया।
गौरी वहीं कैंटीन की एक मेज़ पर ठीक आठ साल पहले की तरह बुझा हुआ चेहरा लेकर बैठी थी और शिव भी उसी मासूमियत से उसके सामने आया और मोरपंख आगे बढ़ा दिया। दोनों कुछ देर एक दूसरे को देखते रहे और फिर एक साथ खिलखिला उठे।