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अवनी पर प्रत्येक संध्या के पश्चात् तमस् उतर आता है। अनेक ऐसी संध्याओं के पश्चात एक संध्या आइ जो कुछ विशिष्ट थी। सूर्य अभी अभी अस्त हुआ था। समुद्र के ऊपर गगन को जाते हुए सूर्य ने अपनी लालिमा से भर दिया था। उसे देख गुल प्रसन्न हो रही थी। उसके दर्शन से उसे कैवल्य का स्मरण हो आया। वह लालिमा उसे अपने प्रति आकर्षित कर रही थी। उसे लगा जैसे वैकुंठ लोक से उसे कोई पुकार रहा है। उसके मन में विचारों का प्रवाह बहने लगा, ‘कैवल्य तो मोक्ष का नाम है।मोक्ष मृत्यु के पश्चात् प्राप्त होती है। यह लालिमा मुझे आज वैराग्य की अनुभूति क्यों करा रहा है? ऐसी लालिमा को मैं सदैव देखती हूँ किंतु आज की लालिमा का दर्शन कुछ भिन्न है, अनन्य है। इस अल्प आयु में मुझे मोक्ष का आकर्षण क्यों हो रहा है? क्या समय आ गया है इस संसार को, इस पार्थिव शरीर को त्यागने का? आज मेरे साथ यह क्या हो रहा है?’
‘गुल तुम कई दिनों से वेदांग को पढ़ रही हो। कैवल्य को पढ़ रही हो। उस पर अधिक विचार कर रही हो। जिस विषय में हम अधिक विचार करते हैं वह हमारे चित्त पर प्रभाव डालता है। बस यही कारण है। तुम निश्चिंत रहो, तुम्हारे मोक्ष का समय अभी नहीं आया है।’
‘तो क्या यह सब भ्रम है?’
‘ब्रह्म को जान लो, ब्रह्म के शरण में जाओ। सभी भ्रम नष्ट हो जाएँगे। मृत्यु का नहीं जीवन का विचार करो।’
कुछ सीमा तक गुल ने अपने विचारों को त्याग दिया। वह आश्वस्त हो गई। उसने समुद्र के ऊपर व्याप्त नभ पर दृष्टि डाली।वहाँ लालिमा खंडित हो गई थी, लुप्त होने लगी थी। गुल के मन से भी विचार लुप्त हो गए थे। वह घर जाने लगी।
जाते जाते उसने पुन: नभ को देखा। वहाँ लालिमा नहीं थी किंतु कालिमा के आगमन के संकेत थे। वह पुन: भय से ग्रस्त हो गई। उसने कृष्ण का, महादेव का स्मरण किया। घर चली गई।
घर के आस पास शून्यता व्याप्त थी। घर के बाहर मज़हब के कुछ लोग खड़े थे। सभी के मुख पर कड़ी रखाएँ थी। उनके हाथों में शस्त्र थे। ख़ंजर, तलवार, लाठी तथा एक के हाथ में रिवोल्वर भी थी। गुल ने घर की तरफ़ देखा। द्वार बंद था। खिड़की भी बंद थी। गुल सचेत हो गई, किसी चट्टान के पीछे छुपने लगी। किंतु उन लोगों में से किसी ने उसे देख लिया।
वह चिल्लाया, “वह लड़की वहाँ है।” सबकी आँखें गुल की तरफ़ मूडी। क्षणभर में गुल ने स्थिति को समजा और दौड़ पड़ी समुद्र की तरफ़। वह लोग गुल के पीछे दौड़े।
गुल तीव्र गति से समुद्र की तरफ़ दौड़ रही थी। उसके मन में कोई योजना नहीं थी कि वह क्या करेगी? कैसे बचेगी? वह बस दौड़े जा रही थी। वह लोग भी पीछे दौड़ रहे थे किंतु गुल की गति उन लोगों की गति से अधिक तीव्र थी। गुल उन लोगों से दुर निकल गई।
उन लोगों के घर से हटते ही गुल के पिता ने द्वार खोला। गुल की माँ की तरफ़ देखा, संकेतों में कुछ कहा जिसकी उसने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी।वह समुद्र की तरफ़ दौड़े। माँ उसके पीछे नहीं गई।उस पर एक दृष्टि डालकर, उसे वहीं छोड़कर वह तीव्र गति से भागे।उसने गुल का पीछा करते हुए लोगों को पूरी शक्ति से ललकारा।
कुछ लोग रुके, मुड़े और गुल के पिता की ललकार का उत्तर देने उस तरफ़ बढ़े। बाक़ी अभी भी गुल का पीछा कर रहे थे। गुल कहीं दूर निकल चुकी थी। वह भड़केश्वर मंदिर की तरफ़ गई और बहते सागर में कूद गई। तैरती हुई समुद्र की कन्दराओं की तरफ़ जाने लगी।पीछा कर रहे कुछ लोग भी समुद्र में कूद पड़े। गुल ने उनको देखा। गुल ने समुद्र के भीतर डुबकी लगाई। उन लोगों ने यह देखा। वह लोग उस दिशा में तैरने लगे।गुल ने जिस बिंदु पर डुबकी लगाई थी उस स्थान को उन्होंने घेर लिया।
“अब गुल बचकर नहीं जा सकती।” कोई बोला। गुल के पानी से बाहर आने की प्रतीक्षा करने लगे। “कब तक पानी में रहेगी? अभी बाहर आते ही ….।”
अधिक समय के उपरांत भी गुल पानी से बाहर नहीं आइ। सब तरफ़ देखा उन्होंने किंतु गुल कहीं नहीं दिखाई दी।
“कहाँ चली गई? यहीं कहीं होगी।चलो पुन: खोजो।” सबने डुबकी लगाई किंतु गुल कहीं नहीं दिखी। अत्यंत प्रयास के उपरांत भी गुल ना मिली तो हारकर सब लौट गए।
गुल के पिता के पीछे कुछ लोग भागे। गुल के पिता ने उन लोगों का प्रतिकार करने का प्रयास किया। स्वयं को बचाते बचाते वह घायल हो गए। शक्ति क्षीण होने लगी। तथापि वह लड़ते रहे। अन्तत: वह थक गए। स्वयं को बचाने के अंतिम प्रयास के रूप में वह समुद्र की तरफ़ दौड़े, भीतर कूद गए। वह लोग भी भीतर कूदे। वह उन लोगों से दुर रहने का प्रयास करते रहे किंतु वह लोग अधिक से अधिक समीप आते गए। वह उन लोगों से घिर गए। प्रतिरोध का अंतिम प्रयास करते हुए वह समुद्र के अधिक भीतर गए।वह उन लोगों से दूर निकल गए। उन लोगों का वहाँ पहुँचना सम्भव नहीं रहा तो किसी ने उसे गोली मार दी।
धड़ाम ….
धड़ाम ….
धड़ाम…..
गोली की ध्वनि प्रतिध्वनि समुद्र पर व्याप गई। दूर कहीं गुल ने भी उसे सुना। वह वहीं बैठ गई।समुद्र के पानी पर लालिमा प्रसर गई। वैसी ही लालिमा जो कुछ समय पूर्व गुल ने पश्चिम आकाश में देखी थी। गुल ने आकाश को देखा। वहाँ अब कालिमा का साम्राज्य था। वह जहां थी वहीं बैठ गई। भय से ग्रस्त हो गई। उसे रुदन करने का मन हुआ, खूब रुदन करने का मन, पूरी तीव्रता से रुदन करने का मन। किसी प्रकार उसने अपने मन को रोका। मौन अश्रु स्वतः बहने लगे। वह अश्रु समुद्र में मिलने लगे।
समुद्र!
वह उसी निर्लेपता को ओढ़े बह रहा था, गर्जन कर रहा था। गुल के दुःख से, गुल के अश्रुओं से, गुल के पिता के रक्त से, उसके स्तर पर व्याप्त लालिमा से, आकाश में छाई कालिमा से वह अल्पमात्रा में भी प्रभावित नहीं हुआ, विचलित नहीं हुआ। समुद्र के इस रूप को देखकर गुल को क्रोध आया। एक मुष्टि प्रहार कर दिया समुद्र पर। समुद्र अभी भी निर्लेप था, स्थितप्रज्ञ था। गुल वहीं रुक गई। रात्रि के व्यतीत होने की प्रतीक्षा करने लगी।
वह टोली गुल के घर लौटी। गुल की माँ वहीं प्रतीक्षारत खड़ी थी। गोलियों की ध्वनि उसने भी सुनी थी। उसे पूरा विश्वास था कि उसके पति को इन लोगों ने मार दिया है। टोली में से किसी ने इस बात की पुष्टि के संकेत दिए। गुल की माँ को अब कोई संदेह नहीं रहा। उसने पूछा, “और गुल?”
“वह समुद्र में डूब गई।” उत्तर सुन उसने संतोष की गहन साँस ली। उसने संकेत दिया और गुल की माँ उसके साथ चल पड़ी।
“मैं तुम्हारी चौथी बीवी बनने को तैयार हूँ।”
गुल का घर अब मौन हो गया।