भारत की रचना / धारावाहिक
बारहवां भाग
फिर रचना चुपचाप जाकर अपनी कक्षा में बैठ गई. ज्योति भी अभी तक भीं आई था. वैसे वह ज्योति की आदत जानती थी. अवश्य ही वह कहीं बातों में व्यस्त हो चुकी होगी. उसके साथ की अन्य लड़कियां भी अभी तक कक्षा में नहीं आ सकी थीं. रचना का मन अब यूँ भी कॉलेज में उचाट होने लगा था. कॉलेज में रहने का उसे कोई बहाना भी नज़र नहीं आता था. भारत की प्रतीक्षा और उसकी चाहत में बिछी हुई रचना की आँखें केवल स्मृतियों के सहारे किसी आस पर रोज़ ही प्रतीक्षा करती थीं. एक प्रकार से भारत के प्रति उसका मन में बसा हुआ प्यार भी अब मात्र उसके दिल का ऐसा बनकर चुप हो गया था कि जिसका बयान भी वह आसानी से नहीं कर सकती थी.
तब अंत में जब रचना का मन नहीं लगा और ज्योति भी नहीं आई, तो वह अपना ज्योति के लिए संदेश एक अन्य लड़की को बताकर कि वह हॉस्टल जा रही है, वापस हॉस्टल में आ गई. शरीर से वह बीमार हो ही चुकी थी, अब मन सड़ भी वह परेशान रहने लगी थी. इसलिए हॉस्टल आकर वह दो दर्द की गोलियां निगलने के उपरान्त तुरंत ही बिस्तर पर जाकर सो गई. वैसे भी जब मनुष्य मन और मस्तिष्क दोनों ही से थका हुआ होता है, तो शीघ्र ही उसको नींद भी आ जाती है.
रचना कब सो गई, उसे पता भी नहीं चला. उसके दिल में भारत की याद इसकदर थी कि, शीघ्र ही वह उसके सपनों की दुनिया में विचरने लगी. अक्सर उसको भारत याद आता था. हर समय वह और उसकी अतृप्त आँखें 'भारत की खोज' में व्याकुल रहती थीं. विशेषकर उन दिनों में जब कि, रॉबर्ट आकर उस पर अकारण ही अपना अधिकार जमाने की कोशिश करने लगा था. तब रचना सोचती थी कि यदि भारत भी ऐसे में कॉलेज में होता, तो वह अवश्य ही उसकी सहायता करता. ये आवश्यक नहीं था कि, 'भरत' उसको प्यार करता हो, तब ही वह उसकी रक्षा करे, यूँ भी 'भारत' की सरहदें तो सदा ही अपनी 'रचनाओं' की हिफाजत के लिए सुरक्षित खड़ी रही हैं.
विचारों और ख्यालों के पर्दे पर जब चित्र बनने लगे तो रचना फिर एक बार जाकर ज्योति को ढूँढने लगी. ढूँढने का कारण भी विशेष यही था कि वह रॉबर्ट से हुई सारी बातें उसको शीघ्र ही बता देना चाहती थी. रचना अभी ज्योति को ढूंढ ही रही थी और ज्योति उसको मिलती, उससे पूर्व कोई और अचानक से उसके साम्न्बे आ गया. रचना अचानक ही उसे देखकर ठिठक तो गई, परन्तु झिझक के कारण उसे वहां पर रुकते भी नहीं बन सका- क्योंकि उसकी आँखों के सामने भारत खड़ा था- अपने गम्भीर चेहरे और दूर सारी दुनियां की दूरियाँ नापती हुईं अपनी कीर्तिमान आँखों के साथ- उसके कंधों पर झूलते हुए लम्बे-लम्बे बाल, जो हल्की वायु की एक लहर के प्रभाव से ही, उसकी आँखों न की कोरों को चूमने का असफल प्रयास करने लगते थे.
'शायद मुझको ऐसे आपके सामने नहीं आना चाहिए था?' भारत ने रचना की घबराहट-भरी परेशानी को समझते हुए कहा.
'जी. . .?' रचना के चेहरे पर फिर भी परेशानी के भाव थे.
'मैं यहाँ से गुज़र रहा था, तभी आपको एक तनाव के रूप में उन दोनों लड़कों से बात करते हुए देखा तो नज़रअंदाज़ नहीं कर सका था. मैंने आप लोगों के मध्य तो जाना नहीं समझा, पर वार्तालाप की नजाकत कहीं अधिक न बढ़ जाए, इसलिए बहुत चाहा कर भी जा सका था.'
भारत ने अपने आने का कारण बताया, तो रचना भी एक बार को गम्भीर हो गई. उसने एक नज़र पहले तो भारत को निहारा, थोड़ा सोचा, फिर उससे बोली,
'ये सब तो ठीक है लेकिन, . . .'
'लेकिन क्या?' भारत ने त्युर्न्त ही पूछा.
'ऐसे आप कब तक मेरा ख्याल करते रहेंगे?' जाने किस भावावेश में रचना कह गई.
'जब तक एक मनुष्यता को दूसरी मनुष्यता की आवश्यकता पड़ती रहेगी, तब तक.'
'?'- भारत के इस उत्तर पर तब रचना खामोश हो गई. तब भारत ने आगे कहा कि,
'मैं एक बात पूछना चाहता हूँ आपसे?'
'जी. . .पूछिए?' रचना थोड़ा सकुचाई.
'इन लड़कों से आपका क्या सम्बन्ध है?'
'?'- भारत के इस अप्रत्याशित प्रश्न को सुनकर रचना चौंकी तो, परन्तु विचलित नहीं हुई. उसने गम्भीरता से भारत को उत्तर दिया. वह बोली कि,
'जब कोई सम्बन्ध नहीं होता है, तब भी तो एक सम्बन्ध होता है. नापसन्दी और अरुचिता का.'
'मैं आपका आशय समझ नहीं सका? थोड़ा विस्तार में बताने का कष्ट करेंगी?' भारत ने कहा तो रचना बोली,
'रॉबर्ट जॉर्ज की मां ईसाई मिशन की निदेशक है और उसकी सगी मौसी मेरी हॉस्टल की वार्डन है और मैं मिशनवालों की मोहताज़ हूँ.'
'ठीक है, लेकिन इसका यह मतलब तो नहीं है कि, आप रॉबर्ट के इशारों जब चाहें तब नाचती रहें?' भारत ने उसको समझाया और वास्तविकता बताई तो रचना बोली,
'रॉबर्ट की मां और उसकी मौसी, जो मेरी वार्डन है, ये दोनों मुझको रॉबर्ट से विवाह करने पर अपना प्रभाव ड़ाल रही हैं.'
रचना ने अपनी विवशता बताई तो भारत भी जैसे उछल-सा पड़ा. वह आश्चर्य से थोड़ा क्रोध में आ गया और रचना से बोला,
क्या आपको मालुम है कि रॉबर्ट और रामकुमार वर्मा, दोनों ही इस शहर के छंटे हुए बदमाश हैं. ये वे लोग हैं कि जिनका न तो अपनी दृष्टि में और न ही समाज में कोई 'स्टैट्स' है.'
मैं जानती हूँ.'
'जानती हैं, फिर भी. . .?'
'इस दलदल से कैसे निकलूँ और निकलकर कहाँ जाऊं?'यही दिन-रात सोच-समझकर घुलती रहती हूँ मैं.'
'आप चाहेंगी, तो मैं रॉबर्ट से बात करूं. मैं वायदा करता हूँ कि वह उस रास्ते पर कभी नहीं गुजरेगा, जिस पर आपके कदम पड़ेंगे.'
भारत ने कहा तो रचना बोली,
'जी नही. इससे बेमतलब बात और बढ़ेगी और फिर वे लोग आपको भी नाहक परेशान कर उठेंगे.' रचना ने कहा तो भारत ने अपनी सलाह दी. वह बोला,
'तो फिर एक काम करिएगा, कि जब भी रॉबर्ट यहाँ दिखाई दे, तभी आप मेरे आस-पास आ जाया करिएगा. बाद में तो मैं सब संभाल लूंगा. मेरा मतलब है कि, उसको यह ज़ाहिर होना चाहिए कि, जैसे आप मुझमें दिलचस्पी ले रहीं हैं.'
'इससे भी कोई हल नहीं निकल सकेगा. वह अपनी आंटी से कहकर मुझे और भी अधिक परेशान करवाने लगेगा.'
इस पर भारत थोड़ा गम्भीर हो गया और कुछेक पलों के पश्चात उससे बोला,
'तो फिर एक ही चारा है.'
'वह क्या?'
'आप खामोशी से अपना समय पास करिये, कॉलेज की शिक्षा पूरी करिये और पहले अपने पैरों पर खड़ी हो जाइए. इस बीच यदि फिर भी पानी सिर से ऊपर पहुंचने लगे तो नि:संकोच मुझे सूचित करें. फिर तो मैं ही कोई हल निकालूँगा.'
'आप तब क्या करेंगे?' रचना ने पूछा.
'यकीन रखिये कि, जो कुछ भी करूंगा, निस्वार्थ भाव से करूंगा, यही सोचकर कि, कैसे भी आपके जीवन की भटकती हुई नैया को एक सही किनारा मिल जाए. मेरे सामने खड़ी हुई, ये मासूम, भोली-भाली 'रचना' कहीं टूट-फूटकर बिखर न जाए, इसलिए उसकी रक्षा करना चाहता हूँ.'
'?'- खामोशी.
तब रचना आगे कुछ भी नहीं कह सकी. बस चुपचाप कभी भारत के चेहरे को, तो कभी गार्डन में इधर-उधर देखने की चेष्टा करने लगी. इसी बीच भारत ने आगे कहा कि,
'अच्छा, आपका मैंने बहुत समय ले लिया और कक्षा भी आरम्भ होनेवाली है. मैं अब चलता हूँ. कभी भी अपने को अकेला मत समझिएगा.'
यह कहकर भारत उसके पास से चला आया और रचना उसे अपलक, जाते हुए देखती रही. गुमसुम, चुपचाप, खामोश, अकेली-सी.
फिर रचना के कुछेक पल ऐसे ही सपनों के ख्यालों में कब व्यतीत हो गये, उसे कुछ पता भी नहीं चल सका. वह कुछ और सोचती कि, तभी उसके कंधे पर किसी ने अपना कोमल, पतला-सा हाथ रख दिया. रचना ने तुरंत ही घूमकर चौंकते हुए पीछ्गे की ओर देखा, तो ज्योति उसकी ओर देखकर धीरे-धीरे देखकर मुस्करा रही थी.
'अरी ! तू कब आ गई?' रचनी ने पूछा.
तब ज्योति ने उसकी बात का उत्तर न देकर उसे छेड़ना चाहा. वह उसे कुरेदते हुए बोली कि,
'वह तो कब का चला गया है. अब खड़ी-खड़ी क्यों हाथ मल रही है? क्या फिर आनेवाला है वह?'
'तुझे तो हर समय दिल्लगी ही सूझी रहती है.' रचना ने शिकायत-सी की.
'अरे वाह ! दिल तो तू लगा रही है और दिल्लगी मैं कर रही हूँ.' ज्योति बोली, तो रचना खामोश हो गई. वह कुछ भी नहीं कह सकी, केवल ज्तोती को एक पल निहारकर फिर उसी ओर देखने का प्रयास करने लगी, जिधर भारत जाकर गुम हो गया था.
तब उसकी मनोदशा को भांपकर ज्योति ने अगला तीर छोड़ा. वह व्यंग से बोली,
'हाय ! क्या व्यक्तित्व है? गोरा, चिट्टा, हैंडसम नौजवान-सा. कमबख्त मेरी तरफ तो एक नज़र भी नहीं निहारता है.'
उसकी बात को सुनी-अनसुनी करते हुए रचना ने उससे कहा,
'अच्छा, अब चल. तुझे तो अवसर चाहिए कुछ-न-कुछ बात बनाने का. यह कहकर वह ज्योति का हाथ पकडकर जैसे ही चलने को हुई, तो ज्योति अपना हाथ उससे छुडाते हुए बोली,
'अरे, घंटा तो बजने दे पहले.'
'वह भी बज जाएगा. तू चलना तो शुरू कर.'
तब ज्योति ने चलते हुए पूछा,
'अच्छा, कुछ बतायेगी नही तू, क्या बातें हो रही थीं तेरी?'
'किससे?'
'भारत से. क्या अफ़साना लेकर आया था वह?' ज्योति ने कहा. तब रचना एक लम्बी सांस लेकर बोली,
'उसका क्या अफ़साना होगा. वह तो मेरी दास्तान सुनने आया था.'
'अच्छा, बड़ी ही हमदर्दी दिखा रहा है. कहीं दाल में कुछ काला तो नहीं है?' ज्योति एक संशय से बोली.
'क्या पता? मैं क्या किसी के मन में घुसी रहती हूँ?' रचना ने कहा.
'तू उसके मन में नहीं है तो क्या हुआ, लेकिन वह तो तेरे दिल में हर समय रहने लगा है. वैसे यह बात तू अपने ही मन में रखना. मैं तो यह जानना चाहती थी वह क्या कह रहा था?' ज्योति ने उत्सुकता दिखाई, तो रचना ने आगे कहा कि,
'वह कह रहा था कि, रॉबर्ट और वर्मा, दोंबों अच्छे लड़के नहीं हैं. उसका मतलब था कि, इन दोनों से दूर ही रहा करो.'
'ठीक तो कहता है वह.'
'?'- रचना चुप ही रही.
'और कुछ भी कहा है उसने?' ज्योति ने आगे पूछा.
'कहा है कि, यदि वे दोनों मुझे परेशान करें, तो मैं उसे अवश्य ही बताऊँ.'
'अच्छा !.' ज्योति सुनकर दंग रह गई. फिर थोड़ा रुककर आगे बोली,
'ले, अब भी कुछ और बाक़ी है क्या? वह तो तुझ पर मरमिटा है. अब क्या इरादा है तेरा?'
'अभी कुछ पता नहीं.'
'तो जल्दे से पता कर. ऐसे कार्यों में देर अच्छी नहीं होती है.'
'कैसे कार्यो में?'
'यही कि तू उसको पसंद है कि नहीं?'
'क्या मालुम?'
'तो जल्दी मालूम कर ले?'
'मैं नहीं कर सकती यह सब.' रचना बोली.
'वह क्यों न?'
'मुझे ऐसे मामलों में बदनाम होना अच्छा नहीं लगता है.'
'लेकिन उसके लिए दिन-रात सोचना अच्छा लगता है?'
ज्योति छूटते ही बोली, तो रचना चुप हो गई. उसके चेहरे पर झलकती हुई विवशता, जो उसके प्यार प्रति थी, अपनी मजबूरियों के कारण साफ़ झलकने लगी थी. ज्योति ने यह सब देखा और महसूस किया, तो वह जैसे हथियार डालते हुए बोली,
'अगर नहीं कर सकती ये सब, तो फिर यूँ ही कुढ़-कुढ़कर मरती रह और सारी ज़िन्दगी उस निखट्टू रॉबर्ट को कमा-कमाकर मोटा करती रहना.' ये कहते हुए ज्योति का भी मूंड खराब हो चुका था. रचना भी इसके बाद कुछ नहीं बोली. तभी कॉलेज का घंटा बजने लगा, तो रचना बोली,
'मैं नहीं जाती क्लास में. तू ही चली जा और मुझे अपने 'नोट्स' दे देना.'
'क्यों नहीं जाती?' ज्योति ने पूछा.
'मेरा मूंड नहीं बनता है.' रचना बोली.
'कैसे बनेगा वह, जब मस्तिष्क में प्यार-मुहब्बत के गीत चल रहे हों?' यह कहकर ज्योति ने रचना का हाथ पकड़ा और बोली,
'चल मेरे साथ रोज़-रोज़ कक्षाएं 'मिस' करती रहती है. फेल हो जायेगी तू?' यह कहकर वह रचना का हाथ पकडकर जबरन ले जाने लगी.
'ये क्या करती है तू?' रचना ने अपना हाथ छुडाना चाहा.
'नहीं छोडूंगी मैं . . .'
इसी खींचातानी में रचना की अचानक ही आँख खुल गई. उसने अपने आस-पास देखा, तो ज्योति कॉलेज से वापस आकर उसका हाथ पकडकर उठा रही थी.
'और कितना सोयेगी तू? चाय की घंटी बज रही है. पांच बजने वाले हैं?' ज्योति ने कहा तो रचना अपनी आँखें मलती हुई बोली,
'कितना अच्छा सपना था? बड़ी अच्छी नींद आई, पर तूने जगा दिया?'
;जगा दिया तो अच्छा ही किया. यदि वह वार्डन देख लेगी कि तू बिना बताये कॉलेज 'मिस' करने लगी है, तो कच्चा खा जायेगी तुझे.'
फिर जब दूसरे दिन रचना कॉलेज गई, तो रॉबर्ट फिर उसके सामने खड़ा हुआ था. रचना उसे देखकर चौंकी तो, पर इससे भी अधिक उसे रॉबर्ट पर क्रोध भी आ गया. वह भी इसलिए कि अभी कॉलेज भी आरम्भ नहीं हो सका था और वह वहां पर खड़ा हुआ उसकी प्रतीक्षा कर रहा था. फिर उसे देखते ही रचना उससे खीझकर बोली,
'अब क्या मुसीबत आ गई तुमको?'
'मुझे कुछ और बात करनी है.' रॉबर्ट बोला.
'मैं कोई बात नहीं कर सकती.' रचना ने स्पष्ट मना किया.
'रचना.'
'देखो, रॉबर्ट मैंने तुमसे कितनी ही बार कहा है कि, तुम बार-बार हर समय अपना स्कूल छोड़कर, यहाँ डिग्री कॉलेज में मेरे चारों ओर यूँ चक्कर मत लगाया करो. लोग यूँ देखेंगे, तो तुम्हें तो कोई कुछ नहीं कहेगा, पर मुझे गलत समझने लगेंगे और फिर . . .' रचना कहते-कहते रुक गई. तब रॉब ने रॉबर्ट ने विस्मय से कहा,
'फिर. . .फिर क्या?'
'फिर सब ही मुझ पर दोष लगायेंगे. बातें बनायेंगे और मुझे बदनाम करेंगे.' रचना जैसे बिफ़र गई.
'यूँ तो सीता के चरित्र पर भी संदेह किया गया था. मदर मैरी पर भी लोग अंगुली उठाते हैं.' रॉबर्ट ने तर्क किया तो रचना जैसे और भी परेशान होकर बोली,
'ये दोनों मामूली हस्तियाँ नहीं थीं. मेरी तुलना इनसे मत करो. मैं इन जैसी नहीं हूँ. पहले ही से मेरे माथे पर अनुचित सन्तान होने का कलंक लगा हुआ है. अब यदि और ऐसी बढ़ोत्तरी होगी, तो मैं तो फिर मुंह भी नहीं दिखा सकूंगी.'
'अरे ! तुम तो भावुक होती जा रही हो?' रॉबर्ट उसकी परेशान दशा को भांपकर बोला.
'प्लीज जाओ यहाँ से. मैं तुम्हारे हाथ जोडती हूँ. पैर पकडती हूँ . . .जाओ, प्लीज . . .जाओ.' कहते हुए रचना की आँखों में आंसू झलकने लगे.
तग रॉबर्ट ने उसके दोनों हाथ पकड़ते हुए कहा कि,
'तुम तो बहुत ही उत्तेजित हो गई हो? यदि ऐसी बात है और तुमको मेरा यहाँ आना अच्छा नहीं लगता है, तो . . .'
'यहाँ मत आया करो.'
'?'- अचानक ही दोनों के मध्य रॉबर्ट की अधूरी बात को किसी तीसरे स्वर ने पूरा कर दिया, तो रॉबर्ट के साथ-साथ रचना भी चौंक गई. एक साथ ही दोनों ने उस ओर देखा, जिधर बोलनेवाला खड़ा था, तो रचना उस व्यक्तित्व को देखकर तुरंत ही गम्भीर हो गई, परन्तु रॉबर्ट आश्चर्य किये बगैर नहीं रह सका. बोलनेवाला और रॉबर्ट के मध्य विघ्न डालनेवाला भारत था- रचना का कक्षा सहपाठी.
-क्रमश: